अतिरिक्त >> हिन्दी के प्रयोगधर्मी उपन्यास हिन्दी के प्रयोगधर्मी उपन्यासइन्दु प्रकाश पाण्डेय
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हिन्दी के प्रयोगधर्मी उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
पिछली शताब्दी के चालीसवें दशक में प्रयोगवाद की लहर उठी और कविता के क्षेत्र में अनेक प्रकार के प्रयोग होने लगे थे। अंग्रेजी के Experimental Poetry के प्रभाव में प्रयोगवादी कविता का आरम्भ हुआ था, उस पर बहुत विवाद भी हुआ था और शीघ्र ही वह भी ‘नयी कविता’ के रूप में अग्रसर हो गई थी। कहानी में भी परिवर्तन आये और शीघ्र ही वह ‘नयी कहानी’ के रूप में प्रचलित हो गई। उपन्यास के क्षेत्र में भी कुछ नया और नये प्रकार से लिखने के प्रयत्न शुरू होने लगे और प्रेमचन्दीय परम्परा से कुछ हट कर नये प्रयोग किये गये। उपन्यास तो वैसे ही साहित्य की बहुत ही मुक्त विधा है, जो नये प्रयोगों से और भी अधिक जटिल और रोचक बनती गयी। इसी औपन्यासिक विधा (Form) में कथा को प्रस्तुत करने में जो प्रयोगात्मक छूट ली गयी, उससे विविधता और रोचकता में विकास हुआ। प्रेमचन्द के गोदान (1936) के बाद अनेक उत्कृष्ट उपन्यास लिखे गये और आज भी इस विधा में वृद्धि और सुन्दर विकास हो रहा है। उपन्यास रचना के क्षेत्र में प्रयोगवाद जैसे किसी आन्दोलन की आवश्यकता न थी, क्योंकि कुछ नया और नये ढंग से कथा को प्रस्तुत करना उपन्यास विधा की अनिवार्य आवश्यकता है। इसीलिए अंग्रेजी में इसे Novel नॉवेल कहा गया है तो नयी कथा को नये ढंग से, कुछ नयी भाषा में प्रस्तुत करना नितान्त आवश्यक है। अर्थात् प्रयोगधर्मिता उपन्यास की परम आवश्यकता है। तथापि सभी उपन्यासों को प्रयोगधर्मी नहीं कहा जा सकता है। इस प्रस्तुत विश्लेषण में उन्हीं उपन्यासों को प्रयोगधर्मी उपन्यास की कोटि में शामिल किया गया है, जो प्रयोगधर्मिता के साथ गुणात्मक श्रेष्ठता से मण्डित किये गये हैं। अर्थात् जो अपने प्रयोगों में सफल एवं प्रभावशाली हैं। इन उपन्यासों की विशेषता यह भी है कि इनमें आख्यान प्रविधि, तकनीक, अर्थात् नैरेटिव तकनीक तथा भाषाशैली की नवीनता और रोचकता है और साथ ही उपन्यासकार का प्रयास नये प्रयोग के प्रति विशेष रूप से सचेष्ट है। एक कलाकार के रूप में विधा और उसकी रचना के प्रति विशिष्ट जागरूकता ही उसको प्रयोगधर्मी बनाती है।
यदि हम अपने से पूछें कि हिन्दी में, प्रेमचन्द के बाद कौन से उपन्यास श्रेष्ठ मानते हैं, जिन्हें हम साहित्य के इतिहास में सर्वोच्च स्थान दे सकते हैं तो मेरे मत से इन्हीं सात उपन्यासों की बात की जा सकती है। मतभेद हो सकता है क्योंकि इनके अतिरिक्त भी हिन्दी में ऐसे उपन्यास हैं जो श्रेष्ठ हैं, जैसे कि भगवतीचरण वर्मा की रचना ‘‘चित्रलेखे’’, जैनेन्द्र जी का ‘‘त्याग पत्र’’ इत्यादि। परन्तु यहाँ पर उन उपन्यासों की चर्चा उद्दीष्ट है जो आज़ादी के बाद लिखे गये हैं। रेणु के ‘‘मैला आँचल’’ की श्रेष्ठता पर दो मत नहीं हो सकते। मैं तो इसे हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानता हूँ और प्रयोग की दृष्टि से भी यह सर्वाधिक सफल और प्रभावी रचना है। राही के ‘‘आधा गांव’’ की बड़ी सराहना हुई है और इसको महान उपन्यास भी माना गया है। मुहर्रम की दस बैठकों की सीमा रखते हुए लेखक ने 10 अध्यायों में गंगोली के शिया मुसलमानों के परिवारों की भीतरी कथा को प्रस्तुत किया है। 359 पृष्ठों के बाद राही भूमिका प्रस्तुत करते हैं और कथा में समाजशास्त्रीय शैली में शिया मुसलमानों के जीवन के भीतरी पक्षों को उघाडते हैं। सबसे पहले राही ने इस उपन्यास में Structural irony (संरचनात्मक विड़म्बना) की तकनीक का अत्यन्त सार्थक एवं सुन्दर प्रयोग किया है।
‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ने हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद की शैली में अवध क्षेत्र के पिछड़े हुए गांव शिवपालगंज का वर्णन किया है, जिसमें एक भी नारी पात्र नहीं रखा है। पारितारिक जीवन को बिना दिखाये एक सफल एवं प्रभावी सामाजिक चित्र प्रस्तुत किया है। Comic View of Life का यह उपन्यास अच्छा उदाहरण है, जिसमें सुबुक-सुबुकवाद का विगलित चित्रण नहीं मिलता। पूर्णरूपेण बौद्धिक रस को प्रदान करने वाला जीवन का कैरीकेचर रखा गया है जिससे हमारे देश की दुर्दशा का पता लगता है। धर्मवीर भारती ने अपने छोटे उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोडा’ में वृतान्त की बिल्कुल नयी तकनीक का इस्तेमाल किया है जिसमें माणिक मुल्ला के आख्यानो को, विलक्षण रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है। इस प्रयोग के कारण यह उपन्यास बहुचर्चित रहा।
मैत्रेय पुष्पा ने, ‘‘इदन्नमम’’ में मन्दाकिनी की पात्रता में ऐसी दृढ़ता एवं योग्यता प्रस्तुत की है, जिससे यह विश्वास जागने लगता है कि एक साधारण यादव जाति की छोटी लड़की बिगड़ते हुए गांवों का कायाकल्प कर सकती है। इसकी आख्यानविधि प्रेमचन्दीय है, परंतु प्रस्तुतीकरण में रेणु का पूरा प्रभाव है। पुष्पा जी ने स्वयं मुझसे कहा था कि रेणु जी से वे बहुत प्रभावित हैं। रेणु के ‘‘मैला आचल’’ के समाजवादी यथार्थवाद के रोमैंटिक आशावाद की अपेक्षा पुष्पा जी का यथार्थवादी दृष्टिकोण सत्य के अधिक निकट है। मन्दाकिनी की विफलता भी अधिक आशान्वित करती है।
गीतांजलि श्री ने अपने उपन्यास ‘‘हमारा शहर-उस बरस’’ में Structural irony (संरचनात्मक विडम्बना) का अच्छा उपयोग किया है, जिसमें समस्त वृत्तान्त बुद्धिजीवियों के सारे प्रयत्नों को, खामखयाली और दिमागी कसरत साबित कर दिया है। शहर में पुल-पार जहाँ मठ है, यूनीवर्सिटी है वहाँ मस्जिद के गिराये जाने पर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं, मारकाट और आगजनी चल रही है। इस पर दद्दू के सुरक्षित मकान में प्रो० हनीफ अपनी हिन्दू पत्नी श्रुति के साथ रह रहे हैं और साथ ही है दद्दू का बेटा शरत। श्रुति लेखिका है। ये सभी बुद्धिजीवी सेमीनारों में पर्चे पढ़ते हैं, बहसें करते हैं। बेचारे इस साम्प्रदायिकता और अक्सर ही होने वाले दंगों से तंग आ गये हैं। समाधान खोजते हैं। साम्प्रदायिकता की तह तक जाने की कोशिश करते हैं, लगभग दगों के कारणों का पता तो पा लेते हैं लेकिन दंगों को, न तो रोकने की कोशिश करते हैं और न अपने पर होने वाले हमले से सुरक्षित रह पाते हैं। एक दिन उनके निवास पर भी हमला हो जाता है और हिन्दू दंगाई हनीफ पर हमले के लिए आ पहुंचते हैं। बेचारे दद्दू बीच में पड़ते हैं और मारे जाते हैं। ये बुद्धिजीवी व्यर्थ में समाधान खोजते रहते हैं और आक्रोश में इतना ही कहते रहते है कि अब तो लिखना ही पडेगा अब बिना लिखे नहीं रहा जाता और अपने निश्चय के अनुसार नैरेटर बनी लेखिका लिखती जाती है, नकल उतारती रहती है। इस व्यंग्यात्मक शैली में लेखिका बुद्धिजीवियों की ‘‘सैक्यूलैरिटी’’ एवं ‘‘प्लूरैलिटी’’ के शोर को इज़ाफ़ा देकर इनके नपुंसक क्रोध की खिल्ली उड़ाती है। यह उपन्यास प्रयोगधर्मी उपन्यास का सुन्दर उदाहरण है और साथ ही एक उत्कृष्ट विचारोत्तेजक रचना है।
