पत्र एवं पत्रकारिता >> क्लास रिपोर्टर क्लास रिपोर्टरजय प्रकाश त्रिपाठी
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पत्रकारिता पर वैसे तो अनेकशः पुस्तकें उपलब्ध हैं, लेकिन मीडिया के सबसे महत्वपूर्ण आयाम रिपोर्टिंग पर एक मुक्कमल किताब है "क्लास रिपोर्टर"
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस पुस्तक में बाईस अध्याय हैं, जिनमें रिपोर्टिंग के विभिन्न पक्षों पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। पुस्तक, न केवल पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी है बल्कि नयी पीढ़ी के पत्रकारों के लिए भी उतनी ही पठनीय और संग्रहणीय। प्रसिद्ध कथाकार ममता कालिया का कहती हैं - ‘जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक ‘मीडिया हूं मैं’ की तरह ‘क्लास रिपोर्टर’ में भी मीडिया से जुड़े वर्षों का अनुभव सहेजने की कोशिश की गयी है।’ तकनीक के दौर में बेहतर रिपोर्टर होने की दिशा में किस तरह सजग रहना आज जरूरी हो गया है, इस 208 पृष्ठों की पुस्तक के विभिन्न अध्यायों बिजनेस, अपराध, समाज, खेल, कृषि, ग्रामीण, विज्ञान, राजनीति, संसद, स्वास्थ्य, विकास आदि में कवरेज की दृष्टि से पूरी गंभीरता से प्रस्तुत किया गया है। रिपोर्टिंग के पहले पाठ से लेकर रिपोर्टिंग की पढ़ाई और करियर तक ‘क्लास रिपोर्टर’ में सब समाहित है।
सही मायने में यह पुस्तक किसी भी मीडिया विद्यार्थी को न केवल रिपोर्टिंग के सिद्धांतों, रिपोर्टिंग के विविध आयामों, रिपोर्टिंग के महत्व से परिचित कराती है बल्कि उसे एक उम्दा रिपोर्टर भी बनाती है। ‘क्लास रिपोर्टर’ में पत्रकार के लिए कुशल रिपोर्टिंग, कॉपी राइटिंग की दृष्टि से आवश्यक भाषा और वर्तनी पर भी गंभीर सामग्री है। पुस्तक के संबंध में मीडिया गुरु एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी की टिप्पणी गौरतलब है। वह लिखते हैं - ‘सूचना की बहुतायत के बीच खबरें चुनना और उन्हें अपने लक्ष्य समूह के लिए प्रस्तुत करना साधारण कला नहीं है। ‘क्लास रिपोर्टर’ अकादमिक आख्यान भर नहीं, सीधे मैदान में उतरने के औजार भी उपलब्ध कराती है।’ पुस्तक का अध्ययन करने के बाद प्रसिद्ध हिंदी कथाकार संजीव कहते हैं - ‘क्लास रिपोर्टर’ छात्रों के काम की किताब है। जनसंचार विभागाध्यक्ष (असम विश्वविद्यालय) प्रो.ज्ञान प्रकाश पाण्डेय लिखते हैं - ‘क्लास रिपोर्टर’ छात्रों, शोधार्थियों एवं नये पत्रकारों के लिए क्यों आवश्यक है, इसके अध्ययन से पता चलता है।
पटना विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के प्रोफेसर राकेश प्रवीर की टिप्पणी है - ‘बीस से अधिक अध्यायों में अंतर्विभाजित ‘क्लास रिपोर्टर’ से छात्रों, अध्येताओं, पत्रकारों का अवश्य पथ-प्रदर्शन होगा।’ राजस्थान विश्वविद्यालय में जनसंचार केंद्र के अध्यक्ष प्रो. संजीव भानावत ने लिखा है - ‘क्लास रिपोर्टर’ अध्ययन एवं अध्यापन की दृष्टि से पत्रकारिता का एक आधारभूत ग्रंथ है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, नोएडा (उ.प्र.) के निदेशक प्रो.जगदीश उपासने का कहना है कि मीडिया में अपना भविष्य देख रहे छात्रों के लिए ‘क्लास रिपोर्टर’ अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है।
