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रहस्य-रोमांच >> गोवा गलाटा

गोवा गलाटा

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9308
आईएसबीएन :9789351771616

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बुधवार : 27 मई

कुत्ता भौंका।

कुत्ते का भौंकना मिमियाहट जैसा था, शेर जैसे कद्दावर, खतरनाक, खूंखार राटवीलर शिकारी कुत्ते जैसा नहीं था, फिर भी राजाराम लोखण्डे का दिल हिल गया।

एक कुत्ता होश में आने लगा था तो मतलब था कि बाकी तीन भी होश में आने वाले ही थे। खानसामा फज़ल हक ने उन्हें बेहोशी की दवा लगे गोश्त के लोथड़े डाले थे जिन्हें खा कर वो कम से कम दो घन्टे तक होश में नहीं आने वाले थे लेकिन लगता था उसका अन्दाजा गलत था, बेहोशी की दवा पूरे दो घन्टे कुत्तों पर हावी रही नहीं जान पड़ती थी।

खानसामे को शटू करने के बाद राजाराम ने जीतसिंह को भी शटू करना चाहा था लेकिन वो न सिर्फ उसकी गोली से बच गया था, बंगले की स्टडी की खिड़की से कूद कर वहां से सुरक्षित भाग निकलने में भी कामयाब हो गया था।

खण्डाला का वो बंगला नेताजी बहरामजी कान्ट्रैक्टर का था जो कि कभी समगलर और कालाबाजारिया होता था लेकिन अब मराठा मंच नामक पोलिटिकल पार्टी का संस्थापक और प्रेसीडेंट था और विधान सभा में चालीस एम.एल.ए. की शक्ति रखने वाला नेता था। स्टडी में मौजूद एक वाल्ट जैसी सेफ को जीतसिंह खोलने में कामयाब हो गया था जिसमें कि दो करोड़ दस लाख रुपये बन्द पाये गये थे। उस रकम में एक तिहाई हिस्सा खानसामे का था जो उसको सौंपने की जगह राजाराम ने उसे शटू कर दिया था। अब वही हिस्सा एक सूटकेस में बन्द राजाराम के कब्जे में था। बाकी की रकम सेफ में ही रह गयी थी जो कि गोली से बचने की कोशिश में जीतसिंह लड़खड़ाया था तो उसके शरीर के धक्के से बन्द हो गयी थी और अब वापिस खोली नहीं जा सकती थी। उसे दोबारा जीतसिंह ही खोल सकता था जो कि जान बचाने की कोशिश में वहां से भाग गया था इसलिये राजाराम को सेफ से बाहर रह गयी एक तिहाई रकम से ही सब्र करना पड़ा था।

उसकी वैगन-आर, जिस पर कि वो मुम्बई से खण्डाला पहुंचे थे, उसे यकीन था कि जीतसिंह ले गया था और अब रात के ढाई बजे ये भी उसके सामने बड़ी समस्या थी कि उसने मुम्बई वापिस लौटने का कोई इन्तजाम करना था।

कुत्ता हौले से फिर भौंका।

फिर गुर्राया।

इस बार बाकी तीन कुत्तों की कुनमुनाहट सी भी उसे सुनाई दी।

सटूकेस सम्भाले वो तेजी से फाटक की तरफ लपका।

वातावरण में चांद की रोशनी की जगह सिर्फ सितारों की लौ थी जिस में उसे लगता था कि कोई कुत्ता अभी उस पर झपटा कि झपटा।

मुंह को आते कलेजे को सम्भालता वो विशाल फाटक पर पहुंचा।

फाटक के भीतर का लोहे का भारी कुंडा उसने अपनी जगह से सरका पाया। कुंडे का न लगा होना साबित करता था कि जीतसिंह फाटक के रास्ते वहां से भागा था; उसने वैसे दीवार फांदने की कोशिश नहीं की थी जैसे कि उन्हेंने भीतर दाखिला पाया था।

उसने हौले से फाटक को इतना खोला कि वो उसमें से गुजर सकता, पार कदम रखा और फिर अपने पीछे फाटक के खुले पल्ले को बन्द पल्ले के साथ भिड़का दिया।

