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रामकुमार भ्रमर रचनावली - खण्ड १

रामकुमार भ्रमर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :446
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 95
आईएसबीएन :81-7016-130-4

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रामकुमार भ्रमर रचनावली एक बहुखण्डीय आयोजन है, जिसमें भ्रमरजी के बहुविध विधा-लेखन की उपलब्ध सभी रचनाओं के एकीकरण का प्रयास किया जा रहा है।

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Rachanavali - Part 1 - A hindi book by Ramkumar Bhramar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रामकुमार भ्रमर रचनावली एक बहुखंडीय आयोजन है जिसमें भ्रमरजी के बहुविध विधा लेखन की उपलब्ध सभी रचनाओं के एकत्रीकरण का प्रयास किया जा रहा है। यथासंभव यह प्रयास भी किया जा रहा है कि गत तीस बरसों के अब तक के उनके साहित्य को काल–क्रमानुसार जुटाया जा सके ताकि भ्रमरजी के समग्र साहित्य पर शोध-कार्य करने वाले छात्रों व साहित्य-प्रेमियों को कृतियों के कृतित्व को जानने-समझने का अवसर मिल सके।

मूलतः उपन्यासकार के नाते प्रसिद्ध रहे श्री रामकमार भ्रमर की कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, रिपोर्ताज, यात्रा-विवरण, निबंध, सत्यकथाएँ, संस्मरण, डायरी, जीवनी-अंश, इंटरव्यूज, फिल्म पटकथाएँ, वार्ताएँ, भाषण, बाल-साहित्य, महत्त्वपूर्ण पत्र-व्यवहार, राजनीतिक-वैचारिक दिशादृष्टि आदि विभिन्न सामग्री इस रचनावली में मिल सकेगी।

प्रस्तुत रचनावली के इन तीन खंडो (महाभारत १, महाभारत २, महाभारत ३) में भ्रमरजी के अत्यधिक चर्चित वे बारह उपन्यास संकलित है, जो उन्होंने महाभारत को आधार बनाकर लिखे। हिंदी-साहित्य में इन उपन्यासों ने आश्चर्यजनक चर्चा और लोकप्रियता प्राप्त की। काल-क्रमानुसार इन उपन्यासों का सृजन श्री भ्रमर ने मूल महाभारत के गहन अध्ययन के पश्चात सन् १९८२ से ८४ के बीच किया था।


महाभारत : चरित्र, चित्र और दृष्टि

बचपन में महाभारत की अनेक कहानियाँ टुकड़ो मे सुनी-पढ़ी थी, तब एक सहज बाल-सुलभ जिज्ञासा होती थी- उसकी विस्मयकारी और रोचक घटनाओं को लेकर। फिर एक जिम्मेदार उम्र में जब ‘महाभारत’ को पढ़ा तो लगा कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता, जीवन शास्त्र और यथार्थ का यह अद्भुत ग्रन्थ पढ़े और उससे कहीं अधिक समझे बिना हर भारतीय अधूरा है। एक बार पुनः अध्ययन किया। इस बार पढ़ने से अधिक सुनने की भावना थी। इसी दौर में यह अहसास हुआ कि मानवीय क्षमताओं और दुर्बलताओं के इस बृहत्तम आख्यान से परे न तो हम वर्तमान को समझ सकते है, न ही भविष्य के प्रति विचार कर सकते है। सहज ही एक भावना ने मन मे जन्म लिया कि आज के सन्दर्भ में महाभारत कथा का पुनर्वर्णन किया जाए।

