अतिरिक्त >> वे आवारा दिन (अजिल्द) वे आवारा दिन (अजिल्द)रस्किन बॉन्ड
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साहित्य अकादमी पुरस्कृत पुस्तक...
Ve Aawara Din - Hindi Book by Ruskin Bond
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रस्टी एक 16 वर्षीय एंग्लो-इंडियन लड़का है जो देहरादून में अपने अंग्रेज़ रिश्तेदारों के साथ रहता है। विद्रोही, मनमौजी, घुमक्कड़ और हमेशा नई जगहों की खोजबीन करने के लिए उतावला रस्टी अपने घर से भाग जाता है। रास्ते में मिलता है किशन और दोनों मिलकर अनजाने रास्तों और मंजिलों की ओर चल पड़ते हैं। चलते-चलते नए दोस्त और नए जोखिम भी मिलते हैं जो उन्हें ज़िंदगी की जटिल और उलझी सच्चाइयों को समझने में मददगार साबित होते हैं लेकिन इससे भी उनके आज़ाद और आवारा मन की गति नहीं थमती।
रस्किन बॉण्ड के क्लासिक उपन्यास ‘रूम ऑन द रूफ’ को आगे बढ़ाती हुई शरारती, साहसी और जोखिम भरे कारनामे करनेवाले रस्टी और उनके दोस्त किशन की मन को गुदगुदाने वाली कहानी है - वे आवारा दिन।
रस्किन बॉण्ड के क्लासिक उपन्यास ‘रूम ऑन द रूफ’ को आगे बढ़ाती हुई शरारती, साहसी और जोखिम भरे कारनामे करनेवाले रस्टी और उनके दोस्त किशन की मन को गुदगुदाने वाली कहानी है - वे आवारा दिन।
बेघर
देहरा देहरादून की तरफ जाने वाली सड़क पर एक लड़का बांसुरी बजाते हुए अपनी भेड़ों की रेवड़ को हांकता चला जा रहा था-पुराने कपड़े पहने, नंगे पैर। उसके कंधों पर एक लाल शॉल पड़ी थी जिसका रंग उतर रहा था। दिसंबर का महीना था और चढ़ते सूरज की किरणें सड़क के किनारे खड़े बरगद के पेड़ के बीच से छन-छन कर आ रही थीं, जहां पेड़ की ज़मीन से बाहर निकली ऐंठी हुई जड़ों पर दो लड़के बैठे थे।
बांसुरी बजाते लड़के ने उन दोनों लड़कों को एक नज़र देखा, और अपनी धुन में मस्त आगे बढ़ता गया। कुछ देर में वह धूल भरी सड़क पर दूर एक छोटे से बिंदु जैसा दिखाई दे रहा था और दूर से आती बांसुरी की मंदी सी धुन भेड़ों की घंटियों की आवाज़ में और दबी जा रही थी।
लड़कों ने बरगद के पेड़ की छाया से निकल दूर दिखाई दे रही पहाड़ियों की तरफ़ चलना शुरू किया।
शिवालिक की निचली पहाड़ियों की ओर चली जा रही सड़क आगे वीरान पड़ी थी और उसका कोई ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा था। उनके कपड़ों, उनकी आंखों और उनके मुंह में धूल ही धूल भर गयी थी। सूरज आसमान में और ऊपर चढ़ता जा रहा था, और उनकी बगलों से बहते पसीने की धार उनके पैरों तक पहुंच रही थी।
बड़ा लड़का, रस्टी, सत्रह का था। वह अपनी पतली सूती पतलून की जेबों में हाथ डाले ज़मीन पर नजरें गड़ाए चल रहा था। उसके हल्के भूरे बाल धूल और पसीने से चीमड हो गये थे, और तेज़ धूप से झुलसकर उसके गाल और हाथ लाल हो गये थे। उसकी नीली आंखें ख्यालों में डूबी-डूबी लगती थीं।
‘जल्दी ही हम राईवाला पहुंच जाएंगे,’ वह बोला, ‘क्या तुम कुछ देर सुस्ताना चाहोगे, भैया ?’
