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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

सेठ ने खींसे निपोर कर कहा-"वाह, ऐसा भी कहीं हो सकता है! यह मुख भी भला कहीं भुलाया जा सकता है।"

"आपसे बातों में कौन जीत सकता है!" चन्द्रावली ने घातक कटाक्षपात किया। सेठ ने अधिक रसिकता प्रकट करते हुए कहा-"इस मुख को देखकर तो गूँगा भी बोल उठे।"

चन्द्रावली ने हँसकर सेठ से कहा-"कहिए, अब कब श्रीमान् मेरे घर पधार रहे हैं?"

"कहो तो अभी-"

"अभी नहीं, कल।"

"अच्छा’ सेठ ने हँसकर उत्तर दिया। चन्द्रावली ने गोरख की ओर मुँह करके कहा-"आप भी ब्राह्मण हैं?"

गोरख खुश हो गया। उसने कहा-"सिर केवल ब्राह्मण है।"

चन्द्रावली हास्य बिखेरती हुई चली गई। गोरख कुछ देर उसी ओर देखता रहा। फिर उसने कहा-"बहुत सुन्दर है, क्यों सेट्टि-क्या कहते हो?"

"है तो, परन्तु-"

“परन्तु क्या?"

"कहने योग्य नहीं।"

"कहो, कहो, क्या किसी ने तुम्हारा मन हरण किया है?"

"किया तो है।"

"वह कौन है?"

"है कोई अद्वितीय बाला।"

"वह है कहाँ भला?"

"मन्दिर में ही!"

"मन्दिर में?'

जयमंगल ने आनन्द में विभोर होकर कहा-"है, एक संन्ध्या समय मैं मन्दिर में गया था। आरती नहीं हुई थी। वहाँ सन्नाटा था। महाप्रभु भी नहीं आए थे। मैं भीतर चला गया। सहसा मुझे एक आहट सुनाई दी। देखा, एक फूल-सी सुकुमारी बैठी देवता का फूलों से श्रृंगार कर रही है। हम लोगों की आँखें चार हुई। तभी से मेरे हृदय में वह बस गई। वाह, क्या सौन्दर्य था! विधाता ने सुन्दरता के कण सारे विश्व से समेटकर उसे रचा होगा। उसकी आँखों में आँसू थे, और उसके ओठ फड़क रहे थे।"

"क्या तुमने उसका नाम पूछा था?"

"जब मैंने उसके निकट जाकर पूछा-"सुन्दरी, तेरा नाम क्या है, और तुझे क्या दु:ख है, तो वह बिना उत्तर दिये चली गई। परन्तु मुझे उस मोहिनी के नाम का पता चल गया था-वह मंजुघोषा थी।"

गोरख कुटिलतापूर्वक हँस दिया। उसने कहा-"समझा। जिसे देखी वही मंजुघोषा की रट लगा रहा है। सेट्टी, उसकी आशा छोड़ दो।"

"यह तो न होगा मित्र, प्राण रहते नहीं होगा। भले ही प्राण भी देना पड़े।"

"ओ हो, यहाँ तक? तब तो मामला गम्भीर है। खैर, तो मैं तुम्हारी सहायता करूंगा।"

जयमंगल प्रसन्न हो गया। उसने मुहरों की एक छोटी-सी थैली ब्राह्मण के हाथ में थमाकर कहा :

"मैं तुम्हें मुँह माँगा द्रव्य दूँगा देवता।"

गोरख ने थैली अपनी टेंट में खीसते हुए हँसकर कहा-"तब आओ मन्दिर में।"

जयमंगल ने ब्राह्मण का हाथ पकड़ लिया। और दोनों आगे बढ़कर एक गली में घुस गए।

सारी ही बातें सुखदास ने छिपकर सुन ली थी। उसने समझ लिया कि अवश्य ही मंजुघोषा पर कोई नई विपत्ति आने वाली है। वह सावधानी से अपने को छिपाता हुआ उनके पीछे चला।

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