गीत >> तपन मिली है छाव से... तपन मिली है छाव से...शिव कुमार सिंह
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रावण की लोक कथाएँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कुँवर के गीतों में जीवन सौन्दर्य का मानस स्पर्श
मनुष्य के भाव लोक में अनुभूतियों का निरन्तर आवर्तन और प्रवर्तन होता रहता है। सामान्यजन इस ओर विशेष ध्यान नहीं देते, किन्तु संवेदनशील कवि मानस में इनके कोमल स्पन्दनों से चेतना का चारुत्व अभिनव कल्पना का सृजन समाहार बनकर शब्द में व्यक्त होने को आतुर हो उठता है। यह आतुरता ही गीत में अभिव्यक्त होकर जीवन सौन्दर्य के अंतर्बाह्य रूप और गुण का आधार बनती है।
शिव कुमार सिंह ‘कुँवर’ गीत की इसी ललित-लावण्यता के सुमधुर शब्द शिल्पी है। उनके शब्द लय में भाव और कर्म का सुन्दर समन्वय हुआ है। जीवन की लोक सामान्य भाव भूमि पर व्यक्तित्व को मर्यादा का विकास हुआ है और परिवेश की गत्यात्मकता से उन्हें नम्रता, कोमलता, उत्साह और करुणा तथा प्रेम की रागात्मकता का अवदान प्राप्त हुआ है। अपने असीम तथा ससीम भाव बोध में स्नेहिल बन्धनों की रसवन्ती रस धार से उन्होंने युग के काव्य पुरुष का गोपन किया है। इस गान में महासिन्धु जैसे गहराई और नभ की व्यापकता का अनुगुंजन है, सम्बन्धों की दृढ़ता है, और है विश्वास की कविता का नीरव उपवन में गुंजित मुसकान भरा भीषण ज्वारों को भी निष्क्रिय कर भूने वाला समर्थ भाव प्रवाह। जो विश्व कवि तुलसी के प्रति कृतज्ञता का अनुपम आभार है, आज के कवि का रस भीगा मधुमास है और है, समय की शिला पर अंकित युग-युग की तस्वीर का वाणी में व्यक्त शब्दानुवर्तन।
शिव कुमार सिंह ‘कुँवर’ गीतों में भाव सौन्दर्य से विकसित, कल्पना के सर्जनात्मक क्षणों की रचनात्मक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में सौन्दर्य दर्शन है, स्मृति में अंकित सौन्दर्य का भावनात्मक स्पर्शन है, तथा शब्द, स्पर्श रूप और रस की चेतन अनुभूति का प्रतिभा से सम्पन्न बिम्ब विधान है। हस बिम्ब विधान में प्रकृति के सौन्दर्य से उद्दीपन के भाव तत्व शब्द रूपायित हुए हैं। नैसर्गिक सुषमा का चाक्षुष विधान कल्पना की सौन्दर्य के जिस अभिनव लोक तक व्यंजना का आधार देता है, उसमें लोकोत्तर ऐन्द्रिय बोध के मनोमय आनुभूतिक अभिव्यक्तीकरण हुए है। उनकी आत्मरति का अन्तर्मन से निकला वाणी में उन्मेष शब्दों के साथ अर्थवान हुआ है।
मनुष्य और प्रकृति का सम्बन्ध तो अनादिकाल से एक दूसरे को भाव भरा संसार प्रदान करता ही रहा है। वैदिक काल से लेकर संस्कृत काव्य काल तक और उसके पश्चात् हिन्दी काव्य परम्परा तक प्रकृति के स्वरूप बोध में भावनात्मक परिवर्तन होता रहा है। प्रत्येक काल के कवियों में अपने समय और समाज के अनुसार प्रकृति को नैसर्गिक छटा का अवलोकन और काव्यमय प्रणयन नये-नये ढंगों से होता रहा है। शिव कुमार सिह कुंवर के कवि मन ने भी अपनी सौन्दर्यमयी अनुभूति को प्रकृति के उपादानों से जो अभिव्यक्ति दी है, उसमें रूप माधुरी का छलकता