‘क्लास रिपोर्टर’ के ‘पूर्वारंभ’ (भूमिका) में लेखक जयप्रकाश त्रिपाठी लिखते हैं - यह तो दावा नहीं करना चाहिए कि जर्नलिज्म के छात्रों के लिए ऐसी कोई किताब नहीं लिखी गयी है, न इस तरह और कभी लिखने का प्रयास किया गया होगा। ‘क्लास रिपोर्टर’ को लिखते समय ध्यान मुख्यतः विश्वविद्यालयों के भिन्न पाठ्यक्रमों और पत्रकारिता विभागाध्यक्षों के लगभग एक-जैसे उस महत्वपूर्ण कथन पर केंद्रित रहा कि काफी समय से मीडिया प्रशिक्षुओं के लिए एक ऐसी पुस्तक की आवश्यकता बनी हुई है, जिसमें रिपोर्टिंग के विविध विषय एवं अधिकांश पक्ष, सविस्तार एक साथ संकलित हों। पुस्तक में उनकी स्वाध्यायी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का गंभीर प्रयास किया गया है।
‘पुस्तक-सामग्री के चयन एवं लेखन के दौरान मेरे लिए दूसरा विचारणीय विंदु रहा, विभिन्न प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में कार्यरत रहते हुए स्वयं का वह अनुभव, निष्कर्ष और एक प्रश्न कि पत्रकारों की नयी पीढ़ी पहले की तरह क्यों नहीं? शहरों, महानगरों की परिधि लांघते हुए दुर्गम स्थानों तक, गांव-गांव मीडिया क्षेत्र जिस वेग से विस्तारित होता जा रहा है, क्या उस अनुपात में सुयोग्य रिपोर्टर्स का संस्थानों में अभाव नहीं महसूस किया जा रहा है? क्या अयोग्यता के इस प्रश्न को प्रशिक्षण संस्थानों के मत्थे मढ़कर संपादक प्रतिष्ठान स्वयं अनुत्तरित हो सकता है? इसलिए यह पुस्तक नये रिपोर्टर्स के लिए भी उतनी ही उपयोगी हो सकती है, जितनी कि जर्नलिज्म के छात्रों के लिए। पत्रकारिता के छात्रों, नयी पीढ़ी के पत्रकार साथियों और किंचित मीडिया विद्वानों के बीच भी एक और प्रश्न गौरतलब हो सकता है कि इतना विशद विषय रिपोर्टिंग ही क्यों? इस प्रश्न का समाधान पुस्तक पढ़ने के बाद ही पाया जा सकता है।’
सही मायने में यह पुस्तक किसी भी मीडिया विद्यार्थी को न केवल रिपोर्टिंग के सिद्धांतों, रिपोर्टिंग के विविध आयामों, रिपोर्टिंग के महत्व से परिचित कराती है बल्कि उसे एक उम्दा रिपोर्टर भी बनाती है। ‘क्लास रिपोर्टर’ में पत्रकार के लिए कुशल रिपोर्टिंग, कॉपी राइटिंग की दृष्टि से आवश्यक भाषा और वर्तनी पर भी गंभीर सामग्री है। पुस्तक के संबंध में मीडिया गुरु एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी की टिप्पणी गौरतलब है। वह लिखते हैं - ‘सूचना की बहुतायत के बीच खबरें चुनना और उन्हें अपने लक्ष्य समूह के लिए प्रस्तुत करना साधारण कला नहीं है। ‘क्लास रिपोर्टर’ अकादमिक आख्यान भर नहीं, सीधे मैदान में उतरने के औजार भी उपलब्ध कराती है।’ पुस्तक का अध्ययन करने के बाद प्रसिद्ध हिंदी कथाकार संजीव कहते हैं - ‘क्लास रिपोर्टर’ छात्रों के काम की किताब है। जनसंचार विभागाध्यक्ष (असम विश्वविद्यालय) प्रो.ज्ञान प्रकाश पाण्डेय लिखते हैं - ‘क्लास रिपोर्टर’ छात्रों, शोधार्थियों एवं नये पत्रकारों के लिए क्यों आवश्यक है, इसके अध्ययन से पता चलता है।
पटना विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के प्रोफेसर राकेश प्रवीर की टिप्पणी है - ‘बीस से अधिक अध्यायों में अंतर्विभाजित ‘क्लास रिपोर्टर’ से छात्रों, अध्येताओं, पत्रकारों का अवश्य पथ-प्रदर्शन होगा।’ राजस्थान विश्वविद्यालय में जनसंचार केंद्र के अध्यक्ष प्रो. संजीव भानावत ने लिखा है - ‘क्लास रिपोर्टर’ अध्ययन एवं अध्यापन की दृष्टि से पत्रकारिता का एक आधारभूत ग्रंथ है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, नोएडा (उ.प्र.) के निदेशक प्रो.जगदीश उपासने का कहना है कि मीडिया में अपना भविष्य देख रहे छात्रों के लिए ‘क्लास रिपोर्टर’ अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है।
