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उद्  : उप० [सं०√उ(शब्द)+क्विप्+तुक्] एक संस्कृत उपसर्ग जो संधि के नियमों के अनुसार कुछ अवस्थाओं में उत् भी हो जाता है, और जो क्रियाओं विशेषणों तथा संज्ञाओं के आरंभ में लगकर उनमें ये आर्थी विशेषताएँ उत्पन्न करता है-१. उच्च या ऊँचा, जैसे—उत्कंठ, उद्ग्रीव। २. ऊपर की ओर जानेवाली क्रिया, जैसे—उत्क्षेपण, उत्सारण, उद्गमन। ३. अधिकता या प्रबलता, जैसे—उत्कर्ष, उत्साह, उद्वेग। ४. उत्तम या श्रेष्ठ, जैसे—उदार, उदभट। ५. अलग किया, छोड़ा या बाहर निकाला हुआ। जैसे—उत्सर्ग, उद्गार, उद्वासन। ६. मुक्त या रहित, जैसे—उद्दंड, उद्दाम। ७. प्रकट या प्रकाशित किया हुआ, जैसे—उत्क्रोश, उद्घोषणा, उद्योतन। ८. विशिष्ट रूप से दिखलाया, बतलाया या माना हुआ, जैसे—उद्दिष्ट, उद्देश्य। ९. लाँघना या लाँघकर पार करना, जैसे—उत्तीर्ण, उद्वेल। १. दुष्ट या बुरा, जैसे—उन्मार्ग आदि। कहीं-कहीं यह प्रसंग के अनुसार आश्चर्य, दुर्बलता, पार्थक्य लाभ विभाग समीप्य आदि का भी सूचक हो जाता है। विशेष—व्याकरण में, संधि के नियमों के अनुसार उत् या उद् का रूप प्रसंगतः उच् (जैसे—उच्चारण उच्छिन्न) उज् (जैसे—उज्जीवन,उज्ज्वल) उड्(जैसे—उड्डीन) या उन्(जैसे—उन्मुख,उन्मेष) भी हो जाता है। पुं० १. ब्रह्म। २. मोक्ष। ३. सूर्य। ४. जल। पानी।
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उद्  : उप० [सं०√उ(शब्द)+क्विप्+तुक्] एक संस्कृत उपसर्ग जो संधि के नियमों के अनुसार कुछ अवस्थाओं में उत् भी हो जाता है, और जो क्रियाओं विशेषणों तथा संज्ञाओं के आरंभ में लगकर उनमें ये आर्थी विशेषताएँ उत्पन्न करता है-१. उच्च या ऊँचा, जैसे—उत्कंठ, उद्ग्रीव। २. ऊपर की ओर जानेवाली क्रिया, जैसे—उत्क्षेपण, उत्सारण, उद्गमन। ३. अधिकता या प्रबलता, जैसे—उत्कर्ष, उत्साह, उद्वेग। ४. उत्तम या श्रेष्ठ, जैसे—उदार, उदभट। ५. अलग किया, छोड़ा या बाहर निकाला हुआ। जैसे—उत्सर्ग, उद्गार, उद्वासन। ६. मुक्त या रहित, जैसे—उद्दंड, उद्दाम। ७. प्रकट या प्रकाशित किया हुआ, जैसे—उत्क्रोश, उद्घोषणा, उद्योतन। ८. विशिष्ट रूप से दिखलाया, बतलाया या माना हुआ, जैसे—उद्दिष्ट, उद्देश्य। ९. लाँघना या लाँघकर पार करना, जैसे—उत्तीर्ण, उद्वेल। १. दुष्ट या बुरा, जैसे—उन्मार्ग आदि। कहीं-कहीं यह प्रसंग के अनुसार आश्चर्य, दुर्बलता, पार्थक्य लाभ विभाग समीप्य आदि का भी सूचक हो जाता है। विशेष—व्याकरण में, संधि के नियमों के अनुसार उत् या उद् का रूप प्रसंगतः उच् (जैसे—उच्चारण उच्छिन्न) उज् (जैसे—उज्जीवन,उज्ज्वल) उड्(जैसे—उड्डीन) या उन्(जैसे—उन्मुख,उन्मेष) भी हो जाता है। पुं० १. ब्रह्म। २. मोक्ष। ३. सूर्य। ४. जल। पानी।
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उद्गत  : वि० [सं० उद्√गम्(जाना)+क्त] १. निकला हुआ। उत्पन्न। २. प्रकट। ३. फैला हुआ। ४. वमन किया हुआ। ५. प्राप्त। लब्ध।
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उद्गत  : वि० [सं० उद्√गम्(जाना)+क्त] १. निकला हुआ। उत्पन्न। २. प्रकट। ३. फैला हुआ। ४. वमन किया हुआ। ५. प्राप्त। लब्ध।
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उद्गतार्थ  : पुं० [सं० उदगत-अर्थ, कर्म० स०] ऐसी चीज जिसका दाम कुछ समय तक पड़े रहने से ही बढ़ गया हो। (अर्थशास्त्र)
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उद्गतार्थ  : पुं० [सं० उदगत-अर्थ, कर्म० स०] ऐसी चीज जिसका दाम कुछ समय तक पड़े रहने से ही बढ़ गया हो। (अर्थशास्त्र)
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उद्गंधि  : वि० [सं० ब० स०, इत्व] तीव्र या तीक्ष्ण गंधवाला।
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उद्गंधि  : वि० [सं० ब० स०, इत्व] तीव्र या तीक्ष्ण गंधवाला।
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उद्गम  : पुं० [सं० उद्√गम्+अप्] १. आर्विभाव होना। २. आर्विभाव या उत्पत्ति का स्थान। ३. नदी के निकलने का स्थान।
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उद्गम  : पुं० [सं० उद्√गम्+अप्] १. आर्विभाव होना। २. आर्विभाव या उत्पत्ति का स्थान। ३. नदी के निकलने का स्थान।
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उद्गमन  : पुं० [सं० उद्√गम्+ल्युट-अन] आर्विभाव का उदभव।
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उद्गाढ़  : वि० [सं० उद्√गाह(मथना)+क्त]१. गहरा। २. तीव्र। प्रचंड। ३. बहुत अधिक। पुं० आतिशय्य।
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उद्गाढ़  : वि० [सं० उद्√गाह(मथना)+क्त]१. गहरा। २. तीव्र। प्रचंड। ३. बहुत अधिक। पुं० आतिशय्य।
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उद्गाता  : पुं० [सं० उद्√गै (शब्द)+तृच्] यज्ञ में सामवेदीय कृत्य करनेवाला ऋत्विज्।
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उद्गाता  : पुं० [सं० उद्√गै (शब्द)+तृच्] यज्ञ में सामवेदीय कृत्य करनेवाला ऋत्विज्।
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उद्गाथा  : स्त्री० [सं० उद्-गाथा, प्रा० स०] आर्या छंद का एक भेद। उग्गाहा। गीत, जिसके विषम पादों में १२ और सम पादों में १8 मात्राएँ होती है।
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उद्गाथा  : स्त्री० [सं० उद्-गाथा, प्रा० स०] आर्या छंद का एक भेद। उग्गाहा। गीत, जिसके विषम पादों में १२ और सम पादों में १8 मात्राएँ होती है।
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उद्गार  : पुं० [सं० उद्√गृ (लीलना, शब्द)+घञ्] [वि० उद्गारी, भू० कृ० उद्गारित] तरल पदार्थ का वेगपूर्वक ऊपर उठकर बाहर निकलना। उफान। २. इस प्रकार वेग से बाहर निकला हुआ तरल पदार्थ। ३. वमन किया हुआ पदार्थ। ४. मुँह से निकला हुआ कफ। थूक। ५. खट्टा। डकार। ६. आधिक्य। बाढ़। उदाहरण—जब जब जो उद्गार होइ अति प्रेम विध्वंसक।—नंददास। ७. अधीरता आवेश आदि की अवस्था में मुँह से निकली हुई ऐसी बातें जो कुछ समय से मन में दबी रही हों।
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उद्गार  : पुं० [सं० उद्√गृ (लीलना, शब्द)+घञ्] [वि० उद्गारी, भू० कृ० उद्गारित] तरल पदार्थ का वेगपूर्वक ऊपर उठकर बाहर निकलना। उफान। २. इस प्रकार वेग से बाहर निकला हुआ तरल पदार्थ। ३. वमन किया हुआ पदार्थ। ४. मुँह से निकला हुआ कफ। थूक। ५. खट्टा। डकार। ६. आधिक्य। बाढ़। उदाहरण—जब जब जो उद्गार होइ अति प्रेम विध्वंसक।—नंददास। ७. अधीरता आवेश आदि की अवस्था में मुँह से निकली हुई ऐसी बातें जो कुछ समय से मन में दबी रही हों।
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उद्गारना  : स० [सं० उद्गार] १. मुँह से बाहर निकालना। २. उगलना। उभाड़ना, भड़काना।
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उद्गारना  : स० [सं० उद्गार] १. मुँह से बाहर निकालना। २. उगलना। उभाड़ना, भड़काना।
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उद्गारी (रिन्)  : वि० [सं० उद्√गृ (निगलना)+णिनि] १. उद्गार की क्रिया करने वाला। २. ऊपर की ओर या बाहर निकलने या निकालनेवाला। ३. डकार लेनेवाला। ४. कै या वमन करनेवाला। पुं० ज्योतिष में, बृहस्पति के बारहवें युग का दूसरा वर्ष। कहते हैं कि इसमें राज क्षय, उत्पात आदि होते हैं।
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उद्गारी (रिन्)  : वि० [सं० उद्√गृ (निगलना)+णिनि] १. उद्गार की क्रिया करने वाला। २. ऊपर की ओर या बाहर निकलने या निकालनेवाला। ३. डकार लेनेवाला। ४. कै या वमन करनेवाला। पुं० ज्योतिष में, बृहस्पति के बारहवें युग का दूसरा वर्ष। कहते हैं कि इसमें राज क्षय, उत्पात आदि होते हैं।
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उद्गिरण  : पुं० [सं० उद्√गृ+ल्युट-अन] १. उगलने थूकने या बाहर फेकने की क्रिया या भाव। २. वमन। कै। ३. लार। ४. डकार।
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उद्गिरण  : पुं० [सं० उद्√गृ+ल्युट-अन] १. उगलने थूकने या बाहर फेकने की क्रिया या भाव। २. वमन। कै। ३. लार। ४. डकार।
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उद्गीति  : स्त्री० [सं० उद्√गै (गाना)+क्तिन्] १. आर्या छंद का भेद जिसके पहले और तीसरे चरण में बारह-बारह, दूसरे में पंद्रह और चौथे में अट्टारह मात्राएँ होती है।
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उद्गीति  : स्त्री० [सं० उद्√गै (गाना)+क्तिन्] १. आर्या छंद का भेद जिसके पहले और तीसरे चरण में बारह-बारह, दूसरे में पंद्रह और चौथे में अट्टारह मात्राएँ होती है।
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उद्गीथ  : पुं० [सं० उद्√गै+थक्] १. एक प्रकार का सामगान। २. सामवेद। ३. ओंकार।
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उद्गीथ  : पुं० [सं० उद्√गै+थक्] १. एक प्रकार का सामगान। २. सामवेद। ३. ओंकार।
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उद्गीर्ण  : भू० कृ० [सं० उद्√गृ+क्त] १. उगला, थूकने या मुँह से बाहर निकाला हुआ। २. बाहर निकाला या फेंका हुआ। ३. गिरा या टपका हुआ। ४. उद्गार के रूप में कहा हुआ। ५. प्रतिबिंबित।
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उद्गीर्ण  : भू० कृ० [सं० उद्√गृ+क्त] १. उगला, थूकने या मुँह से बाहर निकाला हुआ। २. बाहर निकाला या फेंका हुआ। ३. गिरा या टपका हुआ। ४. उद्गार के रूप में कहा हुआ। ५. प्रतिबिंबित।
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उद्गेय  : वि० [सं० उद्√गै+यत्] १. जो गाये जाने को हो। २. जो गाये जाने के योग्य हो।
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उद्गेय  : वि० [सं० उद्√गै+यत्] १. जो गाये जाने को हो। २. जो गाये जाने के योग्य हो।
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उद्ग्रंथ  : वि० [सं० ब० स०] जिसका गाँठ या बंधन खोल दिया गया हो। २. खुला हुआ। मुक्त। पुं० १. अध्याय। २. धारा।