अध्ययन और मनन के साथ-साथ मैंने हर पल यह भी अनुभव किया कि यह व्रत निर्वाह मात्र लेखन चेष्टा भर से नहीं, अपितु गहन मंथन, आस्था और समर्पण से ही सम्भव है। सम्भव भी उतना ही जैसे अनन्त समुद्र से कुछ-कुछ चुल्लू पानी भरकर सन्तुष्टि पाई जाए। मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि एस बृहद ज्ञान ग्रन्थ से अनुप्राणि-आधारित जितने भी मेरे उपन्यास हैं और होंगे वे सागर मे अंजलि जैसे ही है। अपने अग्रज लेखकों की तरह यह स्वीकारने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं है कि मेरी यह उपन्यासमाला, जिसका आरम्भ मैं ‘आरम्भ’ से ही कर रहा हूँ, सम्पूर्ण में ‘महाभारत’ को छूने और पाने की चेष्टा भर है, उसे सहज पाने का दुरभिमान नहीं। मेरी विनम्र राय में ऐसा दुस्साहस कोई कर भी नहीं सकता और सलाह के तौर पर कहूँगा, कि उसे करना भी नही चाहिए।

महाभारत को लेकर बहुत-सी भ्रातियाँ फैली हुई है उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार के हिन्दी-बहुत प्रान्तों में एक लोकश्रुति प्रसिद्ध हुई है कि जिस घर में महाभारत ग्रंथ होता है वहाँ महाभारत होता रहता है। इस महान सांस्कृतिक ग्रन्थ को इस तरह के प्रचार या श्रुतियों को फैलाने के पीछे कोई शातिर राजनीतिक दिमाग रहा होगा। इस दिमाग ने सबसे पहले सोचा कि भारतवासियों की भारतीयता या उनकी राष्ट्रीयता को नष्ट करने का सबसे बेहतरीन तरीका है- भारत की सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ खोखली करना। किसी भी देश को नष्ट करने के लिए हथियार से उसे पराजित करने के बजाय कहीं ज्यादा शालीन तरीका यह हो सकता है कि उसकी सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक धरती छीन ली जाए। भारत, जिसकी अमरता का मूल हथियार उसकी समृद्ध सांस्कृतिक–धार्मिक परम्परा रही है, निरन्तर विदेशी आक्रमणों दमन और राजनीतिक कुचेष्टाओं के बावजूद इसीलिए अस्तित्व में रहता आया है कि वह अन्य अनेक देशो की अपेक्षा कहीं अधिक सुदृढ़ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रखता है। ऐसा देश, समाज से चूँकि हथियार से नहीं भुगत सकता था, अतः या तो किसी विदेशी राजनीतिज्ञ-विचारक अथवा विघटनकारी स्वदेशी राजनीतिज्ञ थे दिमाग में सांस्कृतिक ग्रन्थों के प्रति विरक्ति पैदा करने का विध्वंसकारी विचार उभरा। भारत के पास उसकी सांस्कृतिक धरती और विरासत के रूप में जिन अमूल्य ग्रन्थों का भंडार है, उनमें ‘महाभारत’ प्रमुख है। यह एकमात्र ऐसा उपलब्ध ग्रन्थ है, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यावहारिक, धार्मिक और दार्शनिक विचारों का एकीकरण मौजूद हैं। ऐसे ग्रन्थ को लेकर विभिन्न भ्रांतियां बहुत कुटिलता के साथ फैलाई और प्रचारित की गई। काफी हद तक इन भ्रांतियों के कारण भारतीयों के जीवन से ‘महाभारत’ को परे किए रहने की राजनीतिक चाल सफल भी रही।

जो अनेक भ्रांतियाँ सुनने को मिली, उनका निराकरण इस महान ज्ञान-ग्रन्थ को पढ़ने–सुनने के दौरान हुआ। इसमें बहुत हद तक उन भारतीय लेखकों और कथा कहने वालों का भी दोष नहीं है, जो महाभारत की रोचक कथाओं को जादुई और तिलिस्मी ढंग से या तो प्रस्तुत करते है, या कि सुनाते गए हैं। परिणाम यह हुआ कि अधकचरे, अवैज्ञानिक दृष्टि से भरे ऐसे लेखन या कथन के कारण यह ग्रन्थ कपोल–कल्पित और कभी-कभी अविश्वसनीय यहाँ तक कि हास्यास्पद लगने लगा। ऐसे बहुतेरे भारतीय है, जिन्होने इसी रूप में महाभारत को सुना, पढ़ा और समझा है। नतीजे में उनके अधकचरे, अपरिपक्व ज्ञान ने उन राजनीतिक स्वार्थों को बल पहुँचाया है, जो निरन्तर चाहते रहे थे कि भारत की सांस्कृतिक धरती खोखली होती जाए।

