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गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....

सखित्वका आदर्श

वयस्क होनेपर पिताको सुनीथाके विवाहकी चिन्ता हुई। वे अपनी कन्याको साथ लेकर देवताओं और मुनियोंके पास गये। सबका एक ही उत्तर था-'इससे जो संतान होगी, वह भयानक पापी होगी। अतः हम इसे स्वीकार न करेंगे।' इस तरह शापके कारण सुनीथाका विवाह ही रुक गया। अब तपस्याके अतिरिक्त सुनीथाके पास और कोई उपाय न था। वह पिताकी आज्ञासे वनमें जाकर तपस्या करने लगी, किंतु चिन्ता उसका पिण्ड छोड़ना नहीं चाहती थी।

रम्भा आदि अप्सराएँ सुनीथाकी सखियाँ थीं। वे उसकी सहायताके लिये आ पहुँचीं। उन्होंने सुनीथाको ढाढ़स बँधाया। रम्भाने उसे पुरुषोंको मोहित करनेवाली विद्या दी। सुनीथाने उसका अच्छा अभ्यास कर लिया। जब वह विद्या सिद्ध हो गयी तब सखियां सुनीथाको लेकर वरकी खोजमें निकल पड़ीं। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वे गंगाके तटपर पहुँचीं। वहाँ सुनीथाकी दृष्टि अंग नामक रूपवान्, तेजस्वी अत्रिमुनिके पुत्रपर पड़ी जो वहाँ तपस्या कर रहे थे, उन्हें देखते ही सुनीथा मोहित हो गयी। रम्भा तो यही चाहती थी। रम्भा उस तपस्वीके इतिहाससे सुपरिचित थी, जानती थी कि अत्रि-पुत्र अंग इन्द्रके समान वैभवशाली और विष्णुके समान पुत्रके पानेका वरदान पा चुका है। हो सकता था कि इस वरदानके प्रभावसे सुनीथाको मिला शाप प्रभावहीन हो जाय। अतः सुनीथाका उसपर मोहित होना उसे बहुत अच्छा लगा। अब रहा उस ब्राह्मणकुमारका सुनीथापर आसक्त होना, वह तो सुनीथाके लिये बायें हाथका खेल था; क्योंकि यह विद्या उसे सिद्ध थी।

रम्भाने मायाका भी प्रयोग किया। सुनीथा तो अत्यन्त रूपवती थी ही, रम्भाकी मायाने उसमें और चार चाँद लगा दिये। अब उसकी तुलना संसारमें नहीं रह गयी थी। उसका यौवन भी अद्वितीय हो गया। उसके गीतोंमें सौ-सौ आकर्षण भर उठे। सुनीथा झूलेपर बैठकर संगीत गाने लगी। सुनते ही अंगका ध्यान टूट गया। वे खिंचे हुए-से स्वरके उद्गमकी ओर बढ़ते चले गये। सुनीथापर जब उनकी दृष्टि पड़ी तो उनके हाथ-पैर शिथिल हो आये। वे तन-मनसे उसे चाहने लगे और अपनेको सँभालकर बोले-'सुन्दरि! तुम कौन हो?' सुनीथा चुप रही। रम्भा आगे आकर बोली-'महोदय! यह मृत्युकी कन्या है। इसमें सब शुभ लक्षण मिलते हैं। यह पतिकी खोजमें निकली है। हमलोग इसकी सखियां हैं।' रम्भाके अनुकूल वचन सुनकर अत्रिकुमार अंगको बहुत संतोष हुआ। उनकी अकुलाहट कुछ कम हो गयी। उन्होंने अपने पवित्र कुलकी प्रशंसा की और बतलाया कि मैंने विष्णु भगवान् से यह वरदान प्राप्त कर लिया है कि मुझे 'इन्द्र-सा ऐश्वर्यशाली और विष्णुके समान विश्वका पालन करनेवाला पुत्र प्राप्त हो, किंतु योग्य कन्या न मिलनेसे अबतक मैंने विवाह नहीं किया है। यह कुलीन कन्या यदि मुझे ही वरण कर ले तो इसे अदेय वस्तु भी दे सकता हूँ।'

रम्भा तो यही चाहती थी, अतः बोली-'हमलोग भी योग्य वरकी ही खोजमें हैं। यदि आप चाहते हैं तो सुनीथा आपकी धर्मभार्या बन रही है, किंतु याद रखें, आप इससे सदा प्यार करते रहें, इसके दोष-गुणोंपर कभी ध्यान न दें। आप इस बातका प्रत्यक्ष विश्वास दिलाइये। इस बातकी प्रतीतिके लिये अपना हाथ सुनीथाके हाथमें दीजिये।' अंगको रम्भाकी ये बातें भगवान्के वरदानकी तरह प्रिय लग रही थीं। उन्होंने अपना हाथ सुनीथाके स्विन्न हाथपर रख दिया।

इस तरह दोनोंको गान्धर्व-विवाहके द्वारा जोड़कर रम्भा बहुत संतुष्ट हुई और विदा माँगकर अपनी सखियोंके साथ घर वापस आ गयी।

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