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च  : हिन्दी वर्ण-माला का छठा व्यंजन जो उच्चारण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तालव्य, स्पर्शसंघर्षी अल्पप्राण और अघोष माना गया है।
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चइ  : पुं० [अनु०] महावतों की बोली का एक आदेश-सूचक शब्द जो हाथी को घूमने के लिए कहा जाता है।
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चइत  : पुं०=चैत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चइन  : पुं०=चैन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चई  : स्त्री० [सं० चव्य०] चव्य या चाव नामक वनस्पति।
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चउक  : पुं०=चौक।
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चउकी  : स्त्री०=चौकी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चउतरा  : पुं०=चबूतरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चउथा  : वि० पुं०=चौथा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चउदस  : स्त्री०=चौदस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चउदह  : स्त्री०=चौदह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चउपरि  : स्त्री०=चौपाल।
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चउपाई  : स्त्री०=चौपाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चउर  : पुं०=चँवर।
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चउरा  : पुं०=चौरा।
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चउरास्या  : पुं०=चौरासिया। उदाहरण–चउरास्या जे कै बसइ असेस।–नरपति नाल्ह।
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चउहट्ट  : पुं०=चौहट्ट।
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चउँहान  : पुं०=चौहान।
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चउहान  : पुं०=चौहान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चंक  : वि० [सं० चक्र] १. पूरा-पूरा। २. समूचा। सारा। समस्त। पुं० उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के किसानों का एक उत्सव जो फसल कटने पर होता है।
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चक  : पुं०[सं० चक्र] १. चक्रवाक। (पक्षी)। चकवा २. चक्र नामक अस्त्र। ३. चाक। पहिया। ४. चकई नाम का खिलौना। ५. चक्क (दे०)। ६. जमीन का लंबा-चौड़ा बड़ा टुकड़ा। पद-चकबंदी (देखें)। ७. छोटा गाँव। खेड़ा। ८. करघे की बैसर के कुलवाँसे से लटकती हुई रस्सियों से बँधा हुआ डंडा जिसके दोनों छोर पर से चकडोर नीचे की ओर जाती है। ९. ओर। तरफ। दिशा। उदाहरण–पवन विचार चक चक्रमन चित्त चढि भूतल अकास भ्रमै घाम जल सीत में।–केशव। १॰. अधिकता। ज्यादती। बाहुल्य। मुहावरा–चक बँधना=बराबर अधिकता या वृद्धि होना। ११. अधिकार। प्रभुत्व। मुहावरा–चक जमना या बैठना=पूरी तरह से अधिकार या प्रभुत्व स्थापित होना। १२. एक प्रकार का गहना जिसका आकार गोल और उभारदार होता हैं। (पंजाब)। वि० बहुत अधिक। भरपूर। यथेष्ठ। वि०=भौंचक। पुं० [सं०] साधु। वि० खल। दुष्ट।
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चक-डोर  : पुं० [हिं० चकई+डोर] १. चकई, लट्टू आदि घुमाने या नचाने की डोरी। २. जुलाहों के करघे की वह डोरी जिसमें बेसर बँधी रहती है।
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चकई  : स्त्री० [हिं० चकवा] मादा चकवा मादा सुरखाब। स्त्री० [सं० चक्र] काठ का एक प्रसिद्ध खिलौना जो लगी हुई डोरी पर ऊपर नीचे चढ़ता-उतरता है। वि० चक्र के आकार का। गोल। जैसे–चकई आडू या सेब।
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चकचकाना  : अ० [देश०] १. किसी तरल पदार्थ का किसी चीज में रस कर ऊपर या बाहर निकलना। २. भींग जाना। भींगना। अ०=चकना (चकित होना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकचकी  : स्त्री० [अनु०] करताल नाम का बाजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकचाना  : अ० [अनु०] अधिक प्रकाश में नेत्रों का चौधियाना।
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चकचाल  : स्त्री० [सं० चक्र+हिं० चाल] १. चक्र की गति या चाल. २. चक्कर। फेरा। ३. चक्र की तरह घूमने रहने का भाव. ४. पार्थिव आवागमन के चक्र में पड़े या फँसे होने की अवस्था।
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चकचाव  : पुं०=चकाचौंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चकचून  : वि० [सं० चक्र-चूर्ण] १. चूर किया हुआ। चकनाचूर। अच्छी तरह पीसकर बारीक किया हुआ। २. अच्छी तरह तोड़ा-फोड़ा या चकनाचूर किया हुआ। चक+चूर-वि०=चकचून।
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चकचूरना  : स० [हिं० चक+चूरन] १. बहुत महीन पीसना या छोटे-छोटे टुकड़े करना। २. चकनाचूर करना।
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चकचोह  : स्त्री०=चुहल।
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चकचोहा  : वि० [हिं० चक(-भरपूर)+चोआ(-रस)] [स्त्री० चकचोही] रस से खूब भरा हुआ। २. चिकना-चुपड़ा। स्त्री० [अनु०] हँसी-ठट्ठा। चुहल।
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चकचौंध  : स्त्री०=चकाचौंध।
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चकचौंधना  : अ० [सं० चक्षु और अंध] चकाचौंध होना। स० चकाचौंध उत्पन्न करना।
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चकचौंह  : स्त्री०=काचौंध।
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चकचौहना  : अ० [हिं० चक+चौहना] चाह भरी दृष्टि से देखना। प्रेम-पूर्वक देखना।
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चकचौहाँ  : वि० [हिं० चकचौहना] १. जो नेत्रों को चौंधिया देता हो। २. बहुत ही प्रकाशपूर्ण या चमकीला। ३. सुंदर। सुहावना।
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चकड़वा  : पुं०=चकरबा।
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चकडोल  : स्त्री० [सं० चक्र-दोला] एक प्रकार की पुरानी चाल की पालकी। (राज०) उदाहरण–चकडोल लगै इणिं भाँति सुँचाली।-प्रिथीराज।
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चकत  : स्त्री० [हिं० चकी=दाँतों की पकड़] दाँतों से कसकर पकड़ने की क्रिया या भाव। दाँतों की पकड़। मुहावरा–चकत मारना=दाँतों से पकड़कर मांस आदि नोचना।
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चकता  : पुं० [सं० चक्रवत्ता] १. रक्त विकार आदि के कारण पड़ा हुआ शरीर पर बड़ा गोल दाग। चमडे का उभरा हुआ धब्बा वा दाग। ददोरा। जैसे–कोढ़ या दाद होने पर शरीर में जगह-जगह चकत्ते पड़ जाते हैं। २. शरीर में गड़े या गढ़ाये हुए दाँतों का चिन्ह्र या निशान। जैसे–कुत्ते या बन्दर के काटने से शरीर में पड़नेवाला चकत्ता। मुहावरा–चकत्ता भरना या मारना=दाँतों से काटकर मांस निकाल लेना। पुं० [तु० चगताई] १. मुगल या तातार अमीर चगताई खाँ जिसके वंश में बाबर, अकबर आदि का मुगल बादशाह हुए थे। २. उक्त के वंश का कोई व्यक्ति। ३. बहुत बड़ा राजा। महाराजा।
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चकताई  : पुं०=चकत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकती  : स्त्री० [सं० चक्रवत] १. कपड़े, चमड़े, धातु आदि का फाड़ या काटकर बनाया हुआ गोल या चौकोर टुकड़ा। २. उक्त प्रकार का कटा हुआ वह टुकड़ा जो वैसी किसी दूसरी ही चीज की कटी या टूटी हुई जगह पर लगाया जाता है। जैसे–कपड़े या परात में लगाई हुई चकती। मुहावरा–आसमान या बादल में चकती लगाना।=(क) अनहोनी या असंभव काम या बात करने का प्रयास करना। (ख) बहुत बढ़-चढ़कर और अपनी शक्ति के बाहर की बातें करना। ३. दुबें भेंड़े की गोल चक्राकार दुम।
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चकदार  : पुं० [हिं० चक+फा० दार (प्रत्यय)] वह जो किसी दूसरे की जमीन पर कुआँ बनाकर उस जमीन का लगान देता है।
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चकना  : अ० [सं० चक्र=भ्रांत] १. चकित या विस्मित होना। भौ-चक्का होना। चकराना। २. भयभीत या सशंकित होना। ३. चौंकना।
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चकनाचूर  : वि० [हिं० चक=भरपूर+चूर] १. जिसके टूट-फूटकर बहुत से छोटे-छोटे टुकड़े हो गये हों। चूर-चूर। चूर्णित। २. लाक्षणिक रूप में, बहुत अधिक थका हुआ। बहुत शिथिल और शांत।
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चकपक  : वि० [सं० चक्र=भ्रांत] चकित। भौंचक्का। हक्का-बक्का। स्त्री० चकित या विस्मित होने की अवस्था या भाव।
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चकपकाना  : अ० [सं० चक्र-भ्रांत] १. बहुत अधिक चकित या विस्मित होना। भौंचक्का या हक्का-बक्का होना। २. भय या शंका से विकल होना। ३. चौंकना।
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चकफेरी  : स्त्री० [सं० चक्र, हिं० चक+हिं० फेरी] किसी वृत्त या मंडल के चारों ओर घूमने या फिरने की क्रिया या भाव। परिक्रमा। भँवरी। क्रि० प्र०-करना।–खाना।–फिरना।–लेना।
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चकबँट  : स्त्री० [हिं० चक+बाँटना] बहुत से खेतों को कुछ आदमियों में बाँटने का वह प्रकार जिसमें कई खेतों के चक या समूह प्रत्येक हिस्सेदार को दिये जाते हैं।
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चकबंदी  : स्त्री० [हिं० चक+फा० बंदी] १. भूमि के बहुत बड़े खंड को छोटे-छोटे चकों या भागों में बाँटने की क्रिया या भाव। २. छोटे-छोटे खेतों को एक में मिलाकर उनके बड़े-बड़े चक या विभाग बनाने की क्रिया या भाव। (कन्सोलिडेशन आफ होल्डिंग्स)।
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चकमक  : पुं० [तु० चकमाक] एक प्रकार का आग्नेय कड़ा पत्थर-जिस पर चोट पड़ने से आग निकलती है। (फ्लिन्ट)।
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चकमा  : पुं० [सं० चक्र=भ्रांत] १. ऐसा धोखा या भुलावा जो किसी का ध्यान किसी दूसरी ओर आकृष्ट करके दिया जाय। किसी का ध्यान दूसरी ओर रखकर उसे दिया जानेवाला धोखा। क्रि० प्र०-खाना।-देना। २. लड़कों का एक प्रकार का खेल। पुं० [?] एक प्रकार का बंदर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकमाक  : पुं०=चकमक।
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चकमाकी  : वि० [तु० चकमक] चकमक का। जिसमें चकमक हो। स्त्री० पुरानी चाल की एक प्रकार की बंदूक जो चकमक पत्थर के योग से गोली छोड़ती थी।
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चकर  : पुं० [सं० चक्र] चक्रवाक पक्षी। चकवा। पुं० चक्कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकर-मकर  : पुं० [सं० चक्र+फा० मकर] छल-कपट की बात। धोखेबाजी।
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चकरबा  : पुं० [सं० चक्रव्यूह] १. ऐसी स्थिति जिसमें यह न सूझे कि क्या करना चाहिए। असमंजस की ओर विकट अवस्था। २. व्यर्थ का झगड़ा या बखेड़ा।
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चकरसी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़ जो बंगाल और आसाम में होता है। इसके हीर की चमकीली और मजबूत लकड़ी मेज कुरसी आदि सामान बनाने के काम में आती है।
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चकरा  : पुं० [हिं० चक्कर] पानी का भँवर। वि० [स्त्री०चकरी] चारों ओर घूमने या चक्कर खानेवाला। वि० [सं० चकरी] चौड़ा। विस्तृत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चकला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकराना  : अ० [सं० चक्र] १. सिर का चक्कर खाना। सिर घूमना। २. किसी प्रकार के चक्कर या फेर में पड़ना। ३. चारों ओर या इधर-उधर घूमना। भ्रांत होना। भटकना। ४. चकित होना। स० १. चक्कर देना या खिलाना। २. किसी को चक्कर या फेर में डालना। चकित या स्तंभित करना।
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चकरानी  : स्त्री० [फा० चाकर का स्त्री०]=चाकरानी (दासी)।
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चकरिया  : वि० [फा० चाकरी+हा (प्रत्यय)] नौकरी-चाकरी करनेवाला। पुं० टहलुआ। सेवक।
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चकरिहा  : वि०=चकरिया।
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चकरी  : स्त्री० [सं० चक्री](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. चक्की। २. चक्की का पाट। ३. चक्की के पाट की तरह की कोई गोलाकार चिपटी चीज। ४. लड़कों के खेलने का चकई नाम का खिलौना। ५. चारों ओर भटकानेवाला चक्कर या फेर। भ्रांति। उदाहरण–यह तौ सूर तिन्हैं लै सौपौं जिनके मन चकरी।-सूर।
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चकरी-गिरह  : स्त्री० [जहाजी] अर्गल में लगी हुई रस्सी की गाँठ जो उसे रोके रहती है।(लश०)
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चकल  : पुं० [हिं० चक्का](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. किसी पौधे को दूसरी जगह लगाने या खोदकर निकालने की क्रिया या भाव। २. वह मिट्टी जो उक्त प्रकार से पौधे को उखाड़कर दूसरी जगह ले जाने पर उसकी जड़ में लिपटी रहती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकलई  : स्त्री० [हिं० चकला] चकला (चौडा या सपाट) होने की अवस्था या भाव। विस्तार।
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चकला  : पुं० [सं० चक्र, हिं० चक+ला (प्रत्यय)] १. काठ, पत्थर, लोहे आदि का गोलाकार चिकना खंड जिस पर पूरी या रोटी बेली जाती है। २. वह भू-भाग जो एक ही तल में दूर तक फैला हो और जिसमें कई गाँव या बस्तियाँ हों। पद-चकलेदार (देखें)। ३. व्यभिचार करानेवाली वेश्याओं की बस्ती या मुहल्ला। ४. चक्की। वि० [स्त्री० चकली] अधिक विस्तारवाला। चौड़ा। जैसे–चकला मैदान।
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चकलाना  : स० [हिं० चकल] पौधे को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगाने के लिए मिट्टी समेत उखाड़ना। चकल उठाना। स० [सं० चकला] चकला अर्थात् चौड़ा या विस्तृत करना।
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चकली  : स्त्री० [सं० चक्र, हिं० चक्र] १. छोटा चकला जिस पर चंदन आदि घिसते हैं। चौकी हिरसा। २. गड़ारी। घिरनी।
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चकलेदार  : पुं० [हिं० चकला+फा० दार] वह अधिकारी जो किसी चकले अर्थात् विस्तृत भू-भाग की मालगुजारी आदि वसूल करता और किसी की ओर से वहाँ की व्यवस्था तथा शासन करता था।
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चकल्लस  : स्त्री० [?] १. झगड़ा-बखेड़ा। २. मित्रों में होनेवाली हँसी-मजाक या हास-परिहास।
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चकवक  : पुं०=चकमक।
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चकवँड़  : पुं० [सं० चक्रमर्द] एक प्रकार का जंगली बरसाती पौधा जिसकी पत्तियाँ, डंठल या तने की ओर नुकीली और सिरे की ओर गोलाई लिये हुए चौड़ी होती हैं। पमार। पवाड़। पुं० [सं० चक्र] मिट्टी का वह छोटा पात्र जिसमें से थोड़ा-थोड़ा हाथ से जल निकालकर चक्क पर चढ़े हुए पात्र को कुम्हार गीला तथा चिकना करता है।
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चँकवर  : पुं० दे० ‘चकवँड़’।
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चकवस्त  : पुं० [फा०] १. चकों में बँटा हुआ भूमि खंड। २. कश्मीरी ब्राह्मणों का एक भेद या वर्ग।
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चकवा  : पुं० [सं० चक्रवाक, पा० चक्कवाको, प्रा० चक्कवाअ, चकाअ, गु० चको, सि० चकुओ, पं० चक्का, सि० सक्का, ने० चखेवा; मरा० चकवा] [स्त्री० चकई] १. एक प्रसिद्ध जल-पक्षी जिसके संबंध में यह कहा जाता है कि यह रात को अपने जोड़े से अलग हो जाता है। सुरखाब। २. रहस्य संप्रदाय में, मन। पुं० [सं० चक्र] १. एक प्रकार का ऊँचा पेड़ जिसके हीर की लकड़ी बहुत मजबूत और छाल कुछ स्याही लिये सफेद वा भूरी होती है। इसके पत्ते चमड़ा सिझाने के काम में आते हैं। २. जुलाहों की चरखी में लगी हुई बाँस की छड़ी। ३. हाथ में दबा-दबाकर बढा़ई हुई आटे की लोई।
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चकवाना  : अ०=चकपकाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकवार  : पुं० दे० ‘कछुआ’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकवाह  : पुं०=चकवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकवी  : स्त्री०=चकई।
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चकवै  : पुं० १. दे० ‘चक्रवर्ती’। २. दे० ‘चकोर’।
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चकसेनी  : स्त्री० [देश०] काकजंघा।
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चकहा  : पुं० [सं० चक्र] गाड़ी आदि का पहिया। पुं०=चकवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चका  : पुं० [सं० चक्र] १. पहिया। २. चक्क।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चकवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चका-चौंबंद  : वि०=चाक-चौबंद।
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चकाकेवल  : स्त्री० [हिं० चकवा, चक्का] काले रंग की मिट्टी जो सूखने पर चिटक जाती और पानी से लसदार होती है। यह कठिनता से जोती जाती है।
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चकाचक  : स्त्री० [अनु०] तलवार आदि के लगातार शरीर पर पड़ने का शब्द। क्रि० वि० [अनु०] अच्छी तरह से। अधिक मात्रा में। जैसे–चकाचक खाया था। वि० १. चटकीला। २. मजेदार। ३. रस आदि में डूबा हुआ। तर। तराबोर।
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चकाचौंध  : स्त्री० [सं० चक्र=चमकना+चौ=चारों ओर+अंध] १. किसी वस्तु के अत्यधिक प्रकाशित होने की वह स्थिति जिसमें नेत्र अधिक प्रकाश के कारण उस वस्तु को देख न पाते हों और जल्दी-जल्दी खुलने तथा बंद होने (झपकने) लगते हों। २. उक्त प्रकार की वस्तुओं के देखने से आँखों पर होनेवाला परिणाम। क्रि० प्र०=लगना।-होना।
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चकाचौंधी  : स्त्री०=चकाचौंध।
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चकाड़ूँ  : पुं० [हिं० चक+आँड़] चिपटा अँडकोश।
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चकातरी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।
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चकाना  : अ०- १. =चकपकाना। २. =चकराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकाबू  : पुं० [सं० चक्रव्यूह] १. प्राचीन काल में युद्ध के समय किसी वस्तु या व्यक्ति को सुरक्षित रखने के लिए उसके चारों ओर खड़ा किया जानेवाला सैनिक व्यूह। २. भूल-भुलैया। (दे०)।
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चकार  : पुं० [सं० च+कार] १. वर्णमाला में छठा व्यंजन वर्ण जो च है। २. मुँह से निकलने वाला किसी प्रकार का शब्द। जैसे–उसके मुँह से चकार तक न निकला। पुं० [हिं० चोर का अनु०] चोर या उचक्का। जैसे–चाई-चकार चोर और नटखट चोरे बदे।-तेगअली।
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चकावल  : स्त्री० [देश०] घोड़े के अगले पैर में गामचे की हड्डी का उभार।
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चकासना  : अ०=चमकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चकित  : वि० [सं०√चक्र (भ्रांत होना)+क्त] जो अप्रत्याशित या अदभुत कार्य, बात या व्यवहार देखकर विकल या विस्मित, सशंकित या स्तब्ध हो गया हो। आश्चर्य में आया या पड़ा हुआ।
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चकितवंत  : वि०=चकित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चकिता  : स्त्री० [सं० चकित+टाप्] एक प्रकार का वर्णवृत्त।
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चकिताई  : स्त्री० [हिं० चकित] चकित होने की अवस्था या भाव।
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चकिया  : स्त्री०[सं० चक्रिका] किसी चीज का गोल या चौकोर छोटा टुकड़ा। जैसे–पत्थर की चकिया।
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चकुंदा  : पुं० [सं० चक्रमर्द] चकवँड़ (दे०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चंकुर  : पुं० [सं०√चंक् (घूमना)+उरच्] १. रथ। यान। २. पेड़। वृक्ष।
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चकुरी  : स्त्री० [सं० चक्र] मिट्टी की छोटी हाँड़ी।
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चकुला  : पुं० [देश०] चिडि़या का बच्चा। चेंटुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकुलिया  : स्त्री० [सं० चक्रकुल्या] एक प्रकार का पौधा।
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चकृत  : वि०=चकित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकेठ  : पुं० [सं० चक्र-यष्टि] वह डंडा जिससे कुम्हार चाक घुमाते हैं।
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चकेड़ी  : स्त्री० [सं० चक्रभाण्डिका, प्रा० चक्कहंडिया] चकवँड़ (दे०)।
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चकेव  : पुं०=चक्रवाक (चकवा पक्षी) उदाहरण–कुच-जुग चकेव चरइ गंगाधारे।-विद्यापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकोट  : पुं० [हिं० चकोटना] १.चकोटने की क्रिया या भाव। २. गाड़ी के पहिए से जमीन पर पड़नेवाली लकीर।
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चकोटना  : स० [हिं० चकोटी] चिकोटी काटना। चुटकी से मांस नोचना।
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चकोतरा  : पुं० [सं० चक्र=गोला] १. एक प्रकार का नीबू की जाति का पेड़ जिसमें खट-मीठे गोल फल लगते हैं। २. उक्त पेड़ का फल जो प्रायः खरबूजे की तरह बड़ा होता है।
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चकोता  : पुं० [हिं० चकत्ता] एक प्रकार का रोग जिसमें घुटने के नीचे छोटी-छोटी फुंसियाँ निकल आती है।
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चकोर  : पुं० [सं०√चक् (तृप्त होना)+ओरन्] [स्त्री० चकोरी] १. एक प्रकार का बड़ा तीतर जो नैपाल, पंजाब और अफगानिस्तान के पहाड़ी जंगलों में मिलता है। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः सात भगण, एक गुरु और अंत में एक लघु होता है। यह एक प्रकार का सवैया है।
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चकोह  : पुं० [सं० चक्रवाह] पानी का भँवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकौटा  : पुं० [देश०] १. भूमि की लगान का एक पुराना प्रकार। २. ऋण चुकाने के बदले में दिया जानेवाला पशु। मुलवन।
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चकौंड़  : पुं०=चकवँड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चकौंध  : स्त्री०=चकाचौंध।
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चक्क  : पुं० [सं०√चक्क (पीड़ा होना)+अप्] पीड़ा। दर्द। वि० भर-पूर। यथेष्ट। जैसे–चक्क माल। पुं० [सं० चक्र] १. चक्रवाक पक्षी। चकवा। २. कुम्हार का चाक। ३. ओर। तरफ। दिशा। ४. दे० ‘चक्र’।
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चक्कर  : पुं० [सं० चक्र] १. लकड़ी, लोहे आदि का गोलाकार ढाँचा जो छड़ों तीलियों आदि द्वारा चक्रनाभि पर कसा रहता है और किसी अक्ष या धुरे को केन्द्र बनाकर उसके चारों ओर घूमता तथा यान, रथ आदि को आगे खींचता चलता है। २. उक्त आकार की कोई घूमनेवाली वस्तु। चाक। जैसे–(क) अतिशबाजी का चक्कर। (ख) पानी का चक्कर (भँवर)। (ग) सुदर्शन चक्कर। ३. कोई गोलाकार आकृति। मंडल। घेरा। ४. गोल सड़क या रास्ता। ५. किसी गोलाकार मार्ग के किसी बिन्दु से चलकर तथा उसके चारों ओर घूमकर फिर उसी बिन्दु पर पहुँचने की क्रिया या भाव। गोलाई में घूमना। मुहावरा–चक्कर काटना=किसी चीज के चारों ओर घूमना। मँडराना। ६. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना और फिर वहाँ से लौट कर आना। जैसे–(क) आज मुझे शहर के चार चक्कर लगाने पड़े हैं। (ख) मैं उनके घर कई चक्कर लगा आया पर वे मिले नहीं। क्रि० प्र०=मारना।–लगाना। ७. रास्ते का घुमाव-फिराव। जैसे–इस रास्ते में बहुत चक्कर पड़ेगा। ८. कोई ऐसी कठिन, पेचीली या झंझट की बात या समस्या जिससे आदमी परेशान या दुःखी होता है। जैसे–कचहरी के चक्कर में इस भले आदमी को व्यर्थ फँसाया गया है। ९. धोखा। भुलावा। मुहावरा–(किसी के) चक्कर में आना=किसी के फेर में फँसना। धोखा खाना। (किसी को) चक्कर में डालना=(क) किसी ऐसे कठिन काम में किसी को फँसाना कि वह परेशान हो जाय। (ख) चकित करना। १॰. ऐसी असमंजस की स्थिति जिसमें मनुष्य कुछ सोच या निश्चित न कर पाता हो। ११. पीड़ा, रोग आदि के कारण मस्तिष्क में होनेवाला एक विकार जिसमें व्यक्ति के चारों ओर सामने की चीजें घूमने लगती हैं। घुमटा।
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चक्कल  : वि० [सं०√चक्क (पीड़ित होना)+अलन्] गोल। वर्तुल।
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चक्कवइ  : वि०=चक्रवर्ती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चक्कवत  : पुं०=चक्रवर्ती (राजा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चक्कवा  : पुं०=चकवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चक्कवै  : वि०=चक्रवर्ती। उदाहरण–अइस चक्कवै राजा चहूँ खंड भैहोई।-जायसी।
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चक्कस  : पुं० [फा० चकस] बुलबुल, बाज आदि पक्षियों के बैठने का अड्डा जो लोहे के छड़ का बना होता है।
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चक्का  : पुं. [सं० चक्रम्, प्रा० पा० चक्क, बँ० गु० मरा० चाक, उ० चक० पं० चक्क, सिं० चकु, ने० चाको] [स्त्री० अल्पा० चक्की] १.गाड़ी, रथ आदि का पहिया। चाक। २. पहिये की तरह की कोई गोलाकार चीज। ३. किसी चीज का गोलाकार जमा हुआ टुकड़ा। चक्का। जैसे–कत्थे या दही का चक्का। ४. ईंट, पत्थर आदि का टुकड़ा जो प्रायः फेंककर मारा जाता है। ५. ईंट, पत्थर के टुकडों आदि का क्रम से और सजाकर लगाया हुआ ढेर। थाक।
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चक्की  : स्त्री० [सं० चक्री, प्रा० चक्की] १. आटा पीसने, दाल दलने आदि का वह प्रसिद्ध यंत्र जो एक दूसरे पर रखे हुए पत्थर के दो गोलाकार टुकड़ों के रूप में होता है और जिनमें से ऊपरवाले पत्थर के घूमने से उसके नीचे डाली हुई चीजें पिसती या दली जाती है। जाँता। क्रि० प्र०-चलाना।-पीसना। मुहावरा–चक्की पीसना=(क) चक्की में डालकर गेहूँ आदि पीसना। (ख) बहुत अधिक परिश्रम का काम निरंतर करते रहना। पद-चक्की का पाट=चक्की के दोनों पत्थरों में से हर एक। चक्की की मानी=(क) चक्की के नीचे के पाट के बीच में गड़ी हुई वह खूँटी जिस पर ऊपर का पाट घूमता है। (ख) ध्रुवतारा। चलती चक्की-जगत्। संसार। जैसे–चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।-कबीर। स्त्री० [सं० चक्रिका] १. पैर के घुटने की गोल हड्डी। २. ऊँटों के घुटनों पर का गोल हड्डा। चाकी। बिजली।
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चक्की रहा  : पुं० [हिं० चक्की+रहाना] चक्की को टाँकी से कूटकर खुरदरी करनेवाला कारीगर।
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चक्कू  : पुं०=चाकू।
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चक्खी  : स्त्री० [हिं० चखना] १. स्वाद के लिए चखी अर्थात् थोड़ी-थोड़ी खाई जानेवाली चटपटी और नमकीन चीज। चाट। जैसे–कचालू गोलगप्पा आदि। २. कोई नशे की चीज पीने के समय या उसके बाद मुँह का स्वाद बदलने के लिए खाई जानेवाली चटपटी या नमकीन चीज। ३. बटेरों को दाना चुगाने की क्रिया।
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चक्र  : पुं० [सं०√क-(करना)+क, नि० द्वित्व] १, गाड़ी का वर्त्तुलाकार पहिया। विशेष दे० ‘चक्कर’। २. कुम्हार का चाक। ३. कोई वर्त्तुलाकार चीज। ४. छोटे पहिए के आकार का एक प्राचीन अस्त्र। ५. चक्की। ६. कोल्हू। ७. पानी का भँवर। ८. हवा का बवंडर। चक्रवात। ९. दल। समुदाय। १॰. एक प्रकार का सैनिक व्यूह। ११. गाँवों, शहरों का समूह। मंडल। १२. मंडलाकार घेरा। जैसे–राशि-चक्र। १३. ऐसे गोल या चौकोर खाने जो रेखाओं आदि से घिरे हों। जैसे–कुंडली चक्र। १४. सामुद्रिक में हाथ की वह रेखा जो गोलाई में घूमी हो। १५. समय की वह अवधि जिसमें कुछ निश्चित प्रकार की घटनाएँ आदि क्रमशः घटती अथवा अवस्थाएं बदलती हों और फिर उतने ही समय में जिनकी पुनरावृत्ति होती हो। (साइकिल) जैसे–अर्थशास्त्र में व्यापार चक्र। (ट्रेड साइकिल)। १६. फेरा चक्कर। १७. चकवा। १८. तगर का फूल। १९. योग के अनुसार मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर आदि शरीरस्थ कमल या पद्य। २॰. एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक फैला हुआ प्रदेश। आसमुद्रांत भूमि। २१. दिशा। प्रातं। २२. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक भगण, तीन नगण और अंत में लघु, गुरु होते हैं। २३. धोखा। २४. (क) शरीर विज्ञान या दैहिकी के अनुसार जीवधारियों के शरीर के अन्दर की वह रचना जो तंतु-जाल के रूप में होती और कुछ विशिष्ट प्रक्रियाएँ करती हैं। (प्लेक्सस) (ख) योग शास्त्र के अनुसार शरीर के उक्त विशिष्ट अंग जो आधुनिक विज्ञान वेत्ताओं के अनुसार कुछ विशिष्ट जीवनरक्षिणी और विकासकारिणी गिल्टियों के आस-पास पड़ते हैं।(प्लेक्सस)। विशेष-पहले इनकी संख्या ६ मानी गई थी जिससे ‘षट्-चक्र’ (दे०) पद बना, पर आगे चलकर हठ योग में जब इनकी संख्या ८. मानी गई जिससे ये अष्टचक्र या अष्टकमल (दे०) कहलाने लगे। और भी आगे चलकर कुछ लोगों ने इनमें ‘ललना-चक्र’ नामक नवाँ और ‘गुरु-चक्र’ नामक दसवाँ चक्र भी बढ़ा दिया है। २५. अपना संघटन दृढ़ करने के लिए राजनीतिक, सामाजिक आदि कार्य करनेवालों का किसी स्थान पर एकत्र होकर विचार-विनिमय प्रदर्शन करना। जमाव। (रैली)। २६. गुप्त रूप से कहीं आड़ में रहकर की जानेवाली कारवाई। अभिसंधि। जैसे–यह सारा चक्र आप ही का चलाया हुआ है। २७. (संख्या के विचार से) बंदूक, राइफल आदि से गोली चलाने की क्रिया। (राउण्ड) जैसे–पुलिस ने चार चक्र गोलियाँ चलाई। २८. धातु का एक विशेष प्रकार का टुकड़ा जो प्रायः सैनिकों को कोई वीरता-पूर्ण काम करने पर पदक या तमगे के रूप में दिया जाता है। जैसे–महावीर चक्र, वीर चक्र आदि।
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चक्र-कारक  : पुं० [ष० त० ] १. नखी नामक गंध द्रव्य। २. हाथ के नाखून।
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चक्र-कुल्या  : स्त्री० [ष० त०] चक्रपर्णी लता। पिठवन।
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चक्र-क्रम  : पुं० [उपमि० स०] कुछ विशिष्ट घटनाओं का कई विशिष्ट अवसरों पर क्रमशः तथा बराबर रहने का क्रम। चक्र की तरह बार-बार घूमकर आनेवाला क्रम। (साइक्लिक आर्डर) जैसे–गरमी, बरसात और सरदी का चक्र क्रम।
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चक्र-गज  : पुं० [स० त०] चकवँड़।
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चक्र-गति  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी केन्द्र के चारों ओर अथवा अपने ही अक्ष पर घूमने की क्रिया या भाव० २. दे० ‘चक्र क्रम’।
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चक्र-गर्त्त  : पुं०=चक्र-तीर्थ।
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चक्र-गुच्छ  : पुं० [स० त०] अशोक (वृक्ष)।
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चक्र-गोप्ता(प्तृ)  : पुं० [ष० त०] १. सेनापति। २. राज्य का रक्षक अधिकारी। ३. रथ और उसके चक्र आदि की रक्षा करनेवाला योद्धा।
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चक्र-चर  : वि० [सं० चक्र√चर् (चलना)+ट, उप० स०] चक्कर या चक्र में चलनेवाला। पुं० तेली।
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चक्र-जीवक  : पुं० [सं० चक्र√जीव् (जीना)+ण्वुल्-अक, उप० स० त०] कुम्हार।
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चक्र-जीवी(विन्)  : पुं० [सं० चक्र√जीव्+णिनि, उप० स०] = चक्रजीवक।
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चक्र-ताल  : पुं० [मध्य० स०] संगीत में एक प्रकार का चौदह ताला ताल।
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चक्र-तुंड  : पुं० [ब० स०] गोल मुँहवाली एक प्रकार की मछली।
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चक्र-दंड  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार की कसरत जिसमें जमीन पर दंड करके झट दोनों पैर समेट लेते हैं और फिर दाहिने पैर को दाहिनी ओर और बाएँ पैर को बाई ओर चक्कर देते हुए पेट के पास लाते हैं।
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चक्र-दंती  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. दंती वृक्ष। २. जमाल गोटा।
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चक्र-दंष्ट्र  : पुं० [ब० स०] सूअर। शूकर।
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चक्र-नख  : पुं० [ब० स०] व्याघ्र नख नामक ओषधि। बघनखा।
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चक्र-नदी  : स्त्री० [मध्य० स०] गंडकी नदी।
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चक्र-नाभि  : स्त्री० [ष० त०] पहिये का वह मध्य भाग जिसके बीच में से अक्ष या धुरा होकर जाता है।
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चक्र-नाम  : पुं० [ब० स०] १. माक्षिक धातु। सोनामक्खी। २. चकवा या चक्रवाक पक्षी।
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चक्र-नायक  : पुं० [ष० त०] व्याघ्र नख नाम की ओषधि।
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चक्र-नेमि  : स्त्री० [ष० त० ] पहिये का घेरा या परिधि।
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चक्र-पर्णी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] पिठवन।
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चक्र-पाणि  : पुं० [ब० स०] हाथ में चक्र धारण करनेवाले विष्णु।
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चक्र-पाद  : पुं० [ब० स०] १. गाड़ी। रथ। २. हाथी।
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चक्र-पादक  : पुं० चक्रपाद (दे०)।
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चक्र-पानि  : पुं०=चक्रपाणि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चक्र-पाल  : पुं० [सं० चक्र√पाल् (रक्षा)+णिच्, उप० स०] १. वह जो चक्र धारण करे। २. किसी प्रदेश का शासक या सूबेदार। ३. गोल आकृति। वृत्त। ४. संगीत में शुद्ध राग का एक भेद।
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चक्र-पूजा  : स्त्री० [स० त०] १. तांत्रिकों की एक प्रकार की पूजा-विधि जिसमें बहुत से उपासक एक चक्र या मंडल के रूप में बैठकर तांत्रिक क्रियाएँ करते हैं। २. दे० ‘चरकपूजा’।
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चक्र-फल  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन अस्त्र जिसका फल गोलाकार होता था।
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चक्र-बंध  : पुं० [ब० स०] कविता-रचना का एक प्रकार जिसमें उसके शब्द खानों में भरे जाते हैं।
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चक्र-बंधु  : पुं० [ष० त० ] १. सूर्य। २. अँगूठी। ३. समूह।
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चक्र-बांधव  : पुं० [ष० त० ] चक्र-बंधु (दे०)।
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चक्र-भृत्  : पुं० [सं० चक्र√भृ (धारण)+क्विप्, उप० स०] १. चक्र नामक अस्त्र धारण करनेवाला व्यक्ति। २. विष्णु।
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चक्र-भेदिनी  : स्त्री० [सं० चक्र√भिद् (विदारण)√णिनि-ङीष्,उप० स०] रात्रि। रात।
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चक्र-भोग  : पुं० [ष० त०] ज्योतिष में ग्रह की वह गति जिसके अनुसार वह एक स्थान से चलकर फिर उसी स्थान पर पहुँचता है।
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चक्र-भ्रम  : पुं० [सं० चक्र√भ्रम् (घूमना)+अच्, उप० स०] खराद।
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चक्र-भ्रमर  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का नृत्य।
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चक्र-मंडल  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का नृत्य जिसमें नाचनेवाला किसी केन्द्र के चारों ओर नाचता हुआ घूमता है।
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चक्र-मंडली(लिन्)  : पुं० [सं० चक्र-मंडल, उपमि० स०+इनि] अजगर साँप की एक जाति।
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चक्र-मर्द  : पुं० [सं० चक्र√मृद् (मर्दन)+अण्, उप० स०] चकवँड़।
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चक्र-मीमांसा  : स्त्री० [ष० त०] वैष्णवों की चक्र-मुद्रा धारण करने की विधि।
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चक्र-मुख  : वि० [ब० स०] गोल मुँहवाला। पुं० सूअर।
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चक्र-मुद्रा  : पुं० [मध्य० स०] शरीर के विभिन्न अंगों पर दगवाया या लगवाया जानेवाला चक्र के आकार का चिन्ह्र।
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चक्र-यंत्र  : पुं० [उपमि० स०] ज्योतिष संबंधी वेध करने का एक प्रकार का यंत्र।
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चक्र-यान  : पुं० [मध्य० स०] ऐसी गाड़ी जिसमें पहिये लगे हों।
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चक्र-रद  : पुं० [ब० स०] सूअर।
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चक्र-रिष्टा  : स्त्री० [ब० स०] बक। बगला।
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चक्र-लक्षणा  : स्त्री० [ब० स०] गुरुच् या गुड्ची नामक लता।
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चक्र-लिप्ता  : स्त्री० [ष० त० ] ज्योतिष में राशि-वक्र का कलात्मक भाग अर्थात् २१ ६॰॰ भागों में से एक भाग।
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चक्र-लेखित्र  : पुं०[मध्य० स०(लेखित्र) ?] एक प्रकार का छोटा उपकरण जिसकी लेखनी की नोक पर लगे हुए छोटे से चक्र द्वारा एक विशेष प्रकार के कागज पर बनाये हुए अक्षरों की सहायता से किसी लेख आदि की प्रतिलिपियाँ तैयार की जाती है। (साइक्लोस्टाइल)
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चक्र-वर्तिनी  : स्त्री, [सं०चक्र√वृत्त (बरतना)+णिनि, ङीष्, उप० स०] १. किसी दल या समूह की अधीश्वरी। २. जनी या पानड़ी नाम का पौधा जिसकी पत्तियाँ सुगंधित होती हैं।
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चक्र-वर्ती(र्तिन्)  : वि० [सं०चक्र√वृत्+णिनि, उप० स०] [स्त्री० चक्र वर्तिनी] (राजा) जिसका राज्य बहुत दूर-दूर तक और विशेषतः समुद्र-तट तक फैला हो। सार्वभौम। पुं० १. ऐसा सम्राट जो दो समुदायों के बीच की सारी भूमि पर एकच्छत्र राज्य करता हो। २. किसी दल का अधिपति। समूह-नायक। ३. बथुआ (साग)।
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चक्र-वाक  : पुं० [सं० वाक√वच् (बोलना)+घञ्, ब० स०] [स्त्री० चक्रवाकी] चकवा पक्षी।
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चक्र-वात  : पुं० [सं० उपमि० स०] चक्कर खाती हुई बहुत तेज चलनेवाली हवा। बवंडर। (र्व्हल विंड)।
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चक्र-वृत्ति  : स्त्री० [मध्य० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक भगण, तीन नगण और अंत में लघु गुरु होते हैं।
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चक्र-वृद्धि  : स्त्री० [उपमि० स०] १. ऋण का वह प्रकार जिसमें मूल धन पर ब्याज देने के अतिरिक्त उस ब्याज पर भी ब्याज दिया जाता है जो किसी निश्चित अवधि तक चुकाया नहीं जाता। (कम्पाउंड इन्टरेस्ट) २. गाड़ी आदि भाड़ा।
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चक्र-व्यूह  : पुं० [मध्य० स०] १. युद्ध-क्षेत्र में किसी वस्तु या व्यक्ति को सुरक्षित रखने के लिए उसके चारों ओर असंख्य सैनिकों का किसी क्रम या सिलसिले से खड़े होने की अवस्था या स्थिति। २. सेना का ऐसे ढंग से युद्ध-क्षेत्र में खड़ा या स्थित होना कि शत्रु उन्हें सरलता से भेद न सके।
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चक्र-शल्य  : स्त्री० [ब० स०] सफेद घुँघची। २. काक-तुडी। कौआ, ठोठी।
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चक्र-श्रेणी  : स्त्री० [ब० स०] मेढ़ासीगी।
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चक्र-संज्ञ  : पुं० [ब० स०] १. वंग नामक धातु। राँगा। २. चकवा पक्षी।
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चक्र-संवर  : सं० [सं० चक्र-सम्√वृ (रोकना)+अच्, उप० स०] एक बुद्ध का नाम।
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चक्र-हस्त  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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चक्रक  : पुं० [सं० चक्र√कै (प्रतीति होना)+क] १. नव्य न्याय में एक प्रकार का तर्क। २. एक प्रकार का साँप। वि० पहिये के आकार का। गोलाकार।
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चक्रतीर्थ  : पुं०[मध्य० स०] १. दक्षिण भारत का वह तीर्थ स्थान जहाँ ऋष्टमूक पर्वतों के बीच में तुंगभद्रा नदी घूमकर बहती हैं। २. नैमिषारण्य का एक सरोवर।
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चक्रधर  : वि० [सं० चक्र√धृ (धारण)+अच्, उप० स०] चक्र धारण करनेवाला। जिसके पास या हाथ में चक्र हो। पुं० १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण। ३. ऐंद्रजालिक। बाजीगर। ४. किसी छोटे भू-भाग का अधिकारी या शासक। ५. साँप। ६. गाँव का पुरोहित। ७. नटराग से मिलता जुलता षाडव जाति का एक राग जो संध्या समय गाया जाता है।
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चक्रधारा  : स्त्री० [ष० त०] चक्र की परिधि।
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चक्रधारी(रिन्)  : वि० पुं० [सं० चक्र√धृ (धारण)+णिनि, उप० स०]=चक्कर।
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चंक्रमण  : पुं०[सं०√क्रम् (गति)+यङ, द्वित्वादि+ल्युट-अन] [वि० चंक्रमित] १. धीरे-धीरे टहलना। घूमना। सैर करना। २. बहुत अधिक या बार-बार घूमना। ३. घूमने, चलने या सैर करने का स्थान। (बौद्ध)।
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चक्रवाड़  : पुं०=चक्रवाल।
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चक्रवान(वत्)  : पुं० [सं० चक्र+मतुप्] पुराणानुसार चौथे समुद्र के बीच में स्थित माना जाना वाला एक पर्वत जहाँ विष्णु भगवान ने हयग्रीव और पंचजन नामक दैत्यों को मारकर चक्र और शंख दो आयुध प्राप्त किये थे।
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चक्रवाल  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक पर्वत जो भूमंडल के चारों ओर स्थित तथा प्रकाश और अंधकार (दिन-रात) का विभाग करनेवाला माना गया है। लोकालोक पर्वत। २. घेरा। मंडल। ३. चंद्रमा के चारों ओर दिखाई देनेवाला धुँधले प्रकाश का घेरा या मंडल।
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चक्रा  : स्त्री०[सं०चक्र+टाप्] १. नागरमोथा। २. काकड़ासिंगी।
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चक्राकं  : पुं० [चक्र-अंक, ष० त०] विष्णु के चक्र का चिन्ह्र जो वैष्णव अपने शरीर के अंगों पर दगवाते हैं।
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चक्राक  : पुं० [सं० चक्र√अक् (गति)+अच्] [स्त्री० चक्राकी०] हंस नामक पक्षी।
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चक्राकं-पुच्छ  : पुं० [ब० स०] १. मोर। २. मोर का पंख। उदाहरण–उन्मुक्त गुच्छ, चक्रांक-पुच्छू।-निराला।
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चक्राकार  : वि० [चक्र-आकार, ब० स०] चक्र या पहिये के आकार का। मंडलाकार।
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चक्रांकित  : वि० [चक्र-अंकित, तृ० त०] १. जिस पर चक्र का चिन्ह्र अंकित हो। २. (व्यक्ति) जिसने अपने शरीर पर चक्र का चिन्ह्र दगवाया हो। जिसने चक्र को छाप लीया हो। पुं० वैष्णवों का एक संप्रदाय जिसके लोग अपने शरीर पर चक्र का चिन्ह्र दगवाते हैं।
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चक्रांग  : पुं० [चक्र-अंग, ब० स०] १. चकवा पक्षी। २. गाड़ी या रथ। ३. हंस। ४. कुटकी नाम की ओषधि। ५. हिलमोचिका या हुलहुल नाम का साग।
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चक्रांगा  : स्त्री० [सं० चक्रांग+टाप्] १. काकड़ासिंगी। २. सुदर्शन नाम का पौधा या लता।
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चक्रांगी  : स्त्री० [सं० चक्रांग+ङीष्] १. कुटकी नाम की ओषधि। २. हंस की मादा। हंसिनी। ३. हुलहुल नाम का साग। ४. मजीठ। ५. काकड़ासिंगी। ६. मूसाकानी।
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चक्राट  : पुं० [सं० चक्र√अट् (गति)+अण्, उप० स०] १. साँप पकड़ने वाला। २. मदारी। ३. बहुत बड़ा चालाक या धूर्त। ४. सोने का दीनार नाम का सिक्का।
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चक्रांत  : पुं० [चक्र-अंत, ब० स०] गुप्त अभिसंधि। षड्यंत्र।
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चक्रांतर  : पुं० [सं० चक्रांक√रा (लेना)+क] एक बुद्ध का नाम।
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चक्रानुक्रम  : पुं० [चक्र-अनुक्रम, उपमि० स०]=चक्र-क्रम।
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चक्रायुध  : पुं० [चक्र-आयुध, ब० स०] विष्णु।
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चक्रावल  : पुं० [सं०] १. घोड़ो का एक रोग जिसमें पैरों में घाव हो जाता है। २. उक्त रोग से होनेवाला घाव।
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चक्रांश  : पुं० [चक्र-अंश, ष० त०] १. किसी चक्र का कोई अंश। २. चंद्रमा के चक्र का ३६॰ वाँ अंश।
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चक्राह्र  : पु० [चक्र-आह्रान,ब० स०] १. चकवा पक्षी। चक्रवाक। २. चकवँड़।
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चक्रिक  : वि० [सं० चक्र+ठन्-इक] १. चक्र से युक्त। २. चक्र धारण करनेवाला।
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चक्रिका  : स्त्री० [सं० चक्र+टाप्] घुटने की गोल हड्डी। चक्की।
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चक्रित  : वि०=चकित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चक्री (किन्)  : पुं० [सं० चक्र+इनि] १. वह जो चक्र धारण करे। २. विष्णु। ३. गाँव का पुरोहित। ४. कुम्हार। ५. कुंडली मारकर बैठनेवाला साँप। ६. चकवा पक्षी। ७. गुप्त-चर। जासूस। ८. तेली। ९. बकरा। १॰. चकवँड़। ११. तिनिश नामक वृक्ष। १२. कौआ। १३. व्याघ्र नख या बघनहाँ नामक ग्रंथद्रव्य। १४. गधा। १५. रथ का सवार। रथी। १६. चंद्रशेखर के मत से आर्याछंद का २२. वाँ भेद जिसमें ६ गुरु और ४५ लघु होते हैं। १७. एक प्राचीन वर्ण संकर जाति। १८. चक्रवर्ती राजा। वि० १. (गाड़ी आदि) जिसमें पहिया लगा हो। २. गोलाकार (वस्तु)। ३. चक्र धारण करने वाला (व्यक्ति)।
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चक्रीय  : वि० [सं० चक्र+छ-ईय] १. चक्र संबंधी। चक्र का। २. चक्रक्रम के अनुसार होनेवाला। (साइक्लिक)।
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चक्रेश्वर  : पुं० [चक्र-ईश्वर, ष० त०] १. चक्रवर्ती। २. तांत्रिकों में चक्र के अधिष्ठाता देवता।
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चक्रेश्वरी  : स्त्री० [सं० चक्र-ईश्वरी, ष० त०] जैनों की एक महाविद्या।
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चक्ष  : पुं० [सं०√चक्ष् (देखना,बोलना)+अच्] नकली दोस्त। स्वार्थी मित्र।
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चक्षण  : पुं० [सं०√चक्ष्+ल्.युट-अन] १. कृपा-दृष्टि। २. अनुग्रह पूर्ण व्यवहार। ३. बातचीत। कथन। ४. मद्य आदि के साथ खाने की चाट। चक्खी।
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चक्षम  : पुं० पुं० [सं०√चक्ष्+अम्] १. बृहस्पति। २. उपाध्याय।
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चक्षा(क्षस्)  : पुं० [सं०√चक्ष्+अस्] १. बृहस्पति। २. आचार्य।
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चक्षु (क्षुस्)  : पुं० [सं०√चक्षु+उस्०] १. देखने की इंद्रिय। आँख। नेत्र। २. पश्चिमी एशिया के वंक्षु नद (आधुनिक आक्सस नदी) का एक पुराना नाम।
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चक्षुःपथ  : पुं० [ष० त०] १. दृष्टि-पथ। २. क्षितिज।
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चक्षुरपेत  : वि० [चक्षुक-अपेत, तृ० त०] नेत्रहीन। अंधा।
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चक्षुरिंद्रिय  : स्त्री० [चक्षुर-इंद्रिय,कर्म० स०] देखने की इंद्रिय। आँख। नेत्र।
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चक्षुर्दर्शनावरण  : पुं० [चक्षुर्-दर्शन,तृ० त० चक्षुर्दर्शन-आवरण, ष० त०] जैन शास्त्र में वे कर्म जिनके उदय होने से चक्षु द्वारा दिखाई पड़ने में बाधा होती है।
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चक्षुर्मल  : पुं० [ष० त०] आँख से निकलनेवाला मल या कीचड़।
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चक्षुर्वन्य  : वि० [तृ० त०] नेत्र रोग से ग्रस्त या पीड़ित।
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चक्षुर्विषय  : पुं० [ष० त० ] १. वे सब चीजें या बातें जो आँख से दिखाई देती हैं। २. क्षितिज। वि० जो चक्षुओं का विषय हो।
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चक्षुर्हा(र्हन्)  : वि० [सं० चक्षुस्√हन् (मारना)+क्विप्, उप० स०] जिसके देखने मात्र से कोई चीज नष्ट हो जाती हो।
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चक्षुःश्रवा(वस्)  : वि० [ब० स०] नेत्रों से सुननेवाला। पुं० साँप।
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चक्षुष्कर्ण  : पुं० [ब० स०] सर्प। साँप।
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चक्षुष्पति  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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चक्षुष्पथ  : पुं० [ष० त०] १. दृष्टि-पथ। २. क्षितिज।
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चक्षुष्मान्(मत्)  : वि० [सं० चक्षुस्+मतुप्] १. आँखोंवाला। २. सुंदर आँखोंवाला।
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चक्षुष्य  : वि० [सं० चक्षुस्+यत्] १. नेत्र संबंधी। २. जो देखने में प्रिय लगे। मनोहर। सुंदर। ३. जो नेत्रों के लिए हितकर हो। ४. नेत्रों से उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. आँखों में लगाने का अंजन या सुरमा। २. केतकी। केवड़ा। ३. सहिंजन। ४. तूतिया।
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चक्षुष्या  : स्त्री० [सं० चक्षुष्य+टाप्] १. सुंदर नेत्रोंवाली स्त्री। २. वनकुलथी। चाकसू। ३. मेढ़ासींगी।