प्राचीनतम भारतीय ग्रन्थ, फिर भले ही वे राजनीति–शास्त्र से सम्बद्ध रहे हों या कि चिकित्सा शास्त्र से- सभी का लेखक काव्य में हुआ। काव्य साहित्य का सौन्दर्य और गुण-वैशिष्टय उसकी प्रतीकात्मकता अथवा अभिव्यंजन शक्ति होती है। यही कारण है कि ‘महाभारत’ की सम्पूर्ण कथाएँ जितनी प्रतीकात्मक है, उससे कहीं अधिक उनकी यथार्थ ऐतिहासिकता-भौगोलिकता भी प्रतीक रूप में ही चित्रित हुई है। यह आश्चर्य की बात है कि आज जब आदमी साहित्य, कला और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे और आगे जाने की बात कर रहा है तब प्रतीकात्मकता को नकार दे या उसके प्रति लापरवाह हो जाए। बारीकी से महाभारत का अध्ययन यह रहस्योद्घाटन कर देता है कि आज जिस वर्तमान को हम देख या भोग पा रहे है। उससे कहीं अधिक बौद्धिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक चेतना उस समय मौजूद थीं जिसे बहुत बचकाना ढंग से हम ‘अलौकिक’ या चमत्कारी समय कहकर सांस्कृतिक समझ के श्रम से किनारा कर जाते है। महाभारत के इतिहास, सत्य और उसके प्रतीकों को समझने के बाद बहुतेरी बातें समझ मे आ सकती है जिनके आधार पर ‘महाभारत’ की असंख्य कथाओं-उपकथाओं के कपोलकल्पित होने का या तो प्रचार कर दिया जाता है अथवा उनसे कतराकर समझने से किनारा कर लिया जाता है।

‘महाभारत’ में बिखरी असंख्य संस्कृति कथाओं पर भारत की नहीं, विदेशों की भी अनेक भाषाओं मे बहुविधि लेखन हुआ है, संभवतः महाभारत ही विश्व का इकलौता ऐसा ग्रन्थ है, जिसके चरित्रों पर अनेकानेक उपन्यास, नाटक, कहानियाँ और काव्यग्रन्थ लिखे गए हैं और लिखे जाते रहेगें। वह ऐसे ही है जैसे गंगा की अमर जलधारा से एक अंजली जल भरकर तीर्थ यात्री की अमूल्य निधि पा जाने का अहसास होता है।

महाभारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरित्र हैं- कृष्ण। उन्हें लेकर गुजरात के मनीषी साहित्यकार और चिन्तक श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने ‘कृष्णावतार’ शीर्षक से लम्बी उपन्यासमाला लिखी है। इसी उपन्यास के दूसरे खंड ‘रूक्मिणी-हरण’ की भूमिका में वह लिखते हैं-‘‘अपने जीवनकाल में ही जो प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुँच गया था, उस नरोत्तम (कृष्ण) के जीवन के सत्य प्रसंगो को खोज निकालकर उनका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। ऐसे पुरूषों के पराक्रम चमत्कार बन जाते है। उनके अनुयायी व्यक्ति – पूजक बन जाते है और शत्रुओं को असुर समझा जाने लगता है।’’