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उद्ग्रंथ  : वि० [सं० ब० स०] जिसका गाँठ या बंधन खोल दिया गया हो। २. खुला हुआ। मुक्त। पुं० १. अध्याय। २. धारा।
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उद्ग्रहणीय  : वि० [सं० उद्√ग्रह+अनीयर] जिसका उद्ग्रहण होने को हो या किया जाने को हो।
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उद्ग्रहणीय  : वि० [सं० उद्√ग्रह+अनीयर] जिसका उद्ग्रहण होने को हो या किया जाने को हो।
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उद्घट्टन  : पुं० [सं० उद्√घट्ट+ल्युट-अन] [भू० कृ० उगघट्टित] १. उन्मोचन। खोलना। २. रगड़। ३. खंड। टुकड़ा।
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उद्घट्टन  : पुं० [सं० उद्√घट्ट+ल्युट-अन] [भू० कृ० उगघट्टित] १. उन्मोचन। खोलना। २. रगड़। ३. खंड। टुकड़ा।
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उद्घाटक  : वि० [सं० उद्√घट्+णिच्+ण्वुल्-अक] उद्घाटन करनेवाला। पुं० [सं० ] १. कुंजी। चाबी। २. कुएँ से पानी खींचने की चरखी।
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उद्घाटक  : वि० [सं० उद्√घट्+णिच्+ण्वुल्-अक] उद्घाटन करनेवाला। पुं० [सं० ] १. कुंजी। चाबी। २. कुएँ से पानी खींचने की चरखी।
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उद्घाटन  : पुं० [सं० उद्√घट्+णिच्+ल्युट-अन] १. आवरण या परदा हटाना। खोलना। २. एक आधुनिक परपाटी या रस्म जो कोई नया कार्य आरंभ करने के समय औपचारिक उत्सव या कृत्य के रूप में होती है। जैसे—(क) नहर या बाँध का उद्घाटन। (ख) सभा सम्मेलन आदि का उद्घाटन।
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उद्घाटन  : पुं० [सं० उद्√घट्+णिच्+ल्युट-अन] १. आवरण या परदा हटाना। खोलना। २. एक आधुनिक परपाटी या रस्म जो कोई नया कार्य आरंभ करने के समय औपचारिक उत्सव या कृत्य के रूप में होती है। जैसे—(क) नहर या बाँध का उद्घाटन। (ख) सभा सम्मेलन आदि का उद्घाटन।
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उद्घाटित  : वि० [सं० उद्√हन्+णिच्+क्त] १. जिस पर से आवरण हटाया गया हो। अनावृत। २. जिसका उद्घाटन हुआ हो।
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उद्घाटित  : वि० [सं० उद्√हन्+णिच्+क्त] १. जिस पर से आवरण हटाया गया हो। अनावृत। २. जिसका उद्घाटन हुआ हो।
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उद्घातक  : वि० [सं० उद्√हन्+णिच्+ण्वुल्-अक] धक्का मारनेवाला। पुं० नाटक में, प्रस्तावना का वह प्रकार जिसमें सूत्रधार और नटी की कोई बात, सुनकर कोई पात्र उसका कुछ दूसरा ही अर्थ समझकर नेपथ्य से उसका उत्तर देता अथवा रंगमंच पर आकर अभिनय आरंभ करता है।
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उद्घातक  : वि० [सं० उद्√हन्+णिच्+ण्वुल्-अक] धक्का मारनेवाला। पुं० नाटक में, प्रस्तावना का वह प्रकार जिसमें सूत्रधार और नटी की कोई बात, सुनकर कोई पात्र उसका कुछ दूसरा ही अर्थ समझकर नेपथ्य से उसका उत्तर देता अथवा रंगमंच पर आकर अभिनय आरंभ करता है।
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उद्घाती (तिन्)  : वि० [सं० उद्√हन्+णिच्+णिनि] १. उद्घात करने वाला। २. ठोकर मारने या लगानेवाला। ३. आरंभ करनेवाला।
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उद्घाती (तिन्)  : वि० [सं० उद्√हन्+णिच्+णिनि] १. उद्घात करने वाला। २. ठोकर मारने या लगानेवाला। ३. आरंभ करनेवाला।
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उद्घोष  : पुं० [सं० उद्√घुष् (शब्द करना)+घञ्] १. चिल्लाकर या जोर से कुछ कहना। गर्जना। २. चिल्लाने या जोर से बोलने से होनेवाला शब्द। ३. घोषणा। मुनादी।
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उद्घोष  : पुं० [सं० उद्√घुष् (शब्द करना)+घञ्] १. चिल्लाकर या जोर से कुछ कहना। गर्जना। २. चिल्लाने या जोर से बोलने से होनेवाला शब्द। ३. घोषणा। मुनादी।
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उद्घोषणा  : स्त्री० [उद्√घुष्+णिच्+युच्-अन-टाप्] [भू० कृ० उद्घोषित] १. जोर से चिल्लाते हुए तथा सबको सुनाते हुए कोई बात कहना। २. राज्य या शासन की ओर से उसके सर्वप्रधान अधिकारी द्वारा हुई कोई मुख्यतः ऐसी घोषणा जो किसी देश या प्रदेश को अपने राज्य के मिलाने के संबंध में हो। (प्रोक्लेमेशन)
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उद्घोषणा  : स्त्री० [उद्√घुष्+णिच्+युच्-अन-टाप्] [भू० कृ० उद्घोषित] १. जोर से चिल्लाते हुए तथा सबको सुनाते हुए कोई बात कहना। २. राज्य या शासन की ओर से उसके सर्वप्रधान अधिकारी द्वारा हुई कोई मुख्यतः ऐसी घोषणा जो किसी देश या प्रदेश को अपने राज्य के मिलाने के संबंध में हो। (प्रोक्लेमेशन)
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उद्घोषित  : भू० कृ० [सं० उद्√घुष्+णिच्+क्त] १. जो उद्घोषणा के रूप में हुआ हो। २. जिसके संबंध में कोई उद्घोषणा हुई हो।
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उद्घोषित  : भू० कृ० [सं० उद्√घुष्+णिच्+क्त] १. जो उद्घोषणा के रूप में हुआ हो। २. जिसके संबंध में कोई उद्घोषणा हुई हो।
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उद्दंड  : वि० [सं० उद्-दंड, अत्या० स०] [भाव० उद्डंता] १. जो किसी को मारने के लिए डंडा ऊपर उठाये हुए हो। २. जो किसी से डरता न हो और अनुचित तथा मनमाना आचरण करता हो। ३. जिसे कोई दंड न दे सकता हो। पुं० दंडधर। द्वारपाल।
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उद्दंड  : वि० [सं० उद्-दंड, अत्या० स०] [भाव० उद्डंता] १. जो किसी को मारने के लिए डंडा ऊपर उठाये हुए हो। २. जो किसी से डरता न हो और अनुचित तथा मनमाना आचरण करता हो। ३. जिसे कोई दंड न दे सकता हो। पुं० दंडधर। द्वारपाल।
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उद्दत  : वि०=उद्यत।
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उद्दत  : वि०=उद्यत।
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उद्दति  : वि० १. =उदित। २. =उद्यत। ३. =उद्धत। ४. =उद्दीप्त।
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उद्दम  : पुं० [सं० उद्√दम् (दमन करना)+अप्] किसी को दबाना या वश में करना। पुं०=उद्यम।
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उद्दम  : पुं० [सं० उद्√दम् (दमन करना)+अप्] किसी को दबाना या वश में करना। पुं०=उद्यम।
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उद्दमि  : पुं०=उद्यम।
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उद्दमि  : पुं०=उद्यम।
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उद्दर्शन  : पुं० [सं० उद्√दृश् (देखना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्दर्शित] १. दर्शन कराना। २. स्पष्ट या व्यक्त करना।
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उद्दर्शन  : पुं० [सं० उद्√दृश् (देखना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्दर्शित] १. दर्शन कराना। २. स्पष्ट या व्यक्त करना।
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उद्दंश  : पुं० [सं० उद्√वंश् (डसना)+अच्] १. खटमल। २. जूँ। ३. मच्छर।
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उद्दंश  : पुं० [सं० उद्√वंश् (डसना)+अच्] १. खटमल। २. जूँ। ३. मच्छर।
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उद्दांत  : वि० [सं० उद्√दम् (दमन करना)+क्त] १. जो बहुत दबा हो। अतिदमित। २. उत्साही। ३. विनम्र।
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उद्दांत  : वि० [सं० उद्√दम् (दमन करना)+क्त] १. जो बहुत दबा हो। अतिदमित। २. उत्साही। ३. विनम्र।
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उद्दान  : पुं० [सं० उद्√दा(देना) या√दो (खंडन करना)+ल्युट-अन] १. जकड़ने या बाँधने की क्रिया या भाव। २. उद्यम। ३. बड़वानल। ४. चूल्हा। ५. लग्न। ६. उद्यम। प्रयत्न। ७. कटि। कमर। ८. बीच का भाग। मध्य।
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उद्दान  : पुं० [सं० उद्√दा(देना) या√दो (खंडन करना)+ल्युट-अन] १. जकड़ने या बाँधने की क्रिया या भाव। २. उद्यम। ३. बड़वानल। ४. चूल्हा। ५. लग्न। ६. उद्यम। प्रयत्न। ७. कटि। कमर। ८. बीच का भाग। मध्य।
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उद्दाम  : वि० [सं० उद्-दामन्, निरा० स०] [भाव० उद्दामता] १. जो किसी प्रकार के बंधन में न हो। २. स्वतंत्र। स्वच्छंद। ३. उद्दंड या निरंकुश। ४. गंभीर। ५. विस्तृत। पुं० १. वरुण। २. दंडक वृत्त का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में १ नगण और १३ रगण होते हैं।
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उद्दाम  : वि० [सं० उद्-दामन्, निरा० स०] [भाव० उद्दामता] १. जो किसी प्रकार के बंधन में न हो। २. स्वतंत्र। स्वच्छंद। ३. उद्दंड या निरंकुश। ४. गंभीर। ५. विस्तृत। पुं० १. वरुण। २. दंडक वृत्त का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में १ नगण और १३ रगण होते हैं।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्दार  : वि०=उदार।
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उद्दार  : वि०=उदार।
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उद्दारय  : वि०=उदार।
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उद्दारय  : वि०=उदार।
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उद्दालक  : पुं० [सं० उद्√दल्(विदार्ण करना)+णिच्+अच,उद्दाल+कन्] १,०एक प्राचीन ऋषि। २. एक प्रकार का व्रत जो ऐसे व्यक्ति को करना पड़ता है जिसे १6 वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी गायत्री की दीक्षा न मिली हो। ३. बनकोदव नाम का कदन्न।