रस कलश है, परिमल है, सुरभित अमराई वाला बाग है, और है उस बाग में मन के घायल होने का अनुराग। इस सुरुचि सम्पन्ना मधुर कल्पना का अवगुण्ठन में शरमाता रूप-यौवन स्नेहिल बन्धनों को और भी मादकता प्रदान करते हुए आकुलता का जब शब्दों में मनुहार-गीत गाता है तब मौसम भी पागल होने को तत्पर हो जाता है। प्रकृति को नैसर्गिक छटा और तरुणाई की अरुणाई का शिष्ट रूप विधान किस प्रकार दृगांचल से निकलकर हदयांचल तक विस्तारित हो रहा है, देखें -
रूप माधुरी मत छलकाओ,
यह मन घायल हो जायेगा।
सिन्दूरी संध्या जैसी तुम, ऊषा जैसी अरुणाई हो
कवि की मधुर कल्पना जैसी, तुम रसवन्ती तरुणाई हो।
ढ़ीठ पवन के साथ खेलते, श्याम घटा से कोमल कुन्तल
रह-रह कर उड़-उड़ जाता है सतरंगी दृग-पोहक आंचल।
पलकों यर अलकें मत डालो मौसम पागल हो गयोगा।
यही नहीं अपनी सौन्दर्य प्रतिभा को कवि-परिणय का पावन पल मानते हुए नील झील में खिला कमल कहता है, वीणा की झंकृत भाषा कहता है, और अपनी भाव भरी स्नेहिल अभिलाषा के मधुर मादक स्वर श्रृंगार को सस्मित चारु चन्द्रिका के समान तन-मन और आत्मा के विस्तार में धारण करके कवि होने का आनन्द प्राप्त करके धन्य हो जाता है।
ऐन्द्रिय बोध से प्राप्त सौन्दर्य भावन के मनोमय आनन्द को भावमय शब्द चित्र प्रस्तुत करने में ‘कुँवरे’ के गीत प्रभु विष्णुता के साथ ही नितान्त सहज़ता रने अनुभूति को अभिव्यक्त करने में सफल हुए है। इनमें जीवन सौन्दर्य का मानस स्पर्श प्रतिफलित हुआ है। कवि के रसात्मक स्मृति चित्र कल्पना के पंखों पर आरूढ़ होकर चेतना के मुग्ध संवेगों में सौन्दर्यमयी आत्मानुभूति के साथ जब प्रकृति सौन्दर्य से तादात्म्य स्थापित करते हैं, तब रूप सुषमा के बिम्ब मन शब्द चित्र बनकर गीतों में अभिव्यक्त हुए हैं। बासन्ती मौसम जब चोरी-चोरी चुपके-चुपके यौवन के आँगन में प्रवेश कर जाता है तब जी रहस्यमय उत्सुकता जिज्ञासा वनकर सकुचाई-सरमाई गदराई तरुणाई की कोरी-कोरी आँखों के सपनों में आनन्द का रंग महल निर्मित कर देती है, वह अंतर्मन की चाहों का, मधुवन्ती गंधों का और जीवन के मनोमय आनन्द का शब्द और लय में व्यक्त कल्पना लोक होता है। प्रेम गीतों के अनेक ललित-लय विधान कुँवर के गीतों में अपनी मौलिक शैली और शिल्प के साथ सृजित हुए है। इनमें फागुन की मादकता को मनुहारें है, सावन वाली मदिर फुहारे हैं और प्रेयसी की आँखों में दृश्यमान मयूरी चाल की चपल गति है, रंग, अबीर, गुलाल का रंग-रंग है।
जीवन गति के रागमय संसार में कल्पना और प्रतिभा के समन्वय से रचे गये गीत शब्द सौन्दर्य, भाव सौन्दर्य, ध्वनि सौन्दर्य, नाद सौन्दर्य, सुर सौन्दर्य, रूप सौन्दर्य, एवं साहित्यिक गुणवत्ता से समृद्ध है। उनमें सम्बन्धों की अर्थवत्ता का उत्कर्ष रूपायित हुआ है। भावों को बुद्धि का स्पर्श प्राप्त हुआ है और कवि को स्नेहिल बन्धनों की सतत् उपलब्धि की कामना का चिन्तन करने की विवश होना पड़। है। संसार की परिवर्तनशील नियति में उसे वर्तमान मधुऋतु वाले मदिर स्वरों के संगीत, संयोग जन्य आनन्द और प्राणों को बल देने वाले आश्रय की चिंता भी सताती है। वियोग की कल्पना भी उसे कुछ सोचने को विवश करती लगती है, तब वह गा उठता है -
