हास्य-व्यंग्य >> काका काकी की नोकझोंक काका काकी की नोकझोंककाका हाथरसी
|
8 पाठकों को प्रिय 224 पाठक हैं |
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विश्व के मर्दो ! सावधान। ख़तरे का घंटा बजा रहे हैं, सुन लो खोलकर कान ! महिलाएँ पुरुषों को ललकार रही हैं, बढ़-चढ़कर बाज़ी मार रही हैं।
जैसा कि आप जानते हैं, सिर्फ एक साल के लिए अंतर्राष्टीय महिला-वर्ष तशरीफ़ लाया था। अब वही दस वर्ष के लिए मर्दों के ऊपर लद गया है। ठीक उसी तरह, जैसे अँगरेज़ कुछ समय के लिए भारत में व्यापार करने आए थे और फिर सैंकड़ों वर्ष तक चिपके रहे। तो यह भी हो सकता है कि महिला-दशक की मियाद सौ-पचास बर्ष के लिए और बढ़ा जी जाए। उस समय बेचारे मर्दों की हालत कैसी बदतर हो जाएगी, इसको कल्पना करके हमारी धुकधुकी अभी से चलने लगी हैं।
कुछ वर्ष पूर्व एक जापानी महिला एवरेस्ट को चोटी फतह करके उन पैंतीस मर्दों की चोटी पर चढ़ गई, जो एवरेस्ट-विजेता कहे जाते थे। अब उनमें से कोई कहता है कि ‘हम एवरेस्ट पर चढ़ चुके हैं, तो तत्काल उत्तर मिलता है, ‘तुम चढ़ गए तो क्या हुआ, औरत तक चढ़ गई !’ बेचारे की ज़ुबान बंद हो जाती है, शक्ल देखने लायक़ बन जाती है। और एक बार ओलंपिक में रूमानिया की एक लड़की तीन स्वर्ण-पदक झपटकर ले गई, बड़े-बड़े खिलाडी मरदुओं को मात दे गई।
ऐसी-ऐसी ख़बरें सुनकर बच्चों की मम्मी यानी काकी को जोश आना स्वाभाविक ही था। हमारे विरोधी ऐसे मौक़े से लाभ उठाते हैं, इधर-को-उधर भिड़ाते हैं। किसी ने श्रीमतीजी के कान भर दिए कि काका ‘दीवाना’ के माध्यम से प्रश्नों के उत्तर कविता में देकर तुम्हारा मज़ाक उड़ाया करते हैं। पूर्वकाल में, जब पुरुषों का शासक था, महिलाओं के दिल कोमल और कच्चे होते थे; लेकिन वर्तमान में उनके दिल पक्के और कान कच्चे हो गए हैं। चुगलख़ोर की बातों पर विश्वास करके उलझ पड़ीं, एक दिन हमसे। तब हमने अपनी सफाई में जो-जो दस्तावेज़ पेश किए, उनको इस पुस्तक के द्वारा अपने प्रिय पाठकों की कोर्ट में रख रहे हैं। अब न्याय आपके हाथ है हुज़ूर, आशा है हो जाएगी शंका दूर; और आपका जजमेंट करेगा दूध-का-दूध और पानी-का-पानी, बहुत-बहुत होगी मेहरबानी।
‘क़िस्सा तोता-मैना’ आपमें से बहुतों ने पढ़ा होगा। पढ़ा नहीं होगा तो उसका नाम तो सुना ही होगा। वह दो पंछियों का कल्पित किस्सा था। फिर भी दिलचस्प इतना कि लाखों प्रतियाँ उसकी छपकर बिक गईं और बिक रहीं हैं। उसमें मिस्टर तोता मर्दों का पक्ष लेकर कथा-कहानियाँ सुनाते हैं, तो मैडम मैना महिला जाति के गीत गाती हैं। हमने अपनी सत्तर बर्ष की उम्र में सैकडों तोता-मैना देखे हैं। उनकी चें-चें-कें-के भी मुनी है; लेकिन बौद्धिक स्तर पर इंसानों को तरह बात करते हुए उन्हें कभी नहीं देखा। अधिक-से-अधिक इतने बोलते हुए देख गए हैं - ‘चित्रकूट के जाट पे भई संतन की भीरा’ फिर सीटी बजाकर और पुचकारी मारकर बोलते हैं - ‘पढ़ो बेटा गंगाराम।’ यानी उनको पिंजड़े में क़ैद रखनेवाला इंसान जैसे कहता था, वैसे ही बोलते थे। ‘तोता-रटंत’ प्रसिद्ध है ही। मतलब, तोता रूप में मानव तो आजकल नहीं मिलते, किंतु मानव-रूप में तोते अवश्य पाए जाते हैं, जिन्हें पारिभाषिक शब्दावली में ‘चमचा’ कहा जाता है। जब पंछियों की कल्पित बातों में पाठक रस ले सकते हैं, तो काका-काकी की नोंक-झोंक में मज़ा क्यों नहीं लेंगे ?
