जीवनी/आत्मकथा >> अपराजेय निराला अपराजेय निरालाआशीष पाण्डेय
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निराला की पंक्तियों में महाभारत के दसवें दिन का वही बिम्ब प्रखर हो रहा है, जब महामहिम भीष्म नौ दिन पाण्डव सेना का संहार करने के बाद रणभूमि की ओर बढ़ रहे हों। भीष्म को भी पता था कि आज युद्ध में क्या होने वाला है, क्योंकि उसके सूत्रधार वही थे। उन्हें पता था कि आज महाकाल के शर इस देह को बेधेंगे, इसके बावजूद वह योद्धा प्रचण्ड तेज के साथ युद्धभूमि की ओर प्रयाण करता है। भीष्म भी मरण का वरण करने आ रहे हैं, मृत्यु को मुक्ति के रूप में सहज भाव से ग्रहण करने जा रहे हैं। मृत्यु उनके लिए जीवन का एक सहज भाग बनकर आ रही है। वही भाव निराला का है। जीवन उनका, रथ उनका, जो भला मृत्यु या प्रलय या महाकाल उस पर कैसे आरूढ़ हो सकते हैं ? रथ तो निराला ही चलाएंगे, भले उसका पथ मृत्युगामी हो। प्रसाद के रथ पर प्रलय चढ़ चुका है, वह हावी हो चुका है पर निराला का रथ निराला का ही हैं, जैसे भीष्म की मृत्यु भीष्म ने ही स्वयं वरण की, अर्जुन के तीर, युधिष्ठिर के भल्ल, ‘भीम का गदा या कृष्ण की नीति ने नहीं। मृत्यु भीष्म के लिए भी मुक्ति थी और निराला के लिए भी।
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