गीता प्रेस, गोरखपुर >> मानव धर्म मानव धर्महनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है मानव धर्म....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्रीहरि:
प्रात:काल की प्रार्थना
राग-जैजैवन्ती, ताल-झूमरा
कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज।।
अंतर में स्थित रहकर मेरे बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना।।
अन्तर्यामी को अन्त: स्थित देख सशंकित होवे मन।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन।।
जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे।।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार।
इसी भावना से अंतरभर मिलूँ सभी से तुझे निहार।।
प्रतिपल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ।।
पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज।।
अंतर में स्थित रहकर मेरे बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना।।
अन्तर्यामी को अन्त: स्थित देख सशंकित होवे मन।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाज से वह जल-भुन।।
जीवों का कलरव जो दिनभर सुनने में मेरे आवे।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे।।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार।
इसी भावना से अंतरभर मिलूँ सभी से तुझे निहार।।
प्रतिपल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझाने को, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ।।
ॐ श्रीपरमात्मने नम:
मानव-धर्म
(मनुष्य के दस धर्म)
धर्म की आवश्यकता
महाभारत में कहा है-
धर्म: सतां हित: पुंसां धर्मश्चैवाश्रय: सताम्।
धर्माल्लोकास्रयस्तात प्रवृत्ता: सचराचरा:।।
धर्माल्लोकास्रयस्तात प्रवृत्ता: सचराचरा:।।
‘धर्म ही सत्पुरुषों का हित है, धर्म ही सत्पुरुषों का आश्रय है
और चराचर तीनों लोक धर्म से ही चलते हैं।’
हिन्दू-धर्मशास्त्रों में धर्म का बड़ा महत्त्व है, धर्महीन मनुष्य को शास्त्रकारों ने पशु बतलाया है। धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से निकला है, जिसका अर्थ धारण करना या पालन करना होता है। जो संसार में समस्त जीवों के कल्याण का कारण हो, उसे ही धर्म समझना चाहिये, इसी बात को लक्ष्य में रखते हुए निर्मलात्मा त्रिकालज्ञ ऋषियों ने धर्म की व्यवस्था की है। हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार तो एक हिन्दू-सन्तान के जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त समस्त छोटे-बड़े कार्यों का धर्म से संबंध है। हिन्दुओं की राजनीति और समाजनीति धर्म से कोई अलग वस्तु नहीं है। अन्य धर्मावलम्बियों की भाँति हिन्दु केवल साधन-धर्म को ही धर्म नही मानते, परन्तु अपनी प्रत्येक क्रिया को ईश्वरार्पण करके उसे परमात्मा की प्राप्ति के लिये साधनोपयोगी बना सकते हैं।
धर्म चार प्रकार के माने गये हैं- वर्णधर्म, आश्रमधर्म, सामान्यधर्म और साधनधर्म। ब्राह्मणादि वर्णों के पालन करने योग्य भिन्न-भिन्न धर्म, वर्णधर्म और ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के पालन करने योग्य धर्म आश्रम धर्म कहलाते हैं। सामान्य धर्म उसे कहते हैं जिसका मनुष्यमात्र पालन कर सकते हैं। उसी का दूसरा-नाम मानव-धर्म है। आत्मज्ञान के प्रतिबन्धक प्रत्यवायों की निवृत्ति के लिये जो निष्काम कर्मों का अनुष्ठान होता है, वह (यानी समस्त कर्मों का ईश्वरार्पण करना) साधन धर्म कहलाता है। इन चारों धर्मों के यथायोग्य आचरण से ही हिन्दू-धर्मशास्त्रों के अनुसार मनुष्य पूर्णता को प्राप्त कर सकता है।