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उद्दालक  : पुं० [सं० उद्√दल्(विदार्ण करना)+णिच्+अच,उद्दाल+कन्] १,०एक प्राचीन ऋषि। २. एक प्रकार का व्रत जो ऐसे व्यक्ति को करना पड़ता है जिसे १6 वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी गायत्री की दीक्षा न मिली हो। ३. बनकोदव नाम का कदन्न।
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उद्दिय  : पुं० [सं० क्षुधा] भूख। उदाहरण–मरत काल चलि सथ्य, धाम धामन अरु छद्दिय।–चंदबरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उद्दिष्ट  : वि० [सं० उद्√दिश् (बताना)+क्त] १. जिसकी ओर निर्देश या संकेत किया गया हो। कहा या बतालाया हुआ। २. जिसे उद्देश्य बना या मानकर कोई काम किया जाए। उद्देश्य के रूप में स्थिर किया हुआ। पुं० १. छंदशास्त्र में, प्रत्यय के अंतर्गत वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि मात्रा प्रस्तार के विचार से कोई पद्य किस छंद का कौन-सा प्रकार या भेद है। २. स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु का किया जानेवाला भोग। (पराशर)
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उद्दिष्ट  : वि० [सं० उद्√दिश् (बताना)+क्त] १. जिसकी ओर निर्देश या संकेत किया गया हो। कहा या बतालाया हुआ। २. जिसे उद्देश्य बना या मानकर कोई काम किया जाए। उद्देश्य के रूप में स्थिर किया हुआ। पुं० १. छंदशास्त्र में, प्रत्यय के अंतर्गत वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि मात्रा प्रस्तार के विचार से कोई पद्य किस छंद का कौन-सा प्रकार या भेद है। २. स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु का किया जानेवाला भोग। (पराशर)
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उद्दीप  : पुं० [सं० उद्√दीप् (प्रकाश)+घञ्] उद्दीपन। वि०=उद्दीपक।
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उद्दीप  : पुं० [सं० उद्√दीप् (प्रकाश)+घञ्] उद्दीपन। वि०=उद्दीपक।
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उद्दीपक  : वि० [सं० उद्√दीप्(जलाना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. जलाने या प्रज्वलित करने वाला। २. उभाडने या भड़कानेवाला, विशेषतः मनोभावों को जाग्रत तथा उत्तेजित करनेवाला। ३. जठराग्नि को तीव्र या दीप्त करनेवाला।
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उद्दीपक  : वि० [सं० उद्√दीप्(जलाना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. जलाने या प्रज्वलित करने वाला। २. उभाडने या भड़कानेवाला, विशेषतः मनोभावों को जाग्रत तथा उत्तेजित करनेवाला। ३. जठराग्नि को तीव्र या दीप्त करनेवाला।
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उद्दीपन  : पुं० [सं० उद्√दीप्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्दीप्त, वि,० उद्दीप्य] १. जलाने या प्रज्वलित करने की क्रिया या भाव। २. उत्तेजित करने या उभाड़ने, विशेषतः मनोभावों को जाग्रत तथा उत्तेजित करने की क्रिया या भाव। ३. उत्तेजित या दीप्त करनेवाली वस्तु। ४. साहित्य में वह वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति जो मन में प्रस्तुत किसी रस या स्थायी भाव को उद्दीप्त तथा उत्तेजित करे। जैसे— श्रृंगार रस में सुंदर ऋतु, चाँदनी रात आदि उद्दीप्त हैं।
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उद्दीपन  : पुं० [सं० उद्√दीप्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्दीप्त, वि,० उद्दीप्य] १. जलाने या प्रज्वलित करने की क्रिया या भाव। २. उत्तेजित करने या उभाड़ने, विशेषतः मनोभावों को जाग्रत तथा उत्तेजित करने की क्रिया या भाव। ३. उत्तेजित या दीप्त करनेवाली वस्तु। ४. साहित्य में वह वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति जो मन में प्रस्तुत किसी रस या स्थायी भाव को उद्दीप्त तथा उत्तेजित करे। जैसे— श्रृंगार रस में सुंदर ऋतु, चाँदनी रात आदि उद्दीप्त हैं।
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उद्दीपित  : भू० कृ० [सं० उद्√दीप्+णिच्+क्त]=उद्दीप्त।
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उद्दीपित  : भू० कृ० [सं० उद्√दीप्+णिच्+क्त]=उद्दीप्त।
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उद्दीप्त  : भू० कृ० [सं० उद्√दीप्+क्त] १. प्रज्वलित किया हुआ। २. चमकता हुआ। ३० उभाड़ा या उत्तेजित किया हुआ। ४. (भाव या रस) जिसका उद्दीपन हुआ हो।
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उद्दीप्त  : भू० कृ० [सं० उद्√दीप्+क्त] १. प्रज्वलित किया हुआ। २. चमकता हुआ। ३० उभाड़ा या उत्तेजित किया हुआ। ४. (भाव या रस) जिसका उद्दीपन हुआ हो।
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उद्दीप्ति  : स्त्री० [सं० उद्√दीप्+क्तिन्] उद्दीप्त होने की अवस्था या भाव।
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उद्दीप्ति  : स्त्री० [सं० उद्√दीप्+क्तिन्] उद्दीप्त होने की अवस्था या भाव।
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उद्देश  : पुं० [सं० उद्√दिश्+घञ्] १. किसी चीज की ओर निर्देश या संकेत करना। २. कोई काम करते समय किसी चीज या बात का ध्यान रखना। ३. कारण। ४. न्याय में, प्रतिज्ञा नामक तत्त्व। ५. कारण। हेतु। ६. दे० ‘उद्देश्य’।
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उद्देश  : पुं० [सं० उद्√दिश्+घञ्] १. किसी चीज की ओर निर्देश या संकेत करना। २. कोई काम करते समय किसी चीज या बात का ध्यान रखना। ३. कारण। ४. न्याय में, प्रतिज्ञा नामक तत्त्व। ५. कारण। हेतु। ६. दे० ‘उद्देश्य’।
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उद्देशक  : वि० [सं० उद्√दिश्+ण्वुल-अक] किसी की ओर उद्देश (निर्देश या संकेत) करनेवाला। पुं० गणित में, प्रश्न।
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उद्देशक  : वि० [सं० उद्√दिश्+ण्वुल-अक] किसी की ओर उद्देश (निर्देश या संकेत) करनेवाला। पुं० गणित में, प्रश्न।
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उद्देशन  : पुं० [सं० उद्√दिश्+ल्युट-अन] किसी की ओर निर्देश या संकेत करने की क्रिया या भाव।
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उद्देशन  : पुं० [सं० उद्√दिश्+ल्युट-अन] किसी की ओर निर्देश या संकेत करने की क्रिया या भाव।
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उद्देश्य  : पुं० [सं० उद्√दिश्+ण्यत्] १. वह मानसिक तत्त्व (भाव या विचार) जिसका ध्यान रखते हुए या जिससे प्रेरित होकर कुछ कहा या किया जाए। किसी काम में प्रवृत्त करनेवाला मनोभाव। (मोटिव) जैसे—देखना यह चाहिए वह जाने (या अमुक अपराध करने) में आपका मुख्य उद्देश्य क्या था। २. वह बात, वस्तु या विषय जिसका ध्यान रखकर कुछ कहा या किया जाए। अभिप्रेत कार्य, पदार्थ या विषय। इष्ट। ध्येय। (आब्जेक्ट) ३. व्याकरण में, वह जिसके विचार से या जिसे ध्यान में रखकर कुछ कहा या विधान किया जाए। किसी वाक्य का कर्त्तृ पद जो उसके विधेय से भिन्न होता है। (आब्जेक्ट) जैसे—वह बहुत साहसी है। में वह उद्देश्य है, क्योंकि वाक्य में उसी के साहसी होने की चर्चा या विधान है। ४. दे० ‘प्रयोजन’।
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उद्देश्य  : पुं० [सं० उद्√दिश्+ण्यत्] १. वह मानसिक तत्त्व (भाव या विचार) जिसका ध्यान रखते हुए या जिससे प्रेरित होकर कुछ कहा या किया जाए। किसी काम में प्रवृत्त करनेवाला मनोभाव। (मोटिव) जैसे—देखना यह चाहिए वह जाने (या अमुक अपराध करने) में आपका मुख्य उद्देश्य क्या था। २. वह बात, वस्तु या विषय जिसका ध्यान रखकर कुछ कहा या किया जाए। अभिप्रेत कार्य, पदार्थ या विषय। इष्ट। ध्येय। (आब्जेक्ट) ३. व्याकरण में, वह जिसके विचार से या जिसे ध्यान में रखकर कुछ कहा या विधान किया जाए। किसी वाक्य का कर्त्तृ पद जो उसके विधेय से भिन्न होता है। (आब्जेक्ट) जैसे—वह बहुत साहसी है। में वह उद्देश्य है, क्योंकि वाक्य में उसी के साहसी होने की चर्चा या विधान है। ४. दे० ‘प्रयोजन’।
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उद्देष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० उद्√दिश्+तृच्] किसी वस्तु को ध्यान में रखकर काम करनेवाला। किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील।
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उद्देष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० उद्√दिश्+तृच्] किसी वस्तु को ध्यान में रखकर काम करनेवाला। किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील।
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उद्दोत  : पुं०=उद्योत। वि० १. =उद्दीप्त। २. =उदित।
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उद्दोत  : पुं०=उद्योत। वि० १. =उद्दीप्त। २. =उदित।
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उद्दोतिताई  : -स्त्री० उद्दीप्ति। उदाहरण—तड़ित घन नील उद्दोतिताई।—अलबेली अलि।
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उद्दोतिताई  : -स्त्री० उद्दीप्ति। उदाहरण—तड़ित घन नील उद्दोतिताई।—अलबेली अलि।
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उद्ध  : अव्य० [सं० ऊर्द्घ, पा० उद्ध] ऊपर। वि०=ऊर्द्ध्व।
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उद्ध  : अव्य० [सं० ऊर्द्घ, पा० उद्ध] ऊपर। वि०=ऊर्द्ध्व।
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उद्धत  : वि० [सं० उद्√हन्+क्त] [भाव० उद्धतता] जो अपने उग्र क्रोधी या रूखे स्वभाव के कारण हेय आचरण या व्यवहार करता हो। अक्खड़। पुं० साहित्य में 40 मात्राओं का एक छंद।
