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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान की पूजा के पुष्प

भगवान की पूजा के पुष्प

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 979
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भगवान् की पूजा के पुष्प...

Bhagwan Ki Pooja Ke Pushap a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - भगवान की पूजा के पुष्प - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘शिव’ का निवेदन

मन तरंगों का समुद्र है। ‘शिव’ के मन में भी अनेक प्रकार के तरंगे उठती हैं, उन्हीं में से कुछ तरंगे लिपिबद्ध भी हो जाती हैं और उन्हीं अक्षराकार में  परिणत तरंगों का यह एक छोटा-सा संग्रह प्रकाशित हो रहा है। इस संग्रह में पुनरुक्ति और क्रमभंग दोष दिखायी देंगे, तरंगें ही जो ठहरीं। यह सत्य है कि तरंगो के पीछे भी एक नियम काम करता है, और वहाँ भी एक नियमित क्रमधारा ही चलती है, परन्तु उसे हम अपनी इन आँखों से देखे नहीं पाते। हमें तो हवाके झोंकों के साथ-साथ तरंगो के भी अनेकों क्रमहीन और अनियमित रूप दीख पड़ते हैं। सम्भव हैं। सूक्ष्मदृष्टि से देखने वाले पुरुषों को इस तरंग-संग्रह में भी किसी नियमका रूप दिखायी दे। ‘शिव’ को इससे कोई मतलब नहीं। ‘शिव’ ने तो प्रकाशकों के कहने से इतना ही किया है कि इधर-उधर बिखरे वाक्यों को एकत्रकर उनपर कुछ शीर्षक बैठा दिये हैं। पाठकों का इसमें कोई लाभ या मनोरंञ्जन होगा या नहीं इस बातको ‘शिव’ नहीं जानता।

यह पहले भागका निवेदन है। इसी निवेदन के साथ यह दूसरा भाग प्रकाशित हो रहा है।

।।श्रीहरिः।।

भगवान् की पूजा के पुष्प

भगवान् की पूजा के लिये सबसे अच्छे पुष्प हैं- श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुण। स्वच्छ और पवित्र मन-मन्दिर में मनमोहन की स्थापना करके इन पुष्पों से उनकी पूजा करो।
जो इन पुष्पों को फेंक देता है और केवल बाहरी फूलों से ही भगवान को पूजना चाहता है उसके हृदय में  भगवान आते ही नहीं, फिर पूजा किसकी करेगा ?

याद रखो –जगत् क्षणभंगुर है, हम सब मौत के मुँह में बैठे हैं, पता नहीं कालदेवता कब किसको अपने दाँतों-तले दबाकर पीस डालें। अतएव निरन्तर सावधान रहो, किसी को दुःख न पहुँचाओ, सबके सुखके कारण बनो, सबका मगंल चाहो, सबका हित करो, भगवान में प्रेम करो और शुद्ध व्यवहार से अपने स्वामी भगवान के प्रति लोगों में श्रद्धा-भक्ति उत्पन्न करने का प्रयत्न करो।

कभी निराश मत हो। यह निश्चय रखो, तुम्हारी आत्मशक्ति भी उतनी ही है, जितनी संसार के बहुत बड़े-बडे महापुरुषों में थी। निश्चय दृढ़ हो, विश्वास अटल हो और साधन नियमित और नित्य हो तो इसी जन्ममें तुम ऊँच-नीच ध्येय प्राप्त कर सकते हो। अपनी शक्ति हीनता को देखकर उत्साह न छोड़ों। परमात्मा अनन्त शक्ति हैं और अपनी शक्ति तुम्हें प्रदान करने के लिये तैयार है। निश्चय और विश्वास के बल पर उस शक्ति को ग्रहण करने की तुम्हारी स्थिति होनी चाहिये। यह स्थिति तुम अर्जन कर सकते हो। शास्त्रों की कोई बात समझ में न आवे तो उस पर अविश्वास न करो। संसार की सभी बातें सबकी समझ में नहीं आ सकतीं। यदि दैवी सम्पति के विकास में बाधा होती हो तो उस बात को काम में न लाओ। अपने अनधिकारी समझो। दैवी सम्पत्ति बढ़ती हो तो न समझ में आने पर भी उस बात को मानकर उसे काम में लाओं। तुम्हारा अकल्याण नहीं होगा।

