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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

"तो फिर विलम्ब क्यों!" दोनों ने अपने हाथ के शस्त्रों की सावधानी से पकड़ा और अन्धकार में एक ओर बढ़े। दिवोदास ने कहा-"वे दोनों कुते क्या हुए?"

"वह धूर्त ब्राह्मण तो मेरे हाथ से बचकर भाग निकला-परन्तु सेठ को मैंने बाँधकर एक खूब सुरक्षित स्थान पर डाल दिया है।"

"तो यही अन्धकूप का द्वार है। तुम प्रहरी से बात करो।" सुखदास ने प्रहरी से संकेत किया। उसने चुपके से द्वार खोल दिया। दोनों अन्धकूप में प्रविष्ट हुए। दुर्गन्ध और सील के मारे वहाँ साँस लेना भी दुर्लभ था।

सुखदास ने कहा-"क्या महारानी जाग रही हैं?"

"मैं सुखदास हूँ। मेरे साथ श्रेष्ठि पुत्र दिवोदास भी हैं।"

"शुभ है कि आप लोग सुरक्षित हैं। किन्तु मेरी मंजु?"

"वह सकुशल है। आप उसकी चिन्ता न करें महारानी। आप यहाँ से निकलिए।"

"यह हम परामर्श करके ठीक कर लेंगे।"

"यह ठीक न होगा। मेरी प्रतिज्ञा है कि काशिराज और इस धूर्त सिद्धेश्वर से बिना अपने पति का बदला लिए यहाँ से न जाऊँगी। परन्तु तुम मंजु को लेकर भाग जाओ। गुप्त स्थान मैं बताती हूँ।"

"कौन-सा?"

"क्या कोई और भी इस गुप्त बात को जानता है?"

"नहीं महारानी।"

"तो मंजु के पास गुप्त राजकोष का बीजक और ताली है। वहाँ पहुँचने पर आप लोगों की कोई न पा सकेगा।"

“उसका मार्ग ?"

"वह बीजक बताएगा।"

"किन्तु आप?"

"मेरी चिन्ता मत करो, मुझमें अपनी रक्षा करने की पूरी शक्ति है। तुम मंजु की यहाँ से ले जाओ।"

"जैसी राजमाता की आज्ञा।"

"तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ पुत्र, मैं तुम्हें शीघ्र ही मिलूंगी।"

दोनों पुरुष ने फिर अधिक बात नहीं की। वे अन्धकूप से निकलकर छिपते हुए टेढ़ी-मेढ़ी राह को पार करते हुए चले। पूर्व में लाली फैल रही थी।

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