‘क्लास रिपोर्टर’ के ‘पूर्वारंभ’ (भूमिका) में लेखक जयप्रकाश त्रिपाठी लिखते हैं - यह तो दावा नहीं करना चाहिए कि जर्नलिज्म के छात्रों के लिए ऐसी कोई किताब नहीं लिखी गयी है, न इस तरह और कभी लिखने का प्रयास किया गया होगा। ‘क्लास रिपोर्टर’ को लिखते समय ध्यान मुख्यतः विश्वविद्यालयों के भिन्न पाठ्यक्रमों और पत्रकारिता विभागाध्यक्षों के लगभग एक-जैसे उस महत्वपूर्ण कथन पर केंद्रित रहा कि काफी समय से मीडिया प्रशिक्षुओं के लिए एक ऐसी पुस्तक की आवश्यकता बनी हुई है, जिसमें रिपोर्टिंग के विविध विषय एवं अधिकांश पक्ष, सविस्तार एक साथ संकलित हों। पुस्तक में उनकी स्वाध्यायी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का गंभीर प्रयास किया गया है।
‘पुस्तक-सामग्री के चयन एवं लेखन के दौरान मेरे लिए दूसरा विचारणीय विंदु रहा, विभिन्न प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में कार्यरत रहते हुए स्वयं का वह अनुभव, निष्कर्ष और एक प्रश्न कि पत्रकारों की नयी पीढ़ी पहले की तरह क्यों नहीं? शहरों, महानगरों की परिधि लांघते हुए दुर्गम स्थानों तक, गांव-गांव मीडिया क्षेत्र जिस वेग से विस्तारित होता जा रहा है, क्या उस अनुपात में सुयोग्य रिपोर्टर्स का संस्थानों में अभाव नहीं महसूस किया जा रहा है? क्या अयोग्यता के इस प्रश्न को प्रशिक्षण संस्थानों के मत्थे मढ़कर संपादक प्रतिष्ठान स्वयं अनुत्तरित हो सकता है? इसलिए यह पुस्तक नये रिपोर्टर्स के लिए भी उतनी ही उपयोगी हो सकती है, जितनी कि जर्नलिज्म के छात्रों के लिए। पत्रकारिता के छात्रों, नयी पीढ़ी के पत्रकार साथियों और किंचित मीडिया विद्वानों के बीच भी एक और प्रश्न गौरतलब हो सकता है कि इतना विशद विषय रिपोर्टिंग ही क्यों? इस प्रश्न का समाधान पुस्तक पढ़ने के बाद ही पाया जा सकता है।’
रिपोर्ट एवं रिपोर्टर
पाठक की जिज्ञासा, जानने की उत्सुकता ही सूचना के उद्भव की पहली आवश्यकता है। मनुष्य स्वभावतः जिज्ञासु होता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की सूचनात्मक जिज्ञासाओं का समाधान ही ‘पत्रकारिता’ है। पत्रकारिता के विद्वानों ने इसे अनेक तरह से परिभाषित किया है। खबर या रिपोर्ट क्या होती है? संक्षिप्ततः आम पाठक के लिए किसी अज्ञात एवं ताजा घटना-दुर्घटना की सूचना अथवा किसी घटना-दुर्घटना की ताजा सूचना को खबर या रिपोर्ट कहते हैं। अंग्रेजी के नॉर्थ, ईस्ट, वेस्ट, साउथ दिशाबोधक चार शब्दों से बने (NEWS) न्यूज-समाचार को अतिविद्वतापूर्ण शब्दों में ‘जल्दी में लिखा गया इतिहास’ भी कह दिया जाता है। रिपोर्टिंग एक कला है, कौशल है। पत्रकारिता की भाषा में खबर को ‘रिपोर्ट’ कहा जाता है और खबर संकलित करने वाले को रिपोर्टर। पत्रकारिता का प्रथम एवं सर्वाधिक क्रियाशील प्रत्यंग होता है रिपोर्टर। वस्तुतः वही पत्रकारिता का जीवनदाता ‘प्रथम हस्ताक्षर’ होता है। उसे छोड़कर पत्रकारिता की अन्य समस्त संचारी क्रियाएं-प्रक्रियाएं सूचना के सुंदरीकरण एवं संवहन के लिए होती हैं। रिपोर्टर की पहली योग्यता है सर्वप्रथम पाठक के प्रति ईमानदारी, मनुष्यता में विश्वास, रचनात्मक निष्ठा एवं सुधी पठनीयता। बाकी तरह की योग्यताएं विद्यालयीय, सांस्थानिक अथवा सामाजिक सरोकारों की देन होती हैं।
