शब्द का अर्थ
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अश्व :
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पुं० [सं०√अश्(व्याप्ति)+क्वन्] [वि० आश्व] १. घोड़ा। २. लाक्षणिक रूप में, इंद्रियाँ जो शरीर और मन को खींचकर इधर-उधर ले जाती है। ३. २७ की संख्या का सूचक शब्द। |
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अश्व-कंदा :
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स्त्री० [ब० स०] =अश्वगंधा। |
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अश्व-कर्ण :
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पुं० [ब० स०] १. घोड़े का कान। २. एक प्रकार का शालवृक्ष। लताशाल। |
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अश्व-कुटी :
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स्त्री० [ष० त०] घुड़साल। |
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अश्व-कुशल :
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पुं० [मध्य०स०] वह जो घोड़ों की तरह से चलना या तरह-तरह के काम करना सिखलाता हो। |
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अश्व-क्रांता :
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स्त्री० [ब० स०] संगीत में एक मूर्च्छना। |
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अश्व-खुर :
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पुं० [ब० स०] नख नामक गंध द्रव्य। |
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अश्व-गति :
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स्त्री० [ष० त०] १. घोडे की चाल। २. एक प्रकार का छंद या वृत्त। ३. चित्रकाव्य का वह प्रकार जिसमें कोई छंद इस प्रकार लिखा जाता है कि उससे घोडे की आकृति बन जाती है। |
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अश्व-गंधा :
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स्त्री० [ष० त०] असगंध नामक पौधा। |
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अश्व-ग्रीव :
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पुं० [ब० स०] =हयग्रीव। |
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अश्व-चक्र :
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पुं० [ष० त०] १. घोड़ों का समूह। २. घोड़ों के पद—चिन्हों से शुभाशुभ का विचार करने का एक चक्र या ढंग। |
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अश्व-चिकित्सा :
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स्त्री० - [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें घोड़ों बैलों आदि के रोगों और उनकी चिकित्सा का वर्णन होता है। |
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अश्व-दंष्ट्रा :
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स्त्री० [ष० त०] गोखरू। |
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अश्व-निबंधिक :
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पुं० [सं० अश्व-निबंध, ष० त०+ठन्-इक] साईस। |
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अश्व-पति :
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पुं० [ष० त०] १. घोड़ो का मालिक। २. घुड़सवार। ३. घुड़सवारों का नायक या सरदार। ४. भरत के मामा का नाम। |
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अश्व-पुच्छी :
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स्त्री० [ब० स०] माषपर्णी नाम का पौधा। |
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अश्व-बंध :
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पुं० [सं० अश्व√बन्ध्(बाँधना)+अण्] १. साईस। २. [ब० स०] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमें कोई कविता इस प्रकार लिखी जाती है कि उससे घोड़े की आकृति बन जाती है। |
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अश्व-बल :
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पुं० =अश्वशक्ति। |
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अश्व-बाल :
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पुं० [ष० त०] काँस नामक तृण। |
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अश्व-भा :
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स्त्री० [ष० त०] बिजली। |
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अश्व-मार :
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पुं० [सं० अश्व√मृ (मरना)+णिच्+अण्] कनेर नामक पौधा जिसकी जड़ घोड़ों के लिए घातक होती है। |
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अश्व-मारक :
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पुं० [ष० त०]=अश्वमार। |
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अश्व-मुख :
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पुं० [ब० स०] किन्नर, गंधर्व आदि जिनका मुँह घोड़ों की तरह कहा गया है। |
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अश्व-मेघ :
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पुं० [सं०√मेध् (हिंसा)+घञ्, अश्व-मेघ, ष० त०] १. यज्ञ में घोड़े की बलि देना। २. एक प्रसिद्ध बड़ा यज्ञ जिसमें घोड़े के सिर पर जय-पत्र बाँधकर उसे चारों ओर घूमने के लिए छोड़ देते थे, और यदि उसे कोई पकड़ लेता था, तो उसे मार या जीतकर वह घोड़ा छुड़ा लेते थे, और तब उसी घोड़े की बलि चढ़ाकर यज्ञ करते थे। (ऐसा यज्ञ करना दिग्विजयी सम्राट् होने का लक्षण माना जाता था) ३. संगीत में, एक प्रकार की तान जिसमें षड़ज को छोड़कर बाकी सब स्वर लगते है। |
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अश्व-मेधिक :
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वि० [अश्व-मेध+ठन्-इक] अश्वमेघ से संबंध रखनेवाला। पुं० अश्वमेध के योग्य अथवा अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा। |
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अश्व-यूप :
