गीता प्रेस, गोरखपुर >> अनुराग पदावली अनुराग पदावलीसुदर्शन सिंह
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प्रस्तुत है अनुराग पदावली सरल भावार्थ सहित....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नम्र निवेदन
सूर-पदावली का यह पाँचवाँ संग्रह ‘अनुराग-पदावली’ के
नाम से
सूर-काव्य के प्रेमियों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है। जैसा कि
इसके नाम से ही प्रकट है, इस संग्रह में केवल ऐसे पदों का चयन किया गया
है, जिनमें श्रीगोपांगनाओं के श्रीकृष्णविषयक अनुराग की चर्चा की गयी है।
इनमें से अधिकांश पदों में तो कृष्णानुरागिणी व्रजललानाओं के अनूठे
प्रेमोद्वार ही सूर की हृदयस्पर्शी वाणी से प्रवाहित हुए हैं। एक-से-एक
सरस एवं मार्मिक उक्तियाँ हैं, जिनका स्वाद उन्हें पढ़ने पर ही मिलता है।
उनमें सूरदासजी ने मानों उन व्रज-ललनाओं का हृदय ही खोलकर रख दिया है। कुल
साढ़े तीन सौ से कुछ ही कम पद हैं। इनमें से लगभग आधे पद तो गोपियों के उन
बड़भागी नेत्रों को लक्ष्य करके कहे गये हैं, जो श्यामसुन्दरकी
त्रिभुवनमोहन रूप-माधुरी पर न्योछावर हो गये हैं, और रस लोभी भ्रमर की
भाँति सदा उसी पर मँडराते रहे हैं, एक क्षण के लिये भी वहाँ से हटते नहीं।
व्रजांगनाओं का कृष्ण-प्रेम अनुपमेय है, उसकी जगत् में कहीं तुलना नहीं
है। उसे शब्दों द्वारा चित्रित करते सूरदास जी ने अपनी वाणी को अमर बना
दिया है।
विद्वान अनुवादक ने सरल भाषा में उसके मर्म को समझाने की भरसक चेष्टा की है, जिससे पाठक-पाठिकाओं को उसे हृदयंगम करने में यथेष्ट सहायता मिलेगी। फिर भी सूर की भाषा अटपटी और भाव गूढ़ होने के कारण अनुवाद में सम्भव है बहुत-सी भूलें रह गयी हों, जिनके लिए सहृदय पाठक हमें क्षमा करेंगे। कोई सज्जन उन भूलों को बताने की यदि कृपा करेंगे तो अगले संस्करण में उन्हें सुधारा जा सकता है। पाठ तथा अनुवाद को ठीक करने में हमें व्रज-साहित्य के सुविख्यात मर्मज्ञ पं. श्रीजवाहरलालजी चतुर्वेदी से पर्याप्त सहायता मिली है। इससे पूर्व प्रकाशित संग्रहों में भी श्रीचतुर्वेदीजी ने बड़ी सहायता की है, जिसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। अन्त में हम अपने इस क्षुद्र प्रयास को भगवान् नन्दनन्दनके पादपद्मों में में अर्पित करते हैं, जिनकी अहैतुकी कृपासे ही हम सूर-साहित्य को यत्किंचित् प्रकाश में लाने में समर्थ हो सके हैं। किमधिकं विज्ञेषु।
विद्वान अनुवादक ने सरल भाषा में उसके मर्म को समझाने की भरसक चेष्टा की है, जिससे पाठक-पाठिकाओं को उसे हृदयंगम करने में यथेष्ट सहायता मिलेगी। फिर भी सूर की भाषा अटपटी और भाव गूढ़ होने के कारण अनुवाद में सम्भव है बहुत-सी भूलें रह गयी हों, जिनके लिए सहृदय पाठक हमें क्षमा करेंगे। कोई सज्जन उन भूलों को बताने की यदि कृपा करेंगे तो अगले संस्करण में उन्हें सुधारा जा सकता है। पाठ तथा अनुवाद को ठीक करने में हमें व्रज-साहित्य के सुविख्यात मर्मज्ञ पं. श्रीजवाहरलालजी चतुर्वेदी से पर्याप्त सहायता मिली है। इससे पूर्व प्रकाशित संग्रहों में भी श्रीचतुर्वेदीजी ने बड़ी सहायता की है, जिसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। अन्त में हम अपने इस क्षुद्र प्रयास को भगवान् नन्दनन्दनके पादपद्मों में में अर्पित करते हैं, जिनकी अहैतुकी कृपासे ही हम सूर-साहित्य को यत्किंचित् प्रकाश में लाने में समर्थ हो सके हैं। किमधिकं विज्ञेषु।
श्रावण शुक्ला 11, सं. 2015 वि.
