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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

मंजु ने पुलकित गात होकर अस्त-व्यस्त स्वर में कहा-"और श्रेष्ठि पुत्र, मैं लिच्छविराज कुमारी भगवती मंजुघोषा आज से धर्मपूर्वक तुम्हारी पत्नी हुई।"

दिवोदास ने आश्चर्य से उछलकर कहा-“क्या कहा? फिर कहो ? राजकुमारी भगवती मंजुघोषा?"

"किन्तु तुम्हारी चिरकिंकरी प्रियतमा।" उसने दिवोदास की छाती में सिर छिपा लिया। दिवोदास ने उसे कसकर छाती से लगा उसके मुख पर प्रथम चुम्बन अंकित किया।

मंजुघोषा ने अपने आँचल से एक भव्य माला निकालकर कहा-"इसे मैंने नित्य की भाँति अपने देवता के लिए बनाई थी, सो उसे अपनी हार्दिक अभिलाषाओं के साथ हृदय के देवता को अर्पण करती हूँ।"

माला उसने दिवोदास के कण्ठ में डाल दी। दिवोदास ने माला को चूम कर और हँसकर कहा-"यह देव प्रसाद तो भगवान् ही पा सकता है। देखी, यह माला ही हमको एक कर देगी।"

उसने वही माला कण्ठ से उतारकर मंजुघोषा के गले में डाल दी। दोनों खिल-खिलाकर हँस पड़े, और गाढ़ालिंगन में बद्ध हो गए।

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