चारो मीडिया माध्यमों में पत्रकारिता के लिए लेखन-सैद्धांतिकी चाहे जो भी हो, सबसे कलात्मक और स्वीकार्य वह है, जो सूचनाओं की पठनीयता की दृष्टि से अत्यंत सहज, शुद्ध, बोधगम्य हो। पांडित्य प्रदर्शन, अनावश्यक वैचारिक विश्लेषण, संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, बहुत जटिल उर्दू-फारसी के शब्द खबरों को दुर्बोध बनाते हैं। खबरों की लिखाई स्पष्ट और सूचनात्मक तथ्यों के अनुपात में संतुलित-संक्षिप्त होनी चाहिए। पाठकों की अभिरुचि एवं सूचना-महत्व की दृष्टि से रिपोर्ट के शीर्षक मीडिया माध्यम के तेवर से पाठकों को परिचित कराते हैं। शीर्षक रिपोर्टर और संपादक की योग्यता का भी प्राथमिक मापदंड होते हैं। कहा जाता है कि खबर का शीर्षक ऐसा होना चाहिए, जिसे पढ़ते ही पाठक पूरी सूचना जानने के लिए व्यग्र हो उठे। खबरों के साथ प्रस्तुत होने वाले चित्रों के परिचय लिखने में भी छह-ककार के सूत्र का प्रयोग किया जाता है। उन्नीसवीं सदी के मध्य से प्रचलन में ‘उल्टा पिरामिड’ समाचार लेखन का सबसे सरल और व्यावहारिक सिद्धांत है। इसके अंतर्गत खबर के सबसे महत्वपूर्ण तथ्य को सबसे पहले लिखा जाता है। उल्टा पिरामिड शैली के ‘इंट्रो और बॉडी’, मुख्यतः दो हिस्से होते हैं। सबसे पहले अधिकतम चालीस-पचास शब्दों में खबर का इंट्रो लिखा जाता है। इंट्रो में पूरी खबर छह-ककार के मानक के अनुसार संक्षिप्ततः लिखी जाती है।
हिंदी पत्रकारिता में आज भाषा और वर्तनी की अशुद्धता पाठकों ही नहीं, रिपोर्टरों और संपादकों के लिए भी गंभीर बौद्धिक चिंता का विषय है। इस दिशा में मीडिया की आंतरिक उदासीनता से हिंदी पत्रकारिता की बहुत क्षति हो रही है। इस पर ध्यान देना पत्रकारिता के छात्रों एवं नये पत्रकारों के लिए विशेष रूप से उपयोगी होगा। यहां भाषा और वर्तनी पर विद्वानों की राय के साथ सविस्तार प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट यानी खबर की भाषा का उद्देश्य सूचना को ऐसी भाषा में संप्रेषित करना होता है, जो पाठकों को सहजता से समझ में आ जाये। खबर की भाषा एकदम सरल होनी चाहिए। रिपोर्टर को ध्यान रहना चाहिए कि भाषा का जादू चलाने के लिए वह खबर को उसकी बोधगम्यता से भटका तो नहीं रहा है, क्योंकि खबर का मूल उद्देश्य भाषा-ज्ञान का प्रदर्शन नहीं, बल्कि अधिक-से-अधिक पाठकों तक पहुंचाना है। पत्रकारिता और साहित्य की भाषा पृथक-पृथक होती है। पत्रकारिता की वही भाषा अच्छी मानी जाती है, जिसमें प्रस्तुत सूचना सरल तरीक़े से पाठक को समझ में आ जाये। भाषावैज्ञानिक, दार्शनिक, वामपंथी लेखक नोम चोम्स्की ने भाषाविज्ञान संबंधी कई सिद्धांतों का सूत्रपात किया है। उनका कहना है कि ‘जन्मजात भाषाई क्षमता मनुष्यों की विशिष्टता है।’ भाषा उत्पन्न करने जैसे विशिष्ट मामले में कोई प्रजाति अगर मनुष्य के सबसे ज्यादा नजदीक कही जा सकती है, तो वह है पक्षी।....भाषा की प्रकृति के बार में जो कुछ हम जानते हैं उसे हम किस हद तक मस्तिष्क में होने वाली क्रियाओं से जोड़कर देख सकते हैं? और अंतत: क्या भाषा के आनुवांशिक आधार के बारे में कोई गम्भीर पड़ताल हुई है? इस सभी बिंदुओं पर बेशक प्रगति दिखाई देती है लेकिन बड़े रिक्त स्थान अब भी बने हुए हैं।
