शब्द का अर्थ
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अवाँ :
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पुं० =आवाँ। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
अवा :
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पुं० =आँवाँ। |
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अवाई :
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स्त्री० [हिं० आना-आगमन] १. आने की क्रिया या भाव। आगमन। उदाहरण—कहुँ कोउ ठठकि अवाइ लखत बिनु पलक गिराए। रत्ना। २. खेत की गहरी जुताई। सेव का विपर्याय। |
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अवाक् (च्) :
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वि० [सं० न० ब०] १. जिसके मुँह से वचन न निकल रहा हो। चुप। मौन। २. जो चकित या स्तंभित होने के कारण कुछ बोल न सके। ३. गूँगा। |
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अवाक्-पुष्पी :
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स्त्री० [ब० स०] १. वह पौधा जिसके फूल नीचे की ओर झुकें हों। २. अधः पुष्पी। ३. सौंफ। ४. सोआ नामक साग। |
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अवाक्-शाख :
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पुं० [ब० स०] अश्वत्थ। पीपल। |
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अवाक्-श्रुति :
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वि० [वाक्-श्रुति, द्व० स० न-वाक्श्रुति, न० ब०] जिसे वाक् या श्रवण शक्ति न हो। बहिरा। |
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अवाँग :
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वि० [सं० अवङ्] नीचे की ओर झुका हुआ। नत। |
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अवाँगना :
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स० [सं० अवाङ्] नीचे की ओर मोड़ना या झुकाना। उदाहरण—लीन्हेसी नवाइ डीठि पगनि अवाँगी रो।—पद्माकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवागी :
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वि० [सं० अवाक्] १. जो बोलता न हो। २. चुप। मौन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवाङ् :
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वि० [सं० अव√अञ्च (गति)+क्विन्] नीचे की ओर झुका हुआ जैसे—अवाङ्मुख। |
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अवाङ्निरय :
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पुं० [अवाक्-निरय, कर्म० स०] यह पृथ्वी जो नीचे के लोकों में सबसे नीची और निकृष्ट तथा नरक तुल्य मानी गई है। |
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अवाच :
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वि० [सं० अवाच्+ङीष्] दक्षिण दिशा। |
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अवाचीन :
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वि० [सं० अवाच्+रव-ईन] १. जो मुँह लटकाएँ या झुकाए हुए हो। अधोमुख। २. लज्जित। |
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अवाच्य :
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वि० [सं० न० त०] १. जिसका उच्चारण या वाचन करना उचित न हो। न कहने योग्य। २. जिससे बात करना उचित न हो। ३. दक्षिण दिशा का। दक्षिणी। पुं० १. अनुचित या बुरी बात। गाली। २. न कहने योग्य बात। |
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अवांछनीय :
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वि० [सं० न० त०] १. जो वांछनीय (अभिलषित) या (इष्ट) न हों। २. वांछना के लिए अनाधिकारी या अपात्र। (अन्डिजायरेबुल्) |
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अवांछित :
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वि० [सं० न० त०] १. जो वांछित न हो। २. जिसकी वांछा न की गई हो। |
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अवाजा :
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पुं० [फा० आवाजः] १. आवाज। शब्द। २. ख्याति। प्रसिद्धि। उदाहरण—साँचे विरदसूर के तारत लोकानि लोक अवाज।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवाजी :
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वि० [हि० आवाज] १. आवाज या शब्द करने वाला। २. बहुत जोर से चिल्लाने या बोलनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवाडू :
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वि० [?] विपरीत। विमुख। (राज०) उदाहरण—‘पाँख-डियाँ ईकिउँ नहीं, दैव अवाङ् ज्याँह।—ढोला मारू। |
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अवात :
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वि० [सं० न० ब०] जिसमें बात न हों। वातरहित। निर्वात। |
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अवांतर :
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वि० [सं० अव-अंतर, अत्या० स०] १. जो दो छोरों वस्तुओं या बिन्दुओं के बीच में स्थित हो। जैसे—अवांतर दिशा, अवांतर देश आदि। २. जो किसी प्रकार भेद या वर्ग के अंतर्गत हो अथवा किसी में उप-भेद आदि के रूप में मिला हो। जैसे—घोड़ों, तलवारों आदि के अनेक अवांतर भेद होते हैं। ३. गौण। ४. अतिरिक्त। पुं० १. बीच। मध्य। २. भीतरी भाग या स्थान। |
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अवादा :
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पुं० दे० ‘वादा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवादी (दिन्) :
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वि० [सं० न० त०] १. जो वादी न हो। २. न बोलनेवाला। अवक्ता। |
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अवान :
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वि० [सं० अव√अन्(जीवित रहना)+अच्] सूखा हुआ। शुष्क। |
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अवापन :
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पुं० [सं० अव√आप् (पाना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवाप्त] १. प्राप्त करना। पाना। २. आधि- कारिक रूप से आदाय, कर शुल्क आदि लगाना या स्थिर करना। (लेवी)। |