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उद्धत  : वि० [सं० उद्√हन्+क्त] [भाव० उद्धतता] जो अपने उग्र क्रोधी या रूखे स्वभाव के कारण हेय आचरण या व्यवहार करता हो। अक्खड़। पुं० साहित्य में 40 मात्राओं का एक छंद।
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उद्धत-दंडक  : पुं० [सं० ] विजया नामक मात्रिक छंद का वह प्रकार या भेद जिसके प्रत्येक चरण का अंत एक गुरु और एक लघु से होता है।
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उद्धत-दंडक  : पुं० [सं० ] विजया नामक मात्रिक छंद का वह प्रकार या भेद जिसके प्रत्येक चरण का अंत एक गुरु और एक लघु से होता है।
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उद्धतता  : स्त्री० [सं० उद्धत+तल्-टाप्] उद्धत होने की अवस्था या भाव। उद्धतपन। औद्धत्य।
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उद्धतता  : स्त्री० [सं० उद्धत+तल्-टाप्] उद्धत होने की अवस्था या भाव। उद्धतपन। औद्धत्य।
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उद्धतपन  : पुं० [सं० उद्धत+हिं० पन (प्रत्य)] उद्धत होने की अवस्था या भाव। उद्धतता।
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उद्धतपन  : पुं० [सं० उद्धत+हिं० पन (प्रत्य)] उद्धत होने की अवस्था या भाव। उद्धतता।
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उद्धति  : स्त्री० [सं० उद्√हन्+क्तिन्] =उद्धतता।
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उद्धति  : स्त्री० [सं० उद्√हन्+क्तिन्] =उद्धतता।
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उद्धना  : अ० [सं० उद्धरण] १. उद्धार होना। २. ऊपर उठना या उड़ना। स० १. उद्धार करना। २. ऊपर उठना या उड़ना।
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उद्धना  : अ० [सं० उद्धरण] १. उद्धार होना। २. ऊपर उठना या उड़ना। स० १. उद्धार करना। २. ऊपर उठना या उड़ना।
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उद्धरण  : पुं० [सं० उद्√हृ (हरण करना)+ल्युट-अन] [वि० उद्धरणीय, उदधृत] १. ऊपर उठाना। उद्धार करना। २. कष्ट,झंझट,संकट आदि से किसीको निकालना या मुक्ति दिलाना। छुटकारा। ३. किसी ग्रंथ लेख आदि से उदाहरण, प्रमाण, साक्षी आदि के रूप में लिया हुआ अंश। (कोटेशन) ४. अभ्यास के लिए पढ़े हुए पाठ को बार-बार दोहराना। उद्धरणी।
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उद्धरण  : पुं० [सं० उद्√हृ (हरण करना)+ल्युट-अन] [वि० उद्धरणीय, उदधृत] १. ऊपर उठाना। उद्धार करना। २. कष्ट,झंझट,संकट आदि से किसीको निकालना या मुक्ति दिलाना। छुटकारा। ३. किसी ग्रंथ लेख आदि से उदाहरण, प्रमाण, साक्षी आदि के रूप में लिया हुआ अंश। (कोटेशन) ४. अभ्यास के लिए पढ़े हुए पाठ को बार-बार दोहराना। उद्धरणी।
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उद्धरणी  : स्त्री० [सं० उद्धरण+हिं० ई (प्रत्यय)] १. पढ़ा हुआ पाठ अच्छी तरह याद करने के लिए फिर-फिर दोहराना या पढ़ना। २. कही आई या लिखी हुई कोई बात, घटना का विवरण आदि फिर से कह सुनाना। (रिसाइटल) ३. दे० ‘उद्धरण’।
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उद्धरणी  : स्त्री० [सं० उद्धरण+हिं० ई (प्रत्यय)] १. पढ़ा हुआ पाठ अच्छी तरह याद करने के लिए फिर-फिर दोहराना या पढ़ना। २. कही आई या लिखी हुई कोई बात, घटना का विवरण आदि फिर से कह सुनाना। (रिसाइटल) ३. दे० ‘उद्धरण’।
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उद्धरना  : स० [सं० उद्धरण] उद्धार करना। उबारना। अ० उद्धार होना। उबरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उद्धरना  : स० [सं० उद्धरण] उद्धार करना। उबारना। अ० उद्धार होना। उबरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उद्धर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० उद्√हृ+तृच्] १. उद्धरणी करनेवाला। २. उद्धार करनेवाला। ३. उदाहरण, साक्षी आदि के रूप में कही से कोई उद्धरण लेनेवाला।
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उद्धर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० उद्√हृ+तृच्] १. उद्धरणी करनेवाला। २. उद्धार करनेवाला। ३. उदाहरण, साक्षी आदि के रूप में कही से कोई उद्धरण लेनेवाला।
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उद्धर्ष  : पुं० [सं० उद्√हष् (आनंदित होना)+घञ्] १. आनंद। प्रसन्नता।
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उद्धर्ष  : पुं० [सं० उद्√हष् (आनंदित होना)+घञ्] १. आनंद। प्रसन्नता।
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उद्धर्षण  : पुं० [सं० उद्√हष्+ल्युट-अन] १. आनंदित या प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। २. रोमांच। ३. उत्तेजना।
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उद्धर्षण  : पुं० [सं० उद्√हष्+ल्युट-अन] १. आनंदित या प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। २. रोमांच। ३. उत्तेजना।
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उद्धव  : पुं० [सं० उद्√धू (कंपन)+अप्] १. उत्सव। २. यज्ञ की अग्नि। ३. कृष्ण के एक सखा और रिश्ते में मामा, जिन्हें उन्होंने द्वारका से व्रज की गोपियों को सांत्वना देने के लिए भेजा था। इनका दूसरा नाम देवश्रवा भी था।
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उद्धव  : पुं० [सं० उद्√धू (कंपन)+अप्] १. उत्सव। २. यज्ञ की अग्नि। ३. कृष्ण के एक सखा और रिश्ते में मामा, जिन्हें उन्होंने द्वारका से व्रज की गोपियों को सांत्वना देने के लिए भेजा था। इनका दूसरा नाम देवश्रवा भी था।
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उद्धव्य  : पुं० [सं० उद्√हु (दान, आदान)+यत्] बौद्ध शास्त्रानुसार दस क्लेशों में से एक।
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उद्धव्य  : पुं० [सं० उद्√हु (दान, आदान)+यत्] बौद्ध शास्त्रानुसार दस क्लेशों में से एक।
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उद्धस्त  : पुं० [सं० उद्-हस्त, प्रा० ब०] जो ऊपर की ओर हाथ उठाये या फैलायें हुए हो।
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उद्धस्त  : पुं० [सं० उद्-हस्त, प्रा० ब०] जो ऊपर की ओर हाथ उठाये या फैलायें हुए हो।
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उद्धार  : पुं० [सं० उद्√धृ (धारण)+घञ्] १. नीचे से उठाकर ऊपर ले जाना। २. निम्न या हीन स्थिति से उठाकर उच्च या उन्नत स्थिति में ले जाना। ३. किसी को कष्ट, विपत्ति, संकट आदि से उबारना या निकालना। मुक्त करना। ४. ऋण देन आदि से मिलनेवाला छुटकारा। ५. संपत्ति का वह भाग जो बँटवारे से पहले किसी विशेष रीति से बाँटने के लिए अलग कर दिया जाए। ६. लड़ाई में लूट का छठा भाग जो राजा का अंश माना जाता था। ७. दे० ‘उधार’।
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उद्धार  : पुं० [सं० उद्√धृ (धारण)+घञ्] १. नीचे से उठाकर ऊपर ले जाना। २. निम्न या हीन स्थिति से उठाकर उच्च या उन्नत स्थिति में ले जाना। ३. किसी को कष्ट, विपत्ति, संकट आदि से उबारना या निकालना। मुक्त करना। ४. ऋण देन आदि से मिलनेवाला छुटकारा। ५. संपत्ति का वह भाग जो बँटवारे से पहले किसी विशेष रीति से बाँटने के लिए अलग कर दिया जाए। ६. लड़ाई में लूट का छठा भाग जो राजा का अंश माना जाता था। ७. दे० ‘उधार’।
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उद्धार-विक्रय  : पुं० [सं० तृ० त०] उधार बेचना। (क्रेडिट सेल)
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उद्धार-विक्रय  : पुं० [सं० तृ० त०] उधार बेचना। (क्रेडिट सेल)
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उद्धारक  : वि० [सं० उद्√धृ+ण्वुल्-अक] १. किसी का उद्धार करनेवाला। २. उधार लेनेवाला।
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उद्धारक  : वि० [सं० उद्√धृ+ण्वुल्-अक] १. किसी का उद्धार करनेवाला। २. उधार लेनेवाला।
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उद्धारण  : पुं० [सं० उद्√धृ+णिच्+ल्युट-अन] १. ऊपर उठाना। उत्थापन। २. उबारना। बचाना। ३. बँटवारा। ४. कोई पद, वाक्य या शब्द कहीं से जान-बूझकर या किसी उद्देश्य से निकाल या अलग कर देना। (डिलीशन)
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उद्धारण  : पुं० [सं० उद्√धृ+णिच्+ल्युट-अन] १. ऊपर उठाना। उत्थापन। २. उबारना। बचाना। ३. बँटवारा। ४. कोई पद, वाक्य या शब्द कहीं से जान-बूझकर या किसी उद्देश्य से निकाल या अलग कर देना। (डिलीशन)
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उद्धारणिक  : पुं० [सं० उद्धारण+ठक्-इक] वह व्यक्ति जिसने किसी से रूपया उधार लिया हो। ऋण या कर्ज लेनेवाला। (बॉरोवर)
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उद्धारणिक  : पुं० [सं० उद्धारण+ठक्-इक] वह व्यक्ति जिसने किसी से रूपया उधार लिया हो। ऋण या कर्ज लेनेवाला। (बॉरोवर)
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उद्धारना  : स० [सं० उद्धार] विपत्ति या संकट से अथवा निम्न या हीन स्थिति से निकालकर अच्छी स्थिति में लाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्धारना  : स० [सं० उद्धार] विपत्ति या संकट से अथवा निम्न या हीन स्थिति से निकालकर अच्छी स्थिति में लाना।