क्राइम रिपोर्टिंग के लिए पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के साथ ही अपराधशास्त्र और दंड संहिताओं की भी जानकारी होनी चाहिए। उन्हें इस तरह के प्रश्नों का उत्तर जान लेना चाहिए कि अपराध क्या है, विद्वानों ने इसे किस तरह परिभाषित किया है, भारतीय दण्ड संहिता ‘आइपीसी’, रणबीर दण्ड संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता ‘सीआरपीसी’, भारतीय साक्ष्य अधिनियम आदि क्या होते हैं? भारतीय समाज का यथार्थ और मीडिया का यथार्थ, आज दो ऐसे उल्लेखनीय विंदु हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर ही पाठकों के लिए स्वीकार्य एवं सूचनापरक क्राइम रिपोर्टिंग की जा सकती है। समाज अर्थात अपराध जगत का यथार्थ। भारतीय समाज व्यवस्था को सबसे ज्यादा आर्थिक अपराध खोखला कर रहा है। क्राइम रिपोर्टर के लिए वही सबसे बड़ी चुनौती है।
पत्रकारिता के पेशे में स्पेशल एवं इन्वेस्टिगेटिंग रिपोर्टिंग और स्टिंग ऑपरेशन को सबसे कठिन चुनौती माना जाता है। यह दुधारी पत्रकारिता होती है। ऐसी खबरें लिखना हर रिपोर्टर के वश की बात नहीं होती है। ऐसी रिपोर्ट का संकलन और कॉपी राइटिंग जितनी महत्वपूर्ण होती है, उनका पाठक वर्ग भी उतना व्यापक होता है। जरूरी नहीं कि ऐसी रिपोर्ट नकारात्मक ही हो। स्पेशल, खोजपरक रिपोर्ट के लिए कठोर आत्मविश्वास और साहस, संकलन की तकनीकी कला और यांत्रिक संसाधन, लक्ष्य तक विश्वसनीय पहुंच और संपर्क होना आवश्यक है। खबर के संबंध में मिली पहली सूचना के हर पक्ष को समझने, परखने, जांचने की रिपोर्टर में की सुयोग्यता और पैना अनुभव होना चाहिए। यह सवाल उसे बार-बार परेशान करना चाहिए कि सूचना देने वाला सूत्र संदिग्ध तो नहीं है?
दुनियाभर में पर्यावरण असंतुलन का व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के जीवन पर गंभीर असर है। पर्यावरण असंतुलन के बुनियादी कारण हैं - बढ़ती जनसंख्या, मानव की बढ़ती आवश्यकताएं और उपभोक्तावादी भूख। बढ़ता प्रदूषण, पर्यावरणीय क्षरण और प्राकृतिक आपदाओं से जन-धन की भारी तबाही अब हर वर्ष मीडिया की सुर्खियों में रहने लगी है। रेडियो, टेलीविजन और पत्र-पत्रिकाएं बारहो मास मौसम से संबंधित सूचनाओं के प्रति सतर्क रहती हैं। प्रतिदिन मौसम संबंधी जानकारियां प्रकाशित-प्रसारित होती हैं। प्रायः मीडिया पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करने के साथ ही पर्यावरण पर पड़ रहे गंभीर दुष्प्रभावों से आगाह भी करता रहता है। प्राकृतिक आपदा के दौरान रिपोर्टर को हालात के एक-एक पल पर नजर रखनी पड़ती है। प्राकृतिक आपदा को कवर करना हंसी-खेल नहीं होता है। किसी जन-आंदोलन, धरना-प्रदर्शन, संसदीय कार्यवाही या चुनाव की तरह उनकी रिपोर्टिंग नहीं की जा सकती।
