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अर्घ  : पुं० [सं०√अर्ह (पूजा)+घञ्, कुत्व] १. कुशाग्र, जब तंडुल, दही, दूध और सरसों मिला हुआ जल, जो देवताओं पर अर्पित किया जाता है। २. किसी देवी-या देवता के सामने पूज्य भाव से जल गिराना या अंजुली में भरकर जल देना। ३. अतिथि को हाथ-पैर धोने के लिए दिया जाने वाला जल। ४. मधु। शहद। ५. घोड़ा। ६. भेंट। ७. [√अर्घ(मूल्य)+घञ्] दाम। मूल्य। ८. किसी वस्तु की उपयोगिता या महत्त्व का सूचक वह तत्त्व जो स्वयं उस वस्तु में निहित और उसमें दृढ़तापूर्वक संबद्ध होता है और जो उसके दाम या मूल्य से भिन्न होता है। (वर्थ) जैसे—तोले भर सोने के सिक्के का अर्घ सदा वही रहेगा, जो बाजार में सोने का भाव होगा।
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अर्घ-दान  : पुं० [ष० त०] देवता, अतिथि आदि को अर्घ देना।
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अर्घ-पतन  : पुं० [ष० त०] किसी वस्तु का अर्घ (भाव या मूल्य) कम होना या घटना। भाव उतरना। (डिप्रिसिएशन)
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अर्घ-पात्र  : पुं० [ष० त०] वह पात्र जिसमें अर्घ दिया जाता है। अरघा।
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अर्घट  : पुं० [सं०√अर्घ+अटन्] राख।
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अर्घा  : स्त्री० [सं० अर्घ+टाप्] ऐसे बीस मोतियों का लच्छा जिसकी तौल २॰ रत्ती हो।
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अर्घापचय  : पुं० [अर्घ-अपचय, ष० त०]=अर्घ-पतन।
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अर्घार्ह  : वि० [सं० अर्घ√अर्ह (पूजा)+अच्] अर्घ (आदर या सम्मान) का पात्र। श्रेष्ठ।
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अर्घेश्वर  : पु० [अर्घ-ईश्वर, ष० त०] शिव।
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अर्घ्य  : वि० [सं० अर्घ+यत्] १. जिसका अर्घ बहुत अधिक हो। बहुमूल्य। २. जिसे अर्घ दिया जाने को हो या दिया जाना उचित हो। ३. जो आदर, पूजा भेंट आदि का पात्र हो। ४. पूजा में देने योग्य (जल, फूल, मूल आदि)
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