किशन ने अपने दुबले-पतले कंधे उचकाए। ‘हम राईवाला पहुंच जाएं, फिर आराम करेंगे। अगर मैं अभी बैठ गया तो फिर मैं उठ नहीं पाऊंगा। लगता है हम आज सुबह से करीब दस मील चल चुके हैं। वह दुबला-सा लड़का था, तक़रीबन रस्टी जितना लंबा, लेकिन उससे दो साल छोटा। उसकी काली आंखों में बगावत की झलक थी और उनके ऊपर थीं काली घनी भौंहें और काले घने बाल। उसने धूल में सने अपने सफ़ेद पायजामे के पांयचे टखनों तक मोड़ रखे थे, और ढीली-ढाली पेशावरी चप्पलें पहन रखी थीं। उसने ख़ाकी कमीज़ पहन रखी थी, जिसके बटन खुले थे।
रस्टी की तरह वह भी बेघर था। रस्टी जिस दूर के रिश्तेदार के साथ रहता था, वहां अपनेपन की कमी के चलते, उसे घर से भागे साल से ऊपर हो रहा था। किशन अपने पियक्कड़ बाप से बचने के लिए भागा था। उसके दूर के रिश्तेदार थे, लेकिन जिन्हें वह ठीक से जानता भी नहीं उनके साथ चैन की ज़िंदगी बिताने के बजाय उसने आवारापन के ख़तरों और सुखों को चुनना बेहतर समझा। वह रस्टी के साथ पिछले एक साल से था और इस दोस्त का साथ उसके लिए घर के सुख से कम नहीं था। वह पंजाबी था, और रस्टी ऐंग्लो-इंडियन।
‘राईवाला से हम ट्रेन पकड़ लेंगे,’ रस्टी बोला। ‘उसमें हमारे करीब पांच रुपये ख़र्च होंगे।’
‘इतना मत सोचो,’ किशन बोला, ‘हम काफ़ी चल चुके हैं, और अभी हमारे पास बारह रुपये हैं। देहरा में हमारे पुराने कमरे में कोई ऐसी चीज़ है जिसे बेचा जा सकता हो ?’
‘देखते हैं... मेज़, पलंग और कुर्सी तो मेरे हैं नहीं। एक पुरानी बाघ की खाल है, जिसे थोड़ा-सा चूहों ने कुतर दिया है, उसे कोई ख़रीदेगा नहीं। एक-दो कमीज़ और पतलून है।’
‘उनकी तो हमें ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन वह सब फटे हैं।’ ‘और मेरी कुछ किताबें हैं...’ ‘...जिन्हें कोई ख़रीदेगा नहीं।’ ‘मैं उन्हें बेचूंगा भी नहीं। भई, सिर्फ़ इन्हीं को तो मैं उस घर से लेकर भागा था।’
‘सोमी !’ रस्टी के आगे कुछ बोलने से पहले ही किशन बोल पड़ा। ‘सोमी भी तो देहरा में होगा-वह हमारी मदद करेगा। उसने तुम्हें पहले भी नौकरी दिलवायी थी, वह फिर से दिलवा सकता है।’
रस्टी चुपचाप अपने दोस्त सोमी को याद करने लगा, जिसने एक मुस्कान से उसका दिल जीत लिया था, और उसकी ज़िंदग़ी की राह बदल दी थी। सोमी, जिसके सिर पर रहती थी, तिरछी-सी पगड़ी, और होंठों पर गीत...
किशन अचानक ही देहरा से चला गया था। उसे उसकी मौसी के पास गंगा के किनारे हरिद्वार ले जाया गया था और रस्टी उसकी मौसी के पते के सहारे उसकी तलाश में पीछे-पीछे वहां आ पहुंचा था। हरिद्वार में सिर्फ़ पंडे, भिखारी और दुकानदारों का ही गुजारा हो सकता है, इसलिए लड़कों को जल्द ही देहरा की राह पकड़नी पड़ी।
बांसुरी बजाते लड़के ने उन दोनों लड़कों को एक नज़र देखा, और अपनी धुन में मस्त आगे बढ़ता गया। कुछ देर में वह धूल भरी सड़क पर दूर एक छोटे से बिंदु जैसा दिखाई दे रहा था और दूर से आती बांसुरी की मंदी सी धुन भेड़ों की घंटियों की आवाज़ में और दबी जा रही थी।
लड़कों ने बरगद के पेड़ की छाया से निकल दूर दिखाई दे रही पहाड़ियों की तरफ़ चलना शुरू किया।
शिवालिक की निचली पहाड़ियों की ओर चली जा रही सड़क आगे वीरान पड़ी थी और उसका कोई ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा था। उनके कपड़ों, उनकी आंखों और उनके मुंह में धूल ही धूल भर गयी थी। सूरज आसमान में और ऊपर चढ़ता जा रहा था, और उनकी बगलों से बहते पसीने की धार उनके पैरों तक पहुंच रही थी।
बड़ा लड़का, रस्टी, सत्रह का था। वह अपनी पतली सूती पतलून की जेबों में हाथ डाले ज़मीन पर नजरें गड़ाए चल रहा था। उसके हल्के भूरे बाल धूल और पसीने से चीमड हो गये थे, और तेज़ धूप से झुलसकर उसके गाल और हाथ लाल हो गये थे। उसकी नीली आंखें ख्यालों में डूबी-डूबी लगती थीं।
‘जल्दी ही हम राईवाला पहुंच जाएंगे,’ वह बोला, ‘क्या तुम कुछ देर सुस्ताना चाहोगे, भैया ?’
