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कुच्ची का कानून

शिवमूर्ति सिंह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9855
आईएसबीएन :9788126729647

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शिवमूर्ति : ग्रामीण यथार्थ की आवाज़, जहाँ संघर्ष, पहचान और मानवता मिलती है।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शिवमूर्ति की कहानियों का जितना साहित्यिक महत्त्व है, उतना ही समाजशास्त्रीय भी। आप उन्हें आज के भारतीय गाँव के ‘रियलिटी चेक’ के रूप में पढ़ सकते हैं। उनमें गाँव का वह सकारात्मक पक्ष भी है जिसे हम गाँव की थाती कहते हैं और वह नकारात्मक भी जो उसने शायद पुराना होने के क्रम में धीरे-धीरे अर्जित किया और जिसकी तरफ हमारा ध्यान तब जाना शुरू हुआ जब शहर एक सामानांतर लोक के रूप में व्यवस्थित ढंग से आकार ग्रहण करने लगे। गाँव को प्लेटोनिक प्रेम करने-वाले वहां की जिन आत्मविनाशी प्रवृत्तियों की जिम्मेदारी शहरों के ऊपर डालकर फारिग हो जाते हैं, ये कहानियां उनकी जड़ें वहीं उसी जमीन में तलाश करती लगती हैं। वह जातिवाद हो, धर्म-भीरुता हो, पौरूष का वर्चस्व हो, ताकत के प्रति अतिरिक्त मोह हो, स्त्री-दमन की स्वीकृत मानसिकता हो, सब यहाँ गाँव के अपने उत्पाद लगते हैं। परम्पराओं और रूढ़ियों के साथ जमते-बढ़ते-फैलते।

‘ख्वाजा, मेरे पीर’ अगर स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के एक दारूण पक्ष को रेखांकित करते हुए, उस करूणा के अविस्मरणीय बिम्ब रचती है जो नागर सभ्यता में शायद ही कहीं देखने को मिले तो अगली ही कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ बताती है कि ग्रामीण प्राचीनता के गझिन सामाजिक तिलिस्म में लोकतंत्र और मतदान-को इस देश की शक्ति-मुखी की राह के रूप में सामने रखता है लेकिन उससे पहले के पूरे तंत्र का जैसा उत्खनन यह कहानी करती है, वह देर तक स्तब्ध रखता है।’

‘कुच्ची का कानून’ भी गाँव के गहरे कुँए से बाहर जाते रास्ते की ही कहानी है, जिसे कुच्ची नाम की एक युवा विधवा अपनी कोख पर अपने अधिकार की अभूतपूर्व घोषणा के साथ प्रशस्त करती है। संग्रह की अंतिम कहानी शिवमूर्ति जी की आरंभिक कहानियों में से है जिसे उन्होंने 1970 के आसपास लिखा था। इस कहानी को उन्होंने इस आग्रह के साथ प्रस्तुत किया है कि पाठक देखें कि तब से अब तक उन्होंने कुछ पाया भी या नहीं। और कहानी को पढ़कर आप उन्हें जरूर सूचित करना चाहेंग कि निःसंदेह वे एक जन्मजात कथाकार हैं जिनके होने पर कोई भाषा गर्व कर सकती है।

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