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हलयोग...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मार्कण्डेय की व्यंग्यपूर्ण कहानियों में अकसर कथा शिल्प स्वच्छ, चरित्र उभरे हुए और भाषा अधिक प्रवाह पूर्ण होती है। उनकी कहानियों में व्यंग्य और करुणा का सुन्दर मिश्रण भी दिखाई देता है।
- रामविलास शर्मा
मार्कण्डेय हिन्दी के उन नवोदित प्राणवान कथाकारों में हैं जिन्होंने मात्र अपने कृतित्व से हिन्दी के सफल लेखकों में अपना स्थान बनाया है।
- भगवतशरण उपाध्याय
ऐसा नहीं कि गाँव कि जिन्दगी पर कहानियाँ पहले नहीं लिखी जाती थीं, लेकिन जिस आत्मीयता के दर्शन मार्कण्डेय की कहानियों में होते हैं वह अन्यत्र दुर्लभ हैं।
- नामवर सिंह
मार्कण्डेय की कहानियों में वातावरण और स्थानीय रंगों का इतना सुकोमलअंकन होता है कि मन को छू लेता है। यह वह शक्ति है जो कुछ लोगों को अनायास प्राप्त होती है...नितांत अनायास !
- श्रीपतराय
इन कहानियों में शिल्प के सभी तत्व स्थानीय रंगत से लेकर बोली तक मार्कण्डेय की जानी पहचानी हुई है और उसे बड़ी सफलतापूर्वक उन्होंने शब्दों में उतारा है।
- धर्मवीर भारती
मार्कण्डेय की कहानियाँ इस दृष्टि से सोद्देश्य नहीं है कि उनमें से कोई न कोई निष्कर्ष निकाला जा सके, परन्तु वास्तविकता के अंकन की अपनी सोद्देश्यता है और इस दृष्टि से उनकी कहानियाँ आज के जीवन के लिए हैं क्योंकि वे जीवन से ही ली गयी हैं।
- मोहन राकेश
मार्कण्डेय की अब तक असंकलित कहानियों का संग्रह ‘हलयोग’ व्यवहार रूप में परिणत होकर अब आपके हाथ में है। इस संग्रह में कुल बीस कहानियाँ हैं। इन कहानियों का कोई क्रम नहीं है, कोशिश बस इतनी है कि ग्रामीण यथार्थ और संवेदना से जुड़ी कहानियाँ शुरू में एक साथ हों। खास बात यह कि इसमें उनकी लिखी पहली कहानी ‘गरीबों की बस्ती’, और अन्तिम, लिखी जा रही कहानी ‘खुशहाल ठाकुर’ संकलित है।
कुल मिलाकर यह संग्रह भी बदलते समय, जीवन और उसके भीतर के प्रतिरोधी स्वर के बीच मार्कण्डेय की खास राजनीतिक और वैचारिक सचेतनता लिये हुए है।
कुल मिलाकर यह संग्रह भी बदलते समय, जीवन और उसके भीतर के प्रतिरोधी स्वर के बीच मार्कण्डेय की खास राजनीतिक और वैचारिक सचेतनता लिये हुए है।
संग्रह के बारे में
मार्कण्डेय का कहानी-संग्रह हलयोग अन्ततः व्यवहार रूप में परिणत होकर आपके हाथ में है। पिछले चौदह-पन्द्रह वर्षों से इसकी योजना बनती-बिगड़ती रही। कारण, कुछ मार्कण्डेयजी का स्वास्थ्य, कुछ एकाध और कहानी लिख लेने की चाहत, बाकी धूल-धक्कड़ के ढेर से कुछ पीछे के संग्रहों में नहीं आ पायी कहानियों को ढूँढ़ निकालने की चुनौती। ख़ैर, जो भी हो यह सब अब गुज़री बात हुई अब जो ख़ास बात है, वह है इस संग्रह में जा रही कहानियों का इतिहासगत पहलू जिसके बिना कुछ कहानियाँ अधूरी, सन्दर्भहीन या बेतरतीब लग सकती हैं।
