अतिरिक्त >> विस्थापन विकास और वीरेंद्र जैन के उपन्यास विस्थापन विकास और वीरेंद्र जैन के उपन्यासकुमार और लक्की
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विस्थापन विकास और वीरेंद्र जैन के उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आजाद भारत के पाँच-छह दशक कई उम्मीदों के टूटने और कई प्रतीक्षाओ के निष्फल होने के साल भी हैं। इन वर्षों में विकास की मरीचिका के पीछे दौड़ती इस देश की अधिसंख्य आबादी के हिस्से सिर्फ नाउम्मीदियाँ आई हैं। विद्रूप यह है कि इन्हीं वर्षों में सत्ता और शक्ति के केन्द्रों से जुड़ा एक छोटा-सा समूह इस बड़ी आबादी की सारी जरूरतों को रौंदते हुए और उसे हर स्तर पर विस्थापित करते हुए, अपने लिए एक हरा-भरा मरुद्यान बनाने के छल में सफल हुआ है। गाँव और ग्रामीण समाज निरंतर उजड़ और उखड़ रहे हैं और उखड़ते हुए देख रहे हैं विकास के इस दानवी खेल को, जिसमें उनकी भूमिका महज आखेट की है।
वीरेन्द्र जैन ने अपने उपन्यासों ‘डूब’ और ‘पार’ में आजाद भारत के ग्रामीण समाज के साथ सत्ता के इसी छल-बल को बेनकाब किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के दो शोधार्थियों ने क्रमशः ‘डूबः विकास और विस्थापन की समस्या’ और ‘स्वांतत्र्योत्तर भारत में विकास की असंगतियां और पार’ शीर्षक के अंतर्गत इन उपन्यासों पर शोधकार्य किया। 1996 में एम.फिल. की उपाधि से विभूषित उक्त दोनों लघु शोधप्रबंधों का प्रकाशित रूप है यह पुस्तक। जो इस समस्याओं के निदान के लिए निरंतर चिंतनरत एवं अध्येताओं और इस ज्वलंत समस्या पर भावी शोधकर्त्ताओं को न केवल इसके अनेक आयामों का परिचय देगी अपितु उनका मार्गदर्शन भी करेगी।
वीरेन्द्र जैन ने अपने उपन्यासों ‘डूब’ और ‘पार’ में आजाद भारत के ग्रामीण समाज के साथ सत्ता के इसी छल-बल को बेनकाब किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के दो शोधार्थियों ने क्रमशः ‘डूबः विकास और विस्थापन की समस्या’ और ‘स्वांतत्र्योत्तर भारत में विकास की असंगतियां और पार’ शीर्षक के अंतर्गत इन उपन्यासों पर शोधकार्य किया। 1996 में एम.फिल. की उपाधि से विभूषित उक्त दोनों लघु शोधप्रबंधों का प्रकाशित रूप है यह पुस्तक। जो इस समस्याओं के निदान के लिए निरंतर चिंतनरत एवं अध्येताओं और इस ज्वलंत समस्या पर भावी शोधकर्त्ताओं को न केवल इसके अनेक आयामों का परिचय देगी अपितु उनका मार्गदर्शन भी करेगी।
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