सहज ही है यदि कृष्ण का नाम मानस में उभरने के साथ अथवा सुनने के साथ उनकी अविश्वसनीय–सी लगने वाली पराक्रम लीलाओं, बुद्धिगत विशेषताओं और क्षमताओं को लेकर अलौकिकता का बोध हो। पुरूष से महापुरूष और महापुरूष से आगे भगवान का अवतार हो जाने तक की सम्पूर्ण नहीं तो अंश-चेष्टाओ को आज के संसार में भी अनेक चरित्रों ने साधने का प्रयत्न किया है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा अमरीका के धर्म समारोह में छोड़ा गया अलौकिक प्रभाव बहुत बीते समय की बात नहीं है। महात्मा से ‘चल पड़े जिधर दो पग डग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर‘, को घटते देखा है। दूसरे विश्व युद्ध की भयावहता को चुनौती देकर, नेताजी सुभाष बोस की जर्मनी से जापान तक रोमांचक यात्रा से लेकर सावरकर द्वारा समुद्र को तैरने की असामान्य शक्तियों के उदाहरण भी सामने मौजूद है। अपने कर्मठ और ज्ञान-गरिमा से पूर्ण व्यक्तित्व के कारण भगवान की पदवी तक पहुँचने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भी आज के युग की देन हैं। यह पहलू अलग है कि इन सभी चरित्रों के साथ इक्का-दुक्का या बहुत कम अविश्वसनीय लगने वाली घटनाएं जुड़ सकी है, जबकि कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन ही असामान्य शारीरिक, बौद्धिक और यौगिक चमत्कार – घटनाओं का पूरा ग्रंथ बना रहा है। यही कारण है कि उन्हें ईश्वरावतार स्वीकारा गया।

‘महाभारत’ के कृष्ण (या महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रस्तुत चरित्र) सहसा भगवान नहीं होते, न ही किसी अन्धविश्वास या कथन मात्र से वे भगवान बने है, अपितु महाभारत के हर बढ़ते पृष्ठ और पंक्ति के साथ-साथ उनका वह व्यक्तित्व उभरता है, निरन्तर उभरता चला जाता है जो असामान्य है। श्रेष्ठतम गुणों और दूरदर्शितापूर्ण विचारों से भरा हुआ है। ज्ञान, योग, दर्शन, समाजदृष्टि, पराक्रम, वीरत्व, कौशल और समाज व्यवहार कितने ही पहलू है जो उनके उस मानवीय व्यक्तित्व को रेशे-रेशे उभारते जाते है, जिनके कारण वह अपने समकालीन से अलग, योग्य और सभी के लिए सहज स्वीकार्य बनते है। कुल मिलाकर कृष्ण का समूचा गुण वैशिष्टय उन्हें भगवान बनाता नही, स्वीकार करवाता है। उस सम्पूर्ण के गिर्द अंशों से पूर्ण-अपूर्ण सैकड़ो चरित्र भी बिखरे हैं। वे जो मानवीय शक्तियों के साथ-साथ दुर्बलताओं के संसार का दर्शन कराते हैं। सामान्यतः ‘महाभारत’ या प्राचीन धर्मग्रंथों में उन्हें बिना पढ़े या समझे बिना ही उनकी घटनाओं और चरित्रों पर अलौकिकता की बात करते हुए उन्हें अमानवीय और अस्वाभाविक करार दे दिया जाता है। जिस भाषा और अभिव्यक्ति के साथ इस तरह के ग्रंथो की टीकाएँ की गई हैं या उन पर भाष्यकारों ने कुछ कहा-लिखा है, वह भी कुछ इस तरह रहा है कि ‘वे लोग’ या वे घटनाएँ व स्थितियाँ’ अलौकिक थीं। परिणाम यह हुआ कि कुछेक भ्रान्तियाँ पैदा हुई। समझा जाने लगा कि ऐसे ग्रंथों का जीवन सत्य से नहीं के बराबर सम्बन्ध है। इन भ्रान्तियों ने अनेक नयी भ्रान्तियों को जन्म दे दिया। कपोलकल्पित किवदन्तियाँ फैलायीं। अनेक घटनाओं को लेकर ऊटपटाँग बातें मशहूर हो गयी। हर अगले मुँह के साथ कुछेक नई बातें जुड़ती गयी। मूल घटना विकृत होकर तिलिस्मी या जादुई बन गई। उसके पात्र अपने यथार्थ से परे सहज परी कथाओं के पात्र बनकर रह गए। कहा जाने लगा कि अम्बा नामक राजकमारी का पुनर्जन्म हआ और वह शिखंडिनी बनकर पैदा हुई तथा बाद में शिखंडी हो गई। भीष्म को अपनी अलौकिक दिव्यदृष्टि से मृत्यु का वह रहस्यमय पुनर्जन्म मालूम था। उन्होंने उसे पांडवो को बतला दिया और इस तरह वर्णित किया जाता है, वह मूल महाभारत से किसी भी तरह मेल नहीं खाता। अम्बा के शिखंडी होने से लेकर भीष्म की मृत्यु का कारण बनने तक ‘महाभारत’ में राजनीतिक दाँव-पेंच, गुप्तचरी, षड्यन्त्र और चिकित्सा की अभूतपूर्व कारीगरी के वे सभी सत्य मौजूद है, जो समूची कहानी को सहज वास्तविकता के साथ यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते है। दुर्योधन के जन्म के समय हुए प्राकृतिक उत्पात हम सभी के जाने–देखे और पढ़े-सुने हुए है। आन्ध्र का भयावह तूफान, दिल्ली के एक क्षेत्र में आई भीषण आँधी जिसमें छत तक उड़ गयी और आदमी तिनको की तरह बिखरने लगा आदि घटनाएँ ऐसी है, जिनका प्रत्यक्षदर्शी आज भी मौजूद है। तब यदि दुर्योधन के जन्म समय पर वैसी विलक्षण प्राकृतिक घटनाएँ हुई या कि इस तरह की दुर्घटनाओं को दौरान दुर्योधन भी नहीं। उसे चमत्कार के रूप में सुनाया जरूर जा सकता है, पर क्या है ? शायद कुछ भी नहीं। उसे चमत्कार के रूप में सुनाया जरूर जा सकता है, पर वह चमत्कार नहीं सहज प्रकृति लीला है- संसार –सत्य है।