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उद्धित  : भू० कृ० [सं० उद्√धा (धारण करना)+क्त] १. ऊपर उठाया हुआ। २. अच्छी तरह बैठाया या रखा हुआ। स्थापित।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्धित  : भू० कृ० [सं० उद्√धा (धारण करना)+क्त] १. ऊपर उठाया हुआ। २. अच्छी तरह बैठाया या रखा हुआ। स्थापित।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्धृत  : भू० कृ० [सं० उद्√धृ (धारण)+क्त] १. ऊपर उठाया हुआ। २. (किसी का कथन लेख आदि) जो कही से लाकर उदाहरण, प्रमाण या साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्धृत  : भू० कृ० [सं० उद्√धृ (धारण)+क्त] १. ऊपर उठाया हुआ। २. (किसी का कथन लेख आदि) जो कही से लाकर उदाहरण, प्रमाण या साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्धृति  : स्त्री० [सं० उद्√धृ+क्तिन्] १. उद्धृत करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. उद्धरण।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्धृति  : स्त्री० [सं० उद्√धृ+क्तिन्] १. उद्धृत करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. उद्धरण।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्ध्वंस  : पुं० [सं० उद्√ध्वंस (नाश)+घञ्] १. ध्वसं। नाश। २. महामारी। मरी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्ध्वंस  : पुं० [सं० उद्√ध्वंस (नाश)+घञ्] १. ध्वसं। नाश। २. महामारी। मरी।
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उद्ध्वस्त  : भू० कृ० [सं० उद्√ध्वंस+क्त] गिरा-पड़ा। तोड़-फोड़कर नष्ट किया हुआ। ध्वस्त।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्ध्वस्त  : भू० कृ० [सं० उद्√ध्वंस+क्त] गिरा-पड़ा। तोड़-फोड़कर नष्ट किया हुआ। ध्वस्त।
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उद्बल  : वि० [सं० उद्-बल, ब० स०] बलवान्। सशक्त।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बल  : वि० [सं० उद्-बल, ब० स०] बलवान्। सशक्त।
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उद्बाध्य  : वि० [सं० उद्-बाध्य, ब० स०] १. बाष्प से भरा हुआ या युक्त। २. (आँखें) जिनमें आँसू भरे हों। अश्रुपूर्ण।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बाध्य  : वि० [सं० उद्-बाध्य, ब० स०] १. बाष्प से भरा हुआ या युक्त। २. (आँखें) जिनमें आँसू भरे हों। अश्रुपूर्ण।
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उद्बाहु  : वि० [सं० उद्-बाहु, ब० स०] जो बाहु या बाँहें ऊपर उठाये हुए हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बाहु  : वि० [सं० उद्-बाहु, ब० स०] जो बाहु या बाँहें ऊपर उठाये हुए हो।
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उद्बुद्ध  : वि० [सं० उद्√बुध्(जनाना)+क्त] १. जिसकी बुद्धि जाग्रत हुई हो। ज्ञानी। प्रबुद्ध। २. खिला या फूला हुआ। प्रफुल्लित। विकसित। ३. जो अपने आपको अच्छी तरह दृश्य या प्रत्यक्ष कर रहा हो। उदाहरण—उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम घटा।—प्रसाद।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बुद्ध  : वि० [सं० उद्√बुध्(जनाना)+क्त] १. जिसकी बुद्धि जाग्रत हुई हो। ज्ञानी। प्रबुद्ध। २. खिला या फूला हुआ। प्रफुल्लित। विकसित। ३. जो अपने आपको अच्छी तरह दृश्य या प्रत्यक्ष कर रहा हो। उदाहरण—उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम घटा।—प्रसाद।
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उद्बुद्धा  : स्त्री० [सं० उदबुद्ध+टाप्] उद्बोधिता। (नायिका)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बुद्धा  : स्त्री० [सं० उदबुद्ध+टाप्] उद्बोधिता। (नायिका)
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उद्बोध  : पुं० [सं० उद्√बुध्+घञ्] १. जागना। जागरण। २. बोध होना। ज्ञान प्राप्त होना। ३. फिर से याद आना। अनुस्मरण।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बोध  : पुं० [सं० उद्√बुध्+घञ्] १. जागना। जागरण। २. बोध होना। ज्ञान प्राप्त होना। ३. फिर से याद आना। अनुस्मरण।
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उद्बोधक  : वि० [सं० उद्√बुध्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. ज्ञान या बोध करानेवाला। २. जगानेवाला। ३. उद्दीप्त या उत्तेजित करनेवाला। पुं० सूर्य।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बोधक  : वि० [सं० उद्√बुध्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. ज्ञान या बोध करानेवाला। २. जगानेवाला। ३. उद्दीप्त या उत्तेजित करनेवाला। पुं० सूर्य।
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उद्बोधन  : पुं० [सं० उद्√बुध्+णिच्+ल्युट-अन] [वि० उद्बोधक, उदबोधनीय० उदबोधित] १. जागने या जगाने की क्रिया या भाव। २. ज्ञान या बोध कराने या होने की क्रिया या भाव। ३. उत्तेजित करना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बोधन  : पुं० [सं० उद्√बुध्+णिच्+ल्युट-अन] [वि० उद्बोधक, उदबोधनीय० उदबोधित] १. जागने या जगाने की क्रिया या भाव। २. ज्ञान या बोध कराने या होने की क्रिया या भाव। ३. उत्तेजित करना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बोधिता  : स्त्री० [सं० उद्√बुध्+णिच्+क्त-टाप्] साहित्य में, वह नायिका जो अपने उपपति के प्रेम से प्रभावित होकर उससे प्रेम करती हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्बोधिता  : स्त्री० [सं० उद्√बुध्+णिच्+क्त-टाप्] साहित्य में, वह नायिका जो अपने उपपति के प्रेम से प्रभावित होकर उससे प्रेम करती हो।
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उद्भट  : वि० [सं० उद्√भट्(पोषण)+अप्] [भाव० उद्भटता] १. बहुत बड़ा। श्रेष्ठ। २. प्रचंड। प्रबल। पुं० १. सूप। २. कछुआ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भट  : वि० [सं० उद्√भट्(पोषण)+अप्] [भाव० उद्भटता] १. बहुत बड़ा। श्रेष्ठ। २. प्रचंड। प्रबल। पुं० १. सूप। २. कछुआ।
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उद्भव  : पुं० [सं० उद्√भू(होना)+अप्] [वि० उद्भूत] १. किसी प्रकार उत्पन्न होकर अस्तित्व में आना। नये सिरे से उठकर प्रत्यक्ष होना या सामने आना। २. किसी पूर्वज के वंश में उत्पन्न होने अथवा किसी मूल से निकलने का तथ्य या भाव। (डिसेन्ट) ३. उत्पत्ति स्थान। ४. विष्णु। वि० [स्त्री० उद्भवा] जो किसी से उत्पन्न हुआ हो। (यौ० के अंत में) जैसे—प्रेमोदभव-प्रेम से उत्पन्न।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भव  : पुं० [सं० उद्√भू(होना)+अप्] [वि० उद्भूत] १. किसी प्रकार उत्पन्न होकर अस्तित्व में आना। नये सिरे से उठकर प्रत्यक्ष होना या सामने आना। २. किसी पूर्वज के वंश में उत्पन्न होने अथवा किसी मूल से निकलने का तथ्य या भाव। (डिसेन्ट) ३. उत्पत्ति स्थान। ४. विष्णु। वि० [स्त्री० उद्भवा] जो किसी से उत्पन्न हुआ हो। (यौ० के अंत में) जैसे—प्रेमोदभव-प्रेम से उत्पन्न।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भार  : पुं० [सं० उदक्√भू (धारण करना)+अण्, उद् आदेश] बादल। मेघ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भार  : पुं० [सं० उदक्√भू (धारण करना)+अण्, उद् आदेश] बादल। मेघ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भाव  : पुं० [सं० उद्√भू+घञ्] १. =उद्भव। २. =उद्भावना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भाव  : पुं० [सं० उद्√भू+घञ्] १. =उद्भव। २. =उद्भावना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भावक  : वि० [सं० उद्√भू+णिच्+ण्वुल्-अक] १. उद्भव या उत्पत्ति करनेवाला। २. मन से कोई बात या विचार निकालनेवाला। उद्भावना करनेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भावक  : वि० [सं० उद्√भू+णिच्+ण्वुल्-अक] १. उद्भव या उत्पत्ति करनेवाला। २. मन से कोई बात या विचार निकालनेवाला। उद्भावना करनेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भावन  : पुं० [सं० उद्√भू+णिच्+ल्युट-अन] =उदभावना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भावन  : पुं० [सं० उद्√भू+णिच्+ल्युट-अन] =उदभावना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भावना  : स्त्री० [सं० उद्√भू+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. उत्पन्न होना या अस्तित्व में आना। २. मन में उत्पन्न होनेवाली कोई अद्भुत या अनोखी और नई बात या सूझ। ३. कल्पना से निकली हुई कोई नई बात या विचार।
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उद्भावना  : स्त्री० [सं० उद्√भू+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. उत्पन्न होना या अस्तित्व में आना। २. मन में उत्पन्न होनेवाली कोई अद्भुत या अनोखी और नई बात या सूझ। ३. कल्पना से निकली हुई कोई नई बात या विचार।
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उद्भावयिता (तृ)  : वि० [सं० उद्√भू+णिच्-तृच्] =उद्भावक।
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उद्भावयिता (तृ)  : वि० [सं० उद्√भू+णिच्-तृच्] =उद्भावक।
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उद्भास  : पुं० [सं० उद्√भास् (दीप्ति)+घञ्] १. बहुत ही आकर्षक तथा चमकते हुए रूप में प्रकट होना या सामने आना। २. आभा। प्रकाश। ३. उद्भावना।
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उद्भास  : पुं० [सं० उद्√भास् (दीप्ति)+घञ्] १. बहुत ही आकर्षक तथा चमकते हुए रूप में प्रकट होना या सामने आना। २. आभा। प्रकाश। ३. उद्भावना।
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उद्भासन  : पुं० [सं० उद्√भास्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्भासित] प्रकाशित होना। चमकना। २. आभा या प्रकाश से युक्त करना। चमकाना।
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उद्भासन  : पुं० [सं० उद्√भास्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्भासित] प्रकाशित होना। चमकना। २. आभा या प्रकाश से युक्त करना। चमकाना।
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उद्भासित  : भू० कृ० [सं० उद्√भास्+क्त] १. जो सुंदर रूप में प्रकट हुआ हो। सुशोभित। २. चमकता हुआ। प्रकाशित। ३. उत्तेजित।
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उद्भासित  : भू० कृ० [सं० उद्√भास्+क्त] १. जो सुंदर रूप में प्रकट हुआ हो। सुशोभित। २. चमकता हुआ। प्रकाशित। ३. उत्तेजित।
