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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 5
मेरे स्वप्न...
कहते है जब मनुष्य का मन दुनिया में भटक जाता है और कोई और नहीं ढूँढ पाता तभी उसके मुँह से भगवान का नाम निकलता है...उस का कण-कण उस दिव्य को पुकार उठता है मेरी भी शायद यही स्थिति हो गई है जब देखती...मेरे आस-पास काँटे उग आये है तभी तुम मुझे आस-पास हर सिंगार की तरह खिले दृष्टिगत होते हो। तुम्हारी मोहिनी सूरत आँखों में सौ-सौ सतरंगी सपने बुन देती है। मालूम नहीं कैसे होते हैं वे सपने जो तुम्हें लेकर बुने जाते है जो तुम्हे लेकर रंगे जाते है जो तुम्हारी कल्पना से ही कल्पित होते है। उन सपनों में गंध ही गंध-कोमलता की कोमलता होती है। जहाँ यथार्थ का स्पर्श हुआ कोमलता बिखर जाती है। नागफनी के काँटों-सी दुनिया की नोके चुभने लगती हैं। इसीलिये जब मुझे लगता है मैं कहीं अवश हो गई हूँ तभी तुम्हारा काल्पनिक सुखद स्वप्न ओढ़ कर सो जाती हूँ...जिसमें केवल तुम होते हो तुम्हारी तस्वीर होती है और मैं जैसे मन की उस तस्वीर को दूर बैठकर निहारती होऊँ...। उस समय मैं तुम्हारे मुख पर आते-जाते भावों में अपने लिये सुख के कण ढूँढती हूँ...और ढूँढती ही रहती हूँ। वे सपने अक्सर किसी की आहट, किसी के किसी झटके से खंडित हो जाते है और मैं फिर उसी बंजर धरती पर लौट आती हूँ जिस पर कैक्टस तो उग सकते है पर सपने नहीं पनप सकते...राज...।
पर सपनौ को पाला तो जा सकता है। सच होने की अपेक्षा तो आवश्यक नहीं है। यह तो मन की-खिलावन है मन की अगाध परिधि की दौड़ है जिसे कौन पकड़ सका है।
जो तुम्हारी नही
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