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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

जयमंगल ने हँसकर कहा-"मालूम तो यही होता है। परन्तु इनके तप और वैराग्य की तो बड़ी-बड़ी बातें सुनी हैं, वे क्या सब झूठी हैं?"

"आओ देखो।"

उसने संकेत से सेठ को पीछे आने की कहा। और एक पेचीदा तंग गली में घुस गया। उन दोनों के पीछे दिवोदास भी छिपता हुआ चला। इसी समय सुखदास भी उससे आ मिला।

एक कुंज के निकट पहुँच कर सिद्धेश्वर ने पुकारा : "माधव।'

माधव ने सम्मुख आ प्रणाम किया। सिद्धेश्वर ने कहा : "माधव, अभागे बौद्धों को धोखा देने और मेरी सभी गुप्त आज्ञाओं की तत्परता से पालन करने के बदले, मैंने तुम्हें भण्डार का प्रधान अधिकारी बनाने का निश्चय कर लिया है।"

"यह तो प्रभु की दास पर भारी कृपा है।"

"हाँ प्रभु।"

"मुझे कोई कुछ समझे, परन्तु तुमसे कुछ छिपाना नहीं चाहता। मैं अपनी चित्तवृत्ति के देवता को सुन्दरियों की बलि से सन्तुष्ट करता हूँ। तुम्हें मालूम है कि लिच्छवि राजकुमारी मंजुघोषा इस समय मेरी आँखों में है, मैं उसका रक्षक हूँ।"

माधव ने हँसकर कहा-"समझ गया प्रभु। अब रक्षण काल समाप्त हो गया। वह फल सावधानी से पाला गया है, अब पक गया है, महाप्रभु अब उसे भक्षण किया चाहते हैं।"

"ठीक समझे माधव, जिस तरह प्रभात की वायु फूल की कली को खिलाकर उसकी सुगन्ध ले उड़ती है, उसी तरह यौवन के प्रभात ने उस कली को खिला दिया है। अब उसकी सुगन्ध मेरे उपयोग में आनी चाहिए।"

गोरख ने जयमंगल का हाथ दबाया। और दिवोदास ने वस्त्र में छिपी छुरी को सम्भाला। सुखदास ने पीछे से उसके कान में कहा "चुपचाप सब कृत्य देखो, जल्दी मत करो।"

माधव ने कहा-‘तो इसमें क्या कठिनाई है प्रभु?"

"वह अभागा उस पर मोहित प्रतीत होता है। ध्यान रखना, ये भाग्यहीन मिथ्यावादी लोग, मन्दिर के भेद को न जानने पाएँ।"

"ऐसा ही होगा प्रभु, और क्या आज्ञा है?"

"आज आधी रात को, मैंने मंजुघोषा को महामन्त्र दीक्षा देने के लिए गर्भगृह में बुलाया है। इसी के लिए वह तीन दिन से व्रत और उपासना कर रही है। तुम उसे दो पहर रात बीते मेरे सोने के कमरे में ले आना समझे।"

"समझ गया प्रभु।"

"एक बात और।"

"क्या?"

"अन्धकूप पर कड़ा पहरा लगा दी। जिससे यह खबर सुनयना के कानों में न पड़ने पाए।"

"बहुत अच्छा।"

माधव एक ओर को चल दिया। और सिद्धेश्वर दूसरी ओर को।

गोरख ने कहा-"अब कही।" ज

यमंगल ने तलवार वस्त्र से निकालकर कहा-‘रक्षा करनी होगी।"

दिवोदास ने आड़ से बाहर आकर कहा-"मैं तुम्हारी सहायता करूंगा।"

सुखानन्द ने बढ़कर कहा-"और मैं भी।"

जयमंगल ने कहा-"वाह, तब तो हमारा दल विजयी होगा।"

चारों जन कुछ सोच-सलाह कर, एक अँधेरी गली में घुस गए।

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