नगर निकाय चूंकि शासन-प्रशासन और जनता की एक तरह की स्थानीय सरकार हैं, अतः उनके साथ भी कमोबेश वैसी ही संगति-असंगतियां स्वाभाविक हैं। एक बड़ी प्रचलित कहावत है कि सभी पत्रकार नागरिक होते हैं, लेकिन सभी नागरिक पत्रकार नहीं होते हैं। निकाय रिपोर्टर की जिम्मेदारी अन्य बीटों से कुछ कम अहम नहीं होती है। निकाय अध्यक्ष शहर का प्रथम नागरिक होता है। उसके साथ शहर के जर्रे-जर्रे से जुड़े पार्षदों (पक्ष-विपक्ष) की टीम होती है, इसलिए उसकी शहर की नागरिक व्यवस्था ही नहीं, राजनीति में भी प्रायः निर्णायक भूमिका रहती है। इससे निकाय स्थल शहरी राजनीति के भी एक तरह से केंद्रीय ठिकाने होते हैं। चुनाव के माध्यम से यहां के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों की अपने-अपने वार्डों के एक नागरिक तक सीधी पहुंच और रोजमर्रा की आमदरफ्त होती है। जनजीवन से जुड़ी घर-मकान, पानी, सड़कों के किनारे की बिजली, स्वास्थ्य सेवाएं, मकान-दुकानों के कराधान आदि में इनका सीधे हस्तक्षेप रहने से निकाय स्थल एक प्रमुख सूचना केंद्र भी होता है। आबादी में लगातार वृद्धि के साथ इनके क्षेत्र का भी अनवरत विस्तार होते जाने से निकाय रिपोर्टरों के दायित्व भी अब काफी बढ़ गये हैं। मीडिया की आपसी व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धाओं ने भी निकाय गतिविधियों को महत्वपूर्ण बना दिया है। यदि संबंधित शहर नगर निगम की श्रेणी में है या पर्यटन के प्रादेशिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर है अथवा राजधानी के रूप में अति राजनीतिक महत्व का है तो निकाय के अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों और उसी अनुपात में रिपोर्टर की भी जनजवाबदेही के रूप में अतिरिक्त दायित्व बढ़ जाते हैं।
इसी प्रकार खेल, राजनीति, धर्म, कला एवं संस्कृति, साहित्य, बाजार-व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य, संसद और विधानसभा आदि की रिपोर्टिंग पर कुल बाईस अध्यायों में सविस्तार प्रस्तुत सामग्री पाठक का अपेक्षाधिक मार्ग दर्शन करती है।
चारो मीडिया माध्यमों में पत्रकारिता के लिए लेखन-सैद्धांतिकी चाहे जो भी हो, सबसे कलात्मक और स्वीकार्य वह है, जो सूचनाओं की पठनीयता की दृष्टि से अत्यंत सहज, शुद्ध, बोधगम्य हो। पांडित्य प्रदर्शन, अनावश्यक वैचारिक विश्लेषण, संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, बहुत जटिल उर्दू-फारसी के शब्द खबरों को दुर्बोध बनाते हैं। खबरों की लिखाई स्पष्ट और सूचनात्मक तथ्यों के अनुपात में संतुलित-संक्षिप्त होनी चाहिए। पाठकों की अभिरुचि एवं सूचना-महत्व की दृष्टि से रिपोर्ट के शीर्षक मीडिया माध्यम के तेवर से पाठकों को परिचित कराते हैं। शीर्षक रिपोर्टर और संपादक की योग्यता का भी प्राथमिक मापदंड होते हैं। कहा जाता है कि खबर का शीर्षक ऐसा होना चाहिए, जिसे पढ़ते ही पाठक पूरी सूचना जानने के लिए व्यग्र हो उठे। खबरों के साथ प्रस्तुत होने वाले चित्रों के परिचय लिखने में भी छह-ककार के सूत्र का प्रयोग किया जाता है। उन्नीसवीं सदी के मध्य से प्रचलन में ‘उल्टा पिरामिड’ समाचार लेखन का सबसे सरल और व्यावहारिक सिद्धांत है। इसके अंतर्गत खबर के सबसे महत्वपूर्ण तथ्य को सबसे पहले लिखा जाता है। उल्टा पिरामिड शैली के ‘इंट्रो और बॉडी’, मुख्यतः दो हिस्से होते हैं। सबसे पहले अधिकतम चालीस-पचास शब्दों में खबर का इंट्रो लिखा जाता है। इंट्रो में पूरी खबर छह-ककार के मानक के अनुसार संक्षिप्ततः लिखी जाती है।