स्नेहिल बंधन टूट गये तो
उन अनुबन्धों का क्या होगा।
कर मे कर लेकर जो खाई
उन सौगन्धों का क्या होगा।।
अपने स्नेहिल सम्बन्धों के स्मरण को संवरण करता कवि का अन्तर्मन जब किन्हीं व्यक्तियों और क्षणों के प्रतिदानों को याद करता है, तब उसे यह कहते हुए कोई संकोच नहीं लगता कि कोई था जिसके लिए उसने कहा था -
जीवन के निर्जल सावन में
तुम मधु को रस धार बन गये।
मेरे अन्तर संघर्षों में पल भर कहीं विराम नहीं था
निशि वासर की थकन घुटन थी किंचित भी आराम नहीं था।
जीवन के उर्मिल सागर में सिर्फ तुम्हारा नाम लिया था,
तुमने ही तो बढ़कर आगे मेरा करतल थाम लिया था
भीषण तूफानी घड़ियों में
तुम माझी पतवार बन गये।
मेरी कविता के कानन में
तुम नेहिल उद्गार बन गये।
तुम मेरे सूने आँगन में
गीतों की गुंजार बन गये।
जिन्दगी के विरह और अनुराग तथा दर्द की सरगम का नशीला राग अपने गीतों में भरने वाले शिवकुमार सिह कुंवर ने समय और समाज की अंतर्चेतना से भी साक्षात्कार किया है, और कविता के बहुरूपात्मक यथार्थ को भोगे हुए क्षणों की अनुभूति से अभिव्यक्ति देकर गीतों में दर्द और संत्रास को भी जीवन की गति के साथ शब्द देने का प्रयास किया है। इस प्रकार के गीतों में अपने लिए ही नहीं जनता के लिए भी लिखने का अर्थ समकालीन संगतियों और विसंगतियों के बीच से आकर अर्थवान हुआ है। राग-रंग से आगे बढ़कर, काँटों वाली सेजों पर उसे जो अनुभव हुआ है उसमें पाँव के तले लोहित अंगारों को भी अनुभूति हुई है। किसी साजिश के तहत बचपन से छिनती ममता की छाव की उसने देखा है, धर्म की हृदयहीनता में अधर्म को भी पहचाना है, कोलाहल में वीणा के बिखरते स्वरों को शब्द दिये हैं, आँसू में नहाईं चमन की तसवीर उसने देखी है, और सत्ता तथा व्यवस्था की बेईमानी के त्रासद क्षणों को भी अभिव्यक्ति देने का सफल सायास किया है। किन्तु इस प्रकार की रचनाओं में उसने गूढ़ और गाढ़ के आडम्बर से बचने का प्रयास किया है। अपने देश और परिवेश को दशा और दिशा से क्षुब्ध होकर कुँवर ने मानवीय सहजता को नष्ट होने से बचाने के लिए जीवन धर्म और कवि धर्म का निर्वाह किया है। इस प्रकार के गीतों में उन्होंने अनुभव प्रत्यक्ष का विस्तार करते हुए कहा है -
आँसू में नहाई है ये तकदीर चमन की।
पहले से अधिक और बढ़ी पीर चमन की।।
फूलों के गर्म रक्त, बहाने से जो बनी।
अरमान उम्र भर के, लुटाने से जो बनी।।
भ्रमरों से है जर्जर वही शहतीर चमन की।
पहले से अधिक और बढ़ी पीर चमन की।।
इस चमन को माली से ही लुटता देखकर, कवि मन वितृष्णा में डूब जाता है, जब उसे अर्थ नगर के अनर्थों का प्यार में मृग तृष्णा का घोर विषमताओं में परवशता के कठिन बन्धनों से उपजी रचना की मूक व्यथा का गीत चन्दन वन की करुण कथा के रूप में इस विवशता को अपने कवि कर्तव्य से निर्वाह करते हुए नीडों में व्याप्त जहरीली सर्पिल फुंकारों के पर्दाफाश जब आग्नेय शब्दों में अनुभूति को अभिव्यक्ति देने का क्रम चला है तब जिन गीतों की रचना हुई है उनमें स्वयं को कवि कहना पड़ा है -
