अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"कल क्यों??'
"कल मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा।"
"इसका क्या मतलब है?"
"कल तुममें वह शक्ति आ जाएगी।"
"मैं नहीं समझी, माधव।"
"न समझना ही अच्छा है।"
"क्यों?"
"सेवक का धर्म समझाना नहीं, आज्ञा का पालन करना है।"
मंजु- क्या?
वे एक एकान्त कक्ष में पहुँचे, वहाँ बड़ी-बड़ी विशाल-विकराल मूर्तियाँ रक्खी हुई थीं। माधव ने उँगली से दिखाकर कहा-"वह देवी है...वहीं रहो। और जो कुछ पूछना ही आचार्य से पूछना।" मंजु कुछ देर चुपचाप खड़ी माधव को एकटक देखती रही!
माधव मंजु को वहीं खड़ी छोड़कर चला गया। मंजु वहाँ की भयानक मूर्तियों को देखकर भय से काँपने लगी। एकाएक गुप्त द्वार से सिद्धेश्वर ने प्रवेश किया।
सिद्धेश्वर ने मंजु के निकट आकर कहा-"सुन्दरी मंजुघोषा, तुम्हारे आने से इस पवित्र स्थान के सभी दीपक मन्द पड़ गए, समझती हो क्यों?"
मंजु ने नीची दृष्टि से कहा-"नहीं प्रभु।"
"तुम्हारी सुन्दरता से। तुम्हारे कोमल अंग के सुगन्ध ने यहाँ के सभी फूलों की सुगन्ध को मात कर दिया है।"
मंजु विरक्त भाव से चुप खड़ी रही। उसने लज्जा और संकोच से सिर झुका लिया।
सिद्धेश्वर ने मंजु का हाथ पकड़कर कहा-"मंजु, तुम मेरी बात नहीं समझीं?"
"नहीं प्रभु!" उसने हाथ खींचकर छुड़ा लिया।
"तुम भोली जो ठहरी, पहले इस पवित्र प्रसाद को पिओ।"
उसने मद्य डालकर पात्र मंजु के मुँह के पास लगा दिया, फिर बोला-"पिओ मंजु, यह देवता का प्रसाद है।"
मंजु ने निषेध किया। परन्तु सिद्धेश्वर ने उसे जबर्दस्ती पिला दिया।
पीछे स्वंय भी पी। मंजु भयभीत हो एक खम्भे के सहारे टिक गई।
सिद्धेश्वर ने कहा-"तुम्हारे सौन्दर्य का मद इस मद से बहुत अधिक है। समझीं मंजु!" उसने मंजु की ठोढ़ी छूकर कहा। "प्रभो! आप गुरु हैं, ऐसी बातें न कीजिए।"
सिद्धेश्वर ने हँसकर कहा-"ठीक है, आओ अब महामन्त्र की दीक्षा दूँ।" उसने उसका हाथ पकड़ा और एक ओर को ले चला।
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