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चक्षुस्  : पुं०=चक्षु।
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चख  : पुं० [सं० चक्षुस्] आँख। पुं० [अनु०] झगड़ा। तकरार। पद-चख-चख=कहा-सुनी या बक-बक। झगड़ा और तरकार। पुं०= नीलकंठ (पक्षी)। २.= गिलहरी।
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चख-चख  : स्त्री० [अनु०] १. दो व्यक्तियों या पक्षों में किसी बात पर होनेवाली कहा-सुनी। झगड़ा। २. कलह।
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चखचौंध  : स्त्री०=चकाचौंध।
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चखना  : सं० [प्रा० चक्ख, चड्ड, बँ० चाखा, उ० चाखिबा, पं० चक्खणा, मरा० चाखणें] १. किसी खाद्य वस्तु का स्वाद जानने के लिए उसका थोड़ा सा अंश मुँह में रखना या खाना। चीखना। २. किसी चीज या बात की साधारण अनुमति प्राप्त करना। जैसे–लड़ाई का मज़ा चखना।
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चखा  : पुं० [हिं० चखना] १. चखनेवाला। २. रस का आस्वादन करनेवाला। प्रेमी। रसिक। उदाहरण–विपिन बिहारी दोउ लसत एक रूप सिंगार। जुगल रस के चखा।-सत्यनारायण।
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चखा-चखी  : स्त्री० [फा० चख-झगड़ा] १. जोरों का या बहुत अधिक लड़ाई-झगड़ा या तकरार। २. बहुत अधिक वैर-विरोध या लाग-डाँट।
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चखाना  : स० [हिं० चखना० का प्रे०] किसी को कुछ चखने में प्रवृत्त करना।
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चखिया  : वि० [फा० चख=झगड़ा] चख-चख या तकरार करनेवाला। झगड़ालू।
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चखु  : पुं०=चक्षु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चखोड़ा  : पुं० [हिं० चख+ओड़] बुरी नजर से बचाने के लिए लगाई जानेवाली काली बिंदी। डिठौना। उदाहरण–बनि रहे रुचिर चखोड़ा गाल।-नंददास।
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चखौती  : स्त्री० [हिं० चखना] खाने-पीने की चट-पटी और स्वादिष्ट चीजें।
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चंग  : वि० [सं०√चंक् (तृप्त होना)+अच्, नि० सिद्धि] १. दक्ष। कुशल। २. स्वस्थ। तंदुरुस्त। ३. सुन्दर। स्त्री० [फा०] १. डफ की तरह का एक प्रकार का बाजा। २. बड़ी गुड्डी। पतंगा। मुहावरा–(किसी की) चंग उमहना या चढ़ना=(क) किसी बात की अधिकता पर जोर देना। (ख) किसी व्यक्ति का प्रताप या वैभव बढा हुआ होना। (ग) किसी व्यक्ति की इच्छा पूरी करने वाली बात होना या ऐसी बात का अच्छा अवसर मिलना। उदाहरण–त्यों पद्याकर दीन्ह मिलाइ कौ चंग चबाइन की उमही है।-पद्याकर। (किसी को) चंग पर चढ़ाना=कोई काम करने के लिए किसी को बहुत अधिक बढ़ावा देना। मिजाज या हौसला बढ़ाना। ३. बीन,सितार आदि बाजों का ऊँचा या चढ़ा हुआ स्वर। ४. गंजीफे के आठ रंगों में से एक। ५. तिब्बत में होनेवाला एक प्रकार का जौ। ६. भूटान में बननेवाली एक प्रकार के जौ की शराब।
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चगड़  : वि०=चघड़।
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चगताई  : पुं० [तु०] मध्य एशिया निवासी तुर्को का एक प्रसिद्ध वंश जो चगताई खाँ से चला था। बाबर, अकबर, औरं गजेब आदि इसी वंश के थे।
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चगत्ता  : पुं० दे० ‘चगताई’।
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चँगना  : स० [फा०चंग या तंग] १.कसना। खींचना। २. तंग परेशान करना।
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चंगबाई  : स्त्री०[हिं० चंग+बाई] एक वात रोग जिसमें हाथ, पैर आदि जकड़ जाते हैं।
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चगर  : पुं० [देश०] १. घोड़ो की एक जाति। २. एक प्रकार की शिकारी चिड़िया।
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चंगला  : स्त्री० [सं०?] एक रागिनी जो मेघराग की पुत्रवधू कही गयी है।
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चंगा  : वि० [सं०प्रा० चंग, बं० चाना, कन्न० चांगु,पं० चंगा,सि० चंगी, गु० चाँगी; मरा० चांग, चांगलें] [स्त्री० चंगी] १. तंदुरुस्त। नीरोग। स्वस्थ्य। जैसे–रोगी को चंगा करना। २. अच्छा। उत्तम। बढिया या श्रेष्ठ। जैसे–चंगा खेल, चंगा विचार। ३. निर्विकार और पवित्र। शुद्ध। जैसे–मन चंगा तो कठौती में गंगा। (कहा०) अव्यय [पं०] अच्छा।
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चंगु  : पुं० [हिं० चौ=चार+अंगु] १. चंगुल। (दे०) २. पकड़ रखने की क्रिया या भाव। पकड़। ३. अधिकार। वश।
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चगुनी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो प्रायः १८ इंच लंबी होती है।
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चंगुल  : पुं० [हिं० चौ=चार+अंगुल वा० फा० चंगाल] १. पक्षियों (जैसे कौआ, चील आदि) तथा पशुओं (जैसे–चीते, शेर आदि) का टेढ़ा पंजा जिससे वे किसी पर प्रहार करते अथवा कोई चीज पकड़ते हैं। २. हाथ की उँगलियों को हथेली की ओर कुछ झुकाने पर बननेवाली एक विशिष्ट मुद्रा जो कोई चीज पकड़ने के समय स्वभावतः बन जाती है। जैसे–एक चंगुल आटा उठा लाओ। ३. किसी व्यक्ति के प्रभाव अथवा वश में होने की वह स्थिति जिसमें से निकलना सहज न हो। मुहावरा–(किसी के) चंगुल में फँसना=पूरी तरह से किसी के अधिकार या वश में पड़ना या होना।
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चँगेर  : स्त्री० [सं० चंगेरिका] १. बाँस की खमाचियों की बनी हुई छोटी डलिया जिसमें फल, फूल, मिठाइयाँ आदि रखते हैं। २. धातु आदि का बना हुआ उक्त प्रकार का पात्र। ३. पानी भरने की चमड़े की मशक। पखाल। ४. पालने की तरह की वह टोकरी जिसमें बच्चे लेटाकर झुलाये और सुलाये जाते हैं।
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चँगेरा  : पुं० [स्त्री० चँगेरी] बड़ी चँगेर।
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चंगेरिक  : पुं० [सं०?] [स्त्री० चंगेरिका ?] बड़ी चँगेर। टोकरा। डला।
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चँगेरी  : स्त्री० =चँगेर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चँगेल  : स्त्री० [देश०] खँडहरों आदि में होनेवाली एक प्रकार की घास। स्त्री=चँगेर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चँगेली  : स्त्री=चँगेर।
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चघड़  : वि० [देश०] १. चतुर। चालाक। २. धूर्त।
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चंच  : पुं० [सं०√चंच् (हिलना-डुलना)+अच्] पाँच अंगुल की एक नाप। पुं० =चंचु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चंचत्पुट  : पुं० [सं०√चंच्+शतृ, चंचत्-पुट, ब० स०] संगीत में, एक ताल जिसमें पहले दो गुरु, तब एक लघु, फिर एक प्लुत मात्रा होती है।
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चचर  : स्त्री० [देश०] वह जमीन जो बहुत दिन परती रहने के बाद पहली बार जोती या बोई गई हो।
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चचरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष। वि०=चचेरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चँचरी  : स्त्री० [देश०] १. पत्थर के ऊपर से होकर बहने वाला पानी। २. एक प्रकार की चिड़िया जो जमीन पर घास के नीचे घोंसला बनाती है। ३. अनाज का वह दाना जो कूटने-पीसने पर भी बाल में लगा रह जाता है। कोसी। भूडरी।
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चंचरी  : स्त्री० [सं०√चंर् (गति)+यङ-लुक्, द्वित्वादि+टक्-ङीप्] १. भौरी। भ्रमरी। २. चार चरणों का एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, सगम, दो जगण, भगण और तब फिर रगण होता है। ३. छियालिस मात्राओं वाला एक प्रकार का छंद। ४. चाँचर नामक गीत।
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चंचरीक  : पुं० [सं०√चंर्+ईकन्, नि० सिद्धि] [स्त्री० चंचरीकी] भौंरा। भ्रमर।
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चंचरीकावली  : स्त्री० [सं० चंचरीक-आवली, ष० त०] १. भौरों की अवली, पंक्ति या समूह। २. तेरह अक्षरों के एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः यगण, मगण, दो रगण और एक गुरु होता है।
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चंचल  : वि० [सं०√चंच् (चलना)+अलच्] [स्त्री० चंचला, भाव० चंचलता] १.जो एक स्थान पर खड़ा, स्थित या स्थिर न रहकर बराबर इधर-उधर आता जाता, चलता-फिरता अथवा हिलता-डुलता रहता हो। जैसे–चंचल दृग, चंचल पवन। २. जिसमें स्थायित्व न हो। ३. (व्यक्ति) जो एक न एक काम, बात आदि में स्वभावतः फँसा या लगा रहता हो। चुलबुला। ४. जो स्थिरचित्त अथवा एकाग्र होकर कोई काम न करता हो। जैसे–चंचल बालक। ५. नटखट। शरारती। ६. जो शांत न हो। उद्विग्न। विकल। जैसे–चंचल हृदय। पुं० १.वायु। हवा। २. उपद्रवी, कामुक या रसिक व्यक्ति।
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चंचलता  : स्त्री० [सं० चंचल+तल्-टाप्] १. चंचल होने की अवस्था या भाव। अस्थिरता। २. चपलता। ३. पाजीपन। शरारत। ४. उद्विग्नता।
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चंचलताई  : स्त्री०=चंचलता।
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चंचला  : स्त्री० [सं० चंचल+टाप्] १. लक्ष्मी। २. बिजली। विद्युत। ३. पिप्पली। ४. चार चरणों का एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगण, जगण, रगण, जगण, रगण और लघु होता है।
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चंचलाई  : स्त्री०=चंचलता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चंचलास्य  : पुं० [चंचल-आलस्य, ब० स०] एक प्रकार का गंध-द्रव्य।
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चंचलाहट  : स्त्री०=चंचलता।
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चंचली  : स्त्री० [सं० चंचरी, रस्यल] चंचरी नामक वर्णवृत्त का दूसरा नाम।
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चंचा  : स्त्री० [सं० चंच+टाप्] १. घास-फूस का वह पुतला जो खेतों में पक्षियों आदि को डराने के लिए लगाया जाता है। २. बाँस, बेंत आदि की बनी हुई चटाई, टोकरी आदि।
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चचा  : पुं० [सं० तात] [स्त्री० चची] =चाचा। मुहावरा–(किसी को) चचा बनाना या बनाकर छोड़ना=उचित दंड या प्रतिफल देना। (व्यंग्य)।
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चंचा-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] दे० ‘चंचा’ १.।
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चचिया  : वि० उभ० [हिं० चचा] संबंध में चाचा या चाची के स्थान पर पड़ने या होनेवाला। जैसे–चचिया ससुर, चचिया सास अर्थात् पति या पत्नी का चाचा या चाची।
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चचीड़ा  : पुं० [सं० चिचिड़ा] १. एक प्रकार की लता। २. इस लता के फूल जो तरोई की तरह के होते और तरकारी बनाने के काम आते हैं। ३. दे० ‘चिचड़ा’।
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चंचु  : पुं० [सं०√चंच्+उन्] १. चेंच नाम का साग। २. रेंड़ का पेड़। ३. हिरन। स्त्री० १. पक्षियों की चोंच। २. किसी चीज के आगे का नुकीला भाग। (बीक)
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चंचु-पत्र  : पुं० [ब० स०] चेंच नाम का साग।
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चंचु-पुट  : स्त्री० [ष० त०] पक्षियों की चोंच।
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चंचु-प्रवेश  : पुं० [ष० त०] किसी चीज या बात में होनेवाला बहुत थोड़ा ज्ञान, प्रवेश या सम्पर्क।
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चंचुका  : स्त्री० [सं० चंचु+कन्-टाप्] चोंच।
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चंचुभृत्  : पुं० [सं० चंचु√भू (भरना)+क्विप्, उप० स०] चिड़िया पक्षी।
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चंचुमान्(मत)  : पुं० [सं० चंचु+मतुप] पक्षी।
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चंचुर  : वि० [सं०√चंच्+उरच्] दक्ष। निपुण। पुं० चेंच नाम का साग।
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चंचुल  : पुं० [सं० चंचुर, र को ल] हरिवंश के अनुसार विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
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चंचू  : स्त्री० [सं० चंचु+ऊङ्] चोंच।
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चंचू-सूची  : पुं० [ब० त०] हंस जाति का एक पक्षी। बत्तख। कारंडव।
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चचेंड़ा  : पुं०=चचींड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चचेरा  : वि० [हिं० चचा] [स्त्री० चचेरी] १. चाचा से उत्पन्न। जैसे–चचेरा भाई, चचेरी बहन। २. संबंध के विचार से चाचा या चाची के स्थान पर पड़ने या होनेवाला। चचिया। जैसे–चचेरी सास।
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चचोड़ना  : स० [अनु० वा० देश] दाँत से खींच या दबाकर खाना या रस चूसना। दाँतों से दबा-दबाकर खाना या चूसना। जैसे–आम चचोड़ना।
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चचोड़वाना  : स० [हिं० ‘चचोड़ना’ का प्रे०] किसी को चचोड़ने में प्रवृत्त करना।
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चँचोरना  : स०=चिचोड़ना।
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चच्चर  : पुं० दे० ‘चाँचर’।
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चच्छु  : पुं०=चक्षु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चच्छुस्रुवासी  : पुं० [सं० चक्षुःश्रवस्] सर्प। साँप। उदाहरम-सो लट भई तेहि चच्छुस्रुवासी।-जायसी।
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चंट  : वि० [सं० चंड] चालाकी अथवा धूर्तता से अपना काम निकाल लेनेवाला। बहुत बड़ा चालाक या धूर्त।
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चट  : क्रि० वि० [अनु०] १. चट शब्द करते हुए। २. जल्दी से। झट। तुरंत। पद-चट-पट (देखें)। मुहावरा–चट से=बहुत जल्दी। तुरंत। पुं० १. वह शब्द जो किसी कड़ी वस्तु के टूटने पर होता है। जैसे–लकड़ी या शीशा चट से टूट गया। २. उँगलियों के पोर जोर से खींचने पर अंदर की हड्डियों की रगड़ से होनेवाला शब्द। क्रि० प्र०-बोलना। भू० कृ० [हिं० चाटना] १. (पदार्थ) जो चाट या खाकर समाप्त कर दिया गया हो। २. (धन) जो भोग आदि के द्वारा नष्ट या समाप्त कर दिया गया हो। मुहावरा–चट कर जाना=(क) सब खा जाना। (ख) दूसरे की वस्तु लेकर न देना। दबा रखना। चट करना=खाना या निगलना। पुं० [सं० चित्र, हिं, चित्ती] १. दाग। धब्बा। २. घाव आदि के कारण शरीर पर बना हुआ चिन्ह या दाग। ३. चकता। ४. ऐब। दोष। ५. कलंक। लांछन। पुं० [?] पटसन का बना हुआ टाट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चट-कल  : स्त्री० [हिं० चट=पटसन+कल (यंत्र)] वह कारखाना जहाँ जूट और पटसन की चीजें बनती हों।
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चट-चट  : स्त्री० [अनु०] किसी चीज के चटकने या तड़कने के समय होनेवाला चट-चट शब्द। जैसे–चट-चट करके छत की कई कड़ियाँ टूट गई। २. किसी चीज के जलने या फटने के समय होनेवाला चट-चट शब्द। जैसे–लकडियाँ चट-चट करती हुई जल रही थीं। ३. उँगलियाँ चटकाने पर होनेवाला चट-चट शब्द। क्रि० वि० चट-चट शब्द उत्पन्न करते हुए। मुहावरा–चटचट बलैया लेना=प्रिय व्यक्ति (विशेषतः बच्चे) को विपत्ति, संकट आदि से बचाने के उद्देश्य से उंगलियाँ चटकाते हुए उसकी मंगल-कामना करना। (स्त्रियाँ)।
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चट-पट  : क्रि० वि० [अनु०] १. बहुत जल्द। तुरंत। जैसे–चट-पट चले आओ। २. अपेक्षाकृत बहुत थोड़े समय में। जैसे–काम चट-पट खत्म कर यहाँ चले आना। वि० [स्त्री० चटपटी] =चटपटा।
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चटक  : पुं० [सं०√चट् (भेदन करना)+क्वुन्-अक] [स्त्री० चटका] १. गौरा पक्षी। गौरैया। चिड़ा। पद-चटकाली (देखें)। २. पिप्पलामूल। स्त्री० [सं० चटुल=सुन्दर] चटकीलापन। चमक-दमक। कांति। पद-चटक-मटक (देखें)। ३. छापे के कपडो़ को साफ करने का ढंग। वि० चटकीला। चमकीला। जैसे–कटक रंग, चटक चाँदनी। स्त्री. १. फुरतीलापन। तेजी। २. चंचलता । शोखी। वि० १. फुरतीला। तेज। २. चटपटा। चटकारा। क्रि० वि० चटपट। शीघ्रता से। तुरंत।
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चटक-मटक  : स्त्री० [हिं० चटक+मटक] नाज-नखरे लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए शरीर के कुछ अंग हिलाने-डुलाने की क्रिया या भाव।
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चटकई  : स्त्री० [हिं० चटक] १. चटक होने की अवस्था या भाव। २. चमकीलापन। ३. तेजी। फुरती। ४. जल्दी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चटकदार  : वि० [हिं० चटक+फा० दार (प्रत्यय)] १. जिसमें चटक या चमक-दमक हो। चमकते हुए रंगवाला। २. तेज। फुरतीला।
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चटकना  : अ० [अनु० चट] १. ‘चट’ शब्द करते हुए टूटना या फूटना। हलकी आवाज के साथ टूटना या तड़कना। कड़कना। जैसे–शीशा चटकना। २. किसी बीच में कहीं से कुछ कट या फट जाना। हलकी दरार पड़ना। जैसे–लकड़ी चटकना। ३. कोयले लकड़ी आदि का जलते समय चट-चट शब्द करना। ४. कलियों आदि का चटचट शब्द करते हुए खिलना। जैसे–गुलाब की कलियाँ चटकना। ५. चिढ़कर अप्रसन्न होना या हलका क्रोध दिखलाना। रुष्ट होना। जैसे–तुम तो जरा सी बात में चटक जाते हो। ६. आपस में अनबन या बिगाड़ होना। वि० जल्दी चटकने या टूटनेवाला। पुं० तमाचा। थप्पड़। क्रि० प्र०-देना।–मारना।–लगाना।
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चटकनी  : स्त्री०=सिटकनी (दरवाजे की)।
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चटकवाही  : स्त्री० [हिं० चटक+वाही (प्रत्यय)] १. शीघ्रता। जल्दी। २. तेजी। फुरती।
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चटका  : पुं० [हिं० चटकना] १. चटकने की क्रिया या भाव. २. मन उचटने की स्थिति या भाव। विराग। ३. तमाचा। थप्पड़। पुं० [हिं० चाट] १. चरपरा स्वाद। २. सुख का स्वाद मिलने के कारण उत्पन्न होने वाली लालसा। चसका। पुं० [देश०] हरे चने की डोडी। पपटा। पुं० [सं० चित्र, हिं० चट्टा] १. दाग। धब्बा। २. शरीर पर पड़नेवाला चकता। पुं० [हिं० चट](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. शीघ्रता । जल्दी। २. तेजी। फुरती।
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चटका-शिरा  : स्त्री० [ष० त०] पिपरामूल।
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चटकाई  : स्त्री० [हिं० चटक+आई (प्रत्यय)](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) चटकीलापन। उदाहरण–लगत चित्र सी नंदनादि बन की चटकाई।-रत्ना०।
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चटकाना  : स० [हिं० चटकना हिं० चटकना का स०] १. किसी को चटकने में प्रवृत्त करना। ऐसा करना जिससे कुछ चटके। २. उंगलियों के पोरों को इस प्रकार झटके से खींचना या जोर से दबाना कि उनसे चट शब्द निकले। ३. किसी चीज से चट-चट शब्द उत्पन्न करना। जैसे–जूतियाँ चटकाना। देखें जूती के अंतर्गत। ४. चट शब्द उत्पन्न करते हुए कोई चीज तोड़ना। ५. किसी व्यक्ति को इस प्रकार अप्रसन्न या उद्विग्न करना कि वह कड़वी और रूखीं बातें करने लगे। ६. किसी के मन में विरक्ति उत्पन्न करके उसे कहीं से चले जाने या भगाने में प्रवत्त करना जैसे–ये लोग नये नौकर को टिकने नहीं देते, उसे आते ही चटका देते हैं। ७. चिढ़ाना।
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चटकारा  : पुं० [अनु० चट] १. किसी चटपटी वस्तु के खाते या चाटते समय तालू पर जीभ टकराने से होनेवाला शब्द। पद-चटकारे का=इतना स्वादिष्ट कि खाने या पीने के समय मुँह से चट-चट शब्द होता है। जैसे–चटकारे की तरकारी या हलुआ। २. कोई स्वादिष्ट चीज खाने या पीने के बाद उसके स्वाद की वह स्मृति जो वह चीज फिर से खाने या पीने का चसका उत्पन्न करे। मुहावरा–चटकारे भरना=खूब चाट-चाटकर और स्वाद लेते हुए कोई चीज खाना या पीना। खाने-पीने के समय जीभ से होंठ चाटते रहना। वि० १. =चटकीला। २. =चटपटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० चटुल] [स्त्री० चटकारी] चंचल। चपल।
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चटकारी  : स्त्री० [अनु०] चुटकी, जिसे बजाने पर चट-चट शब्द होता है। क्रि० प्र०-बजाना।-भरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चटकाली  : स्त्री० [सं० चटक-आली, ष० त०] १. चटकों अर्थात् गौरा पक्षियों की पंक्ति या समूह। २. चिड़ियों की पंक्ति या समूह।
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चटकाहट  : स्त्री० [हिं० चटकना] १. कोई चीज चटकने से उत्पन्न होनेवाला चट शब्द। उदाहरण–फूलति कली गुलाब की चटकाहट चहुँओर।-बिहारी। २. चटकने या तड़कने की क्रिया या भाव।
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चटकी  : स्त्री० [सं० चटक] बुलबुल की तरह की एक चिड़िया। स्त्री०=चटका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चटकीला  : वि० [हिं० चटक+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० चटकीली] [भाव० चटकीलापन] १. (रंग) जो मचकीला और तेज हो। जैसे–चटकीला लाल या हरा। २. (पदार्थ) जिसका रंग चमकीला और तेज हो। जैसे–चटकीला कपड़ा, चटकीली धारियाँ। ३. जिसमें खूब आभा और चमक हो। जैसे–मुख की चटकीली ज्योति या छबि। ४. (खाद्य पदार्थ) जिसमें खूब नमक, मिर्च और मसाले पड़े हों। जैसे–चटकीली तरकारी। ५. (बात) जो चित्ताकर्षक तथा सुंदर हो। लुभावना। जैसे–चटकीला राग। ६. (पदार्थ) जिसका स्वाद उग्र या तीव्र हो। जैसे–दाल में नमक कुछ चटकीला है।
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चटकीलापन  : पुं० [हिं० चटकीला+पन (प्रत्यय)] चटकीले होने की अवस्था, गुण या भाव।
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चटकोरा  : पुं० [अनु०] एक प्रकार का खिलौना।
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चटखना  : अ०=चटकना। पुं०=चटकना।
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चटखनी  : स्त्री०=चटकनी (सिटकिनी)।
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चटखारा  : वि० पुं०=चटकारा।
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चटचटा  : पुं० [अनु०] बार-बार होनेवाला चट-चट शब्द। वि०[स्त्री.चटचटी] जिसमें से बार-बार चट-चट शब्द होता हो। जैसे–चट-चटी लकड़ी (जलाने की)।
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चटचटाना  : अ. [हिं०चट-चट+आना (प्रत्यय)] १. किसी वस्तु का चट-चट शब्द करना। २. चटचट शब्द करते हुए किसी वस्तु का टूटना या तड़कना। ३. चट-चट शब्द करते हुए जलना। स० चट-चट शब्द करते हुए कोई काम करना।
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चटनी  : स्त्री० [हिं० चाटना] १. चाटकर खाई जानेवाली वस्तु। अवलेह। २. आम,इमली,पुदीना आदि खट्टी वस्तुओं में नमक,मिर्च,धनिया आदि मिलाकर गीला पीसा या घोला हुआ गाढ़ा चरपरा अवलेह जो भोजन का स्वाद तीक्ष्ण करने के लिए उसके साथ खाया जाता है। मुहावरा–(किसी की) चटनी करना या बनाना=(क) पदार्थ आदि तोड-फोड़कर चूर-चूर करना। (ख) व्यक्ति आदि को बहुत अधिक मारना। (किसी चीज का) चटनी होना या हो जाना=(क) खाद्य पदार्थ का स्वादिष्ट होने के कारण सब में इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा बँट जाना कि कुछ भी बाकी न बचें। (ख) किसी चीज का कम होने के कारण थोड़ा-थोड़ा काम में लगने या बँटने पर कुछ भी बाकी न बचना। ३. काठ या चार-पाँच अंगुल लंबा एक खिलौना जिसे छोटे बच्चे मुँह में डालकर चाटते या चूसते है।
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चटप  : स्त्री० [अनु०] १. आक्रमण। २. मनोवेग की प्रबलता। उदाहरण–काम स्याम तनु चटप कियौ।-सूर।
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चटपटाना  : अ० [हिं० चटपट] जल्दी मचाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० किसी को जल्दी करने में प्रवृत्त करना।
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चटपटी  : स्त्री० [हिं० चटपट] १. जल्दी। शीघ्रता। २. उतावली। हड़बड़ी। क्रि० प्र० –पड़ना।–मचाना। ३. आकुलता। घबराहट। ४. बेचैनी। विकलता। उदाहरण–मो दृग लागि रूप, दृगन लगी अति चटपटी।–बिहारी। ५. उत्सुकता। छटपटी। स्त्री० [हिं० चटपटा] खाने की चटपटी चीज। चाट। जैसे–कचालू आदि।
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चटर  : पुं० [अनु०] चट-चट शब्द।
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चटर-चटर  : स्त्री० [अनु०] खड़ाऊँ पहनकर चलने से होनेवाली चट-चट की ध्वनि।
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चटरजी  : पुं० [बं० चाटुर्ज्या] बंगाली ब्राह्मणों की एक शाखा। चट्टोपाध्याय।
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चटरी  : स्त्री० [अनु०] १. खेसारी नाम का अन्न। लतरी। २. रबी की फसल के साथ उगनेवाली एक वनस्पति।
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चटवाना  : स० [हिं० चाटना का प्रे०] किसी को कुछ चाटने में प्रवृत्त करना। चटाना।
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चटशाला  : स्त्री० [हिं० चट+सं० शाला] छोटे बच्चों की पाठशाला।
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चटसार  : स्त्री० =चटशाला।
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चटसाल  : स्त्री० =चटशाला।
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चटा  : पुं० [हिं० चटशाला] चटशाला में पढ़नेवाल बालक या विद्यार्थी। उदाहरण–मनौं मार-चटसार सुढार चटा से पढ़हीं।
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चटाई  : स्त्री० [सं० कट=चटाई] बाँस आदि खर जाति के डंठलों की खपाचियों, ताड़ आदि के पत्तों का एक दूसरे में गूँथकर बनाया हुआ लंबा आसन या आस्तरण। स्त्री० [हिं० चाटना] चटाने की चाटने की क्रिया या भाव।
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चटाईदार  : वि० [हिं० चटाई+फा० दार] जिसकी बुनावट या रचना चटाई की बनावट की तरह हो। जैसे–धोती का चटाईदार किनारा, गले में पहनने की चटाईदार सिकड़ी।
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चटाक  : पुं० [अनु०] १. वह शब्द जो दो वस्तुओं के चकराने अथवा किसी वस्तु के गिरने, टूटने आदि से होता है। क्रि० प्र० चट या चटाक शब्द उत्पन्न करते हुए। पद-चटाक-पटाक=(क) चटाक या चट-चट शब्द के साथ। (ख) बहुत जल्दी। तुरन्त। २. थप्पड़ मारने से होनेवाला शब्द। पुं०=चकत्ता (दाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चटाकर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जिसका फल खट्टा होता है।
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चटाका  : पुं० [अनु०] १. लकड़ी या और किसी कड़ी वस्तु के जोर से टूटने का शब्द। २. तीव्रता। प्रबलता। मुहावरा–चटाके का=कड़ाके का। जोरों का। ३. थप्पड़ जिसके लगने से चटाक शब्द होता है। (पश्चिम)। क्रि० वि० चट-पट। तुरन्त।
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चटाख  : पुं०=चटाक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चटाचट  : स्त्री० [अनु०] क्रमशः अथवा लगातार टूटती हुई वस्तुओं से होनेवाला चट-चट शब्द। क्रि० वि० एक पर एक। लगातार। जैसे–उसे चटाचट थप्पड़ लगे।
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चटान  : स्त्री०=चट्टान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चटाना  : स० [हिं० चाटना का प्रे०] १. किसी को कुछ चाटने में प्रवृत्त करना। जैसे–बच्चे को खीर चटाना। २. थोड़ा-थोड़ा खिलाना। जैसे–बच्चे को कुछ चटा दो। ३. घूस या रिश्वत लेना। जैसे–कचहरी वालों को कुछ चटाकर अपना काम निकालना। ४. छुरी, तलवार आदि की धार रगड़कर या और किसी प्रकार तेज करना। जैसे–चाकू को पत्थर चटाना।
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चटापटी  : स्त्री० [हिं० चटपट] १. चटपटी। जल्दी। २. ऐसा रोग या महामारी जिसमें लोग चटपट या बहुत जल्दी मर जाते हों। क्रि० वि०=चट-पट।
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चटावन  : पुं० [हिं० चटाना] १. चटाने की क्रिया या भाव। २. हिंदुओं का एक संस्कार जिसमें छोटे बच्चे के मुंह में पहले-पहल अन्न लगाया जाता है। अन्नप्राशन।
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चटिक  : क्रि० वि० [हिं० चट] चटपट। तत्काल। तुंरत।
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चटिका  : स्त्री० [सं० चटक+टाप, इत्व] पिपरामूल।
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चटियल  : वि० [देश०] (मैदान) जिसमें पेड़, पौधे आदि बिलकुल न हों। उजाड़ और सपाट।
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चटिया  : पुं० [हिं० चटशाला+इया (प्रत्यय)] १.चटशाला में पढ़नेवाला अथवा पढ़ा हुआ विद्यार्थी। २. चेला। शिष्य।
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चटिहाट  : वि० [देश०] १. उजड्ड। २. जड़। मूर्ख।
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चटी  : स्त्री० १.=चटसार। २. =चट्टी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चटी  : स्त्री० =च्यूँटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चटु  : पुं० [सं०√चटे (भेदन करना)+कु] १. खुशामद। चापलूसी। २. उदर। पेट। ३. यतियों योगियों आदि का आसन।
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चटु-लालस  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जो अपनी खुशामद करवाना चाहता हो। खुशामद-पसन्द।
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चटुक  : पुं० [सं० चटु+कन] काठ का बड़ा बरतन। कठौता।
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चटुकार  : वि० [सं० चटु√कृ (करना)+अण्, उप० स०] खुशामद करनेवाला।
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चटुल  : वि० [सं० चटु+लच्] १. चंचल। चपल। २. सुंदर। ३. मधुर-भाषी।
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चटुला  : स्त्री० [सं० चटुल+टाप्] १. बिजली। २. प्राचीन काल का स्त्रियों का एक प्रकार का केश-विन्यास।
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चटुलित  : भू० कृ० [सं० चटुल+इतच्] १. हिलाया हुआ। २. बनाया सँवारा या सजाया हुआ।
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चटुल्लोल  : वि० [सं० चटुल-लोल, कर्म० स० नि० सिद्धि] १ चंचल। २. सुंदर। ३. मधुर-भाषी।
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चटैल  : वि०=चटियल।
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चटोर  : वि० दे० ‘चटोरा’।
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चटोरपन  : पुं०=चटोरपन।
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चटोरपन  : पुं० [हिं० चटोर+पन (प्रत्यय)] चटोरे होने की अवस्था, गुण या भाव।
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चटोरा  : वि० [हिं० चाट+ओरा (प्रत्यय)] [स्त्री० चटोरी] १.जिसे चटपटी चीजें खाने का शौक हो। २. अधिक खाने का लोभी। ३. जो अपनी संपत्ति या पूँजी खा-पका गया हो।
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चट्ट  : वि० [हिं० चाटना] १.(खाद्य पदार्त) जिसे अच्छी तरह खा या चाट लिया गया हो। २. (माल) जो खा-पीकर खत्म कर दिया गया हो। ३. जिसका कुछ भी अंश न बच रहा हो। क्रि० वि०-चट।
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चट्ट  : वि०=चटोरा। पुं० [अनु०] १. पत्थर का बड़ा खरल। २. छोटे बच्चों का एक प्रकार का खिलौना जिसे वे प्रायः मुँह में रखकर चाटते या चूसते रहते हैं। चुसनी।
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चट्टा  : पुं० [सं० चेटक-दास] चेला। शिष्य। पुं० [देश०] १.चटियल मैदान। २. चकत्ता। ददोरा। ३. ईटों, बालू, मिट्टी आदि को गिनने या नापने के लिए उनका लगाया या बनाया हुआ सुव्यवस्थित थाक या ढेर। पुं० [सं० कट+चटाई] बाँस आदि की लंबी चटाई।
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चट्टा-बट्टा  : पुं० [हिं० चट्ट=चाटने का खिलौना+बट्टा-गोला] १. काठ के खिलौने का समूह जिसमें चट्टू, झुनझुने, गोले आदि रहते हैं। मुहावरा–चट्टे-बट्टे लड़ाना=इधर की बातें उधर कहकर लोगों को आपस में लड़ाना या उनमें वैर-विरोध उत्पन्न कराना। २. वे गोले जिन्हें बाजीगर झोले में से निकालकर लोगों को दिखाते हैं। पद-एक ही थैले के चट्टे-बट्टे=एक ही गुट के मनुष्य। एक ही तरह या स्वाभाव के लोग।
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चट्टान  : स्त्री० [हिं० चट्टा] १. पत्थर का बहुत बड़ा और विशाल खंड। २. किसी वस्तु का बहुत बड़ा और ठोस टुकड़ा। जैसे–नमक की चट्टान। ३. ऐसी वस्तु जिसमें चट्टान की सी दृढ़ता या स्थिरता हो।
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चट्टी  : स्त्री० [हिं०चट्टा या अनु] टिकान। पड़ाव। मंजिल। (विशेषतः पहाड़ी इलाकों में प्रयुक्त) स्त्री० [अनु० चट-चट] खुली एड़ी का एक प्रकार का जूता। स्त्री० [हिं० चाँटा=चपत] १. क्षति। २. जुरमाना। दंड। क्रि० प्र०-भरना।
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चंड  : वि० [सं०√चंड (क्रोध करनना)+अच्] [स्त्री० चंडा] १. बहुत अधिक तेज या प्रखर। बहुत उग्र या तीव्र। २. प्रबल। बलवान। ३. बहुत कठिन। विकट। ४. उग्र, उद्धत या क्रोधी स्वभाव वाला। पुं० १. ताप। गरमी। २. क्रोध। गुस्सा। ३. शिव। ४. कार्तिकेय। ५. यम का एक दूत। ६. एक दैत्य जो दुर्गा के हाथों से मारा गया था। ७. शिव का एक गण। ८. एक भैरव का नाम। ९. विष्णु का एक पारिषद। १॰. इमली का पेड़। ११. राम की सेना का एक बंदर। १२. कुबेर के आठ पुत्रों में से एक जो शिवपूजन के लिए सूँघकर फूल लाया था और इसी पर पिता के शाप से जन्मांतर में कंस का भाई हुआ था और कृष्ण के हाथों से मारा गया था।
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चड़  : पुं० [अनु०] १. लकड़ी आदि के टूटने या फटने से होनेवाला शब्द। २. सूखी लकड़ी के जलने, टूटने आदि से होनेवाला शब्द।
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चंड-दीधिति  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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चंड-नायिका  : स्त्री० [कर्म० स०] १. दुर्गा। २. तात्रिकों की आठ नायिकाओं में से एक जो दुर्गा की सखी कही गई है।
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चड़-बड़  : स्त्री० [अनु०] निरर्थक प्रलाप। टें-टें। बक-बक।
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चंड-भार्गव  : पुं० [कर्म० स०] च्यवन वंशी एक ऋषि जो महाराज जनमेजय के सर्प-यज्ञ के होता हुए थे।
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चंड-मुंड  : पुं० [द्व० स०] चंड और मुंड नाम के दो राक्षस जो दुर्गा के हाथों मारे गये थे।
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चंड-मुंडा  : स्त्री० [सं० चंडमुंड+अच्-टाप्] चामुंडा देवी।
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चंड-रसा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण और एक यगण होता है। इसी को चौबंसा, शशिवदना और पादांकुलक भी कहते हैं।
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चंड-रुद्रिका  : स्त्री० [कर्म० स०] तंत्र में एक प्रकार की सिद्धि जो अष्ट नायिकाओं के पूजन से प्राप्त होती है।
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चंड-वात  : पुं० [कर्म० स०] कुछ अधिक तेज चलनेवाली वह आँधी जिसके बीच-बीच में कुछ वर्षा भी होती है। तूफान। (टाइफून)
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चंड-वृष्टि-प्रयात  : पुं० [चंड-वृष्टि, कर्म० स० चंडवृष्टि-प्रयात, ष० त०] एक प्रकार का दंडक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण (।।।) और सात रगण (ऽ।ऽ) होते हैं।
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चंडकर  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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चंडकौशिक  : पुं० [कर्म० स०] १. एक मुनि का नाम। २. राजा हरिशचंद्र के चरित्र से संबंध रखनेवाला एक प्रसिद्ध नाटक। ३. वह साँप जिसने महावीर स्वामी के दर्शन करके दूसरों को काटना छोड़ दिया था। (जैन)।
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चंडता  : स्त्री० [सं० चंड+तल्-टाप्] चंड होने की अवस्था या भाव।
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चंडत्व  : पुं० [सं० चंड+त्व]=चंडता।
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चड़ना  : अ०=चढ़ना। (पंजाब और राजस्थान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चंडमुंडी  : स्त्री० [सं० चंडमुंड+अच्-ङीष्] तांत्रिकों की एक देवी।
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चंडवती  : स्त्री० [सं० चंड+मतुप्-म=व-ङीप्] १. दुर्गा। २. तांत्रिकों की आठ नायिकाओं में से एक।
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चंडा  : स्त्री० [सं० चंड+टाप्] १. उग्र स्वभाववाली स्त्री। २. तांत्रिकों की आठ नायिकाओं में से एक। ३. केवाँच। कौंछ। ४. चोर नामक गंध द्रव्य। ५. सफेद दूब। ६. सौंफ। ७. सोआ नाम का साग। ८. एक प्राचीन नदी।
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चंडाई  : स्त्री० [सं० चंड=तेज] १. चंडता। २. शीघ्रता। जल्दी। ३. उतावली। ४. प्रबलता। तेजी। ५. अत्याचार। उपद्रव।
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चड़ाक  : पुं० [अनु०] किसी वस्तु के टूटने, फूटने, नीचे जाने पर होनेवाला चड़ शब्द।
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चंडात  : पुं० [सं० चंड√अत् (गति)+अण्. उप० स०] एक प्रकार की सुगंधित घास।
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चंडातक  : पुं० [सं०√अत्+ण्वुल्-अक, चंडा-आतक, ष० त०] एक प्रकार की छोटी कुरती या चोली।
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चंडाल  : वि० [सं०√चंड् (कोप)+आलञ्] [स्त्री० चंडालिन, चंडालिनी]=चांडाल। वि० बहुत ही निकृष्ट या नृशंस् कर्म करनेवाला। पुं० १. एक बहुत निकृष्ट या निम्न जाति जिसकी उत्पत्ति शूद्र पिता तथा ब्राह्मणी माता से मानी जाती है। २. उक्त जाति का पुरुष।
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चंडाल-कंद  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का कंद जो कफ-पित्त नाशक तथा रक्त शोधक माना जाता है।
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चंडाल-पक्षी (क्षिन्)  : पुं० [कर्म० स०] कौआ।
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चंडाल-बाल  : पुं० [हिं० चंडाल+बाल] कुछ लोगों के माथे पर उगनेवाला वह कड़ा और मोटा बाल जो अशुभ फलदायक माना जाता है।
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चंडाल-वल्लकी  : स्त्री०=चंडाल-वीणा।
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चंडाल-वीणा  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार का चिकारा या तँबूरा।
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चंडालता  : स्त्री० [सं० चंडाल+तल्-टाप्] चंडाल या चांडाल होने की अवस्था, गुण या भाव।
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चंडालत्व  : पुं० [सं० चंडाल+त्व]=चंडालता।
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चंडालिका  : स्त्री० [सं० चंडाल+ठन्-इक,टाप्] १.दुर्गा। २. चंडालवीणा। ३. एक प्रकार का वृक्ष जिसकी पत्तियाँ दवा के काम आती है।
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चंडालिनी  : पुं० [सं० चंडाल+इनि-ङीष्] १.चंडाल वर्ण की स्त्री। २. बहुत ही दुष्ट और निकृष्ट स्वभाववाली स्त्री। ३. वह दोहा जिसके आरंभ में जगण पड़ा हो (अशुभ)
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चंडावल  : पुं० [हिं० चंड+अवलि] १. सेना के पीछे का भाग। पीछे रहनेवाले सिपाही। ‘हरावल’ का विपर्याय। २. बहुत बड़ा योद्धा या वीर। ३. पहरेदार। संतरी।
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चंडांशु  : पुं० [चंड अशु, ब० स०] सूर्य।
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चँडासा  : पुं० [हिं० चाँड़=जल्दी+आसा (प्रत्यय)] किसी काम के लिए मचाई जाने वाली जल्दी। मुहावरा–चँडासा चढ़ाना=(क) बहुत जल्दी मचाना। (ख) कोई ऐसा काम या युक्ति करना जिससे किसी को विवश होकर कोई काम जल्दी करना पड़े।
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चंडाह  : पुं० [देश०] गाढ़े की तरह का एक मोटा कपड़ा।
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चंडि  : स्त्री० [सं०√चंड्+इन्]=चंडिका।
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चंडिक  : वि० [सं० चंड+ठक्-इक] [स्त्री० चंडिका] १. कर्कश स्वभाववाला और दुष्ट। २. जिसके लिंग के आगे का चमड़ा कटा हो। जिसका खतना हुआ हो।
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चंडिक-घंट  : पुं० [चंडिका-घंटा, ब० स०] शिव।
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चंडिका  : स्त्री० [सं० चंडिक+टाप्] १. दुर्गा का एक रूप। २. बहुत कर्कश और दुष्ट स्त्री। ३. गायत्री देवी। वि० कर्कश, दुष्टा और लड़ाकी।
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चंडिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० चंड+इमानिच] १. गरमी। ताप। २. उग्रता। तीव्रता। ३. क्रोध। गुस्सा। ४. निष्ठुरता। ५. आवेश। जोश।
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चंडिल  : पुं० [सं०√चंड्+इलच्] १. रूद्र। २. बथुआ नाम का साग। ३. नापित। हज्जाम।
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चंडी  : स्त्री० [सं० चंड+ङीष्] १. दुर्गा का वह रूप जो उन्होंने महिषासुर के वध के लिए धारण किया था। २. बहुत ही उग्र स्वभाववाली, कर्कशा और दुष्टा स्त्री। ३. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः दो नगण, दो सगण और एक गुरु होता है।
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चड़ी  : स्त्री० [सं० चरण या हिं० चढ़ना] उछलकर मारी जानेवाली लात।
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चंडी-कुसुम  : पुं० [ब० स०] १. कनेर का वह पौधा जिसमें लाल रंग के फूल लगते हों। २. [मध्य० स०] उक्त प्रकार का फूल।
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चंडी-पति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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चंडीश  : पुं० [चंडी-ईश, ष० त०] शिव।
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चंडीसुर  : पुं० [सं० चंडीश्वर] एक प्राचीन तीर्थ स्थल।
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चंडु  : पुं०[सं०√चंड्+उन्] १. चूहा। २. छोटा बंदर।
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चंडू  : पुं० [सं० चंड=तीक्ष्ण से प्रायः] अफीम से बनाया हुआ एक प्रकार का अवलेह जो नशे के लिए तमाकू की तरह पीया जाता है।
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चंडूखाना  : पुं० [हिं० चंडू+खाना] वह स्थान जहाँ लोग इकट्ठे होकर चंडू पीते हैं। पद-चंडूखाने की गप=बिलकुल झूठी और बे-सिर पैर की खबर या गप।
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चंडूबाज  : पुं० [हिं० चंडू+फा० बाज (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो प्रायः चंडू पीता हो।
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चंडूल  : पुं० [देश०] १. मधुर स्वरवाली खाकी रंग की एक चिड़िया जो झाड़ियों, पेड़ों आदि में सुन्दर घोंसला बनाकर रहती है। २. बहुत बड़ा बेवकूफ या भद्दा आदमी।
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चंडेश्वर  : पुं० [चंड-ईश्वर, कर्म० स०] शिव का एक रूप।
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चंडोग्रा  : स्त्री० [चंमडा-उग्रा, कर्म० स०] दुर्गा का एक रूप या शक्ति।
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चंडोदरी  : स्त्री० [चंड-उदर, ब० स० ङीष्] एक राक्षसी जिसे रावण ने सीता को समझाने के लिए नियत किया था।
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चंडोल  : पुं० [सं० चन्द्र-दोल] १. हाथी के हौदे की तरह की एक प्रकार की पालकी जिसे चार आदमी उठाते हैं। २. मिट्टी का एक प्रकार का खिलौना। चौघड़ा।
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चड्डा  : पुं० [देश०] जंघे का ऊपरी भाग। वि० मूर्ख।
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चड्डी  : स्त्री० [हिं० चड्डा] एक प्रकार का लँगोट।
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चड्ढी  : स्त्री० [हिं० चढ़ना] बच्चों का एक खेल जिसमें वे एक दूसरे की पीठ पर चढ़कर सवारी करते हैं। मुहावरा–चड्ढी गाँठना=सवारी करना। चड्ढी देना=हारने पर पीठ पर सवार कराना।
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चड्ढो  : स्त्री० [हिं० चुड़=भग] स्त्रियों के लिए एक प्रकार की गाली जो उनकी दुश्चरित्रता की सूचक होती है।
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चढ़त  : स्त्री० [हिं० चढ़ाना] वह जो कुछ चढ़ाया (श्रद्धापूर्वक देवी-देवता को भेंट किया) गया हो।
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चढ़ता  : वि० [हिं० चढ़ना] [स्त्री० चढ़ती] १. आरम्भ होकर बढ़ता हुआ। जैसे–चढ़ता दिन। २. जिस की अभिवृद्धि, उन्नति या विकास हो रहा हो। विकासशील। जैसे–चढ़ती जवानी। ३. किसी की तुलना में अच्छा और बढ़िया। जैसे–इससे भी चढती धोती लाओ। पुं० पूरब की दिशा जिधर से सूर्य चढ़ता या निकलता है। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चढ़न  : स्त्री० [हिं० चढ़ना] चढ़ने या चढ़ाने की क्रिया या भाव। चढ़ाई। २. देवताओं पर चढ़ाया हुआ धन आदि। चढ़ावा। चढ़त।
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चढ़नदार  : पुं० [हिं० चढ़ना+फा० दार (प्रत्य०)] वह मनुष्य जिसे व्यापारी गाड़ी, नाव आदि पर चढ़ाकर माल के साथ उसकी रक्षा के लिए भेजते हैं। (लश०)
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चढ़ना  : अ० [सं० उच्चलन या चलन, प्रा० उच्चउन, चड्ढन] १. केवल पैरों की सहायता से यों ही अथवा हाथों का सहारा लेते हुए ऊपर बढ़ना। जैसे–(क) आदमियों का पहाड़ या सीढियों पर चढ़ना। (ख) गिलहरियों या बंदरों का पेड़ों पर चढ़ना। २. कहीं चलने या जाने के लिए यों ही किसी चीज, जानवर, सवारी आदि के ऊपर बैठना या स्थित होना। आरोहण करना। जैसे–(क) घोड़े, झूले, नाव, पालकी या रेल पर चढ़ना। (ख) किसी का गोद अथवा कंधे, पीट, सिर आदि पर चढना। ३. किसी विशिष्ट उद्देश्य से और जान-बूझकर चल या जाकर पहुँचना। जैसे–(क)मुकदमा चलाने के लिए कचहरी चढ़ना। (ख) मार-पीट करने के लिए किसी के घर या दूकान पर चढना। (ग) युद्ध करने के लिए शत्रु के देश पर चढ़ना। मुहावरा–(किसी पर) चढ़ बैठना=किसी को पूरी तरह से अपने अधीन करते हुए विवश कर देना। ४. किसी प्रकार के क्रमिक विकास में ऊपर की ओर अग्रसर होना या आगे बढ़ना। जैसे–(क) लड़कों का दरजा चढ़ना। (ख) दिन या वर्ष चढ़ना। (ग) ताप-मापक यंत्र का पारा चढ़ना। ५.किसी चीज का मान, मूल्य आदि बढ़ना। जैसे–(क) गाने-बजाने में स्वर चढ़ना। (ख) बाजार में चावल या चीनी के दाम (या भाव) चढ़ना। मुहावरा–(किसी की) चढ़ बनना=यथेष्ट प्रभाव, सफलता आदि के कारण किसी का महत्व या मान बहुत बढ़ जाना। जैसे–मंत्री हो जाने पर अब तो उनकी और भी चढ़ बनी है। ६. देवी-देवताओँ आदि के सामने श्रद्धा-भक्ति से निवेदित और समर्पित किया जाना। जैसे–(क) मंदिर में दक्षिणा या मिठाई चढ़ना। (ख) देवी के आगे बकरा या भेंट चढ़ना। ७. किसी प्रकार या रूप से ऊपर की ओर उठना, खिंचना, तनना या बढ़ना। जैसे–(क) गुड्डी का आसमान में चढ़ना। (ख) तालाब या नदी का पानी चढ़ना। (ग) कुरते की आस्तीन या पायजामें का पाँयचा चढ़ना। ८. एक चीज का दूसरी चीज पर टाँका, बैठाया, मढ़ा, रखा या लगाया जाना। स्थापित या स्थित किया जाना। जैसे–(क) साड़ी पर गोटापट्ठा या बेल चढ़ना। (ख) चूल्हे पर कड़ाही या तवा चढ़ना। (ग) किताब पर जिल्द, तकिये पर गिलाफ या तसवीर पर चौखटा और शीशा चढ़ना। ९. किसी प्रकार की प्रक्रिया से किसी चीज के ऊपरी तल या भाग पर पोता फैलाया या लगाया जाना। जैसे–(क) कपड़े या दरवाजे पर रंग चढ़ना। (ख) बिजली की सहायता से चाँदी पर सोना चढ़ना। १॰. ग्रहों, नक्षत्रों आदि का उदित होकर आकाश में ऊपर आना या उठना। जैसे–चंद्रमा या सूर्य चढ़ना। ११. कुछ विशिष्ट प्रकार के बाजों की डोरी, तार, बंधन आदि का आवश्यकता से अधिक कड़ा या कसा होना, जिसके फलस्वरूप ध्वनि या स्वर अपेक्षया अधिक ऊँचा या तीव्र होता है। जैसे–तबला या सारंगी चढ़ना। १२. किसी प्रकार की क्रिया या प्रक्रिया का आरंभ, संचार या संपादन होना। जैसे–बुखार चढ़ना, रसोई चढ़ना। १३. कुछ विशिष्ट प्रकार की दशाओं, मनोवेगों आदि का उत्कट या तीव्र रूप धारण करते हुए प्रत्यक्ष या स्पष्ट होना। जैसे–(क) जवानी, नशा या मस्ती चढ़ना। (ख) उमंग, गुस्सा, दिमाग, शेखी या शौक चढ़ना। १४. बही खाते आदि के नामों, रकमों आदि का यथा स्थान अंकित होना या लिखा जाना। जैसे–(क) रजिस्टर पर नाम चढ़ना। (ख) बही में हिसाब चढ़ना।
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चढ़वाना  : स० [हिं० चढाना का प्रे०] १. किसी को कहीं चढने में प्रवृत्त करना। २. (माल आदि) चढ़ाने का काम कराना।
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चढ़ा-उतरी  : स्त्री० [हिं० चढ़ना+उतरना] १. बार-बार चढ़ने या उतरने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘चढ़ा-उतरी’।
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चढ़ा-ऊपरी  : स्त्री० [हिं० चढ़ना+ऊपर] १. आर्थिक क्षेत्र में, कोई चीज खरीदने के समय उसके खरीददारों का एक दूसरे से बढ़-बढ़कर मूल्य देने को प्रस्तुत होना। २. एक दूसरे के आगे बढने या निकलने का प्रयत्न करना।
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चढ़ा-चढ़ी  : स्त्री० [हिं० चढ़ना] १. बार-बार लोगों के ऊपर चढ़ने की क्रिया या भाव। २. चढ़ा-ऊपरी।
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चढ़ाई  : स्त्री० [हिं० चढ़ना] १. चढ़ने अर्थात् ऊँचे स्थल की ओर जाने की क्रिया या भाव। २. ऐसी भूमि जिसका विस्तार एक ओर से बराबर ऊँचा होता गया हो। ऊँचाई की ओर जानेवाली भूमि। ३. विपक्षी या शत्रु-राज्य अथवा व्यक्ति के अधिक्षेत्र में पहुँचकर उस पर किया जानेवाला आक्रमण। ४. दे० ‘चढ़न’।
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चढ़ाउ  : पुं०=चढ़ाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चढ़ान  : स्त्री० [हिं० चढ़ना] १. चढ़ने की क्रिया या भाव। २. ऐसा स्थान जो बराबर ऊपर की ओर उठता या चढ़ता चला गया हो। जैसे–पहाड़ की चढ़ान।