आग से दहकी हथेली जा रही है,
कलम कविता में पहेली गा रही है
ध्वस्त है घर निर्धनों के
त्रस्त हैं घर निर्धनों के
देह जलती है, दुःखों से
ग्रस्त है घर निर्धनों से
रक्त रंजित खंजरों में
और शोषित पंजरों में
आदमी खोया हुआ है
खद्दारी आडम्बरों में
जिन्दगी बैठी अकेली गा रही है
पीर की होती सहेली जा रही है
इन स्थितियों में यथार्थ भोगी कवि दृष्टि ने कल्पना के कल्पित भवन से निकल कर साहसपूर्वक कह दिया है कि ‘मात्र किसी के संकेतों पर कविता कवि से हो न सकेगी’ वह तो अब ऐसी कविता रचेगा जो अराजकता से निर्मित हेम हवेली को, शोषण वाले दुर्गों को धराशायी कर देने की क्षमता से परिपूर्ण होगी। कवि कुंवर के अनेक गीत इसी भावना की संवेदना की सूक्ष्मता का अवदान देने में सफल हुए हैं।
अपनी बहुमुखी काव्य दृष्टि में भावना कस्तूरी की महक से आकण्ठ डूबे, करुणा की सजल नमन स्नेह सिक्त अभिलाषा को कदम-कदम पर क्रूर नियति से संघर्ष का आह्वान देकर इस कवि ने आशावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए जीवन के बोझिल सपनों में जगाकर नव प्रभात को परिवर्तन के नव विहान में झाकते हुए देखा है और कह दिया है ‘जाने क्यों लज्जाता है जैसे आज अचानक तुम आओगे’ इसी आगमन की सार्थक प्रतीक्षा में रत कुंवर के स्वधर्मी और लोकधर्मी सृजन संसार में कविता के विविध शब्दाचरण साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।
मनुष्य के भाव लोक में अनुभूतियों का निरन्तर आवर्तन और प्रवर्तन होता रहता है। सामान्यजन इस ओर विशेष ध्यान नहीं देते, किन्तु संवेदनशील कवि मानस में इनके कोमल स्पन्दनों से चेतना का चारुत्व अभिनव कल्पना का सृजन समाहार बनकर शब्द में व्यक्त होने को आतुर हो उठता है। यह आतुरता ही गीत में अभिव्यक्त होकर जीवन सौन्दर्य के अंतर्बाह्य रूप और गुण का आधार बनती है।
शिव कुमार सिंह ‘कुँवर’ गीत की इसी ललित-लावण्यता के सुमधुर शब्द शिल्पी है। उनके शब्द लय में भाव और कर्म का सुन्दर समन्वय हुआ है। जीवन की लोक सामान्य भाव भूमि पर व्यक्तित्व को मर्यादा का विकास हुआ है और परिवेश की गत्यात्मकता से उन्हें नम्रता, कोमलता, उत्साह और करुणा तथा प्रेम की रागात्मकता का अवदान प्राप्त हुआ है। अपने असीम तथा ससीम भाव बोध में स्नेहिल बन्धनों की रसवन्ती रस धार से उन्होंने युग के काव्य पुरुष का गोपन किया है। इस गान में महासिन्धु जैसे गहराई और नभ की व्यापकता का अनुगुंजन है, सम्बन्धों की दृढ़ता है, और है विश्वास की कविता का नीरव उपवन में गुंजित मुसकान भरा भीषण ज्वारों को भी निष्क्रिय कर भूने वाला समर्थ भाव प्रवाह। जो विश्व कवि तुलसी के प्रति कृतज्ञता का अनुपम आभार है, आज के कवि का रस भीगा मधुमास है और है, समय की शिला पर अंकित युग-युग की तस्वीर का वाणी में व्यक्त शब्दानुवर्तन।