किशन ने अपने दुबले-पतले कंधे उचकाए। ‘हम राईवाला पहुंच जाएं, फिर आराम करेंगे। अगर मैं अभी बैठ गया तो फिर मैं उठ नहीं पाऊंगा। लगता है हम आज सुबह से करीब दस मील चल चुके हैं। वह दुबला-सा लड़का था, तक़रीबन रस्टी जितना लंबा, लेकिन उससे दो साल छोटा। उसकी काली आंखों में बगावत की झलक थी और उनके ऊपर थीं काली घनी भौंहें और काले घने बाल। उसने धूल में सने अपने सफ़ेद पायजामे के पांयचे टखनों तक मोड़ रखे थे, और ढीली-ढाली पेशावरी चप्पलें पहन रखी थीं। उसने ख़ाकी कमीज़ पहन रखी थी, जिसके बटन खुले थे।
रस्टी की तरह वह भी बेघर था। रस्टी जिस दूर के रिश्तेदार के साथ रहता था, वहां अपनेपन की कमी के चलते, उसे घर से भागे साल से ऊपर हो रहा था। किशन अपने पियक्कड़ बाप से बचने के लिए भागा था। उसके दूर के रिश्तेदार थे, लेकिन जिन्हें वह ठीक से जानता भी नहीं उनके साथ चैन की ज़िंदगी बिताने के बजाय उसने आवारापन के ख़तरों और सुखों को चुनना बेहतर समझा। वह रस्टी के साथ पिछले एक साल से था और इस दोस्त का साथ उसके लिए घर के सुख से कम नहीं था। वह पंजाबी था, और रस्टी ऐंग्लो-इंडियन।
‘राईवाला से हम ट्रेन पकड़ लेंगे,’ रस्टी बोला। ‘उसमें हमारे करीब पांच रुपये ख़र्च होंगे।’
‘इतना मत सोचो,’ किशन बोला, ‘हम काफ़ी चल चुके हैं, और अभी हमारे पास बारह रुपये हैं। देहरा में हमारे पुराने कमरे में कोई ऐसी चीज़ है जिसे बेचा जा सकता हो ?’
‘देखते हैं... मेज़, पलंग और कुर्सी तो मेरे हैं नहीं। एक पुरानी बाघ की खाल है, जिसे थोड़ा-सा चूहों ने कुतर दिया है, उसे कोई ख़रीदेगा नहीं। एक-दो कमीज़ और पतलून है।’
‘उनकी तो हमें ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन वह सब फटे हैं।’ ‘और मेरी कुछ किताबें हैं...’ ‘...जिन्हें कोई ख़रीदेगा नहीं।’ ‘मैं उन्हें बेचूंगा भी नहीं। भई, सिर्फ़ इन्हीं को तो मैं उस घर से लेकर भागा था।’
‘सोमी !’ रस्टी के आगे कुछ बोलने से पहले ही किशन बोल पड़ा। ‘सोमी भी तो देहरा में होगा-वह हमारी मदद करेगा। उसने तुम्हें पहले भी नौकरी दिलवायी थी, वह फिर से दिलवा सकता है।’
रस्टी चुपचाप अपने दोस्त सोमी को याद करने लगा, जिसने एक मुस्कान से उसका दिल जीत लिया था, और उसकी ज़िंदग़ी की राह बदल दी थी। सोमी, जिसके सिर पर रहती थी, तिरछी-सी पगड़ी, और होंठों पर गीत...
किशन अचानक ही देहरा से चला गया था। उसे उसकी मौसी के पास गंगा के किनारे हरिद्वार ले जाया गया था और रस्टी उसकी मौसी के पते के सहारे उसकी तलाश में पीछे-पीछे वहां आ पहुंचा था। हरिद्वार में सिर्फ़ पंडे, भिखारी और दुकानदारों का ही गुजारा हो सकता है, इसलिए लड़कों को जल्द ही देहरा की राह पकड़नी पड़ी।
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