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चढ़ाना  : स० [हिं० चढ़ना] १. किसी को चढने में अर्थात् ऊपर की ओर जाने में प्रवृत्त करना। २. उठाकर किसी चीज को ऊँचाई पर ले जाना। ३. यान, सवारी आदि पर किसी को बैठाना। जैसे–लड़के को घोड़ी पर (विवाह के समय) चढ़ाना। ४. किसी प्रकार के क्रमिक विकास में ऊपर की ओर अग्रसर करना या बढ़ाना। ५. किसी चीज का मान, मूल्य आदि बढ़ाना। मुहावरा–सिर पर चढ़ना (दे०)। ६. श्रद्धापूर्वक कोई चीज समर्पित करना। जैसे–भगवान को फल चढ़ाना। ७. कोई ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज उच्च स्तर पर पहुँचे। जैसे–(क) आस्तीन चढ़ाना। (ख) गुड्डी या पतंग चढ़ाना। ८. कोई चीज या आवरण किसी चीज पर रखना या पहनाना। जैसे–(क) चूल्हें पर कड़ाही चढ़ाना। (ख) तकिये पर खोली चढ़ाना। ९. लेप आदि पोतना या लगाना। जैसे–दीवारों पर रंग चढ़ाना। १॰. कोई क्रिया, मनोवेग या व्यापार तीव्र करना। जैसे–किसी को गुस्सा चढ़ाना। ११. बही खाते आदि पर कोई आय या व्यय की मद लिखना। १२. अपने ऊपर या सिर पर लेना। जैसे–कर्ज चढ़ाना।
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चढ़ाव  : पुं० [हिं० चढ़ना] १. चढ़ने या चढ़ाने की क्रिया या भाव। पद-चढ़ाव-उतार =ऊँचा नीचा स्थान। २. बराबर आगे या ऊपर की ओर होनेवाली गति। ३. बढ़ती। वृद्धि। पद-चढ़ाव-उतार=(क) एक ओर मोटे और दूसरी ओर पतले होने का भाव। (ख) उन्नति और अवनति। ४. दर या भाव की तेजी। ५. वह दिशा जिधर से जल-धारा आ रही हो। ६. स्वर का आरोह. ७. काम-वासना। ८. दरी के करघे का वह बाँस जो बुनने वाले के पास रहता है। ९. दे० ‘चढ़ावा’ १ और २।
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चढ़ावा  : पुं० [हिं० चढ़ाना] १. वे आभूषण जो विवाह के समय कन्या को पहनने के लिए वर-पक्ष के घर से आते हैं। २. कन्या को विवाह के समय उक्त आभूषण पहनाने की एक रीति। ३. वे चीजें जो श्रद्धापूर्वक किसी देवता को चढ़ाई जाएँ। पुजापा। ४. उत्तेजना। बढ़ावा। ५. टोटके की वह सामग्री जो बीमारी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए किसी चौराहे या गाँव के किनारे रखी जाती है। उतारा।
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चढ़ैत  : वि० [हिं० चढ़ना+ऐत (प्रत्यय] १. चढ़नेवाला। २. सवार होनेवाला।
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चढैया  : वि० [हिं० चढ़ना+ऐया (प्रत्यय)] चढ़ने या चढ़ानेवाला। उदाहरण–छात्र छत्र को छेम चपरचित चाव-चढ़ैया।-रत्ना०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चढ़ौआ  : पुं०=चढ़ावा।
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चढ़ौवाँ  : वि० [हिं० चढ़ाना] १. (पदार्थ) जो चढ़ाया जाता हो। २. (जूता) जिसकी एड़ी ऊंची या उठी हुई हो।
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चण  : पुं० [सं०√चण् (देना)+अच्] चना।
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चण-द्रुम  : पुं० [उपमि० स०] १. क्षुद्र गोक्षुर। छोटा गोखरू। २. एक प्रकार का रोग।
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चणक  : पुं० [सं०√चण्+क्वुन्-अक] १. चना। २. एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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चणका  : स्त्री० [सं० चणक+टाप्] तीसी।
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चणकात्मज  : पुं० [सं० चणक-आत्मज, ष० त०] चणक के पुत्र, चाणक्य।
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चणपत्री  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] रुदंती नामक पौधा।
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चणिका  : स्त्री० [सं० चणक+टाप्, इत्व] एक प्रकार की घास जो औषध के काम आती है।
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चणिया  : पुं० [गुज० चणियो] औरतों का छोटा घाघरा।
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चतर  : वि०=चतुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=छत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चतरंग  : पुं०=चतुरंग।
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चतरना  : अ० [हिं० छितराना] छितराया जाना। स० छितराना। स० =चितरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चतरभंग  : पुं० [सं० छत्र-भंग] १. बैल के डिल्ले का मांस एक ओर लटक जाने की अवस्था, भाव या दोष। २. दे० ‘छत्र-भंग’।
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चतरभाँगा  : वि० [हिं० चतरभंग] (बैल) जिसके डिल्ले का मांस एक ओर लटक गया हो।
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चतुर  : वि० [सं०√चत् (याचना करना)+उरच्] १.(व्यक्ति) जिसकी बुद्धि प्रखर हो और इसी लिए जो हरकाम बहुत समझ बूझकर तथा जल्दी करता हो। कार्य और व्यवहार में कुशल। २. अपना मतलब निकाल लेनेवाला। ३. निपुण। दक्ष। ४. चालाक। धूर्त्त। ५. जिसे बातें बनानी खूब आती हों।
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चतुर-क्रम  : पुं० [ब० स०] संगीत में ३२. मात्राओं का एक प्रकार का ताल।
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चतुरई  : स्त्री०=चतुराई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चतुरक  : पुं० [सं० चतुर+कन्] चतुर।
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चतुरंग  : वि० [सं० चतुर-अंग, ब० स०] [स्त्री० चतुररंगिणी] जिसके चार अंग हों। चार अंगोंवाला। पुं० १. सेना के चार अंग-हाथी, घोड़ा रथ और पैदल। २. चतुरंगिणी सेना का सेनापति। ३. चतुरंगिणी (सेना)। ४. संगीत में वह गाना जिसमें उसके साधारण बोल के साथ सरगम, तराने और किसी वाद्य (जैसे–तबला, सितार आदि) के बोल भी मिले हों। ५. शतरंज का खेल।
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चतुरंगिणी  : स्त्री० [सं० चतुर-अंग, कर्म० स०+इनि] ऐसी सेना जिसमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदल ये चारों अंग हों।
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चतुरंगी  : वि०=चतुर। उदाहरण–चित्रन होर च्यंति मनरे चतुरंगी नाह।-चन्दवरदाई।
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चतुरंगुल  : पुं० [सं० चतुर-अंगुल, ब० स०] अमलतास।
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चतुरंगुला  : स्त्री० [सं० चतुरंगुल+टाप्] शीतल लता।
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चतुरंता  : स्त्री० [सं० चतुर-अंत, ब० स० टाप्] पृथ्वी।
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चतुरता  : स्त्री० [सं० चतुर+तल्-टाप्] चतुर होने की अवस्था, गुण या भाव।
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चतुरदसगुन  : पुं०=चौदह विद्या (‘दे० ‘विद्या’)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चतुरनीक  : पुं० [सं० चतुर-अनीक, ब० स०] चतुरानन। ब्रह्मा।
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चतुरपन  : पुं० [हिं० चतुर+पन]=चतुरता।
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चतुरबीज  : पुं०=चतुर्बीज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चतुरभुज  : पुं०=चतुर्भुज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चतुरमास  : पुं०=चतुर्मास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चतुरमुख  : वि० पुं० चतुर्मुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चतुरम्ल  : पुं० [सं० चतुर-अम्ल, द्विगुस०] वद्यक में, अमलबेत, इमली, जंबीरी और कागजी नीबू के रसों को मिलाकर बनाया हुआ खट्टा द्रव्य।
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चतुरश्र  : वि० [सं० चतुर-अश्रि, ब० स० अच० नि०] चार कोनोंवाला। पुं० १. ब्रह्मसंतान नामक केतु। २. ज्योतिष में चौथी या आठवीं राशि।
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चतुरसम  : पुं०=चतुरस्सम।
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चतुरस्र  : पुं० [सं० चतुर-अस्रि, ब० स० अच० नि०] १. संगीत में, एक प्रकार का तिताला ताल। २. नृत्य में, हाथ की एक प्रकार की मुद्रा या हस्तक।
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चतुरह  : पुं० [सं० चतुर-अहन्, द्विगुस० टच्] वे याग जो चार दिनों में पूरे होते हों।
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चतुरा  : स्त्री० [हिं० चतुर से] नृत्य में धीर-धीरे भौंह कँपाने की क्रिया। वि० पुं०=चतुर।
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चतुराई  : स्त्री० [सं० चतुर+हिं० आई (प्रत्यय)] १.चतुर होने की अवस्था, गुण या भाव। २. होशियारी। ३. चालाकी। धूर्त्तता।
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चतुरात्मा  : पुं० [सं० चतुर-आत्मन्, ब० स०] १. ईश्वर। २. विष्णु।
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चतुरानन  : वि० पुं० [सं० चतुर-आनन, ब० स०] जिसके चार मुँह हों। चार मुखोंवाला। पुं० ब्रह्मा।
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चतुरापन  : पुं०=चतुराई।
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चतुराश्रम  : पुं० [सं० चतुर-आश्रम, द्विगुस०] ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास ये चारों आश्रम।
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चतुरासीति  : वि० [सं० चतुरशीति] चौरासी।
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चतुरिंद्रिय  : पुं० [सं० चतुर-इंद्रिय, ब० स०] चार इंद्रियों वाले जीव या प्राणी।
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चतुरी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की पतली लंबी नाव जो एक पेड़ के तने को खोदकर बनाई जाती है।
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चतुरूषण  : पुं०[सं० चतुर-ऊषण, द्विगुस०] वैद्यक में सोंठ, मिर्च, पीपल, और पिपरामूल, इन चार उष्ण या गरम पदार्थों का समूह।
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चतुर्गति  : वि० [सं० ब० स०] चार दिशाओं या प्रकारों की गतिवाला। पुं० १. विष्णु। २. ईश्वर। ३. कछुआ।
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चतुर्गव  : पुं० [सं० चतुर-गो, द्विगुस०] वह गाड़ी जिसे चार बैल मिलकर खींचते हों।
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चतुर्गुण  : वि० [सं० द्विगुस] १. चार गुणोंवाला। २. चौपहला। ३. चौगुना।
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चतुर्जातक  : पुं० [सं० द्विगुस०] वैद्यक में, इलायची (फल), दारचीनी (छाल) तेजपत्ता (पत्ता) और नागकेसर (फूल) इन चारों पदार्थों का समूह।
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चतुर्थ  : वि० [सं० चतुर+डट्, थुक् आगम] क्रम या गिनती में चार की संख्या पर पड़नेवाला। चौथा। जैसे–चतुर्थ आश्रम, चतुर्थ श्रेणी। पुं० एक प्रकार का चौताला ताल (संगीत)।
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चतुर्थ-काल  : पुं० [कर्म० स०] १. दिन का चौथा पहर। २. सन्ध्या का समय।
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चतुर्थ-भाज्  : वि० [सं० चतुर्थ√भज् (ग्रहण करना+ण्वि, उप० स०] प्रजा द्वारा उपजाये हुए अन्न आदि में से कर स्वरूप एक चौथाई अंश पानेवाला (अर्थात् राजा)।
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चतुर्थक  : पुं० [सं० चतुर्थ+कन्] वह बुखार जो हर चौथे दिन आता हो। चौथिया ज्वर।
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चतुर्थांश  : पुं० [चतुर्थ-अंश, कर्म० स०] १. किसी चीज के चार बराबर भागों में से हर एक। चौथाई। २. [ब० स०] चार अंशों या भागों में से किसी एक अंश या भाग का मालिक।
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चतुर्थांशी(शिन्)  : वि० [सं० चतुर्थाश+इनि] चतुर्थाश पानेवाला।
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चतुर्थांश्रम  : पुं० [सं० चतुर्थ-आश्रम, कर्म० स०] आश्रमों में चौथा, अर्थात् संन्यास।
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चतुर्थिका  : स्त्री० [सं० चतुर्थ+कन्, टाप्, इत्व] एक परिमाण जो ४ कर्ष के बराबर होता है। पल।
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चतुर्थी  : स्त्री० [सं० चतुर्थ+ङीष्] १. चांद्रमास के किसी पक्ष की चौथी तिथि। चौथ। २. संस्कृत व्याकरण में संप्रदान कारक या उसमें लगनेवाली विभक्ति।
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चतुर्थी-कर्म(र्मन्)  : पुं० [मध्य० स०] विवाह के चौथे दिन के कृत्य जिनमें स्थानिक देवता, नदी आदि के पूजन होते हैं।
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चतुर्थी-क्रिया  : स्त्री० [मध्य० स०] किसी की मृत्यु के चौथे दिन होनेवाले कृत्य।
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चतुर्थी-तत्पुरुष  : पुं० [तृ० त०] तत्पुरुष समास का वह प्रकार या भेद जिसमें चौथी विभक्ति का लोप होता है।
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चतुर्दत  : वि० [सं० ब० स०] चार दाँतोंवाला। जिसके चार दाँत हों। पुं० ऐरावत नामक हाथी जिसके चार दाँत कहे गये हैं।
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चतुर्दश-पदी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] पाश्चात्य ढंग की एक प्रकार की कविता जिसमें कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार कुल चौदह चरण या पद होते हैं। (सॉनेट)।
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चतुर्दश(न्)  : वि० [सं० मध्य० स०] चौदह।
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चतुर्दशी  : स्त्री० [सं० चतुर्दशन्+डट्-ङीष्] चांद्रमास के किसी पक्ष की चौदहवीं तिथि। चौदस।
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चतुर्दष्ट्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. ईश्वर। २. कार्तिकेय की सेना। ३. एक राक्षस का नाम।
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चतुर्दिक्(श)  : अव्य० [सं० द्वि० गुस] चारों दिशाओं में। चारों ओर। पुं० चारों दिशाएँ।
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चतुर्दिश  : पुं० [सं० द्विगुस०] चारों दिशाएँ। क्रि० वि० चारों ओर से। चारों दिशाओं में या से।
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चतुर्दोल  : पुं० [सं० चतुर√दुल् (ढोना)+णिच्+घञ्] १. चार डंडों का हिँडोला या पालना। २. वह सवारी जिसे चार कहार उठाकर ले चलते हों। ३. चंडोल नाम की सवारी।
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चतुर्द्वार  : पुं० [सं० ब० स०] वह घर जिसके चारों ओर चार दरवाजे हों।
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चतुर्धाम(न्)  : पुं० [सं० द्विगुस०] हिन्दुओं के द्वारका, रामेश्वर, जगन्नाथपुरी और बदरिकाश्रम ये चार मुख्य तीर्थ या धाम।
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चतुर्बाहु  : वि० [सं० ब० स०] चार बाँहों या भुजाओं वाला। पुं० १. महादेव। शिव। २. विष्णु।
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चतुर्बीज  : पुं० [सं० द्विगुस०] वैद्यक में, काला जीरा, अजवाइन, मेंथी और हालिम इन चार पदार्थों के दानों या बीजों का समूह।
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चतुर्भद्र  : पुं० [सं० द्विगुस०] अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष इन चारों पदार्थों का समूह। वि० उक्त चारों पदार्थों से युक्त।
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चतुर्भाव  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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चतुर्भुज  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० चतुर्भुजा] १. (व्यक्ति) जिसकी चार भुजाएँ हों। चार भुजाओं वाला। २. (ज्यामिति में वह क्षेत्र) जिसमें चार भुजाएँ या कोण हों। जैसे–सम चतुर्भुज क्षेत्र। पुं० १. विष्णु। २. ज्यामिति में, चार भुजाओंवाला क्षेत्र।
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चतुर्भुजा  : स्त्री० [सं० चतुर्भुज+टाप्] १. गायत्री रूप धारिणी महाशक्ति। २. दुर्गा की एक चार भुजाओं वाली विशिष्ट मूर्ति।
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चतुर्भुजी  : पुं० [हिं० चतुर्भुज से] १. एक वैष्णव संप्रदाय जिसके आचार, व्यवहार आदि रामानन्दियों से मिलते जुलते होते हैं। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी या सदस्य। वि० चार भुजाओंवाला।
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चतुर्मास  : पुं० [सं० द्विगुस] आषाढ़ मास की शुक्ला एकादशी से कार्तिक-शुक्ला एकादशी तक की अवधि जिनमें विवाह आदि शुभ काम वर्जित हैं। चौमासा।
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चतुर्मुख  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० चतुर्मुखी] जिसके चार मुख हों। चार मुँहोंवाला। क्रि० वि० चारों ओर। पुं० १. ब्रह्मा। २. संगीत में, एक प्रकार का चौताला ताल। ३. नृत्य में एक प्रकार की चेष्टा।
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चतुर्मुखी  : वि० [हिं० चतुर्मुख से] चतुर्मुख।
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चतुर्मूर्ति  : पुं० [सं० ब० स०] विराट्, सूत्रात्मा, अव्याकृत और तुरीय इन चारों अवस्थाओं या रूपों में रहनेवाला, ईश्वर।
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चतुर्युग  : पुं० [सं० द्विगुस] चारों युगों का समूह। चतुर्युगी।
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चतुर्युगी  : स्त्री० [सं० चतुर्युग+ङीष्] सत्ययुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग इन चारों युगों का समूह। ४३२॰॰॰॰ वर्षों का समूह। चौकडी़।
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चतुर्वक्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] ब्रह्मा।
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चतुर्वर्ग  : पुं० [सं० द्विगुस] अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष ये चारों पदार्थ या इनका समूह।
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चतुर्वर्ण  : पुं० [सं० द्विगुस] हिंदुओं के चारों वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
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चतुर्वाही (हिन्)  : वि० [सं० चतुर√वह (ढोना)+णिनि, उप० स०] जिसे चार (पशु या व्यक्ति) मिलकर खींचते या वहन करके ले चलते हों। पुं० चार घोड़ों की गाड़ी। चौकडी।
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चतुर्विद्य  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने चारों वेद पढ़े हों। २. चारों विद्याओं का ज्ञाता। पंडित।
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चतुर्विद्या  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] चारों वेदों की विद्या या ज्ञान।
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चतुर्विध  : वि० [सं० ब० स०] १. चार प्रकारों या रूपों का। २. चौतरफा। क्रि० वि० चार प्रकारों या रूपों में।
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चतुर्विंश  : वि० [सं० चतुर्विशति+डट्] चौबीसवाँ। पुं० एक दिन में पूरा होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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चतुर्विंशति  : वि० [सं० मध्य० स०] चौबीस। स्त्री० चौबीस का सूचक अंक या संख्या।
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चतुर्वीर  : पुं० [सं० ब० स०?] चार दिनों में होनेवाला एक प्रकार का सोमयाग।
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चतुर्वेद  : पुं० [सं० ब० स०] १. परमेश्वर। ईश्वर। २. [कर्म० स०] चारों वेद। वि० [ब० स०] चारों वेदों का ज्ञाता।
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चतुर्वेदी(दिन्)  : पुं० [सं० चतुर्वेद+इनि] १. चारों वेदों को जाननेवाला पुरुष। २. ब्राह्मणों का एक भेद या वर्ग।
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चतुर्व्यूह  : पुं० [सं० ष० त०] १. चार मनुष्यों अथवा पदार्थों का समूह। जैसे–(क) राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न। (ख) कृष्ण, बलदेव, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध। (ग) संसार, संसार का हेतु, मोक्ष और मोक्ष का उपाय। २. विष्णु। ३. योग-शास्त्र। ४. चिकित्सा-शास्त्र।
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चतुर्होत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १.परमेश्वर। २. विष्णु।
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चतुल  : वि० [सं०√चत् (गति)+उलच्] स्थापन करनेवाला। स्थापक।
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चतुःशाख  : वि० [सं० चतुर-शाखा, ब० स०] चार शाखाओंवाला। पुं० देह। शरीर।
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चतुश्चक्र  : पुं० [सं० चतुर-चक्र, ब० स०] एक प्रकार का चक्र जिसके अनुसार मंत्रों के शुभ और अशुभ होने का विचार किया जाता है। (तंत्र)।
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चतुश्चत्वारिंश  : वि० [सं० चतुर-चत्वारिंशत्, मध्य० स०] चौवालीसवाँ।
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चतुश्चत्वारिंशत्  : स्त्री० [सं० चतुर-चत्वारिंशत्, मध्य० स०] चौवालीस की संख्या या अंक।
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चतुश्चरण  : वि० [सं० चतुर-चरण,ब० स०] १. चार पैरोंवाला। २. चार भागों या वर्गोंवाला। पुं० चौपाया। पशु।
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चतुश्श्रृंग  : वि० [सं० चतुर-श्रृंग,ब० स०] जिसके चार सींग हों। चार सीगोंवाला। पुं० कुशद्वीप के एक पर्वत का नाम। (पुराण)।
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चतुष्क  : वि० [सं० चतुर+कन्] जिसके चार अंग या पार्श्व हों। चौपहल। पुं० १. चार वस्तुओँ का वर्ग या समूह। २. वास्तु में एक प्रकार का चौकोर मकान। ३. एक प्रकार की छड़ी या डंडा।
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चतुष्कर  : पुं० [सं० चतुर-कर, ब० स०] वह जंतु जिसके चारों पैरों के आगे के भाग हाथ के समान हों। पंजेवाले जानवर। जैसे–बंदर। वि० जिसके चार हाथ हों।
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चतुष्करी(रिन्)  : वि० [सं० चतुर-कर, द्विगुस+इनि] चतुष्कर।
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चतुष्कर्ण  : वि० [सं० चतुर-कर्ण, ब० स०] (बात) जिसे चार कान अर्थात् दो ही आदमी जानते हों।
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चतुष्कर्णी  : स्त्री० [सं० चतुष्कर्ण+ङीष्] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका।
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चतुष्कल  : वि० [सं० चतुर-कला, ब० स०] चार कलाओं या मात्राओं वाला। जिसमें चार कलाएँ या मात्राएँ हों। जैसे–छन्दः शास्त्र में चतुष्कल गण, संगीत में चतुष्कल ताल।
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चतुष्की  : स्त्री० [सं० चतुष्क+ङीष्] १. एक प्रकार की चौकोर पुष्करिणी। २. मसहरी। ३. चौकी।
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चतुष्कोण  : वि० [सं० चतुर-कोण, ब० स०] चार कोणोंवाला। चौकोर। चौकोना। जैसे–चतुष्कोण क्षेत्र। पुं० ज्यामिति में, वह क्षेत्र जिसमें चार कोण हों। (क्वाडैंगिल)।
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चतुष्टय  : पुं० [सं० चतुर+तयप्] १. चार की संख्या। २. चार चीजों का समूह या वर्ग। ३. फलित ज्योतिष में जन्म-कुंडली में केन्द्र, लग्न, और लग्न से सातवाँ तथा दसवाँ घर या स्थान।
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चतुष्टोम  : पुं० [सं० चतुर-स्तोम, मध्य० स०] १. चार स्तोमवाला एक प्रकार का यज्ञ। २. अश्वमेज्ञ यज्ञ का एक अंग। ३. वायु। हवा।
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चतुष्पथ  : पुं० [सं० चतुर-पथिन्, ब० स०] १. चौराहा। चौमुहानी। २. ब्राह्मण।
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चतुष्पद  : वि० [सं० चतुर-पद, ब० स०] १. चार पैरोंवाला। (जीव या पशु) २. (पद्य) जिसमें चार चरण या पद हों। पुं० १. चौपाया। २. वैद्यक में वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक इन चारों का समूह। ३. फलित ज्योतिष में एक प्रकार का करण जिसमें जन्म लेनेवाला दुराचारी, दुर्बल और निर्धन होता है। ४. दे० ‘चतुष्पदी’।
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चतुष्पद-वैकृत  : पुं० [ष० त०] एक जाति के पशुओं का दूसरी जाति के पशुओं के साथ होनेवाला मैथुन अथवा स्तन-पान।
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चतुष्पदा  : स्त्री० [सं० चतुष्पद+टाप्] चौपैया छंद जिसके प्रत्येक चरण में तीस मात्राएँ होती हैं।
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चतुष्पदी  : स्त्री० [सं० चतुष्पद+ङीष्] १. चौपाई छंद जिसके प्रत्येक चरण में १5 मात्राएँ और अन्त में गुरु-लघु होते हैं। २. ऐसा गीत जिसमें चार चरण या पद हों।
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चतुष्पर्णी  : स्त्री० [सं० चतुर-पर्ण, ब० स० ङीष्] १. छोटी अमलोनी। २. सुसना नाम का साग जिसमें चार-चार पत्तियाँ एक साथ होती हैं।
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चतुष्पाटी  : स्त्री० [सं० चतुर√पट् (गति)+णिच्+अण्-ङीष्, उप० स०] नदी।
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चतुष्पाठी  : स्त्री० [सं० चतुर-पाठ, ब० स० ङीष्] वह विद्यालय जिसमें बच्चों को चारों वेद पढा़ये जाते हैं।
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चतुष्पाणि  : वि० [सं० ब० स०] जिसके चार हाथ हों। चार हाथोंवाला। पुं० विष्णु।
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चतुष्पाद  : वि० पुं० [सं० चतुर-पाद, ब० स०] चतुष्पद।
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चतुष्पार्श्व  : वि० [सं० चतुर-पार्श्व, ब० स०] चौपहरा। चौतरफा।
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चतुष्फल  : वि० [सं० चतुर-फल, ब० स०] १. जिसमें चार फल हों। २. जिसमें चार पहल या पार्श्व हों। चौपहला।
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चतुष्फलक  : पुं० [सं० चतुर-फल, ब० स० कप्] ऐसा ठोस पदार्थ जिसमें किसी तल के ऊपर चार त्रिकोणिक तल (जैसे–किसी के लास या रवे में होते हैं) हों। (ट्रेट्राड्रेड्रन)।
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चतुष्फला  : स्त्री० [सं० चतुरष्फल+टाप्] नागबला नाम की बूटी।
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चतुःसीमा(मन्)  : स्त्री० [सं० चतुर-सीमन्, ष० त०] किसी क्षेत्र, भवन आदि के चारों ओर की सीमा। चौहद्दी।
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चतुस्तन  : वि० [सं० चतुर-स्तन, ब० स०] [स्त्री० चतुस्तनी] चार स्तनोंवाला (प्राणी)। स्त्री० गाय। गौ।
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चतुस्ताल  : पुं० [सं० चतुर-ताल, ब० स०] संगीत में एक प्रकार का चौताला ताल।
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चतुस्सन  : पुं० [सं० चतुर-सन्, द्विगुस०] १. सनक, सनत्कुमार,सनंदन और सनातन ये चार ऋषि जिनके नामों के आरंभ में ‘सन’ है। २. विष्णु।
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चतुस्सम  : पुं० [सं० चतुर-सम, ब० स०] १. एक औषध जिसमें लौंग, जीरा, अजवाइन और हड़ बराबर मात्राओँ में मिलाये जाते हैं। यह पाचक, भेदक और आमशूल नाशक कहा गया है। २. एक मिश्रित गंध द्रव्य जिसमें ३ भाग कस्तूरी, ४ भाग चंदन, ५ भागकुकुंम और ६ भाग कपूर मिला रहता है। वि० १. जिसमें चार चीजें बराबर मिली हों। २. जो चारों ओर अथवा प्रकार से बराबर हो।
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चतुस्सम्प्रदाय  : पुं० [सं० चतुर-सम्प्रदाय, द्विगुस] वैष्णवों के ये चार प्रधान संप्रदाय-श्री, माध्व, रुद्र और सनक।
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चतुस्सीमा(मन्)  : स्त्री० [सं० चतुर-सीमन्, द्विगुस० डाप्] चौहद्दी।
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चतुस्सूत्री  : स्त्री० [सं० चतुर-सूत्र, द्विगुस, ङीष्०] व्यासदेव कृत-वेदांत के आरम्भिक चार सूत्र जो बहुत कठिन हैं और जिन पर भाष्यकारों में बहुत मत भेद हैं।
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चतूरात्र  : पुं० [सं० चतुर-रात्रि, द्विगुस, अच्] चार रात्रियों में समाप्त होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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चत्र-भुज  : वि० पुं० =चतुर्भुज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चत्वर  : पुं० [सं०√चत् (स्वीकार करना)+ष्वरच्] १. कोई चौकोर टुकड़ा या स्थान। २. वह स्थान जहाँ चार भिन्न-भिन्न मार्ग आकर मिलते हों। चौमुहानी। चौराहा। ३. वह स्थान जहाँ भिन्न-भिन्न जातियों, देशों आदि के लोग आकर एकत्र होते या मिलते हों। ४. हवन आदि के लिए बनाया हुआ चौतरा या वेदी। ५. चार रथों का समूह।
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चत्वर-वासिनी  : स्त्री० [सं० चत्वर√वस् (रहना)+णिनि-ङीष्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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चत्वाल  : पुं० [सं०√चत्+वालञ्] १. हवन आदि के लिए जमीन में खोदा हुआ चौकोर गडढा। होमकुंड। २. कुश नामक घास। ३. गर्भ। ४. चबूतरा। चौतरा। ५. वेदी।
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चंद  : पुं० [सं०√चंद् (आह्रादित करना)+णिच्+अच्] १. चंद्रमा। २. कपूर। ३. पिंगल में रगण का दसवाँ भेद जिसमें दो लघु, एक दीर्घ और तब फिर दो लघु वर्ण होते हैं। (।।ऽ।।)। जैसे–पुतली घर। ४. लाहौर के रहनेवाले हिंदी के एक प्राचीन कवि जो दिल्ली के हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सभा में थे। उनका बनाया हुआ पृथ्वी राज रासो बहुत प्रसिद्ध महाकाव्य है। चंदवरदाई। वि० [फा०] १. गिनती में थोड़ा। कुछ। २. कई। जैसे–चंद आदमी आने को हैं।
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चंद-घर  : पुं० [सं० ष० त०] ध्रुपद राग का एक भेद।
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चंदक  : पुं०[सं०√चंद्+णिच्+ण्वुल्-अक] १.चंद्रमा। २. चाँदनी। ज्योत्स्ना। ३. चाँद या चाँदा नाम की छोटी मछली। ४. सिर पर पहना जानेवाला एक अर्द्धचंद्राकार गहना। ५. उक्त गहने के आकार की कोई रचना जो मालाओं आदि के नीचे शोभा के लिए लगाई जाती है। ६. एक प्रकार की मछली।
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चंदक-पुष्प  : पुं० [मध्य० स०] १. लौंग। लवंग। २. [ष० त० ] चंद्रकला।
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चंदण  : पुं० =चंदन।
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चंदन  : पुं० [सं०√चंद्+णिच्+ल्युट-अन] १. दक्षिण भारत में उगनेवाला एक प्रसिद्ध पेड़ जिसके हीर की लकड़ी बहुत सुगंधित होती है। गंधसार। मलयज। श्रीखंड। २. उक्त वृक्ष की लकडी। ३. उक्त लकड़ी को जल में घिस या रगड़कर बनाया हुआ गाढ़ा घोल या लेप जिसका टीका आदि लगाय़ा जाता है। मुहावरा–चंदन उतारना=पानी के साथ चंदन की लकड़ी को घिसना जिसमें उसका अंश पानी में घुल जाय। चंदन चढ़ाना-किसी चीज पर घिसे हुए चंदन का लेप करना। ४. गंध-प्रसारिणी लता। ५. छप्पय छंद के तेरहवें भेद का नाम। ६. एक प्रकार का बड़ा तोता जो उत्तरीय भारत, मध्य० भारत, हिमालय की तराई, काँगड़ा आदि में होता है। वि० १. बहुत ही शीतल और सुगंधित। २. उत्कृष्ट। उदाहरण–बंदन तेज त्यौं चंदन की रति।।-भूषण।
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चंदन-गिरि  : पुं० [ष० त०] मलय पर्वत।
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चंदन-गोह  : स्त्री० [हिं० चंदन+गोह] १. चंदन के पेड़ पर रहनेवाली एक प्रकार की गोह। २. छोटी गोह।
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चंदन-धेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] चंदन से लेपी हुई वह गौ जो सौभाग्यवती स्वर्गीया माता के उद्देश्य से (वृषोत्सर्ग की तरह) खुली छोड़ दी जाती है।
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चंदन-पुष्प  : पुं० [ष० त०] १. चंदन का फूल। २. [ब० स०] लौंग। लवंग।
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चंदन-यात्रा  : स्त्री० [ब० स०] वैशाख सुदी तीज। अक्षय तृतीया।
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चंदन-सार  : पुं० [ष० त०] १. पानी के साथ घिसकर तैयार किया हुआ चंदन। २. [ब० स०] वज्रक्षार। ३. नौसादार।
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चंदनवती  : वि० स्त्री० [सं० चंदन+मतुप्, वत्व, ङीष्] केरल देश की भूमि जहाँ चंदन के वृक्ष अधिकता से होते हैं।
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चंदनहार  : पुं०=चंद्रहार।
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चंदना  : स्त्री० [सं० चंदन+अच्-टाप्]=चंदन-शारिवा। स० [सं० चंदन] शरीर में चंदन पोतना या लगाना। पुं०=चंद्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चंदनादि  : पुं० [चंदन-आदि, ब० स०] वैद्यक में चंदन,खस,कपूर,बकुची इलायची आदि पित्तशामक दवाओं का एक वर्ग।
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चंदनादि-तैल  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में लाल-चंदन के योग से बननेवाला एक प्रसिद्ध तैल जो अनेक रोगों में शरीर पर मला जाता है।
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चंदनी  : वि० [हिं० चंदन+ई (प्रत्यय)] १. चंदन संबंधी। चंदन का। २. जिसमें चंदन की सुगंध हो। ३. चंदन की लकड़ी के रंग का। कुछ लाली लिये हुए भूरा। स्त्री०[सं०चंदन+ङीष्] रामायण के अनुसार एक प्राचीन नदी। पुं.शिव। स्त्री०-चाँदनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चंदनीया  : स्त्री० [सं०√चंद्+अनीयर+टाप्] गोरोचन।
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चँदनौटा  : पुं० [हिं० चंदन+औटा (प्रत्यय)] १. वह चकला जिस पर चंदन घिसा जाता है। २. एक प्रकार का लंहगा। उदाहरण–चंदननौटा खोरोदक फारी।-जायसी।
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चँदनौता  : पुं०=चँदनौटा।
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चंदबान  : पुं० [सं० चंद्रबाण] एक प्रकार का बाण जिसके सिरे पर अर्द्धचंद्राकार लोहे की गाँसी वा फल लगा रहता था और जिससे शत्रुओं का सिर काटा जाता था।
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चदरा  : पुं० दे० ‘चादर’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चँदराना  : अ० [सं० चंद्रमा] १. पागल या विक्षिप्त होना जो चंद्रमा का प्रभाव माना जाता है। २. जान-बूझकर अनजान बनना। स० १.(किसी को) झूठा, पागल मूर्ख बनाना। २. चकमा या धोखा देना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चदरिया  : स्त्री० चादर। उदाहरण–झीनी झीनी बीनी चदरिया।-कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चँदला  : वि० [हिं० चाँद=खोपड़ी] जिसकी चाँद के बाल उड़ या झड़ गये हों। खल्वाट। गंजा।
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चँदवा  : पुं० [सं० चन्द्रकः] १. एक प्रकार का छोटा मंडप जो राजाओं के सिहासन या गद्दी के ऊपर चाँदी, सोने आदि की चार चोबों के सहारे ताना जाता है। चँदोवा। वितान। चदरछत। २. छाया आदि के लिए ताना जानेवाला लंबा-चौड़ा कपड़ा। ३. किसी चीज के ऊपरी भाग में लगाया जानेवाला कोई गोल या चौकोर टुकड़ा। ४. मोर की पूँछ पर की चंद्रिका। ५. एक प्रकार की मछली। चाँदा। ६. तालाब में का वह गहरा गड्ढा जिसमें मछलियाँ फँसाकर पकड़ी जाती हैं।
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चंदसिरी  : स्त्री० [सं० चंद-श्री] एक प्रकार का बड़ा गहना जो हाथी के मस्तक पर बाँधा या पहनाया जाता है।
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चंदा  : पुं० [सं० चंद्र] १. किसी परोपकारी अथवा सार्वजनिक कार्य के लिए दी या माँगी जानेवाली व्यक्तिगत आर्थिक सहायता। जैसे–मंत्री जी ने अनाथालय के निर्माण के लिए सभी भाइयों से चंदा देने की अपील की है। २. वह नियत धन जो किसी अवधि के लिए किसी संस्था को उसके सदस्य आदि बने रहने अथवा किसी पत्र-पत्रिका के ग्राहक बने रहने के लिए देना पड़ता है। जैसे–इस पत्रिका का वार्षिक चंदा ५) है। (सब्सक्रिप्शन उक्त दोनों अर्थों में) ३. किसी प्रकार का बीमा कराने पर उसके लिए समय-समय पर दिया जानेवाला धन। (प्रीमियम)।
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चंदाममा  : पुं० [हिं०चंदा=चाँद+मामा] बच्चों को बहलाने का एक प्रिय पद जो उनके लिए चंद्रमा का वाचक होता है।
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चंदावत  : पुं० [सं० चन्द्र] क्षत्रियों की एक जाति।
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चंदावती  : स्त्री० [सं० चंद्रवती] संगीत में एक रागिनी जो श्रीराग की सहचरी कही गई है।
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चंदावल  : पुं० [फा०] वे सैनिक जो सेना के पीछे रक्षा के लिए चलते हैं। चंडावल। हरावल का विपर्याय।
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चंदिका  : स्त्री०=चंद्रिका।
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चंदिनि, चंदनी  : स्त्री० [सं० चंद्रिका] १. चाँदनी। चंद्रिका। २. बिछाने की चाँदनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चँदिया  : स्त्री० [हिं० चाँद का अल्पा] १.सिर का मध्यभाग। खोपड़ी चाँद। मुहावरा–चँदिया पर बाल तक न छोड़ना=(क) सिर पर जूते, थप्पड़ आदि मार-मारकर सिर गंजा कर देना। (ख) सर्वस्व छीन या लूट-लेना। चँदिया मूड़ना=चँदिया पर बाल तक न छोड़ना। २. वह छोटी रोटी जो सब के अंत में बचे हुए आटे और पलेथन से बनाई जाती है। ३. तालाब के नीचे का गहरा गड्ढा। ४. चाँदी की छोटी टिकिया।
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चंदिर  : पुं० [सं०√चंद्+किरच्] १.चंद्रमा। २. हाथी। ३. पूरक।
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चदिर  : पुं० [सं०√चन्द् (चमकना)+किरच्] १. चन्द्रमा। २. कपूर। ३. हाथी। ४. साँप।
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चंदिरा  : स्त्री० [सं० चंद्रिका] चंद्रमा का प्रकाश। ज्योत्स्ना। चाँदनी। उदाहरण–शरद चंदिरा उतर रही धीरे धरती पर।-पंत।
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चंदे  : अ० य० [फा ०] १.थोड़े से। कुछ। २. थोड़ी देर तक।
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चँदेरी  : स्त्री० [सं० चेदि वा० हिं०चंदेल] राजस्थान के अंतर्गत एक प्राचीन नगरी जो शिशुपाल की राजधानी थी।
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चँदेरीपति  : पुं० [हिं० चँदेरी+सं० पति] चँदेरी का राजा, शिशुपाल।
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चंदेल  : पुं० [सं० चेदि से] [स्त्री० चंदेलिन] क्षत्रियों की एक जाति या शाखा।
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चंदेवरी  : स्त्री०=चँदेरी। उदाहरण–प्रोहित चंदेधरी पुरी।-प्रिथीराज।
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चँदोआ  : पुं०=चँदवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चँदोवा  : पुं०=चँदवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चद्दर  : पुं० [फा० चादर] १. ओढ़ने की चादर। २. धातु का लंबाचौड़ा चौकोर टुकड़ा या पत्तर। जैसे–पीतल या लोहे की चद्दर। ३. नदी के बहाव में वह स्थिति जिसमें उसका पानी कुछ-दूर तक ऊपर से देखने पर चादर के समान समतल रहता है। ४. एक प्रकार की छोटी तोप।
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चंद्र  : पुं० [सं०√चंद्र+रक्] १.चंद्रमा। २. जल। पानी। ३. कपूर। ४. सोना। स्वर्ण। ५. रोचनी नाम का पौधा। ६. पुराणानुसार १८ उपद्वीपों में से एक। ७. लाल रंग का मोती। ८. हीरा। ९. मृगशिरा नक्षत्र। १॰.नेपाल का एक पर्वत। ११. मोर की पूँछ की चंद्रिका। १२. सानुनासिक वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली बिंदी। १३. हठ योग में, (क) इड़ा नाड़ी। (ख) तालु-मूल में स्थित वह गाँठ जिसमें से अमृत या सोम नामक रस निकलता हैं। १४. रहस्य संप्रदाय में, ज्ञान। स्त्री० चंद्रभागा में गिरनेवाली एक नदी। वि० १. आनंददायक। २. सुंदर। ३. श्रेष्ठ।
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चंद्र-कला  : स्त्री० [ष० त०] १. चंद्रमा की १६ कलाएँ या भाग जिनके नाम ये हैं-पूषा, यशा, सुमनसा, रति, प्राप्ति, धृति, ऋद्धि, सौम्या, मरीचि, अंशुमालिनी, अंगिरा,शशिनी, छाया, संपूर्णमंडला, तुष्टि और अमृता। २. उक्त कलाओं में से कोई एक या प्रत्येक। ३. चंद्रमा की किरण। ४. माथे पर पहनने का एक गहना। ५. एक प्रकार का छोटा ढोल। ६. एक प्रकार की मछली। वचा। ७. एक प्रकार का सवैया छंद जिसके प्रत्येक चरण में आठ सगण और एक गुरु होता है। इसका दूसरा नाम सुन्दरी भी है। ८. संगीत में एक प्रकार का सात-ताला ताल जिसमें तीन गुरु और तीन प्लुत के बाद एक लघु होता है। ९. मोर की पूँछ पर की चंद्रिका। १॰. एक प्रकार की बंगला मिठाई।
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चंद्र-कांत  : पुं० [उपमि० स०] १. एक प्रकार की प्रसिद्ध कल्पित मणि जो लोक प्रवाद के अनुसार चंद्रमा की किरणें पड़ने पर पसीजने लगती है। २. चंदन। ३. कुमुद। ४. एक राग जो हिंडोल राग का पुत्र कहा गया है। ५. लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु की राजधानी का नाम।
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चंद्र-कान्ता  : स्त्री० [ष० त०] १. चंद्रमा की स्त्री। २. रात्रि। रात। ३. मल्ल प्रदेश की एक प्राचीन नगरी। ४. वे वर्णवृत्त जिनमें पन्द्रह अक्षर होते हों।
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चंद्र-काम  : पुं० [मध्य० स०] तंत्र में वह मानसिक कष्ट या पीड़ा जो किसी पुरुष को उस समय होती है जब कोई स्त्री उसको वशीभूत करने के लिए मंत्र-तंत्र आदि का प्रयोग करती है।
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चंद्र-कुमार  : पुं० [ष० त०] बुध-ग्रह जो चंद्रमा का पुत्र माना जाता है।
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चंद्र-कुल्या  : स्त्री० [ष० त०] कश्मीर की एक प्राचीन नदी।
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चंद्र-कूट  : पुं० [ष० त०] कामरूप देश का एक पर्वत।
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चंद्र-केतु  : पुं० [ब० स०] लक्ष्मण का एक पुत्र, जिसे चंद्रकांत प्रदेश का राज्य मिला था।
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चंद्र-क्रीड  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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चंद्र-क्षय  : पुं० [ष० त०] अमावास्या।
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चंद्र-गिरि  : पुं० [ष० त०] नैपाल का एक पर्वत जो काठमांडू के पास है।
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चंद्र-गुप्त  : पुं० [तृ० त०] १. चित्रगुप्त। २. मगध देश का प्रथम मौर्यवंशी राजा जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र में थी और जिसने यूनानी राजा सील्यूकस पर विजय प्राप्त करके उसकी कन्या ब्याही थी। समुद्रगुप्त इसी का पुत्र था।
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चंद्र-गृह  : पुं० [ष० त०] कर्क राशि।
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चंद्र-गोल  : पुं० [कर्म० स०] १. चंद्र-मंडल। २. चंद्रलोक।
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चंद्र-ग्रह  : पुं०=चंद्रग्रहण।
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चंद्र-ग्रहण  : पुं० [ष० त० ] १. चंद्रमा की वह स्थिति जिसमें उसका कुछ या सारा बिंब पृथ्वी की छाया पड़ने के कारण दिखाई नहीं देता। २. हठयोग की परिभाषा में वह अवस्था जब प्राण इड़ा नाड़ी के द्वारा कुंडलिनी में पहुँचते हैं।
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चंद्र-चंचल  : पुं० [उपमि० स०] खरसा या चंद्रक नाम की मछली।
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चंद्र-चित्र  : पुं० [ष० त०] वाल्मीकी रामायण में उल्लिखित एक देश।
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चंद्र-चूड़  : पुं०[ब० स०] (मस्तक पर चंद्रमा धारण करनेवाले) शिव। महादेव।
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चंद्र-चूड़ामणि  : पुं०[ब० स०] १. फलित ज्योतिष में ग्रहों का एक योग। जब नवम स्थान का स्वामी केन्द्रस्थ हो तब यह योग होता है। २. महादेव।
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चंद्र-ताल  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का बारहताला ताल जिसे परम भी कहते हैं। (संगीत)।
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चंद्र-दारा  : स्त्री० [ष० त०] चंद्रमा की पत्नियाँ। विशेष–आकाशस्थ २७ नक्षत्र ही जो दक्ष की कन्याएँ कही जाती हैं, चंद्रमा की पत्नियाँ मानी गई हैं।
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चंद्र-द्युति  : स्त्री० [ष० त०] १. चंद्रमा का प्रकाश या किरण। चाँदनी। २. चंदन वृक्ष की लकड़ी।
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चंद्र-धनु(म्)  : पुं० [मध्य० स०] रात के समय चंद्रमा के प्रकाश में दिखाई देनेवाला इंद्रधनुष।
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चंद्र-धर  : वि० [ष० त०] चंद्रमा को धारण करनेवाला। पुं० महादेव।
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चंद्र-पंचांग  : पुं० [मध्य० स०] वह पंचांग जिसमें महीनों की तिथियों का आरंभ चान्द्रमास के अनुसार अर्थात् प्रतिपदा से होता है।
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चंद्र-पर्णी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] प्रसारिणी लता।
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चंद्र-पाद  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा की किरणें।
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चंद्र-पाषाण  : पुं० [मध्य० स०] चंद्रकांत मणि।
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चंद्र-पुत्र  : पुं० [ष० त०] बुध ग्रह, जो पुराणानुसार चंद्रमा का पुत्र माना गया है।
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चंद्र-पुरी  : स्त्री० [सं० चंद्र+देश० पूर] गरी के योग से बननेवाली एक प्रकार की बंगला मिठाई।
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चंद्र-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. चाँदनी। २. सफेद भटकटैया। ३. बकुची।
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चंद्र-प्रभ  : वि० [ब० स०] जिसमें चंद्रमा की-सी प्रभा या ज्योति हो। पुं० १. जैनों के आठवें तीर्थकर जो महासेन के पुत्र थे। २. तक्षशिला के एक प्राचीन राजा।
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चंद्र-प्रभा  : स्त्री० [ष० त०] १. चंद्रमा की प्रभा। चाँदनी। २. [ब० स०] बकुची नामक औषधि। ३. वैद्यक की एक प्रसिद्ध गुटिका जो अर्श, भगंदर आदि के रोगियों को दी जाती है।
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चंद्र-प्रासाद  : पुं० [मध्य० स०] छत के ऊपर का वह कमरा जिसमें बैठकर लोग चाँदनी का आनंद लेते हों।
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चंद्र-बदन  : वि० [ब० स०] [स्त्री० चंद्रवदनी] चंद्रमा के समान सुन्दर मुखवाला। परम सुन्दर।
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चंद्र-बंधु  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा का भाई शंख (क्योकिं चंद्रमा के साथ वह भी समुद्र से निकला था) २. [ब० स०] कुमुद, जो चंद्रमा के निकलने पर खिलता है।
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चंद्र-बधूटी  : स्त्री०=चंद्रवधू।
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चंद्र-बाण  : पुं० [मध्य० स०] पुरानी चाल का एक बाण जिसका फल अर्द्धचंद्राकार होता था।
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चंद्र-बाला  : स्त्री० [ष० त०] १. चंद्रमा की पत्नी। २. चंद्रमा की किरण। ३. बड़ी इलायची।
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चंद्र-बिन्दु  : पुं० [मध्य० स०] लिखने में अर्द्धचंद्राकार युक्त वह बिन्दु जो सानुनासिक वर्ण के ऊपर लगता है। जैसे–‘साँस’ में के ऊपर का।
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चंद्र-बिंब  : पुं० [ष० त०] दिन के पहले पहर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एक राग जो हिंडोल का पुत्र कहा गया है।
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चंद्र-भवन  : पुं० [ष० त०] संगीत में एक प्रकार का राग।
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चंद्र-भस्म  : पुं० [उपमि० स०] कपूर।
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चंद्र-भा  : स्त्री० [ष० त०] १. चंद्रमा का प्रकाश। २. [ब० स०] सफेद भटकटैया।
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चंद्र-भाग  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा की कला। २. चंद्रमा के सोलह कलाओं के आधार पर सोलह की संख्या। ३. [ब० स०] हिमालय पर्वत का वह भाग जिसमें से चन्द्रभागा या चनाब नदी निकलती है।
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चंद्र-भागा  : स्त्री० [सं० चन्द्रभाग+अच्-टाप्] पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में बहनेवाली प्रसिद्ध चनाब नदी का पुराना नाम जो उसके चंन्द्रभाग नामक हिमालय के एक शिखर से निकलने के कारण पड़ा था।
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चंद्र-भाट  : पुं० [सं० चंद्र+हिं० भाट] शिव और काली के उपासकों का एक संप्रदाय।
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चंद्र-भाल  : पुं० [ब० स०] वह जिसके मस्तक पर चंद्रमा हो, अर्थात् महादेव।
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चंद्र-भास  : पुं० [ब० स०] तलवार।
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चंद्र-भूति  : स्त्री० [ब० स०] चाँदी।
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चंद्र-भूषण  : पुं० [ब० स०] वह जिसका भूषण चंद्रमा हो,अर्थात् महादेव।
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चंद्र-मंडल  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा का पूरा बिंब या मंडल।
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चंद्र-मणि  : पुं० [मध्य० स०] १. चंद्रकांत मणि। २. उल्लाला छंद का दूसरा नाम।
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चंद्र-मल्लिका  : स्त्री० [मध्य० स०] एक प्रकार की चमेली।
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चंद्र-मात्रा  : स्त्री० [ष० त०] तालों के १४ भेदों में से एक। (संगीत)।
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चंद्र-माला  : स्त्री० [ष० त० ] १. २८ मात्राओं का एक छंद। २. चंद्रहार.
