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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 2


प्राण...।

मेरे शब्दों को तो कभी जबान नहीं मिलेगी और न ही उम्र की भाषा मेरे पास है। उम्र की एक जबान होती है जो बिना कहे सब कुछ कह देती है। पर इस बीती हुई उम्र में लिये जुबान कहाँ से लाऊँ। लाऊँ भी तो मेरे संस्कार, मेरा परिवेश मुझे रोक लेगा। मैं अपने परिवेश में आबद्ध हूँ। इसे तोड़ना भी नहीं चाहती। मेरे घर के अंदर एक सुंदर बगिया है-उसमें नन्हें-नन्हें गुलाब है-जो मेरी सारी जिंदगी की संचित पूँजी है। इस नये हरसिंगार के मोह में-मैं अपना बाग कैसे उजाड़ दूँ। नारी यों भी यथार्थ की जमीन से कुछ अधिक बंधी होती है। न भी बंधी हो तो हमारे बीच हमारी उम्रों का अन्तराल विशाल रेगिस्तान की तरह फैला हुआ है। आदमी की उम्र-उस के साथ बहुत कुछ जोड़ती जाती है, लेकिन स्त्री के दिन-बीतते ही उस से कुछ छीन लेते हैं। नारी उस विशिष्ट उम्र के बगैर भिखारिन है और पुरुष उसी के साथ बादशाह। इसलिये वह अपनी अन्य कैदों के साथ उम्र के कारावास की सोखर्चो के पीछे खड़ी-किसी फूल के लिये तरख तो सकती है, उसे पा नहीं सकती, उसे छू नहीं सकती।

कभी-कभी सोच कर बड़ी कोफत होती है कि नारी के लिये इतने सारे कारागार बना कर रखने की क्या आवश्यकता थी। क्या उस की बीती हुई उम्र ही उसके लिये बहुत बड़ी कारागार नहीं है। बड़ी उम्र के आदमी के साथ छोटी से छोटी लड़की देखी जा सकती है किंतु छोटी उम्र के लड़के के साथ बड़ी उम्र की स्त्री सहन नहीं करता-यह समाज।

ओह! यह मैं कहाँ भटक गई प्राण! में तो अपनी बगिया की बात कर रही थी-जिस का माली ही मेरा सब कुछ है। जिसकी मैं ही चाहत हूँ। मैं ही प्यार हूँ...। किंतु कभी-कभी क्यों लगता है कि दो प्राणियों के बीच भी एक दिन उत्तेजना मरे साँप की सी पड़ी रहती है...निस्वेज...निर्वाक। जब दूसरे की आँखों में झाँकों तो वह कहीं किसी सुदूर-अतीन्द्रिय स्वप्न में खोई हुई मिलती है। ऐसे में पुरुष की आँखों में कुछ अन्यथा देखा तो दर्द तो होता है न प्राण। जरूर होता है और जब ऐसा ही दर्द मुझे घेरता है तो मैं तुम्हें अपने पास अपनी आँखों में भरपूर भर लेती हूँ...और इतने पास महसूस करती हूँ कि सामने बिठाकर तुम्हें भरपूर निहार सकती हूँ तुम्हारें सौंदर्य निविष्ट-हाथ अपने हाथों में लेकर अपने अतृपृ होठ पर रख सकती हूँ...। बस इस कल्पना से मेरी आँखों में मोती उभर आये है...। इन मोतियों को पूजा के दीपों की भाँति तुम्हें कभी चढ़ा सकूँगी या नहीं-नहीं जानती। जीवनभर मात्र तुम्हें छू भी सकूँगी या नहीं-कौन जाने...। लेकिन कल्पना में जो सुखानुभूति हो रही है वही क्या कम है...प्राण...।

ये पत्र न जाने किस सदी में तुम तक पहुँचेंगे...। और जब कभी तुम इस भाषा को सीख कर इन्हें पढ़-सकोगे-तब तक शायद मेरे इस अनबोले-अनुराग पर युगों की गर्द चढ़ चुकी होगी...। समय-इस भावना के पँख कुतर चुका होगा...और शायद विस्मृति के गर्त मैं कहीं बहुत नीचे बल में मेरा यह अनुराग कुल बुलाता हुआ डूब चुका होगा। इसलिये चाहती हूँ इस भाव को आज भरपूर जी लूँ-भरपूर भर लूँ अपने देह-प्राण में। ऐसी दस्तक क्या रोज होती है हृदय-द्वार पर...। पर विडम्बना यही है कि तुम जानते तक नहीं...।

-तुम में ही एकात्म

तुम्हारी


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