गीता प्रेस, गोरखपुर >> गरुड़ पुराण सारोद्धार गरुड़ पुराण सारोद्धारगीताप्रेस
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प्रस्तुत है गरुड़पुराण सारोद्वार.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नम्र-निवेदन
जहाँ जीवन है, वहाँ मृत्यु भी निश्चित है- ‘जातस्य हि ध्रुवो
मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।’ जो प्राणी जन्म ग्रहण करता है, उसे
समय आने पर मरना भी पड़ता है और जो मरता है, उसे जन्म लेना पड़ता है,
पुनर्जन्मका यह सिद्धान्त सनातन धर्म की अपनी विशेषता है।
जीवन की परिसमाप्ति मृत्यु से होती है। इस ध्रुव सत्य को सभी ने स्वीकार किया है और यह प्रत्यक्ष भी दिखायी पड़ता है, इसीलिये काल मृत्यु से आक्रान्त मनुष्य की रक्षा करने में औषध, तपश्चर्या, दान और माता-पिता एवं बन्धु-बान्धव आदि कोई भी समर्थ नहीं है- ‘नौषधं न तपो दानं न माता न च बान्धवा:। शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम्।।’ (पद्म2/66/127)।
जीवात्मा इतना सूक्ष्म होता है कि जब वह शरीर से निकलता है, उस समय कोई भी मनुष्य अपने चर्मचक्षुओं से देख नहीं सकता और यही जीवात्मा अपने कर्मों के भोगों को भोगने के लिये एक अंगुष्ठपर्व परिमित आतिवाहिक सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) शरीर धारण करता है- ‘तत्क्षणात् सोऽथ गृह्णाति शारीरं चातिवाहिकम्। अंगुष्ठपर्वमात्रं तु स्वुप्राणैरेव निर्मितम्।।’ (स्कन्द. 1/2/50/62)।– जो माता-पिता के शुक्र-शोणितद्वारा बनने वाले शरीर से भिन्न होता है- ‘वाय्वग्रसारी तद्रूप देहमन्यत् प्रपद्यते। तत्कर्मयातनार्थे च न मातृपितृसम्भवम्।।’ (214/46)। इस अतीन्द्रिय शरीर से ही जीवात्मा अपने द्वारा किये हुए धर्म और अधर्म के परिणामस्वरूप सुख-दु:ख को भोगता है तथा इसी सूक्ष्म शरीर से पाप करनेवाले मनुष्य याम्य मार्ग की यातनाएँ भोगते हुए यमराज के पास पहुँचते हैं एवं धार्मिकजन प्रसन्नता पूर्वकसुख-भोग करते हुए धर्म राज के पास जाते हैं। साथ ही यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल मनुष्य ही मृत्यु के पश्चात् एक ‘आतिवाहिक’ सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) शरीर धारण करते हैं और उसी शरीर को यम पुरुषों के द्वारा याम्यपथ से यमराज के पास ले जाया जाता है, अन्य प्राणियों को नहीं; क्योंकि अन्य प्राणियों का यह सूक्ष्म शरीर प्राप्त ही नहीं होता, वे तो तत्काल दूसरी योनियों में जन्म पा जाते हैं। पशु-पक्षी आदि नाना तिर्यक् योनियों के प्राणी मृत्यु के पश्चात् वायुरूप में विचरण करते हुए पुन: किसी योनिविशेष में जन्म-ग्रहण हेतु उस योनि के गर्भ में आ जाते हैं, केवल मनुष्य को अपने शुभ और अशुभ कर्मों का अच्छा बुरा परिणाम इहलोक और परलोक में भोगना पड़ता है-
जीवन की परिसमाप्ति मृत्यु से होती है। इस ध्रुव सत्य को सभी ने स्वीकार किया है और यह प्रत्यक्ष भी दिखायी पड़ता है, इसीलिये काल मृत्यु से आक्रान्त मनुष्य की रक्षा करने में औषध, तपश्चर्या, दान और माता-पिता एवं बन्धु-बान्धव आदि कोई भी समर्थ नहीं है- ‘नौषधं न तपो दानं न माता न च बान्धवा:। शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम्।।’ (पद्म2/66/127)।