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चंद्र-मुकुट  : पुं० [ब० स०] शिव।
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चंद्र-मुख  : वि०[ब० स०] [स्त्री० चंद्रमुखी] चंद्रमा के समान सुन्दर मुखवाला।
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चंद्र-मौलि  : पुं०[ब० स०] शिव। महादेव।
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चंद्र-रत्न  : पुं० [मध्य० स०] मोती।
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चंद्र-रेख  : स्त्री०[ष० त०] १.चंद्रमा की कला। २. चंद्रमा की किरण। ३. द्वितीया का चंद्रमा। ४. बकुची। कठरी। ५. एक प्रकार का गहना। ६. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः यगण, रगण, भगण और दो यगण होते हैं।
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चंद्र-ललाम  : पुं० [ब० स०] महादेव। शिव।
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चंद्र-लेखा  : स्त्री०=चंद्र-रेख।
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चंद्र-लोक  : पुं० [ष० त०] १. आकाश-मंडल का वह क्षेत्र जिसमें चंद्रमा रहता है। चंद्रमा का लोक। २. चंद्रमा में स्थित जगत तथा संसार।
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चंद्र-वधू  : स्त्री० [ष० त०] बीरबहूटी।
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चंद्र-वर्त्म(न्)  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगण, नगण, भगण और सगण (ऽ।ऽ ।।। ऽ॥ ॥ऽ) होते हैं।
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चंद्र-वल्लरी  : स्त्री० [ष० त०] सोमलता।
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चंद्र-वल्ली  : स्त्री० [ष० त०] १. सोम लता। २. माधवी लता। ३. प्रसारिणी नाम की लता।
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चंद्र-वश  : पुं० [ष० त०] क्षत्रियों का एक प्राचीन वंश जिसके आदि पुरुष राजा पुरूरपवा थे।
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चंद्र-वेध  : पुं० [ब० स०] शिव। महादेव।
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चंद्र-व्रत  : पुं० [ष० त०] =चांद्रायण (व्रत)।
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चंद्र-शेखर  : पुं० [ब० स०] १. महादेव जिनके मस्तक पर चंद्रमा है। २. एक पर्वत का नाम जो अराकान में है। ३. एक प्राचीन नगर। ४. संगीत में, एक प्रकार का सात-ताला ताल।
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चंद्र-श्रृंग  : पुं० [ष० त०] द्वितीया के चंद्रमा के दोनों नुकीले छोर या भाग।
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चंद्र-सुत  : पुं० [ष० त०] बुध(ग्रह)।
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चंद्र-हार  : पुं०[मध्य० स०] एक प्रकार का गले का हार जिसमें अर्द्धचंद्राकार धातु के कई टुकड़े लगे रहते हैं और बीच में पूर्णचन्द्र के आकार का गोल टिकड़ा बना होता है।
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चंद्र-हास  : पुं० [ब० स०] १. खङ्। तलवार। २. रावण की तलवार का नाम। ३. [ष० त०] चंद्रमा का प्रकाश। चाँदनी।
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चंद्रक  : पुं० [सं० चंद्र+कन्] १. चंद्रमा। २. चंद्रमा की तरह घेरा या मंडल। ३. चंद्रिका। चाँदनी। ४. मोर की पूँछ पर की चंद्रिका। ५. नाखून। नख। ६. कपूर। ७. सफेद मिर्च। ८. सहिजन। ९. जल। पानी। १॰. एक प्रकार की मछली। ११. एक राग जो मालकोश का पुत्र कहा गया है।
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चंद्रकर  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा की किरण। २. चाँदनी। चंद्रिका।
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चंद्रकला-धर  : पुं० [ष० त०] महादेव। शिव।
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चंद्रकी(किन्)  : वि० [सं० चंद्रक+इनि] चंद्रक से युक्त। पुं० मयूर। मोर।
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चंद्रज  : पुं०[सं०चंद्र√जन् (उत्पन्न होना)+ड, उप० स०] बुध ग्रह, जो चंद्रमा का पुत्र माना जाता है।
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चंद्रजोत  : स्त्री० [सं० चंद्रज्योति] १.ज्योत्स्ना। चाँदनी। २. एक प्रकार की आतिशबाजी।
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चंद्रबोड़ा  : पुं० [सं० चंद्र-बोड्र] एक प्रकार का अजगर।
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चंद्रभानु  : पुं० [सं०] श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा के १॰. पुत्रों में से सातवें पुत्र का नाम।
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चंद्रमस्  : पुं० [सं० चंद्र=आह्याद√मि (मापना)+असुन्, म आदेश] चंद्रमा।
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चंद्रमा  : पुं० [सं० चंद्रमस्] पृथ्वी का एक प्रसिद्ध उपग्रह जो पृथ्वी से २५३॰॰॰ मील दूर है और जिसका व्यास २१6॰ मील है तथा जिसके कारण रात के समय पृथ्वी पर चाँदनी या प्रकाश होता है और जो एक चंद्रमास में पृथ्वी की एक परिक्रमा करता है। चाँद। विधु। शशि।
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चंद्रमा-ललाट  : पुं० [हिं० चंद्रमा+ललाट] शिव, जिनके ललाट पर चंद्रमा है।
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चंद्रमा-ललाम  : पुं० [हिं० चंद्रमा+ललाम=तिलक] महादेव।
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चंद्रमास  : पुं०=चांद्रमास।
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चंद्रवंशी(शिन्)  : वि० [सं०चंद्रवंश+इनि] १. चंद्रवंश संबंधी। २. क्षत्रियों के चंद्रवंश में जन्म लेनेवाला।
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चंद्रवा  : पुं०=चँदवा।
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चंद्रवार  : पुं० [ष० त०] सोमवार।
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चंद्रशाला  : स्त्री० [सं० चंद्र√शाल् (शोभित होना)+अच्-टाप्,उप.स०] १. चाँदनी। चंद्रिका। २. छत के ऊपर का कमरा जिसमें बैठकर लोग चाँदनी रात का आनंद लेते हों।
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चंद्रशालिका  : स्त्री० [सं० चंद्रशाला+कन्-टाप्, ह्रस्व,इत्व] =चंद्रशाला।
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चंद्रशिला  : स्त्री० [मध्य० स०] चंद्रकांत मणि।
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चंद्रशूर  : पुं० [स० त०] हालों या हालम नाम का पौधा। चसुर।
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चंद्रस  : पुं० [देश०] गंधा बिरोजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चंद्रहासा  : स्त्री० [सं० चंद्रहास+टाप्] सोमलता।
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चंद्रा  : स्त्री० [सं० चंद्र+टाप्] १. छोटी इलायची। २. चँदोआ। ३. गुडूची। गुरुच। स्त्री० [सं० चंद्र] मरने के समय से कुछ पहले की वह अवस्था जिसमें आँखों की टकटकी बँध जाती है, गला कफ से रूँद जाता है और बोला नहीं जाता।
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चंद्रांकित  : पुं० [चंद्रअंकित, तृ० त०] महादेव। शिव। वि० चंद्रमा की आकृति से अंकित या युक्त।
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चंद्रातप  : पुं० [चंद्र-आतप, ष० त० ] १. चाँदनी। चंद्रिका। २. [चंद्रआ√तप्+अच्] चँदवा।
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चंद्रात्मज  : पुं० [चंद्र-आत्मज, ष० त०] बुध ग्रह।
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चंद्रानन  : वि०[चंद्र-आनन, ब० स०] [स्त्री० चंद्रानना]=चंद्रवदन। पुं०=कार्तिकेय।
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चंद्रापीड़  : पुं[चंद्र-आपीड़ ,ब० स०] १.शिव। महादेव। २. कश्मीर का एक प्रसिद्ध धर्मात्मा राजा जो प्रतापादित्य का बड़ा पुत्र था और जो शकाब्द ६॰४ में सिहांसन पर बैठा था।
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चंद्रायण  : पुं०=चांद्रायण।
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चंद्रायतन  : पुं० [ष० त० ] चंद्रशाला।
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चंद्रार्क  : पुं० [चंद्र-अर्क,द्व० स०] १. चंद्रमा और सूर्य। २. चाँदी, ताँबे आदि के योग से बनी हुई एक मिश्र धातु।
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चंद्रार्द्ध  : पुं० [चंद्र-अर्द्ध,ष० त०] चंद्रमा का आधा भाग जो प्रायः द्वितीया के दिन दिखाई देनेवाले रूप का होता है। अर्धचंद्र।
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चंद्रार्द्ध-चूड़ामणि  : पुं० [ब० स०] महादेव। शिव।
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चंद्रालोक  : पुं० [चंद्र-आलोक, ष० त०] १. चंद्रमा का प्रकाश। चाँदनी। चंद्रिका। २. कविवर जयदेव कृत संस्कृत का एक प्रसिद्ध अलंकार-ग्रंथ।
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चंद्रावती  : स्त्री० [चंद्र-आवर्त, ब० स० टाप्] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक पद में ४ नगण पर एक सगण होता है और ८,७ पर विराम। विराम न होने पर “शशिकला” (मणिगुणशरभ) वृत्त होता है। इसका दूसरा नाम ‘मणिगुणनिकर’ है।
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चंद्रावली  : स्त्री० [चंद्र-आवली, ष० त०] कृष्ण की सखी एक गोपी जो चंद्रभानु की कन्या थी।
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चंद्राशु  : पुं० [चंद्र-अंशु,ष० त० ] १. चंद्रमा की किरण। २. [ब० स०] विष्णु।
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चंद्रिका  : स्त्री० [सं० चंद्र+ठन्-इक, टाप्] १. चंद्रमा का प्रकाश। चांदनी। २. मोर की पूँछ पर का वह अर्द्धचंद्राकार चिन्ह्र जो सुनहले मंडल से घिरा होता है। ३. इलायची। ४. चाँदा नाम की मछली। ५.चंद्रभागा नदी। ६. कनफोड़ा नाम की घास। ७. चमेली। ८. सफेद भटकटैया। ९. मेथी। १॰. चंसुर या हालम पौधा। ११. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में न, न, त, त, ग (॥। ।॥ ऽऽ। ऽऽ। ऽ) और ७-६ पर यति होती है। १२. एक देवी का नाम। १३. माथे पर पहनने का टीका या बेंदी। १४. स्त्रियों के पहनने का एक प्रकार का मुकुट या शिरोभूषण जिसे चंद्रकला भी कहते थे।
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चंद्रिका-द्राव  : पुं० [ब० स०] चंद्रकांत मणि।
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चंद्रिकातप  : पुं० [चंद्रिका-आतप, मयू० स०] चांदनी। ज्योत्स्ना।
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चंद्रिकापायी(यिन्)  : पुं० [सं० चंद्रिका√पा (पीना)+णिनि युक् उप० स०] चकोर पक्षी जो चंद्रमा से निकलनेवाले अमृत या रस का पीनेवाला कहा गया है।
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चंद्रिकामिसारिका  : स्त्री० [चंद्रिका-अभिसारिका, मध्य० स०]=शुक्लाभिसारिका (नायिका)।
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चंद्रिकोत्सव  : पुं० [चंद्रिका-उत्सव, मध्य० स०] शरत् पूर्णिमा के दिन होनेवाला एक प्राचीन उत्सव।
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चंद्रिमा  : स्त्री०=चंद्रिका।
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चंद्रिल  : पुं० [सं० चंद्र+इलच्] १. शिव। महादेव। २. नाई। हज्जाम। ३. बथुवा नाम का साग।
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चंद्रेष्टा  : स्त्री० [चंद्र-इष्टा, ब०स०] कुमुदिनी।
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चंद्रोदय  : पुं० [चंद्र-उदय, ष० त०] १. चंद्रमा के उदित होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. चँदोआ। ३. वैद्यक में एक रस।
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चंद्रोपराग  : पुं० [सं० चंद्र-उपराग,ष० त०] चंद्रमा को लगनेवाला ग्रहण। चंद्र-ग्रहण।
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चंद्रोपल  : पुं० [चंद्र-उपल, मध्य० स०] चंद्रकांत मणि।
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चंद्रौल  : पुं० [सं० चंद्र] राजपूतों की एक जाति।
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चनक  : पुं० [सं० चणक] चना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चनकन  : पुं० [देश० ] शलगम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चनकना  : अ० चटकना। उदाहरण–चनकि गई सीसी गयो छिरकत छनकि गुलाब।-श्रृं०।
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चनखना  : अ० [?] चिढ़ना। खफा। होना। उदाहरण–श्री हरिदास के स्वामी श्यामा कुंज बिहारी सों व्यारी जब तुँ बोलंत चनख चनख।-हरिदास।
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चनचना  : पुं० [अनु०] एक प्रकार का कीड़ा जो तमाकू की फसल को हानि पहुँचाता है। झनझना।
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चनन  : पुं० =चंदन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चनवर  : पु० [?] ग्रास। कौर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चना  : पुं० [सं० चण, चणक, प्रा० चणअ, ने० बं० चना, सिं० चणो, उ० गु० पं० मरा० चणा] १.चैती की फसल का एक प्रसिद्ध पौधा जो हाथ भर ऊँचा होता है। २. उक्त पौधे के दाने या बीज जिनकी गिनती अनाजों में होती है। बूट। छोले। पद-लोहे के चनेबहुत कठिन और परिश्रमसाध्य काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चनियारी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का जल-पक्षी जो साँभर झील के निकट और बरमा में अधिकता से पाया जाता है। इसके पर बहुत सुन्दर होते हैं और टोपियों में लगाने तथा गुलूबंद बनाने के काम में आते हैं। हरगीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चनुअरी  : स्त्री० चनोरी।
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चनेठ  : पुं० [हिं० चना] १. एक प्रकार की घास जिसकी पत्तियाँ चने की पत्तियों से मिलती-जुलती होती हैं। २. इस घास से बनाया हुआ एक औषध जो पशुओं को कुछ रोगों में खिलाया जाता है।
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चनोरी  : स्त्री० [?] वह भेड़ जिसके सारे शरीर के बाल या रोएँ सफेद हों। (गड़ेरिया)।
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चन्द्र-कांति  : स्त्री० [ब० स०] १. चाँदी। रजत। २. [ष० त०] चाँदनी। चंद्रिका।
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चन्हारिन  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का जंगली चिड़िया।
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चंप  : पुं० [सं०√चंप् (गमन)+अच्] १. चंपा। २. कचनार।
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चप  : स्त्री० [देश०] कोई घोली हुई वस्तु। घोल। जैसे–चूने का चप। वि० [फा०] बायाँ। वाम। पद-चप व रास्त(क) बाएँ और दाहिने भाग। (ख) बाएँ और दाहिने, दोनों ओर। स्त्री० [हिं० चाप] चाप। दबाव। उदाहरण–कौन की है चप तोहि तेरौ अरि को।-सेनापति।
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चप-कुलिश  : स्त्री० [तु० चपकलश] १. तलवारों से होनेवाली लड़ाई। २. अड़चन, असमंजस या कठिनाई की स्थिति। क्रि० प्र० में पड़ना। ३. बहुत अधिक भीड़-भाड़ या रेल-पेल।
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चंप-कोश  : पुं० [ब० स०] कटहल।
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चंपई  : वि० [हिं० चंपा] चंपा के फूल के रंग का। पीले रंग का।
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चंपक  : पुं० [सं०√चंप्+ण्वुल्-अक] १.चंपा। २. चंपाकली। ३. चंपा केला। ४. सांख्य में एक सिद्धि जिसे रम्यक भी कहते हैं। ५. संपूर्ण जाति का एक राग जो रात के दूसरे पहर में गाया जाता है।
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चंपक-माला  : पुं० [ष० त०] १. चंपक के फूलों की माला। २. चंपाकली। ३. चार चरणों का एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः भगण, मगण, सगण और गुरु होता है।
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चंपक-रंभा  : स्त्री० [मध्य० स०] चंपा केला।
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चपकन  : स्त्री० [हिं० चपकना] १. एक प्रकार का अंगा। अँगरखा। २. किवाड़, संदूक आदि में लोहे, पीतल आदि का वह दोहरा साज जिसमें ताला लगाकर बंद किया जाता है।
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चपकना  : अ०=चिपकना।
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चंपकली  : स्त्री०=चंपाकली।
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चपका  : पुं०[हिं० चपकना] एक प्रकार की कीड़ा।
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चपकाना  : स० चिपकाना।
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चंपकारण्य  : पुं० [चंपक-अरण्य, मध्य० स०] आधुनिक चम्पारन का पुराना नाम।
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चंपकालु  : पुं० [सं० चंपक√अल् (भूषित करना)+उण्] जाक या रोटी फल का पेड़।
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चंपकावती  : स्त्री० [सं० चंपक+मतुप्, वत्व० ङीष्, दीर्घ] चंपापुरी।
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चपट  : पुं० [सं०√चप् (सात्वना देना)+क, चप√अट् (जाना)+अच्, पररूप] चपत। तमाचा।
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चपटना  : अ० चिपकना। २. =चिमटना।
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चपटा  : वि० [स्त्री० चपटी] चिपटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चपटाना  : स० १. चिपकाना। २. चिमटना।
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चपटी  : स्त्री० [हिं० चपटा] १. एक प्रकार की किलनी जो चौपायों को लगती है। २. हाथ से बजाई जानेवाली ताली। थपोड़ी। ३. भग। योनि। मुहावरा–चपटी खेलना या लड़ानासंभोग की वासना पूरी करने के लिए दो स्त्रियों का परस्पर योनि मिलाकर रगड़ना। (बाजारू)।
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चपड़-चपड़  : स्त्री० [अनु०] वह शब्द जो कुत्ते, बिल्ली, शेर आदि के पानी पीते समय होता है। क्रि० वि० उक्त प्रकार का शब्द करते हुए।
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चपड़ा  : पुं० [हिं० चपटा] १. साफ की हुई लाख का पत्तर। २. किसी चीज का चिप्पड़ या पत्तर। ३. लाल रंग का एक प्रकार का फतिंगा जो गंदे और सींड़वाले स्थानों में रहता है। ४. मस्तूल में बाँधने की रस्सी।
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चपड़ी  : स्त्री० [हिं० चपटा] १. तख्ती। पटिया। २. दे० ‘चिपड़ी’।
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चंपत  : वि० [देश०] १.(व्यक्ति) जो बिना किसी से कुछ कहे अथवा अपना पता बतलाये कहीं चला अथवा भाग गया हो। २. (वस्तु) जो किसी स्थान पर से गायब कर दी गई हो।
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चपत  : पुं० [सं० चपट] १.वह प्रहार जो मनुष्य अपनी हाथ की उँगलियों तथा हथेली के योग से किसी के सिर पर करता है। 2,.लाक्षणिक अर्थ में,आघात या क्षति। क्रि.प्र.-जड़ना।-लगना।-लगाना।
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चपतगाह  : स्त्री० [हिं० चपत+फा० गाह] खोपड़ी जिस पर चपत लगाया जाता है। (परिहास)।
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चपतियाना  : स० [हिं० चपत] किसी को चपत या चपतें लगाना।
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चपती  : स्त्री० [हिं० चिपटा] काठ का वह चिमटा छड़ जिससे लड़के पट्टी, कागज आदि पर सीधी लकीरें खींचते हैं।
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चपदस्त  : पुं० [फा० चप+दस्त] ऐसा घोड़ा जिसका अगला दाहिना पैर सफेद हो।
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चँपना  : अ० [सं० चप्०] १. बोझ पड़ने पर झुकना या दबना। २. उपकार, लज्जा आदि के कारण किसी के सामने झुकना या दबना। स०=चाँपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चपना  : अ० [हिं० चाँप] १. अंदर या नीचे की ओर धँसना। २. किसी के सामने लज्जित भाव से चुप रहना और उससे दबना। ३. दबाव पड़ने से कुचला जाना। ४. चौपट या नष्ट होना।(क्व०)
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चपनी  : स्त्री० [हिं० चपना] १. छिछली कटोरी। २. बरतनों का ढक्कन। ३. दरियाई नारियल का बना हुआ एक प्रकार का कमंडल। ४. वह लकड़ी जिसमें ताना बाँधकर गड़रिये कंबल बुनते हैं। ५. घुटने की हड्डी। चक्की।
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चपर-कनाती  : वि० [हिं० चपत+तु० कनात+ई (प्रत्यय)] बहुत ही तुच्छ कोटि का ऐसा व्यक्ति जो इधर-उधर लोगों की खुशामद और सेवाएँ करके पेट पालता हो।
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चपर-गट्ट  : वि० [हिं० चौपट+गटपट] १. चारों ओर से कसकर पकड़ा या दबाया हुआ। २. विपत्ति का मारा। अभागा।
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चपरकनातिया  : वि० चपर-कनाती।
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चपरना  : अ० [हिं० चुपड़ना](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. आपस में खूब अच्छी तरह मिलना। ओत-प्रोत होना। उदाहरण–दोउ चपरि ज्यौं तरुवर छाया-सूर। २. भाग या हट जाना। स० दे० ‘चुपड़ना’।
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चपरनी  : स्त्री० [देश०] वेश्याओं का गाना। मुजरा। (वैश्याओँ की परिभाषा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चपरा  : वि० [?] कोई बात कहकर या कोई काम करके मुकर जानेवाला। झूठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य-१. हठात्। २. जैसे हो, वैसे। ३. ख्वाहमख्वाह। पुं० दे० ‘चपड़ा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चपराना  : स० [हिं० चपरा] किसी को झूठा बनाना। झुठलाना।
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चपरास  : स्त्री० [हिं० चपरासी] १. धातु आदि का वह टुकड़ा जिसे पेटी या परतले में लगाकर अरदली, चौकीदार, सिपाही आदि पहनते हैं और जिस पर उनके मालिक, कार्यालय आदि के नाम खुदे या छपे रहते हैं। २. वह कलम जिसमें सुनार मुलम्मा करते हैं। ३. मालखंभ की एक कसरत जो दुबगली के समान होती है। दुबगली में पीठ पर से बेंत आता है इसमें छाती पर से आता है। ४. आरे आदि के दाँतों का दाहिनी या बाई ओर होनेवाला झुकाव। (बढ़इयों की परिभाषा) ५. कुरतों के मोढ़े पर की चौड़ी धज्जी या पट्टी।
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चपरासी  : पुं० [फा० चप=बायाँ+रास्तदाहिना] १. वह नौकर जो चपरास पहनकर अपने मालिक के सामने उसकी छोटी-मोटी सेवाएँ करने के लिए सदा उपस्थित रहता है। अरदली। जैसे–किसी अदालत या हाकिम का चपरासी। २. कार्यालय के कागज-पत्र आदि लाने या ले जानेवाला नौकर।
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चपरि  : क्रि० वि० [सं० चपल] १. फुरती से। तेजी से। २. जोर से। ३. सहसा। एक बारगी। ४. बलपूर्वक पकड़ या दबाकर । उदाहरण–चपरि चढ़ायौ चाप चंद्रमा ललाम कौ।-तुलसी।
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चपरी  : स्त्री० [हिं० चपटा] खेसारी नामक का कदन्न जिसमें चपटी फलियाँ लगती है।
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चपरैला  : पुं० [देश०] एक प्रकार की घास। कूरी।
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चपरौनी  : स्त्री० [हिं० चपटा] लोहारों का एक औजार जिससे बालटू का सिरा पीटकर चौड़ा किया जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चपल  : वि० [सं० चुप् (रेंगना)+कल, उकारस्य, अकार] १. जो गति में हो। गतिमान। २. काँपता या हिलता हुआ। ३. अस्तिर। ४. क्षणिक। ५. चुलबुला। ६. चटपट काम करनेवाला, फुरतीला (व्यक्ति)। ७. उतावली करनेवाला। जल्दबाज। ८. चालाक। धूर्त्त। पुं० १. पारा। पारद। २. मछली। ३. चातक। पपीहा। ४. एक प्रकार का पत्थर। ५. चोर नामक गंध-द्रव्य। ६. राई। ७. एक प्रकार का चूहा।
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चपलक  : वि० [सं० चपल+कन्] १. अस्थिर। चचंल। २. बिना सोचे-समझे काम करनेवाला। अविचारी।
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चपलकाँटा  : पुं० [सं० चपल+हिं० फट्टा=धज्जी] जहाज के फर्स के तख्तों के बीच की खाली जगह में खड़े बल में बैठाए हुए तख्ते या पच्चड़ जिनसे मस्तूल फँसे रहते हैं।
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चपलता  : स्त्री० [सं० चपल+तल्-टाप्] १. चपल होने की अवस्था या भाव। चंचलता। २. साहित्य में वह अवस्था जब किसी प्रकार के अनुराग के कारण आचरण की गंभीरता या अपनी मर्यादा का ध्यान नहीं रह जाता। इसकी गिनती संचारी भावों में होती है। ३. तेजी। फुरती। ४. जल्दी। शीघ्रता। ५. चालाकी। ६. ढिठाई। धृष्टता।
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चपलत्व  : पुं० [सं० चपल+त्व]=चपलता।
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चपलस  : पुं० [देश०] एक प्रकार का ऊंचा पेड़ जिसकी लकड़ी से सजावट के सामान, चाय के संदूक, नावों के तख्ते आदि बनते हैं। यह ज्यों ज्यों पुरानी होती है त्यों त्यों अधिक कड़ी और मजबूत होती जाती है।
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चपला  : स्त्री० [सं० चपल+टाप्] १. लक्ष्मी। २. बिजली। विद्युत। ३. दुश्चरित्रा या पुंश्चली स्त्री। ४. पिप्पली। ५. जीभ। जिह्रा। ६. भाँग। विजया। ७. मदिरा। शराब। ८. आर्या छंद का वह भेद जिसमें पहले गण के अंत में गुरु हो, दूसरा गण जगंण हो, तीसरा गण दो गुरुओं का हो, चौथा गण जगण हो, पाँचवें गण का आदि गुरु हो, छठा गण जगण हो, सातवाँ जगण न हो और अंत में गुरु हो। ९. प्राचीन काल की एक प्रकार की नाव जो ४८ हाथ लंबी, २४ हाथ चौड़ी और २४ हाथ ऊँची होती थी और केवल नदियों में चलती थी। वि० सं० ‘चपल’ का स्त्री। पुं० [हिं० चप्पड़] जहाज में लोहे या लकड़ी की पट्टी जो पतवार के दोनों ओर उसकी रेक के लिए लगाई जाती है। (लश०)।
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चपलाई  : स्त्री० चपलता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चपलान  : पुं० [हिं० चप्पड़] जहाज की गलही के अगल-बगल के कुंदे जो धक्के सँभालने के लिए लगाए जाते हैं। (लश०)।
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चपलाना  : अ० [सं० चपल] १. चपलता दिखाना। २. धीरे-धीरे आगे बढ़ना, चलना या हिलना-डोलना। स० १. किसी को चपल बनाना। २. चलाना-फिराना या हिलाना-डुलाना।
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चपली  : स्त्री० [हिं० चप्पल+ई (प्रत्यय)] छोटी चप्पल।
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चपवाना  : स० [हिं० चपना का प्रे०] चपने या चापने का काम किसी से कराना।
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चंपा  : पुं० [सं० चंप+टाप्, प्रा० चंपअ, चंपय, गु० चाँपु, पि० चंबा, म० चाँफा] [वि० चंपई] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसमें उग्र गंधवाले पीले लंबोतरे फल लगते हैं। २. उक्त वृक्ष का फूल। ३. बंगाल में होनेवाला एक प्रकार का केला। ४. एक प्रकार का घोड़ा। ५. एक प्रकार का रेशम का कीडा। ६. एक प्रकार का बहुत बड़ा सदाबहार पेड़ जो दक्षिण भारत में अधिकता से होता है। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती और इमारत के काम के सिवा गाड़ी, पालकी नाव आदि बनाने के काम में भी आती है। इसे ‘सुलताना चंपा’ भी कहते हैं। स्त्री० अंग देश की पुरानी राजधानी का नाम।
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चपाक  : क्रि० वि० [अनु०] १. अचानक। २. चटपट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चंपाकली  : स्त्री० [हिं० चंपा+कली] गले में पहनने का एक आभूषण जिसमें चंपा की कली के आकार के सोने के टुकड़े रेशम के डोरे में पिरोये हुए रहते हैं।
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चपाट  : पुं० [हिं० चपटा] वह जूता जिसकी ऐड़ी उठी न हो। चपौर जूता।
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चपाती  : स्त्री० [सं० चर्पटी, प्रा० चप्पती, बं० चापाती, गु० ने० फा० मरा० चपाती] एक प्रकार की पतली, हलकी और मुख्यतः हाथों से दबाकर बढ़ाई हुई (चकले पर बेली हुई रोटी से भिन्न) रोटी। पद-चपाती सा पेट-ऐसा पेट जो बहुत निकला हुआ न हो। कृशोदर।
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चपाती-सुमा  : पुं० [उ०] चपाती या रोटी की तरह के पतले सुमोंवाला घोड़ा।
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चपाना  : स० [हिं० चपना] १. किसी को चपने या दबने में प्रवृत्त करना। उदाहरण–मुफलिस को इस जगह भी चपाती है मुफलिसी।-नजीर। २. एक रस्सी के सिरे को दूसरी रस्सी के सिरे के साथ बटकर जोड़ना या मिलाना।
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चंपापुरी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] अंग देश की पुरानी राजधानी, चंपा। कर्णपुरी।
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चंपारण्य  : पुं० [सं० चंपा-अरण्य, मध्य० स०] प्राचीन काल का एक जंगल जो उस स्थान पर था जिसे आज-कल चंपारन कहते हैं।
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चंपावती  : स्त्री० [सं० चंपा+मतुप् वत्व, ङीष्, दीर्घ] चंपा नगरी।
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चंपू  : पुं० [सं०√चंप्+उ] नाटक का वह प्रकार या भेद जिसका कुछ अंश गद्य में हो और कुछ पद्य में।
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चपेकना  : स० चिपकाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चपेट  : स्त्री० [सं० चप√इट् (गति)+अच्] १. चपेटने की क्रिया, परिणाम या भाव। २. आघात। प्रहार। ३. तमाचा। थप्पड़। ४. कठिनाई या संकट की स्थिति।
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चपेटना  : स० [सं० चपेट] १. अचानक आक्रमण, प्रहार आदि करके दबाना या संकट में डालना। दबोचना। २. उक्त प्रकार की क्रिया से दबाते हुए पीछे हटाना। जैसे–सिक्खों की सेना चारों ओर से चपेटने लगी। ३. क्रोधपूर्वक डराते-धमकाते हुए किसी पर बिगड़ना।
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चपेटा  : पुं० चपेट। वि० [सं० चपेटना] दोगला। वर्ण-संकर।
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चपेटिका  : स्त्री० [सं० चपेट+कन्-टाप्, इत्व] तमाचा।
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चपेटी  : स्त्री० [सं० चपेट+ङीप्] भादों सुदी छठ। भाद्रपद की शुक्ला षष्ठी। (इस दिन स्त्रियाँ संतान की रक्षा के उद्देश्य से पूजन आदि करती हैं)।
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चपेड़  : स्त्री० [सं० चपेट] तमाचा। थप्पड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चपेरना  : स०=चपेटना।
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चंपेल  : पुं० [सं० चंपा-तेल] चमेली अथवा चंपा का तेल। (राज०)
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चंपेली  : स्त्री०=चमेली।
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चपेहा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा और उसका फूल।
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चपोटसिरीस  : पुं० [देश०] सिरीस की जाति का एक पेड़।
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चपौटी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी टोपी।
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चंपौनी  : स्त्री० [हिं० चाँपना] जुलाहों के करघे की भँजनी में लगी हुई एक पतली लकड़ी।
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चपौर  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का जल-पक्षी जिसकी चोंच और पैर पीले तथा सिर गर्दन और छाती हलकी भूरी होती है। २. ऐसा जूता जिसकी एड़ी उठी हुई न हो।
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चप्पड़  : पुं० =चिप्पड़।
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चप्पन  : पुं० [हिं० चपना-दबना] छोटे आकार का छिछला कटोरा।
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चप्पल  : स्त्री० [चपचप से अनु०] १. खुली एड़ी का एक प्रसिद्ध जूता जिसमें चमड़े आदि की पट्टियाँ तल्ले आदि पर लगी रहती है और जिनमें पैर फँसाये जाते हैं। २. वह लकड़ी जिस पर जहाज की पतवार या कोई खंभा गडा रहता है। (लश०)।
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चप्पल-सेंहुड़  : पुं० [हिं० चपटा+सेहुँड़] नागफनी।
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चप्पा  : पुं० [सं० चतुष्पाद, प्रा० चड़प्पाव] १. चतुर्थाश्। चौथाई। भाग। चौथाई हिस्सा। २. कुछ या थोड़ा अंश। टुकड़ा। भाग। ३. चार अंगुल की नाप। ४. भूमि का बहुत छोटा टुकड़ा। उदाहरण–चप्पे जितनी कोठरी और मियाँ मुहल्लेदार। (कहा०)। वि० एक चौथाई। जैसे–चप्पा रोटी।
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चप्पी  : स्त्री० [हिं० चपनादबना] सेवा-भाव से धीरे-धीरे हाथ-पैर दबाने की क्रिया या भाव। चरण सेवा। चंपी।
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चप्पू  : पुं० [हिं० चाँपना] नाव का वह डाँड़ जो पतवार का भी काम देता है। किलवारी।
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चफाल  : पुं० [हिं० चौ+फाल] ऐसा भू-खंड जिसके चारों ओर कीचड़ या दलदल हो।
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चंबई  : पुं० [चंबा प्रदेश से] एक प्रकार का गहरा फीरोजी रंग जिसमें कुछ नीली झलक होती है। (एज्यूरिअन) वि०उक्त रंग का अथवा उक्त रंग में रंगा हुआ।
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चबक  : स्त्री० [अनु०] रह-रहकर उठने वाला दर्द। चिलक। टीस। वि० कायर। डरपोक।
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चबकना  : अ० [अनु०] रह-रहकर दर्द करना। टीसना। चमकना।
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चबका  : पुं० =चाबुक। उदाहरण–सहज पलांण पवन करि घोड़ा, लै लगाम चित चबका।-गोरखनाथ।
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चबकी  : स्त्री० [हिं० चाबुक] स्त्रियों के केश बाँधने की सूत या ऊन की गुथी हुई रस्सी। चोटी। पराँदा।
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चबनी-हड्डी  : स्त्री० [हिं० चबाना+हड्डी] वह हड्डी जो भुरभुरी और पतली हो, और फलतः सहज में चबाई जा सकती हो।
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चबर-चबर  : स्त्री० [अनु०] बकवास। उदाहरण–हमको यह सब चबर-चबर पसंद नहीं है-वृन्दावनलाल वर्मा। क्रि० वि० चब-चब शब्द करते हुए।
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चंबल  : स्त्री० [सं० चर्मण्वती] १. एक नदी जो विन्ध्य पर्वत से निकलकर इटावे के पास जमुना में मिली है। २. नहरों आदि के किनारे पर लगी हुई वह लकड़ी जिससे उनका पानी ऊपर चढ़ाया जाता है। ३. पानी की बाढ़। क्रि० प्र०-आना।-लगाना। पुं० [फा० चंबुल] [स्त्री० अल्पा० चंबली] १.भीख माँगने का कटोरा या खप्पर। भिक्षापात्र। २. चिलम के ऊपर का ढकना। पुं०[?] तलुए या हथेली में होनेवाला एक प्रकार का चर्मरोग जिसमें उनका चमड़ा फटने तथा सड़ने लगता है।
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चबला  : पुं० [देश०] पशुओँ के मुँह में होनेवाला एक रोग। लाल रोग।
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चबवाना  : स० [हिं० चबाना का प्रे०] किसी को कुछ चबाने में प्रवृत्त करना।
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चबाई  : स्त्री० [हिं० चबाना] चबाने की क्रिया, ढंग या भाव। पुं०= चवाई।
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चबाना  : स० [सं० चर्वण] १. खाते समय किसी चीज को दाँतों से बार-बार इस प्रकार दबाते हुए काटना या कुचलना कि वह छोटे-छोटे कणों में विभक्त हो जाय। मुहावरा–चबा-चबाकर बातें करनाबहुत धीरे-धीरे और रुक-रुककर बातें करना। (धूर्त्तता, बनावट आदि का सूचक)। चबे को चबानाकिए हुए काम को फिर-फिर करना। पिष्टपेषण करना। २. पशुओं आदि का किसी को दाँतों आदि से काटना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, नष्ट करना। जैसे–तुम्हें तो वह चबा डालेगा।
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चबारा  : पुं० चौबारा।
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चबाव  : पुं० चबाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चंबी  : स्त्री० [हिं० चाँपना] कागज या मोमजामे का वह तिकोना टुकड़ा जो कपडों पर रंग छापते समय उन स्थानों पर रखा जाता है जहाँ रंग चढ़ाना अभीष्ट नहीं होता। पट्टी। कतरनी।
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चंबू  : पुं० [?] १. एक प्रकार का धान जो पहाड़ों पर बिना सींची जमीन पर चैत में होता है। २. धातु का बना छोटे मुँहवाला एक प्रकार का लोटा या लुटिया जिसमें देवमूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं।
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चबूतरा  : पुं० [सं० चतुस्-स्तर (प्र-स्तर), प्रा० चउत्थर, बं० चौतारा, पं० चौंतरा, गु० चोतरो, ने० चौतारो, मरा० चौथरा] १. मकान के अगले भाग में बैठने के लिए बनाई हुई खुली, चौकोर और चौरस जगह। चौंतरा। २. उक्त प्रकार की कोई बड़ी रचना जो चारों ओर खुली हो। चौंतरा। ३. मध्ययुग में कोतवाली या थाने में का वह स्थान जहाँ कोतवाल या थानेदार बैठकर अभियोग सुनते और दंड देते थे।
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चबेना  : पुं० [हिं० चबाना] चबाकर खाने के लिए सूखा भुना हुआ चना अथवा और कोई अन्न। चर्वण। भूँजा।
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चबेनी  : स्त्री० [हिं० चबाना] १. जल-पान की सामग्री। २. वह धन या रकम जो जल-पान आदि के लिए दी जाय।
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चँबेलिया  : वि०=चमेलिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चँबेली  : स्त्री०=चमेली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चब्बा  : पुं० चौआ।
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चब्बू  : वि० [हिं० चबाना] १. बहुत चबाने अर्थात् खानेवाला। बहुत अधिक भोजन करनेवाला। २. खा-खरचकर धन नष्ट करनेवाला।
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चब्भू  : वि० =चब्बू।
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चब्भो  : स्त्री० [हिं० चमक] किसी की गरदन पकड़कर उसे जबरदस्ती पानी में दी जानेवाली डुबकी या गोता।
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चभक  : स्त्री० [अनु०] १. पानी में किसी वस्तु के डूबने का शब्द। २. काटने या डंक मारने की क्रिया या भाव।
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चभच्चा  : पुं० चहबच्चा।
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चभड़-चभड़  : स्त्री० [अनु०] वह शब्द जो कोई वस्तु खाने या पीने के समय मुँह के हिलने आदि से होता है। जैसे–कुत्तों का चभड़-चभड़ पानी पीना।
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चभना  : अ० [सं० चर्वण] १. चाभा या खाया जाना। २. दरेरा खाना। दबना। पिसना। उदाहरण–मुरयौन मन मुरुवानु, चभि भौ चुरनु चपि चूरू।-बिहारी।
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चभाना  : स० [हिं० चाभना का प्रे०] १. किसी को चाभने या खाने में प्रवृत्त करना। २. अच्छी तरह भोजन कराना। अ० चबाना।
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चभोक  : वि० [देश०] बेवकूफ। मूर्ख।
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चभोरना  : स० [हिं० चुभकी] १. तरल पदार्थ में कोई चीज अच्छी तरह डुबाना। जैसे–घी में रोटी चभोरना। २. गरदन से पकड़कर किसी को गहरे पानी में गोता देना।
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चमंक  : स्त्री०=चमक।
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चमक  : स्त्री० [हिं० चमकना] १. चमकने की क्रिया या भाव। २. किसी वस्तु का वह गुण या तत्त्व जिसके कारण उसमें से प्रकाश निकलता है। जैसे–कपड़े बिजली या सोने की चमक। ३. प्रकाश। रोशनी। ४. आभा कांति। ५. कमर, पीठ आदि में होनेवाली वह आकस्मिक और क्षणिक पीड़ा जो अधिक तनाव या बल पड़ने के कारण होती है। झटका लगने से होनेवाला दर्द। ६. चौंकने की क्रिया या भाव। चौंक।
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चमक चाँदनी  : स्त्री० [हिं०] वह स्त्री जो हर समय खूब बनी-ठनी रहे और खूब चमकती-मटकती रहे।
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चमक-दमक  : स्त्री० [हिं० चमक+दमक (अनु०)] १. चमकने और दमकने की क्रिया, गुण या भाव। २. तड़क-भड़क। ठाठ-बाट।
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चमकदार  : वि० [हिं० चमक+फा० दार] जिसमें चमक हो। चमकीला।
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चमंकना  : अ०=चमकना।
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चमकना  : अ० [सं० चमत्कृ, प्रा० चमक्केइ, बँ० चकान, उ० चमकिबा, मरा० चमकणें] १. किसी प्रकाशमान वस्तु का इतना अधिक तथा सहसा प्रकाश देना कि उस पर आँखें न ठहर सके। जैसे–बिजली चमकना। २. किसी वस्तु का झिल-मिलाती हुई किरणों के माध्यम से प्रकाश देना। जैसे–आकाश में तारों का चमकना। ३. किसी चिकने तलवाली वस्तु का प्रकाश में अधिक उज्जवल तथा प्रकाशपूर्ण भासित होना। जैसे–धूप में गहना या शीशा चमकना। ४. उक्त प्रकार के प्रकाश का आँखों पर ऐसा प्रभाव पड़ना कि वे निरंतर खुली न रह सके। जैसे–धूप में आँक चमकना। ५. किसी वस्तु का बहुत ही उत्कृष्ट रूप में प्रकट या प्रस्तुत होना। जैसे–गला या गाना चमकना। ६.(कार्य वस्तु आदि का) उन्नति या वृद्धि पर होना। जैसे–रोजगार चमकना। ७. (किसी वस्तु, बात आदि का) अपना उग्र या प्रचंड रूप दिखलाना। जैसे–शहर में हैजा चमकना। ८. कीर्ति, प्रताप, वैभव आदि से युक्त होना। जैसे–भाग्य चमकना। ९. किसी को देखने पर घबराते हुएँ चौंक कर पीछे हटना। बिदकना। जैसे–हाथी को देखकर गौ या घोड़े का चमकना। १॰. साधारण रूप से नाराज होना या बिगड़ना। जैसे–गलती तो उन्हीं की थी, पर वे चमके हम पर। ११. जल्दी से दूर हो जाना या हट जाना। चंपत होना। उदाहरण–सखा साथ के चमकि गए सब, गुह्यौ श्याम कर धाइ।-सूर। १२. नाज-नखरे या हाव-भाव से चेष्टाएँ करना। (स्त्रियाँ) जैसे–तुम तो बातों बातों में चमकने लगती हो। वि० [स्त्री० चमकनी] १. खूब चमकनेवाला। २. जरा-सी बात में चिढ़ या बिगड़ जानेवाला। ३. अनुचित रूप से नाज-नखरा या हाव-भाव दिखलानेवाला। ४. जल्दी चौंकने या बिदकनेवाला। जैसे–चमकता घोड़ा या बैल।
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चमकवाना  : स० [चमकाना का प्रे०] १. चमकाने का काम करवाना। २. किसी चीज में चमक उत्पन्न कराना।
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चमकाना  : स० [हिं० चमकना का स०] १. कांति, दीप्ति या चमक से युक्त करना। ओप या चमक लाना। उज्जवल करना। २. चौंकाना। ३. भड़काना। ४. खिझाना। चिढ़ाना। ५. उत्तेजित करके आगे बढ़ाना। जैसे–लड़ाई के मैदान में घोड़ा चमकाना। ६. नखरे में कोई अंग जल्दी-जल्दी हिलाना-डुलाना। जैसे–आँखें या उँगलियाँ चमकाना। ७. कीर्ति, वैभव, सफलता आदि से युक्त करना। जैसे–उनके छोटे भाई ने आकर उनका रोजगार चमका दिया।
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चमकारा  : पुं० [हिं० चमक] चकाचौंध उत्पन्न करने वाली चमक या प्रकाश। वि० [स्त्री० चमकारी] खूब चमकनेवाला। चमकता हुआ। चमकीला। उदाहरण–अधरबिंब दसनन की सोभा, दुति दामिनि चमकारी।–सूर।
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चमकारी  : स्त्री० १. चमक। २. चमकी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमकी  : स्त्री० [हिं० चमक] रुपहले या सुनहरे तारों के वे छोटे-छोटे गोल या चौकोर चिपटे-टुकड़े जो जरदोजी के काम में लगाये जाते हैं। सितारे। तारे।
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चमकीला  : वि० [हिं० चमक+ईला(प्रत्यय)] १. जिसमें चमक हो। चमकदार। जैसे–चमकीला कपड़ा,चमकीले तारे।
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चमकुल  : स्त्री० [हिं० चमकना] १. चमकीला। २. चटकने-मटकने वाला। उदाहरण–बैल मरकहा चमकुल जोय।-घाघ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमकौवल  : स्त्री० [हिं० चमक+औवल (प्रत्यय)] शरीर के अंगों को नखरे से चमकाने-मटकाने की क्रिया या भाव। जैसे–उँगलियों की चमकौवल।