हिंदी पत्रकारिता में आज भाषा और वर्तनी की अशुद्धता पाठकों ही नहीं, रिपोर्टरों और संपादकों के लिए भी गंभीर बौद्धिक चिंता का विषय है। इस दिशा में मीडिया की आंतरिक उदासीनता से हिंदी पत्रकारिता की बहुत क्षति हो रही है। इस पर ध्यान देना पत्रकारिता के छात्रों एवं नये पत्रकारों के लिए विशेष रूप से उपयोगी होगा। यहां भाषा और वर्तनी पर विद्वानों की राय के साथ सविस्तार प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट यानी खबर की भाषा का उद्देश्य सूचना को ऐसी भाषा में संप्रेषित करना होता है, जो पाठकों को सहजता से समझ में आ जाये। खबर की भाषा एकदम सरल होनी चाहिए। रिपोर्टर को ध्यान रहना चाहिए कि भाषा का जादू चलाने के लिए वह खबर को उसकी बोधगम्यता से भटका तो नहीं रहा है, क्योंकि खबर का मूल उद्देश्य भाषा-ज्ञान का प्रदर्शन नहीं, बल्कि अधिक-से-अधिक पाठकों तक पहुंचाना है। पत्रकारिता और साहित्य की भाषा पृथक-पृथक होती है। पत्रकारिता की वही भाषा अच्छी मानी जाती है, जिसमें प्रस्तुत सूचना सरल तरीक़े से पाठक को समझ में आ जाये। भाषावैज्ञानिक, दार्शनिक, वामपंथी लेखक नोम चोम्स्की ने भाषाविज्ञान संबंधी कई सिद्धांतों का सूत्रपात किया है। उनका कहना है कि ‘जन्मजात भाषाई क्षमता मनुष्यों की विशिष्टता है।’ भाषा उत्पन्न करने जैसे विशिष्ट मामले में कोई प्रजाति अगर मनुष्य के सबसे ज्यादा नजदीक कही जा सकती है, तो वह है पक्षी।....भाषा की प्रकृति के बार में जो कुछ हम जानते हैं उसे हम किस हद तक मस्तिष्क में होने वाली क्रियाओं से जोड़कर देख सकते हैं? और अंतत: क्या भाषा के आनुवांशिक आधार के बारे में कोई गम्भीर पड़ताल हुई है? इस सभी बिंदुओं पर बेशक प्रगति दिखाई देती है लेकिन बड़े रिक्त स्थान अब भी बने हुए हैं।
क्राइम रिपोर्टिंग के लिए पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के साथ ही अपराधशास्त्र और दंड संहिताओं की भी जानकारी होनी चाहिए। उन्हें इस तरह के प्रश्नों का उत्तर जान लेना चाहिए कि अपराध क्या है, विद्वानों ने इसे किस तरह परिभाषित किया है, भारतीय दण्ड संहिता ‘आइपीसी’, रणबीर दण्ड संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता ‘सीआरपीसी’, भारतीय साक्ष्य अधिनियम आदि क्या होते हैं? भारतीय समाज का यथार्थ और मीडिया का यथार्थ, आज दो ऐसे उल्लेखनीय विंदु हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर ही पाठकों के लिए स्वीकार्य एवं सूचनापरक क्राइम रिपोर्टिंग की जा सकती है। समाज अर्थात अपराध जगत का यथार्थ। भारतीय समाज व्यवस्था को सबसे ज्यादा आर्थिक अपराध खोखला कर रहा है। क्राइम रिपोर्टर के लिए वही सबसे बड़ी चुनौती है।
पत्रकारिता के पेशे में स्पेशल एवं इन्वेस्टिगेटिंग रिपोर्टिंग और स्टिंग ऑपरेशन को सबसे कठिन चुनौती माना जाता है। यह दुधारी पत्रकारिता होती है। ऐसी खबरें लिखना हर रिपोर्टर के वश की बात नहीं होती है। ऐसी रिपोर्ट का संकलन और कॉपी राइटिंग जितनी महत्वपूर्ण होती है, उनका पाठक वर्ग भी उतना व्यापक होता है। जरूरी नहीं कि ऐसी रिपोर्ट नकारात्मक ही हो। स्पेशल, खोजपरक रिपोर्ट के लिए कठोर आत्मविश्वास और साहस, संकलन की तकनीकी कला और यांत्रिक संसाधन, लक्ष्य तक विश्वसनीय पहुंच और संपर्क होना आवश्यक है। खबर के संबंध में मिली पहली सूचना के हर पक्ष को समझने, परखने, जांचने की रिपोर्टर में की सुयोग्यता और पैना अनुभव होना चाहिए। यह सवाल उसे बार-बार परेशान करना चाहिए कि सूचना देने वाला सूत्र संदिग्ध तो नहीं है?
