श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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यह उपन्यास उन जिज्ञासाओं का पिटारा है जो आज तक इस उजबजक में झूल रही है कि यह प्रेम नाम की शै (वस्तु) क्या है, क्यों है, कहीं है भी या नहीं। सारा विश्व इस के तिलिस्म में पागल है और होता है - कभी न कभी।
किसी न किसी मोड़ पर किसी को कोई चंचल तरेर, कोई चितवन, कोई छुअन, कोई कोमल-किसलय गात, कोई स्वर, कोई छवि अपनी अंगुली में बरबस लपेट लेती है। तब उस की सारी संज्ञाएँ, सारी परिमिता, सारी चेतनता, सारी बुद्धि एक बार इस प्रेम नामक विषरस में काल कवलित हो जाती है। वह अंधों से भी अँधा, बहरों से भी बहरा, पगलों से भी पगला और जीवित से परे एक अर्ध-मूर्छितावस्था में न जाने कब तक पड़ा रहता है। संसार उस के लिए शून्य हो जाता है और अपने सब अदृश्य। वह सारी कर्मठता, सारा सौजन्य कहीं किसी ताक पर रख कर-स्वयं को ही भूल जाता है।
आज तक इसका उत्तर नहीं मिला कि यह क्या बीमारी है।
यही जिज्ञासाएँ हैं मेरे उपन्यास में।
इस का कारण आप को मिल जाये तो कृप्या मुझे अवश्य बताएं।
मेरे अंधेरों में उजाले का काम करेंगे आप।
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