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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 3


हृदयेश...।

तुम्हें लेकर मैंने अपनी कल्पनाओं में कितनी ही ऋतुओं का श्रृंगार कर डाला है। तुम जब मेरे निकट केवल छोटा-सा झुक कर अभिवादन करते हो-मैं उसे सिर-हिलाकर तटस्थ मन से स्वीकार कर लेती हूँ-लेकिन उस के बाद तो एक आंदोलन उठ खड़ा होता है। तुम सामने होते हो और मैं तुम्हें आँख उठाकर देख भी नहीं सकती। जिस प्रिय को तुम केवन अपने एकांत में देखना चाहते हो उसे सब के बीच कैसे नजर भर देखा जा सकता है। एकाध-बार तुम्हें देखा-तो स्वयं में ग्लानि का अनुभव हुआ। क्यों देखा। कहीं तुम मेरी आँखों की भाषा न पढ़ लो जो मेरी उम्र से मेल नहीं खाती...। जो मुझे और तुम्हें दोनों को उन स्तर से अपदस्थ भी कर सकती है। मैं तुम्हारी आँखों में वह भाषा, वह संकेत नहीं पढ़ना चाहती मेरे प्यार। मेरे सौंदर्य। तुम्हें वैसा ही अकलुषित, पावन एवं शाश्वत रहने देना चाहती हूँ...।

जब तुम औरों के साथ हँस-हँस कर बातें करतें हो-उन के साथ काँफी पीने जाते हो-नहीं जानती- मुझे क्या होने लगता है। सोचती भी हूँ-कि यह क्या है। आखिर मेरा क्या अधिकार है उन सब पर। क्या कभी भी वह अधिकार मेरा हो सकता है। शायद तुम इस बात से आतंकित हो कि इस देश की स्त्रियों से बात करना कुछ भी असंगत-अफवाह फैला सकता है। हे प्राण! अगर ऐसा सोचते हो तो तुम ठीक सोचते हो। इस देश का समाज और पुरुष बड़े दकियानूसी है-पर मैं देख रही हूँ-तुम्हारें मन में भी कहीं वही संस्कार है। तुम भी कहीं उन्हीं से विजड़ित हो। मुँह से कहने से मन-आजाद नहीं हो जाता। दुनिया भर के पुरुषों के एक जैसे ही संस्कार है। तुम भी तो पुरुष ही हो। मुझ से बात करते इसीलिये कतराते हो अगर मुझ पर वह बासंती-उम्र होती तो तुम सौ-सौ बंधन काटकर भी मुझ तक आते। बात करने का बहाना ढूँढ़ते। तुम्हें शायद कहीं अहसास हो गया है मैं तुम से बात करने को ललायित हूँ। सच मानो, जिस क्षण से यह अहसास जन्मा हैं, अन्दर की नारी से कितनी ही फटकार खा चुकी हूँ...। मन तुम्हारे प्रति भी क्षोभ और करूणा से भर गया है। तुम पर दया करूँ या क्रोध...। विश्वास करो-मेरी ये भावनाएँ-मुझ तक ही सीमित रहेगी राज...।

इन्हीं कागजों में ही इन की इतिश्री लिखी है। बस। तुम्हें एक बार देख लूँ-दिनभर मैं एक बार-तो मेरे सारे दिन का श्रृंगार हो जाता है। तुम्हें देखकर-मेरी आँखों में धुँधलाया सौंदर्य जीवंत हो जाता है। सूरजमुखी मुस्काने लगते है। बर्फ (फूल) के पंख खुल जाते हैं-आस्टर की पत्तियाँ खिलने लगती है। हर-सिंगार मेरे प्राणों पर झरने लगता है। मेरे हृदय के बसंत...ढेर सारे बसंत एक साथ बौरने लगते है...औ...मेरे बसंत! मैं तुम में एकात्म हो-गुनगुनाने लगती हूँ। मेरे अंतर की पीड़ा-मीठी-मीठी निदयाने लगती है। लगता है किसी के स्पर्श से मेरी उम्र गल गई है और मैं अपने यौवनोन्माद में उड़ रही हूं-छोर-अछोर...।

-एक अछोर उन्माद...।


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