इस संग्रह में कुल बीस कहानियाँ हैं। जिसमें शीर्षक कहानी हलयोग, बरकत, निबन्ध सौरभ, हल लिये मजूर, गड़ा हुआ धन, माँ जी का मोती, अब वह हमेशा के लिए हमारी है, अलग-अलग पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। घी के दीये कहानी कथा एवं लोकवार्ता के अन्तर्गत अखबार में छपी है। ग़रीबों की बस्ती, रक्तदान, खोया स्वर्ग, प्रोफ़ेसर एवं बीते दिन कहानियाँ मार्कण्डेय की बिलकुल प्रारम्मिक कहानियाँ हैं। 1948 ई० से 1953 के बीच में लिखी गयी ये कहानियाँ कहानी लिखने का प्रयास हैं लेकिन महत्त्वपूर्ण इसलिए हैं कि इसमें मार्कण्डेय की चेतना-प्रक्रिया की हलचलों का पता चलता है। ग़रीबों की बस्ती में जहाँ विभाजन के बाद हुए दंगों की पृष्ठभूमि है तो रक्तदान में तेलंगाना के किसान संघर्ष की। इन कहानियों के बारे में इससे अधिक सूचना की कुछ और बात नहीं।
अब बचती है भविष्य वाचन, ब्रह्मदोष, बोझ भर राख, फादर पाल और बवण्डर कहानियाँ जो दरअसल मार्कण्डेय के द्वारा बहुत पहले से प्रस्तावित उपन्यास ‘लोढ़ा चक्र’ का हिस्सा हैं। इस उपन्यास की रूपरेखा उनके दिमाग़ में १९५० के दशक में ही बनी थी जिस क्रम में उन्होंने भविष्यवाचन, ब्रह्मदोष, बोझ भर राख १९५६ में लिखीं जो विकल्प और कल्पना में छपीं। इन तीनों कहानियों को मार्कण्डेय ने पण्डित काका की तीन चरित कथाएँ नाम से ड्राफ्ट किया था। पुनः इस उपन्यास का विज्ञापन नया साहित्य प्रकाशन की ओर से ‘आईने में अँधेरा’ नाम से हुआ है। बाद में इसमें फादर पाल कहानी जुड़ी और इस उपन्यास का नाम लोढ़ा चक्र की जगह ‘अँधेरे के रंग’ नाम से ड्राफ्ट किया जिसमें वे लिखते हैं कि-‘‘यह पुस्तक मेरे वर्तमान चिन्तन के प्रतिनिधित्व के निमित्त नहीं लिखी गयी वरन् मेरे अपने सृजनशील जीवन की पृष्ठभूमि है-यह एक ऋण है जिसे उतारना था, एक ऐसी जिम्मेवारी है जिसे पूरा करना जरूरी कम-से-कम मेरे लिये था जितना कोई इमारत बनाते हुए नींव को ठीक से भरना होता है।’’ फिर वे इसी ड्राफ्ट में लिखते हैं, ‘‘विभिन्न वर्गों के विभित्र चरित्रों की सृष्टि जो सत्य को खोल सकें’’ फिर वे लिखते हैं ‘‘कुछ बिन्दु देकर कुछ लेखक कहता है, कुछ इस कहानी का साक्षी उसे बताता है, कुछ जार्ज सिंह की डायरी से मिलता है लेकिन सभी कहानी के क्रम को आगे बढ़ाते हैं। अँधेरे के रंग-स्वतन्त्रता के आस-पास के अ-प्रतिनिधि लोकजीवन की कथा।’’ इसमें आये दलित चरित्रों के बारे में वे लिखते हैं, ‘‘अनवरत ग़ुलामी के कारण व्यापक निष्क्रियता, भाग्यवादिता, जीवन के बारे में कोई चिन्तन नही।’’
लेकिन इसी बीच जबकि यह उपन्यास कहानी-दर-कहानी आगे बढ़ रहा था। १९६७ का नक्सलबाड़ी विद्रोह होता है। बाद में चलकर इसके व्यापक प्रभाव में मार्कण्डेय कहानी लिखते हैं ‘उसी ओर’ नाम से लेकिन बाद में उस कहानी और पूरे उपन्यास को वे ‘बवण्डर’ नाम से ड्राफ्ट करते हैं और कथा-क्षेत्र आज़ादी के पहले की निष्क्रियता, भाग्यवादिता और जीवन के बारे में किसी चिन्तन के न होने से लेकर नक्सलबाड़ी के बाद की सक्रियता, कर्मवादिता और जीवन के बारे में स्पष्ट चिन्तन तक फैल जाता है। इस उपन्यास में गाँव के साथ ही शहर की कथा भी चलती है हालाँकि इस रूप में सिर्फ़ फादर पाल ही वे लिख पाये जिसे वे नयना की मुक्ति की कहानी कहते हैं जिसमें ‘जे’ नाम का चरित्र है जो अपने सवालों की तलाश में आज़ादी के लिए चलने वाले क्रान्तिकारी भूमिगत किसान आन्दोलन से जुड़ जाता है खैर...उपन्यास भी अधूरा रहा कहानी भी अधूरी रही।