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उद्भिज  : पुं०=उद्भिज्य।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भिज  : पुं०=उद्भिज्य।
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उद्भिज्ज  : वि० [सं० उद्√भिद् (विदारण)+क्विप्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] (पेड़, पौधे लताएँ आदि) जो जमीन फोड़कर उगती या निकलती हों। पुं० जमीन में उगनेवाले पेड़, पौधे, लताएँ आदि।
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उद्भिज्ज  : वि० [सं० उद्√भिद् (विदारण)+क्विप्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] (पेड़, पौधे लताएँ आदि) जो जमीन फोड़कर उगती या निकलती हों। पुं० जमीन में उगनेवाले पेड़, पौधे, लताएँ आदि।
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उद्भिज्ज-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वनस्पति-शास्त्र।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्भिज्ज-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वनस्पति-शास्त्र।
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उद्भिद  : पुं० [सं० उद्√भिद्+क] =उद्भिज्ज।
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उद्भिद  : पुं० [सं० उद्√भिद्+क] =उद्भिज्ज।
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उद्भिन्न  : वि० [सं० उद्√भिद्+क्त] १. विभक्त किया हुआ। २. तोड़ा-फोडा हुआ। खंडित। ३. उत्पन्न या उद्भूत।
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उद्भिन्न  : वि० [सं० उद्√भिद्+क्त] १. विभक्त किया हुआ। २. तोड़ा-फोडा हुआ। खंडित। ३. उत्पन्न या उद्भूत।
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उद्भूत  : भू० कृ० [सं० उद्√भू (होना)+क्त] १. जिसका उद्भव हुआ हो। जिसकी उत्पत्ति या जन्म हुआ हो। २. बाहर निकला या सामने आया हुआ। जो प्रत्यक्ष या प्रकट हुआ हो।
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उद्भूत  : भू० कृ० [सं० उद्√भू (होना)+क्त] १. जिसका उद्भव हुआ हो। जिसकी उत्पत्ति या जन्म हुआ हो। २. बाहर निकला या सामने आया हुआ। जो प्रत्यक्ष या प्रकट हुआ हो।
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उद्भूति  : स्त्री० [सं० उद्√भू+क्तिन्] [वि, उद्भूत] १. उद्भूत होने की अवस्था, क्रिया या भाव। आविर्भाव। उत्पत्ति। २. उद्भूत होकर सामने आनेवाली चीज। ३. उन्नति। ४. विभूति।
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उद्भूति  : स्त्री० [सं० उद्√भू+क्तिन्] [वि, उद्भूत] १. उद्भूत होने की अवस्था, क्रिया या भाव। आविर्भाव। उत्पत्ति। २. उद्भूत होकर सामने आनेवाली चीज। ३. उन्नति। ४. विभूति।
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उद्भेद  : पुं० [सं० उद्√भिद्+घञ्] १. =उदभेदन। २. एक काव्यालंकार जिसमें कौशल से छिपाई हुई बात किसी हेतु से प्रकाशित या लक्षित होना वर्णित होता है।
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उद्भेद  : पुं० [सं० उद्√भिद्+घञ्] १. =उदभेदन। २. एक काव्यालंकार जिसमें कौशल से छिपाई हुई बात किसी हेतु से प्रकाशित या लक्षित होना वर्णित होता है।
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उद्भेदन  : पुं० [सं० उद्√भिद्+ल्युट-अन] १. किसी वस्तु को फोड़कर या छेदकर उससे दूसरी वस्तु का निकलना। २. तोड़-फोड़।
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उद्भेदन  : पुं० [सं० उद्√भिद्+ल्युट-अन] १. किसी वस्तु को फोड़कर या छेदकर उससे दूसरी वस्तु का निकलना। २. तोड़-फोड़।
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उद्भ्रम  : पुं० [सं० उद्√भ्रम् (घूमना)+घञ्] १. चक्कर काटना। घूमना। २. पर्यटन। भ्रमण। ३. उद्वेग। ४. पाश्चाताप। ५. ऐसा भ्रम जिसमें बुद्धि काम न करे। विभ्रम।
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उद्भ्रम  : पुं० [सं० उद्√भ्रम् (घूमना)+घञ्] १. चक्कर काटना। घूमना। २. पर्यटन। भ्रमण। ३. उद्वेग। ४. पाश्चाताप। ५. ऐसा भ्रम जिसमें बुद्धि काम न करे। विभ्रम।
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उद्भ्रमण  : पुं० [सं० उद्√भ्रम्+ल्युट-अन] चक्कर काटना या लगाना। भ्रमण करना। घूमना।
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उद्भ्रमण  : पुं० [सं० उद्√भ्रम्+ल्युट-अन] चक्कर काटना या लगाना। भ्रमण करना। घूमना।
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उद्भ्रांत  : वि० [सं० उद्√भ्रम्+क्त] १. घूमता या चक्कर खाता हुआ। २. भ्रम में पड़ा हुआ। ३. चकित। भौचक्का। ४. उन्मत। पागल। ५. जो दुखी तथा विह्वल हो। पुं० तलवार का एक हाथ जिसमें चारों ओर तलवार घुमाते हुए विपक्षी का वार रोकते और उसे विफल करते हैं।
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उद्भ्रांत  : वि० [सं० उद्√भ्रम्+क्त] १. घूमता या चक्कर खाता हुआ। २. भ्रम में पड़ा हुआ। ३. चकित। भौचक्का। ४. उन्मत। पागल। ५. जो दुखी तथा विह्वल हो। पुं० तलवार का एक हाथ जिसमें चारों ओर तलवार घुमाते हुए विपक्षी का वार रोकते और उसे विफल करते हैं।
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उद्यत  : वि० [सं० उद्√यम् (निवृत्ति, नियंत्रण)+क्त] १. उठाया या ताना हुआ। २. जो कोई काम करने के लिए तत्पर तथा दृढ़प्रतिज्ञ हो। कोई काम करने के लिए तैयार। मुस्तैद।
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उद्यत  : वि० [सं० उद्√यम् (निवृत्ति, नियंत्रण)+क्त] १. उठाया या ताना हुआ। २. जो कोई काम करने के लिए तत्पर तथा दृढ़प्रतिज्ञ हो। कोई काम करने के लिए तैयार। मुस्तैद।
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उद्यति  : स्त्री० [सं० उद्√यम्+क्तिन्] १. उद्यत होने की क्रिया या भाव। २. उद्यम। ३. उठाना। उत्थापन।
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उद्यति  : स्त्री० [सं० उद्√यम्+क्तिन्] १. उद्यत होने की क्रिया या भाव। २. उद्यम। ३. उठाना। उत्थापन।
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उद्यम  : पुं० [सं० उद्√यम्+घञ्] [कर्त्ता उद्यमी] १. कोई ऐसा शारीरिक कार्य या व्यापार जो जीविका उपार्जन के लिए अथवा कोई उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किया जाता है। उद्योग। (स्ट्राइविंग) २. परिश्रम। मेहनत।
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उद्यम  : पुं० [सं० उद्√यम्+घञ्] [कर्त्ता उद्यमी] १. कोई ऐसा शारीरिक कार्य या व्यापार जो जीविका उपार्जन के लिए अथवा कोई उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किया जाता है। उद्योग। (स्ट्राइविंग) २. परिश्रम। मेहनत।
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उद्यमी (मिन्)  : पुं० [सं० उद्यम+इनि] उद्यम या उद्योग करनेवाला व्यक्ति।
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उद्यमी (मिन्)  : पुं० [सं० उद्यम+इनि] उद्यम या उद्योग करनेवाला व्यक्ति।
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उद्यान  : पुं० [सं० उद्√या (जाना)+ल्युट्-अन] १. बाग। बगीचा। २. जंगल। वन। उदाहरण—नृपति पाइ यह आत्मज्ञान राज छाँडि कै गयौ उद्यान।—सूर।
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उद्यान  : पुं० [सं० उद्√या (जाना)+ल्युट्-अन] १. बाग। बगीचा। २. जंगल। वन। उदाहरण—नृपति पाइ यह आत्मज्ञान राज छाँडि कै गयौ उद्यान।—सूर।
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उद्यान-करण  : पुं० [ष० त०] बाग-बगीचों में पौधे आदि लगाना और उनकी देख-रेख करना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्यान-करण  : पुं० [ष० त०] बाग-बगीचों में पौधे आदि लगाना और उनकी देख-रेख करना।
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उद्यान-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] बगीचे में पेड़-पौधे लगाने तथा उनकी देख-भाल करने की कला या विधान। (हार्टिकल्चर)
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उद्यान-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] बगीचे में पेड़-पौधे लगाने तथा उनकी देख-भाल करने की कला या विधान। (हार्टिकल्चर)
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उद्यान-गृह  : पुं० [मध्य० स०] किसी बडे़ बगीचें में बना हुआ छोटा सुंदर मकान। (गार्डन हाउस)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्यान-गृह  : पुं० [मध्य० स०] किसी बडे़ बगीचें में बना हुआ छोटा सुंदर मकान। (गार्डन हाउस)
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उद्यान-गोष्ठी  : स्त्री० [मध्य० स०] उद्यान में होनेवाली वह गोष्ठी या मित्रों का समागम जिसमें जलपान आदि हो। (गार्डन पार्टी)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्यान-गोष्ठी  : स्त्री० [मध्य० स०] उद्यान में होनेवाली वह गोष्ठी या मित्रों का समागम जिसमें जलपान आदि हो। (गार्डन पार्टी)।
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उद्यान-भोज  : पुं० [सं० मध्य० स०] उद्यान या बगीचें में होनेवाला भोज।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्यान-भोज  : पुं० [सं० मध्य० स०] उद्यान या बगीचें में होनेवाला भोज।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्यानक  : पुं० [सं० उद्यान+कन्] छोटा उद्यान। वाटिका। बगीची।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्यानक  : पुं० [सं० उद्यान+कन्] छोटा उद्यान। वाटिका। बगीची।
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उद्यापन  : पुं० [सं० उद्√या+णिच्,पुक्+ल्युट-अन] १. विधिपूर्वक कोई काम पूरा करना। २. समाप्ति पर किया जानेवाला कुछ विशिष्ट धार्मिक कृत्य। जैसे—हवन, गोदान आदि।