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चमक्को  : स्त्री० [हिं० चमकना] १. बहुत अधिक चमकने-मटकने वाली स्त्री। चंचल और निर्लज्ज स्त्री। २. झगड़ालू स्त्री।
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चमगादड़  : पुं० [सं० चर्मचटक] [स्त्री० चमगिदड़ी] १. केवल रात के समय उड़नेवाला एक प्रसिद्ध छोटा जन्तु जिसके चारों पैर झिल्लीदार होते हैं और जो दिन में वृक्षों की डालों आदि में लटका रहता है। इसकी छोटी बड़ी अनेक जातियाँ होती हैं और इसे दिन में दिखाई नहीं देता। २. ऐसा व्यक्ति जो अपना कोई निश्चित मत या सिद्धांत न रखता हो और केवल स्वार्थ-साधन के लिए कभी इस पक्ष में और कभी उस पक्ष में जा मिलता हो। (एक प्रसिद्ध कहानी के आधार पर)।
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चमचम  : स्त्री० [अनु०] एक प्रसिद्ध लंबोतरी बंगला मिठाई। वि० [हिं० चमक] खूब चमकता हुआ। चमकीला। दे० ‘चमाचम’। क्रि० वि० खूब चमक-दमक से। दे० ‘चमाचम’।
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चमचमाना  : अ० [हिं० चमक] खूब चम-चम करना या चमकना। प्रकाशमान होना। स० ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज खूब चमकने लगे या उसमें से चमक निकलने लगे। जैसे–जूता या तलवार चमचमाना।
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चमचा  : पुं० [तु० चम्चः मि० सं० चमस] [स्त्री० अल्पा० चमची] १. कलछी की तरह का एक प्रसिद्ध छोटा उपकरण जिसमें अंडाकार छोटी कटोरी में लंबी डाँड़ी लगी होती है, और जिससे कोई चीज उठाकर खाई या पी जाती है। चम्मच। २. जहाज की दरजों में अलकतरा ढालने की कलछी।(लश०)। ३. नाव में डाँड़ का चौड़ा अग्रभाग। हाथा। हलेसा। पँगई। बैठा। ४. इंजन, भट्ठी आदि में से कोयला निकालने का एक प्रकार का बड़ा फावड़ा। ५. चिमटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमचिच्चड़  : वि० [हिं० चाम+चिचड़ी] (व्यक्ति) जो चिचड़ी या किलनी की तरह किसी में या किसी से चिपटा रहे। पिंड या पीछा न छोड़नेवाला।
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चमची  : स्त्री० [हिं० चमचा] १. छोटा चम्मच। २. आचमनी। ३. वह चिपटे और चौड़े मुँहवाली सलाई जिससे पान पर कत्था और चूना लगाते हैं।
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चमजुई  : स्त्री० [सं० चर्मयूका] पशुओं या मनुष्यों के शरीर में से उत्पन्न होनेवाला एक छोटा कीड़ा। चिचड़ी। वि० स्त्री० चमचिच्चड़।
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चमटना  : स० चिमटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमटा  : पुं०=चिमटा।
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चमड़ा  : पुं० [सं० चर्म] १. पशुओं और मनुष्यों के सारे शरीर का वह ऊपरी आवरण जिससे मांस और नसें रुकी रहती हैं और जिस पर प्रायः रोएँ उगे रहते हैं। त्वचा। (स्किन) २. मरे हुए पशुओं अथवा पशुओं को मारकर उनकी उतारी हुई खाल को छील तथा सिझाकर औद्योगिक कार्यों के लिए तैयार किया हुआ उसका रूप। (हाइड)। मुहावरा–चमड़ा उधेड़ना या खींचना=चमड़े को शरीर से अलग करना। चमड़ा सिझाना (क) चमड़े को बबूल की छाल, सज्जी, नमक आदि के पानी में डालकर मुलायम करना। (ख) लाक्षणिक रूप में बहुत अधिक मारना या पीटना। ३. छाल। छिलका।
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चमड़ी  : स्त्री० [हिं० चमड़ा] चर्म। त्वचा। खाल। मुहावरा–(किसी की) चमड़ी उधेड़ना=इतना अधिक मारना कि शरीर की त्वचा उड़ जाय और उसमें से खून निकलने लगे।
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चमत्करण  : पुं० [सं० चमत्√कृ(करना)+ल्युट-अन] चमत्कार करने या होने की क्रिया या भाव।
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चमत्कार  : पुं० [सं० चमत्√कृ+घञ्] [वि० चमत्कारी, चमत्कृत] १. कोई ऐसी अनोखी या विलक्षण बात जिसे देखकर सब लोग चौंक पड़ें और यह न समझ सकें कि यह कैसे हो गयी। २. ऐसा अद्भुत काम या बात जो इस लोक में सहसा न दिखाई देती हो अलौकिक सा जान पड़नेवाला काम या बात। करामात। जैसे–मृत प्राणी को जीवित कर दिखाना, या जलते हुए अंगारों पर दौड़ना और उन्हें उठा-उठाकर खाने लगना। ३. ऐसी अद्भुत तथा अनोखी बात जिसे देख या सुनकर मन फड़क उठे। जैसे–कविता या कहानी की चमत्कार। ४. आश्चर्य। विस्मय। ५. [चमत्√कृ+अण्] डमरू। ६. अपामार्ग। चिचड़ा।
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चमत्कारक  : वि० [सं० चमत्√कृ+ण्वुल्-अक] १. चमत्कार संबंधी। २. इतना विलक्षण कि चौंका दे। (मार्वलस) ३. अलौकिक या असंभव-सा जान पड़नेवाला। (मिरैक्यूलस)।
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चमत्कारित  : भू० कृ० [सं० चमत्कार+इतच्] चमत्कृत। विस्मित।
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चमत्कारिता  : स्त्री० [सं० चमत्कारिन्+तल्-टाप्] चमत्कारी होने की अवस्था, गुण या भाव। चमत्कारपन।
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चमत्कारी(रिन्)  : वि० [सं० चमत्√कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० चमत्कारिणी] १.(वस्तु) जिसमें चमत्कार हो। जिसमें कुछ विलक्षणा हो। अद्भुत। २. चमत्कार उत्पन्न करने वाला। ३. चमत्कार दिखाने वाला। (व्यक्ति)। करामाती।
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चमत्कृत  : भू० कृ० [सं० चमत्√कृ+क्त] जो किसी प्रकार का चमत्कार या विलक्षण बात देखकर चौंक पड़ा हो। चकित। विस्मित। उदाहरण–इतना न चमत्कृत हो बाले ! अपने मन का उपचार करो।-प्रसाद।
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चमत्कृति  : स्त्री० [सं० चमत्√कृ+क्तिन्] १. चमत्कृत होने की अवस्था या भाव। २. चमत्कार।
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चमन  : पुं० [फा०] १. फूल-पत्तों आदि से भरी हुई हरी क्यारी। २. फुलवारी। छोटा बगीचा। ३. ऐसी गुलजार जगह जहाँ खूब रौनक हो।
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चमन-बंदी  : स्त्री० [फा०] क्यारियाँ आदि बनाकर बाग लगाने या सजाने की कला या क्रिया।
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चमर  : पुं० [सं०√चम् (खाना)+अरच्] १. सुरा गाय। २. सुरा गाय की पूँछ का बना हुआ चँवर। चामर। ३. किसी प्रकार का चँवर। ४. एक दैत्य का नाम। वि० [हिं० चमार] हिं० ‘चमार’ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों में लगने के पहले प्राप्त होता है और जो तुच्छ या हीन का वाचक होता है। जैसे–चमर चलाकी, चमर रग आदि।
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चमर-गिद्ध  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का बड़ा गिद्ध।
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चमर-चलाक  : वि० [हिं० चमार+फा० चालाक] बहुत ही तुच्छ या हीन प्रकार का चतुर या चालाक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमर-चलाकी  : स्त्री० [हिं०] चमारों की सी तुच्छ या हीन चालाकी या धूर्त्तता।
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चमर-जुलाहा  : पुं० [हिं० चमार+फा० जुलाहा] हिंदू जुलाहा। कोरी। (मुसलमानों की दृष्टि से उपेक्षा-सूचक पद)।
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चमर-पुच्छ  : वि० [ब० स०] (पशु) जिसकी पूँछ चँवर की तरह हो या चँवर बनाने के काम आ सकती हो। पुं० १. चँवर। २. गिलहरी। ३. लोमड़ी।
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चमर-बंकुलियाँ  : स्त्री०-चमर-बगली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमर-बगली  : स्त्री० [हिं० चमार+बगला] बगले की जाति की काले रंग की एक चिड़िया।
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चमर-रग  : वि० [हिं०] (व्यक्ति) जिसकी रग या स्वभाव चमारों का-सा तुच्छ या हीन हो। स्त्री० चमारों की सी तुच्छ या हीन प्रकृति, प्रवृत्ति या स्वभाव।
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चमर-शिखा  : स्त्री० [उपमि० स०] घोड़ों के सिर पर लगाई जानेवाली कलगी।
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चमरक  : पुं० [सं० चमर+कन्] मधुमक्खी।
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चमरख  : स्त्री० [हिं० चाम+रक्षा] चरखे में लगी हुई चमड़े, मूँज आदि की वह चकती जिसमें तकला पहनाया जाता है।
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चमरखा  : पुं० [सं० चर्मकशा] एक प्रकार की सुगंधित जड़ जो उबटन आदि में पड़ती है।
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चमरस  : पुं० [हिं० चाम] चमड़े के जूते की रगड़ से पैर में होनेवाला घाव।
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चमरा-खारी  : पुं० [हिं० चमार+खारी] खारी नमक।
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चमरावत  : स्त्री० [हिं० चमार] चमड़े के मोट आदि बनाने की मजदूरी जो काश्तकारों या जमींदारों से चमारों को मिलती है।
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चमरिक  : पुं० [सं० चमर+ठन्-इक] कचनार का पेड़।
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चमरिया  : वि० [हिं० चमार] चमारों का सा तुच्छ। हीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमरिया सेम  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का सेम। सेम का एक भेद।
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चमरी  : स्त्री० [सं० चमर+ङीष्] १. सुरा गाय। २. चँवर। ३. पौधों की मंजरी।
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चमरू  : पुं० [देश०] १. चमड़ा। २. खाल। ३. चरसा।(लश०)।
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चमरोर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा पेड़ जिसकी छाया बहुत घनी होती है।
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चमरौट  : स्त्री० [हिं० चमार+औट (प्रत्यय)] खेत, फसल आदि का वह भाग जो चमारों को उनकी सेवाओं के बदले में दिया जाता है।
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चमरौधा  : पुं० दे० ‘चमौआ’।
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चमला  : पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा० चमली] भीख माँगने का ठीकरा। भिक्षा-पात्र।
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चमस  : पुं०[सं०√चम् (खाना)+असच्] [स्त्री० अल्पा० चमसी] १. सोम-पान करने का यज्ञ-पात्र जो पलाश आदि की लकड़ी का बनता और चम्मच के आकार का होता है। २. कलछा या कलछी। ३. पापड़। ४. लड्डू। ५. उड़द का आटा। धुआँस। ६. एक प्राचीन ऋषि। ६. नौ योगीश्वरों में से एक योगीश्वर का नाम।
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चमसा  : पं० [सं० चमस] चमचा। चम्मच। पुं०=चौमासा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमसी  : स्त्री० [सं० चमस+ङीष्] १.चम्मच के आकार का लकडी़ का एक यज्ञ-पात्र। २. उडद, मसूर, मूँग आदि का आटा या पीठी।
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चमाऊ  : पु० [सं० चामर] चामर। चँवर। पुं० दे० ‘चमौआ’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमाक  : स्त्री० =चमक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चमाचम  : वि० [हिं० चमकना का अनु०] इतना अधिक साफ और स्वच्छ कि चम-चम करता हुआ चमकता हो।
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चमार  : पुं० [सं० चर्मकार; प्रा० चम्मारअ; बँ० चामार; उ० ने० चमार, सि० चमारु, सिंह० सोम्मारु, पं० चम्यार; मरा० चांभार] १. एक जाति जो चमड़े के जूते, मोट आदि बनाती तथा उनकी मरम्मत करती है। २. एक जाति जो गलियों आदि में झाड़ू देती है। ३. उक्त जातियों का पुरुष। ४. नीच प्रकृतिवाला आदमी।
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चमारनी  : स्त्री०=चमारी।
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चमारिन  : स्त्री०=चमारी।
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चमारी  : स्त्री० [हिं० चमार] १. चमार जाति की स्त्री। २. गलियों में और सड़कों पर झाड़ू देनेवाली स्त्री। ३. चमार का काम या पेशा। ४. चमारों की सी वृत्ति या स्वभाव। वि० १. चमार संबंधी। चमार का। २. चमारों की तरह का। स्त्री० [?] कमल का वह फूल जिसमें कमलगट्टे के जीरे खराब हो जाते हैं।
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चमियारी  : स्त्री० [देश०] पद्म काठ।
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चमीकर  : पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक खान जिससे सोना निकलता था। (किसी से सोने को चामीकर कहते हैं।)
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चमीकराचल  : पुं० [चामीकर-अचल, ष० त०] सुमेरु पर्वत।
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चमू  : स्त्री० [सं०√चम् (नष्ट करना)+णिच्+ऊ] १. सेना। फौज। २. प्राचीन भारत में सेना का वह विभाग जिसमें ७२९ हाथी, ७२९ रथ, २१८७ घुड़-सवार और ३६४५ पैदल सैनिक होते थे। ३. कफन। ४. कब्र।
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चमू-चर  : पुं० [सं० चमूचर् (चलना)+ट] १. सिपाही। सैनिक। २. सेनापति।
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चमू-नाथ  : पुं० [ष० त०] =चमूपति।
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चमू-नायक  : पुं० [ष० त०] =चमूपति।
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चमू-पति  : पुं० [ष० त०] सेनापति। सेनानायक।
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चमू-हर  : पुं० [सं० चमू√हृ (हरण करना)+अच्, उप० स०] महादेव। शिव।
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चमूकन  : पुं० [देश०] एक प्रकार की किलनी जो चौपायों के शरीर में चिपटी रहती है।
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चमूरु  : पुं० [सं०√चम् (खाना)+ऊरु] एक प्रकार का हिरन।
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चमेलिया  : वि० [हिं०] १. चमेली के फूल की तरह का ऐसा सफेद (रंग) जिसमें कुछ पीली झलक हो। (लैवेंडर) २. चमेली की गंध से युक्त। पुं० हलका पीनापन लिये हुए सफेद रंग।
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चमेली  : स्त्री० [सं० चंपावेल्ली, बँ० ने० चमेली, पं० मरा० सि० चँबेली, गु० चँपेली] १. एक प्रसिद्ध लता जिसमें पीलापन लिये सफेद रंग के छोटे-छोटे सुगंधित फूल लगते हैं। २. उक्त लता का फल। पद-चमेली का जालएक प्रकार के कसीदे का काम। ३. नदी या समुद्र की ऊँची लहर की वह थपेड़ जिससे नावें आदि डगमगाने लगती और कभी-कभी डूब जाती हैं।
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चमोई  : स्त्री० [देश०] सिक्किम, भूटान आदि प्रदेशों में होनेवाला एक पेड़ जिसकी छाल से कागज बनाया जाता है। इसे धनकोटा, सतपूरा, सतबरसा इत्यादि भी कहते हैं।
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चमोटा  : पुं० [सं० चर्मपट्ट] [स्त्री० अल्पा० चमोटी] १. नरम चमड़े का वह टुकड़ा जिस पर नाई छूरे को उसकी धार तेज करने के लिए बार-बार रगड़ते हैं। २. बड़ी चमोटी। कोड़ा।
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चमोटी  : स्त्री० [हिं० चमोट] १. चाबुक। कोड़ा। २. पतली छड़ी। कमची। बेंत। ३. वह चमड़ा जो बेड़ियों के भीतरी भाग में इसलिए लगाया जाता है कि पैरों में लोहे की रगड़ न लगे। ४. चमड़े का बना छोटा चमोटा। ५. चमड़े का वह पट्टा जिसकी सहायता से खराद का चक्कर खींचा जाता है।
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चमौआ  : पुं० [हिं० चाम] वह देशी जूता जिसका तला चमड़े से सीया गया हो। चमरौधा।
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चम्मच  : पुं० [फा० मिलाओ, सं० चमस्] बड़ा चम्मच जिसे खाने-पीने की चीजें चलाई या निकाली जाती हैं।
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चम्मल  : पुं० चमला (भिक्षापात्र)।
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चम्मोरानी  : पुं० [देश०] बच्चों का एक प्रकार का खेल। सात समुंदर।
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चय  : पुं० [सं०√चि (बटोरना)+अच्] १. ढेर। राशि। समूह। २. टीला। ढूह। ३. किला। गढ़। ४. किले या शहरी की चार-दीवारी। परकोटा। फसील। ५. इमारत या दीवार की नींव। बुनियाद। ६. चबूतरा। चौंतरा। ७. चौकी या ऐसा ही और कोई ऊँचा आसन। ८. बहुत ही मनोहर और हरा-भरा स्थान। ९. वैद्यक में गफ, पित्त या वात का विकृत होकर इकट्ठा होना। १॰. यज्ञ के लिए अग्नि का चयन जो एक संस्कार के रूप में होता है।
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चयक  : वि० [सं० चायक] चयन करनेवाला।
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चयन  : पुं० [सं० चि+ल्युट्-अन] १. आवश्यकता, रुचि आदि के अनुसार बहुत सी वस्तुओं में से कोई एक या कई वस्तुएँ चुन या छाँटकर अलग निकालने की क्रिया या भाव। जैसे–गुलदस्ते के लिय फूलों अथवा संग्रहालय के लिए पुस्तकों का चयन करना। २. इस प्रकार चुनी हुई वस्तुओं का समूह। संकलन। ३. यज्ञ के लिए अग्नि का एक संस्कार।
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चयन-शील  : वि० [ब० स०] जो चयन करने या संग्रह करने के काम में लगा हो या लगा रहता हो।
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चयनक  : पुं० [हिं० चयन से] चुने हुए व्यक्तियों का वह वर्ग या समूह जिसमें से कोई एक या कई व्यक्ति किसी विशेष कार्य के संपादन या संचालन के लिए किसी उच्च अधिकारी या संस्था द्वारा नियत किये जाते हैं। नामिका। (पैनेल)।
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चयना  : स० [सं० चयन] चयन करना। इकट्ठा करना। उदाहरण–रजनी गत बासर मृग तृष्ना रसहरि कौन चयौ।–सूर।
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चयनिका  : स्त्री० [सं० चयन+कन्+टाप्-इत्व] १. चुनी हुई कविताओँ, कहानियों, लेखों या ऐसी ही और चीजों या बातों आदि का संग्रह। २. पत्र-पत्रिकाओं आदि का वह विभाग या स्तंभ जिसमें दूसरी पत्र-पत्रिकाओं से ली हुई अच्छी टिप्पणियाँ लेख या उनके सारांश रहते हैं।
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चयनीय  : वि० [सं०√चि+अनीयर] जो चयन किये या चुने जाने के योग्य हो।
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चयित  : भू० कृ० [सं० चित्त] १. चयन किया या चुना हुआ। २. चुनकर इकट्ठा किया हुआ।
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चर  : वि० [सं० चर् (गमन)+अच्] १. जो इधर-उधर चलता फिरता हो। जैसे–चर जीव या प्राणी। २. जो विचरण करता रहता हो। विचरण करनेवाला। जैसे–खेचर, जलचर, निशिचर आदि। ३. जो अपने स्थान से इधर-उधर हटता-बढता रहता हो। जैसे–चर नक्षत्र या राशि। ४. खाने या चरनेवाला। पुं० १. वह व्यक्ति जो राज्य या राष्ट्र की ओर से देश-विदेश की बातों का छिपकर पता लगाने के लिए नियुक्त हो। गूढ़ पुरुष जासूस। २. वह जो किसी विशिष्ट या कार्य की सिद्धि के लिए कहीं भेजा जाय। दूत। ३. ज्योतिष में देशांतर जिसकी सहायता से दिन-मान निकाला जाता है। ४. खंजन या खँडरिच नाम का पक्षी। ५. कौड़ी। ६. कौड़ियों या पासे से खेला जानेवाला जूँआ। ७. मंगल ग्रह। ९. मेष, वृष, मिथुन, आदि राशियाँ। १॰. कीचड़ या दलदल। ११. वह जमीन जो नदी के साथ बहकर आनेवाली मिट्टी जमने से बनी हो। १२. वह गड्ढा जिसमें बरसात का पानी इकट्ठा हो। १३. नदी के बीच में बना हुआ बालू का टापू या मैदान। १४. नदी का किनारा जहाँ पानी कम हो। (लश०) १५. नाव या जहाज में एक गूढ़े (बाहर की ओर) निकला हुआ आड़ा शहतीर) से दूसरे गूढ़े तक की लंबाई या स्थान। (लश०) १६. वायु। हवा। पुं० [अनु०] कपड़े, कागज आदि के फटने से होनेवाला शब्द।
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चर-काल  : पुं० [कर्म० स०] १. ज्योतिष के अनुसार समय का कुछ विशिष्ट अंश जिसका काम दिन-मान स्थिर करने में पड़ता है। २. उतना समय जितना किसी ग्रह को एक अंश से दूसरे अंश तक जाने या पहुँचने में लगता है।
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चर-गृह, चर-गेह  : पुं० [मध्य० स०]=चर-राशि।
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चर-द्रव्य  : पुं० [कर्म० स०] वह संपत्ति जिसका स्थान परिवर्तन हो सकता हो। जैसे–गहने, पशु आदि।
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चर-नक्षत्र  : पुं० [कर्म० स०] स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण और घनिष्ठा आदि कुछ विशिष्ठ नक्षत्र जिनकी संख्या भिन्न-भिन्न आचार्यों के मत से अलग-अलग है।
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चर-भवन  : पुं० [मध्य० स०]=चर राशि।
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चर-मूर्ति  : स्त्री० [कर्म० स०] देवता की वह मूर्ति या विग्रह जो किसी एक जगह स्थापित न हो, बल्कि आवश्यकता के अनुसार एक जगह से उठाकर दूसरी जगह रखी जा सकती हो।
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चर-राशि  : स्त्री० [मध्य० स०] मेष, कर्क, तुला और मकर ये चार राशियाँ जो चर मानी गई हैं। (ज्योतिष)
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चरई  : स्त्री० [सं० चारिका] जुलाहों का वह स्थान जहाँ ताने के सूत छोटे तागों से बाँधे जाते हैं। स्त्री० दे० ‘चरनी’।
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चरक  : पुं० [सं० चर+कन्] १. दूत। चर। २. गुप्तचर। जासूस। भेदिया। ३. पथिक। यात्री। ४. वैद्यक के एक प्रसिद्ध आचार्य जो शेषनाग के अवतार कहे गये हैं और जिनका ‘चरक संहिता’ नामक ग्रंथ बहुत प्रमाणिक है। ५. उक्त चरक ‘संहिता नामक’ ग्रंथ। ६. बौद्धों का एक संप्रदाय। ७. भिखमंगा। भिक्षुक। स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली। पुं० [सं० चक्र] सफेद कोढ़ का दाग। फूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० चटक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरकटा  : पुं० [हिं० चारा+काटना] १. चारा काटनेवाला व्यक्ति। २. अयोग्य या हीन बुद्धिवाला व्यक्ति।
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चरकना  : अ० चिटकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चरकसंहिता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चरक मुनि द्वारा रचित एक प्रसिद्ध वैद्यक ग्रन्थ।
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चरका  : पुं० [फा० चरकः] १. हलके हाथ से किया हुआ घाव या वार या जखम। २. धातु के गरम टुकड़े से दागने के कारण शरीर पर पड़ा हुआ चिन्ह। ३. नुकसान। हानि। ४. चकमा। धोखा। पुं० [देश०] मड़ुआ नाम का कदन्न।
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चरकी  : स्त्री० [सं० चरक+ङीष्] एक प्रकार की जहरीली मछली।
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चरख  : पुं० [फा० चर्ख, मि० सं० चक्र] १. पहिए के आकार का अथवा इसी प्रकार का और कोई घूमनेवाला गोल चक्कर। चाक। २. खराद। ३. कलाबत्तू, रेशम आदि लपेटने का चरखा। ४. कुम्हार का चाक। ५. गोफन। ढेलवाँस। ६. तोप लादकर ले चलने की गाड़ी। पुं० [फा० चरग] १. लकड़बग्घा नाम का जंगली हिंसक पशु। २. बाज की तरह की एक शिकारी चिड़िया।
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चरख-कश  : पुं० [फा० चर्खकश] खराद या चरख की डोरी या पट्टा खींचने वाला व्यक्ति।
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चरखड़ी  : स्त्री० [हिं० चरख] एक प्रकार का दरवाजा।
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चरखपूजा  : स्त्री० [सं० चक्र-पूजा] कुछ जंगली जातियों की एक प्रकार की शिव-पूजा जो चैत की संक्रांति को होती थी। इसमें किसी खम्भे पर बरछा लगाकर लोग गाते, बजाते और नाचते हुए चक्कर लगाते थे और बरछे से अपनी जीभ या शरीर छेदते थे। कहते हैं कि इसी दिन बाण नामक शैव राजा ने अपना रक्त चढ़ाकर शिव को प्रसन्न किया था जिसकी स्मृति में यह पूजा होती थी, जो ब्रिटिश शासन-काल में बंद कर दी गई।
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चरखा  : पुं० [फा० चरंखी, मि० स० चक्र] [स्त्री० अल्पा० चरखी] १. पहिए के आकार का अथवा इसी प्रकार का कोई और घूमनेवाला गोल चक्कर। चरख। जैसे–कुएँ से पानी निकालने का चरखा। २. लकड़ी का वह प्रसिद्ध छोटा यंत्र जिससे ऊन, रेशम, सूत आदि कातते हैं। रहट। ३. ऊख का रस पेरने की लोहे की कल। ४. तारकशों का तार खींचने का यंत्र। ५. सूत लपेट-कर उसकी पेचक या लच्छी बनाने का यंत्र। ६. किसी प्रकार की गराड़ी या घिरनी। ७. बड़ी या बेडौल पहियों वाली गाड़ी। ८. रेशम की लच्छी खोलने का ‘डड़ा’ नामक उपकरण। ९. गाड़ी का वह ढाँचा जिसमें नया घोड़ा जोतकर सधाया और सिखाया जाता है। खड़खड़िया। १॰. बुढ़ापे के कारण जर्जर और शिथिल व्यक्ति। ११. झंझट से भरा हुआ और प्रायः व्यर्थ की लंबा-चौड़ा काम। (व्यंग्य) १२. कुश्ती में नीचे पड़े हुए विपक्षी को चित करने का एक पेंच। १३. रहस्य संप्रदाय में, चित्त।
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चरखी  : स्त्री० [हिं० चरखा का स्त्री० अल्पा] १. पहिए की तरह घूमनेवाली कोई वस्तु। २. गोलाकार घूमनेवाला किसी प्रकार का छोटा उपकरण। जैसे–कपास ओटने या सूत लपेटने की चरखी, रस्सी। बटने की चरखी, कुएँ से पानी निकालने की चरखी। ३. कुम्हार का चाक। ४. चक्कर की तरह गोलाकार घूमनेवाली एक प्रकार की आतिशबाजी। ५. मटमैले रंग की एक प्रकार की चिड़िया जिसे ‘सत-बहिनी’ भी कहते हैं।
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चरग  : पुं० [फा० चरग] १. एक प्रकार की शिकारी चिड़िया। २. लकड़बग्घा।
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चरचना  : स० [सं० चर्चन] १. शरीर में चंदन आदि पोतना या लगाना। २. किसी चीज पर कुछ पोतना। लेप करना। ३. अनुमान, कल्पना आदि से कुछ समझना या सोचना। ताड़ना या लखना। ४. चर्चा या जिक्र करना। ५. पहचानना। स० [सं० अर्चन] अर्चन या पूजा करना।
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चरचरा  : वि० [अनु०] [स्त्री० चरचरी] १.=चरपरा। (राज०) उदाहरण–लूँब सरीसी प्यारी चरचरी जी म्हाँरा राज।-लोकगीत। २. चिड़चिड़ा। पुं० खाकी रंग की एक चिड़िया जिसके शरीर पर धारियाँ होती हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरचराटा  : पुं० [अनु०] दबदबा। रोबदाब। उदाहरण–अब तो सब तरफ अँगरेजों का चरचराटा है।-वृंदावनलाल वर्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरचराना  : अ० [अनु० चरचर] १.चर-चर शब्द करते हुए गिरना, टूटना या जलना। २. घाव के आस-पास का चमड़ा तनने और सूखने के कारण उसमें हलकी पीड़ा होना। चर्राना। ३. दे० ‘चर्राना’। स० चर चर शब्द करते हुए कोई चीज गिराना या तोड़ना।
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चरचराहट  : स्त्री० [हिं० चरचराना+हट (प्रत्यय)] १. चरचराने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज के गिरने या टूटने से होनेवाला चर-चर शब्द।
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चरचा  : स्त्री० चर्चा। विशेष-उर्दूवाले इसके आकारान्त होने के कारण भूल से इसे पुंलिंग मानते हैं।
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चरचारी  : वि० [हिं० चरचा] १. चर्चा चलानेवाला। २. दूसरों की निन्दात्मक चर्चा करनेवाला।
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चरचित  : भू० कृ० =चर्चित।
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चरज  : पुं० [फा० चरग] चरख नामक शिकारी चिड़िया। पुं० =आचरज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरजना  : अ० [सं०√ चर्चन] १. धोखा या भुलावा देना। बहकाना। २. अनुमान या कल्पना करना।
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चरट  : पुं० [सं०√चर (चलना)+अटच्] खंजन।
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चरण  : पुं० [सं०√चर् (चलना)+ल्युट-अन] १. किसी देवता या पूज्य व्यक्ति के पाँव या पैर के लिए आदर-सूचक शब्द। जैसे–(क) हमारा धन्य भाग जो आज यहाँ आपके चरण पधारे हैं। (ख) बड़ों की चरण पादुका पूजना या धरण-सेवा करना। मुहावरा–(किसी के) चरण छूनाबहुत आदरपूर्वक चरण छूते हुए दंडवत् या प्रणाम करना। (कहीं-कहीं) चरण देना=पैर रखना। (कहीं किसी के) चरण पड़ना=पदार्पण या शुभागमन होना। (किसी के) चरण लेना-चरण छूकर प्रणाम करना। (किसी के) चरणों पड़नाचरणों पर सिर रखकर प्रणाम करना। २. बडों या महापुरुषों का सान्निध्य या सामीप्य। जैसे–भगवान के चरण छोड़कर वह कहीं जाना नहीं चाहते। ३. किसी चीज का विशेषतः काल, मान आदि का चौथाई भाग। जैसे–वह बीसवीं सदी का तीसरा चरण है। ४. छंद, पद्य, श्लोक आदि का चौथा भाग अथवा कोई एक पूरी पंक्ति। ५. नदी का वह भाग जो तटवर्ती पहाड़ी गुफा या गड्ढे तक चला गया हो। ६. घूमने-फिरने या सैर करने की जगह। ७. जड़। मूल। ८. गोत्र। ९. क्रम। सिलसिला। १॰. आचार-व्यवहार। ११. चंद्रमा, सूर्य आदि की किरण। १२. कोई काम पूरा करने के लिए की जानेवाली सब क्रियाएँ। अनुष्ठान। १३. गमन। जाना। १४. पशुओं आदि का चारा चरना। १५. भक्षण करना। खाना। १६. वेद की कोई शाखा। जैसे–कठ, कौथुम आदि चरण। १७. किसी जाति, वर्ग या संप्रदाय के लिए विहित कर्म। १८. आधार। सहारा। १९. खंभा।
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चरण-कमल  : पुं० [उपमि० स०] कमलों के समान सुंदर चरण या पैर। (आदर-सूचक)।
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चरण-गुप्त  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का चित्र-काव्य जिसके कई भेद होते हैं। इसमें कोष्ठक बनाकर उनमें कविता के चरणों या पंक्तियों के अक्षर भरे जाते हैं।
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चरण-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] पैरों में नीचे की ओर की गाँठ। गुल्फ। टखना।
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चरण-चिन्ह्र  : पुं० [ष० त०] १. पैरों के तलुए की रेखा या लकीरें। २. बालू, मिट्टी आदि पर पड़े हुए किसी के पैरों के चिन्ह्र या निशान जिन्हें देखकर किसी का अनुकरण या अनुसरण किया जता है। ३. धातु, पत्थर आदि की बनाई हुई देवताओँ आदि के चरणों की आकृति जो प्रायः पूजी जाती है।
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चरण-तल  : पुं० [ष० त०] पैर का तलुआ।
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चरण-दास  : पुं० [ष० त०] १. चरणों की सेवा करने वाला दास या सेवक। २. दिल्ली के एक महात्मा साधु जो जाति के धूसर बनिये थे। इनका जन्म संवत् १७६॰ में और शरीरांत सं० १८३९ में हुआ था। इनके चलाये हुए सम्प्रदाय के साधु चरणदासी साधु कहलाते हैं। ३. जूता। (परिहास)।
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चरण-दासी  : वि० स्त्री० [ष० त०] चरणों की सेवा करनेवाली (दासी या स्त्री०)। स्त्री० १. पत्नी। भार्या। २. जूता। वि० चरण-दास संबंधी। पुं० महात्मा चरणदास के चलाये हुए सम्प्रदाय का अनुयायी।
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चरण-न्यास  : पुं० चरण-चिन्ह्र।
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चरण-पर्व(न्)  : पुं० [ष० त०] गुल्फ। टखना।
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चरण-पादुका  : स्त्री० [ष० त०] १. खड़ाऊँ। पाँवड़ी। २. धातु, पत्थर आदि की बनी हुई किसी देवी-देवता या महापुरुष के चरणों की आकृति जिसकी पूजा होती है।
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चरण-पीठ  : पुं० [ष० त०] चरण-पादुका।
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चरण-युग(ल)  : पुं० [ष० त०] किसी देवता या पूज्य व्यक्ति के दोनों चरण या पैर।
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चरण-रज(स्)  : स्त्री० [ष० त०] किसी पूज्य व्यक्ति के चरणों की धूल जो बहुत पवित्र समझी जाती है।
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चरण-शुश्रुषा  : स्त्री० =चरण-सेवा।
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चरण-सेवा  : स्त्री० [ष० त०] किसी पूज्य व्यक्ति के पैर दबाकर की जानेवाली सेवा।
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चरण-सेवी(विन्)  : पुं० [सं० चरण√सेव (सेवा करना)+णिनि, उप० स०] १. वह जो किसी की चरण-सेवा करता हो। २. दास। सेवक।
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चरणकरणानुयोग  : पुं० [चरण-करण, ष० त० चरणकरण-अनुयोग, ब० स०] जैन साहित्य में, ऐसा ग्रंथ जिसमें किसी के चरित्र का बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि से विचार या व्याख्या की गई हो।
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चरणप  : पुं० [सं० चरण√पा (रक्षा करना)+क, उप० स०] पेड़। वृक्ष।
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चरणा  : स्त्री० [सं० चरण+अच्+टाप्] एक रोग जिसमें मैथुन के समय स्त्रियों का रज बहुत जल्दी स्खलित हो जाता है। पुं०[?] काछा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० प्र० काछना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरणाक्ष  : पुं० [चरण-अक्षि, ब० स०] अक्षपाद या गौतम ऋषि का एक नाम।
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चरणाद्रि  : पुं० [सं० चरण-अद्रि, ब० स०] १. विंध्य पर्वत की एक शिला (चुनार नगरी के समीर) जिस पर बने चरण चिन्ह को हिंदू बुद्धदेव का और मुसलमान जिसे ‘कदमे रसूल’ बतलाते हैं। २. उत्तर प्रदेश का चुनार नामक स्थान।
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चरणानति  : स्त्री० [चरण-आनति, स० त०] किसी बड़े के चरणों पर झुकना, गिरना या पड़ना।
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चरणानुग  : वि० [चरण-अनुग, ष० त०] १. किसी के चरणों या पदचिन्हों का अनुगमन करनेवाला व्यक्ति। अनुगामी। २. अनुयायी। ३. शरणागत।
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चरणामृत  : पुं० [सं० चरण-अमृत, ष० त०] वह पानी जिसे किसी देवता या महात्मा के चरण धोये गये हों और इसी लिए जो अमृत के समान पूज्य समझ कर पिया जाता हो। २. दूध, दही, घी, चीनी और शहद का वह मिश्रण जिसमें लक्ष्मी, शालिग्राम आदि को स्नान कराया जाता है। और जो उक्त जल की भाँति पवित्र समझकर पिया जाता है। पंचामृत। मुहावरा–चरणामृत लेना=(क) चरणामृत पीना। (ख) बहुत ही थोड़ी मात्रा में कोई तरल पदार्थ पीना।
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चरणायुध  : पुं० [चरण-आयुध, ब० स०] मुरगा जो अपने पैरों के पंजों से लड़ता है।
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चरणार्द्ध  : वि० [चरण-अर्द्ध, ष० त०] चरण अर्थात् चतुर्थाश का आधा (भाग)। पुं० १. किसी चीज का आठवाँ भाग। २. किसी कविता या पद्य के चरण का आधा भाग।
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चरणि  : पुं० [सं०√चर् (चलना)+अनि] मनुष्य। वि० गमन करने या चलनेवाला। चर।
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चरणोदक  : पुं० [चरण-उदक, ष० त०] चरणामृत (दे०)
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चरणोपधान  : पुं० [चरण-उपधान, ष० त०] १. वह चीज जिस पर पैर रखे जाय। पाँवदान।
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चरत  : पुं० [हिं० बरत (व्रत) का अनु० अथवा हिं० चरना से] १. व्रत या उपवास के दिन व्रत न रखकर या उपवास न करके सब कुछ खाना-पीना। २. ऐसा दिन जिसमें मनुष्य नियमित रूप से अन्न आदि खाता पीता हो।
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चरता  : स्त्री० [सं० चर+चल्-टाप्] चर होने की अवस्था या भाव। पृथ्वी।
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चरतिरिया  : स्त्री० [देश०] मिरजापुर जिले में होनेवाली एक प्रकार की कपास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरती  : पुं० [हिं० चरत] व्यक्ति, जिसने व्रत न रखा हो। व्रत के दिन भी नियमित रूप से अन्न आदि खानेवाला।
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चरत्व  : पुं० [सं० चर+त्व] चर होने की अवस्था या भाव। चरता।
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चरथ  : वि०[सं०√चर् (चलना)+अथ] चलनेवाला। चर। जंगम।
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चरंद  : पुं० [फा० चरिंद] चरनेवाले जीव या प्राणी। जैसे–गौ, घोड़े, बैल आदि।
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चरदास  : स्त्री० [?] मथुरा जिले में होनेवाली एक प्रकार की घटिया कपास।
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चरन  : पुं० दे० ‘चरण’। (‘चरन’ के यौं० के लिए दे० ‘चरण’ के यौ०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०[?] कौड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरन-धरन  : पुं० [सं० चरण+हिं० धरना] खड़ाऊँ। उदाहरण–चरन धरन तब राजै लीन्हा।-जायसी।
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चरनंग  : पुं० [सं० चरण-अंग] चरण। पैर। उदाहरण–चरनंग बीर तल बज्जइय, सबर जोर जम दढ्ढ कसि।-चन्दबरदाई।
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चरनचर  : पुं० [सं० चरणचर] पैदल चलनेवाला दूत या सिपाही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चरनदासी  : स्त्री० =चरण-दासी।
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चरनबरदार  : पुं० [सं० चरण+फा० बरदार] वह नौकर जो बड़े आदमियों को जूते पहनाता, उतारना, लाता ले जाता तथा यथास्थान रखता हो।
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चरना  : अ० [सं० पा० चरति, प्रा० चरण, बँ० चरा, उ० चरिबा, पं० चरना, सि० चरणु, गु० चरबूँ, ने० चर्नु, मरा० मि० फा० चरीदन] १. पशुओं का घास आदि खाने के लिए खेतों और मैदानों में फिरना। जैसे–मैदान में गौएँ चर रही हैं। मुहावरा–अक्ल का चरने जानादे दे० ‘अक्ल’ के मुहा। २. इधर-उधर घूमना-फिरना या चलना। विचरण करना। स० १. पशुओं का खेतों आदि में उगी हुई घास, पौधे आदि खाना। जैसे–घोड़े घास चर रहे हैं। २. (व्यक्तियों का) अभद्रतापूर्वक तथा जल्दी-जल्दी खाना। पुं० [?] काछा। क्रि० प्र० -काछना। ३. सुनारों का वह औजार जिससे वे नक्काशी करते समय सीधी लकीरें बनाते हैं। चरनायुध
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चरनि  : स्त्री० [सं० चर=गमन] चाल। गति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चरनी  : स्त्री० [हिं० चरना] १. पशुओं के चरने का स्थान। चरी। चरागाह। २. वह नाँद या बड़ा पात्र अथवा पात्र के आकार की रचना जिसमें पशुओं को चारा खिलाया जाता है। ३. पशुओं के खाने की घास आदि। चारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरन्नी  : स्त्री० [हिं० चार+आना] चवन्नी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरपट  : पुं० [सं० चर्पट] १. चपत। तमाचा। थप्पड़। २. उचक्का। उदाहरण–चरपटाचोर धूर्त गँठिछोरा।–जायसी। ३. चर्पट नामक छंद।
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चरपर  : वि० चरपरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरपरा  : वि० [अनु०] [वि० स्त्री० चरपरी] (खाद्य पदार्थ) जिसमें खटाई, मिर्च आदि कुछ अधिक मात्रा में मिली हो और इसी लिए जो स्वाद में कुछ तीखी हो। वि० [सं० चपल] चुस्त। तेज। फुरतीला।
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चरपराना  : अ० [हिं० चरचर] घाव में खुश्की के कारण तनाव होना और उसके फलस्वरूप पीड़ा होना। अ० [हिं० चरपर] चरपरी वस्तु खाने पर मुँह में हलकी जलन होना।
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चरपराहट  : स्त्री० [हिं० चरपरा] १. चरपरा होने की अवस्था, भाव या स्वाद। २. घाव आदि की चरचराहट। ३. ईर्ष्या। डाह।
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चरफराना  : अ० १.= चरपराना। २. =छटपटाना।
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चरब  : वि० [फा० चर्ब] तेज। तीखा।
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चरब-जबान  : वि० [फा० चर्ब-जबान] [भाव० चरब-जबानी] १. प्रायः कठोर और तीखी बातें कहनेवाला। कटु-भाषी। २. बहुत बढ़बढ़कर बातें करनेवाला। वाचाल। ३. बिना सोचे समझे बहुत अधिक या तेज बोलनेवाला।
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चरबन  : पुं० =चबैना।
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चरबा  : पुं० [फा० चर्ब] १. लेखे, हिसाब आदि का लिखा हुआ पूर्व रूप। खाका। २. अनुलिपि। नकल। ३. चित्रकला में वह पतला पारदर्शी कागज जिसकी सहायता से चित्रों की छाप ली जाती है। क्रि० प्र०-उतारना।
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चरबाई  : वि० चरबाँक।
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चरबाँक  : वि० [फा० चर्बतेज] १. चतुर। चालाक। होशियार। २. निडर। निर्भय। ३. आचार, व्यवहार, स्वभाव आदि के विचार से उद्दंड तेज या शोख। ४. चंचल। चुलबुला। जैसे–चरबाँक आँखें।
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चरबाना  : स० [सं० चर्म] ढोल पर चमड़ा मढ़ाना।
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चरबी  : स्त्री० [फा०] प्राणियों के शरीर में रहनेवाला सफेद या हलके पीले रंग का गाढ़ा, चिकना तथा लसीला पदार्थ। मुहावरा–(शरीर पर) चरबी चढ़नामोटा होना। (आँखों में) चरबी छाना अभिमान या मद में अंधा होना।
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चरम  : वि० [सं०√ चर् (चलना)+अमच्] १. अंतिम सीमा तक पहुँचा हुआ। हद दरजे का। जैसे–चरम पंथ। २. सबसे अधिक या आगे बढ़ा हुआ। जैसे–चरम गति। ३. अंतिम। आखिरी। जैसे–चरम अवस्था (=वृद्धावस्था) ४. पश्चिमी। पुं० १. पश्चिमी दिशा। २. वृद्धावस्था। ३. अंत। ४. उपन्यास, कहानी, नाटक आदि में का वह अंश या अवस्था जहाँ पर कथा की धारा अधिकतम ऊँचाई पर पहुँचती है। (क्लाइमैक्स) पृं=चर्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चरम-काल  : पुं० [कर्म० स०] मृत्यु का समय।
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चरम-गिरि  : पुं० [कर्म० स०] अस्ताचल।
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चरम-पत्र  : पुं० [कर्म० स०] अपनी संपत्ति के उत्तराधिकार, व्यवस्था आदि के संबंध में अंतिम अवस्था में लिखा जानेवाला पत्र या लेख। दित्सापत्र। वसीयतनामा। (विल)।
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चरम-पंथ  : पुं० [सं० चरम+हिं० पंथ] वह विचार-धारा जो यह प्रतिपादित करती है कि समाज को अस्वस्थ बनाने वाले तत्त्वों को सारी शक्ति से और शीघ्रतापूर्वक दूर या नष्ट कर देना चाहिए। (ऐक्स्ट्रीमिज्म)।
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चरम-पंथी  : पुं० [हिं० चरमपंथ से] वह जो इस बात का पक्षपाती हो कि सामाजिक दोषों को बलपूर्वक और शीघ्रता से दूर या नष्ट कर देना चाहिए (एक्स्ट्रीमिस्ट)
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चरम-वय(स्)  : वि० [ब० स०] १. अधिक अवस्थावाला (व्यक्ति)। २. पुराना।
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चरमर  : पुं० [अनु०] कसी या तनी हुई चीमड़ चीज के दबने या मुड़ने से होनेवाला शब्द। जैसे–चलने में जूते का चरमर बोलना।
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चरमरा  : वि० [अनु०] चरमर शब्द करने वाला। जिससे चरमर शब्द निकले। जैसे–चरमरा जूता। पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जिसे तकड़ी भी कहते हैं।
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चरमराना  : अ० [हिं० चरमर] चरमर शब्द होना। स० चरमर शब्द उत्पन्न करना।
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चरमवती  : स्त्री० [सं० चर्मण्वती] चंबल नदी।
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चरलीता  : पुं० [देश०] एक प्रकार की काष्ठौषधि।
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चरवाई  : स्त्री० [हिं० चरवाना] पशु चरवाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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चरवाँक  : वि०=चरबाँक।
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चरवाना  : स० [हिं० चारना का प्रे०] चराने का काम किसी से कराना। पशु चराने का काम दूसरे से कराना।
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चरवाहा  : पुं० [हिं० चरना+वाहावाहक] वह व्यक्ति जो दूसरे के पशुओं को चराकर अपनी जीविका चलाता हो।
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चरवाही  : स्त्री० [सं० चर+वाही] १. पशु चराने का काम, भाव या मजदूरी। २. उलटी-सीधी या निर्लज्जता से भरी बातें कर के दूसरों को उपेक्षापूर्वक धोखे में रखना। उदाहरण–चरवाही जानो करो बे परवाही बात।-राम सतसई।