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पुं० [मध्य० स० वा, ष० त०] अश्वमेध यज्ञ में घोड़ा बाँधने का खूँटा। |
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अश्व-लक्षण :
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पुं० [ष० त०] घोड़े के अच्छे-बुरे या शुभ-अशुभ लक्षणों का विचार। |
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अश्व-ललित :
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पुं० [ष० त०] अद्रि तनया (वर्णवृत्त) का दूसरा नाम। |
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अश्व-लाला :
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स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार का साँप। |
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अश्व-वक्त्र :
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पुं० [ब० स०] किन्नर गंधर्व आदि जिनके मुँह घोड़ों की तरह माने गये हैं। |
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अश्व-वदन :
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पुं० [ब० स०+अच्] एक प्राचीन देश का नाम। |
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अश्व-विद् :
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पुं० [सं० अश्व√विद् (जानना)+क्विप्] घोड़ों के शुभ और अशुभ लक्षणों आदि का ज्ञाता। |
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अश्व-व्यूह :
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पुं० [ष० त०] वह व्यूह जिसमें कवचधारी घोड़े सामने और साधारण घोड़े अगल-बगल रखे जाते थे। |
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अश्व-शक :
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पुं० [ष० त०] घोड़े का मल या लीद। |
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अश्व-शंकु :
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पुं० [ष० त०] घोड़ा बाँधने का खूँटा |
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अश्व-शक्ति :
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स्त्री० [ष० त०] आधुनिक विज्ञान में, उतनी शक्ति जितनी ५५॰ पौंड (=६।।। मन) का भार एक फुट ऊपर उठाने के लिए आवश्यक होती है। (हॉर्सपावर) |
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अश्व-शाला :
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स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहां घोड़े बाँधे जाते हैं। अस्तबल। घुड़साल। |
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अश्व-शास्त्र :
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पुं० [ष० त०]=शालिहोत्र। |
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अश्व-स्तर :
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पुं० [ष० त०] घोड़े की पीठ पर रखने का कपड़ा। |
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अश्व-हृदय :
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पुं० [ष० त०] १. घोड़ों की चिकित्सा का शास्त्र। २. घुड़सवारी। |
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अश्वकिनी :
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स्त्री० [सं० अश्व-क, ष० त०+इनि-ङीष्] अश्विनी नक्षत्र। |
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अश्वगोष्ठ :
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पुं० [सं० अश्व+गोष्ठच्] अस्तबल। घुड़साल। |
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अश्वघ्न :
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पुं० [सं० अश्व√हन् (हिंसा)+ट] कनेर का वृक्ष और उसका फूल। |
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अश्वंत :
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वि० [सं० अश्व-अन्त,ब० स० शक० पररूप] १. अभागा। २. अशुभ। ३. असीम। पुं० १. मृत्यु। २. क्षेत्र। ३.आग रखने की जगह। ४. समाप्ति। |
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अश्वतर :
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पुं० [सं० अश्व+तरप्] १. खच्चर। २. एक सर्पराज। नागराज। ३. एक प्रकार का गंधर्व। |
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अश्वत्थ :
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पुं० [सं० श्वस्√स्था (ठहरना)+क-पृषो० सिद्धि, न० त०] १. पीपल का पेड़। २. सूर्य। ३. अश्विनी नक्षत्र। |
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अश्वत्था :
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स्त्री० [सं० अश्वत्थ+अच्-टाप्] आश्विन की पूर्णिमा। |
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अश्वत्थाम (न्) :
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वि० [सं० अश्व√स्था+क,पृषो०सिद्धि] घोड़े की सी शक्तिवाला। पुं० सुप्रसिद्ध और द्रोणाचार्य के पुत्र जो महाभारत के युद्ध में मारे गये थे। |
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अश्वत्थी :
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स्त्री० [सं० अश्वत्थ+ङीष्] १. चोटा पीपल। २. पीपल की तरह का एक छोटा पेड़। |
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अश्वनाय :
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पुं० [सं० अश्व-निबंध, ष० त+ठन्-इक] घोड़े चरानेवाला। |
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अश्वपाल :
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पुं० [सं० अश्व√पाल्(पालन करना)+णिच्+अण्] साईस। |
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अश्वमेधीय :
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वि० [सं० अश्वमेध√+छ-ईय] =अश्वमेधिक। |
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अश्वयु (ज्) :
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पुं० [सं० अश्व√युच् (जोड़ना)+क्विप्] अश्विनी नक्षत्र। |
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अश्वरक्ष :