दुनियाभर में पर्यावरण असंतुलन का व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के जीवन पर गंभीर असर है। पर्यावरण असंतुलन के बुनियादी कारण हैं - बढ़ती जनसंख्या, मानव की बढ़ती आवश्यकताएं और उपभोक्तावादी भूख। बढ़ता प्रदूषण, पर्यावरणीय क्षरण और प्राकृतिक आपदाओं से जन-धन की भारी तबाही अब हर वर्ष मीडिया की सुर्खियों में रहने लगी है। रेडियो, टेलीविजन और पत्र-पत्रिकाएं बारहो मास मौसम से संबंधित सूचनाओं के प्रति सतर्क रहती हैं। प्रतिदिन मौसम संबंधी जानकारियां प्रकाशित-प्रसारित होती हैं। प्रायः मीडिया पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करने के साथ ही पर्यावरण पर पड़ रहे गंभीर दुष्प्रभावों से आगाह भी करता रहता है। प्राकृतिक आपदा के दौरान रिपोर्टर को हालात के एक-एक पल पर नजर रखनी पड़ती है। प्राकृतिक आपदा को कवर करना हंसी-खेल नहीं होता है। किसी जन-आंदोलन, धरना-प्रदर्शन, संसदीय कार्यवाही या चुनाव की तरह उनकी रिपोर्टिंग नहीं की जा सकती।
नगर निकाय चूंकि शासन-प्रशासन और जनता की एक तरह की स्थानीय सरकार हैं, अतः उनके साथ भी कमोबेश वैसी ही संगति-असंगतियां स्वाभाविक हैं। एक बड़ी प्रचलित कहावत है कि सभी पत्रकार नागरिक होते हैं, लेकिन सभी नागरिक पत्रकार नहीं होते हैं। निकाय रिपोर्टर की जिम्मेदारी अन्य बीटों से कुछ कम अहम नहीं होती है। निकाय अध्यक्ष शहर का प्रथम नागरिक होता है। उसके साथ शहर के जर्रे-जर्रे से जुड़े पार्षदों (पक्ष-विपक्ष) की टीम होती है, इसलिए उसकी शहर की नागरिक व्यवस्था ही नहीं, राजनीति में भी प्रायः निर्णायक भूमिका रहती है। इससे निकाय स्थल शहरी राजनीति के भी एक तरह से केंद्रीय ठिकाने होते हैं। चुनाव के माध्यम से यहां के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों की अपने-अपने वार्डों के एक नागरिक तक सीधी पहुंच और रोजमर्रा की आमदरफ्त होती है। जनजीवन से जुड़ी घर-मकान, पानी, सड़कों के किनारे की बिजली, स्वास्थ्य सेवाएं, मकान-दुकानों के कराधान आदि में इनका सीधे हस्तक्षेप रहने से निकाय स्थल एक प्रमुख सूचना केंद्र भी होता है। आबादी में लगातार वृद्धि के साथ इनके क्षेत्र का भी अनवरत विस्तार होते जाने से निकाय रिपोर्टरों के दायित्व भी अब काफी बढ़ गये हैं। मीडिया की आपसी व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धाओं ने भी निकाय गतिविधियों को महत्वपूर्ण बना दिया है। यदि संबंधित शहर नगर निगम की श्रेणी में है या पर्यटन के प्रादेशिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर है अथवा राजधानी के रूप में अति राजनीतिक महत्व का है तो निकाय के अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों और उसी अनुपात में रिपोर्टर की भी जनजवाबदेही के रूप में अतिरिक्त दायित्व बढ़ जाते हैं।
इसी प्रकार खेल, राजनीति, धर्म, कला एवं संस्कृति, साहित्य, बाजार-व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य, संसद और विधानसभा आदि की रिपोर्टिंग पर कुल बाईस अध्यायों में सविस्तार प्रस्तुत सामग्री पाठक का अपेक्षाधिक मार्ग दर्शन करती है।
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