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अवापित :
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भू० कृ० [सं० वप् (बोना)+णिच्+क्त, न० त०] १. (अन्न) जो बोया न गया हो, फलतः रोपा हुआ। २. न कटा हुआ। (अनाज या उपज) ३. दे० ‘अवाप्त’। |
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अवाप्त :
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भू० कृ० [सं० अव√आप्(लाभ)+क्त] १. प्राप्त किया हुआ। २. जिसपर विधिक दृष्टि से या आधिकारिक पूर्वक ऐसा देन लगाया गया हो जो उचित प्राप्य के रूप में उगाहा जा सके। (लेवीड)। |
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अवाप्ति :
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स्त्री० [सं० अव√आप्+क्तिन्] १. प्राप्ति। २. आधिकारिक रूप से आधिकारपूर्वक आदाय, कर, शुल्क आदि के रूप में उगाहना लगाना या लेना। ३. आधिकारिक रूप से लोगों को बुलाकर उन्हें शस्त्रित करना अथवा उनकी सेना खड़ी करना। (लेवी)। |
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अवाप्य :
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वि० [सं० अव√आप्+ण्यत्] १. जिसे प्राप्त किया जा सके। २. जो प्राप्त किये जाने के योग्य हो अथवा जिसे प्राप्त करना उचित या आवश्यक हो। ३. जिसपर कर, शुल्क आदि लगाया जा सकता हो। |
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अवाय :
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वि० [सं० अवार्य] १. जो रोका न जा सकता हो। अनिवार्य। २. उच्छू-खल। उद्धत। पुं० [सं० अव√इ(गति)+घञ्] हाथ में पहनने का भूषण। कड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवार :
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पुं० [सं०√वृ (वरण)+घञ्, न० त०] १. नदी के इस ओर की किनारा। ‘पार’ का विपर्याय। २. इस ओर पार्श्व या सिरेवाला पक्ष। |
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अवारजा :
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पुं० [फा० अवार्ज, कदाचित् सं० आवर्ज्य से व्यु०] १. वह बही जिसमें असामी की जोत आदि का लेखा रहता है। २. दैनिक-आय-व्यय आदि लिखने की बही। ३. दोहराने या मिलान करने की क्रिया या भाव। मुहावरा—अवारजा करना=बही में लिखना। उदाहरण—अरि अवारजा प्रेम प्रीति कौ, असल तहाँ खतियावै।—सूर। ३. संक्षिप्त लेखा या विवरण। |
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अवारण :
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वि० [सं० न० ब०] १. जिसका वारण या निषेध न हो सके। सुनिश्चित । २. दे० ‘अनिवार्य’। |
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अवारणीय :
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वि० [सं० न० त०] जिसका वारण न किया जा सकता हो, फलतः अनिवार्य या असाध्य। जैसे—अवारणीय रोग। |
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अवारना :
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स० [सं० वारण] १. रोकना। २. मना करना। स० =वारना (निछावर करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवारपार :
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पुं० [सं० अवार-पार, द्व० स०+अच्] समुद्र। अव्य० =आर-पार। |
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अवारा :
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वि० दे० ‘आवारा’। |
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अवारिका :
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स्त्री० [सं० न-वारि, न० ब० कप्-टाप्] धनिया। |
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अवारिजा :
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पुं० दे० ‘अवारजा’। |
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अवारित :
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वि० [सं० न० त०] १ ०जो वारित न हुआ हो, अर्थात् जिसके संबंध में कोई बाधा या रुकावट न हो। २. जो अवरुद्ध या बंद न हो। जैसे—अवारित द्वार। |
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अवारी :
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स्त्री० [सं० अवार] १. किनारा। सिरा। २. मोड़। ३. छेद। ४. मुँह। स्त्री० [सं० वारण] लगाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवार्य :
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वि० [सं० न० त०] =अवारणीय। |
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अवावट :
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पुं० [सं० ] स्त्री के दूसरे सवर्ण पति या उपपति से उत्पन्न पुत्र। जैसे—कुंड और गोलक। |
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अवास :
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पुं० =आवास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवाँसना :
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स० [सं० वासन] नये कपड़े, बरतन आदि पहले-पहल प्रयोग में लाना। |
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अवासाँ :
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पुं० [सं० आवास] —आवास। उदाहरण—सब रानिन्ह के आदि अवासाँ।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अवासा :
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वि० [सं० अवासस] जो वस्त्र न पहने हो। नंगा। पुं० दिगंबर जैन साधुओं का एक संप्रदाय। |
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अवाँसी :
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स्त्री० [सं० अवासित] नवान्न के लिए फसल मे से पहले पहल काटकर लाया हुआ बोझ। ददरी। |
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अवास्तव :
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वि० [सं० न० ब०] जो वास्तविक या सच्चा न हो फलतः निराधार या मिथ्या। |
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अवाहन :
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वि० [सं० न० ब०] १. जिसके पास वाहन या सवारी न हो। २. जो वाहन पर न बैठा हो। |
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