यही सब कुछ सोच-समझकर आपके सामने हम अपना कच्चा-चिट्ठा खोल रहे हैं और शपथपूर्वक बोल रहे हैं कि किसी भी स्थल पर हमने काकी या महिला जाति का रत्तीभर भी अपमान नहीं किया और न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खोली है, उनकी पोल। अपितु, जगह-जगह प्रशंसा के ही बजाए हैं ढोल।
प्रश्नोत्तरों के बीच में या आरंभ में नोंक-झोंक के साथ-ही-साथ हमने अपनी वे नई कविताएँ भी दे दी हैं। आशा है, पुस्तक आएगी आपको पसंद, भूमिका का फाटक करते हैं बंद, सम्मति भेजने के लिए आप सब स्वच्छंद।
ठहरिए ! एक आवश्यक बात बतानी तो रह ही गई। इस पुस्तक की रचना इसी वर्ष ‘कमला कैलिल्स’, मसूरी की छाया में हुई है। अतः सर पद्मपतजी सिंहानिया एवं डॉक्टर गौरहरि, श्री गोबिंदहरि को धन्यवाद दिए बिना नहीं रहूँगा, जिनकी कृपा से गर्मी के दो महीनों में पहाड़ी ठंडक प्राप्त करके नोंक-झोंक को यह रूप मिल सका है। इसकी प्रेस-कॉपी तैयार करने में डॉक्टर गिरिराजशरण अग्रवाल का सहयोग भी उल्लेखनीय है, अतः उनको धन्यवाद नहीं, आशीर्वाद प्रेषित कर रहा हूँ, जो आगे चलकर उनके बहुत काम आएगा, सफलता के शिखर पर पहुँचाएगा।
अंत में ‘दीवाना’ (तेज़) के सम्पादक श्री विश्वबंधु गुप्ता एवं व्यंग्य-चित्रकार चिल्लीजी को धन्यवाद देना भी आवश्यक है, जिन्होंने कृपा करके ‘दीवाना’ में प्रकाशित प्रश्नोत्तर और कार्टूनों का उपयोग करने की स्वीकृति देकर इस पुस्तक को सफल बनाने में सहयोग प्रदान किया।
जैसा कि आप जानते हैं, सिर्फ एक साल के लिए अंतर्राष्टीय महिला-वर्ष तशरीफ़ लाया था। अब वही दस वर्ष के लिए मर्दों के ऊपर लद गया है। ठीक उसी तरह, जैसे अँगरेज़ कुछ समय के लिए भारत में व्यापार करने आए थे और फिर सैंकड़ों वर्ष तक चिपके रहे। तो यह भी हो सकता है कि महिला-दशक की मियाद सौ-पचास बर्ष के लिए और बढ़ा जी जाए। उस समय बेचारे मर्दों की हालत कैसी बदतर हो जाएगी, इसको कल्पना करके हमारी धुकधुकी अभी से चलने लगी हैं।
कुछ वर्ष पूर्व एक जापानी महिला एवरेस्ट को चोटी फतह करके उन पैंतीस मर्दों की चोटी पर चढ़ गई, जो एवरेस्ट-विजेता कहे जाते थे। अब उनमें से कोई कहता है कि ‘हम एवरेस्ट पर चढ़ चुके हैं, तो तत्काल उत्तर मिलता है, ‘तुम चढ़ गए तो क्या हुआ, औरत तक चढ़ गई !’ बेचारे की ज़ुबान बंद हो जाती है, शक्ल देखने लायक़ बन जाती है। और एक बार ओलंपिक में रूमानिया की एक लड़की तीन स्वर्ण-पदक झपटकर ले गई, बड़े-बड़े खिलाडी मरदुओं को मात दे गई।
ऐसी-ऐसी ख़बरें सुनकर बच्चों की मम्मी यानी काकी को जोश आना स्वाभाविक ही था। हमारे विरोधी ऐसे मौक़े से लाभ उठाते हैं, इधर-को-उधर भिड़ाते हैं। किसी ने श्रीमतीजी के कान भर दिए कि काका ‘दीवाना’ के माध्यम से प्रश्नों के उत्तर कविता में देकर तुम्हारा मज़ाक उड़ाया करते हैं। पूर्वकाल में, जब पुरुषों का शासक था, महिलाओं के दिल कोमल और कच्चे होते थे; लेकिन वर्तमान में उनके दिल पक्के और कान कच्चे हो गए हैं। चुगलख़ोर की बातों पर विश्वास करके उलझ पड़ीं, एक दिन हमसे। तब हमने अपनी सफाई में जो-जो दस्तावेज़ पेश किए, उनको इस पुस्तक के द्वारा अपने प्रिय पाठकों की कोर्ट में रख रहे हैं। अब न्याय आपके हाथ है हुज़ूर, आशा है हो जाएगी शंका दूर; और आपका जजमेंट करेगा दूध-का-दूध और पानी-का-पानी, बहुत-बहुत होगी मेहरबानी।
