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लोरियां

विपिन चंद्रा

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :51
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9421
आईएसबीएन :9788123761817

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और बच्चे अकेले होते जा रहे हैं। आज

अधिकांश माताएं एक भी लोरी नहीं गुनगुना सकतीं। लोरियां धीरे -धीरे पुरानी पीढ़ी के साथ ही लुप्त होती जा रही हैं और हो सकता है कि निकट भविष्य में लोरियां हमेशा-हमेशा के लिए खो जाएं। इसी चिंता को लेकर नेशनल बुक ट्रस्ट ने लोरियों की एक पुस्तक प्रकाशित करने का निर्णय लिया।

मैंने स्वयं हिंदी के अनेक विद्वानों और साहित्यकारों को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि वे इस सद्कार्य से यथायोग्य अपना योगदान दें।

मुझे यह लिखते हुए बहुत खुशी हो रही है कि कई लेखकों ने हमें अनेक लोरियां भेजकर हमारे इस प्रयास को सफल बनाने में हमारी मदद की है। हम उन सबके हृदय से आभारी हैं।

इस संकलन से हमने मध्यकालीन कवि सूरदास से लेकर आधुनिक समय के रचनाकारों तक की लोरियों को शामिल किया है। हमारे तमाम प्रयासों और सदिच्छा के बावजूद हमने सभी महत्वपूर्ण लोरियों को इस संकलन में समेट लिया है ऐसा हम नहीं कह सकते। लोरियों के अथाह सागर में से हम कुछ मोती निकालकर अपने सुहृद पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। इस संकलन में शामिल कुछ लोरियां पारंपरिक या अज्ञात हैं, यानी उनके रचनाकारों का कोई अता-पता हमें नहीं मालूम।

इस पुस्तक में संकलित अनेक लोरियां ऐसी भी हैं जिनके कवियों के पते हमें नहीं मिल पाए हैं। हम इस दिशा में कोशिश कर रहे हैं और जैसे ही हमें उनके पते मिल जाएंगे, हम उनसे तुरंत संपर्क करेंगे।

पाठकों के हाथों में यह पुस्तक सौंपते हुए मुझे सचमुच बहुत खुशी हो रही है।

विपिन चंद्र



चंदा मामा, आरे आवा

- पारंपरिक

चंदा मामा, आरे आवा,
पारे आवा,
नदिया किनारे आवा,
सोने के कटोरवा में
दूध-भात ले के आवा।
बबुआ के मुंह में घुटूक...।
घुटुक-घुटुक !

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