शिव कुमार सिंह ‘कुँवर’ गीतों में भाव सौन्दर्य से विकसित, कल्पना के सर्जनात्मक क्षणों की रचनात्मक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में सौन्दर्य दर्शन है, स्मृति में अंकित सौन्दर्य का भावनात्मक स्पर्शन है, तथा शब्द, स्पर्श रूप और रस की चेतन अनुभूति का प्रतिभा से सम्पन्न बिम्ब विधान है। हस बिम्ब विधान में प्रकृति के सौन्दर्य से उद्दीपन के भाव तत्व शब्द रूपायित हुए हैं। नैसर्गिक सुषमा का चाक्षुष विधान कल्पना की सौन्दर्य के जिस अभिनव लोक तक व्यंजना का आधार देता है, उसमें लोकोत्तर ऐन्द्रिय बोध के मनोमय आनुभूतिक अभिव्यक्तीकरण हुए है। उनकी आत्मरति का अन्तर्मन से निकला वाणी में उन्मेष शब्दों के साथ अर्थवान हुआ है।
मनुष्य और प्रकृति का सम्बन्ध तो अनादिकाल से एक दूसरे को भाव भरा संसार प्रदान करता ही रहा है। वैदिक काल से लेकर संस्कृत काव्य काल तक और उसके पश्चात् हिन्दी काव्य परम्परा तक प्रकृति के स्वरूप बोध में भावनात्मक परिवर्तन होता रहा है। प्रत्येक काल के कवियों में अपने समय और समाज के अनुसार प्रकृति को नैसर्गिक छटा का अवलोकन और काव्यमय प्रणयन नये-नये ढंगों से होता रहा है। शिव कुमार सिह कुंवर के कवि मन ने भी अपनी सौन्दर्यमयी अनुभूति को प्रकृति के उपादानों से जो अभिव्यक्ति दी है, उसमें रूप माधुरी का छलकता रस कलश है, परिमल है, सुरभित अमराई वाला बाग है, और है उस बाग में मन के घायल होने का अनुराग। इस सुरुचि सम्पन्ना मधुर कल्पना का अवगुण्ठन में शरमाता रूप-यौवन स्नेहिल बन्धनों को और भी मादकता प्रदान करते हुए आकुलता का जब शब्दों में मनुहार-गीत गाता है तब मौसम भी पागल होने को तत्पर हो जाता है। प्रकृति को नैसर्गिक छटा और तरुणाई की अरुणाई का शिष्ट रूप विधान किस प्रकार दृगांचल से निकलकर हदयांचल तक विस्तारित हो रहा है, देखें -
रूप माधुरी मत छलकाओ,
यह मन घायल हो जायेगा।
सिन्दूरी संध्या जैसी तुम, ऊषा जैसी अरुणाई हो
कवि की मधुर कल्पना जैसी, तुम रसवन्ती तरुणाई हो।
ढ़ीठ पवन के साथ खेलते, श्याम घटा से कोमल कुन्तल
रह-रह कर उड़-उड़ जाता है सतरंगी दृग-पोहक आंचल।
पलकों यर अलकें मत डालो मौसम पागल हो गयोगा।
यही नहीं अपनी सौन्दर्य प्रतिभा को कवि-परिणय का पावन पल मानते हुए नील झील में खिला कमल कहता है, वीणा की झंकृत भाषा कहता है, और अपनी भाव भरी स्नेहिल अभिलाषा के मधुर मादक स्वर श्रृंगार को सस्मित चारु चन्द्रिका के समान तन-मन और आत्मा के विस्तार में धारण करके कवि होने का आनन्द प्राप्त करके धन्य हो जाता है।
ऐन्द्रिय बोध से प्राप्त सौन्दर्य भावन के मनोमय आनन्द को भावमय शब्द चित्र प्रस्तुत करने में ‘कुँवरे’ के गीत प्रभु विष्णुता के साथ ही नितान्त सहज़ता रने अनुभूति को अभिव्यक्त करने में सफल हुए है। इनमें जीवन सौन्दर्य का मानस स्पर्श प्रतिफलित हुआ है। कवि के रसात्मक स्मृति चित्र कल्पना के पंखों पर आरूढ़ होकर चेतना के मुग्ध संवेगों में सौन्दर्यमयी आत्मानुभूति के साथ जब प्रकृति सौन्दर्य से तादात्म्य स्थापित करते हैं, तब रूप सुषमा के बिम्ब मन