इस विश्लेषण की सातवीं औपन्यासिक रचना भी अपने शिल्प तथा आख्यान की प्रविधि में बहुत ही जटिल और एकदम नयी है। इस उपन्यास में 1757 के प्लासी के युद्ध से वर्तमान काल तक की, लगभग ढाई सौ वर्षों की कथा है। दरअसल, कलकत्ता शहर के निर्माण काल से आज तक की गाथा है। ‘वाया बाईपास’ शब्द बहुत ही अर्थपूर्ण है, जो हम हिन्दुस्तानियों की एक प्रमुख विशेषता की ओर संकेत करती है और यह विशेषता है कि समस्या के समाधान से टकराने और लड़ने की अपेक्षा हम कोई न कोई ‘बाईपास’ कराने और निकालने के प्रयत्न करते रहते हैं। कठिनाई का सामना हम नहीं करना चाहते हैं। बहानेबाजी और धोखेबाज़ी का सहारा लेते हैं। किशोर बाबू इस आख्यान के ‘नैरेटर’ हैं, जिनका ‘बाईपास ऑपरेशन’ हुआ है। अस्पताल में नसों की लापरवाही से उनके सिर पर चोट लग जाती है जो गुठली का रूप धारण कर लेती है और अक्सर पीड़ा देती रहती है। जिससे उनके दिमाग में कुछ असर आ जाता है। वे सोचते हुए भटकते रहते हैं। उनके मन में यह अपराधभाव पैदा हो गया है कि सिराजुद्दौला की अंग्रेजों से लड़ाई में धोखा देने वाले अमीचन्द जी मारवाड़ी बनिये थे। और चूंकि किशोर बाबू मारवाड़ी बनिये हैं, तो सोचते हैं कि देश को गुलाम बनाने में उनके वंशजों की भूमिका रही है। इस अपराधभाव से वे मुक्त होने के लिए हरचन्द कोशिश करते हैं। इसी कोशिश को उन्होंने आख्यान का रूप दे दिया है। छह पीढ़ियों की कथा प्रस्तुत करते हैं और यही कलकत्ते की कथा वाया बाईपास है। कथा को प्रस्तुत करने में अलका सारावगी ने अन्य अनेक प्रयोग किये हैं और इस प्रयोगधर्मी रचना को पिछले दशक के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में शामिल किया गया है। मैं भी इसे एक उत्कृष्ट उपन्यास मान कर इस अध्ययन में शामिल कर रहा हूँ। इस उपन्यास का अनुवाद अनेक पश्चिमी भाषाओं में हो चुका है। सुधी विद्वान मेरी इस प्रस्तावना के विपरीत अपने मतानुसार कुछ घटा-बढ़ा सकते हैं, परन्तु इन विश्लेषित उपन्यासों की श्रेष्ठता तथा इनकी प्रयोगधर्मिता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकते, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी यदि मेरे प्रस्तुत प्रयत्न की गम्भीर आचोलना की जाएगी। मैं स्वयं आलोचक हूँ और आलोचकों का सम्मानपूर्ण स्वागत करता हूँ।
यदि हम अपने से पूछें कि हिन्दी में, प्रेमचन्द के बाद कौन से उपन्यास श्रेष्ठ मानते हैं, जिन्हें हम साहित्य के इतिहास में सर्वोच्च स्थान दे सकते हैं तो मेरे मत से इन्हीं सात उपन्यासों की बात की जा सकती है। मतभेद हो सकता है क्योंकि इनके अतिरिक्त भी हिन्दी में ऐसे उपन्यास हैं जो श्रेष्ठ हैं, जैसे कि भगवतीचरण वर्मा की रचना ‘‘चित्रलेखे’’, जैनेन्द्र जी का ‘‘त्याग पत्र’’ इत्यादि। परन्तु यहाँ पर उन उपन्यासों की चर्चा