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चरवी  : स्त्री० [सं० चर] कहारों का एक सांकेतिक शब्द जो इस बात का सूचक होता है कि रास्तें में आगे गाड़ी, एक्का आदि हैं।
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चरवैया  : वि० [हिं० चरना] १. चरनेवाला। २. चरानेवाला। पुं० चरवाहा।
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चरव्य  : वि० [सं० चरु+यत] जिसका या जिससे चरु बनाया जा सके।
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चरस  : स्त्री० [सं० चर्य या रस] १. गाँजे के पौधों के डंठलों पर से उतारा हुआ एक प्रकार का हरा या हलका पीला गोंद या चेप जो प्रायः मोम की तरह का होता है और जिसे लोग गाँजे या तमाकू की तरह पीते हैं। नशे में यह प्रायः गाँजे के समान ही होता है। पुं० [फा० चर्ज] आसाम में अधिकता से होनेवाला एक प्रकार का पक्षी जिसका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है। इसे वनमोर या चीनी-मोर भी कहते हैं। पुं० दे० ‘चरसा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरसा  : पुं० [सं० चर्म्म] १. भैंस, या बैल आदि के चमड़े का बना हुआ वह वबड़ा थैला जिसकी सहायता से खेत सींचने के लिए कुएँ से पानी निकाला जाता है। पुर। मोट। २. चमड़े का बना हुआ कोई बड़ा थैला। ३. जमीन की एक नाप जो प्रायः २॰॰॰ हाथ लंबी और इतनी ही चौड़ी होती थी। गो-चर्म। पुं० चरस (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरसिया  : पुं० =चरसी (चरस पीनेवाला)।
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चरसी  : पुं० [हिं० चरस+ई (प्रत्यय)] १. वह जो चरस की सहायता से कूएँ से पानी निकालकर खेत सींचता हो। मोट खींचनेवाला। २. वह जो गाँजे, तमाकू आदि की तरह चरस पीता हो।
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चरही  : स्त्री० दे० ‘चरनी’।
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चराई  : स्त्री० [हिं० चरना] १. चरने की क्रिया या भाव। २. पशु आदि चराने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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चराऊ  : पुं० [हिं० चरना] पशुओं के चराने का स्थान। चरी।
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चराक  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया। पुं० चिराग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चराग  : पुं० चिराग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरागाह  : पुं० [फा०] पशुओं के चरने का स्थान, जहाँ प्रायः घास आदि उगी रहती है। चरनी। चरी।
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चराचर  : वि० [चर-अचर, द्व० स] चर और अचर। जड़ और चेतन। स्थावर और जंगम। पुं० १. संसार। २. संसार में रहनेवाले सभी जीव और पदार्थ। ३. कौड़ी।
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चराचर-गुरु  : पुं० [ष० त०] १. ब्रह्मा। २. ईश्वर।
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चरान  : पुं० [हिं० चरदलदल] समुद्र के किनारे की वह दल-दल जिसमें से नमक निकाला जाता है। स्त्री० चरने या चराने की क्रिया या भाव। पुं०=चरागाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चराना  : स० [हिं० चरना] १. पशुओं को खेतों या खुले मैदानों में लाकर वहाँ उगी हुई घास खाने या चरने में उन्हें प्रवृत्त करना। जैसे–गो-भैंस चराना। २. किसी के साथ इस प्रकार का चातुर्यपूर्ण आचरण या व्यवहार करना कि मानों वह पशु के समान अबोध हो। जैसे–वाह अब तो तुम भी हमें चराने लगे।
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चराव  : पुं० [सं० चर] पशुओं के चरने का स्थान। चरनी। चरागाह।
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चरावना  : स० चराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरावर  : स्त्री० [चरचर से अनु०] व्यर्थ की बातें। बकवाद।
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चरि  : पुं० [सं० चर+इनि] जानवर। पशु।
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चरित  : पुं० [सं० चर् (चलना)+क्त] १. आचरण और व्यवहार या रहन-सहन। २. किसी के जीवन की घटनाओं का उल्लेख या विवरण। जीवन-चरित्र। ३. किसी के किए हुए अनुचित या निंदनीय काम। तरतूत। करनी। (व्यंग्य)। जैसे–इनके चरित्र सुने तो दंग रह जाएँगे।
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चरित-कार  : पुं० [ष० त०] चरित-लेखक।
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चरित-नायक  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जिसकी जीवन की घटनाओ के आधार पर कोई पुस्तक या जीवनी लिखी गई हो।
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चरितवान्  : वि० दे० ‘चरित्रवान्’।
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चरितव्य  : वि० [सं०√चर्+तव्यत्] (कार्य या व्यवहार) जो करने या आचरण के रूप में लाये जाने के योग्य हो।
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चरितार्थ  : वि० [चरित-अर्थ, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसका अर्थ, अभिप्राय या उद्देश्य पूरा या सिद्ध हो चुका हो। कृतकार्य। कृतार्थ। जैसे–भगवान की भक्ति में लगकर वे चरितार्थ हो गए। २. (बात या विषय) जिसके अस्तित्व का उद्देश्य पूरा या सिद्ध हो गया हो। जैसे–अपना जीवन चरितार्थ करना। ३. (उक्ति या कथन) जो अपने ठीक-ठीक अर्थ में पूरा उतरता या घटित होता हो। जैसे–आपकी उस दिन की भविष्यद्वाणी आज चरितार्थ हो गई।
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चरितार्थता  : स्त्री० [सं० चरितार्थ+तल्-टाप्] चरितार्थ या कृतार्थ होने की अवस्था या भाव।
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चरित्तर  : पुं० [सं० चरित्र] छलपूर्ण अनुचित आचरण या व्यवहार जैसे–तिरिया चरित्तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरित्र  : पुं० [सं०√चर्+इत्र] १. वे सब बातें जो आचरण, व्यवहार आदि के रूप में की जायँ। किया या किये हुए काम। कार्य-कलाप। २. अच्छा आचरण या चाल-चलन। सदाचार। जैसे–चरित्रवान्। ३. जीवन में किये हुए कार्यों का विवरण। जीवन-चरित्र। जीवनी। ४. कहानी, नाटक में कोई पात्र। ५. कोई महान अथवा श्रेष्ठ व्यक्ति। ६. स्वभाव। ७. छलपूर्ण अनुचित आचरण और व्यवहार। करतूत। चरित्र। (व्यंग्य) ८. कर्त्तव्य। ९. शील। स्वभाव। १॰.चलने की क्रिया या भाव। ११. पग। पाँव। पैर।
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चरित्र-नायक  : पुं०=चरितानायक।
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चरित्र-पंजी  : स्त्री० दे० ‘आचरण पंजी’।
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चरित्र-बंधक  : पुं० [ष० त०] १. मैत्रीपूर्ण तथा सद्व्यवहार करने की प्रतिज्ञा। २. वह चीज जो किसी के पास कुछ शर्तों के साथ बंधन या रेहन रखी जाय। ३. उक्त प्रकार से बंधक या रेहन रखने की प्रणाली।
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चरित्र-लेखक  : पुं० [ष० त०] किसी के जीवन की घटनाएँ या जीवन चरित्र लिखनेवाला लेखक।
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चरित्र-हीन  : वि० [तृ० त०] (व्यक्ति) जिसका आचरण या चाल-चलन बहुत ही खराब या निन्दनीय हो। बदचलन।
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चरित्रवान्(वत्)  : वि० [सं० चरित्र+मतुप्] [स्त्री० चरित्रवती] (व्यक्ति) जिसका चरित्र सद् हो। सदाचारी।
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चरित्रा  : स्त्री० [सं० चरित्र+टाप्] इमली का पेड़।
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चरिंद  : पुं० चरिंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरिंदा  : पुं० [फा० चरिन्दः] चरनेवाला जीव या प्राणी। पशु। हैवान। जैसे–गाय, बैल, भैंस बैल आदि।
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चरिष्णु  : वि० [सं०√चर्+इष्णुच्] चलनेवाला। चर। जंगम।
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चरी  : पुं० [कर्म० स०] चर ग्रह या राशि।
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चरी  : स्त्री० [हिं० चरना] १. वह जमीन जो किसानों को अपने पशुओँ के चारे के लिए जमींदार से बिना लगान मिलती है। २. वह प्रथा जिसके अनुसार किसान उक्त प्रकार से जमींदार से जमीन लेता है। ३. वह स्थान जो पशुओं के चरने के लिए खुला छोड़ दिया गया हो। चरागाह। ४. छोटी ज्वार के हरे पेड़ जो पशुओं के चारे के काम में आते हैं। कड़बी। स्त्री० [सं० चर=दूत] १. संदेशा ले जानेवाली स्त्री। दूती। २. दासी। नौकरानी।
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चरीद  : पुं० [फा० चरिंद या हिं० चरना] खाने या चरने के लिए निकला हुआ जंगली पशु (शिकारी)।
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चरु  : पुं० [सं०√ चर्+उ] [वि० चरव्य] १. हवन या यज्ञ की आहुति के लिए पकाया हुआ अन्न। हविष्यान्न। हव्यान्न। २. वह पात्र जिसमें उक्त अन्न पकाया जाता है। ३. यज्ञ। ४. ऐसा भात जिससे माँड़ न निकाला गया हो। ५. पशुओं के चरने की जगह। चरी। चरागाह। ६. वह महसूल जो पशुओँ के चरने की जमीन पर लगता है। ७. बादल। मेघ।
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चरु-पात्र  : पुं० [ष० त०] वह पात्र जिसमें यज्ञ आदि के लिए हविष्यान्न रखा या पकाया जाता है।
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चरु-व्रण  : पुं० [ष० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का पूआ। (पकवान) जिस पर चित्र बनाये जाते थे।
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चरु-स्थाली  : स्त्री० [ष० त०]=चरु-पात्र।
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चरुआ  : पुं० [सं० चरु] [स्त्री० अल्पा० चरुई] चौड़े मुँहवाला मिट्टी का वह बरतन जिसमें प्रसूता स्त्री के लिए औषध मिला जल पकाया जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरुका  : स्त्री० [सं० चरु+कन्-टाप्] एक प्रकार का धान। चरक।
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चरुखला  : पुं० [हिं० चरखा, पं० चरखला] सूत कातने का छोटा चरखा।
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चरुचेली(लिन्)  : पुं० [सं० चरु-चेल, उपमि० स०+इनि] शिव।
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चरू  : पुं० दे० ‘चरू’। स्त्री० दे० ‘चरी’।
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चरेर  : वि=चरेरा।
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चरेरा  : वि०[चरचर से अनु०] [स्त्री चरेरी] १. कड़ा और खुरदरा। २. कर्कश। पुं० [देश०] हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती और इमारत के काम में आती है।
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चरेरू  : पुं० [हिं० चरना] चरनेवाला पशु।
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चरेली  : स्त्री० [?] ब्राह्मी बूटी।
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चरैया  : पुं० [हिं० चरना] १. चरानेवाला। २. चरनेवाला। स्त्री० चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चरैला  : पुं० [हिं० चार+ऐलचूल्हे का मुँह] एक प्रकार का चार मुँहोंवाला चूल्हा जिसपर एक साथ चार चीजें पकाई जा सकती हैं। पुं० [?] चिडियाँ फँसाने का एक प्रकार का जाल।
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चरोखर  : स्त्री० [हिं० चारा+खर] १. पशुओं के चरने की जगह। चरी। चरागाह। २. मिट्टी आदि की वह रचना जिसमें नाँद बैठाई जाती है।
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चरोतर  : पुं० [सं० चिरोत्तर] वह भूमि जो किसी मनुष्य को जीवन भर भोगने के लिए दी गई हो।
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चरौआ  : पुं० [हिं० चराना] १.पशुओं के चरने का स्थान। चरी। २. चरवाहा।
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चर्क  : पुं० [देश०] जहाज का मार्ग। रूस।(लश०)
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चर्ख  : पुं०=चरख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चर्खकश  : पुं० [फा०] खराद की डोरी या पट्टा खींचने या चरख चलाने वाला।
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चर्खा  : पुं० चरखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चर्खी  : स्त्री० चरखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चर्च  : पुं० [अं०] १.वह मंदिर जिसमें मसीही प्रार्थना करते हैं। गिरजा। २. मसीही धर्म की कोई शाखा या संप्रदाय। पुं०=चर्चन।
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चर्चक  : वि० [सं०√ चर्च (बोलना)+ण्वुल्-अक] चर्चा करनेवाला।
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चर्चन  : पुं०[सं०√चर्च+ल्युट-अन] १.चर्चा करने की क्रिया या भाव। २. चर्चा। ३. लेप लगाना। लेपन।
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चर्चर  : वि० [सं०√चर्च+अरन्] गमनशील। चलनेवाला। चर।
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चर्चरिका  : स्त्री०[सं०चर्चरी+कन्-टाप्-ह्रस्व] नाटक में वह गीत जो दर्शकों के मनोरंजन के लिए दो अंकों के बीच में अर्थात् ऐसे समय में होता है जब कि रंगमंच पर अभिनय नहीं होता।
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चर्चरी  : स्त्री० [सं० चर्चर+ङीष्] १. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगण, सगण, दो जगण, भगण और तब फिर रगण (र, स, ज, भ, र) होता है। २. वसंत या होली के दिनों में गाया जानेवाला चाँचर नामक गीत। ३. होली की धूम-धाम और हुल्लड़। ४. ताली बजने या बजाने का शब्द। ५. ताल के ६॰ मुख्य भेदों में से एक। (संगीत)। ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल। ७. आमोद-प्रमोद के समय की जानेवाली कीड़ा। ८. नाच-गाना। ९. दे० ‘चर्चरिका’।
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चर्चरीक  : पुं० [सं०√चर्च् (ताड़ना)+ईकन्, नि० सिद्धि] १. महाकाल भैरव। २. साग-भाजी। तरकारी। ३. सिर के बाल गूँथना या बनाना। केश-विन्यास।
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चर्चस  : पुं० [सं०√चर्च्+असुन्] कुबेर की नौ निधियों में से एक।
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चर्चा  : स्त्री० [सं०√चर्च्+णिच्+अङ-टाप्] १. किसी विषय पर या व्यक्ति के संबंध में होनेवाली बात-चीत। जिक्र। वार्तालाप। २. बहुत से लोगों में फैली हुई ऐसी बात जिसके संबंध में प्रायः सभी लोग कुछ न कुछ कहते हों। ३. किसी प्रकार का कथन या उल्लेख। ४. विचारपूर्वक किसी बात के सब पक्षों पर होनेवाला विचार। जैसे–आज की गोष्ठी में इन्हीं विषयों पर चर्चा हो सकती है। ५. किवंदती। अफवाह। ६. किसी चीज के ऊपर कोई गाढ़ी चीज पोतना, लगाना या लेपना। लेपन। ७. गायत्री रूपा महादेवी। ८. दुर्गा।
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चर्चिक  : वि० [सं० चर्चा+ठन्-इक] वेद आदि जाननेवाला।
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चर्चिका  : स्त्री० [सं० चर्चा+कन्-टाप्, इत्व] १. चर्चा। जिक्र। २. दुर्गा। ३. एक प्रकार का सेम।
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चर्चित  : भू० कृ० [सं० चर्च्+क्त] १. चर्चा के रूप में आया हुआ। २. जिसकी चर्चा की गई हो या हुई हो। ३. जो लेप के रूप में ऊपर से पोता या लगाया गया हो। जैसे–चंदनचर्चित ललाट या शरीर।
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चर्णि-दासी  : स्त्री० [मध्य० स०] चक्की पीसनेवाली। पिसनहारी।
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चर्नाक  : पुं० दे० ‘चरणाद्रि’।
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चर्पट  : पुं० [सं०√चृप् (उद्दीप्त करना)+अटन्] १. हाथ की खुली हुई हथेली। २. उक्त प्रकार की हथेली से लगाया हुआ तमाचा या थप्पड़। वि० बहुत अधिक। विपुल।
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चर्पटा  : स्त्री० [सं० चर्पट+टाप्] भादों सुदी छठ।
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चर्पटी  : स्त्री० [सं० चर्पट+ङीष्] एक प्रकार की चपाती या रोटी।
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चर्परा  : वि०=चरपरा।
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चर्बजबान  : वि० [फा०] बहुत अधिक और तेजी से बोलने वाला।
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चर्बण  : पु०=चर्वण।
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चर्बित  : भू० कृ० चर्वित।
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चर्बी  : स्त्री० चरबी।
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चर्भट  : पुं० [सं०√चर्+क्विप्√भट् (पालना)+अच्, चर्-भट, कर्म० स०] ककड़ी।
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चर्भटी  : स्त्री० [सं० चर्भटी+ १, ङीष्] चर्चरी गीत। २. चर्चा। ३. आनन्द के समय की जानेवाली कीड़ा। ४. आनन्द ध्वनि।
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चर्म-करंड  : पुं० [ष० त०] चमड़े का बड़ा कुप्पा जिसके सहारे नदी पार करते थे। (कौ०)
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चर्म-करी  : स्त्री० [सं० चर्मन्√कृ (करना)+ट-ङीप्, उप० स०] १. एक प्रकार का गंध द्रव्य। २. मांसरोहिणी नाम की लता।
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चर्म-कशा  : स्त्री० [सं०=चर्मकषा, पृषो० सिद्धि] १. एक प्रकार का गंध द्रव्य२. मांस-रोहिणी। सिद्धि लता। ३. सातला नाम का थूहड़।
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चर्म-कारक  : पुं० [ष० त०]=चर्मकार।
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चर्म-कार्य  : पं० [ष० त०] चमड़े की चीजें बनाने का कार्य या पेशा।
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चर्म-कील  : पुं० [स० त०] १. बवासीर नामक रोग। २. एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर पर मांस की कीलें सी निकल आतीं और बहुत कष्ट देती हैं। न्यच्छ।
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चर्म-कूप  : पुं० [ष० त०] चमड़े का कुप्पा।
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चर्म-ग्रीव  : पुं० [ब० स०] शिव का एक अनुचर।
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चर्म-घटिका  : स्त्री० [ष० त०] जोंक।
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चर्म-चटका, चर्मचटी  : स्त्री० [तृ० त०] [चर्मन्√अट्+अच्-ङीष्] चमगादड़।
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चर्म-चित्रक  : पुं० [ष० त०] श्वेत कुष्ठ नामक रोग।
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चर्म-चेल  : पुं० [मध्य० सं०] वह चमड़ा जो उलटकर कपड़े की तरह ओढ़ा या पहना गया हो।
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चर्म-तरंग  : पुं० [सं० त०] शरीर के चमड़े पर पडी हुई झुर्री ।
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चर्म-दंड  : पुं० [मध्य० सं०] चमडे. का बना हुआ कोङा या चाबुक।
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चर्म-दल  : पुं०[सं० चर्मन्√दल् (विदीर्ण करना)+णिच्+अण्, उप० स] एक प्रकार का कोढ जिसमें पहले किसी स्थान पर बहुत सी फुंसियाँ हो जाती हैं और तब वहाँ का चमङा फट जाता है।
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चर्म-दूषिका  : स्त्री० [ष० त०] दाद नामक रोग।
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चर्म-दृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] चर्म-मक्षुओं की अर्थात् साधारण दृष्टि। आँख।(ज्ञान-दृष्टि से भिन्न)
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चर्म-देहा  : पुं० [ब० स०] मशक के ढंग का एक प्रकार का पुराना बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था।
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चर्म-द्रुर्म  : पुं० [मध्य० स०] भोजपत्र का पेड़।
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चर्म-नालिका  : स्त्री० [ष० त०] चमडे का कोड़ा या चाबुक।
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चर्म-नासिका  : स्त्री० चर्म=नालिका।
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चर्म-पट्टिका  : स्त्री०[ष० त०] चमोटी।
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चर्म-पत्रा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] चमगादड़।
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चर्म-पत्री  : स्त्री० [ब०स०ङीष्] चर्म=पत्रा।
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चर्म-पादुका  : स्त्री० [मध्य० स०] चमड़े का बना हुआ जूता।
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चर्म-पीड़िका  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार की शीतला (रोग)।
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चर्म-पुट  : पुं० [मध्य० स०] चमड़े का कुप्पा या थैला।
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चर्म-पुटक  : पुं० [सं० चर्म-पुट+कन्] चर्म=पुट।
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चर्म-प्रभेदिका  : स्त्री० [ष० त०] चमड़ा काटने का सुतारी नामक औजार।
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चर्म-बंध  : पुं० [ष० त०] १. चमड़े का तस्मा या पट्टी। २. चमड़े का कोड़ा या चाबुक।
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चर्म-मंडल  : पुं० [मध्य० स०] एक प्राचीन देश का नाम। (महाभारत)।
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चर्म-मसूरिका  : स्त्री० [मध्य० स०] मसूरिका रोग का एक भेद जिसमें रोगी के शरीर में छोटी-छोटी फुंसियाँ या छाले निकल आते हैं।
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चर्म-मुंडा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] दुर्गा।
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चर्म-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. तंत्र में एक प्रकार की मुद्रा। २. चमड़े का सिक्का।
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चर्म-यष्टि  : स्त्री० [मध्य० स०] चमड़े का कोड़ा या चाबुक।
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चर्म-रंगा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] एक प्रकार की लता जिसे आवर्त्तकी और भगवद्वल्ली भी कहते हैं।
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चर्म-वंश  : पुं० [ब० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था।
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चर्म-वसन  : पुं० [ब० स०] महादेव। शिव।
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चर्म-वाद्य  : पुं० [मध्य० स०] ढोल, नगाड़ा आदि ऐसे बाजे जिन पर चमड़ा मढ़ा होता है।
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चर्म-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] भोजपत्र का पेड़।
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चर्म-संभवा  : स्त्री० [ब० स०] इलायची।
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चर्म(न्)  : पुं० [सं०√चर्+मनिन्] १. शरीर पर का चमड़ा। २. ढाल जो पहले चमड़े की बनती थी।
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चर्मकषा  : स्त्री० [सं० चर्मन्√कष् (खरोंचना)+अच्-टाप्] चर्मकशा।
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चर्मकार  : पुं० [सं० चर्मन्√कृ+अण्, उप० स०] [स्त्री० चर्मकारी] चमड़े का काम करने अर्थात् चमड़े की चीजें बनाने वाला व्यक्ति अथवा ऐसे व्यक्तियों की जाति। चमार।
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चर्मकारी  : स्त्री०=चर्म-कार्य।
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चर्मचक्षु(स्)  : पुं० [ष० त०] चमड़े की बनी हुई ऊपरी आँखे (अंतश्चक्षु या ज्ञान चक्षु से भिन्न) जैसे–खाली चर्म-चक्षुओं से देखने पर ईश्वर नहीं दिखाई देगा।
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चर्मज  : वि० [सं० चर्मन्√जन् (उत्पत्ति)+ड, उप० सं०]चर्म या चमड़े से उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. रोआँ। रोम। २. खून। रक्त। लहू।
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चर्मण्वती  : स्त्री० [सं० चर्मन्+मतुप्-ङीप्] १. चंबलनदी जो विंध्याचल पर्वत से निकलकर इटावे के पास यमुना से मिलती है। शिवनद। २. केले का पेड.।
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चर्मरी  : स्त्री० [सं० चर्मन्√रा (दाने)+क-ङीष्] एक प्रकार की लता जिसका फल बहुत विषैला होता है।
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चर्मरु  : पुं० [सं० चर्मन्√रा+कु]=चमार।
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चर्मसार  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में, खाये हुए पदार्थों से शरीर के अंदर बननेवाला रस।
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चर्माख्य  : पुं० [चर्मन्-आख्या, ब० स०] कुष्ठ रोग का एक प्रकार या भेद।
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चर्मांत  : पुं० [चर्मन्-अंत, ब० स०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का यंत्र जिसका व्यवहार चीर-फाड़ आदि में होता था।
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चर्मानला  : स्त्री० [सं०] प्राचीन काल की एक नदी।
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चर्मानुरंजन  : पुं० [चर्मन्-अनुरंजन, ष० त०] बदन पर लगाने का सिंदूर की तरह का एक द्रव्य।
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चर्मार  : पुं० [सं० चर्मन्√ऋ (गति)+अण्, उप० स०] चर्मकार। चमार।
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चर्मिक  : पुं० [सं० चर्मन्+ठन्-इक] हाथ में ढाल लेकर लड़नेवाला योद्धा।
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चर्मी(र्मिन्)  : पुं० [सं० चर्मन्+इनि, टिलोप]=चर्मिक।
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चर्य्य  : वि० [सं०√चर् (चलना)+यत्] १. जो चरण अर्थात् आचरण के रूप में किये जाने के योग्य हो। २. कर्त्तव्य।
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चर्य्या  : स्त्री० [सं० चर्य्य+टाप्] १. वह जो किया जाय। आचरण। जैसे–व्रतचर्य्या, दिनचर्य्या आदि। २. आचरण। चाल-चलन। ३. काम-धंधा। ४. जीविका या वृत्ति। ५. सेवा। ६. धर्मशास्त्र के अनुसार विहित काम करना और निषिद्ध काम न करना। ७. भोजन करना। खाना। ८. चलना। गमन।
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चर्राना  : अ० [अनु०] १. लकड़ी आदि का टूटते या तड़कने के समय चर चर शब्द होना। २. घाव के सूखने के समय होनेवाले तनाव के कारण हलकी पीड़ा होना। ३. शरीर में चुनचुनाहट या हलकी जलन होना। ४. किसी कार्य, बात, वस्तु आदि की प्रबल इच्छा होना। जैसे–किसी काम या बात का शौक चर्राना।
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चर्री  : स्त्री० [हिं० चर्राना] ऐसी लगती हुई बात जिससे किसी के मर्म पर आघात होता हो।
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चर्वण  : पुं० [सं०√चर्व् (चबाना)+ल्युट-अन] [वि०चर्य्य] १. किसी चीज को मुंह में रखकर दाँतों से बराबर कुचलने की क्रिया। चबाना २. चबाकर खाई जानेवाली चीज। ३. भुना हुआ अन्न। चबेना। दाना।
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चर्वित  : भू० कृ० [सं० चर्व्+क्त] १. चाबा या चबाया हुआ। २. खाया हुआ। भक्षिण।
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चर्वित-पात्र  : पुं० [ष० त०] उगालदान। पीकदान।
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चर्वित, चर्वण  : पुं० [ष० त०] किसी किये हुए काम या कही हुई बात को फिर से करना या कहना। पिष्टपेषण।
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चर्विल  : पुं० [अं०] गाजर की तरह की एक पाश्चात्य तरकारी जो कुआर-कातिक में क्योरियों में बोई जाती है।
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चर्व्य  : वि० [सं०√चर्व्य+ण्यत्] १. चबाये जाने के योग्य। २. जो चबाकर खाया जाय।
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चर्षणि  : पुं० [सं० कृष् (लिखना)+अनिच्, च आदेश] आदमी। मनुष्य।
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चर्षणी  : स्त्री०[चर्षणि+ङीष्.] १. मानव जाति। २. कुलटा स्त्री।
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चर्स  : स्त्री०=चरस।
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चल  : वि० [सं० चल (जाना)+अच्] १. जो चल रहा हो, चलता हो या चल सकता हो। जैसे–चल-चित्र। २. चलता या हिलता डुलता रहनेवाला। जैसे–चल चंचु। ३. अस्थिर। चंचल। ४. जो एक स्थान से उठाकर या हटाकर दूसरे स्थान पर रखा या लाया जा सके। (मूवेबुल) जैसे–चल संपत्ति। ५. नश्वर। पुं० [चल्+णिच्+अप्] १. कांपने, चलने या हिलने की क्रिया या भाव। २. पारा। ३. महादेव। शिव। ४. विष्णु। ५. ऐब। दोष। ६. चूक। भूल। ७. कपट। छल। धोखा। ८. दोहा छंद का एक भेद जिसमें ११ गुरु और २६ लघु मात्रायँ होती हैं। ९. नृत्य में अंग की वह चेष्टा जिसमें हाथ के इशारे से किसी को अपनी ओर बुलाया जाता है। १॰. नृत्य में शोक, चिंता, परिश्रम या उत्कंठा दिखलाने के लिए गहरा साँस लेना। ११. गणित में वह राशि जिसके कई मान या मूल्य हों। १२. उक्त राशि का प्रतीक चिन्ह्र। (वेरिएब्ल, उक्त दोनों अर्थों में)।
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चल-कर्म  : वि० [ब० स०] जिसके कान सदा हिलते रहते हों। पुं० १. हाथी। २. ज्योतिष में, पृथ्वी से ग्रहों का प्रसम अन्तर।
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चल-केतु  : पुं० [कर्म० स०] ज्योतिष में, एक प्रकार का पुच्छल तारा जिसके उदय से अकाल या दुर्भिक्ष पड़ता है।
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चल-चंचु  : पुं० [ब० स०] जिसकी चोंच हिलती रहती हो अर्थात् चकोर।
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चल-चलाव  : पुं० [हिं० चलना+चलाव (अनु०)] १. कहीं से चलने अथवा चल पड़ने की क्रिया, तैयारी या भाव। चलाचली। २. मृत्यु। उदाहरण–दुनियाँ है चल-चलाव का रास्ता, संभल के चल।-कोई शायर।
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चल-चाल  : वि० [ब० स०] चलविचल। चंचल। अस्थिर।
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चल-चित्त  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसका मन कहीं या किसी निश्चय पर टिकता या लगता न हो। चंचल चित्तवाला।
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चल-चित्र  : पुं० [कर्म० स०] १. भा या छाया चित्रों का वह अनुक्रम जो इतनी तेजी से परदे पर विक्षेपित किया जाता है कि दृष्टि-भ्रम के कारण उनमें दिखाई देनेवाली वस्तुएँ, व्यक्ति आदि चलते-फिरते नजर आते हैं। २. छाया या भाचित्रित कथा या कहानी। (मूवी)।
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चल-चित्रण  : पुं० [ष० त०] भा या छाया-चित्रण के द्वारा चल-चित्र तैयार करना। (फिल्मिंग)।
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चल-चित्रित  : वि० [सं० चल-चित्र+णिच्+क्त] चल-चित्र के रूप में तैयार किया हुआ। (फिल्मूड)।
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चल-चूक  : स्त्री० [सं० चल=चंचल] धोखा। छल। कपट।
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चल-दल  : पुं० [ब० स०] पीपल का वृक्ष।
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चल-पत्र  : पुं०[ब० स०] पीपल का पेड़, जिसके पत्ते हरदम कुछ न कुछ हिलते रहते हैं।
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चल-मित्र  : पुं० [कर्म० स०] वह मित्र (राजा) जो सदा साथ न दे सके।
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चल-मुद्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] वह मुद्रा जिसका चलन किसी देश में सब जगह समान रूप से होता हो। (करेन्सी)।
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चल-रेखा  : स्त्री० [कर्म० स०] चंचल रेखा अर्थात् तरंग।
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चल-विचल  : वि० [सं० कर्म० स०] १. अपने स्थान से हटा हुआ। २. अस्थिर। चंचल। ३. अस्त-व्यस्त।
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चल-संपत्ति  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी संपत्ति जो एक स्थान से आसानी से हटाई-बढ़ाई जा सकती हो। (मूवेबुल प्रापर्टी)।
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चलक  : पुं० [सं० चल+कन्] १. माल। असबाब। २. दे० ‘चल’ ११ तथा १२।
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चलकना  : अ०=चिलकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चलका  : पुं० [देश०] एक प्रकार की नाव।
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चलचा  : पुं० [देश०] ढाक। पलास।
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चलंता  : वि० [हिं० चलना] १. चलता हुआ। चलता रहनेवाला। २. चलनेवाला।
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चलता  : स्त्री० [सं० चल+तल्-टाप्] १. चल अर्थात् गतिमान या गतिशील होने की अवस्था या भाव। २. अस्थिरता। चंचलता। वि० [हिं० चलना] [स्त्री० चलती] १. जो चल रहा हो। जो गति में हो। जैसे–चलती गाड़ी में से मत उतरो। मुहावरा–(किसी को) चलता करन=जैसे–तैसे दूर करना या हटाना। पीछा छुड़ाने के लिए रवाना करना। जैसे–मैने दो चार बातें करके उन्हें चलता किया। (कोई काम) चलता करना=जैसे–तैसे निपटाना या पूरा करना। जैसे–कई काम तो आज मैने यों ही चलते किये। (किसी व्यक्ति का) चलता या चलते बनना या होन=चुपचाप खिसक या हट जाना। जैसे–झगड़ा बढ़ता हुआ देखकर मैं तो वहाँ से चलता बना। चलते फिरते नजर आना=चलता या चलते बनना। जैसे–अब आप वहाँ से चलते-फिरते नजर आइए। २. जो प्रचलन और व्यवहार में बराबर आ रहा हो। जैसे–चलता माल, चलता सिक्का। ३. जिस पर से होकर लोग बराबर आते जाते रहते हैं। जैसे–चलता रास्ता। ४. जो ठीक प्रकार से काम करने की स्थिति में न हो। चलती मशीन, चलती घड़ी। ५. जिसका अथवा जहाँ पर काम-काज या कारोबार ठीक प्रकार से चल रहा हो। जैसे–चलती दूकान, चलती वकालत। ६. जिसका क्रम बराबर चलता रहता हो। जैसे–चलता खाता (दे०) ७. जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से जा अथवा ले जाया जा सकता हो। जैसे–चलता पुस्तकालय, चलता सिनेमा। ८.(व्यक्ति) जो अधिक चतुर या होशियार हो। धूर्त्त। जैसे–चलता पुरजा (दे०)। ९. (कार्य या वस्तु) जिसे करने अथवा बनाने में विशेष योग्यता अपेक्षित न हो। जैसे–ऐसे चलते काम तो यहाँ नित्य आया करते हैं। पद-चलता गाना (देखें)। १॰. जिसमें समस्त अंगों या ब्योरे की बातों पर विशेष ध्यान न दिया गया हो या न किया जाय। काम-चलाऊ। जैसे–किसी काम या किताब को चलती निगाह से देखना। ११. जो अपने अंत या समाप्ति के पास तक पहुँच रहा हो। जैसे–चलती अर्थात् ढलती उमर। पद–चलता समय या समाँ। (देखें)। पुं० [हिं० चलना] १. उलटा नाम का पकवान जो पिसी हुई दाल या बेसन की रोटी के रूप में पकाया जाता है। २. रास्ते में वह स्थान जहाँ फिसलन और कीचड़ बहुत अधिक हो। पुं० [देश०] १. एक प्रकार का बहुत बड़ा सदाबहार वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और पानी में भी जल्दी गलती सड़ती नहीं है। २. उक् वृक्ष का फल जो तरकारी बनाने और यों भी खाने के काम आता है। ३. कवच। पुं० चिलता (कवच)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चलता खाता  : पुं० [हिं० पद] लेन-देन का ऐसा हिसाब जिसका क्रम बराबर चलता या बना रहता हो, बीच में बंद न होता हो। (करेण्ट-एकाउण्ट)।
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चलता गाना  : पुं० [हिं०] ऐसा गाना जो शुद्ध राग-रागिनियों के अन्तर्गत न हो पर जिसका प्रचार सर्व साधारण में हो। जैसे–गजल, दादरा, लावनी आदि।
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चलता छप्पर  : पुं० [हिं० पद] छाता। (फकीरों की भाषा)।
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चलता पुरजा  : पुं० [हिं० पद] व्यवहार कुशल व्यक्ति। चालाक या चुस्त व्यक्ति।
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चलता लेखा  : पुं० =चलता खाता।
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चलता समाँ  : पुं० [हिं०] जीवन का अंतिम भाग या समय। वृद्धावस्था।
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चलता-समय  : पुं०=चलता समाँ।
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चलती  : स्त्री० [हिं० चलना] कोई कार्य करने या करा सकने का अधिकार। उदाहरण–आज-कल उस दरबार में उनकी बड़ी चलती है। वि० हिं० ‘चलता’ का स्त्री० रूप।
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चलतू  : वि० [हिं० चलना] १. दे० ‘चलता’। २. (भूमि) जो जोती बोई जाती हो।
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चलदंग  : पुं० [ब० स०] झींगा मछली।
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चलंदरी  : स्त्री०=चलनदरी।
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चलन  : पुं० [सं०√चल्+ल्युट-अन] १. गति। चाल। २. कंपन। ३. चरण। पैर। ४. हिरन। ५. ज्योतिष में विषुवत् की वह गति जिससे दिन और रात दोनों बराबर रहते हैं। ६. नृत्य में एक प्रकार की चेष्टा या मुद्रा। पुं० [हिं० चलना] १.चलने की अवस्था, क्रिया या भाव। गति। चाल। २. प्रचलित रहने की अवस्था या भाव। प्रचलन। जैसे–कपड़े या सिक्के का चलन। ३. आचार-व्यवहार आदि से संबंध रखने वाली प्रथा। रीति। रिवाज। ४. अच्छा आचरण या व्यवहार। जैसे–जो चलन से रहेगा, उसे कभी कोई कष्ट न होगा।
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चलन-कलन  : पुं० [तृ० त०] ज्योतिष में एक प्रकार का गणित जिसके द्वारा पृथ्वी की गति के अनुसार दिन-रात के घटने-बढ़ने का हिसाब लगाया जाता है।
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चलन-समीकरण  : पुं० [ष० त०] गणित में एक प्रकार की क्रिया। दे० ‘समीकरण’।
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चलनदारी  : स्त्री० [हिं० चलन+दरी] वह स्थान जहाँ यात्रियों को पुण्यार्थ जल पिलाया जाता हो। पौसरा।
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चलनसार  : वि० [हिं० चलन+सार (प्रत्यय)] १. जिसका उपयोग, प्रचलन या व्यवहार हो रहा हो। जैसे–चलनसार सिक्का। २. जो बहुत दिनों तक चल सके अर्थात् काम में आ सके। जैसे–चलनसार धोती।
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चलनहार  : वि० [हिं० चलना+हार (प्रत्य)] १. जो अभी चलने को उद्यत या प्रस्तुत हो। २. जो अभी चल रहा हो। चलनेवाला। ३. दे० ‘चलनसार’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चलना  : अ० [सं० चलन] १. पैरों की सहायता से जीव-जंतुओं का एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने के लिए आगे बढ़ना। जैसे–आदमियों या घोड़ों का चलना। मुहावरा–चल देना=(क) कोई स्थान छोड़कर वहाँ से दूर होना या हट जाना। (ख) बिना कुछ कहे-सुने या चुपके से खिसक या हट जाना। जैसे–वह लड़का मेरे सब कपड़े लेकर चल दिया। चल पड़ना=चलना आरंभ करना। जैसे–सबेरा होते ही यात्री चल पड़े। २. पहियों आदि की सहायता से अथवा किसी प्रकार किसी ओर अग्रसर होना या बढ़ना। जैसे–गाड़ी या जहाज का चलना, मछली या साँप का चलना। ३. किसी प्रकार की गति से युक्त होकर आगे बढ़ना। गति में होना। जैसे–आँधी या हवा चलना, ग्रहों या नक्षत्रों का चलना। ४. किसी प्रकार की गति से युक्त होकर या हिलते-डोलते हुए कोई कार्य संपन्न या संपादित करना। जैसे–घड़ी,नाड़ी या यंत्र चलना। ५. कोई काम करते हुए उसमें आगे की ओर बढ़ना। उन्नति करना। अग्रसर होना। मुहावरा–(किसी व्यक्ति का) चल निकलना=किसी काम या बात में तत्परतापूर्वक लगे रहकर औरों से कुछ आगे बढ़ना या उन्नति करना। जैसे–थोड़े ही दिनों में वह संस्कृत पढ़ने (या दस्कारी सीखने) में चल निकलेगा। (किसी काम या बात का) चल निकलना उन्नति, वृद्धि आदि के मार्ग पर आगे बढ़ना। जैसे–रोजगार (या वकालत) चल निकलना। ६. उचित या साधारण गति से क्रियाशील रहना। सक्रिय रहना या होना। जैसे–(क) लिखने में कलम चलना। (ख) कारखाना या दूकान चलना। (ग) बिना कहीं अटके या रुके बराबर बढ़ते चलना। ७. किसी कार्य, बात या स्थिति का उचित रूप से निर्वाह या वहन होना। काम निकलना या होता रहना। जैसे–(क) इतने रुपयों से काम नहीं चलेगा। (ख) यह लड़का चौथे दरजे में चल जायगा। मुहावरा–पेच चलना=खाने-पीने का सुभीता होता रहना। जीविका-निर्वाह होना। जैसे–इसी मकान के किराये से उनका पेट चलता है। ८. किसी चीज का ठीक तरह से उपयोग या व्यवहार में आते रहना। बराबर काम देते रहना। जैसे–(क) यह कपड़ा तो अभी बरसों चलेगा। (ख) बुढा़पे के कारण अब उनका शरीर नहीं चलता। (ग) पाकिस्तानी नोट और रुपए भारत में नहीं चलते। ९. शरीर के किसी अंग का अपने कार्य में प्रवृत्त या रत होना। जैसे–जबान या मुँह चलना अर्थात् जबान या मुँह से बातें निकलना; मुँह चलना अर्थात् मुँह से खाने या चबाने की क्रिया होना, हाथ चलना अर्थात् हाथ के द्वारा किसी पर प्रहार होना। १॰. किसी काम या बात का आरंभ होना। छिड़ना। जैसे–किसी की चर्चा या जिक्र चलना, कोई प्रसंग या बात चलना, कोई नयी प्रथा या रीति चलना। ११. प्रहार के उद्देश्य से अस्त्र-शस्त्र आदि का प्रयोग या व्यवहार होना। जैसे–गोली, तलवार या लाठी चलना। १२. उक्त के आधार पर, लाक्षणिक रूप में आपस में वैर-विरोध या वैमनस्य का व्यवहार होना। जैसे–आज-कल दोनों भाइयों में खूब चल रही है। १३. तरल पदार्थ का अपने आधान या पात्र में से होते हुए आगे बढ़ते या बहते रहना। जैसे–पानी गिरने या बरसने पर पनाला या मोरी चलना। १४. उक्त के आधार पर लाक्षणिक रूप में शरीर के किसी अंग में से तरल पदार्थ का असाधारण या विकृत रूप में बाहर निकलना या निकलते रहना। जैसे–पेट चलना अर्थात् दस्त के रूप में पेट में से निरंतर बहुत सा मल निकलना; पेट और मुँह चलना अर्थात् लगातार बहुत से दस्त और कै होना। १५. मार्ग या रास्ते के संबंध में, ऊपर से लोगों का आना-जाना होना। जैसे–(क) यह सड़क रात भर चलती है। (ख) यह गली सबेरे से चलने लगती है। (ग) यह जल-मार्ग आजकल नहीं चलता। १६. किसी क्रम या परंपरा का बराबर आगे बढ़ते रहना या जारी रहना। जैसे–किसी का नाम या वश चलना। उदाहरण–रघुकुल रीति सदा चली आई।-तुलसी। १७. मन का किसी प्रकार की वासना से युक्त होकर किसी ओर प्रवृत्त होना। जैसे–खाने-पीने की किसी चीज पर मन चलना। १८. अधिकार, युक्ति वश शक्ति आदि के संबंध में अपना ठीक और पूरा काम करना अथवा परिणाम या फल दिखाना। जैसे–जब तक हमारी (युक्ति या शक्ति) चलेगी, तब तक हम उन्हें ऐसा नहीं करने देगें। मुहावरा–(किसी की) कुछ चलना=किसी का कुछ अधिकार या वश अथवा उपाय या कौशल सफल या सार्थक होना। जैसे–किसी की कुछ नहीं चलती कि जब तकदीर फिरती है।–कोई शायर। १९. किसी लिखावट या लेख का ठीक तरह से पढ़ा जाना और समझ में आना। जैसे–उनका लिखा हुआ पत्र या लेख यहाँ किसी से नहीं चलता (पढ़ा जाता)। २॰. खाने या पीने के समय किसी पदार्थ का ठीक तरह से गले के नीचे उतरना। खाया, निगला या पीया जाना। जैसे–(क) पेट बहुत भर गया है, अब एक भी पूरी (या रोटी) नहीं चलेगी। (ख) ले लो अभी दो लड्डू तो और चल ही जायँगे। २१. खाने-पीने की चीजें परोसने के समय अलग-अलग चीजों का क्रम से सामने आना या रखा जाना। जैसे–पहले पूरी तरकारी और तब मिठाई चलनी चाहिए। २२. लोगों के साथ अच्छा और मेल-जोल का आचरण या व्यवहार करना। जैसे–संसार (या समाज) में सबसे मिलकर चलना चाहिए। २३. आज्ञा, आदेश, उदाहरण आदि के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। जैसे–सदा बड़ों की आज्ञा और उपदेश के अनुसार अथवा उनके दिखलाये या बतलाये हुए मार्ग पर चलना चाहिए। २४. किसी प्रकार के कपट, चालाकी या धूर्तत्ता का आचरण या व्यवहार करना। जैसे–हम देखते हैं कि आज-कल तुम हमसे भी चलने लगे हो। २५. किसी काम या चीज का अपने उचित, चलित या नियत क्रम, मार्ग या स्थिति से इधर-उधर या विचलित होना जो दोष विकार आदि का सूचक होता है। जैसे–(क) ऐसा जान पड़ता है कि छत (या दीवार) भी दो चार दिन में चली जायगी। (ख) उनका आधा खेत तो इस बरसात में गंगा में चला गया। मुहावरा–(किसी चीज का) चल जानाकिसी चीज का कट-फट टूट-फूट या गल-सड़कर अथवा और किसी प्रकार खराब या विकृत हो जाना। जैसे–(क) थान में से टुकड़ा फाड़ने के समय कपड़े का चल जाना अर्थात् सीधा न फटकर इधर-उधर या तिरछा फट जाना। (ख) कढ़ी, दाल या भात का चल जाना अर्थात् बासी होने के कारण सड़ने लगना। (ग) अंगरखा या कुरता चल जाना अर्थात् किसी जगह से कट, फट या मसक जाना। (घ) किसी का दिमाग या मस्तिष्क चल जाना अर्थात् कुछ-कुछ पागल या विक्षिप्त सा हो जाना। जैसे–जान पड़ता है कि इस लड़के का दिमाग कुछ चल गया है। २६. इस लोक से प्रस्थान करना। काल के मुँह में जाना। मर जाना। जैसे–सबको एक न एक दिन चलना है। मुहावरा–(किसी व्यक्ति का) चल बसना=मर जाना। स्वर्गवासी होना। जैसे–आज मोहन के पिता चल बसे। २७. नष्ट या समाप्त होना मुहावरा–(किसी चीज का) चला जाना=नष्ट या समाप्त हो जाना। न रह जाना। जैसे–उनके आने से मेरी भूख और प्यास चली जाती है। स० १. कुछ विशिष्ट खेलों में से किसी चीज के द्वारा अपनी बारी से चलने की सी क्रिया करना। आगे बढ़ना या रखना अथवा सामने लाना। जैसे–(क) चौसर की गोटी, ताश का पत्ता या शतरंज का मोहरा चलना। (ख) घोड़ा या हाथी चलना, बादशाह या बेगम चलना। २. किसी प्रकार की चाल, तरकीब या युक्ति को क्रियात्मक रूप देना। जैसे–(क) आपस में तरह-तरह की चालें चलना। (ख ) नित्य नई तरकीब चलना। पुं० [हिं० चलनी] १. बड़ी चलनी या छलनी। २. चलनी की तरह का लोहे का वह बड़ा कलछा या पौना जिससे उबलते हुए ऊख के रस पर का फेन या मैल उठाते हैं। ३. हलवाइयों का उक्त प्रकार का वह उपकरण जिससे चाशनी या शीरे पर की मैल उठाई जाती है।