विनीत
प्रकाशक
अनुराग-पदावली
राग-बिलावत
(1)
जान देहु गोपाल बुलाई।
उर की प्रीति प्रान कें लालच नाहिन परति दुहराई।। 1।।
राखौ रोकि बाँधि दृढ़ बंधन, कैसे कहूँ करि त्रास।
यह हठ अब कैसें छूटत हैं, जब लगि है उर सास।।2।।
साँच कहौ मन बचन, करम करि अपने मन की बात।
तन तजि जाइ मिलौंगी हरि सों, कत रोकत तहँ जात।।3।।
औसर गएँ बहुरि सुनि सूरज, कह कीजैगी देह।
बिछुरत हंस बिरह के सूलन, झूँठे सबे सनेह।।4।।
उर की प्रीति प्रान कें लालच नाहिन परति दुहराई।। 1।।
राखौ रोकि बाँधि दृढ़ बंधन, कैसे कहूँ करि त्रास।
यह हठ अब कैसें छूटत हैं, जब लगि है उर सास।।2।।
साँच कहौ मन बचन, करम करि अपने मन की बात।
तन तजि जाइ मिलौंगी हरि सों, कत रोकत तहँ जात।।3।।
औसर गएँ बहुरि सुनि सूरज, कह कीजैगी देह।
बिछुरत हंस बिरह के सूलन, झूँठे सबे सनेह।।4।।
(एक ब्राह्मण-पत्नी अपने पति से कह रही है-) (मुझे) ‘गोपालने
बुलाया
है, जाने दो; प्राणों के लोभ से हृदय की प्रीति अब छिपायी नहीं जा सकती।
(तुम) चाहे किसी भी प्रकार का भय (मुझे) दो और दृढ़ बन्धनों में बाँधकर
रोक रखो, किन्तु जब तक फेफड़े से श्वास आता-जाता है, (तब तक) यह (श्याम से
प्रेम का) हठ अब (भला) कैसे छूट सकता है। मन, वचन तथा क्रिया के द्वारा
अपने मन की सच्ची बात कहती हूँ कि (रोके जाने पर भी मैं) शरीर त्याग के
हरि से जा मिलूँगी, (अत:) वहाँ (उनके पास) जाने से (मुझे) क्यों रोकते हो
?’ सूरदासजी कहते हैं- सुनो, (प्रभु से मिलने का) अवसर बीत
जानेपर
फिर यह शरीर (रहकर भी) क्या करे, (मोहन के) वियोग-दु:ख से प्राणों के निकल
जाने पर (इस शरीर के) सभी स्नेह (बन्धन) झूठे हैं।
राग सरंग
(2)
देखन दै पिय, मदनगुपालै।
हा हा हो पिय ! पाँइ परति हौं,
जाइ सुनन दै बेनु रसालै।।1।।
लकुट लिऐं काहें तन त्रासत,
पति बिनु मति बिरहिनि बेहालै।
अति आतुर आरूढ़ अधिक छबि,
ताहि कहा डर है जम कालै।।2।।
मन तौ पिय ! पहिलेंहीं पहुँच्यौ,
प्रान तहीं चाहत चित चालै।
कहि धौं तू अपने स्वारथ कौं,
रोकि कहा करिहै खल खालै।।3।।
लेहु सम्हारि सु खेह देह की,
को राखै इतने जंजालै।
सूर सकल सखियनि तैं आगैं,
अबहीं मूढ़ मिलौं नँदलालै।।4।।
हा हा हो पिय ! पाँइ परति हौं,
जाइ सुनन दै बेनु रसालै।।1।।
लकुट लिऐं काहें तन त्रासत,
पति बिनु मति बिरहिनि बेहालै।
अति आतुर आरूढ़ अधिक छबि,
ताहि कहा डर है जम कालै।।2।।
मन तौ पिय ! पहिलेंहीं पहुँच्यौ,
प्रान तहीं चाहत चित चालै।
कहि धौं तू अपने स्वारथ कौं,
रोकि कहा करिहै खल खालै।।3।।
लेहु सम्हारि सु खेह देह की,
को राखै इतने जंजालै।
सूर सकल सखियनि तैं आगैं,
अबहीं मूढ़ मिलौं नँदलालै।।4।।
(कोई विप्र-पत्नी कह रही है-) ‘प्रियतम मदनगोपाल को देख लेने
दो।
प्यारे ! (मैं) हा-हा खाकर (तुम्हारे पैरों) पड़ती हूँ, जाकर उनकी रसमयी
वंशी सुनने दो। अरे निर्बुद्धि पति ! मुझ (हरि-दर्शन के लिये) व्याकुल
वियोगिनी के शरीर को डंडा लेकर क्यों त्रास देते हो ? (भला, जो उस)
अत्यन्त शोभामय-(को पाने) के लिए अत्यधिक उतावली है; उसके हृदय में यमराज
एवं मृत्यु का भय ? प्रियतम। (मेरा) मन तो (वहाँ) पहिले से पहुँच गया है