इन चारों में से कोई ऐसा धर्म नही हैं, जिसकी उपेक्षा की जा सकती हो। वर्ण और आश्रम धर्म का तो भिन्न-भिन्न पुरुषों द्वारा भिन्न-भिन्न अवस्था में पालन किया जाता है, परन्तु तीसरा सामान्य धर्म ऐसा है कि जिसका आचरण मनुष्यमात्र प्रत्येक समय कर सकते हैं और जिसके पालन किये बिना केवल वर्ण या उपेक्षणीय है तथा यह बात भी नहीं है कि वर्णाश्रम धर्म में सामान्य धर्म का समावेश ही नहीं है। सामान्य धर्म इसीलिये विशेष महत्त्व रखता है कि उसका पालन सब समय और सभी कर सकते हैं, परन्तु वर्णाश्रम धर्म का पालन अपने-अपने स्थान और समय पर ही किया जा सकता है। ब्राह्मण शूद्र का या शूद्र ब्राह्मण का धर्म स्वीकार नहीं कर सकता, इसी प्रकार गृहस्थ संन्यासी का या संन्यासी गृहस्थ का धर्म नहीं पालन कर सकता, परन्तु सामान्य धर्म के पालन कर सकता, परन्तु सामान्य धर्म के पालन करने का अधिकार प्रत्येक नर-नारी को है, चाहे वह किसी भी वर्ण या आश्रम का हो। इससे कोई सज्जन यह न समझें कि सामान्य धर्म के पालन करनेवाले को वर्णाश्रम धर्म की आवश्यकता ही नहीं है। आवश्यकता सबकी है। अतएव किसी का भी त्याग न कर, सबका संचय करके यथाविधि योग्यतानुसार प्रत्येक धर्म का पालन करना और उसे ईश्वरार्पण कर परमार्थ के लिये उपयोगी बना लेना उचित है।
शास्त्रकारों में से किसी ने सामान्य धर्म के लक्षण आठ, किसी ने दस, किसी ने बारह और किसी-किसी ने पंद्रह, सोलह या इससे भी अधिक बतलाये हैं। श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में इस सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं*।
विस्तार-भय से यहाँ पर विस्तृत वर्णन न कर केवल भगवान् मनु के बतलाये हुए धर्म के दस लक्षणों पर ही कुछ विवेचन किया जाता है, मनु महाराज कहते हैं-
हिन्दू-धर्मशास्त्रों में धर्म का बड़ा महत्त्व है, धर्महीन मनुष्य को शास्त्रकारों ने पशु बतलाया है। धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से निकला है, जिसका अर्थ धारण करना या पालन करना होता है। जो संसार में समस्त जीवों के कल्याण का कारण हो, उसे ही धर्म समझना चाहिये, इसी बात को लक्ष्य में रखते हुए निर्मलात्मा त्रिकालज्ञ ऋषियों ने धर्म की व्यवस्था की है। हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार तो एक हिन्दू-सन्तान के जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त समस्त छोटे-बड़े कार्यों का धर्म से संबंध है। हिन्दुओं की राजनीति और समाजनीति धर्म से कोई अलग वस्तु नहीं है। अन्य धर्मावलम्बियों की भाँति हिन्दु केवल साधन-धर्म को ही धर्म नही मानते, परन्तु अपनी प्रत्येक क्रिया को ईश्वरार्पण करके उसे परमात्मा की प्राप्ति के लिये साधनोपयोगी बना सकते हैं।
धर्म चार प्रकार के माने गये हैं- वर्णधर्म, आश्रमधर्म, सामान्यधर्म और साधनधर्म। ब्राह्मणादि वर्णों के पालन करने योग्य भिन्न-भिन्न धर्म, वर्णधर्म और ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के पालन करने योग्य धर्म आश्रम धर्म कहलाते हैं। सामान्य धर्म उसे कहते हैं जिसका मनुष्यमात्र पालन कर सकते हैं। उसी का दूसरा-नाम मानव-धर्म है। आत्मज्ञान के प्रतिबन्धक प्रत्यवायों की निवृत्ति के लिये जो निष्काम कर्मों का अनुष्ठान होता है, वह (यानी समस्त कर्मों का ईश्वरार्पण करना) साधन धर्म कहलाता है। इन चारों धर्मों के यथायोग्य आचरण से ही हिन्दू-धर्मशास्त्रों के अनुसार मनुष्य पूर्णता को प्राप्त कर सकता है।
इन चारों में से कोई ऐसा धर्म नही हैं, जिसकी उपेक्षा की जा सकती हो। वर्ण और आश्रम धर्म का तो भिन्न-भिन्न पुरुषों द्वारा भिन्न-भिन्न अवस्था में पालन किया जाता है, परन्तु तीसरा सामान्य धर्म ऐसा है कि जिसका आचरण मनुष्यमात्र प्रत्येक समय कर सकते हैं और जिसके पालन किये बिना केवल वर्ण या उपेक्षणीय है तथा यह बात भी नहीं है कि वर्णाश्रम धर्म में सामान्य धर्म का समावेश ही नहीं है। सामान्य धर्म इसीलिये विशेष महत्त्व रखता है कि उसका पालन सब समय और सभी कर सकते हैं, परन्तु वर्णाश्रम धर्म का पालन अपने-अपने स्थान