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चलनि  : स्त्री०=चलन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चलनिका  : स्त्री० [सं० चलनी+कन्-टाप्, ह्रस्व] १. स्त्रियों के पहनने का घाघरा। २. झालर।
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चलनी  : स्त्री०=छलनी। स्त्री० [सं०√चल्+ल्युट्-अन,ङीष्] =चलनिका।
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चलनौस  : पुं० [हिं० चालना+औस (प्रत्य)] किसी वस्तु में का वह अंश जो उसे चालने या छानने पर चलनी में बच रहता है। चालन। चोकर।
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चलनौसन  : पुं०=चलनौस।
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चलपत  : पुं०=चलपत्र।
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चलबाँक  : वि० [हिं० चलना+बाँका] तेज चलनेवाला। शीघ्रगामी। वि० =चरबाँक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चलबिचल  : वि० चल-विचल।
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चलवंत  : पुं० [सं० चल+हिं० वंत] पैदल सिपाही। प्यादा।
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चलवया  : पुं० [हिं० चलना] १. चलनेवाला। २. चलानेवाला।
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चलवाना  : स० [हिं० चलाना का प्रे०] १. चलने का काम दूसरे से कराना। २. किसी को कोई चीज चलाने में प्रवृत्त करना।
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चला  : स्त्री० [सं० चल्+अच्-टाप्] १. बिजली। दामिनी। २. पृथ्वी। ३. लक्ष्मी। ४. पीपल। ५. शिला-रस नामक गंध द्रव्य। पुं० =चाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चलाऊ  : वि० [हिं० चलना] १. जैसे–तैसे काम चलानेवाला। जैसे-काम चलाऊ पुस्तक। २. अदिक समय तक टिकने या ठहरने वाला।
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चलाक  : वि० =चालाक।
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चलाका  : स्त्री०[सं० चला-बिजली] बिजली। दामिनी। विद्युत।
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चलाकी  : स्त्री०= चालाकी।
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चलाचल  : वि० [सं०√ चल्+अच्, द्वित्व] चंचल। चपल। स्त्री० [हिं० चलना] १. चलाचली। २. गति।
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चलाचली  : स्त्री० [हिं० चलना] १. चलने की क्रिया या भाव। २. कहीं से चलने के समय की जानी वाली तैयारी। ३. प्रस्थान। ४. एक के बाद दूसरे का भी जाना।
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चलातंक  : पुं० [चल-आतंक, ब० स०] एक वातरोग जिसके कुप्रभाव से हाथ-पाँव आदि काँपने लगते हैं। राशा।
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चलान  : स्त्री० [हिं० चलना] १. चलने या चलाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. व्यापारिक क्षेत्र में कोई चीज या माल कहीं भेजे जाने या रवाना करने की क्रिया या भाव। जैसे–अनाज या रूई की चलान। ३. उक्त प्रकार से कहीं चलकर आई हुई चीज या माल। जैसे–नई चलान का कपड़ा। ४. अभियुक्त को पकड़कर न्यायालय में विचार के लिए भेजे जाने की क्रिया या भाव। जैसे–चोर या जुआरी की चलान होना। ५. वह कागज जिसमें सूचना के लिए भेजी हुई चीजों की सूची, विवरण आदि लिखे रहते हैं। रवन्ना।
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चलानदार  : पुं० [हिं० चलान+फा० दार] वह व्यक्ति जो माल की चलान रक्षा के लिए उसके साथ जाता है।
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चलाना  : स० [हिं० चलना का० स०] १. हिंदी ‘चलना’ क्रिया का सकर्मक रूप। किसी को चलाने में प्रवृत्त करना। ऐसी क्रिया करना जिससे कुछ या कोई चले। जैसे–लड़के को पैदल चलाना। २. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई यान या सवारी किसी ओर आगे बढ़े। जैसे–गाड़ी, नाव, मोटर या रेल चलाना। ३. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई यंत्र ठीक तरह से अपना काम करने लगे। जैसे–घड़ी मशीन रेडियो या हलचलाना। ४. किसी प्रकार की या किसी रूप में गति देना। इधर-उधर करते हुए हिलाना-डुलाना। जैसे–चूल्हे पर चढ़ाई हुई तरकारी या दाल चलाना। ५. किसी के आचरण, गति-विधि, व्यवहार आदि के देख रेख रखते हुए उसके सब व्यवहार संचालित करना। जैसे–लड़को को जैसे चलाओगे, वैसे ही वे चलेगे। ६. उक्त प्रकार या रूप से किसी का संचालन करते हुए उसे अपने साथ निर्वाह के योग्य बनाना। कुछ करने के लिए उपयुक्त बनाना। जैसे–(क) इस लड़के को हम छठे दरजे में चला ले जायेंगे। (ख) ऐसे गँवार नौकर को भी आप चला ही ले गये। ७. उचित अथवा साधारण रूप से किसी काम, चीज या बात को क्रियाशील या सक्रिय रखना। ऐसी व्यवस्था करना जिससे कोई काम अच्छी तरह से चलता रहे। जैसे–कार्यालय, कोठी, या पाठशाला चलाना। ८. किसी स्थिति का निर्वाह या उत्तरदायित्व का वहन करना जैसे–(क) वह गृहस्थी के सब काम अच्छी तरह चला लेता है। (ख) इस महँगी में लोगों के लिए गृहस्थी चलाना बहुत कठिन हो रहा है। मुहावरा–(अपना या किसी का) पेट चलाना=भोजन आदि के व्यय का निर्वाह करना। जीविका चलाना। जैसे–पहले तुम अपना पेट तो चला लो, तब ब्याह की बात सोचना। (कोई काम या बात) चलाये चलना=किसी प्रकार निर्वाह करते चलना। जैसे–अभी तो हम जैसे–तैसे चलाये चलते है। ९. कौशल, योग्यता तथा तत्परतापूर्वक कोई काम करना। जैसे–शासन चलाना। १॰. किसी चीज को बराबर उपयोग तथा व्यवहार में लाते रहना। जैसे–यह कंबल तो वह दस बरस चलावेगा। ११. शरीर के किसी अंग को उसके किसी नियमित कार्य में प्रवृत्त या रत करना। जैसे–(क) मुँह चलाना, अर्थात भोजन करना या खाना। (ख) हाथ चलाना अर्थात ठीक तरह से सक्रिय रहकर पूरा काम करना। १२. शरीर के किसी अंग को असाधारण रूप में अथवा कुछ उग्र प्रकार से प्रयुक्त या सक्रिय करना। जैसे–(क) जबान चलाना, अर्थात् बहुत बढ़-बढ़कर या उद्दंतापूर्ण बातें करना। (ख) किसी पर हाथ चलाना अर्थात उसे थप्पड़ या मुक्का मार बैठना। १३. प्रहार करने के लिए अस्त्र-शस्त्र या किसी और साधन से काम लेना। जैसे–(क) तलवार, तीर या लात चलाना। (ख) डंडा या लाठी चलाना। (ग) घूँसा या लात चलाना। १४. तंत्र-मंत्र आदि के प्रयोग से कोई ऐसी क्रिया संपादित करना कि जिससे किसी का कोई अनिष्ट हो सकता वह कोई उद्धिष्ट कार्य करने में प्रवृत्त हो। जैसे–मंत्र-बल से कटोरा या कौड़ी चलाना। मुहावरा–(किसी पर) मूठ चलाना=मुट्टी में भरी या रखी हुई कोई चीज अभिमंत्रित करके किसी के नाम पर या किसी के उद्देश्य से कहीं फेंकना। १५. भेजने की प्रेरणा करना। भेजवाना। उदाहरण–जलभाजन सब दिये चलाई।-तुलसी। १६. तरल पदार्थ इतनी अधिकता से गिराना या डालना कि वह बहने लगे। जैसे–(क) पानी गिराकर मोरी चलाना। (ख) खून की नदियाँ चलाना अर्थात् बहाना। १७. ऐसी क्रिया करना जिससे शरीर के अंदर से कोई तरल पदार्थ अधिक मात्रा में बाहर निकलने लगे। जैसे–इस दवा की एक पुड़िया ही तुम्हारा पेट चला देगी। १८. किसी काम या बात का आरंभ करना। शुरू करना। छेड़ना। जैसे–किसी की चर्चा, जिक्र या प्रसंग चलाना। मुहावरा–किसी को चलाना=किसी के अधिकार, प्रभुत्व, शक्ति आदि की चर्चा या प्रसंग छेड़ना। जैसे–उनकी क्या चलाते हो, वे तो बहुत कुछ कर सकते हैं। १९. कोई नया नियम, प्रथा, रीति आदि प्रचलित करना। जारी करना। जैसे–नया कानून या नया धर्म चलाना। २॰. किसी क्रम, परंपरा आदि का निर्वाह करना या उसे बराबर बनाये रखना। जैसे–पूर्वजों या बड़ों का नाम चलाना। २१. किसी प्रकार की कामना या वासना के वश में होकर अपने मन को उसी के अनुसार प्रवृत्त करना। जैसे–दूसरों के अधिकार या वैभव पर मन चलाना ठीक नहीं। २२. अस्पष्ट लिखावट पढ़ने का प्रयत्न करना। जैसे–हमसे तो यह चिट्ठी नहीं चलती, जरा तुम्हीं चलाकर देखो। २३. खाने-पीने की चीजें परोसने के लिए लोगों के सामने लाना। जैसे–पहले नमकीन चलाओ, तब मिठाई लाना। २४. सामाजिक रीति-व्यवहार का ठीक तरह से आचरण या व्यवहार करना। जैसे–हम तो बराबर उसी तरह से उनके साथ चलाते हैं, आगे उनकी इच्छा। २५. दूसरों को अपनी आज्ञा, आदेश आदि के अनुसार आचरण या व्यवहार करने में प्रवृत्त करना अथवा ऐसा करने के लिए जोर देना। जैसे–आपस वालों पर इस तरह हुकुम मत चलाया करो। २६. कपड़े आदि के संबंध में अनुचित रूप से या बुरी तरह ऐसी क्रिया करना कि वे कहीं इधर-उधर से कुछ फट जाएँ। जैसे–(क) इस खींचातानी में तुमने हमारी कमीज चला दी। (ख) जल्दी में टुकड़ा फाड़ने के समय तुमने यह कपड़ा चला दिया। २७. खोटे या जाली सिक्कों के संबंध में, कोई देन चुकाने के लिए धोखे से किसी को देना। जैसे–वह खोटी अठन्नी नौकर ने बाजार में चला दी। 2८. विधिक क्षेत्रों में, कोई अभियोग किसी न्यायालय में कारवाई या विचार के लिए उपस्थित या प्रस्तुत करना। जैसे–किसी पर मुकदमा चलाना।
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चलानी  : वि० [हिं० चलान] १. दूसरे स्थान से बिकने के लिए आया हुआ। जैसे–चलानी आम, चलानी परवल। २. चलान संबंधी। जैसे–चलानी मुकदमा। स्त्री० बिक्री के लिए माल बाहर भेजने का काम या व्यवसाय।
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चलायमान  : वि० [सं० चल+क्यङ+शानच्] १. चलानेवाला। जो चलता हो। २. चंचल। ३. विचलित।
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चलार्थ  : पुं० [सं० चल-अर्थ, कर्म० स०] वह धन विशेषतः मुद्रा जिसका प्रयोग या व्यवहार होता रहता है। (करेंसी)।
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चलार्थ-पत्र  : पुं० [ष० त०]=चल-पत्र।
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चलाव  : पुं० [हिं० चलना] १. चलने की क्रिया या भाव। २. प्रयाण। पयान। ३. चलावा। (गौना)।
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चलावना  : स० चलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चलावा  : पुं० [हिं० चलाना ] १. रीति। रस्म। रिवाज। २. द्विरागमन। गौना। ३. गाँव में संक्रामक रोग फैलने पर उसके उपचार के लिए किया जानेवाला उतारा। चलौआ।
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चलासन  : पुं० [चल-आसन, कर्म० स०] सामयिक व्रत में आसन बदलना जो बौद्धों में एक दोष माना गया है।
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चलि  : पुं० [सं०√ चल्-इन] १. आवरण। २. अँगरखा।
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चलित  : वि० [सं०√ चल्+क्त] १. अस्थिर। चलायमान। २. जो चल रहा हो। चलता हुआ। जैसे–चलित ग्रह। ३. जो चलन में हो। (करेंट) जैसे–चलित प्रथा। ४. जिसका प्रचलन या व्यवहार प्रायः सब जगह या सब लोगों में होता हो। (यूजुअल)। पुं० नृत्य में एक प्रकार की चेष्टा जिसमें ठुड्डी की गति से क्रोध या क्षोभ प्रकट हो।
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चलित-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] ज्योतिष में वह ग्रह जिसमें भोग का आरंभ हो चुका हो।
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चलित्र  : पुं० [सं०?] अपनी ही शक्ति से चलनेवाला इंजन। (लोकोमोटिव)।
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चलुक  : पुं० [सं०√चल्+उन्+कन्] १. चुल्लू भर पानी। २. एक छोटा पात्र।
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चलैया  : पुं० [हिं० चलना] चलनेवाला।
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चलोर्मि  : स्त्री० [सं० चल+ऊर्मि, कर्म० स०] चलती या आगे बढ़ती हुई लहर।
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चलौना  : पुं० [हिं० चलाना] १. दूध, तरकारी आदि चलाने का लकड़ी का एक उपकरण या डंडा। २. वह लकड़ी का टुकड़ा जिससे चरखा चलाया जाता है।
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चलौवा  : पुं०=चलावा। वि०=चलाऊ।
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चल्ली  : स्त्री० [देश०] तकले पर लपेटा हुआ सूत या ऊन आदि। कुकड़ी।
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चल्हवा  : पुं०=चेल्हा (मछली)।
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चव  : वि०=चौ। पुं० १.=चौ। २.=चव्य।
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चवदसु  : वि० चौदह। स्त्री० चौदस (चतुर्दशी)।
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चवना  : अ० [सं० च्यवन] चूना। टपकना। स० चुआना या टपकाना। उदाहरण–लता विटप माँगे मधु चवहीं।–तुलसी।
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चवन्नी  : स्त्री० [हिं० चौ (चार का अल्पा)+आना+ई (प्रत्य०)] एक सिक्का जिसका मूल्य २५ नये पैसे अथवा पुराने चार आने के बराबर होता है।
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चँवर  : पुं० [सं० पा० प्रा० चामर, बँ० चमर, उ० आअर, पं० चौर, मरा० चौरी] [स्त्री० अल्पा० चँवरी] १.पशुओं मुख्यतः सुरा गाय की पूँछ के लंबे बालों का वह गुच्छा जो दस्ते के अगले भाग में लगा होता है और जिसे देवमूर्तियों, धर्मग्रंथों, राजाओं आदि के ऊपर और इधर-उधर इसलिए डुलाया जाता है कि उन पर मख्खियां आदि न बैठने पावें। क्रि० प्र-डुलाना।-हिलाना। २. घोड़ों, हाथियों आदि के सिर पर लगाई जानेवाली कलगी।
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चवर  : पुं०=चँवर।
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चवर-ढार  : पुं० [हिं० चँवर+ढारना] चँवर डुलानेवाला सेवक।
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चवरा  : पुं० [सं० चवल] लोबिया। पुं०=चौरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चँवरी  : स्त्री० [?] विवाह-मंडप। उदाहरण–चँवरी ही पहिचाणियौ, कँवरी मरणौ कंत।-कविराजा सूर्यमल। स्त्री०=छोटा चँवर।
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चवर्ग  : पुं० [ष० त०] [वि० चवर्गीय] नागरी वर्णमाला के च से ञ तक के अक्षरों का समूह।
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चवल  : पुं० [सं०√चर्व् (चबाना)+अलच्, पृषो०] लोबिया।
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चवा  : स्त्री० [सं० चौ+वात] चारों ओर से एक साथ चलनेवाली वायु। उदाहरण–सुणि सुन्दरि संच्चउ चवा।–ढोलामारू।
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चवाइन  : स्त्री० ‘चवाई’ का स्त्री रूप। उदाहरण–जदपि चवाइन चीकनी चलति चहूँ दिसि सैन।–बिहारी।
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चवाई  : वि० [हिं० चवाव] [स्त्री० चवाइन] १. बदनामी की चर्चा फैलाने वाला। कलंकसूचक प्रवाद फैलानेवाला। २. दूसरों की बुराई करने वाला। निंदक। स्त्री० १. चारों ओर फैली हुई निंदा। २. झूठी अफवाह या खबर।
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चवाउ  : पुं०=चवाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चवायनि  : स्त्री० चवाइन।
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चवालीस  : वि० चौवालीस।
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चवाव  : पुं० [हिं० चौवाई] १. चारों ओर फैलनेवाली चर्चा। प्रवाद। अफवाह। २. उक्त प्रकार की निंदा।
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चवि  : स्त्री० [सं०√चर्व् (चबाना)+इन्, पृषो० सिद्धि]=चविका।
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चविक  : पुं० [सं० चवि+कन्] एक प्रकार का पेड़।
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चविका  : स्त्री० [सं० चविक+टाप्] चव्य नाम की ओषधि।
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चवैया  : पुं०=चवाई।
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चव्य(का)  : पुं० [सं०√चर्व+ण्यत्, पृषो० चव्य+कन्-टाप्] चाब नाम की ओषधि। दे० ‘चाव’।
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चव्यजा  : स्त्री० [सं० चव्य√जन् (उत्पत्ति)+ड-टाप्] गजपीपल।
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चव्या  : स्त्री० [सं० चव्य+टाप्]=चव्य।
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चशक  : स्त्री०=चश्म।
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चशमा  : पुं०=चश्मा।
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चश्म  : स्त्री० [फा०] १. आँख। नयन। नेत्र। २. आँख की तरह का कोई छेद या रचना। पद-चश्म बददूर=इसे बुरी नजर न लगे। (कोई अच्छी या सुन्दर चीज देखने पर)।
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चश्मक  : स्त्री० [फा० चश्म] १. आँखों से किया जानेवाला इशारा या संकेत। २. मनमुटाव। वैमनस्य। ३. ऐनक। चश्मा।
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चश्मदीद  : वि० [फा०] १. जो आँखों से देखा हुआ हो। प्रत्यक्ष देखा हुआ। हो। प्रत्यक्ष देखा हुआ। २. प्रत्यक्षदर्शी। जैसे–चश्मदीद गवाह।
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चश्मदीद गवाह  : पुं० [फा०] वह साक्षी जो अपनी आँखों से देखी हुई घटना कहे। वह गवाह जो चश्मदीद माजरा (आँखों देखी घटना) बयान करे।
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चश्मनुमाई  : स्त्री० [फा०] आँखें दिखा या निकालकर किसी को डराना। भयभीत करना।
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चश्मा  : पुं० [फा० चश्म] १. जल-स्रोत। सोता। २. आँखों पर लगाया जानेवाला धातु का एक प्रकार का प्रसिद्ध ढाँचा या कमानी जिसमें लगे हुए शीशों की सहायता से वस्तुएँ अधिक स्पष्ट दिखाई देती है। क्रि० प्र-लगाना।
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चश्मापोशी  : स्त्री० [फा०] जान-बूझकर किसी अनुचित बात को टाल जाना। उपेक्षा करना।
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चष  : पुं० [सं० चक्षुस्] नेत्र। आँख।
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चषक  : पुं० [सं०√चप् (पीना)+क्वुन्-अक] १. वह पात्र जिसमें ढालकर शराब पी जाती है। शराब पीने का प्याला। २. मधु।
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चषचोल  : पुं० [हिं० चष+चोल=वस्त्र] आँख पर की पलक।
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चषण  : पुं०[सं०√चष् (खाना)+ल्युट-अन] १. भोजन करना। खाना। २. वध करना। मार डालना। ३. क्षय या नाश करना।
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चषाल  : पुं० [सं० चष्(बाँधना)आलच्] लकड़ी की वह गराड़ी जो यज्ञ के खंभे में लगी रहती थी और जिसमें बलि-पशु की रस्सी बाँधी जाती थी।
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चस  : स्त्री० [अनु०] गोटे आदि की पतली धारी जो मगजी के आगे पहने जानेवाले वस्त्रों में लगाई जाती है।
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चसक  : स्त्री० [अनु०] १. हलका दर्द या पीड़ा। कसक। टीस। २. गोटे आदि की वह पतली गोट जो मगजी के आगे लगाई जाती है। पुं०=चषक।
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चसकना  : अ० [हिं० चसक] शरीर के किसी अंग में रह-रहकर हल्की पीड़ा होना। टीस उठना।
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चसका  : पुं०=चस्का।
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चसकी  : स्त्री० दे० ‘चसका’।
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चसना  : अ० [सं० चषण] १. प्राण त्यागना। मर जाना। २. ठगा जाना। अ० [हिं० चाशनी] १. दो चीजों का आपस में चिपक, लग या सट जाना। २. कपड़े आदि का खिंचने पर फट या मसक जाना।
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चसम  : पुं० [देश०] रेशम के तागों में निकला हुआ निरर्थक अंश। स्त्री०=चश्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चसमा  : पुं०=चश्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चंसुर  : पुं० [सं० चंद्रशूर] एक प्रकार का पौधा जिसके पत्ते हलके और कटावदार होते हैं। इन पत्तों का साग बनाकर खाया जाता है। हालम। हालों।
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चस्का  : पुं० [सं० चषण] १. किसी काम या बात से होनेवाली तृप्ति या मिलने वाले सुख के कारण फिर-फिर वैसी ही तृप्ति या सुख पाने के लिए मन में होनेवाली लालसापूर्ण प्रवृत्ति या मनोवृत्ति। चाट। जैसे–जूए या शराब का चस्का, गाना सुनने या बातें करने का चस्का। २. उक्त प्रकार की प्रवृत्ति का वह पुष्ट रूप जो आदत या बान बन गया हो। लत। क्रि० प्र०–पड़ना।–लगना।–लगाना। विशेष–इस शब्द का प्रयोग मुख्यतः ऐसे ही कामों या बातों के संबंध में होता है जो लोक में या तो कुछ बुरी या प्रायः अनावश्यक और व्यर्थ की समझी जाती है। साधारणतः भगवद्भक्ति का चस्का’, या ‘साहित्य सेवा की चस्का’ सरीखे प्रयोग देखने-सुनने में नहीं आते।
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चस्पाँ  : वि० [फा०] १. गोंद, लेई, सरेस आदि की सहायता से किसी पर चिपकाया, लगाया या सटाया हुआ। २. किसी के साथ अच्छी तरह चिपका या लगा हुआ।
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चस्म  : स्त्री०=चश्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चस्सी  : स्त्री० [देश०] हथेली या पैर के तलुए में होनेवाली सुरसुराहट या हलकी खुजली।
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चह  : पुं० [सं० चय] १. नदी के किनारे बनाया हुआ वह चबूतरा जिस पर चढ़कर मनुष्य, पशु आदि नाव पर जाते हैं। पाट। २. नदी पार करने के लिए बनाया हुआ पीपे आदि का अस्थायी पुल। स्त्री० [फा० चाह] गड्ढा।
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चह-बच्चा  : पुं० [फा० चाहकुआँ+बच्चा] १.पानी,विशेषतः गंदा या मैला पानी भरने का छोटा गड्ढा या हौज। २. वह गड्ढा जो गाड़ या छिपाकर धन ऱखने के लिए बनाया गया हो।
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चहक  : स्त्री० [हिं० चहकना] १. चहकने की क्रिया या भाव। २. चिड़ियों का चहचह शब्द। पुं० दे० ‘चहला’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चहकना  : अ० [अनु०] १. कुछ पक्षियों का प्रसन्न होकर चहचह शब्द करना, जैसे–चिड़ियों का चहकना। चहचहाना। २. लाक्षणिक अर्थ में, उमंग में आकर प्रसन्नतापूर्वक खूब बोलना या बढ़-बढ़कर या अधिक बातें करना। (परिहास और व्यंग्य)।
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चहका  : पुं० [देश०] १. लकड़ी जिसका कुछ अंश जल रहा हो। जलती हुई लकड़ी। लुआठी। लूका। क्रि० प्र०–लगाना। २. बनेठी। पुं०[सं० चय] ईंट या पत्थर का बना हुआ फर्श। पुं० दे० ‘चहला’।
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चहकार  : स्त्री० [हिं० चहकना+कार (प्रत्यय)] चिड़ियों के चहकने का शब्द।
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चहकारना  : अ०=चहकना।
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चहचहा  : पुं० [हिं० चहचहाना] १. चहचहाने की क्रिया या भाव। चहक। २. खूब जोरों से होनेवाला हँसी-ठट्ठा। वि० १. आनंद या प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला। २. तुरन्त का। ताजा।
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चहचहाना  : अ० [अनु०] कुछ पक्षियों का उमंग में आकर या प्रसन्न होकर चहचह शब्द करना। चहकना।
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चहचहाहट  : स्त्री० [हिं० चहचहाना+हट (प्रत्य०)] चहचहाने या चहकने की क्रिया या भाव।
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चहटा  : पुं० [देश०] १. कीचड़। पंक। २. दलदल।
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चहता  : वि० [स्त्री० चहती]=चहेता। (दे०)।
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चहनना  : स० [हिं० चहलना] १. कुचलना। चहलना। रौंदना। २. अच्छी तरह मिलाना। मिश्रित करना। ३. खूब जी भरकर या अच्छी तरह खाना।
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चहना  : अ०=चाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चहनि  : स्त्री० [हिं० चाहना=देखना] १. देखने की क्रिया या भाव। २. दृष्टि। नजर। स्त्री० चाह (अभिलाषा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चहर  : वि०[हिं०चाह या चाहना] जो चाहा जा सके,अर्थात् उत्तम,वांछनीय या श्रेष्ठ। वि०[चहचह से अनु.] १.चपल। चुलबुला। २. तीखा। तेज। स्त्री.१.जोर की ध्वनियाँ या शब्द। २. शोर-गुल। हो-हल्ला। ३. उत्पात। स्त्री०[हिं०चहल] आनन्दोत्सव। धूम-धाम। स्त्री०[हिं०चहरना] चहचहानेवाली चिड़िया। पद-चहर की बाजीचिड़ियों का सा खेल। बहुत ही तुच्छ काम या बात। उदाहरण–यों संसार चहर की बाजी,साँझ पड़याँ उठ जासी।-मीराँ।
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चहरना  : अ. [हिं०चहचह या चहर] १.चहचह शब्द करना। २. आनंदित होना। स० [?.] १.कुचलना। २. खूब अच्छी तरह खाना।
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चहराना  : स० [हिं०चहरना का० स०] किसी को चहरने में प्रवृत्त करना। अ० १. चहरना। २. चर्राना। ३. चहकना।
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चहर्रूम  : वि० दे० ‘चहारुम’।
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चहल  : स्त्री० [हिं० चहलना या चहला] १. चहलने की क्रिया या भाव। २. आनन्द मनाने की क्रिया या भाव। पद-चहल-पहल। (देखें)। ३. कीचड़। ४. दलदल। ५. कीचड़ से भरी हुई वह जमीन जिसमें हल से जुताई करने की आवश्यकता न पड़ती हो। वि० १. अच्छा। बढ़िया। २. चटकीला। तेज। ३. चंचल। चुलबुला।
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चहल-कदमी  : स्त्री० [हिं० चहल+फा० कदम] सुखपूर्वक तथा धीरे-धीरे चलने की क्रिया या भाव।
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चहल-पहल  : स्त्री० [हिं० चहल+पहल, अनु०] १. किसी स्थान पर किसी कारण से बहुत से लोगों के आते-जाते रहने की अवस्था या भाव। रौनक। २. उक्त के कारण होनेवाला आनन्दोत्सव। धूम-धाम। क्रि० प्र०-मचना।
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चहलना  : स० [देश०] पैरों से कुचलना या रौंदना। अ० धीरे-धीरे अथवा मस्ती से चलना या सैर करना। टहलना।
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चहला  : पुं० [सं० चिकिल] १. कीचड़। २. कीचड़ से भरी हुई जमीन दलदल। उदाहरण–इक भीजें चहले परे, बूड़े, बहे हजार।–बिहारी।
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चहली  : स्त्री० [देश०] कूएँ में से पानी खींचने की चरखी। गराड़ी। घिरनी।
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चहलुम  : पुं०=चेहलुम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चहवारा  : वि० [हिं० चहना+वारा (वाला)] चहचहानेवाला। पुं० पक्षी।
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चहा  : पुं० [?] चितकबरे रंग का एक प्रकार का पक्षी जो कीचड़ में के कीड़े-मकोड़े खाता है और जिसका मांस बहुत स्वादिष्ट माना जाता है।
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चहार  : वि० [फा०] तीन और एक। चार। पुं० चार की संख्या अथवा उसका सूचक अंक।
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चहार-चंद  : वि० [फा०] किसी मैदान या स्थान को चारों ओर से घेरने के लिए बनाई जानेवाली दीवार या दीवारें। प्राचीर।
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चहार-यारी  : पुं० [फा०] मुसलमानों का शीया संप्रदाय जो मुहम्मद साहब के चारों यारों या साथियों का भक्त और समर्थक है।
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चहारशंबा  : पुं० [फा० चहारशंबः] बुधवार।
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चहारुम  : वि० [फा०] चौथाई। पुं० चौथाई अंश या भाग। चतुर्थांश।
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चहियत  : अव्यचाहिए। (व्रज)।
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चही-चहा  : पुं० [हिं० चाहना=देखना] परस्पर देखने की क्रिया या भाव।
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चहुँ  : वि० [हिं० चौचार] चारों। जैसे–चहुँ ओर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चहु-मुखा  : वि०=चौमुखा।
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चहुँक  : स्त्री=चिहुँक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चहुँकना  : अ० चौंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चहुँटना  : अ० चिहुँकना। स० [?] चोट पहुँचाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चहुँटी  : स्त्री० [?] चुटकी।
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चहुरा  : पुं० चौधरा। वि०=चौहरा।
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चहुरी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का छोटा बरतन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चहुवान  : पुं०=चौहान।
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चहूँ  : वि० चहुँ (चारों)।
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चहूँटना  : अ०=चिमटना।
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चहेटना  : स० [?] १. किसी चीज को दबा या निचोड़कर उसका रस या सार निकालना। गारना। २. खदेड़ना। भगाना। ३. दे० ‘चपेटना’।
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चहेता  : वि० [हिं० चाहना+एता (प्रत्य)] [स्त्री० चहेती] जिसे कोई बहुत अधिक चाहता हो। प्रिय। जैसे–चहेता लड़का, चहेती स्त्री।
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चहेल  : स्त्री० [हिं० चहला] १. चहला। कीचड़। २. दलदल।
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चहोड़ना  : स० [?] १. चारों ओर से अच्छी तरह दबाते हुए पीटना या मारना। उदाहरण–हंड ब्रह्मंड चहोडि़या मानू बेस्या अंत।-गोरखनाथ। २. पौधों को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाना। रोपना। ३. देखभाल कर अपने अधिकार में लेना। सँभालना। सहेजना। ४. उपस्थित या वर्तमान करना। ५. कर दिखाना। ६. अच्छी तरह से कोई काम करना।
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चहोड़ा  : पुं० [हिं० चहोड़ना] जड़हन धान, जो चहोड़ या रोपकर तैयार किया जाता है।
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चहोरना  : स० चहोड़ना।
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चहोरा  : पुं० चहोड़ा।
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चा  : विभ० [मरा० चा (विभक्ति)] [स्त्री० ची] का (विभक्ति)। उदाहरण–देस-देस चा देसपति।-प्रिथीराज। स्त्री०=चाप।
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चाइ  : पुं०=चाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चाँइयाँ  : पुं० [हिं० चाँईएक जाति] १. लोगों की चीजें उठा या चुरा ले जानेवाला। उचक्का। २. बहुत बड़ा चालाक या धूर्त।
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चाँई  : पुं० [?] १. नैपाल की एक जंगली जाति, जो किसी समय डाके डाला करती थी। २. दे० ‘चाँइयाँ’। स्त्री० [?] १. एक रोग जिसमें सिर में बहुत सी फुसियाँ निकल आती हैं, जिनसे बाल झड़ जाते हैं। २. उक्त प्रकार की फुसियाँ। वि० जिसके सिर के बाल झड़ गये हों। गंजा।
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चाई  : पुं०=चाईं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाँई-चूँई  : स्त्री० [?] सिर में होनेवाली एक प्रकार की छोटी फुसियाँ जिनसे बाल गिर जाते हैं।
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चाउ  : पुं०=चाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाउर  : पुं०=चावल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाऊ  : पुं० [देश०] ऊँट या बकरे का (के) बाल। (पहाड़ी बोली)
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चाँक  : पुं० [हिं० चौ=चार+अंक=चिन्ह] १. काठ की वह थापी जिस पर कुछ चिन्ह खुदे होते हैं और जिससे खलिहान में अन्न की राशि के चारों ओर निशान लगाये जाते हैं। २. उक्त प्रकार से लगाया हुआ चिन्ह्र या निशान। ३. टोटके के लिए शरीर के किसी पीड़ित स्थान के चारों ओर खींचा जानेवाला घेरा। गोंठ।
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चाक  : पुं० [सं० चक्र, प्रा० चक्क] १. किसी प्रकार का चक्कर या घूमने वाली गोलाकार चीज। २. वह गोल पत्थर जो एक कील पर घूमता है और जिस पर मिट्टी का लोंदा रखकर कुम्हार बरतन बनाते हैं। कुलाल चक्र। ३. गाड़ी, रथ आदि का पहिया। ४. कूएँ से पानी खींचने की गराड़ी। चरखी। ५. मिट्टी का वह गोलाकार छोटा पात्र जिसमें मिसरी के कूजे जमाये जाते हैं। ६. खलिहान में अन्न की राशि पर लगाया जानेवाला चिन्ह्र या छाप। थापा। ७. हथियारों पर सान रखने या उनकी धार तेज करने का चक्कर। ८. मिट्टी का वह थक्का या लोंदा जो कूएँ से पानी निकालते की ढेंकली के दूसरे सिरे पर जमाया रहता है। ९. मिट्टी का वह बरतन जिससे पकाने के लिए ऊख का रस कड़ाहे में डालते हैं। १॰. किसी प्रकार का मंडलाकार चिन्ह्र या रेखा। पुं० [फा०] १. फटी या फाड़ी हुई चीज के बीच में पड़ी हुई दरार या संधि। फटा हुआ अंश या भाग। २. आस्तीन की खुली हुई मोहरी। वि० फटा या फाड़ा हुआ। जैसे–दामन या सीना चाक करना। वि० [तु०] १. हष्ट-पुष्ट। २. दृढ़। पक्का। मजबूत। पद-चाक-चौबंद-(देखे)। स्त्री० [अं० चाँक] खरिया मिट्टी। दुद्धी।
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चाक-चौंबद  : वि० [तु० +फा] १. चारों ओर से ठीक और दुरस्त। २. हर तरह से काम के लायक। ३. चुस्त। फुरतीला।
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चाकचक  : वि० [सं० चाकचक्य] १. चारों ओर से सुरक्षित। २. दृढ़। मजबूत। ३. दे० ‘चाक-चौबंद’।
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चाकचक्य  : स्त्री० [सं० √चक् (तृप्ति)+अच+द्वित्व, चकचक+ष्यञ्] १. चमक-दमक। २. चकाचौंध। ३. सुन्दरता। ४. शोभा।
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चाकचिक्य  : पुं० [सं० चाकचक्य, पृषो० सिद्धि] १. चमक। २. चकाचौंध।
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चाकट  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बुलबुल (पक्षी)।
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चाँकना  : स० [हिं० चाँक] १. खलियान में अनाज की राशि के चारों ओर मिट्टी, राख, ठप्पे आदि से निशान लगाना। चाकना। २. रेखा खींचकर सीमा निर्धारित करना। ३. पहचान के लिए किसी चीज पर निशान लगाना।
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चाकना  : स० [हिं० चाक=चक्र] १. किसी ढेर या वस्तु को घेरने के लिए उसके चारों ओर विशेषतः वृत्ताकार रेखा खींचना। २. उक्त के आधार पर सीमा निर्धारित करने के लिए रेखा खींचना। ३. खलिहान में पड़े अन्न की राशि पर चिन्ह्र या निशान लगाना, जिसमें से यदि कोई कुछ चुरा ले जाय तो पता लग जाय। ४. पहचान के लिए किसी चीज पर निशान लगाना। स० [फा० चाक] चाक करना। फाड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाकर  : पुं० [फा०] [स्त्री० चाकरानी] १. दास। भृत्य। २. नौकर। सेवक। उदाहरण–म्हाँने चाकर राखो जी।-मीराँ।
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चाकरनी  : स्त्री० चाकरानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाकरानी  : स्त्री० [हिं० चाकर का स्त्री०] दासी। नौकरानी।
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चाकरी  : स्त्री० [फा०] १. चाकर का काम, पद या भाव। २. नौकरी। ३. टहल। सेवा। क्रि० प्र०-बजाना।
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चाकल  : वि० =चकला (चौड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाकलेट  : पुं० [अं० चॉकलेट] एक प्रकार की पाश्चात्य मिठाई।
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चाकसू  : पुं० [सं० चक्षुष्या] १. निर्मली या बनकुलथी का पौधा। २. उक्त पौधे के बीज जिनका चूर्ण आँख के कुछ रोगों में उपयोगी होता है।
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चाँका  : पुं० १. दे० चाँक। २. दे० ‘चक्का’।
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चाका  : पुं० १. =चाक। २. =चक्का। (पहिया)।
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चाकी  : स्त्री० [सं० चक्र] बिजली। वज्र। क्रि.प्र०–गिरना।–पड़ना। स्त्री० [हिं० चक्की या फा० चाक ?] पटे या बनेठी का एक प्रकार का आघात या वार जो सिर पर किया जाता है। स्त्री०=चक्की।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाक्र  : पुं० [तु०] तरकारी, फल आदि चीजें काटने, छीलने आदि के काम आनेवाला लोहे का धारदार एक प्रसिद्ध छोटा उपकरण जो लकड़ी आदि के दस्ते में जड़ा होता है। छुरी।
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चाक्रः  : वि० [सं० चक्र+अण्] १. चक्र या पहिये से संबंध रखनेवाला। २. जिसकी आकृति चक्र या पहिये जैसी हो। ३. जो चक्रों या पहियों की सहायता से चलता हो। ४. (युद्ध) जो चक्रों की सहायता से हो।
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चाक्रायण  : पुं० [सं० चक्र+फञ्-आयन] चक्र नामक ऋषि के वंशधर।
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चाक्रिक  : पुं० [सं० चक्र+ठक्–इक] १. दूसरों की स्तुति गानेवाला। चारण। भाट। २. वह जो किसी प्रकार का चक्र चलाकर जीविका निर्वाह करता हो। जैसे–कुम्हार, गाड़ीवान, तेली आदि। ३. सहचर। साथी। वि० १. चक्र के आकार का। गोलाकार। २. चक्र संबंधी। ३. किसी चक्र या मंडली में रहने या होनेवाला।
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चाक्रिका  : स्त्री० [सं० चाक्रिक+टाप्] एक प्रकार का पौधा और उसका फूल।
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चाक्रेय  : वि० [सं० चक्र+ढञ्-एय] चक्र-संबंधी। चक्र का।
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चाक्षुष  : वि० [सं० चक्षुस्+अण्] १. चक्षु संबंधी। २. जो चक्षुओं या नेत्रों से जाना या देखा जाय। जिसका बोध आँखों से होता हो। पुं० १. न्याय में वह प्रत्यक्ष प्रमाण जिसका बोध आँखों से होता या हो सकता हो। २. पुराणानुसार छठे मन्वंतर का नाम। ३. स्वायंभुव मनु के एक पुत्र का नाम।
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चाक्षुष-यज्ञ  : पुं० [सं० कर्म० स०] अच्छी, मनोरंजक और सुंदर चीजों, दृश्य आदि देखकर आँखें तृप्त करने की क्रिया। जैसे–अभिनय, नृत्य आदि देखना।
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चाख  : पुं० [सं० चाष] नीलकंठ (पक्षी)।
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चाखना  : स०=चखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाखुर  : स्त्री० [देश०] खेतों आदि को निराकर निकाली हुई घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० चिकुर] गिलहरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाँगज  : पुं० [देश०] एक प्रकार की तिब्बती बकरा।
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चाँगला  : वि० [मरा० सं० चंग से] [स्त्री० चाँगली] १. अच्छा। बढ़िया। २. स्वस्थ। तंदुरुस्त। ३. हृष्ट-पुष्ट। तगड़ा। ४. चतुर। चालाक। पुं० घोंड़ों का एक प्रकार का रंग।
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चाँगेरी  : स्त्री० [सं०] अमलोनी नाम का साग।
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चाँच  : स्त्री-चोच (राज०) उदाहरण–चाँच कटाऊँ पपइयारे।-मीराँ।
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चाचपुट  : पुं० [सं०] संगीत में, ताल के ६॰ मुख्य भेदों में से एक।
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चांचर  : स्त्री० [सं० चर्चरी] १. वसन्त ऋतु में गाया जानेवाला एक राग। जिसके अन्तर्गत होली, पलग, लेद आदि गाने होते हैं। चर्चरी। २. परती छोड़ी हुई जमीन। ३. एक प्रकार की मटियार जमीन। ४. कच्चे मकानों के दरवाजे पर लगाई जानेवाली टट्टी। पुं० [देश०] सालपान नामक क्षुप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाचर  : पुं० [सं० चर्चघायल करना] युद्ध स्थल रण-भूमि। (राज०) उदाहरण–चोटियाली कूदै चौसठि चाचरि।-प्रिथीराज। स्त्री० चाँचर (होली के गीत)।
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चाँचरि  : स्त्री०=चाँचर।
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चाचरि  : स्त्री० चाँचर।
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चाचरी  : स्त्री० [सं० चर्चरी] योग की एक मुद्रा।
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चाँचल्य  : पुं० [सं० चंचल+ष्यञ्] चंचल होने की अवस्था, गुण या भाव। चंचलता।
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चाचा  : पुं० [सं० तात] [स्त्री० चाची] १. पिता का छोटा भाई। २. प्रौढ़ या वृद्ध आदमी के लिए संबोधन का एक शब्द। जैसे–चाचा नेहरू।
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चाँचिया  : पुं० [?] १. एक छोटी जाति जो चोरी, डाके आदि से् निर्वाह करती है। २. चोर। ३. उचक्का। ४. डाकू। लुटेरा। ५. बहुत बड़ा धूर्त्त व्यक्ति। काँइयाँ। वि० [हिं० चाँई ?] चोरों, डाकुओँ आदि का। जैसे–चाँचिया जहाज।
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चाँचिया-जहाज  : पुं० [हिं० चाँई?] समुद्री डाकुओं का जहाज।
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चाँचियागिरी  : स्त्री० [हिं० चाँचिया+फा० गोरी (प्रत्यय)] चाँचिया लोगों का काम या व्यवसाय। चोरी करने या डाके डालने का धंधा।
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चाँची  : पुं०=चाँचिया।
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चाँचु  : स्त्री०=चोंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाँट  : पुं०[हिं० छींटा] १. हवा में उड़ते हुए जल-कणों का प्रवाह जो तूफान आने पर समुद्र में उठता है। (लश०)। मुहावरा–चाँट मारनाजहाज के बाहरी किनारे के तख्तों पर या पाल पर पानी छिड़कना। (यह पानी इसलिए छिड़का जाता है जिससे तख्ते धूप के प्रभाव से चटक न जाएँ और पाल कुठ भारी हो जाय)।
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चाट  : स्त्री० [हिं० चाटना] १. चाटने की क्रिया या भाव। २. वह चटपटी चीज जो प्रायः चरपरे और तीखे स्वाद के लिए ही चाटी या खाई जाती है। जैसे–कचालू, गोलगप्पा, दही का बड़ा आदि। ३. उक्त प्रकार की चीजें खाने की इच्छा या कामना। ४. उक्त प्रकार की चीजों से मिलने वाले स्वाद के फल-स्वरूप पड़नेवाली आदत या लत जो बार-बार वैसी चीजें खाने या पाने की इच्छा उत्पन्न करती या शौक लगाती है। जैसे–अफीम या मिठाई की चाट। मुहावरा–(किसी को) चाट पर लगाना=किसी को किसी चीज या बात का चस्का या स्वाद लगाकर उसका अभ्यस्त करना। ५. किसी प्रकार की प्रबल इच्छा या गहरी चाह। लोलुपता। जैसे–तुम्हें तो बस रुपये की चाट लगी है। ६. बुरी आदत। लत। क्रि० प्र०–लगना। पुं०[सं०√चट् (भेदन करना)+णिच्+अच्] १. वह जो किसी का विश्वास पात्र बनकर उसका धन हरण करे। ठग। २. उचक्का। उठाईगीर।