अध्ययन के दौरान मैंने ‘महाभारत’ पर आधारित अनेक पुस्तको को पढ़ा और पाया कि इस तरह संभवतः मुझे मूलकता और उसके रूप को क्रमबद्ध व्यक्त करने मे केवल कठिनाई ही नहीं होगी, बल्कि अनेक स्थलों पर अव्यावहारिक और तर्कहीन बातों में भी उलझना पड़ जाएगा। यह उलझाव उपन्यास –क्रम को सहज और ग्राह्य बनाने में अंशवतः कठिनाई भी उपस्थित कर दे। उदाहरण रूप में मैंने उस समय अपने–आपको बहुत दुविधापूर्ण स्थिति मे पाया जब किसी प्राचीन ग्रंथो या टीका को केवल भक्तिपूर्वक विनीत देखा या किसी कथा को विभिन्न प्राचीन गंथों और पुराणों के आधार पर नये-नये प्रवीण देखा कथा को विभिन्न प्राचीन ग्रंथो और पुराणों के आधार पर नये-नये उलझाव लिए अनुभव किया। अन्त में मैंने यह निर्णय लिया कि मैं केवल मूल महाभारत के प्रणेता वेदव्यास (कृष्ण द्वैपायन) के आधार पर ही चलूँ। यह मुझे जितना सुविधाजनक लगा उससे कहीं अधिक वास्तविक और तार्किक भी महसूस हुआ। यहाँ स्पष्ट कर देना भी मैं आवश्यक समझता हूँ, कि मेरी सम्पूर्ण उपन्यासमाला केवल मूल महाभारत या कि उपलब्ध महाभारत पर आधारित है। उसी के आधार पर मैंने अपनी हर पुस्तक में घटना के रूपकों को सँजोया है, उसी पर अवलम्बित होकर उनके संदर्भ और अर्थ ढूँढ़े है और उसी तरह प्रस्तुत करने की चेष्टा की है।

