इतिहास और राजनीति >> 1857 की अग्रणी सेनानी अमर वीरांगना अजीजन 1857 की अग्रणी सेनानी अमर वीरांगना अजीजनहरिनारायण तिवारी
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पुरुषों के समस्त वैराग्य के आयोजन, तपस्या के विशाल मठ, मुक्ति साधना के अतुलनीय आश्रय, नारी की एक बंकिम दृष्टि से ही तो ढह जाते हैं किन्तु नारीहीन तपस्या संसार की सबसे भद्दी भूल है। शिव विविध रूप और शक्ति निषेध रूप हैं। नारी आनन्द भोग के लिए नहीं आती वरन् आनन्द लुटाने के लिए आती है। टिड्डियों से भी विपुल, भेड़ियों से भी क्रूर, गृद्धों से भी निघृण श्रंगालों से भी दीन और कृकलासों (गिरगिट) से भी अधिक बहुरूपी हूण दस्युओं से इस पवित्र भूमि को बचाने की सामर्थ्य कौन रखता है ? समुद्र से कौस्तुभ मणि, पृथ्वी से जानकी का जन्म, हिमालय से पार्वती की उत्पत्ति, विष्णु चरण से गंगा, ब्रह्मा से त्रयी विद्या प्रादुर्भूत हो सकती है। ऐसे समय में मानसिक वेगों को धारण करना देव पुत्र की कन्या का ही कार्य है। नारी देह वह स्पर्शमणि है जो प्रत्येक ईंट पत्थर को सोना बना देती है। धर्म, कर्म, भक्ति, ज्ञान, शांति, सौमन्य कुछ भी नारी का संस्पर्श पाये बिना मनोहर नहीं होते। धर्म के लिए प्राण देना किसी जाति का पेशा नहीं है, वह मनुष्य मात्र का उत्तम लक्ष्य है। नारी के कुसुम कोमल शरीर में कितना गम्भीर हृदय है लघु काया में कैसा कौलीन्य तेज है। छोटी अवस्था में अनुभवशालीनता, आनन्द, उल्लास, कोलाहल, जय, निनाद, सौगंधित अंगराग से उपलिप्त होती है।
पुरुष वस्तु विभिन्न भाव रूप सत्य में आनन्द का साक्षात्कार करता है और स्त्री परिग्रहीत रूप में रस पाती है। पुरुष निःसंग है, स्त्री आसक्त, पुरुष निर्द्वन्द्व है, स्त्री द्वन्द्वोन्मुखी पुरुष मुक्त है। पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है पर स्त्री स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है। उसकी सफलता पुरुष को बांधने में है किन्तु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है। बाणभट्ट ने निपुणिका महामाया के प्रति जैसा संवाद हुआ वैसा ही नवाब शमशुद्दीन के समक्ष प्रस्तुत अजीजन से करके उसकी महाशक्ति को जागरित कर स्वतंत्रता संग्राम के लिए निष्ट-पुष्ठ किया। कुमारदेव के अनुसार जो समाज व्यवस्था झूठ को प्रश्रय देने के लिए तैयार की गयी है उसे मानकर, अगर कोई कल्याण कार्य करना चाहो तो तुम्हें झूठ का ही आश्रय लेना पड़ेगा। लोक कल्याण प्रधान वस्तु है वह जिससे सधता हो वही सत्य है। औषध के समान अनुचित स्थान पर प्रयुक्त होने पर सत्य भी विष हो जाता है।
स्त्री के दुःख इतने गम्भीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते। उपरोक्त रहस्य सुनने के पश्चात अजीजन का मुख मुरझा गया। कान तक की शिरायें रक्त के वेगाधिक्य से झनझना उठीं। पैरों के नीचे की आधारभूमि खिसकती भी जान पड़ी और दिग्मण्डल चक्र की भांति घूम गया। उसका कंठ रुध गया, आँखें वाष्पप्लुत थीं, मुखमण्डल रोमांचित था किन्तु नवाब साहब का देशानुराग उसके उत्सधार के प्रवाह में उसका पाण्डुर कपोल अनुराग की लालिमा से दमक उठे। चुहल भरी आँखों में प्रेम विकार लहरा उठे, ललाट पट्ट सात्विक भाव से खिल उठा, मुख मण्डल दीप्त हो गया, उसकी स्वरमणियाँ जाती रहीं और वह नानाराव पेशवा की कमान की प्रमुख सदस्य बन कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी तथा स्त्रियों को संगठित कर मस्तानी टोली बना उनमें उत्साहवर्द्धन करते हुए कहा - ‘‘संकट में भय से कातर होना तरुणाई का अपमान है। मरणयज्ञ की आहुति बनो, माताओं के लिए बहनों के लिए कुल ललनाओं के लिए प्राण देना सीखो, उठो वीरांगनाओं मृत्यु का भय मिथ्या है जीने के लिए मरो मरने के लिए जियो। बंदिनी भारत माँ तुम्हारी ओर ताक रही है। कर्तव्य में प्रमाद होना पाप है। संकोच और द्विविधा अभिशाप है’’ भारतीयता का अशेष तारुण्य आलोकित हो उठा है, अंग्रेजों का लूटमार उनका व्यवसाय है, देवालयों का भ्रष्ट करना उनका धर्म है, क्रांतिवीरों का वध करना उनका आमोद है, कुलवधुओं और बालिकाओं का घर्षण करना उनका विलास है और हत्या, आग लगाना उनका पावन कर्तव्य है। मनुष्य जितना देता है उतना ही पाता है। प्राण देने से प्राण मिलता है आत्मदान ऐसी वस्तु है जो दाता और गृहीता दोनों को सार्थक करती है। लौकिक मानदण्ड से आनन्द नामक वस्तु को नहीं मापा जा सकता। इस प्रकार के उत्प्रेरक विचारों की देश की महिलाओं, बच्चों युवा-युवतियों, पुरुषों में जागृत करना अजीजन प्रबन्ध काव्य की विषय वस्तु है।