और अब प्राण भी वहीं चलने की बात चित्त से चाह रहे हैं। (किन्तु) तुम यह
बताओ कि अपने मतलब के लिये तुम (मुझे) रोककर इस दूषित (प्राणहीन) चमड़े का
क्या करोगे ? (अब तुम) इस शरीर की मिट्टी को सम्हालो, इतने जंजाल को कौन
रखे ? सूरदास ! (मैं तो देह त्यागकर) सब सखियों से आगे श्रीनन्दलाल अरे
मूढ़ ! अभी मिलती हूँ।’
(3)
देखन दै बृंदावन चंदै।
हा हा कंत ! मानि बिनती यह,
कुल अभिमान छाँडि मतिमंदै।।1।।
कहि क्यौं भूलि धरत जिय औरै,
जानत नहिं पावन नँदनंदै।
दरसन पाइ इहौं अबहीं,
करन सकल तेरे दुख दंदै।।2।।
सठ समुझाएहुँ समझत नाहीं,
खोलत नाहिं कपट के फंदै।
देह छाँड़ि प्रानन भइ प्रापत,
सूर सु प्रभु आनँद निधि कंदै।।3।।
हा हा कंत ! मानि बिनती यह,
कुल अभिमान छाँडि मतिमंदै।।1।।
कहि क्यौं भूलि धरत जिय औरै,
जानत नहिं पावन नँदनंदै।
दरसन पाइ इहौं अबहीं,
करन सकल तेरे दुख दंदै।।2।।
सठ समुझाएहुँ समझत नाहीं,
खोलत नाहिं कपट के फंदै।
देह छाँड़ि प्रानन भइ प्रापत,
सूर सु प्रभु आनँद निधि कंदै।।3।।
(एक विप्र-पत्नी कह रही है-प्रियतम ! मुझे) ‘श्रीवृन्दावनचन्द्र
को
देख लेने दो। हा-हा पतिदेव ! यह मेरी प्रार्थना मान लो और अरे मन्दबुद्धि
! (इस) उच्च कुल के अभिमान को छोड़ दो। (बताओ तो, तुम) भूल से (भ्रमवश)
अपने मन से दूसरी (पापकी) बात क्यों सोचते हों ? जानते नहीं कि
श्रीनन्दनन्दन परम पवित्र हैं ? उनका दर्शन पाकर तुम्हारे सब
दु:ख-द्वन्द्व झेलने (गृहस्थी के जंजाल उठाने) अभी आ जाऊँगी। अरे मूर्ख
स्वामी ! (तुम) समझाने से भी समझते नहीं और (इन) कपटके फंदों-(बन्धनों) को
खोलते नहीं ?’ सूरदासजी कहते हैं कि वह (विप्र-पत्नी) (इस
प्रकार
व्याकुल होकर) शरीर त्याग प्राणों के द्वारा उन आनन्दनिधि की मूर्ति
प्रभुको (सदा के लिये) प्राप्त हो गयी-उनसे मिल गयी।
(4)
रति बाढ़ी गोपाल सौं।
हा हा हरि लौं जान देहु प्रभु, पद परसति हौं भाल सौं।।1।।
सँग की सखीं स्याम सनमुख भइँ, मोहि परी पसुपाल सौं।।
परबस देह, नेह अंतरगत, क्यौं मिलौं नैन बिसाल सौं।
सूरदास गोपी तनु तजि कैं, तनमय भइ नँदलाल सौं।।3।।
हा हा हरि लौं जान देहु प्रभु, पद परसति हौं भाल सौं।।1।।
सँग की सखीं स्याम सनमुख भइँ, मोहि परी पसुपाल सौं।।
परबस देह, नेह अंतरगत, क्यौं मिलौं नैन बिसाल सौं।
सूरदास गोपी तनु तजि कैं, तनमय भइ नँदलाल सौं।।3।।
(एक ब्राह्मण-पत्नी कह रही है- प्रियतम !) ‘गोपालसे मेरा प्रेम
बढ़
गया है। स्वामी ! हा-हा खाकर (मैं) तुम्हारे चरणों को मस्तक से छूती हूँ,
(मुझे उन) श्री हरिके समीप जाने दो। मेरे साथ की सखियाँ (तो) श्यामसुन्दर
के सम्मुख (पहुँच) गयी; (किन्तु) मेरा (तुम-जैसे) पशुपाल-(चरवाहे, मूर्ख)
से पाला पड़ा है। (ओह !) शरीर दूसरे के वश में और हृदय में प्रेम है; (ऐसी
दशा में उन) विशाल नेत्रों वाले- (श्यामसुन्दर-) से कैसे मिलूँ ? अरे
मूर्ख ! (अन्त में) हठ करते तुम्हीं पश्चाताप करोगे; (समझ लो कि) अपनी
तरुणी भार्या से तुम्हारी यही (अन्तिम) भेंट है।’ सूरदास जी
कहते
हैं कि शरीर छोड़कर (वह) गोपी (विप्र-पत्नी) नन्दलाल में तन्मय (एकाकार)
हो गयी।
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