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गीता प्रेस, गोरखपुर >> एकै साधे सब सधै

एकै साधे सब सधै

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 964
आईएसबीएन :81-293-0783-9

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प्रस्तुत है एकै साधे सब सधै...

Ekai Sadhai Sub Sadhai a hindi book by Swami Ramsukhdas - एकै साधे सब सधै - स्वामी रामसुखदास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।। श्रीहरि: ।।

नम्र निवेदन

प्रस्तुत पुस्तक में श्रद्धेय स्वामी जी श्रीरामसुखदासजी महाराज की वाणी से निस्सृत सात उपदेशों का  संग्रह है, जो समय-समय पर कल्याण में प्रकाशित हो चुके हैं, इन उपदेशों में साधना के गूढ़ रहस्यों का बडे़ ही मार्मिक, सरल एवं  रोचक ढंग से उद्घाटन किया गया है। कहना ना होगा कि इन उपदेशों में जो कुछ है वह भगवद्गीता आदि शास्त्रों के दीर्घकालीन मन्थन का परिणाम है जिस पर स्वामीजी के साधनामय  एवं तपःपूत जीवन के अनुभवों का पुट लगा हुआ है। इसी से यह पुस्तक साधकों के लिए तथा उन लोगों के लिए जो साधन-मार्ग में अग्रसर होना चाहते हैं, बडे़ काम की वस्तु बन गयी है। इन उपदेशों में प्रायः उन सभी प्रश्नों का उचित समाधान कर दिया गया है, जो एक साधक के जीवन में स्वाभाविक रूप से उठते हैं।
इनमें क्रमशः निम्नलिखित विषयों पर प्रकाश डाला गया है-

(1) दृढ़ भाव से लाभ, (2) भक्ति की सुलभता, (3) गीता का ज्ञेय-तत्त्व, (4) भगवत्प्राप्ति से ही मानव-जीवन की सार्थकता, (5) अखण्ड-साधना, (6) सबका कल्याण कैसे हो, (7) उपासना शब्द का अर्थ एवं उसका स्वरूप। ये सभी विषय ऐसे हैं, जिन पर प्रकाश प्राप्त करना साधक के लिये परम उपयोगी है। भाव की दृढ़ता हुए बिना किसी भी साधन में तत्परता नहीं आयेगी। साधना के गीतादि ग्रन्थों में चार प्रधान मार्ग बताये गये हैं-ज्ञानयोग अथवा सांख्ययोग, भक्तियोग, कर्मयोग एवं ध्यानयोग। इन सभी मार्गों में भक्ति सब में सुगम है, ज्ञान मार्ग पर चलने वालों के लिये यह जान लेना परम आवश्यक है कि जिस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, उसका स्वरूप क्या है। उपर्युक्त चारों साधन मार्गों का लक्ष्य भगवान् को प्राप्त करना ही है। अन्यथा उनकी ‘योग’ संज्ञा नहीं होगी। और भगवत्प्राप्ति के लिये ही यह मनुष्य शरीर में मिला है।

 अन्यथा जीने को तो पशु-पक्षी कीट-पतंग सभी जीते हैं। साधन जब तक अखण्ड नहीं होगा- बीच-बीच में उसका तार टूटता रहेगा, तब तक उसमें सफलता की आशा करना दुरासामात्र होगी। यद्यपि सभी साधन अधिकारिभेद से उपयोगी हैं, फिर भी साधक के मन में यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि सबके लिये कल्याणकारी उपाय क्या है। उपासना-मार्ग पर चलने वालों के लिये ‘उपासना’ का अर्थ एवं स्वरूप समझना अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार यह छोटी-सी पुस्तक साधकों के लिये बहुत ही उपकारक बन गयी है। आशा है, कल्याणकामी लोग इससे समुचित लाभ उठाकर अपने जीवन को सार्थक करेंगे।

निवेदक
हनुमानप्रसाद पोद्दार

।। श्रीहरि: ।।

साधन-रहस्य
दृढ़ भाव से लाभ  

कहावत है कि ‘जिस गाँव में नहीं जाना है, उसका रास्ता क्यों पूछा जाय ?’ ऐसा दृढ़ भाव हो जाय कि ‘अपनी उम्र में अमुक काम हमें नहीं ही करना है’ तो वह कार्य हो ही कैसे सकता है ? जैसे सिनेमा नहीं देखना है, तो नहीं ही देखना है। बीड़ी-सिगरेट आदि व्यसन नहीं करना है, तो नहीं ही करना है। चाय आज से नहीं पीना है, तो नहीं ही पीना है। समाप्त हुआ काम। अब झूठ नहीं बोलना है, तो झूठ बोलेंगे ही क्यों ? फिर झूठ निकल ही नहीं सकता। ऐसे ही प्रत्येक सद्गुण-सदाचार के ग्रहण और दुर्गुण-दुराचार के त्याग के लिये दृढ़ भाव बना लिया जाय तो यह भाव बहुत जल्दी बन सकता है और फिर वह अनायास ही आचरण में भी आ सकता है।