सत्य और तथ्य की विवेचना इतिहास करता है परन्तु साहित्य तथ्य की उपादेयता का उद्घाटन पाठकों में उत्साह, शौर्य, प्रेम, सौमनस्य, उच्च भावों का संचार काव्य के माध्यम से जनमानस में प्रेरक का कार्य करता है। काव्य ग्रन्थ को पढ़कर पाठकों के मन पर कुछ भी प्रभाव पड़ सका तो मुझे आत्मतोष मिलेगा। वन्देमातरम् के जयघोष के साथ 1998- 1999 का लिखा हुआ आख्यान ग्रन्थ समस्त देशवासियों को अर्पित करते हुए आनंदानुभूति हो रही है। जय : हिन्द
पुरुष वस्तु विभिन्न भाव रूप सत्य में आनन्द का साक्षात्कार करता है और स्त्री परिग्रहीत रूप में रस पाती है। पुरुष निःसंग है, स्त्री आसक्त, पुरुष निर्द्वन्द्व है, स्त्री द्वन्द्वोन्मुखी पुरुष मुक्त है। पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है पर स्त्री स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है। उसकी सफलता पुरुष को बांधने में है किन्तु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है। बाणभट्ट ने निपुणिका महामाया के प्रति जैसा संवाद हुआ वैसा ही नवाब शमशुद्दीन के समक्ष प्रस्तुत अजीजन से करके उसकी महाशक्ति को जागरित कर स्वतंत्रता संग्राम के लिए निष्ट-पुष्ठ किया। कुमारदेव के अनुसार जो समाज व्यवस्था झूठ को प्रश्रय देने के लिए तैयार की गयी है उसे मानकर, अगर कोई कल्याण कार्य करना चाहो तो तुम्हें झूठ का ही आश्रय लेना पड़ेगा। लोक कल्याण प्रधान वस्तु है वह जिससे सधता हो वही सत्य है। औषध के समान अनुचित स्थान पर प्रयुक्त होने पर सत्य भी विष हो जाता है।
स्त्री के दुःख इतने गम्भीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते। उपरोक्त रहस्य सुनने के पश्चात अजीजन का मुख मुरझा गया। कान तक की शिरायें रक्त के वेगाधिक्य से झनझना उठीं। पैरों के नीचे की आधारभूमि खिसकती भी जान पड़ी और दिग्मण्डल चक्र की भांति घूम गया। उसका कंठ रुध गया, आँखें वाष्पप्लुत थीं, मुखमण्डल रोमांचित था किन्तु नवाब साहब का देशानुराग उसके उत्सधार के प्रवाह में उसका पाण्डुर कपोल अनुराग की लालिमा से दमक उठे। चुहल भरी आँखों में प्रेम विकार लहरा उठे, ललाट पट्ट सात्विक भाव से खिल उठा, मुख मण्डल दीप्त हो गया, उसकी स्वरमणियाँ जाती रहीं और वह नानाराव पेशवा की कमान की प्रमुख सदस्य बन कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी तथा स्त्रियों को संगठित कर मस्तानी टोली बना उनमें उत्साहवर्द्धन करते हुए कहा - ‘‘संकट में भय से कातर होना तरुणाई का अपमान है। मरणयज्ञ की आहुति बनो, माताओं के लिए बहनों के लिए कुल ललनाओं के लिए प्राण देना सीखो, उठो वीरांगनाओं मृत्यु का भय मिथ्या है जीने के लिए मरो मरने के लिए जियो। बंदिनी भारत माँ तुम्हारी ओर ताक रही है। कर्तव्य में प्रमाद होना पाप है। संकोच और द्विविधा अभिशाप है’’ भारतीयता का अशेष तारुण्य आलोकित हो उठा है, अंग्रेजों का लूटमार उनका व्यवसाय है, देवालयों का भ्रष्ट करना उनका धर्म है, क्रांतिवीरों का वध करना उनका आमोद है, कुलवधुओं और बालिकाओं का घर्षण करना उनका विलास है और हत्या, आग लगाना उनका पावन कर्तव्य है। मनुष्य जितना देता है उतना ही पाता है। प्राण देने से प्राण मिलता है आत्मदान ऐसी वस्तु है जो दाता और गृहीता दोनों को सार्थक करती है। लौकिक मानदण्ड से आनन्द नामक वस्तु को नहीं मापा जा सकता। इस प्रकार के उत्प्रेरक विचारों की देश की महिलाओं, बच्चों युवा-युवतियों, पुरुषों में जागृत करना अजीजन प्रबन्ध काव्य की विषय वस्तु है।
सत्य और तथ्य की विवेचना इतिहास करता है परन्तु साहित्य तथ्य की उपादेयता का उद्घाटन पाठकों में उत्साह, शौर्य, प्रेम, सौमनस्य, उच्च भावों का संचार काव्य के माध्यम से जनमानस में प्रेरक का कार्य करता है। काव्य ग्रन्थ को पढ़कर पाठकों के मन पर कुछ भी प्रभाव पड़ सका तो मुझे आत्मतोष मिलेगा। वन्देमातरम् के जयघोष के साथ 1998- 1999 का लिखा हुआ आख्यान ग्रन्थ समस्त देशवासियों को अर्पित करते हुए आनंदानुभूति हो रही है। जय : हिन्द
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