योग का अर्थ

योग का यथार्थ अर्थ समझो। वह अर्थ है- ‘श्रीभगवान् के साथ युक्त हो जाना,’ ‘भगवान् को यथार्थ में  लेना’ या ‘भगवप्प्रेमरूप अथवा भगवद्रूप हो जाना। यही।’ जीव का परम ध्येय है। जबतक जीव इस स्थिति में नहीं पहुँच जायगा, तबतक न उसको तृप्ति होगी, न शान्ति मिलेगी, न भटकना बन्द होगा और न किसी पूर्ण, नित्य, सनातन, आनन्दरूप तत्त्व के संयोग की अतृप्त और प्रच्छन्न आकांक्षा की ही पूर्ति होगी। इस पूर्ण के संयोग का नाम ही योग है। अथवा इसको पाने के लिये जो जीव का विविधरूप सावधान प्रयत्न है, उसका नाम भी योग है। यह पूर्ण की प्रयत्न जिस क्रिया के साथ जुड़ता है, वही योग बन जाता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यान योग, सांख्योग, राजयोग, मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग आदि इसी के नाम हैं; परन्तु यह याद रखो कि जो कर्म, भक्ति, ध्यान, सांख्य, मन्त्र, लय या हठकी क्रिया भगवन्मुखी नहीं है, वह योग नहीं है, कुयोग है और उससे प्रायः पतन ही होता है।

अतएव इन सब योगों में से जिसमें तुम्हारी रुचि हो उसी को भगवत्प्राप्ति मार्ग मानकर सादर ग्रहण करो। ये सब योग भिन्न-भिन्न भी हैं और इनका परस्पर मेल भी है। यों तो किसी भी योग में ऐसी बात नहीं है कि वह दूसरे की बिलकुल अपेक्षा रखता हो, परन्तु प्रधानता-गौणताका अन्तर तो है ही। कुछ योगोंका सुन्दर समन्वय भी है। गीता में ऐसा ही समन्वय प्राप्त होता है। केवल शरीर, केवल वाणी, केवल मन, केवल बुद्धि आदि से जैसे कोई काम ठीक नहीं होता, इसी प्रकार योगों के विषय में भी समझो।

हाँ, इतना जरूर ध्यान रहे कि जिन योगों में मनका संयोग होनेपर भी (जैसे नेति, धौति आदि षट्कर्म; बन्ध, मुद्रा, प्राणायाम, कुण्डलिनी-जागरण आदि)   अथवा मन्त्र-तन्त्रादि से शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता है, अथवा अज्ञान, अविधि, अव्यवस्था, अनियमितता होने से लाभ तो होता ही नहीं, उलटी हानि होती है। भाँति-भाँति के कष्टसाध्य शारीरिक और मानसिक रोग हो जाते हैं। अतएव ऐसे योगों की अपेक्षा भक्तियोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि  उत्तम हैं, ये अपेक्षा कृत बहुत ही निरापद हैं। इनमें भी अनुभव शून्य लोगों की देखा-देखी अविधि करने से हानि हो सकती है; अतएव शान्त, शीलवान्, शास्त्रज्ञ एवं अनुभवी गुरुकी- पथप्रदर्शन की सभी योगों में अत्यन्त आवश्यकता है।

परन्तु अध्यात्ममार्ग का पथप्रदर्शक या गुरू सहज ही नहीं मिलता भगवत्कृपा से ही अनेक जन्मार्जित पुण्य-पुञ्ज के फलस्वरूप अनुभवी और दयालु सद्गुरु मिलते हैं। हर किसी को गुरू बना लेने में तो बहुत ही खतरा है। आजकल देश में गुरु बनने वालों की  भरमार है। यथार्थ वस्तुस्थिति यह है कि आज अनेको लुच्चे-लफंगे, काम और लोभ के गुलाम साधु, योगी ज्ञानी और महात्मा बने फिरते हैं। इन्हीं के कारण सच्चे साधुओं की भी अनजान लोगों में कद्र नहीं रही। दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है, यह कहावत चरितार्थ हो रही है। ऐसा होना अस्वाभाविक भी है, क्योंकि आज साधुवेश में फिरने-वाले लोगों में व्यसनी क्रोधी, लम्पट, दुराचारी मनुष्य या पेशेवर धन कमाने वाले बहुत हो गये हैं।

 लोगों को ठगने के लिये बड़ी-बड़ी बातें बनानेवाले और चालाकीसे भोले-भाले लोगों को झूठी सिद्धिका चमत्कार दिखानेवाले अथवा कहीं एकाध मामूली सिद्धि के द्वारा लोगों में अपने परम सिद्ध साबित करने वाले लोगों की आज कमी नहीं है। आठयोग में अपनेको सिद्ध माननेवाले लोग, रोगी, ज्ञानयोग में सिद्ध मानने वाले कामी, क्रोधी या मानी, लययोगमें सिद्ध मानने वाले शरीर की नाड़ियों से और आभ्यन्तरिक अवयवों से अनभिज्ञ, भक्तियोग में अपने को परम भक्त बताने वाले विषयी और मन्त्रयोग में अपने को सिद्ध प्रसिद्ध करनेवाले सर्वथा असफल पाये जाते हैं और इसपर भी अपनी मान-प्रतिष्ठा जमाने या कायम रखने के लिये सिद्धाईका दावा करते देखे जाते हैं। ऐसे लोगों से साधकको सदा सावधान ही रहना चाहिये।

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