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पुं० [सं० अश्व√रक्ष् (रक्षा करना)+अण्] साईस। |
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अश्वरोधक :
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पुं० [सं० अश्व√रुध् (रोकना)+ण्युल्-अक] कनेर वृक्ष। |
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अश्वल :
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पुं० [सं० अश्व√ला (लेना)+क] एक गोत्रकार ऋषि का नाम। |
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अश्ववह :
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पुं० [सं० अश्व√वह्(ढोना)+अप्] घुड़सवार। |
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अश्ववार :
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पुं० [सं० अश्व√वृ(सेवा)+अण्] १. घुड़सवार। २. साईस। |
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अश्ववारक :
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पुं० [सं० अश्व√वह्+णिच्+अण्]=अश्ववार। |
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अश्ववाह :
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पुं० [सं० अश्व√वह्+णिच्+अण्] घुड़सवार। |
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अश्ववाहक :
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पुं० [सं० अश्व√वह्+णिच्+ण्वुल्-अक] घुड़सवार। |
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अश्वसाद :
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पुं० [सं० अश्व√सद् (गति)+णिच्+अण्] घुड़सवार। |
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अश्वस्तन :
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वि० [सं० न० त०] केवल आज के दिन से संबंध रखनेवाला। पुं० वह गृहस्थ जिसके पास केवल एक दिन का अनाज हो, या इतना ही अनाज अपने पास रखता हो। |
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अश्वस्तनिक :
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वि० [सं० न० त०] जो आज सब खर्च कर दे, कल के लिए कुछ बचाकर न रखे। |
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अश्वाक्ष :
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पुं० [अश्व-अक्षि, ष० त० अच्] १. घोड़े की आँख। २. देवसर्षप नामक पौधा। |
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अश्वांतक :
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[अश्व-अन्तक, ष० त०] कनेर। |
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अश्वाध्यक्ष :
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पुं० [सं० अश्व-अध्यक्ष, ष० त०] अश्वारोही सेना का अध्यक्ष या नायक। |
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अश्वानीक :
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स्त्री० [अश्व-अनीक, ष० त०] घुड़सवार सेना। रिसाला। |
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अश्वायुर्वेद :
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पुं० [अश्व-आयुर्वेद, ष० त०] आयुर्वेद या चिकित्सा शास्त्र का वह अंग जिसमें घोड़ों तथा अन्य पशुओं की चिकित्सा का वर्णन होता है। शालिहोत्र। |
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अश्वारि :
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पुं० [अश्व-अरि, ष० त०] १. भैंसा। २. कनेर। |
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अश्वारूढ़ :
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पुं० [अश्व-आरूढ़, स० त०] घुड़सवार। |
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अश्वारोहक :
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पुं० [सं० अश्व-आ√रुह् (उत्पन्न होना) +ण्वुल्-अक] असगंध नामक पौधा। |
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अश्वारोहण :
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पुं० [अश्व-आरोहण, स० त०] [वि० अश्वारोही] घोड़े पर चढ़ने की क्रिया या भाव। घुड़सवारी। |
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अश्वारोही (हिन्) :
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वि० [सं० अश्व-आ√रुह्+णिनि] १. घोड़े की सवारी करने वाला। जो घोड़े पर सवार हो। पुं० सवार। |
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अश्वावतारी (रिन्) :
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पुं० [सं० अश्व-अव√तृ (तैरना)+णिनि] ३१ मात्राओं के छंदों की संज्ञा। |
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अश्वि-युग :
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पुं० [ष० त०] ज्योतिष में एक युग अर्थात् ५ वर्षों का काल जिसमें क्रम से डिंगल, कालयुक्त, सिद्धार्थ, रौद्र और दुर्मति नामक संवत्सर होते हैं। |
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अश्वि-युगल :
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पुं० [ष० त०] दो कल्पित देवता जिन्हें कुछ लोग अश्विनीकुमार भी मानते हैं। |
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अश्विनी :
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स्त्री० [सं० अश्व+इनि—ङीप्] १. घोड़ी। २. सूर्य की पत्नी जिसने घोड़ी का रूप घर कर अपने को छिपा रखा था। ३. सत्ताइस नक्षत्रों में पहला नक्षत्र जो तीन तारों का है। ४. जटामासी। बालछड़। |
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अश्विनी-कुमार :
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पुं० [ष० त०] त्वष्टा की पुत्री प्रभा से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र जो देवताओं के वैद्य माने जाते हैं। |
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अश्वीय :
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वि० [सं० अश्व+छ-ईय] १. घोड़े में होने या पाया जानेवाला। अश्व संबंधी। जैसे अश्वीय रोग। २. घोड़ों के हित से संबंध रखनेवाला। पुं० घोड़ों का समूह। |
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