उपन्यास या कहानी की एक बड़ी आवश्यकता होती है कथाक्रम की कमजोर होती, झूलती या टूटती कथा गति को सहेजने-सँवारने के लिए उसमें रोचक या घटना सापेक्ष्य कल्पना के धागे से उसे पुनः संयोजित किए रहने की चेष्टा करना।

किन्तु ‘महाभारत’ या ‘रामायण’ पर इस तरह का आरोपित लेखन करना मेरी अपनी दृष्टि में न केवल दुस्साहस है, बल्कि लेखकीय धृष्टता भी है। इस तरह की चेष्टा लेखक के केवल अपने बुरे, देखे और गुने- लेखन के साथ चल सकती है, किन्तु उन ग्रंथों के प्रति नहीं जो न केवल साहित्य है अपितु संस्कृति के इतिहास और धर्म के अनुगाता भी है। मैंने यह संयम बरतने की पूरी–पूरी कोशिश की है कि इस उपन्यास–क्रम में ऐसा कुछ भी, कहीं भी न हो जो मेरा अपना लादा हुआ हो। मैंने चाहा है कि मेरी कथा में जो भी वर्णित हो वह आधुनिक संदर्भ में मूल–कथा और चरित्र के मानस का दर्पण बने, सहज ग्राह्य हो और भाषा, शिल्प या प्रस्तुति के प्रकार से उसे आज के अनुसार पठनीय बनाए। आज के सत्य से जोड़े, आज के अनुसार कल को समझाए और कल के अनुसार आज के प्रति सावधान करे। कवि-कौशल के प्रतीकों और बिम्बों में उलझकर घटना का जो वास्तविक और व्यवहारिक रूप विनष्ट हो गया है, वह सरल, सहज बने। प्रतीकों को चमत्कार के अर्थ में नहीं, अर्थ के चमत्कार से समझा जाए।

लेखन पूर्व कई बरसों तक अलग-अलग पात्रों और उनकी अपनी स्थितियों पर सोचते हुए मैंने यह अनुभव किया, कि मेरी लेखकीय तुलना में हर पात्र एक साथ, एक वजन में रहे। मैं किसी को विशिष्ट या किसी को सामान्य मानकर लिखने नहीं जा रहा हूं, बल्कि घटनाक्रम, वातावरण, स्थितियों और पात्रों के अपने कर्म-विचार और दृष्टियाँ उनके अपने गुण-दोषों के साथ उन्हें उनकी नियति तक पहुँचा रही हैं। वे अपनी तरह चल रहे हैं, उनके अपने सोच है, और उसकी अपनी सहजता है तब मैंने वह बिन्दु पाया, जिसे मैं चार-पाँच बरसों से खोज रहा था। इस प्रश्न का उत्तर कि मैं कहाँ से इस बृहद उपन्यास माला का क्रमारम्भ करूँ, इसी बिन्दु ने मुझे प्रति-पात्र उसके अपने सत्य–असत्य पुण्य-पाप और गुण–दोष के लेखे-जोखे करते हुए, उसकी अपनी नियति का निष्कर्ष पा जाने तक क्रमबद्ध आयोजित करूँगा। इस उपन्यास श्रंखला में कुरु–पांडवों की मूलकथा के लिए, मैंने १२ खण्ड आयोजित किए हैं। जबकि अन्य स्वतन्त्र पात्रों- यथा द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, शल्य, बलराम आदि पर अलग से ८ स्वतन्त्र उपन्यास आयोजित हैं।
पात्र के अपने ही नीर-क्षीर विवेक की यह राह मुझे प्रस्तुतीकरण के लिए अच्छी लगी और यह उपन्यास क्रम इसी तरह प्रस्तुत हैं।


-रामकुमार भ्रमर


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