जीवात्मा इतना सूक्ष्म होता है कि जब वह शरीर से निकलता है, उस समय कोई भी मनुष्य अपने चर्मचक्षुओं से देख नहीं सकता और यही जीवात्मा अपने कर्मों के भोगों को भोगने के लिये एक अंगुष्ठपर्व परिमित आतिवाहिक सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) शरीर धारण करता है- ‘तत्क्षणात् सोऽथ गृह्णाति शारीरं चातिवाहिकम्। अंगुष्ठपर्वमात्रं तु स्वुप्राणैरेव निर्मितम्।।’ (स्कन्द. 1/2/50/62)।– जो माता-पिता के शुक्र-शोणितद्वारा बनने वाले शरीर से भिन्न होता है- ‘वाय्वग्रसारी तद्रूप देहमन्यत् प्रपद्यते। तत्कर्मयातनार्थे च न मातृपितृसम्भवम्।।’ (214/46)। इस अतीन्द्रिय शरीर से ही जीवात्मा अपने द्वारा किये हुए धर्म और अधर्म के परिणामस्वरूप सुख-दु:ख को भोगता है तथा इसी सूक्ष्म शरीर से पाप करनेवाले मनुष्य याम्य मार्ग की यातनाएँ भोगते हुए यमराज के पास पहुँचते हैं एवं धार्मिकजन प्रसन्नता पूर्वकसुख-भोग करते हुए धर्म राज के पास जाते हैं। साथ ही यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल मनुष्य ही मृत्यु के पश्चात् एक ‘आतिवाहिक’ सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) शरीर धारण करते हैं और उसी शरीर को यम पुरुषों के द्वारा याम्यपथ से यमराज के पास ले जाया जाता है, अन्य प्राणियों को नहीं; क्योंकि अन्य प्राणियों का यह सूक्ष्म शरीर प्राप्त ही नहीं होता, वे तो तत्काल दूसरी योनियों में जन्म पा जाते हैं। पशु-पक्षी आदि नाना तिर्यक् योनियों के प्राणी मृत्यु के पश्चात् वायुरूप में विचरण करते हुए पुन: किसी योनिविशेष में जन्म-ग्रहण हेतु उस योनि के गर्भ में आ जाते हैं, केवल मनुष्य को अपने शुभ और अशुभ कर्मों का अच्छा बुरा परिणाम इहलोक और परलोक में भोगना पड़ता है-
मनुष्या: प्रतिपद्यन्ते स्वर्गं नरकदेव वा।
नैवान्ये प्राणिन: केचित् सर्वं ते फलभोगिन:।।
शुभानामशुभानां वा कर्मणां भृगुनन्दन।
संचय: क्रियते लोके मनुष्यैरेव केवलम्।।
तस्मान् मनुष्यस्तु मृतो यमलोकं प्रपद्यते।
नान्य: प्राणी महाभाग फलयोनौ व्यवस्थित:।।
नैवान्ये प्राणिन: केचित् सर्वं ते फलभोगिन:।।
शुभानामशुभानां वा कर्मणां भृगुनन्दन।
संचय: क्रियते लोके मनुष्यैरेव केवलम्।।
तस्मान् मनुष्यस्तु मृतो यमलोकं प्रपद्यते।
नान्य: प्राणी महाभाग फलयोनौ व्यवस्थित:।।
(विष्णुधर्मोत्तर. 2/113/4-6)
अपने कर्मों के फलस्वरूप मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा सूक्ष्म शरीर धारण
करके स्वर्ग या नरक भोगता है और तत्पश्चात् उसका पुनर्जन्म होता है या उसे
मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भारतीय मनीषा ने परलोक के इस दर्शन पर विशद विवेचना प्रस्तुत की है। हमारे शास्त्रों, पुराणों में मृत्यु का स्वरूप, मरणासन्न व्यक्ति की अवस्था और उनके कल्याण के लिये अन्तिम समय में किये जानेवाले कृत्यों तथा विविध प्रकार के दानों आदि का निरुपण हुआ है। मृत्यु के बाद के और्ध्वदैहिक संस्कार, पिण्डदान (दशगात्रविधि-निरूपण), तर्पण, श्राद्ध, एकादशाह, सपिण्डीकरण, अशौचादिनिर्णय, कर्मविपाक, पापों के प्रायश्चित्त का विधान आदि वर्णित है। इनमें नरकों, यम मार्गों तथा यममार्ग में पड़नेवाली वैतरणी नदी, यम-सभा और चित्रगुप्त आदि के भवनों स्वरूपों का भी परिचय दिया गया है। इसी प्रकार स्वर्ग, वैकुण्ठादि लोकों के वर्णन के साथ ही पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको प्राप्त करने के विविध साधनों का निरुपण हुआ है और जन्म मरण के बन्धन से मुक्त होने के साथ आत्मज्ञान का प्रतिपादन भी प्राप्त है।
इन सम्पूर्ण विषयों का एक सुन्दर शास्त्रोंक्त संकलन प्रस्तुत ग्रन्थ गरुडपुराण-सारोद्धार (प्रेतकल्प) में उपलब्ध है। यह सोलह अध्यायों में सुगुम्फित है। प्राय: श्राद्ध आदि पितृकार्यों तथा अशौचावस्था में परम्परा से इसी को सुनाया जाता है और सामान्य लोग प्राय: इसे ही गरुडपुराण के रूप में जानते हैं परन्तु वास्तव में यह ग्रन्थ मूल गरुडपुराण से भिन्न है। प्राचीन काल में राजस्थान के विद्वान पं. नौनिधिशर्माजी के द्वारा किया गया यह एक महत्त्वपूर्ण संकलन है।
इसमें श्रीमदादिशंकराचार्य के विवेकचूडामणि, भगवद्गीता, नीतिशतक, वैराग्यशतक एवं अन्य पुराणों के साथ गरुडपुराण के श्लोकों का भी संग्रह है। कुछ लोगों में यह भ्रान्त धारणा बनी है कि इस गरुडपुराण-सारोद्धार (प्रेतकल्प)- को घर में नहीं रखना चाहिये। केवल श्राद्ध आदि प्रेतकार्यों में ही इसकी कथा सुनते हैं। यह धारणा अत्यन्त भ्रामक और अन्धविश्वास युक्त है, कारण इस ग्रन्थ की महिमा में ही यह बात लिखी है कि ‘जो मनुष्य इस गरुडपुराण-सारोद्धार को सुनता है, चाहे जैसे भी इसका पाठ करता है, वह यमराज की भयंकर यातनाओं को तोड़कर निष्पाप होकर स्वर्ग प्राप्त करता है। यह ग्रन्थ बड़ा ही पवित्र और पुण्यदायक है तथा सभी पापों का विनाशक एवं सुननेवालों की समस्त कामनाओं का पूरक है। इसका सदैव श्रवण करना चाहिये-
भारतीय मनीषा ने परलोक के इस दर्शन पर विशद विवेचना प्रस्तुत की है। हमारे शास्त्रों, पुराणों में मृत्यु का स्वरूप, मरणासन्न व्यक्ति की अवस्था और उनके कल्याण के लिये अन्तिम समय में किये जानेवाले कृत्यों तथा विविध प्रकार के दानों आदि का निरुपण हुआ है। मृत्यु के बाद के और्ध्वदैहिक संस्कार, पिण्डदान (दशगात्रविधि-निरूपण), तर्पण, श्राद्ध, एकादशाह, सपिण्डीकरण, अशौचादिनिर्णय, कर्मविपाक, पापों के प्रायश्चित्त का विधान आदि वर्णित है। इनमें नरकों, यम मार्गों तथा यममार्ग में पड़नेवाली वैतरणी नदी, यम-सभा और चित्रगुप्त आदि के भवनों स्वरूपों का भी परिचय दिया गया है। इसी प्रकार स्वर्ग, वैकुण्ठादि लोकों के वर्णन के साथ ही पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको प्राप्त करने के विविध साधनों का निरुपण हुआ है और जन्म मरण के बन्धन से मुक्त होने के साथ आत्मज्ञान का प्रतिपादन भी प्राप्त है।