उद्दीष्ट है जो आज़ादी के बाद लिखे गये हैं। रेणु के ‘‘मैला आँचल’’ की श्रेष्ठता पर दो मत नहीं हो सकते। मैं तो इसे हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानता हूँ और प्रयोग की दृष्टि से भी यह सर्वाधिक सफल और प्रभावी रचना है। राही के ‘‘आधा गांव’’ की बड़ी सराहना हुई है और इसको महान उपन्यास भी माना गया है। मुहर्रम की दस बैठकों की सीमा रखते हुए लेखक ने 10 अध्यायों में गंगोली के शिया मुसलमानों के परिवारों की भीतरी कथा को प्रस्तुत किया है। 359 पृष्ठों के बाद राही भूमिका प्रस्तुत करते हैं और कथा में समाजशास्त्रीय शैली में शिया मुसलमानों के जीवन के भीतरी पक्षों को उघाडते हैं। सबसे पहले राही ने इस उपन्यास में Structural irony (संरचनात्मक विड़म्बना) की तकनीक का अत्यन्त सार्थक एवं सुन्दर प्रयोग किया है।
‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ने हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद की शैली में अवध क्षेत्र के पिछड़े हुए गांव शिवपालगंज का वर्णन किया है, जिसमें एक भी नारी पात्र नहीं रखा है। पारितारिक जीवन को बिना दिखाये एक सफल एवं प्रभावी सामाजिक चित्र प्रस्तुत किया है। Comic View of Life का यह उपन्यास अच्छा उदाहरण है, जिसमें सुबुक-सुबुकवाद का विगलित चित्रण नहीं मिलता। पूर्णरूपेण बौद्धिक रस को प्रदान करने वाला जीवन का कैरीकेचर रखा गया है जिससे हमारे देश की दुर्दशा का पता लगता है। धर्मवीर भारती ने अपने छोटे उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोडा’ में वृतान्त की बिल्कुल नयी तकनीक का इस्तेमाल किया है जिसमें माणिक मुल्ला के आख्यानो को, विलक्षण रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है। इस प्रयोग के कारण यह उपन्यास बहुचर्चित रहा।
मैत्रेय पुष्पा ने, ‘‘इदन्नमम’’ में मन्दाकिनी की पात्रता में ऐसी दृढ़ता एवं योग्यता प्रस्तुत की है, जिससे यह विश्वास जागने लगता है कि एक साधारण यादव जाति की छोटी लड़की बिगड़ते हुए गांवों का कायाकल्प कर सकती है। इसकी आख्यानविधि प्रेमचन्दीय है, परंतु प्रस्तुतीकरण में रेणु का पूरा प्रभाव है। पुष्पा जी ने स्वयं मुझसे कहा था कि रेणु जी से वे बहुत प्रभावित हैं। रेणु के ‘‘मैला आचल’’ के समाजवादी यथार्थवाद के रोमैंटिक आशावाद की अपेक्षा पुष्पा जी का यथार्थवादी दृष्टिकोण सत्य के अधिक निकट है। मन्दाकिनी की विफलता भी अधिक आशान्वित करती है।
गीतांजलि श्री ने अपने उपन्यास ‘‘हमारा शहर-उस बरस’’ में Structural irony (संरचनात्मक विडम्बना) का अच्छा उपयोग किया है, जिसमें समस्त वृत्तान्त बुद्धिजीवियों के सारे प्रयत्नों को, खामखयाली और दिमागी कसरत साबित कर दिया है। शहर में पुल-पार जहाँ मठ है, यूनीवर्सिटी है वहाँ मस्जिद के गिराये जाने पर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं, मारकाट और आगजनी चल रही है। इस पर दद्दू के सुरक्षित मकान में प्रो० हनीफ अपनी हिन्दू पत्नी श्रुति के साथ रह रहे हैं और साथ ही है दद्दू का बेटा शरत। श्रुति लेखिका है। ये सभी बुद्धिजीवी सेमीनारों में पर्चे पढ़ते हैं, बहसें करते हैं। बेचारे इस साम्प्रदायिकता और अक्सर ही होने वाले दंगों से तंग आ गये हैं। समाधान खोजते हैं। साम्प्रदायिकता की तह तक