इसके लिये एक बहुत उपयोगी बात यह है कि हम अपने को दृढ़प्रतिज्ञ बनावें। अर्थात् हरेक व्यवहार में जो विचार कर लें, बस वैसा ही करें-यों करने पर विचारों की एक परिपक्वता हो जाती है, फिर संकल्प दृढ़ हो जाता है। इसी प्रकार जबान से कह दें तो फिर वैसा ही करने की चेष्टा करें। बहुत ज्यादा दृढ़ता से कहें तो उसके पालन की प्राणपर्यन्त चेष्टा करें। मर भले ही जायँ, पर अब तो करेंगे ऐसे ही। छोटे-छोटे कामों में इस प्रकार दृढ़ प्रतिज्ञता का स्वभाव बनाने की चेष्टा करें तो हमारा स्वभाव सुधर जाता है। स्वभाव सुधरने पर फिर बड़ी-से-बड़ी बातें भी जो विचार कर लें, वे धारण हो जाती हैं। यह भाव-निर्माण तथा भाव-धारण-साधन बहुत सुगम है और बहुत ही श्रेष्ठ है।

सेना में लोग भरती होते हैं तो अपना नाम लिखा देते हैं और समझते हैं कि ‘हम तो सिपाही हो गये।’ ऐसा भाव ‘होने पर मन में स्वयं जिज्ञासा पैदा होती है कि सिपाही को क्या करना चाहिये। ऐसी जिज्ञासा होने पर शिक्षा दी जाती है और वह शिक्षा उनके धारण हो जाती है। ऐसे ही साधना करने के लिये वैरागी पुरुष साधु बनता है, उसके मन में आता है कि ‘मैं साधु बन गया’ तो ‘साधु को क्या करना चाहिये’-यह स्वयं उसके मन में जिज्ञासा होती है। उसके बाद जब यह बताया गया है कि साधु का यह आचरण है, साधु को ऐसे बोलना, ऐसे उठना चाहिये, ऐसा आचरण करना चाहिये, यह व्यवहार करना चाहिये तो यह साधुता की बात वह पकड़ लेता है; क्योंकि वह समझता है कि ‘मैं साधु हूँ, अत: मुझे अब साधु के अनुसार चलना ही है।’ ऐसे ही अपने आपको साधक मान ले कि मैं तो भजन-ध्यान-साधन करने वाला साधक हूँ। जहाँ प्रवचनों में, ग्रंथों में यह बात आयेगी कि ‘साधक के लिये यों करना उचित है, साधक में चंचलता नहीं चाहिये, उसे व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये, हर समय भगवत्-भजन, ध्यानादि करना चाहिये, कुसंग का त्याग करना चाहिये, सत्संग और स्वाध्याय करना चाहिये, आदि’- इस प्रकार साधक के लिये जो कर्तव्य बतलाये जायँगे, उन कर्तव्यों को वह अपने में लाने की स्वत: ही विशेष चेष्टा करेगा; क्योंकि वह अपने-आपको साधक मानता है। अत: साधक के लिये जो बातें आवश्यक हैं वे उसमें आ जायँगी, धारण हो जायँगी; पर जो मनुष्य अपने को साधक नहीं मानेगा, वह कोई बात चाहे सत्संग में सुने, व्याख्यान में सुने या ग्रन्थों में पढ़े, उसके हृदय में वह विशेषता से धारण नहीं होगी और उन बातों के साथ उसका घनिष्ठ संबंध नहीं होगा।

बहुत-से भाई-बहिन साधन करते हैं, जप-पाठ आदि नित्य-नियम करते हैं, परन्तु नित्य-नियम के साथ समझते हैं कि यह तो घंटे-डेढ़-घंटे करने का काम है। शेष समय में समझते हैं कि हम तो गृहस्थ हैं, हमें अमुक-अमुक काम करने हैं, हम अमुक घर के, अमुक जाति के, अमुक वर्णाश्रम के हैं। घंटे-डेढ़-घंटे भगवान् का भजन कर लेना है, गीतापाठ कर लेना है, कीर्तन कर लेना है। सत्संग प्रतिदिन मिल गया तो प्रतिदिन कर लिया। बारह महीने से मिल गया तो बारह महीने से कर लिया। सत्संग कर लिया, एक पारी निकल गयी। ऐसा भाव रहता है। इसलिये विशेष सुधार नहीं होता, वह उस सत्संग को ग्राह्य-दृष्टि से नहीं देखता। ग्राह्य-दृष्टि से देखने और साधारण कुतूहलनिवृत्ति-दृष्टि से देखने में बड़ा अन्तर है। हम सत्संग को कुतूहलनिवृत्ति या मन बहलाने की तरह सुनते हैं। अत: धारणा नहीं होता। इसलिये हमें सत्संग को- साधन को ग्राह्य-दृष्टि से देखना चाहिये और ऐसा भाव रखना चाहिये कि हमें तो निरन्तर भगवान् का भजन-ध्यान ही करना है। जो कुछ कार्य करना है वह भी केवल भगवान् का ही और भगवान् के लिये ही करना है। इस दृष्टि से भगवान् के नाते ही सब काम किये जायँ तो उससे महान् लाभ हो सकता है।


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