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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

 

प्रेमोन्माद


दिवोदास पागल हो गया है। यह सन्देश पाकर आचार्य ने उसे बन्दी गृह से मुक्त कर दिया। अब वह निरीह भाव से संघाराम में घूमने लगा। कोई उससे घृणा करता, कोई उस पर दया करता। उसके वस्त्र और शरीर गन्दे और मलिन हो गए थे। दाढ़ी बढ़कर उलझ गई थी। भिक्षु उसकी खिल्ली उड़ाते थे। कुछ उसे चिढ़ा देते थे। परन्तु दिवोदास इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं देता था। वह जैसे किसी अतीत काल में जीवित रह रहा था।

दिवोदास अति उदास, गहरी चिन्ता में पागल जैसा एक शिलाखण्ड पर बैठा था। वह कभी हँसता, कभी गुनगुनाता था। उसके हाथ में एक गेरू का टुकड़ा था, उससे वह जल्दी-जल्दी मंजुघोषा का चेहरा बना रहा था, चेहरा बनाकर हँसता था, उसे प्यार करता था, उससे बातें करता था, एक वृक्ष को लक्ष्य करके उन्मत्त भाव से देखता था। वहाँ उस वृक्ष में उसे मंजुघोषा दृष्टि पड़ रही थी।

दिवोदास-हाथ फैलाकर दीन भाव से बोल उठा-"आओ देखो, प्यारी, आओ, मुझे क्षमा करो, मैं नहीं आ सका।" उसने देखा-मूर्ति मुस्कराने लगी। उसके होंठ हिलने लगे और दो बूंद आँसू उसकी आँखों से टपक पड़े। उसने उँगली उठाकर कहा-‘झूठे।" पागल दिवोदास उससे लिपटने को दौड़ा और टकराकर गिर पड़ा। मूर्ति गायब हो गई। उसने उठकर कहा-"आह! झूठा, झूठा, सचमुच मैं झूठा हूँ।" उसने सामने एक शिलाखण्ड की ओर देखा। वहाँ मंजु बैठी मुस्करा रही थी। वह दौड़ा, मूर्ति उसी भाव से वही शब्द कहती हुई गायब हो गई। दिवोदास पत्थर से टकराकर फिर गिर पड़ा। फिर उठकर 'मंजु-मंजु चिल्लाने लगा। जिस वस्तु पर उसकी नजर जाती, वहीं उसे मंजु की मूर्ति वही संकेत करके, वही शब्द कहकर गायब हो जाती। वह पागल की तरह दौड़ता और टक्करें खाकर गिरकर घायल हो जाता। वह क्षत-विक्षत और जर्जर हो गया। उसी समय आचार्य वज्रसिद्धि उसके निकट आए।

वज्रसिद्धि कुछ देर उसकी दुर्दशा देख बोले-"पुत्र, यह तुम क्या कर रहे हो ?"

दिवोदास ने आँखें फाड़कर बड़ी देर तक वज्रसिद्धि को देखा और वज्रसिद्धि के निकट आकर कहा-"प्रिय मंजु, क्या तुमने मुझे क्षमा कर दिया!" और वह वज्रसिद्धि से लिपट गया।

वज्रसिद्धि ने उसे पीछे धकेलकर कहा-"भिक्षु, सावधान! देखो, मैं संघस्थविर आचार्य वज्रसिद्धि हूँ।"

दिवोदास आचार्य को देखकर, काँपता हुआ हटकर खड़ा हो गया और कहा-"आचार्य वज्रसिद्धि क्या तुम मंजु का सन्देश लाए हो? क्या वह आ रही है?"

“भिक्षु, तुम पागल हो गए हो।"

"पागल, प्रेम का पागल, मैं पागल हो गया हूँ!"

(कठोर वाणी से) "मेरे साथ आओ।"

"क्या तुम मुझे मंजु के पास ले जा रहे हो?"

"आओ।"

वज्रसिद्धि ने उसे अपने पीछे आने का संकेत किया। और चल दिया। दिवोदास भी पीछे-पीछे चल दिया। वह वज़तारा के मन्दिर में जा पहुँचे।

वज्रसिद्धि ने वज्रतारा की प्रतिमा के आगे पहुँच, दिवोदास की ओर कड़ी दृष्टि से देखा और कहा-"भिक्षु, वज्रतारा को प्रणाम करो।"

दिवोदास ने प्रतिमा में भी मंजु की वही मूर्ति देखी और कहा-"प्यारी, तुम आ गई? आओ। मैं नहीं आ सका। इससे क्या तुम नाराज हो?" वह दौड़कर मूर्ति से लिपट गया।

“सुनो! सुनो!!"

"सब सुन रहा हूँ। वह कुछ कह रही है। वह कुछ कहना चाहती है।" वह ध्यान से फिर प्रतिमा को देखने लगा। उसे प्रतीत हुआ, मंजु कुछ संकेत कर रही है, दिवोदास ने उधर हाथ फैला दिए।

वज़्रसिद्धि ने दिवोदास को झकझोरकर कहा-"सुनो, तुम्हें वज्रतारा की मूर्ति बनानी होगी। हमें मालूम हुआ है, तुम कुशल चित्रकार हो गए हो।" दिवोदास ने भाव निमग्न-सा होकर कहा-"मैं अभी प्यारी की मूर्ति बनाता हूँ।"

उसने झट क्षण-भर में गेरू से दीवार पर मंजु की ठीक सूरत बना दी। और फिर रो-रोकर कहने लगा—“क्षमा करो, मंजु, प्रिये, क्षमा करो।"

वज़सिद्धि ने कुद्ध होकर कहा-"तुम्हें वज्रतारा की मूर्ति बनानी होगी। इसके लिए दो मास तक तुम्हें एकान्त में रहना होगा।"

उन्होंने एक भिक्षु से कहा-"गोपेश्वर, तुम इसकी सब व्यवस्था समझाकर, सब प्रबन्ध कर दी।" इतना कह आचार्य चले गए।

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