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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

कोटपाल ने ब्राह्मण के निकट आने पर कहा-"प्रणाम ब्राह्मण देवता।"

गोरख आदर्श ब्राह्मण था। घुटा हुआ सिर और दाड़ी-मूंछ, सिर के बीचोबीच मोटी चोटी। कण्ठ में जनेऊ। शीशे की भाँति दमकता शरीर, मोटी थल-थल तोंद। छोटी-छोटी आँखें, पीताम्बर कमर में बाँधे और शाल कन्धे पर डाले, चार शिष्यों सहित वह नगर चारण को निकला था।

कोटपाल की ओर देख तथा उसके प्रणाम की कुछ अवहेलना से उपेक्षा करते हुए उसने कहा-"अहा, नगर कोटपाल है?" फिर शिष्य की ओर देखकर कहा-"अरे कलहकूट, शीघ्र कोटपाल को आशीर्वाद दे।"

कोटपाल जाति का शूद्र था। राजा का साला अवश्य था-कोटपाल भी था-पर था तो शूद्र। इसी से श्रोत्रिय ब्राह्मण उसे आशीर्वाद नहीं दे सकता था। श्रोत्रिय ब्राह्मण तो राजा ही को आर्शीवाद दे सकता है। इसी से उसने शिष्य की आशीवाद देने की आज्ञा दी।

शिष्य ने दूब जल में डुबोकर कोटपाल के सिर पर मार्जन किया। और आशीर्वाद दिया-

शत्रु बढ़े भय रोग बढ़े, कलवार की हाट पै ठाठ जुड़े।

भडुए रण्डी रस रङ्ग करें निर्भय तस्कर दिन रात फिरे।

आशीर्वाद ग्रहण कर कोटपाल प्रसन्न हो गया। उसने कहा-"आज किधर सवारी चली? आजकल तो महाराज यज्ञ कर रहे हैं, नगर में बड़ी चहल-पहल है। ब्राह्मणों की तो चाँदी ही चाँदी है।"

गोरख ने असन्तुष्ट होकर कहा-''पर इस बार राजा मुझे भूल गया है। उसने मुझे इस सम्मान से वंचित करके अच्छा नहीं किया।"

''अरे ऐसा अनर्थ? तुम काशी के महामहोपाध्याय, श्रोत्रिय ब्राह्मण! और तुम्हें ही राजा ने भुला दिया!"

''तभी तो काशिराज का नाश होगा। कोटपाल, मैं उसे श्राप दूँगा।"

कोटपाल हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा-''शाप, केवल इतनी-सी बात पर? पर मुझ पर कृपादृष्टि रखना देवता। और कभी इन चरणों की रज मेरे घर पर भी डालकर पवित्र कीजिए।"

फिर उसने ब्राह्मण का कन्धा पकड़कर कान के पास मुँह ले जाकर कहा-"बहुत बढ़िया पुराना मद्य गौड़ से आया है।" गोरख श्रोत्रिय ब्राह्मण प्रसन्न हो गया। उसने हँसकर कहा-''अच्छा, अच्छा, कभी देखा जायगा।"

परन्तु कोटपाल ने आग्रह करके कहा-‘कभी क्यों, कल ही रही।" फिर कान के पास मुँह लगाकर कहा-''हाँ उस सुन्दरी देवदासी का क्या रहा? क्या नाम था उसका ?"

ब्राह्मण हँस पड़ा। उसने कहा-''उसे भूले नहीं कोटपाल, मालूम होता है-दिल में घर कर गई है। उसका नाम मंजुघोषा है।" ''वाह क्या सुन्दर नाम है। हाँ, तो मेरा काम कब होगा?"

''महाराज, सब काम समय पर ही होते हैं। जल्दी करना ठीक नहीं है।"

''फिर भी, कब तक आशा करूं?"

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