कविता संग्रह >> सरसों से अमलतास सरसों से अमलतासचित्रा देसाई
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘सरसों से अमलतास’ रिश्तों का जटिल संसार और प्रकृति का सरल, सहज अन्कुथ विस्तार; इन कविताओं की जड़ें इन्हीं दो जमीनों में फैली हैं ! रिश्ते रंग बदलते हैं तो उनको एक सैम पर टिकाए रखना, ताकि जिंदगी ही अपनी धुरी से न हिल जाए, अपने आप में बाकायदा एक काम है, जबकि अपने होने-भर से, हमारे इर्द-गिर्द अपनी मौजूदगी-भर से ढाढ़स बंधाती प्रकृति हमारी व्यथित-व्याकुल रूह के लिए एक सुकूनदेह विश्राम-भूमि ! और यही नहीं, ये कविताएँ बताती हैं कि उनके रंगों में हमारी हर पीड़ा, हर उल्लास, हर उम्मीद, हर अवसाद के लिए कहीं कोई रंग उपलब्ध है जो हमारे अर्जित-अनार्जित समबंधो के शहरों, जंगलों, पहाड़ों और पठारो के अलग-अलग मोड़ों पर मन को अपना-सा लगता है, और सब तरफ से निराश हो हम उसकी उंगली थाम अपने अंतस की ओर चल पड़ते हैं-नए होकर लौटने के लिए !
शायद इसीलिए ये कविताएँ प्रकृति का अवलंब कभी नहीं छोड़ती ! प्रकृति के स्वरों में ये रिश्तों के राग को भी गाती हैं और विराग को भी ! टूटते-भागते सबंधो को पकड़ने की कोशिश में यदि इनकी हथेलियाँ रिस रही हैं और नानी के कहने से असमान में दूर बैठे चाँद को मामा मान लेने पर पश्चाताप कर रही हैं तो यह भरोसा भी उनमें विन्यस्त है कि ‘भीतर जमे रिश्ते ही/बहरी मौसम से बचाते हैं ! ‘संग्रह की कई कविताएँ सम्बन्ध या कहों कि ‘सेन्स ऑफ़ बिलोंगिंग’ को बिलकुल अलग भूमि पर देखती हैं, मसलन यह छोटी-से कविता : ‘तुम्हे खुश रखेने की आदत/देवदार-सी/मेरे भीतर उग रही है/और इसीलिए मैं बहुत बौनी होती जा रही हूँ !’ या फिर ‘अपाहिज संबध’ शीर्षक एक और छोटी कविता !
संग्रह की अधिकांश कविताओं में प्रेम एक अंडरकरंट की तरह बहता है और कभी-कभी पर्याप्त मुखर होकर बोलता हुआ भी दीखता है-उछाह में भी और अवसन्नता में भी ! लेकिन बहुत शालीन संयम के साथ, जो रचनाकार के अहसास की गहराई का प्रमाण है ! शायद इसी गहरे का परिणाम यह भी है कि अपने आस-पास के भौतिक-सामाजिक यथार्थ को लक्षित कविताएँ इन्ही विषयों पर लिखी गई अनेक समकालीन कविताओं से कहीं अधिक सारगर्भित और व्यंजक हैं, उदहारण के लिए, ‘बम्बई-1’ एंड ‘बम्बई-2’ तथा ‘अफवाह’ और ‘पुल कहाँ गया’ शीर्षक कविताएँ ! कहना न होगा कि अपनी संयत अभिव्यक्ति में सधी ये कविताएँ हिंदी कविता के पाठकों के लिए संवेदना के एक अलग इलाके को खोलेंगी !
शायद इसीलिए ये कविताएँ प्रकृति का अवलंब कभी नहीं छोड़ती ! प्रकृति के स्वरों में ये रिश्तों के राग को भी गाती हैं और विराग को भी ! टूटते-भागते सबंधो को पकड़ने की कोशिश में यदि इनकी हथेलियाँ रिस रही हैं और नानी के कहने से असमान में दूर बैठे चाँद को मामा मान लेने पर पश्चाताप कर रही हैं तो यह भरोसा भी उनमें विन्यस्त है कि ‘भीतर जमे रिश्ते ही/बहरी मौसम से बचाते हैं ! ‘संग्रह की कई कविताएँ सम्बन्ध या कहों कि ‘सेन्स ऑफ़ बिलोंगिंग’ को बिलकुल अलग भूमि पर देखती हैं, मसलन यह छोटी-से कविता : ‘तुम्हे खुश रखेने की आदत/देवदार-सी/मेरे भीतर उग रही है/और इसीलिए मैं बहुत बौनी होती जा रही हूँ !’ या फिर ‘अपाहिज संबध’ शीर्षक एक और छोटी कविता !
संग्रह की अधिकांश कविताओं में प्रेम एक अंडरकरंट की तरह बहता है और कभी-कभी पर्याप्त मुखर होकर बोलता हुआ भी दीखता है-उछाह में भी और अवसन्नता में भी ! लेकिन बहुत शालीन संयम के साथ, जो रचनाकार के अहसास की गहराई का प्रमाण है ! शायद इसी गहरे का परिणाम यह भी है कि अपने आस-पास के भौतिक-सामाजिक यथार्थ को लक्षित कविताएँ इन्ही विषयों पर लिखी गई अनेक समकालीन कविताओं से कहीं अधिक सारगर्भित और व्यंजक हैं, उदहारण के लिए, ‘बम्बई-1’ एंड ‘बम्बई-2’ तथा ‘अफवाह’ और ‘पुल कहाँ गया’ शीर्षक कविताएँ ! कहना न होगा कि अपनी संयत अभिव्यक्ति में सधी ये कविताएँ हिंदी कविता के पाठकों के लिए संवेदना के एक अलग इलाके को खोलेंगी !
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