और समय पर ही किया जा सकता है। ब्राह्मण शूद्र का या शूद्र ब्राह्मण का धर्म स्वीकार नहीं कर सकता, इसी प्रकार गृहस्थ संन्यासी का या संन्यासी गृहस्थ का धर्म नहीं पालन कर सकता, परन्तु सामान्य धर्म के पालन कर सकता, परन्तु सामान्य धर्म के पालन करने का अधिकार प्रत्येक नर-नारी को है, चाहे वह किसी भी वर्ण या आश्रम का हो। इससे कोई सज्जन यह न समझें कि सामान्य धर्म के पालन करनेवाले को वर्णाश्रम धर्म की आवश्यकता ही नहीं है। आवश्यकता सबकी है। अतएव किसी का भी त्याग न कर, सबका संचय करके यथाविधि योग्यतानुसार प्रत्येक धर्म का पालन करना और उसे ईश्वरार्पण कर परमार्थ के लिये उपयोगी बना लेना उचित है।
शास्त्रकारों में से किसी ने सामान्य धर्म के लक्षण आठ, किसी ने दस, किसी ने बारह और किसी-किसी ने पंद्रह, सोलह या इससे भी अधिक बतलाये हैं। श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में इस सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं*।
विस्तार-भय से यहाँ पर विस्तृत वर्णन न कर केवल भगवान् मनु के बतलाये हुए धर्म के दस लक्षणों पर ही कुछ विवेचन किया जाता है, मनु महाराज कहते हैं-
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
(6/92)
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*सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।
*सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।
(श्रीमद्भा. 7/11/8-12)
धृति, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या,
सत्य और अक्रोध- ये दस धर्म के लक्षण हैं।
ये ऐसे धर्म हैं कि जिनमें किसी भी जाति या सम्प्रदाय को आपत्ति नहीं हो सकती। सत्य बात तो यह है कि यही मनुष्य-जाति के स्वाभाविक धर्म हैं। मनुष्य में मनुष्यत्व का विकास इन्हीं धर्मों के आचरण से हो सकता है। जिस समय मनुष्य अपने स्वभाव के विरुद्ध इन धर्मों का पालन करना छोड़ देता है, उसी समय उसकी अधोगति होती है। जब मनुष्य-जाति में इन धर्मों की प्रधानता थी तब जगत् में सुख और शान्ति साम्राज्य था; ज्यों-ज्यों इन धर्मों के पालन से मनुष्यजाति विमुख होने लगी, त्यों-ही-त्यों उसमें दु:ख और अशान्ति का विस्तार होने लगा और आज जगत् के मनुष्य-प्राणी इन्हीं धर्मों का बहुत अंश में ह्नास हो जाने के कारण अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थ साधन के लिये, परस्पर वैर-भाव को प्रश्रय देते हुए हिंसक पशुओं की भाँति खूँखार बनकर, एक-दूसरे को ग्रास कर जाने के लिये तैयार हो रहे हैं और इसी से आज अपने को बुद्धिमान् समझने वाले मनुष्यों की तरह बस्तियों में प्राय: कहीं पर भी सुख-शान्ति देखने में नहीं आती।
ये ऐसे धर्म हैं कि जिनमें किसी भी जाति या सम्प्रदाय को आपत्ति नहीं हो सकती। सत्य बात तो यह है कि यही मनुष्य-जाति के स्वाभाविक धर्म हैं। मनुष्य में मनुष्यत्व का विकास इन्हीं धर्मों के आचरण से हो सकता है। जिस समय मनुष्य अपने स्वभाव के विरुद्ध इन धर्मों का पालन करना छोड़ देता है, उसी समय उसकी अधोगति होती है। जब मनुष्य-जाति में इन धर्मों की प्रधानता थी तब जगत् में सुख और शान्ति साम्राज्य था; ज्यों-ज्यों इन धर्मों के पालन से मनुष्यजाति विमुख होने लगी, त्यों-ही-त्यों उसमें दु:ख और अशान्ति का विस्तार होने लगा और आज जगत् के मनुष्य-प्राणी इन्हीं धर्मों का बहुत अंश में ह्नास हो जाने के कारण अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थ साधन के लिये, परस्पर वैर-भाव को प्रश्रय देते हुए हिंसक पशुओं की भाँति खूँखार बनकर, एक-दूसरे को ग्रास कर जाने के लिये तैयार हो रहे हैं और इसी से आज अपने को बुद्धिमान् समझने वाले मनुष्यों की तरह बस्तियों में प्राय: कहीं पर भी सुख-शान्ति देखने में नहीं आती।
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