गीता प्रेस, गोरखपुर >> व्यवहार और परमार्थ व्यवहार और परमार्थहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत पुस्तक में लोक-व्यवहार एवं पारमार्थिक साधना के सम्बन्ध में जिज्ञासुओं को लिखे गये पत्रों का संग्रह।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
नम्र निवेदन
‘व्यवहार और परमार्थ’ नाम की पुस्तक हमारे परम श्रद्धेय
नित्यलीलालीन भाई जी श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दार के कुछ व्यक्तिगत पत्रों का
संग्रह है। ये पत्र ‘काम के पत्र’ शीर्षक से समय-समय पर
‘कल्याण’ में प्रकाशित हुए हैं।
‘कल्याण’ के साथ ही श्रीभाईजी की प्रतिष्ठा एक सच्चे पथ-प्रदर्शक के रूप में हो गयी। धीरे-धीरे जिज्ञासुओं, साधकों, भक्तों आदि के पात्र उनके पास प्रतिदिन आगे लगे, जिनमें कोई अध्यात्म-साधना का रहस्य जानना चाहता, कोई कर्मकाण्ड के किसी अंग विशेष से संबंधित जानकारी प्राप्त करने की इच्छा प्रकट करता, कोई अपने दैनिक व्यवसाय से संबंधित किसी समस्या के विषय में मार्ग-दर्शन माँगता।
श्रीभाई जी उन पत्रों को धीरज के साथ पढ़ते और सबका समाधान अधिकतर व्यक्तिगत पत्रोत्तर के रूप में करते तथा कभी-कभी पत्र लेखक महोदय के नाम-पता न लिखने पर किन्तु विषय की आवश्यकता का अनुभव कर उसका उत्तर ‘कल्याण’ में प्रकाशित कर देते, जिससे पत्र लेखक महानुभाव तो लाभान्वित होते ही, ‘कल्याण’ के पाठक भी उससे शिक्षा ग्रहण करते। धीरे-धीरे श्रीभाई जी जीवन, व्यवहार लेखनी, आदि का पाठक-पाठिकाओं के हृदय पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे अत्यन्त वैयक्तिक तथा पारिवारिक समस्याओं को भी पत्रों के माध्यम से उनके समक्ष रखकर उपयुक्त मार्गदर्शन की अपेक्षा करने लगे। श्रीभाईजी पर उनकी इतनी अगाध श्रद्धा और अखण्ड विश्वास हो गया कि वे अपनी अत्यन्त गोपनीय बातें भी उनके समक्ष रखने में किसी प्रकार का संकोच-सम्भ्रम अनुभव नहीं करते-ऐसी बातें जिन्हें अन्य किसी भी सांसारिक अथवा आध्यात्मिक सम्बन्धी के सामने रखना उनके लिए सम्भव नहीं था।
‘कल्याण’ के साथ ही श्रीभाईजी की प्रतिष्ठा एक सच्चे पथ-प्रदर्शक के रूप में हो गयी। धीरे-धीरे जिज्ञासुओं, साधकों, भक्तों आदि के पात्र उनके पास प्रतिदिन आगे लगे, जिनमें कोई अध्यात्म-साधना का रहस्य जानना चाहता, कोई कर्मकाण्ड के किसी अंग विशेष से संबंधित जानकारी प्राप्त करने की इच्छा प्रकट करता, कोई अपने दैनिक व्यवसाय से संबंधित किसी समस्या के विषय में मार्ग-दर्शन माँगता।
श्रीभाई जी उन पत्रों को धीरज के साथ पढ़ते और सबका समाधान अधिकतर व्यक्तिगत पत्रोत्तर के रूप में करते तथा कभी-कभी पत्र लेखक महोदय के नाम-पता न लिखने पर किन्तु विषय की आवश्यकता का अनुभव कर उसका उत्तर ‘कल्याण’ में प्रकाशित कर देते, जिससे पत्र लेखक महानुभाव तो लाभान्वित होते ही, ‘कल्याण’ के पाठक भी उससे शिक्षा ग्रहण करते। धीरे-धीरे श्रीभाई जी जीवन, व्यवहार लेखनी, आदि का पाठक-पाठिकाओं के हृदय पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे अत्यन्त वैयक्तिक तथा पारिवारिक समस्याओं को भी पत्रों के माध्यम से उनके समक्ष रखकर उपयुक्त मार्गदर्शन की अपेक्षा करने लगे। श्रीभाईजी पर उनकी इतनी अगाध श्रद्धा और अखण्ड विश्वास हो गया कि वे अपनी अत्यन्त गोपनीय बातें भी उनके समक्ष रखने में किसी प्रकार का संकोच-सम्भ्रम अनुभव नहीं करते-ऐसी बातें जिन्हें अन्य किसी भी सांसारिक अथवा आध्यात्मिक सम्बन्धी के सामने रखना उनके लिए सम्भव नहीं था।
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