उस क्षण पीछे चारों कुत्ते सम्वेत् स्वर में भौंकने लगे।

बंगले में जाग हो गयी।

बंगला चारों तरफ से खुले विशाल प्लॉट में था, जिसके पिछवाड़े में एक छोटा सा कॉटेज था जहां रात को नेताजी के दो बाडीगार्ड, एक ड्राइवर और एक डॉग ट्रेनर यानी चार जने सोते थे। सबसे पहले डॉग ट्रेनर की तन्द्रा टूटी जिसे कि अपने शानदार, कीमती जर्मन शेपर्ड नस्ल के कुत्तों की जुबान समझने का अभ्यास था।

लेकिन उससे पहले बंगले में अपने मास्टर बैडरूम में सोया पड़ा नेताजी जाग चुका था। पिछली रात मुम्बई में उसके कोलाबा वाले आवास पर पार्टी थी जिसमें कुछ ज्यादा हो गयी थी जिसकी वजह से वो बेचैन सोया था और ढाई बजे अभी बेचैन करवटें बदल रहा था जब कि उसने पहले कुत्ते का भौंकना सुना था। आंखें मिचमिचाता वो उठ कर बैठा।

‘‘फजल !’’ - उसने खानसामे को आवाज लगायी जिसे कि उससे पहले जाग गया होना चाहिये था।

कोई जवाब न मिला।

खानसामा फज़ल हक पिछवाड़े के कॉटेज में बाकी स्टाफ के साथ सोने की जगह बंगले के भीतर, मास्टर बैडरूम के बाहर फर्श पर सोता था ताकि रात की किसी घड़ी नेताजी को उसकी किसी खिदमत की जरूरत पड़े तो वो उसे बजा ला सके।

नेताजी ने साइड टेबल पर पड़े टेबल लैम्प का स्विच ऑन कर के कमरे में रौशनी की और अपने विशाल शाहाना बैड से नीचे कदम रखा।

कुत्ता फिर भौंका, गुर्राया।

नेताजी उठकर दरवाजे पर पहुंचा। अधखुले दरवाजे से उसने बाहर झांका तो पाया कि खानसामा वहां नहीं था जहां कि उसे होना चाहिये था।

जो कि अजीब, हैरान करने वाली बात थी।

रात की उस घड़ी कहां जा सकता था कम्बख्त !

टायलेट में।

‘‘फजल !’’ - नेताजी ने पहले से ज्यादा ऊंचे सुर में आवाज लगाई।

जवाब नदारद !

तभी बाहर चारों कुत्ते भौंकने लगे।

फिर बाहर से दौड़ते कदमों की आवाज़ें आने लगीं।

फिर काल बैल बजी।

नेताजी मेन डोर पर पहुंचा।

मेन डोर भीतर से मजबूती से बन्द था जो इस बात का सबतू था कि खानसामा रात को एकाएक उठकर कहीं बाहर नहीं चला गया था।

नेताजी ने दरवाजा खोला।

बाहर खालिद और मंजूर - उसके दोनों बॉडीगार्ड - खड़े थे।

‘‘क्या हआ ?’’ - नेताजी भुनभुनाता सा बोला - ‘‘कत्ते क्यों भौंक रहे हैं ?’’

‘‘पता नहीं, बाप।’’ - खालिद अदब से बोला - ‘‘जेकब देखने गया है। मोहन उसके साथ है।’’

जेकब डॉग ट्रेनर था और मोहन ड्राइवर का नाम था।

‘‘हूँ !’’ - नेताजी ने अप्रसन्न हूंकार भरी।

‘‘बाप’’ - मंजूर बोला - ‘‘दरवाजा तुम खुद खोला ! फज़ल किधर है ?’’

‘‘पता नहीं। जहां होना चाहिये था, वहां तो नहीं था ! पता नहीं कहां चला गया !’’

‘‘बाप, दरवाजा भीतर से बन्द तो होगा तो भीतर ही !’’

‘‘भीतर कहां ! पता तो लगे !’’

‘‘शायद ऊपर हो ! शायद उसे किसी चोर की भनक लगी हो !’’

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