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उद्यापन  : पुं० [सं० उद्√या+णिच्,पुक्+ल्युट-अन] १. विधिपूर्वक कोई काम पूरा करना। २. समाप्ति पर किया जानेवाला कुछ विशिष्ट धार्मिक कृत्य। जैसे—हवन, गोदान आदि।
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उद्यापित  : वि० [सं० उद्√या+णिच्, पुक्+क्त] विधि-पूर्वक पूरा किया हुआ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्यापित  : वि० [सं० उद्√या+णिच्, पुक्+क्त] विधि-पूर्वक पूरा किया हुआ।
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उद्युक्त  : वि० [सं० उद्√युज्(मिलना)+क्त] [स्त्री० उद्युक्ता] १. तत्पर। तैयार। २. किसी काम में लगा हुआ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्युक्त  : वि० [सं० उद्√युज्(मिलना)+क्त] [स्त्री० उद्युक्ता] १. तत्पर। तैयार। २. किसी काम में लगा हुआ।
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उद्योग  : पुं० [सं० उद्√युज्+घञ्] [कर्त्ता उद्योगी, वि० उद्युक्त, औद्योगिक] १. किसी काम में अच्छी तरह लगना। २. प्रयत्न। कोशिश। ३. परिश्रम। मेहनत। ४. कोई उद्देश्य या कार्य सिद्ध करने के लिए परिश्रम-पूर्वक उसमें लगना। (एन्डेवर) ५. दे० ‘उद्यम’।
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उद्योग  : पुं० [सं० उद्√युज्+घञ्] [कर्त्ता उद्योगी, वि० उद्युक्त, औद्योगिक] १. किसी काम में अच्छी तरह लगना। २. प्रयत्न। कोशिश। ३. परिश्रम। मेहनत। ४. कोई उद्देश्य या कार्य सिद्ध करने के लिए परिश्रम-पूर्वक उसमें लगना। (एन्डेवर) ५. दे० ‘उद्यम’।
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उद्योग-धंधे  : पुं० बहु० [सं० उद्योग+हिं० धंधा] व्यापार आदि के लिए कच्चे माल से लोक व्यवहार के लिए पक्के माल या सामान बनाना या ऐसे सामान बनानेवाले कारखाने। (इंन्डस्ट्री)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योग-धंधे  : पुं० बहु० [सं० उद्योग+हिं० धंधा] व्यापार आदि के लिए कच्चे माल से लोक व्यवहार के लिए पक्के माल या सामान बनाना या ऐसे सामान बनानेवाले कारखाने। (इंन्डस्ट्री)
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उद्योग-पति  : पुं० [ष० त०] कच्चे माल से पक्का माल तैयार करने वाले किसी बड़े कारखाने का मालिक। (इंडस्ट्रियलिस्ट)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योग-पति  : पुं० [ष० त०] कच्चे माल से पक्का माल तैयार करने वाले किसी बड़े कारखाने का मालिक। (इंडस्ट्रियलिस्ट)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योगालय  : पुं० [उद्योग-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ बिक्री के लिए बनाकर चीजें तैयार की जाती हो। कारखाना। (फैक्टरी)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योगालय  : पुं० [उद्योग-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ बिक्री के लिए बनाकर चीजें तैयार की जाती हो। कारखाना। (फैक्टरी)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योगी (गिन्)  : वि० [सं० उद्योग+इनि] [स्त्री० उद्योगिनी] १. उद्योग या प्रयत्न करनेवाला। २. किसी काम के लिए ठीक प्रकार से परिश्रम और प्रयत्न करनेवाला। अध्यवसायी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योगी (गिन्)  : वि० [सं० उद्योग+इनि] [स्त्री० उद्योगिनी] १. उद्योग या प्रयत्न करनेवाला। २. किसी काम के लिए ठीक प्रकार से परिश्रम और प्रयत्न करनेवाला। अध्यवसायी।
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उद्योगीकरण  : पुं० [सं० उद्योग+च्वि√कृ(करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्योगीकृत] किसी देश में उद्योग-धंधों का विस्तार करने और नये-नये कल कारखाने स्थापित करने का काम। (इन्डस्ट्रियलाइजेशन)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योगीकरण  : पुं० [सं० उद्योग+च्वि√कृ(करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्योगीकृत] किसी देश में उद्योग-धंधों का विस्तार करने और नये-नये कल कारखाने स्थापित करने का काम। (इन्डस्ट्रियलाइजेशन)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योत  : पुं० [सं० उद्द्योत] १. प्रकाश। २. चमक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योत  : पुं० [सं० उद्द्योत] १. प्रकाश। २. चमक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योतन  : पुं० [सं० उद्योतन] १. चमकने या चमकाने का कार्य। प्रकाशन। २. प्रकट करना। सामने लाना। ३. भाषा विज्ञान में वह तत्त्व जो किसी शब्द या प्रत्यय में कोई नया अर्थ का भाव लगाकर उसकी द्योतकता बढ़ाता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्योतन  : पुं० [सं० उद्योतन] १. चमकने या चमकाने का कार्य। प्रकाशन। २. प्रकट करना। सामने लाना। ३. भाषा विज्ञान में वह तत्त्व जो किसी शब्द या प्रत्यय में कोई नया अर्थ का भाव लगाकर उसकी द्योतकता बढ़ाता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्र  : पुं० [सं०√उन्द्(भिगोना)+रक्] ऊद-बिलाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्र  : पुं० [सं०√उन्द्(भिगोना)+रक्] ऊद-बिलाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्राव  : पुं० [सं० उद्√रू(शब्द)+घञ्] ऊँचा या घोर शब्द।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्राव  : पुं० [सं० उद्√रू(शब्द)+घञ्] ऊँचा या घोर शब्द।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्रिक्त  : वि० [सं० उद्√रिच् (अलग करना, मिलाना)+क्त] १. उद्रेक से युक्त किया हुआ। २. प्रमुख। विशिष्ट। ३. बहुत अधिक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्रिक्त  : वि० [सं० उद्√रिच् (अलग करना, मिलाना)+क्त] १. उद्रेक से युक्त किया हुआ। २. प्रमुख। विशिष्ट। ३. बहुत अधिक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्रेक  : पुं० [सं० उद्√रिच्+घञ्] [वि० उद्रिक्त] १. बहुत अधिक होने की अवस्था या भाव। अधिकता। प्रचुरता। २. प्रमुखता। ३. आरंभ। ४. रजोगुण। ५. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी वस्तु के किसी गुण या दोष के आगे कई गुणों या दोषों के मंद पड़ने का वर्णन होता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्रेक  : पुं० [सं० उद्√रिच्+घञ्] [वि० उद्रिक्त] १. बहुत अधिक होने की अवस्था या भाव। अधिकता। प्रचुरता। २. प्रमुखता। ३. आरंभ। ४. रजोगुण। ५. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी वस्तु के किसी गुण या दोष के आगे कई गुणों या दोषों के मंद पड़ने का वर्णन होता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वत्सर  : पुं० [सं० उद्-वत्सर, प्रा० स०,] वत्सर। वर्ष।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वत्सर  : पुं० [सं० उद्-वत्सर, प्रा० स०,] वत्सर। वर्ष।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वपन  : पुं० [सं० उद्√वप् (बोना काटना)+ल्युट्-अन] १. बाहर निकालना या फेंकना। २. हिलाकर गिराना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वपन  : पुं० [सं० उद्√वप् (बोना काटना)+ल्युट्-अन] १. बाहर निकालना या फेंकना। २. हिलाकर गिराना।
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उद्वर्त  : वि० [सं० उद्√वृत्(बरतना)+घञ्] १. बरतने के उपरांत जो अधिक या शेष बच रहे। २. जितना आवश्यक हो उससे अधिक। व्यय,लागत आदि की अपेक्षा मान, मूल्य आदि के विचार से अधिक (आय, मूल्यन आदि)। जैसे—उद्वर्त आय-व्ययिक-ऐसा आय-व्ययिक जिसमें व्यय की अपेक्षा आय अधिक दिखाई गयी हो। (सरप्लस बजट) ३. अतिरिक्त। ४. फालतू। पुं० मूल्य, मान आदि के विचार से जितना आवश्यक हो या साधारणतः जितना चाहिए, उसकी तुलना में होनेवाली अधिकता। अववर्त्त का विपर्याय। बढ़ती। बचती। (सरप्लस, सभी अर्थों या रूपों में)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वर्त  : वि० [सं० उद्√वृत्(बरतना)+घञ्] १. बरतने के उपरांत जो अधिक या शेष बच रहे। २. जितना आवश्यक हो उससे अधिक। व्यय,लागत आदि की अपेक्षा मान, मूल्य आदि के विचार से अधिक (आय, मूल्यन आदि)। जैसे—उद्वर्त आय-व्ययिक-ऐसा आय-व्ययिक जिसमें व्यय की अपेक्षा आय अधिक दिखाई गयी हो। (सरप्लस बजट) ३. अतिरिक्त। ४. फालतू। पुं० मूल्य, मान आदि के विचार से जितना आवश्यक हो या साधारणतः जितना चाहिए, उसकी तुलना में होनेवाली अधिकता। अववर्त्त का विपर्याय। बढ़ती। बचती। (सरप्लस, सभी अर्थों या रूपों में)।
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उद्वर्तक  : वि० [सं० उद्√वृत्+ण्वुल-अक] १. उठानेवाला। २. उबटन लगानेवाला। ३. उद्वर्क।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वर्तक  : वि० [सं० उद्√वृत्+ण्वुल-अक] १. उठानेवाला। २. उबटन लगानेवाला। ३. उद्वर्क।
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उद्वर्तन  : पुं० [सं० उद्√वृत्+ल्युट-अन] १. ऊपर उठाना। २. उबटन, लेप आदि लगाना। ३. उबटन लेप आदि के रूप में लगाई जानेवाली चीज। ४. वर्द्धन। वृद्धि।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वर्तन  : पुं० [सं० उद्√वृत्+ल्युट-अन] १. ऊपर उठाना। २. उबटन, लेप आदि लगाना। ३. उबटन लेप आदि के रूप में लगाई जानेवाली चीज। ४. वर्द्धन। वृद्धि।
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उद्वर्तित  : भू० कृ० [सं० उद्√वृत्+णिच्+क्त] १. ऊँचा किया या उठाया हुआ। २. जिससे उबटन या लेप लगाया गया हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वर्तित  : भू० कृ० [सं० उद्√वृत्+णिच्+क्त] १. ऊँचा किया या उठाया हुआ। २. जिससे उबटन या लेप लगाया गया हो।