शब्द चित्र बनकर गीतों में अभिव्यक्त हुए हैं। बासन्ती मौसम जब चोरी-चोरी चुपके-चुपके यौवन के आँगन में प्रवेश कर जाता है तब जी रहस्यमय उत्सुकता जिज्ञासा वनकर सकुचाई-सरमाई गदराई तरुणाई की कोरी-कोरी आँखों के सपनों में आनन्द का रंग महल निर्मित कर देती है, वह अंतर्मन की चाहों का, मधुवन्ती गंधों का और जीवन के मनोमय आनन्द का शब्द और लय में व्यक्त कल्पना लोक होता है। प्रेम गीतों के अनेक ललित-लय विधान कुँवर के गीतों में अपनी मौलिक शैली और शिल्प के साथ सृजित हुए है। इनमें फागुन की मादकता को मनुहारें है, सावन वाली मदिर फुहारे हैं और प्रेयसी की आँखों में दृश्यमान मयूरी चाल की चपल गति है, रंग, अबीर, गुलाल का रंग-रंग है।
जीवन गति के रागमय संसार में कल्पना और प्रतिभा के समन्वय से रचे गये गीत शब्द सौन्दर्य, भाव सौन्दर्य, ध्वनि सौन्दर्य, नाद सौन्दर्य, सुर सौन्दर्य, रूप सौन्दर्य, एवं साहित्यिक गुणवत्ता से समृद्ध है। उनमें सम्बन्धों की अर्थवत्ता का उत्कर्ष रूपायित हुआ है। भावों को बुद्धि का स्पर्श प्राप्त हुआ है और कवि को स्नेहिल बन्धनों की सतत् उपलब्धि की कामना का चिन्तन करने की विवश होना पड़। है। संसार की परिवर्तनशील नियति में उसे वर्तमान मधुऋतु वाले मदिर स्वरों के संगीत, संयोग जन्य आनन्द और प्राणों को बल देने वाले आश्रय की चिंता भी सताती है। वियोग की कल्पना भी उसे कुछ सोचने को विवश करती लगती है, तब वह गा उठता है -
स्नेहिल बंधन टूट गये तो
उन अनुबन्धों का क्या होगा।
कर मे कर लेकर जो खाई
उन सौगन्धों का क्या होगा।।
अपने स्नेहिल सम्बन्धों के स्मरण को संवरण करता कवि का अन्तर्मन जब किन्हीं व्यक्तियों और क्षणों के प्रतिदानों को याद करता है, तब उसे यह कहते हुए कोई संकोच नहीं लगता कि कोई था जिसके लिए उसने कहा था -
जीवन के निर्जल सावन में
तुम मधु को रस धार बन गये।
मेरे अन्तर संघर्षों में पल भर कहीं विराम नहीं था
निशि वासर की थकन घुटन थी किंचित भी आराम नहीं था।
जीवन के उर्मिल सागर में सिर्फ तुम्हारा नाम लिया था,
तुमने ही तो बढ़कर आगे मेरा करतल थाम लिया था
भीषण तूफानी घड़ियों में
तुम माझी पतवार बन गये।
मेरी कविता के कानन में
तुम नेहिल उद्गार बन गये।
तुम मेरे सूने आँगन में
गीतों की गुंजार बन गये।
जिन्दगी के विरह और अनुराग तथा दर्द की सरगम का नशीला राग अपने गीतों में भरने वाले शिवकुमार सिह कुंवर ने समय और समाज की अंतर्चेतना से भी साक्षात्कार किया है, और कविता के बहुरूपात्मक यथार्थ को भोगे हुए क्षणों की अनुभूति से अभिव्यक्ति देकर गीतों में दर्द और संत्रास को भी जीवन की गति के साथ शब्द देने का प्रयास किया है। इस प्रकार के गीतों में अपने लिए ही नहीं जनता के लिए भी लिखने का अर्थ समकालीन संगतियों और विसंगतियों के बीच से आकर अर्थवान हुआ है। राग-रंग से आगे बढ़कर, काँटों वाली सेजों पर उसे जो अनुभव हुआ है उसमें पाँव के तले लोहित अंगारों को भी अनुभूति हुई है। किसी साजिश के तहत बचपन से छिनती ममता की छाव की उसने देखा