जाने की कोशिश करते हैं, लगभग दगों के कारणों का पता तो पा लेते हैं लेकिन दंगों को, न तो रोकने की कोशिश करते हैं और न अपने पर होने वाले हमले से सुरक्षित रह पाते हैं। एक दिन उनके निवास पर भी हमला हो जाता है और हिन्दू दंगाई हनीफ पर हमले के लिए आ पहुंचते हैं। बेचारे दद्दू बीच में पड़ते हैं और मारे जाते हैं। ये बुद्धिजीवी व्यर्थ में समाधान खोजते रहते हैं और आक्रोश में इतना ही कहते रहते है कि अब तो लिखना ही पडेगा अब बिना लिखे नहीं रहा जाता और अपने निश्चय के अनुसार नैरेटर बनी लेखिका लिखती जाती है, नकल उतारती रहती है। इस व्यंग्यात्मक शैली में लेखिका बुद्धिजीवियों की ‘‘सैक्यूलैरिटी’’ एवं ‘‘प्लूरैलिटी’’ के शोर को इज़ाफ़ा देकर इनके नपुंसक क्रोध की खिल्ली उड़ाती है। यह उपन्यास प्रयोगधर्मी उपन्यास का सुन्दर उदाहरण है और साथ ही एक उत्कृष्ट विचारोत्तेजक रचना है।
इस विश्लेषण की सातवीं औपन्यासिक रचना भी अपने शिल्प तथा आख्यान की प्रविधि में बहुत ही जटिल और एकदम नयी है। इस उपन्यास में 1757 के प्लासी के युद्ध से वर्तमान काल तक की, लगभग ढाई सौ वर्षों की कथा है। दरअसल, कलकत्ता शहर के निर्माण काल से आज तक की गाथा है। ‘वाया बाईपास’ शब्द बहुत ही अर्थपूर्ण है, जो हम हिन्दुस्तानियों की एक प्रमुख विशेषता की ओर संकेत करती है और यह विशेषता है कि समस्या के समाधान से टकराने और लड़ने की अपेक्षा हम कोई न कोई ‘बाईपास’ कराने और निकालने के प्रयत्न करते रहते हैं। कठिनाई का सामना हम नहीं करना चाहते हैं। बहानेबाजी और धोखेबाज़ी का सहारा लेते हैं। किशोर बाबू इस आख्यान के ‘नैरेटर’ हैं, जिनका ‘बाईपास ऑपरेशन’ हुआ है। अस्पताल में नसों की लापरवाही से उनके सिर पर चोट लग जाती है जो गुठली का रूप धारण कर लेती है और अक्सर पीड़ा देती रहती है। जिससे उनके दिमाग में कुछ असर आ जाता है। वे सोचते हुए भटकते रहते हैं। उनके मन में यह अपराधभाव पैदा हो गया है कि सिराजुद्दौला की अंग्रेजों से लड़ाई में धोखा देने वाले अमीचन्द जी मारवाड़ी बनिये थे। और चूंकि किशोर बाबू मारवाड़ी बनिये हैं, तो सोचते हैं कि देश को गुलाम बनाने में उनके वंशजों की भूमिका रही है। इस अपराधभाव से वे मुक्त होने के लिए हरचन्द कोशिश करते हैं। इसी कोशिश को उन्होंने आख्यान का रूप दे दिया है। छह पीढ़ियों की कथा प्रस्तुत करते हैं और यही कलकत्ते की कथा वाया बाईपास है। कथा को प्रस्तुत करने में अलका सारावगी ने अन्य अनेक प्रयोग किये हैं और इस प्रयोगधर्मी रचना को पिछले दशक के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में शामिल किया गया है। मैं भी इसे एक उत्कृष्ट उपन्यास मान कर इस अध्ययन में शामिल कर रहा हूँ। इस उपन्यास का अनुवाद अनेक पश्चिमी भाषाओं में हो चुका है। सुधी विद्वान मेरी इस प्रस्तावना के विपरीत अपने मतानुसार कुछ घटा-बढ़ा सकते हैं, परन्तु इन विश्लेषित उपन्यासों की श्रेष्ठता तथा इनकी प्रयोगधर्मिता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकते, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी यदि मेरे प्रस्तुत प्रयत्न की गम्भीर आचोलना की जाएगी। मैं स्वयं आलोचक हूँ और आलोचकों का सम्मानपूर्ण स्वागत करता हूँ।
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