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उद्वर्धन  : पुं० [सं० उद्√बुध् (बढ़ना)+ल्युट्-अन] १. वर्द्वन। वृद्धि। २. किसी चीज में से निकलकर फैलना या बढ़ना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वर्धन  : पुं० [सं० उद्√बुध् (बढ़ना)+ल्युट्-अन] १. वर्द्वन। वृद्धि। २. किसी चीज में से निकलकर फैलना या बढ़ना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वह  : पुं० [सं० उद्√वह् (ढोना, पहुँचाना)+अच्] १. पुत्र। २. सात वायुओं के अंतर्गत वह वायु जो तीसरे स्कंध पर स्थित मानी गई है। ३. उदान। वायु। ४. विवाह।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वह  : पुं० [सं० उद्√वह् (ढोना, पहुँचाना)+अच्] १. पुत्र। २. सात वायुओं के अंतर्गत वह वायु जो तीसरे स्कंध पर स्थित मानी गई है। ३. उदान। वायु। ४. विवाह।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वहन  : पुं० [सं० उद्√वह+ल्युट-अन] ऊपर की ओर उठाना, खींचना या ले जाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वहन  : पुं० [सं० उद्√वह+ल्युट-अन] ऊपर की ओर उठाना, खींचना या ले जाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वांत  : पुं० [सं० उद्√वम् उगलना)+क्त] कै। वमन। वि० १. वमन किया हुआ। २. उगला हुआ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वांत  : पुं० [सं० उद्√वम् उगलना)+क्त] कै। वमन। वि० १. वमन किया हुआ। २. उगला हुआ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वापन  : पुं० [सं० उद्√वा (गति)+णिच्, पुक्+ल्युट-अन] आग बुझाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वापन  : पुं० [सं० उद्√वा (गति)+णिच्, पुक्+ल्युट-अन] आग बुझाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वाष्पन  : पुं० [सं० उद्-वाष्प, प्रा० स०+णिचे+ल्युट-अन] =वाष्पीकरण।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वाष्पन  : पुं० [सं० उद्-वाष्प, प्रा० स०+णिचे+ल्युट-अन] =वाष्पीकरण।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वास  : पुं० [सं० उद्√वस् (बसना)+णिच्+घञ्] १. बंधन से मुक्त करना। स्वतंत्र करना। २. निर्वासन। ३. वध।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वास  : पुं० [सं० उद्√वस् (बसना)+णिच्+घञ्] १. बंधन से मुक्त करना। स्वतंत्र करना। २. निर्वासन। ३. वध।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उद्वासन  : पुं० [सं० उद्√वस्+णिच्+ल्युट-अन] १. कहीं से हटाना या दूर करना। २. किसी का निवास स्थान नष्ट करके उसे वहाँ से भगाना। (डिस्प्लेसमेंट) ३. उजाड़ना। ४. मार डालना। वध करना। ५. यज्ञ के पहले आसन बिछाने और यज्ञ-पात्र आदि स्वच्छ करके उन्हें यथा स्थान रखना। ६. प्रतिमा या मूर्ति स्थापित करने से पहले उसे रात भर ओषधि मिले हुए जल में रखना।
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उद्वासन  : पुं० [सं० उद्√वस्+णिच्+ल्युट-अन] १. कहीं से हटाना या दूर करना। २. किसी का निवास स्थान नष्ट करके उसे वहाँ से भगाना। (डिस्प्लेसमेंट) ३. उजाड़ना। ४. मार डालना। वध करना। ५. यज्ञ के पहले आसन बिछाने और यज्ञ-पात्र आदि स्वच्छ करके उन्हें यथा स्थान रखना। ६. प्रतिमा या मूर्ति स्थापित करने से पहले उसे रात भर ओषधि मिले हुए जल में रखना।
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उद्वासित  : वि० [सं० उद्√वस्+णिच्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसका निवास स्थान नष्ट कर दिया गया हो। २. (व्यक्ति) जिसे अपने निवास स्थान से मार-पीट या उजाड़कर भगा दिया गया हो। (डिस्प्लेस्ड)
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उद्वासित  : वि० [सं० उद्√वस्+णिच्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसका निवास स्थान नष्ट कर दिया गया हो। २. (व्यक्ति) जिसे अपने निवास स्थान से मार-पीट या उजाड़कर भगा दिया गया हो। (डिस्प्लेस्ड)
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उद्वाह  : पुं० [सं० उद्√वह् (ले जाना)+घञ्] १. ऊपर की ओर ले जाना। २. दूसरे स्थान पर या दूर ले जाना। जैसे—दुलहिन को उसके माता-पिता के घर ले जाना। ३. विवाह। ४. वायु के सात प्रकारों में से चौथा प्रकार।
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उद्वाह  : पुं० [सं० उद्√वह् (ले जाना)+घञ्] १. ऊपर की ओर ले जाना। २. दूसरे स्थान पर या दूर ले जाना। जैसे—दुलहिन को उसके माता-पिता के घर ले जाना। ३. विवाह। ४. वायु के सात प्रकारों में से चौथा प्रकार।
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उद्वाहन  : पुं० [सं० उद्√वह++णिच्+ल्युट] [भू० कृ० उद्वाहित] १. ऊपर की ओर उठाने या ले जाने का कार्य। २. दूर करना या हटाना। ३. एक बार जोते हुए खेत को फिर से जोतना। चास लगाना। ४. विवाह।
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उद्वाहन  : पुं० [सं० उद्√वह++णिच्+ल्युट] [भू० कृ० उद्वाहित] १. ऊपर की ओर उठाने या ले जाने का कार्य। २. दूर करना या हटाना। ३. एक बार जोते हुए खेत को फिर से जोतना। चास लगाना। ४. विवाह।
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उद्वाहिक  : वि० [सं० उद्वाह+ठक्-इक] उद्वाह-संबंधी।
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उद्वाहिक  : वि० [सं० उद्वाह+ठक्-इक] उद्वाह-संबंधी।
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उद्वाही (हिन्)  : वि० [सं० उद्√वह+णिनि] १. ऊपर की ओर ले जानेवाला। २. दूसरे स्थान पर या दूर ले जाने वाला। ३. विवाह करने के लिए उत्सुक। (व्यक्ति)।
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उद्वाही (हिन्)  : वि० [सं० उद्√वह+णिनि] १. ऊपर की ओर ले जानेवाला। २. दूसरे स्थान पर या दूर ले जाने वाला। ३. विवाह करने के लिए उत्सुक। (व्यक्ति)।
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उद्विग्न  : वि० [सं० उद्√विज् (भय, विचलित होना)+क्त] [भाव० उद्विग्नता] जो किसी आशंका, दुख आदि के कारण उद्वेग से युक्त या बहुत आकुल हो। चिंतित और विचलित। घबड़ाया हुआ।
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उद्विग्न  : वि० [सं० उद्√विज् (भय, विचलित होना)+क्त] [भाव० उद्विग्नता] जो किसी आशंका, दुख आदि के कारण उद्वेग से युक्त या बहुत आकुल हो। चिंतित और विचलित। घबड़ाया हुआ।
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उद्विग्नता  : स्त्री० [सं० उद्विग्न+तल्-टाप्] उद्विग्न होने की अवस्था या भाव।
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उद्विग्नता  : स्त्री० [सं० उद्विग्न+तल्-टाप्] उद्विग्न होने की अवस्था या भाव।
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उद्वेग  : पुं०=उद्वेग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उद्वेग  : पुं० [सं० उद्√विज्(भय़)+घञ्] १. तीव्र। वेग। तेज गति। २. चित्त की किसी वृत्ति की तीव्रता। आवेश। जोश। ३. विरह जन्य चिंता और दुःख जो साहित्य में एक संचारी भाव माना गया है। ४. किसी विकट या चिंताजनक घटना के कारण लोगों को होनेवाला वह भय जिसके फलस्वरूप लोग अपनी रक्षा के उपाय सोचने लगते हैं। (पैनिक)।
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उद्वेग  : पुं०=उद्वेग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उद्वेग  : पुं० [सं० उद्√विज्(भय़)+घञ्] १. तीव्र। वेग। तेज गति। २. चित्त की किसी वृत्ति की तीव्रता। आवेश। जोश। ३. विरह जन्य चिंता और दुःख जो साहित्य में एक संचारी भाव माना गया है। ४. किसी विकट या चिंताजनक घटना के कारण लोगों को होनेवाला वह भय जिसके फलस्वरूप लोग अपनी रक्षा के उपाय सोचने लगते हैं। (पैनिक)।
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उद्वेगी (गिन्)  : वि० [सं० उद्वेग+इनि] उद्विग्न।
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उद्वेगी (गिन्)  : वि० [सं० उद्वेग+इनि] उद्विग्न।
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उद्वेजक  : वि० [सं० उद्√विज्+णिच्+ण्वुल्-अक] उद्वेग उत्पन्न करने या उद्विग्न करनेवाला।
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उद्वेजक  : वि० [सं० उद्√विज्+णिच्+ण्वुल्-अक] उद्वेग उत्पन्न करने या उद्विग्न करनेवाला।
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उद्वेजन  : पुं० [सं० उद्√विज्+णिच्+ल्युट-अन] किसी के मन में कुछ या कोई उद्वेग उत्पन्न करना।
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उद्वेजन  : पुं० [सं० उद्√विज्+णिच्+ल्युट-अन] किसी के मन में कुछ या कोई उद्वेग उत्पन्न करना।
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उद्वेलन  : पुं० [सं० उद्√वेल (चलाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्वेलित] १. (नदी आदि के) बहुत अधिक भर जाने के कारण जल का छलककर इधर-उधर बहना। २. सीमा का अतिक्रमण या उल्लंघन करना।
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उद्वेलन  : पुं० [सं० उद्√वेल (चलाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्वेलित] १. (नदी आदि के) बहुत अधिक भर जाने के कारण जल का छलककर इधर-उधर बहना। २. सीमा का अतिक्रमण या उल्लंघन करना।
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उद्वेल्लित  : वि० [सं० उद्√वेल्ल (चलाना)+क्त] १. उछलता हुआ। २. छलकता या ऊपर से बहता हुआ।
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उद्वेल्लित  : वि० [सं० उद्√वेल्ल (चलाना)+क्त] १. उछलता हुआ। २. छलकता या ऊपर से बहता हुआ।
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उद्वेष्टन  : पुं० [सं० उद्√वेष्ट् (घेरना, लपेटना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्वेष्टित] १. घेरा। बाड़ा। २. घेरने की क्रिया या भाव। ३. नितंब में होनेवाली पीड़ा।
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उद्वेष्टन  : पुं० [सं० उद्√वेष्ट् (घेरना, लपेटना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० उद्वेष्टित] १. घेरा। बाड़ा। २. घेरने की क्रिया या भाव। ३. नितंब में होनेवाली पीड़ा।
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