है, धर्म की हृदयहीनता में अधर्म को भी पहचाना है, कोलाहल में वीणा के बिखरते स्वरों को शब्द दिये हैं, आँसू में नहाईं चमन की तसवीर उसने देखी है, और सत्ता तथा व्यवस्था की बेईमानी के त्रासद क्षणों को भी अभिव्यक्ति देने का सफल सायास किया है। किन्तु इस प्रकार की रचनाओं में उसने गूढ़ और गाढ़ के आडम्बर से बचने का प्रयास किया है। अपने देश और परिवेश को दशा और दिशा से क्षुब्ध होकर कुँवर ने मानवीय सहजता को नष्ट होने से बचाने के लिए जीवन धर्म और कवि धर्म का निर्वाह किया है। इस प्रकार के गीतों में उन्होंने अनुभव प्रत्यक्ष का विस्तार करते हुए कहा है -
आँसू में नहाई है ये तकदीर चमन की।
पहले से अधिक और बढ़ी पीर चमन की।।
फूलों के गर्म रक्त, बहाने से जो बनी।
अरमान उम्र भर के, लुटाने से जो बनी।।
भ्रमरों से है जर्जर वही शहतीर चमन की।
पहले से अधिक और बढ़ी पीर चमन की।।
इस चमन को माली से ही लुटता देखकर, कवि मन वितृष्णा में डूब जाता है, जब उसे अर्थ नगर के अनर्थों का प्यार में मृग तृष्णा का घोर विषमताओं में परवशता के कठिन बन्धनों से उपजी रचना की मूक व्यथा का गीत चन्दन वन की करुण कथा के रूप में इस विवशता को अपने कवि कर्तव्य से निर्वाह करते हुए नीडों में व्याप्त जहरीली सर्पिल फुंकारों के पर्दाफाश जब आग्नेय शब्दों में अनुभूति को अभिव्यक्ति देने का क्रम चला है तब जिन गीतों की रचना हुई है उनमें स्वयं को कवि कहना पड़ा है -
आग से दहकी हथेली जा रही है,
कलम कविता में पहेली गा रही है
ध्वस्त है घर निर्धनों के
त्रस्त हैं घर निर्धनों के
देह जलती है, दुःखों से
ग्रस्त है घर निर्धनों से
रक्त रंजित खंजरों में
और शोषित पंजरों में
आदमी खोया हुआ है
खद्दारी आडम्बरों में
जिन्दगी बैठी अकेली गा रही है
पीर की होती सहेली जा रही है
इन स्थितियों में यथार्थ भोगी कवि दृष्टि ने कल्पना के कल्पित भवन से निकल कर साहसपूर्वक कह दिया है कि ‘मात्र किसी के संकेतों पर कविता कवि से हो न सकेगी’ वह तो अब ऐसी कविता रचेगा जो अराजकता से निर्मित हेम हवेली को, शोषण वाले दुर्गों को धराशायी कर देने की क्षमता से परिपूर्ण होगी। कवि कुंवर के अनेक गीत इसी भावना की संवेदना की सूक्ष्मता का अवदान देने में सफल हुए हैं।
अपनी बहुमुखी काव्य दृष्टि में भावना कस्तूरी की महक से आकण्ठ डूबे, करुणा की सजल नमन स्नेह सिक्त अभिलाषा को कदम-कदम पर क्रूर नियति से संघर्ष का आह्वान देकर इस कवि ने आशावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए जीवन के बोझिल सपनों में जगाकर नव प्रभात को परिवर्तन के नव विहान में झाकते हुए देखा है और कह दिया है ‘जाने क्यों लज्जाता है जैसे आज अचानक तुम आओगे’ इसी आगमन की सार्थक प्रतीक्षा में रत कुंवर के स्वधर्मी और लोकधर्मी सृजन संसार में कविता के विविध शब्दाचरण साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।
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लोगों की राय
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