मार्कण्डेय अपनी अन्तिम कहानी ख़ुशहाल ठाकुर के चरित्र पर केन्द्रित करके लिख रहे थे जो गाँव के बड़े काश्तकार और व्यवसायी हैं। पहली पत्नी मर जाती है, दूसरी शादी करते हैं और इससे नाराज़ उनका बेटा कुमार उनसे सम्बन्ध-विच्छेद कर कलकत्ते में रुक जाता है, वहीं शादी करता है और कलकत्ता के ख़ुशहाल ठाकुर के पूरे व्यवसाय पर नियन्त्रण कर लेता है। खुशहाल के घर में काम करनेवाली किसुनी धीरे-धीरे उनकी ज़रूरत बन जाती है। बनारस में भी खुशहाल का व्यवसाय है सूदी का। किसुनी को लेकर वे वहाँ कुछ दिन रहते हैं। वापस आने पर किसुनी गर्भ से होती है। ठाकुर इसे छिपाने की कोशिश करता है लेकिन यह बात जाहिर हो जाती है और इसे लेकर दलितों में आक्रोश फैल जाता है। हालाँकि यह कहानी भी अधूरी ही रही। संग्रह की अन्तिम कहानी के रूप में प्रस्तुत ‘चार दिन’ शीर्षक कहानी केविषय में यहाँ विशेष उल्लेख करना आवश्यक है। यह कहानी रचना-शिल्प के प्रयोग पक्ष के लिहाज से रेखांकित करने योग्य है। इसकी शुरुआत मार्कण्डेय ने सोमवार को की। अगले दिन यानी मंगलवार को इसे आगे बढ़ाने का जिम्मा साथी कथाकार ओमप्रकाश श्रीवास्तव को। बुध को मार्कण्डेय फिर। और गुरुवार को कहानी पूरी हुई-ओमप्रकाश श्रीवास्तव के हाथों।
कुल मिलाकर यह संग्रह भी बदलते समय, जीवन और उसके भीतर के प्रतिरोधी स्वर के बीच मार्कण्डेय की खास पहचान लिये हुए है। अब बिना किसी भूमिका के मार्कण्डेय की ये कहानियाँ प्रस्तुत हैं जिन्हें अपने पाठकों से बोलना-बतियाना है।
इस संग्रह में कुल बीस कहानियाँ हैं। जिसमें शीर्षक कहानी हलयोग, बरकत, निबन्ध सौरभ, हल लिये मजूर, गड़ा हुआ धन, माँ जी का मोती, अब वह हमेशा के लिए हमारी है, अलग-अलग पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। घी के दीये कहानी कथा एवं लोकवार्ता के अन्तर्गत अखबार में छपी है। ग़रीबों की बस्ती, रक्तदान, खोया स्वर्ग, प्रोफ़ेसर एवं बीते दिन कहानियाँ मार्कण्डेय की बिलकुल प्रारम्मिक कहानियाँ हैं। 1948 ई० से 1953 के बीच में लिखी गयी ये कहानियाँ कहानी लिखने का प्रयास हैं लेकिन महत्त्वपूर्ण इसलिए हैं कि इसमें मार्कण्डेय की चेतना-प्रक्रिया की हलचलों का पता चलता है। ग़रीबों की बस्ती में जहाँ विभाजन के बाद हुए दंगों की पृष्ठभूमि है तो रक्तदान में तेलंगाना के किसान संघर्ष की। इन कहानियों के बारे में इससे अधिक सूचना की कुछ और बात नहीं।
अब बचती है भविष्य वाचन, ब्रह्मदोष, बोझ भर राख, फादर पाल और बवण्डर कहानियाँ जो दरअसल मार्कण्डेय के द्वारा बहुत पहले से प्रस्तावित उपन्यास ‘लोढ़ा चक्र’ का हिस्सा हैं। इस उपन्यास की रूपरेखा उनके दिमाग़ में १९५० के दशक में ही बनी थी जिस क्रम में उन्होंने भविष्यवाचन, ब्रह्मदोष, बोझ भर राख १९५६ में लिखीं जो विकल्प और कल्पना में छपीं। इन तीनों कहानियों को मार्कण्डेय ने पण्डित काका की तीन चरित कथाएँ नाम से ड्राफ्ट किया था। पुनः इस उपन्यास का विज्ञापन नया साहित्य प्रकाशन की ओर से ‘आईने में अँधेरा’ नाम से हुआ है। बाद में इसमें फादर पाल कहानी जुड़ी और इस उपन्यास का नाम लोढ़ा चक्र की जगह ‘अँधेरे के रंग’ नाम से ड्राफ्ट किया जिसमें वे लिखते हैं कि-‘‘यह पुस्तक मेरे वर्तमान चिन्तन के प्रतिनिधित्व के निमित्त नहीं लिखी गयी वरन् मेरे अपने सृजनशील जीवन की पृष्ठभूमि है-यह एक ऋण है जिसे उतारना था, एक ऐसी जिम्मेवारी है जिसे पूरा करना जरूरी कम-से-कम मेरे लिये था जितना कोई इमारत बनाते हुए नींव को ठीक से भरना होता है।’’ फिर वे इसी ड्राफ्ट में लिखते हैं, ‘‘विभिन्न वर्गों के विभित्र चरित्रों की सृष्टि जो सत्य को खोल सकें’’ फिर वे लिखते हैं ‘‘कुछ बिन्दु देकर कुछ लेखक कहता है, कुछ इस कहानी का साक्षी उसे बताता है, कुछ जार्ज सिंह की डायरी से मिलता है लेकिन सभी कहानी के क्रम को आगे बढ़ाते हैं। अँधेरे के रंग-स्वतन्त्रता के आस-पास के अ-प्रतिनिधि लोकजीवन की कथा।’’ इसमें आये दलित चरित्रों के बारे में वे लिखते हैं, ‘‘अनवरत ग़ुलामी के कारण व्यापक निष्क्रियता, भाग्यवादिता, जीवन के बारे में कोई चिन्तन नही।’’
लेकिन इसी बीच जबकि यह उपन्यास कहानी-दर-कहानी आगे बढ़ रहा था। १९६७ का नक्सलबाड़ी विद्रोह होता है। बाद में चलकर इसके व्यापक प्रभाव में मार्कण्डेय कहानी लिखते हैं ‘उसी ओर’ नाम से लेकिन बाद में उस कहानी और पूरे उपन्यास को वे ‘बवण्डर’ नाम से ड्राफ्ट करते हैं और कथा-क्षेत्र आज़ादी के पहले की निष्क्रियता, भाग्यवादिता और जीवन के बारे में किसी चिन्तन के न होने से लेकर नक्सलबाड़ी के बाद की सक्रियता, कर्मवादिता और जीवन के बारे में स्पष्ट चिन्तन तक फैल जाता है। इस उपन्यास में गाँव के साथ ही शहर की कथा भी चलती है हालाँकि इस रूप में सिर्फ़ फादर पाल ही वे लिख पाये जिसे वे नयना की मुक्ति की कहानी कहते हैं जिसमें ‘जे’ नाम का चरित्र है जो अपने सवालों की तलाश में आज़ादी के लिए चलने वाले क्रान्तिकारी भूमिगत किसान आन्दोलन से जुड़ जाता है खैर...उपन्यास भी अधूरा रहा कहानी भी अधूरी रही।
मार्कण्डेय अपनी अन्तिम कहानी ख़ुशहाल ठाकुर के चरित्र पर केन्द्रित करके लिख रहे थे जो गाँव के बड़े काश्तकार और व्यवसायी हैं। पहली पत्नी मर जाती है, दूसरी शादी करते हैं और इससे नाराज़ उनका बेटा कुमार उनसे सम्बन्ध-विच्छेद कर कलकत्ते में रुक जाता है, वहीं शादी करता है और कलकत्ता के ख़ुशहाल ठाकुर के पूरे व्यवसाय पर नियन्त्रण कर लेता है। खुशहाल के घर में काम करनेवाली किसुनी धीरे-धीरे उनकी ज़रूरत बन जाती है। बनारस में भी खुशहाल का व्यवसाय है सूदी का। किसुनी को लेकर वे वहाँ कुछ दिन रहते हैं। वापस आने पर किसुनी गर्भ से होती है। ठाकुर इसे छिपाने की कोशिश करता है लेकिन यह बात जाहिर हो जाती है और इसे लेकर दलितों में आक्रोश फैल जाता है। हालाँकि यह कहानी भी अधूरी ही रही। संग्रह की अन्तिम कहानी के रूप में प्रस्तुत ‘चार दिन’ शीर्षक कहानी केविषय में यहाँ विशेष उल्लेख करना आवश्यक है। यह कहानी रचना-शिल्प के प्रयोग पक्ष के लिहाज से रेखांकित करने योग्य है। इसकी शुरुआत मार्कण्डेय ने सोमवार को की। अगले दिन यानी मंगलवार को इसे आगे बढ़ाने का जिम्मा साथी कथाकार ओमप्रकाश श्रीवास्तव को। बुध को मार्कण्डेय फिर। और गुरुवार को कहानी पूरी हुई-ओमप्रकाश श्रीवास्तव के हाथों।
कुल मिलाकर यह संग्रह भी बदलते समय, जीवन और उसके भीतर के प्रतिरोधी स्वर के बीच मार्कण्डेय की खास पहचान लिये हुए है। अब बिना किसी भूमिका के मार्कण्डेय की ये कहानियाँ प्रस्तुत हैं जिन्हें अपने पाठकों से बोलना-बतियाना है।
- दुर्गाप्रसाद
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