‘क़िस्सा तोता-मैना’ आपमें से बहुतों ने पढ़ा होगा। पढ़ा नहीं होगा तो उसका नाम तो सुना ही होगा। वह दो पंछियों का कल्पित किस्सा था। फिर भी दिलचस्प इतना कि लाखों प्रतियाँ उसकी छपकर बिक गईं और बिक रहीं हैं। उसमें मिस्टर तोता मर्दों का पक्ष लेकर कथा-कहानियाँ सुनाते हैं, तो मैडम मैना महिला जाति के गीत गाती हैं। हमने अपनी सत्तर बर्ष की उम्र में सैकडों तोता-मैना देखे हैं। उनकी चें-चें-कें-के भी मुनी है; लेकिन बौद्धिक स्तर पर इंसानों को तरह बात करते हुए उन्हें कभी नहीं देखा। अधिक-से-अधिक इतने बोलते हुए देख गए हैं - ‘चित्रकूट के जाट पे भई संतन की भीरा’ फिर सीटी बजाकर और पुचकारी मारकर बोलते हैं - ‘पढ़ो बेटा गंगाराम।’ यानी उनको पिंजड़े में क़ैद रखनेवाला इंसान जैसे कहता था, वैसे ही बोलते थे। ‘तोता-रटंत’ प्रसिद्ध है ही। मतलब, तोता रूप में मानव तो आजकल नहीं मिलते, किंतु मानव-रूप में तोते अवश्य पाए जाते हैं, जिन्हें पारिभाषिक शब्दावली में ‘चमचा’ कहा जाता है। जब पंछियों की कल्पित बातों में पाठक रस ले सकते हैं, तो काका-काकी की नोंक-झोंक में मज़ा क्यों नहीं लेंगे ?
यही सब कुछ सोच-समझकर आपके सामने हम अपना कच्चा-चिट्ठा खोल रहे हैं और शपथपूर्वक बोल रहे हैं कि किसी भी स्थल पर हमने काकी या महिला जाति का रत्तीभर भी अपमान नहीं किया और न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खोली है, उनकी पोल। अपितु, जगह-जगह प्रशंसा के ही बजाए हैं ढोल।
प्रश्नोत्तरों के बीच में या आरंभ में नोंक-झोंक के साथ-ही-साथ हमने अपनी वे नई कविताएँ भी दे दी हैं। आशा है, पुस्तक आएगी आपको पसंद, भूमिका का फाटक करते हैं बंद, सम्मति भेजने के लिए आप सब स्वच्छंद।
ठहरिए ! एक आवश्यक बात बतानी तो रह ही गई। इस पुस्तक की रचना इसी वर्ष ‘कमला कैलिल्स’, मसूरी की छाया में हुई है। अतः सर पद्मपतजी सिंहानिया एवं डॉक्टर गौरहरि, श्री गोबिंदहरि को धन्यवाद दिए बिना नहीं रहूँगा, जिनकी कृपा से गर्मी के दो महीनों में पहाड़ी ठंडक प्राप्त करके नोंक-झोंक को यह रूप मिल सका है। इसकी प्रेस-कॉपी तैयार करने में डॉक्टर गिरिराजशरण अग्रवाल का सहयोग भी उल्लेखनीय है, अतः उनको धन्यवाद नहीं, आशीर्वाद प्रेषित कर रहा हूँ, जो आगे चलकर उनके बहुत काम आएगा, सफलता के शिखर पर पहुँचाएगा।
अंत में ‘दीवाना’ (तेज़) के सम्पादक श्री विश्वबंधु गुप्ता एवं व्यंग्य-चित्रकार चिल्लीजी को धन्यवाद देना भी आवश्यक है, जिन्होंने कृपा करके ‘दीवाना’ में प्रकाशित प्रश्नोत्तर और कार्टूनों का उपयोग करने की स्वीकृति देकर इस पुस्तक को सफल बनाने में सहयोग प्रदान किया।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book