इन सम्पूर्ण विषयों का एक सुन्दर शास्त्रोंक्त संकलन प्रस्तुत ग्रन्थ गरुडपुराण-सारोद्धार (प्रेतकल्प) में उपलब्ध है। यह सोलह अध्यायों में सुगुम्फित है। प्राय: श्राद्ध आदि पितृकार्यों तथा अशौचावस्था में परम्परा से इसी को सुनाया जाता है और सामान्य लोग प्राय: इसे ही गरुडपुराण के रूप में जानते हैं परन्तु वास्तव में यह ग्रन्थ मूल गरुडपुराण से भिन्न है। प्राचीन काल में राजस्थान के विद्वान पं. नौनिधिशर्माजी के द्वारा किया गया यह एक महत्त्वपूर्ण संकलन है।
इसमें श्रीमदादिशंकराचार्य के विवेकचूडामणि, भगवद्गीता, नीतिशतक, वैराग्यशतक एवं अन्य पुराणों के साथ गरुडपुराण के श्लोकों का भी संग्रह है। कुछ लोगों में यह भ्रान्त धारणा बनी है कि इस गरुडपुराण-सारोद्धार (प्रेतकल्प)- को घर में नहीं रखना चाहिये। केवल श्राद्ध आदि प्रेतकार्यों में ही इसकी कथा सुनते हैं। यह धारणा अत्यन्त भ्रामक और अन्धविश्वास युक्त है, कारण इस ग्रन्थ की महिमा में ही यह बात लिखी है कि ‘जो मनुष्य इस गरुडपुराण-सारोद्धार को सुनता है, चाहे जैसे भी इसका पाठ करता है, वह यमराज की भयंकर यातनाओं को तोड़कर निष्पाप होकर स्वर्ग प्राप्त करता है। यह ग्रन्थ बड़ा ही पवित्र और पुण्यदायक है तथा सभी पापों का विनाशक एवं सुननेवालों की समस्त कामनाओं का पूरक है। इसका सदैव श्रवण करना चाहिये-
पुराणं गारुडं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम्। श्रृण्वतां कामनापूरं श्रोतव्यं
सर्वदैव हि।।
(सारो. फलश्रुति 11)
गरुणपुराण-सारोद्धार का श्रवणरूपी यह और्ध्वदैहिक कृत्य पितरों को मुक्ति
प्रदान करनेवाला, पुत्रविषयक अभिलाषा को पूर्ण करनेवाला तथा इस लोक और
परलोक में सुख प्रदान करनेवाला है। जो इस पवित्र प्रेतकल्प को सुनता अथवा
सुनाता है, वे दोनों ही पाप से मुक्त हो जाते हैं कभी भी दुर्गति को नहीं
प्राप्त करते। इसलिये समस्त प्रेतकल्प को विशेष प्रयत्न करके अवश्य ही
सुनना चाहिये-
इदं चामुष्मिकं कर्म पितृमुक्तिप्रदायकम्। पुत्रवांछितदं चैव परत्रेह
सुखप्रदम्।।
प्रेतकल्पमिदं पुण्यं श्रृणोति श्रावयेच्च य:। उभौ तौ पापनिर्मुक्तौ दुर्गतिं नैव गच्छत:।।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्रोतव्यं गारुडं किल। धर्मार्थकाममोक्षाणां दायकं दु:खनाशनम्।।
प्रेतकल्पमिदं पुण्यं श्रृणोति श्रावयेच्च य:। उभौ तौ पापनिर्मुक्तौ दुर्गतिं नैव गच्छत:।।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्रोतव्यं गारुडं किल। धर्मार्थकाममोक्षाणां दायकं दु:खनाशनम्।।
(गरुणपुराण प्रेतकल्प फलश्रुति
2,6,10)
वास्तव में गरुणपुराण-सारोद्धार की समस्त कथाओं और उपदेशों का सार यह है
कि हमें आसक्ति का त्यागकर वैराग्य की ओर प्रवृत्त होना चाहिये तथा
सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिये एकमात्र परमात्मा की शरण में जाना
चाहिये। यह लक्ष्यप्राप्ति कर्मयोग, ज्ञान अथवा भक्ति द्वारा किस प्रकार
हो सकती है, इसकी विशद व्याख्या इस ग्रन्थ में हुई हैं। मनुष्य इस लोक में
जाने के बाद अपने पारलौकिक जीवन को किस प्रकार सुख-समृद्ध एवं शान्तिप्रद
बना सकता है तथा मृत्यु के बाद उस प्राणी के उद्धार के लिये
पुत्र-पौत्रादि पारिवारिक जनों का क्या कर्तव्य है- इसका विशद वर्णन भी
यहाँ प्राप्त होता है।
इस ‘गरुणपुराण-सारोद्धार’ के श्रवण और पठन से स्वाभाविक ही पुण्यलाभ तथा अन्त:करण की परिशुद्धि एवं भगवान् में रति तथा विषयों से विरति तो होती ही है साथ ही मनुष्यों को ऐहिक और पारलौकिक हानि-लाभ का यथार्थ ज्ञान भी हो जाता है। तदनुसार जीवन में कर्तव्य-निश्चय करने की अनुभूत शिक्षा भी मिलती है। इसके अतिरिक्त पुत्र-पौत्रादि पारिवारिक जनों की पारमार्थिक आवश्यकता और उनके कर्तव्यबोध का परिज्ञान भी इसमें उपलब्ध है। इस प्रकार यह अत्यधिक उपादेय, ज्ञानवर्धक, सरस तथा यथार्थ अभ्युदय और कल्याण में पूर्णतया सहायक है। आशा है सर्वसाधारण इससे लाभान्वित होंगे।
इस ‘गरुणपुराण-सारोद्धार’ के श्रवण और पठन से स्वाभाविक ही पुण्यलाभ तथा अन्त:करण की परिशुद्धि एवं भगवान् में रति तथा विषयों से विरति तो होती ही है साथ ही मनुष्यों को ऐहिक और पारलौकिक हानि-लाभ का यथार्थ ज्ञान भी हो जाता है। तदनुसार जीवन में कर्तव्य-निश्चय करने की अनुभूत शिक्षा भी मिलती है। इसके अतिरिक्त पुत्र-पौत्रादि पारिवारिक जनों की पारमार्थिक आवश्यकता और उनके कर्तव्यबोध का परिज्ञान भी इसमें उपलब्ध है। इस प्रकार यह अत्यधिक उपादेय, ज्ञानवर्धक, सरस तथा यथार्थ अभ्युदय और कल्याण में पूर्णतया सहायक है। आशा है सर्वसाधारण इससे लाभान्वित होंगे।
राधेश्याम खेमका
।।श्रीहरि:।।
गरुणपुराण-सारोद्धार
पहला अध्याय
भगवान् विष्णु तथा गरुड के संवाद में गरुणपुराण-सारोद्धार का उपक्रम, पापी
मनुष्यों की इस लोक तथा परलोक में होनेवाली दुर्गति का वर्णन, दशगात्रके
पिण्डदान से यातना देह का निर्माण
धर्मदृढबद्धमूलो वेदस्कन्ध: पुराणशाखाढय्:।
क्रतुकुसुमो मोक्षफलो मधुसूदनपादपो जयति।।1।।
नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषय: शौनकादय:। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत।।2।।
क्रतुकुसुमो मोक्षफलो मधुसूदनपादपो जयति।।1।।
नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषय: शौनकादय:। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत।।2।।
धर्म ही जिसका सुदृढ़ मूल है, वेद जिसका स्कन्ध (तना) है, पुराणरूपी
शाखाओं से जो समृद्ध है, यज्ञ जिसका पुष्प है और मोक्ष जिसका फल है, ऐसे
भगवान् मधुसूदनरूपी पादप*-कल्पवृक्षकी जय हो।।1।। देव-क्षेत्र नैमिषारण्य
में स्वर्गलोक की प्राप्ति की कामना से शौनकादि ऋषियों ने (एक बार) सहस्र
वर्ष में पूर्ण होनेवाला यज्ञ प्रारम्भ किया।।2।।
*जैसे वृक्ष सबको आश्रय देता है, वैसे ही भगवान् भी अपने चरणारविन्दों में आश्रय देकर सबकी रक्षा करते हैं, इसीलिए भगवान् मधुसूदन को यहाँ पादप (पद्भ्यां चरणाभ्यां पाति रक्षतीति पादपः)- वृक्ष की उपमा दी गयी है।
*जैसे वृक्ष सबको आश्रय देता है, वैसे ही भगवान् भी अपने चरणारविन्दों में आश्रय देकर सबकी रक्षा करते हैं, इसीलिए भगवान् मधुसूदन को यहाँ पादप (पद्भ्यां चरणाभ्यां पाति रक्षतीति पादपः)- वृक्ष की उपमा दी गयी है।
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