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चाटना  : स० [सं० चष्ट, दे० प्रा० चट्ट, प्रा० चट्टई, बँ० चाटा, उ० चाटिबा, पं० चट्टना, सिं० चटणु, गु० चाटणु; ने० चाटनु, मरा० चाटणें] १.खाने की कोई गाढ़ी या लसीली चीज मुँह में ले जाने के लिए जबान से समेट कर उठाना। जैसे–हथेली पर रखा हुआ घी या शहद चाटना। २. उँगली से उक्त प्रकार की कोई चीज उठाकर जीभ पर रखना या लगाना। जैसे–चटनी या दवा चाटना। ३. कोई वस्तु अधिक मात्रा में तथा लोलुपतापूर्वक खाना। जैसे– तुम्हें तो खीर अच्छी नहीं लगी, तुम्हारा भाई तो चाट-चाटकर खा गया है। ४. धन, संपत्ति आदि खा-पकाकर नष्ट करना। जैसे–लाखों रुपये की संपत्ति वह दो वर्षों में चाट गया। ५. पशुओं का प्रेमपूर्वक किसी के शरीर पर बराबर जीभ फेरना। जैसे–कुत्ते का अपने पिल्ले या मालिक का हाथ चाटना। मुहावरा–चूमना चाटना=बार-बार प्रेमपूर्वक चुबंन करना। ६. कीड़ों का किसी वस्तु को खा जाना। जैसे–ऊनी कपड़े कीडे़ चाट गये।
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चाटपुट  : पुं० दे० ‘चाचपुट’।
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चाँटा  : पुं० [हिं० चिमटना] [स्त्री० चाँटी] च्यूँटा। चींटा। पुं० [अनु०] हथेली तथा हाथ की उँगलियों से किसी के गाल पर किया जानेवाला प्रहार। तमाचा। थप्पड़। क्रि० प्र०–जड़ना।–मारना।–लगाना।
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चाटा  : पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा० चाटी] १. वह बरतन जिसमें कोल्हू का पेरा हुआ रस इकट्ठा होता है। नाँद। २. मिट्टी का बड़ा और मोटे दल का मटका। जैसे–अचार या आटे का चाटा (या चाटी।)
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चाँटी  : स्त्री० [हिं० चाँटा०] १. च्यूँटी। चींटी। २. मध्य युग में कारीगरों पर लगनेवाला एक प्रकार का कर। ३. तबले की संजाफदार मगजी जिस पर तबला बजाते समय तर्जनी उंगली से आघात किया जाता है। ४. तबले के उक्त अंश पर तर्जनी उँगली से किया जानेवाला आघात। ५. उक्त आघात के कारण होनेवाली मधुर ध्वनि या शब्द।
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चाटी  : पुं० [हिं० चटशाला में का चट] चेला। शिष्य। जैसे–चेले-चाटी। स्त्री० [हिं० चाटा] मिट्टी का एक प्रकार का मटका। छोटा चाटा।
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चाटु  : पुं० [सं० चट् (भेदन करना)+ञण्] १. बहुत ही प्रिय और मीठी बात। मधुर वचन। २. किसी बड़े को केवल प्रसन्न करने के लिए कही जाने वाली ऐसी बात जिसमें उसकी कुछ प्रशंसा या बड़ाई हो। खुशामद। चापलूसी।
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चाटु-पटु  : वि० [स० त०] १. चाटुकार। खुशामदी। २. भंड। भाँड़।
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चाटु-लोल  : वि० [स० त०] चाटुकार।
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चाटुक  : पुं० [सं० चाटु+कन्] मीठी बात।
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चाटुकार  : पुं० [सं० चाटुकृ (करना)+अण्, उप० स०] १. खुशामद करनेवाला व्यक्ति। चापलूस। २. सोने के तार में पिरोई हुई मोतियों की माला।
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चाटुकारी  : स्त्री० [सं० चाटुकार+हिं० (प्रत्य)] झूठी प्रशंसा या खुशामद करने का काम। चापलूसी। चाटु।
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चाटुता  : स्त्री० [सं० चाटु] खुशामद। चापलूसी।
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चाटूक्ति  : स्त्री० [चाटु-उक्ति, कर्म० स०] चाटुता से भरी हुई बात। खुशामद या चापलूसी की बात।
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चाँड़  : वि० [सं० चंड] १. उग्र। तीव्र। प्रबल। २. बलवान्। शक्तिशाली। ३. उद्दंड। ४. किसी की तुलना में बढ़कर। श्रेष्ठ। ५. अघाया हुआ। तृप्त। संतुष्ट। ६. चतुर। चालाक। स्त्री० [सं० चंडप्रबल] १. वह वस्तु या रचना जो किसी दूसरी वस्तु विशेषतः छत या दीवार को गिरने या ढहने से रोकने के लिए लगाई या बनायी जाती है। टेक। थूनी। क्रि० प्र०-देना।-लगाना। २. ऐसी प्रबल आवश्यकता या कामना जिसकी पूर्ति तत्काल होने की अभिलाषा हो। ३. उक्त प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति के लिए मन में होनेवाली आकुलता या बेचैनी। मुहावरा–चाँड़ सरना=उक्त प्रकार की आवश्यकता पूरी हो जाना अथवा उस आवश्यकता की पूर्ति होने पर मन की आकुलता या बेचैनी दूर होना। ४. तीव्रता। प्रबलता। ५. किसी ओर से पड़नेवाला ऐसा दबाव जिसके फलस्वरूप किसी को विवश होकर कोई उद्दिष्ट कार्य करना पड़े। जैसे–जब तक चाँड़ नहीं लगाओगे, तब तक वह तुम्हारा काम नहीं करेगा।
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चाड़  : स्त्री० =चाँड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =चढ़ाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाँड़ना  : स० [हिं० चाँड़] १. चाँड़ या टेक लगाना। २. खोदकर उखाड़ना या गिराना। ३. खोदकर गहरा करना। ४. नष्ट-भ्रष्ट करना। उजाड़ना। ५. कसना या दबाना। उदाहरण–माया लोभ मोह है चाँड़े काल नदी की धार।–
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चाड़ना  : स० चाँड़ना। उदाहरण–कुचगिरि चढ़ि अति थकित ह्रै चली डीठि मुख-चाड़।-बिहारी।
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चांडाल  : पुं० [सं० चण्डाल+अण्] [स्त्री० चांडाली, चांडालिनी] १. एक प्राचीन अन्त्यज, नीच और बर्बर जाति। पुक्कस। मातंग। श्वपच। २. बहुत ही दुष्ट, नीच और पतित व्यक्ति। (गाली)।
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चांडालिका  : स्त्री० [सं० चण्डाल+वुञ्-अक, चांडालक+टाप्, इत्व] १. चंडालवीणा। २. दुर्गा। ३. एक प्रकार का पौधा।
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चांडालिनी  : स्त्री० [सं० चांडाल+इनि-ङीष्] एक देवी।
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चांडाली  : स्त्री० [सं० चांडाल+ङीष्] १. चांडाल जाति की स्त्री। २. [हिं०] चांडाल होने की अवस्था, गुण या भाव। ३. चांडाल का कार्य।
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चाँड़िला  : वि० [सं० चंड] [स्त्री० चाँड़िली] १. उग्र। प्रचंड। २. उद्धत। नटखट। शोख। ३. बहुत अधिक।
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चाड़िला  : वि०=चाँड़िला (चाँड़)।
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चाँड़ी  : स्त्री०=चोंगी या कीप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाड़ी  : स्त्री० [सं० चाटु] किसी की अनुपस्थिति में पीठ पीछे की जानेवनाली निंदा। चुगली। क्रि० प्र०–खाना।
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चांडू  : पुं=चंडू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाड़ू  : पुं० चाटुकार। उदाहरण–मान करत रिस माने चाड़ू।–जायसी।
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चाढ़  : स्त्री०[हिं०चाह से] इच्छा। चाह। २. अनुराग। प्रेम। स्त्री०[हिं०चढ़ना] चढ़ाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाढ़ना  : स० १. =चढ़ना। २. =चढ़ाना।
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चाँढ़ा  : पुं० [हिं० चाँड़] जहाज के दो तख्तों के बीच का जोड़। (लश०)।
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चाढ़ा  : वि० [हिं० चढ़ना या चढ़ाना] १. ऊपर चढ़ा या चढा़या हुआ। २. जिसकी प्रतिष्ठा या मर्यादा बहुत बढ़ाई गई हो। वि० [हिं० चाँड़] १. प्रिय। प्यारा। २. प्रेमी। पुं० दे० ‘चाढ़ी’।
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चाढ़ी  : पुं० [हिं० चाढ़] १. चाहनेवाला। इच्छुक। २. किसी पर आसक्त होने या प्रेम करनेवाला। अनुरक्त। प्रेमी। उदाहरण–देखत ही जुस्याम भए चाढ़ी।–सूर।
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चाणक  : पुं० [सं० चाणक्य] १. चालाकी। होशियारी। २. धूर्त्तता। चालबाजी। उदाहरण–साच का सबद सोना की रेख निगुरां कौं चाणक सगुरां कौं उपदेश।–गोरखनाथ।
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चाणक्य  : पुं० [सं० चणक+ष्यञ्] १. वह जो चणक ऋषि के वंश या गोत्र का हो। २. अर्थशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य और चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधान मंत्री विष्णुगुप्त (कौटिल्य) का एक नाम।
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चाणूर  : पुं० [सं०√चण (शब्द करना)+ऊरण] कंस का एक मल्ल जो कृष्ण के हाथों मारा गया था।
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चातक  : पुं० [सं०√चत् (माँगना)+ण्वुल्-अक] [स्त्री० चातकी] १. पपीहा पक्षी जो वर्षाकाल में बहुत बोलता है। विशेष दे० पपीहा। २. रहस्य संप्रदाय में, मन। वि० याचक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चातकनी  : स्त्री०=चातकी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चातकानन्दन  : पुं० [सं० चातक-आ√नन्द (हर्षित करना)+ल्यु-अन] १. वर्षा काल। २. बादल। मेघ।
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चातर  : पुं० [हिं० चादर] मछली पकड़ने का बड़ा जाल। २. षड्यंत्र।। वि०=चातुर। (चतुर)।
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चातुर  : वि० [सं० चतुर+अण्] जो आँखों से दिखाई दे। नेत्र-गोचर। पुं० [चतुर+अण्] १. चार पहियों की गाड़ी। २. मसनद। वि० [सं० चतुर] १. चतुर। होशियार। २. चालाक। धूर्त्त। ३. खुशामदी। चापलूस। (क्व०)।
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चातुरई  : स्त्री०=चतुराई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चातुरक  : वि० पुं० [सं० चातुर+कन्]=चातुर।
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चातुरक्ष  : पुं० [सं० चतुरक्ष+अण्] १. चार पासों का खेल। २. छोटा गोल तकिया।
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चातुरता  : स्त्री०=चतुरता।
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चातुरिक  : पुं० [सं० चातुरी+ठक्-इक] सारथी। रथवान।
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चातुरी  : स्त्री० [सं० चतुर+ष्यञ्-ङीष्,यलोप] १.चतुरता। व्यवहारदक्षता। होशियारी। २. चालाकी। धूर्त्तता। ३. निपुणता।
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चातुर्थक  : वि० [सं० चतुर्थ+ठक्–क] हर चौथे दिन आने, घटने या होनेवाला। चौथिया। पुं० चौथिया ज्वर।
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चातुर्थिक  : वि० [सं० चतुर्थ+ठक्-इक] =चातुर्थक।
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चातुर्दश  : पुं० [सं० चतुर्दशी+अण्] राक्षस। वि० १. चतुर्दशी संबंधी। २. जो चतुर्दशी को उत्पन्न हुआ हो।
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चातुर्भद्र(क)  : पुं० [सं० चतुर्भद्र+अण्] १. चारों पदार्थ, यथा-अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। २. वैद्यक में ये चार ओषधियाँ-नागर मोथा, पीपल (पिप्पली) अतीस और काकड़ासिंगी। कोई-कोई चक्रदत्त के अनुसार इन चार जीवों को भी चातुर्भद्र कहते हैं–जायफल, पुष्कर, मूल, काकड़ा सिंगी और पीपल।
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चातुर्महाराजिक  : पुं० [सं० चतुर्महराजिक+अण्] १. विष्णु। २. गौतम। बुद्ध का एक नाम।
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चातुर्मास  : वि० [सं० चतुर्मास+अण्] १. चार महीनों में संपन्न होनेवाला। २. चार महीनों का।
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चातुर्मासिक  : वि० [सं० चतुर्मास+ठक्-इक] चार महीनों में होनेवाला (यज्ञ, कर्म आदि)।
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चातुर्मासी  : स्त्री० [सं० चतुर्मास+अण्-ङीष्] पूर्णमासी। वि० [हिं०] चौमासे का।
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चातुर्मास्य  : पुं० [सं० चतुर्मास+ण्य] १. चार महीनों में होनेवाला एक वैदिक यज्ञ। २. वर्षा ऋतु के चार महीनों में होनेवाला एक प्रकार का पौराणिक व्रत। चौमासा।
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चातुर्य्य  : पुं० [सं० चतुर+ष्यञ्] =चतुरता।
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चातुर्वर्ण्य  : पुं० [सं० चतुर्वर्ण+ष्यञ्] १. हिदुओं के ये चारों वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। २. चारों वर्णों के पालन के लिए विहित धर्म। जैसे–ब्राह्मण का धर्म यजन, याजन, दान अध्यापन, अध्ययन और प्रतिग्रह, क्षत्रिय का धर्म बाहुबल से प्रजा-पालन आदि। वि० चारों वर्णों में होनेवाले अथवा उनसे संबंध रखनेवाला।
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चातुर्विद्य  : वि० [सं० चतुर्विद्या+ष्यञ्] चारों वेदों का ज्ञाता। पुं० चारों वेद।
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चातुर्होत्र  : पुं० [सं० चतुर्होतृ+अण्] [वि० चातुर्होत्रिय] चार होताओं द्वारा संपन्न होनेवाला यज्ञ।
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चात्र  : पुं० [सं०√चाय् (देखना) ष्ट्रन] अग्नि-मंथन यंत्र का एक अवयव जो बारह अंगुल लंबा और खैर की लकड़ी का होता था।
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चात्रण  : पुं०=चात्र।
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चात्रिक  : पुं० चातक। उदाहरण–चात्रिक भइउ कहत पिउ पिऊ।–
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चात्वाल  : पुं० [सं०√चत् (याचना)+वाल्ञ्] १. बवन कुंड। २. वेदी। ३. कुभ । दर्भ। ४. गड्ढा।
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चाँद  : पुं० [सं० चंद्र; पा० पं० चंद; उ० बं० गु० ने० चाँद, सि० चंडु, चंद्रु, मरा० चाँद, चाँदोबा] १. चंद्रमा। मुहावरा–चाँद का खेत करना=चंद्रमा के निकलने के समय उसकी आभा का चारों ओर फैलना। चाँद चढ़ना=चंद्रमा का ऊपर आना या उदय होना। चाँद पर थूकना=ऐसा अनुचित और निंदनीय काम करना जिसका परिणाम उलटा कर्त्ता पर पड़े। जैसे–किसी ऐसे महात्मा पर कलंक लगाना जिसके फलस्वरूप स्वयं अपमानित होना पड़े। (ऊपर की ओर थूकने से अपने ही मुँह पर थूक पड़ती है। इसी से यह मुहावरा बना है) चाँद पर धूल डालना=किसी निर्दोष अथवा परम पवित्र पर कलंक लगाना। पद–चाँद का कुंडल या मंडलबहुत हलकी बदली पर प्रकाश पड़ने के कारण चंद्रमा के चारों ओर दिखायी देनेवाला वृत्त या घेरा। चाँद का टुकड़ापरम सुन्दर या व्यक्ति। चाँद दीखे-शुक्ल पक्ष की द्वितीया के बाद। जैसे–चाँद दिखे आना तुम्हें काम दे दिया जायगा। चाँद-सा मुखड़ा=अत्यन्त सुन्दर मुख। आज किधर चाँद निकला?=(क) आज कैसे दिखाई पड़े। (ख) यह नई बात कैसे हुई। (जब कोई मनुष्य बहुत दिनों पर दिखाई पड़ता है तब उससे कहा जाता है)। २. चांद्रमास। महीना। जैसे–आज एक चाँद बाद आप दिखाई पड़े हैं। ३. मुसलमानी मास की गणना के अनुसार महीने का पहला दिन जो उनके हिसाब से शुक्ल पक्ष की तृतीया को आरंभ होता है। जैसे–चाँद के चाँद तनख्वाह मिलना। ४. द्वितीया के चंद्रमा के आकार का एक गहना। ५. चंद्रमा के आकार-प्रकार का कोई अर्द्ध-गोलाकार अथवा मंडलाकार धातु-खंड या रचना। जैसे–ढाल पर चाँद, चांदमारी में निशाना साधने का चांद, लंप की चिमनी के पीछे उसका प्रकाश प्रत्यावर्तित करने के लिए लगाया जानेवाला चाँद। ६. घोड़े के माथे पर की एक भौंरी। ७. भालू की गरदन के नीचे का सफेद बालोंवाला घेरा। (कलंदर)। ८. सिर पर पहना जानेवाला चंद्रमा के आकार का मंडलाकार ताज। ९. पशुओं के मस्तक पर का गोलाकार सफेद या किसी भिन्न रंग का दाग या फूल। १॰. कलाई पर गोदा जानेवाला मंडलाकार गोदना। स्त्री० १. खोपड़ी का सबसे ऊँचा और मध्य भाग। २. खोपड़ी। मुहावरा–चाँद पर बाल न छोड़ना (क) सिर पर इतना मारना कि बाल झड़ जाएँ। (ख) सब कुछ ले लेना, कुछ बाकी न छोड़ना।
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चाँद-तारा  : स्त्री० [हिं० चाँद+तारा] १. एक प्रकार की बढिया मलमल जिस पर चांद और तारों के आकार की बूटियाँ बनी होती थी। २. एक प्रकार का कनकौआ या पतंग जिस पर उक्त प्रकार की आकृतियाँ बनी होती हैं।
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चाँद-बाला  : पुं० [हिं० चाँद+बाला (कान में पहनने की बड़ी बाली)] कान में पहनने का एक प्रकार का बाला जिसके नीचे का भाग अर्द्धचन्द्राकार होता है।
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चाँद-सूरज  : पुं० [हिं० चाँद+सूरज] एक प्रकार का गहना जिसे स्त्रियाँ चोटी में गूँथकर पहनती हैं।
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चाँदना  : पुं० [हिं० चाँद+ना (प्रत्यय)] १. उजाला। प्रकाश। २. चाँदनी। ज्योत्स्ना। मुहावरा–(किसी जगह) चाँदना कर देना=सब कुछ उड़ा ले जाना। कुछ भी बाकी न छोड़ना। जैसे–चोरों ने घर पर चांदना कर दिया।
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चांदनिक  : वि० [सं० चन्दन+ठक्-इक] १. चंदन का। चंदन-संबंधी। २. चंदन में होने, रहने अथवा उससे बननेवाला। ३. जिसमें चंदन की महक हो। चंदन से सुवासित।
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चाँदनी  : स्त्री० [सं० चंद्र>>चंद्रण, दे० प्रा० चंदिण, प्रा० चंद्दण; बँ० उ० चांदनी, गु० चांदरणु, मरा० चंदर्णें] १. चाँद का प्रकाश। रात के समय होनेवाला चंद्रमा का उजाला या प्रकाश। कौमुदी। चंद्रिका। ज्योत्स्ना। क्रि० प्र०–खिलना।–छिटकना।–फैलना।–बिछना। मुहावरा–चाँदनी मारना=(क) लोक प्रवाद के अनुसार चाँदनी का बुरा प्रभाव पड़ने के कारण घाव या जख्म का अच्छा न होना। (ख) चाँदनी पड़ने या लगने के कारण घोड़ो को एक प्रकार का आकस्मिक रोग होना। पद–चाँदनी रात=वह रात जिसमें चंद्रमा का प्रकाश चारों ओर फैला हो। शुक्ल पक्ष की रात्रि। चार दिन की चाँदनी अस्थायी या क्षणिक वैभव या सुख। स्त्री० [हिं० चंदनी] १. बिछाने की बड़ी सफेद चादर। सफेद फर्श। विशेष–कहते है कि पहले नूरजहाँ ने अपने महल में चंदन के रंग का एक फर्श बनवाया था, उसी से यह शब्द बिछाने की चादर के अर्थ में चल पड़ा। २. छत पर या ऊपर की ओर तानने का कपड़ा। छतगीर। ३. गुलचाँदनी नाम का पौधा और उसका फूल।
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चाँदमारी  : स्त्री० [हिं० चाँद+मारना] १. कपड़े तख्ते दीवार आदि पर बने हुए चंद्र-चिन्ह्रों पर तीर, बन्दूक आदि से निशाने लगाने की अभ्यासात्मक क्रिया। २. वह मैदान जहाँ उक्त प्रकार की क्रिया होती है।
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चादर  : स्त्री० [फा०] १. कपड़े का वह आयताकार टुकड़ा जिसे सोते समय लोग नीचे बिछाते अथवा ऊपर ओढ़ते हैं। २. उक्त आकार-प्रकार का वह टुकड़ा जिसे स्त्रियाँ धड़ पर लपेटती तथा उसके कुछ अंश से सिर ढकती हैं और जो प्रतिष्ठा मर्यादा आदि का सूचक होता है। मुहावरा–(किसीका) चादर उतारना=अपमानित या अप्रतिष्ठित करना। नष्ट करना। चादर रहनाकुल या परिवार की मर्यादा रक्षित रहना। प्रतिष्ठा का बना रहना। चादर से बाहर पर फैलाना=अपनी बिसात, योग्यता या शक्ति से अधिक काम या व्यय करना। चादर हिलाना=युद्ध में शत्रुओं से घिरे हुए सैनिकों का आत्म-समर्पण का संकेत करने के लिए कपड़ा हिलाना। युद्ध रोकने का झंडा दिखाना। ३. स्त्रियों के ओढ़ने का उक्त प्रकार का कपड़ा जो उनके सधवा या सौभाग्यवती होने का सूचक होता है। मुहावरा–(किसी स्त्री को) चादर ओढ़ाना=किसी विधवा को पत्नी बनाकर अपने घर में रखना। ४. किसी धातु का बहुत बड़ा आयताकार और पतला पत्तर। जैसे–टीन, पीतल या शीशे की चादर। ५. ऊपर से गिरते या बहते हुए पानी की वह धारा जिसकी चौंड़ाई अधिक और मोटाई कम हो। ६. बढ़ी हुई नदी के वेगपूर्ण प्रवाह में स्थान-स्थान पर पानी का वह फैलाव जो बिलकुल समतल होता है और जिसमें भँवर या हिलोरा नहीं होता। ७. फूलों आदि की बनी हुई वह लंबी-चौड़ी और चौकोर रचना जो चँदोए, चादर आदि के रूप में किसी धार्मिक या पूज्य स्थान पर चढ़ाई जाती है। (मुसलमान) जैसे–किसी मजार पर चादर चढ़ाना। ८. एक प्रकार की आतिशबाजी जिसमें यथेष्ट लंबाई और चौड़ाई में फुलझड़ियाँ झड़ती हैं। झरना।
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चादर छिपौवल  : स्त्री० [हिं०] लड़कों का एक खेल जिसमें वे किसी लड़के के ऊपर चादर डालकर लडकों से उसका नाम पूछते हैं। जो लड़का ठीक नाम बता देता है वह चादर से ढके हुए लड़के को स्त्री बनाकर ले जाता है।
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चादरा  : पुं० [हिं० चादर] पुरुषों के ओढ़ने-बिछाने की बड़ी चादर।
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चाँदला  : वि० [हिं० चाँद] १. (दूज के चंद्रमा के समान) टेढ़ा। वक्र। २. जिसके सिर के बाल झड़ गये हों। चँदला। गंजा।
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चांदा  : पुं० [हिं० चाँद] १. चाँदमारी के मैदान में वह स्थान जहाँ से दूरबीन लगाई जाती है। २. वह पटरा जिस पर निशाना लगाने या अभ्यास करने के लिए छोटे-छोटे चिन्ह्र बने रहते हैं। ३. खेत, भूमि आदि की नाप में वह केन्द्र स्थल जहाँ से दूरी की नाप लेकर हद बाँधी जाती है। ४. छप्पर का पाखा जो प्रायः चन्द्राकार होता है। ५. ज्यामिति में, धातु, प्लास्टिक, सींग आदि का अर्द्ध-वृत्ताकार एक प्रसिद्ध उपकरण जिससे कोण आदि नापे जाते हैं। (प्रोट्रेक्टर)।
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चाँदी  : स्त्री० [हिं० चाँदनी] १. एक प्रसिद्ध सफेद चमकीली कीमती धातु जो अपेक्षया नरम होती है और जिसके गहने, बरतन, सिक्के आदि बनते हैं। इसका गुरुत्व सोने के गुरुत्व का आधा होता है। इससे कई एक ऐसे क्षार बनाये जाते हैं जिन पर प्रकाश का प्रभाव बहुत विलक्षण पड़ता है। रजत। रौप्य। मुहावरा–चाँदी कर डालना या कर देना=जलाकर राख कर डालना। (गाँजे, तमाकू आदि की भरी हुई चिलम के संबंध में प्रयुक्त) २.चाँदी के सिक्को के आधार पर धन-संपत्ति। दौलत। मुहावरा–चाँदी बरसना=खूब आमदनी होना। चाँदी काटना=प्रायः अनुचित रूप से खूब रूपया पैदा करना। खूब धन कमाना। चाँदी की ऐनक लगाना=घूस या रिश्वत लेकर ही किसी का काम करना। जैसे–हमारे तहसीलदार साहब चाँदी की ऐनक लगाते हैं। (किसी की) चाँदी होना=बहुत अधिक आय या आर्थिक लाभ होना। पद-चाँदी का जूता=वह धन जो किसी को अपने अनुकूल या वश में करने को दिया जाता है। घूस या रिश्वत के रूप में दिया जानेवाला धन। चांदी का पहरा=आर्थिक दृष्टि से पूर्णता, सुख-समृद्धि के दिन। ३. खोपड़ी का मध्य भाग। चांद। चँदिया। मुहावरा–चाँदी खुलवानाचाँद के ऊपर के बाल मुड़ाना। ४. एक प्रकार की छोटी मछली। ५. चूने की सफेदी। (क्व०) ६. सफेद रंग अथवा सफेद रंग की कोई वस्तु। ७. जल जाने पर किसी चीज की होनेवाली सफेद राख। जैसे–तमाकू जलकर चांदी हो गया।
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चांद्र  : वि० [सं० चन्द्र+अण्] चंद्रमा संबंधी। चंद्रमा का। जैसे–चांद्र मास, चांद्रवत्सर। पुं० १. चांद्रायण व्रत। २. चंद्रकांत मणि। ३. मृगशिरा नक्षत्र। ४. पुराणानुसार प्लक्ष द्वीप का एक पर्वत। ५. अदरक। आदी।
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चांद्र-पुर  : पुं० [कर्म० स०] बृहत्संहिता के अनुसार एक नगर जिसमें एक प्रसिद्ध शिवमूर्ति होने का उल्लेख है।
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चांद्र-मास  : पुं० [कर्म० स०] वह मास जो चंद्रमा की गति के अनुसार निश्चित होता है। उतना काल जितना चंद्रमा को पृथ्वी की एक परिक्रमा करने में लगता है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तक का समय।
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चांद्र-वत्सर  : पुं० [कर्म० स०]=चांद्रवर्ष।
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चांद्र-वर्ष  : पुं० [कर्म० स०] बारह चांद्र मासों का समय। यह सौर वर्ष से लगभग १॰ दिन छोटा है)।
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चांद्रक  : पुं० [सं० चान्द्र√कै(प्रतीत होना)+क]सोंठ।
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चांद्रमस  : वि० [सं० चन्द्रमस्+अण्] चंद्रमा संबंधी। पुं० मृगशिरा नक्षत्र।
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चांद्रमसायन  : पुं० [सं० चांद्रमसायनि, पृषो० सिद्धि] बुध ग्रह।
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चांद्रमसायनि  : पुं० [सं० चंद्रमस्+फिञ्-आयन] बुध ग्रह।
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चांद्रमसी  : स्त्री० [सं० चान्द्रमस+ङीप्] बृहस्पति की पत्नी का नाम।
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चांद्रव्रतिक  : वि० [सं० चान्द्रव्रत+ठन्-इक] चांद्रायण व्रत करनेवाला। पुं० राजा।
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चांद्रायण  : पुं० [चंद्र-अयन, ब० स० णत्व, दीर्घ] [वि० चांद्रायणिक] १. महीने भर का एक व्रत जिसमें चंद्रमा के घटने-बढ़ने के अनुसार आहार के कौर या ग्रास घटाने-बढ़ाने पड़ते हैं। २. २१ मात्राओं का एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ११ और १॰ पर यति होती है। पहले विराम पर जगण और दूसरे पर रगण होना आवश्यक होता है।
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चांद्रायणिक  : वि० सं० चान्द्रायण+ठञ्-इक] चांद्रायण व्रत करने वाला।
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चांद्रि  : पुं० [सं० चंद्र+इञ्] बुध ग्रह।
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चांद्री  : स्त्री० [सं० चान्द्र+ङीष्] १. चंद्रमा की स्त्री। २. चाँदनी। ज्योत्स्ना। ३. सफेद भटकटैया। वि०=चांद्र।
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चानक  : क्रि० वि०=अचानक। पुं० =चाणक्य।
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चानणा  : पुं० =चाँदना (प्रकाश)।
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चानन  : पुं० १. चाँदना। २.=चंदन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चानस  : पुं० [अं० चांस] ताश का एक प्रकार का खेल।
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चाँप  : पुं० स्त्री० चाप (दे)। पुं० [हिं० चंपा] चंपा का फूल।
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चाप  : पुं० [सं० चप+अण्] १. धनुष। २. ज्यामिति में वृत्त की परिधि का कोई भाग। (आर्क) ३. मेहराब। स्त्री० [हिं० चापना=दबाना] १. चापने की क्रिया या भाव। दाब। २. पैरों की आहट। पुं० [अं० चाँप] आलू, बेसन आदि की बनी हुई तथा घी आदि में तली हुई नमकीन टिकिया।
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चाप-कर्ण  : पुं० [ष० त०] ज्यामति में वह सरल रेखा जो किसी चाप के एक सिरे से दूसरे सिरे तक गई हो। जीवा। (कार्ड)।
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चाप-जरीब  : पुं० [हिं० चाप+अ० जरीब] जमीन की लंबाई की एक नाप या मान।
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चाप-दंड  : पुं० [उपमि० स०] वह डंडा जिससे कोई वस्तु आगे की ओर ढकेली जाय।
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चापक  : पुं० [सं० चाप से] धनुष की डोरी। उदाहरण–क्रीड़त गिलोल जब लालकर मार जानि चापक सुमन।–चन्दवरदाई।
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चापट  : स्त्री० [हिं० चिपटना] १. चोकर। २. भूसी। वि० =चौपट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चापड़  : वि० [सं० चिपिट, हिं० चिपटा, चपटा] १. जो दबकर चिपटा हो गया हो। २. जो कुचले जाने के कारण जमीन के बराबर हो गया हो। ३. सब प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट। चौपट। पुं० वह कड़ी जमीन जो अच्छी तरह जोती न गई हो। जैसे–मत बो चापड़, उजड़ेगा टापर।-खेतिहरों की कहावत।
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चाँपना  : स०=चापना।
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चापना  : स० [सं० चप, प्रा० चप्पइ, बँ० चांपा, उ० चापुआ, गु० चापवूँ, मरा० चाँपणे] ऊपर से जोर लगाकर भार या रखकर दबाना। चाँपना। २. छाती से लगाकर दबाना, आलिंगन करते समय किसी को दबाना।
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चापर  : वि०=चापड़।
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चापल  : पुं० [सं० चपल+अण्] चंचलता। चपलता। वि० चंचल। चपल।
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चापलता  : स्त्री० =चपलता।
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चापलूस  : वि० [फा०] [भाव० चापलूसी] जो किसी के सामने उसकी आवश्यकता से अधिक या झूठी प्रशंसा करे। खुशामदी। चाटुकार।
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चापलूसी  : स्त्री० [फा०] वह झूठी प्रशंसा जो केवल दूसरों को प्रसन्न और अनुकूल करने के लिए की जाय। झूठी बड़ाई या प्रशंसा से भरी बात। खुशामद। चाटुता।
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चांपिला  : स्त्री० [सं०√चम्प्+अङ्+इलच्-टाप्] एक प्राचीन नदी। (कदाचित् आधुनिक चंबल)।
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चापी(पिन्)  : पुं० [सं० चाप+इनि] १. वह जो हाथ में चाप अर्थात् धनुष रखता हो। धनुर्धर। २. शिव। ३. धनु राशि।
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चापू  : पुं० [देश०] हिमालय के आस-पास के प्रदेशों में होनेवाली एक प्रकार की छोटी बकरी जिसके बाल बहुत लंबे और मुलायम होते और कंबल आदि बनाने के काम आते हैं।
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चांपेय  : पुं० [सं० चम्पा+ढक्-एय] १. चंपक। २. नागकेसर। ३. किंजल्क। ४. सुवर्ण। ५. धतूरा।
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चांपेयक  : पुं० [सं० चाम्पेय+कन्] किंजल्क। केसर।
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चांफद  : पुं० [हिं० चौ=चार+फंदा] मछलियाँ फँसाने का एक प्रकार का जाल।
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चाब  : स्त्री० [सं० चव्य] १. गजपिप्पली की जाति का एक पौधा जिसकी लकड़ी और जड़ औषध के काम में आती है। इसकी लकड़ी और जड़ से कपड़े आदि रँगने के लिए एक प्रकार का पीला रंग निकाला जाता है। २. उक्त पौधे के छोटे गोल फल जो ओषध के रूप में काम आते हैं। स्त्री० [हिं० चाबना] १. चबाने की क्रिया या भाव। २. डाढ़। चौभड़। ३. कुछ स्थानों में घर में बच्चा होने के समय का एक उत्सव या रीति। स्त्री० [सं० चतुः] १. चार की संख्या। (डिं०) २. कपड़ा। वस्त्र। (डिं०) पुं० [सं० चप] एक प्रकार का बाँस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाबन  : पुं०=चबेना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाबना  : स० [सं० चर्वण, प्रा० चब्बण] १. दाँतों से कोई कड़ी चीज खाते समय दबाना। चबाना। जैसे–कुत्ते का हड्डी चाबना। २. खूब पेट भरकर भोजन करना। ३. अनुचित रूप से किसी का धन खाते चलना।
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चाबस  : अव्य० दे० ‘शाबाश’।
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चाबी  : स्त्री० [हिं० चापदबाव, पुर्त्त, चेव] १. धातु आदि का वह उपकरण जिससे ताला खोला या बंद किया जाता है। कुंजी। ताली। २. किसी यंत्र में लगा हुआ वह अंग जिसे घुमाकर उसकी कमानी इसलिए कसी जाती है कि वह यंत्र चलता रहे या चलने लगे। जैसे–घड़ी या बाजे की चाबी। क्रि० प्र०–देना।–भरना। ३. कोई ऐसा पच्चड़ जिसे दो जुड़ी वस्तुओं की संधि में ठोंक देने से जोड़ दृढ़ होता हो। क्रि० प्र–भरना। ४. कोई ऐसी युक्ति या साधन जिसके प्रयोग से किसी को कुछ करने में प्रवृत्त किया जा सके। जैसे–उनकी चाबी तो हमारे हाथ में है।
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चाबुक  : पुं० [फा०] १. चमडे़, रस्सी, आदि को बाटकर बनाया हुआ कोड़ा जिसका प्रयोग किसी को मारने के लिए होता है। छोटा, पतला कोड़ा। जैसे–भले घोड़े को एक चाबुक बहुत है। पद–चाबुक सवार। (देखें) २. लाक्षणिक रूप में कोई ऐसी बात जिससे कोई कार्य करने की उत्तेजना उत्पन्न हो।
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चाबुक सवार  : पुं० [फा०] [भाव० चाबुक-सवारी] घोड़े पर सवार होकर उसे विविध प्रकार की चाले सिखाने अथवा उसकी चाल दुरुस्त करने वाला व्यक्ति।
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चाबुक सवारी  : स्त्री० [फा०] चाबुक सवार का काम, पद या पेशा।
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चाभ  : स्त्री० दे० ‘चाब’।
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चाभना  : स०= चाबना।
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चाभा  : पुं० [हि० चाबना] बैलो का एक रोग जिसमें उनकी जीभ पर काँटे उभड़ आते हैं और कुछ खाया या चबाया नही जाता हैं।
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चाभी  : स्त्री०=चाबी।
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चाम  : पुं० [सं० चर्म] चमडा। खाल। उदा०–मानवता की मूर्ति गढोगे तुम सँवार कर चाम।-पंत। मुहा०–चाम के दाम चलाना=(क) चमड़े के सिक्के चलाना। (ख) अपने प्रताप, बल, वैभव, आदि से उसी प्रकार जबरदस्ती अनोखे और असाधारण कार्य करना, जिस प्रकार निजाम नामक भिश्ती ने हुमायुँ को डूबने से बचाकर फल स्वरूप थोड़े समय के लिए राज्याधिकार प्राप्त करके चमड़े के सिक्के चलाये। (ग) व्यभिचार से धन कमाना। (बाजारू)
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चाम-चोरी  : स्त्री० [हिं० चाम+चोरी] गुप्त रूप से किया जानेवाला परस्त्री-गमन।
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चामड़ी  : स्त्री०=चमड़ी।
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चामर  : पुं० [सं० चमरी+अण्] १. चँवर। मोरछल। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगण, जगण, रगण, जगण और रगण होते हैं।
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चामर पुष्प  : [ब० स०] १. सुपारी का पेड़। २. आम का पेड़। ३. केतकी। ४. काँस।
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चामर व्यजन  : पुं० [ष० त०] चँवर। मोरछल।
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चामर-ग्राह  : पुं० [सं० चामर√ग्रह (ग्रहण करन)+अण्, उप० स०] चँवर डुलानेवाला सेवक।
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चामर-ग्राहिक  : पुं० [सं० चामरग्रहिन+कन्]=चामर-ग्राह।
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चामर-ग्राही (हिन्)  : पुं० [सं० चामर√ग्रह्+णिनि, उप० स०]= चामर-ग्राह।
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चामरिक  : पुं० [सं० चामर+ठन्-इक] चँवर डुलानेवाला सेवक।
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चामरी  : स्त्री० [सं० चामर+अच्+ङीप्] सुरागाय।
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चामिल  : स्त्री० दे० ‘चंबल’।
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चामीकर  : पुं० [सं० चमीकर+अण्] १. सोना। २. स्वर्ण। २. कनक। धतूरा। वि० [चमीकर+अण्] १. सोने का बना हुआ। २. सोने की तरह का। सुनहला।
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चामुंडा  : स्त्री० [सं० चमूला(आदान)+क, पृषो सिद्धि] एक देवी जिन्होने शुंभ-निशुंभ के चंड और मुंड नामक दो सेनापति दैत्यों का वध किया था। कापालिनी। भैरवी।
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चाम्य  : पुं० [सं०√चम् (खाना)+ण्यत्] खाद्य पदार्थ।
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चाय  : स्त्री० [चीनी चा] १. एक प्रसिद्ध पौधा या झाड़ जिसकी पत्तियाँ १॰-१२ अंगुल लंबी, ३-४ अंगुल चौड़ी और दोनों सिरों पर नुकीली होती हैं। २. उक्त पौधे की सुगन्धित और सुखाई हुई पत्तियाँ जिन्हें उबालकर पीने की चाल अब संसार भर में फैल गई है। ३. उक्त पत्तियों का उबालकर तैयार किया हुआ पेय जिसमें चीनी, दूध, आदि भी मिलाया जाता है। पुं०=चाव(चाह)। उदा०–मौन बदन उर चाय।–नागरीदास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाँय-चाँय  : [अनु०] चिड़ियों का या चिड़ियों का सा शोर।
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चाय-पानी  : पुं० [हि० पद] ऐसा जल-पान जिसके साथ पेय रूप में चाय भी हो।
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चायक  : पुं० [सं०√चि (चयन करना) ण्वुल्-अक] चुननेवाला। वि० [हि० चाय=चाव या चाह] चाहने या प्रेम करने वाला।
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चाँयँचाँयँ  : स्त्री० [अनु०] व्यर्थ की बातें। बकवाद।
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चायदान  : पुं० [हि० चाय+फा० दान] करवे की आकृति का एक प्रकार का चीनी-मिट्टी या धातु का एक प्रसिद्ध पात्र जिसमें चाय का गरम पानी रक्खा जाता है।
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चायदानी  : स्त्री०=चायदान।
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चार  : वि० [सं० चत्तवारि, प्रा० चत्तार, चत्तारी, चत्तारो, अप० उ० बँ मि० चारि, गु० पं० मरा० चार] १. जो गिनती में तीन से एक अधिक हो। दो का दूना। तीन और एक। जैसे–चार घोड़ो की गाड़ी। मुहा–(किसी से) चार आँखे करना=किसी के सामने होकर उसकी ओर देखना। आँखे मिलाना।(किसी चीज में) चार चाँद लगाना= प्रतिष्ठा, शोभा, सौन्दर्य आदि चौगुनी होना या बहुत बढ जाना। चार पगड़ी करना=जहाज का लंगर डालना। जहाज ठहराना। (लश०) चार पाँच करना इधर उधर की बाते या हीला-हवाला करना। चारों खाने चित करना=(क) इस प्रकार चित गिरना जिससे हाथ-पाँव फैल जाँय। (ख) पूरी तरह से या सब प्रकार से ऐसा परास्त होना कि फिर कुछ भी करने योग्य न हो। चारों फूटना=चारों आँखे (दो हिये की और दो ऊपर की) फूटना अर्थात इतना दुर्बुद्धि या मत्त होना कि बुरा-भला कुछ दिखाई न दे। पद-चार गुरदेवाला=बहादुर और साहसी। जीवटवाला। चारों ओर=सभी ओर। हर तरफ। चारों धाम=हिन्दुओं के ये चारों बड़े तीर्थ या पुण्य धाम-जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, द्वारका, और बदरिकाश्रम। चारों पदार्थ=हिन्दुओं में ये चारों काम्य पदार्थ- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। चारों मग्ज=हकीमी नुसखों में, इन चारों चीजों के बीजों की गिरियाँ-ककडी, कद्दू , खरबूजा और खीरा। २. कई एक। बहुत से। अनेक। जैसे–चार आदमी जो कहें, वह मान लेना चाहिए। मुहा०–चार के कंधों पर चढना या चलना=मर कर अरथी आदि पर चढना और कुछ लोगों की सहायता से कब्रिस्तान या श्मशान की ओर जाना। ३. गिनती में कुछ कम या थोड़े। कतिपय। कुछ। जैसे–(क) चार बातें उन्होंने कहीं तो चार मैंने भी सुनाईं।(ख) अभी चार दिन की तो बात है कि वे यहाँ आकर नौकर हुए हैं। पद–चार-तार=थोड़े से अच्छे कपडे और गहने। जैसे– जब से मियाँ का रोजगार चला है, तब से बीबी के पास चार तार दिखाई देने लगे हैं, नहीं तो पहले क्या था। (स्त्रियाँ) चार दिन की चाँदनी=थोड़े समय तक ठहरनेवाला वैभव या सुख-भोग। जैसे–उनकी यह सारी रईसी बस चार दिन की चाँदनी है। चार पैसे=थोड़ा धन। कुछ रुपया-पैसा। उदा०–जब पास में चार पैसे रहेंगे, तभी नाते-रिश्ते के लोग पूछेंगे। पुं० चार का सूचक अंक या संख्या। चार का अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है-४। वि०=चारु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०[सं०√चर् (चलना)+घञ्।] चर+अण (अर्थानुसार ज्ञातव्य)] [भू० कृ० चारित, वि० चारी] १. चलने की क्रिया या भाव। गति। चाल। २. आचार। ३. रसम। रीति। जैसे–द्वारचारी। ४. कारागार। जेलखाना। ५. गुप्तचर। जासूस। ६. दास। सेवक। ७. भोजन करना। खाना। भक्षण। ८. चिरौंजी। पियाल। ९. वह विष जो पशु-पक्षियों आदि को फँसाने या मारने के लिए बनाया जाता है।
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चार आइना  : पुं० [फा० चार+आइनः=लोह] एक प्रकार का कवच या बकतर जिसमें लोहे की चार पटरियाँ जड़ी रहती हैं जिनमें से एक छाती पर, एक पीठ पर और दो दोनों बगलों में (भुजाओं के नीचे) रहती हैं।
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चार-कर्म(न्)  : पुं० [ष० त०] चर अर्थात जासूस का काम। जासूसी। (एस्पायनेज)
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चार-चक्षु(स्)  : पुं० [ब० स०] राजा, जो अपने चरों या जासूसों द्वारा सब बातें देखता है।
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चार-चश्म  : वि० [फा०] [भाव० चार-चश्मी] १. निर्लज्ज। बेहया। २. जिसमें शील, सौजन्य आदि का अभाव हो। बेमुरौवत। ३. कृतघ्न। नमक-हराम।
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चार-तूल  : पुं० [सं० त०] चँवर।
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चार-ना-चार  : क्रि० वि० [फा०] विवश होकर। मजबूर या लाचार होकर।
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चार-पथ  : पुं० [ब० स०] राज-मार्ग।
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चार-पाल  : पुं० [सं० चारपाल् (पालन करना)+णिच्+अण्] गुप्तचर। जासूस।
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चार-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] गुप्तचर। भेदिया।
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चार-प्रचार  : पुं० [ष० त०] किसी काम के लिए जासूस नियुक्त करना। (प्राचीन भारतीय राजतंत्र)
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चार-बंद  : पुं० [फा०] १. शरीर के अंग या अवयव। २. शरीर के अंगो की गाँठे या जोड़।
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चार-बाग  : पुं० [फा०] १. चौकोर बगीचा। २. ऐसा बाग या बगीचा जिसमें फलोंवाले वृक्ष हों। ३. एक प्रकार का बड़ा रूमाल शाल जिसके चारों बराबर भाग अलग-अलग रंगों के और अलग-अलग प्रकार के बेल-बूटों से युक्त होते हैं।
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चार-बालिश  : पुं० [फा०] एक प्रकार का बड़ा गोल तकिया। मसनद।
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चार-भट  : पुं० [स० त०] वीर सैनिक।
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चार-मेख  : स्त्री० [हिं+फा०] मध्ययुग का एक प्रकार का दंड या सजा जिसमें अपराधी को जमीन पर लेटाकर उसके दोनों और दोनों हाथ पैर चार खूँटो से बाँध दिये जाते थे।
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चार-वायु  : स्त्री० [मध्य० स०] गरम हवा। लू।
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चारक  : पुं० [सं०√चर्+णिच्+ण्वुल्-अक। चार+कन्। चर्+णिच्+ण्वुल्-अक (अर्थानुसार ज्ञातव्य) १.चलाने या संचार करानेवाला। संचारक। २. गति। चाल। ३. गाय-भैंस चराने वाला। चरवाहा। ४. चिरौंजी। पियाल। ५. गुप्त-चर। जासूस। ६. सहचर। साथी। ७. घुड़सवार। ८. वह ब्रह्मचारी या ब्राह्मण जो बराबर इधर-उधर घूमता फिरता रहे। ९. आदमी। मनुष्य। १॰. चरक ऋषि का ग्रंथ या सिद्धान्त। ११. वह कारागार जिसमें अभियुक्त तब तक रखा जाता है, जब तक उसके अभियोग का निर्णय न हो जाय। हवालात।
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चारकाने  : पुं० बहु० [हि० चार+काना=मात्रा] चौसर या पासे का एक दाँव।
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चारखाना  : पुं० [फा० चारखानः] १. आड़ी और खड़ी धारियों या रेखाओं की ऐसी रचना जिसमें बीच-बीच में चौकोर खाने बने हों। २. वह कपड़ा जिससे उक्त प्रकार के चौकोर खाने बने हों।
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चारग-मारग  : पुं० चार+मार्ग] आचरण और व्यवहार की धूर्त्तता। चांलबाजी और ढंग।
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चारज  : पुं० दे० ‘चार्ज’।
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चारजामा  : पुं० फा० चारजामः] चम़डे या कपड़े का वह टुकड़ा जो सवारी करने से पहले घोड़े की पीठ पर कसा जाता है। जीन।
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चारटा  : स्त्री० [सं०√चर् (चलना)+णिच्+अटन्-टाप्] पद्यचारिणी वृक्ष। भूम्यामलकी।
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चारटिका  : स्त्री० [सं०√चर्+णिच्+अटन्-डीष+कन्-टाप्, ह्वस्व] नली नामक गंध-द्रव्य।
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चारटी  : स्त्री० [सं०√चर्+णिच्+अटन्-डीष्]=चारटा।
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चारण  : पुं० [सं०√चर् (चलना)+णिच्+ल्यु--अन] १. एक जाति जो मध्ययुग में राजाओं के दरबार में उनकी तथा उनके पूर्वजों की कीर्ति या यश का वर्णन गाकर करती थी। वंदीजन। भाट। २. उक्त जाति का व्यक्ति । ३. वह जो बराबर इधर-उधर घूमता रहता हो।
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चारदा  : पुं० [हिं० चार+दा (प्रत्य०)] १. चौपाया। २. कुम्हारों की बोली में उनका गधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चारदीवारी  : स्त्री० [फा०] १. सुरक्षा अथवा सीमा निर्धारण की दृष्टी से किसी मकान या स्थान के चारों ओर बनाई जानेवाली ऊँची दीवार। २. नगर के चारों ओर का परकोटा। प्राचीर। शहर-पनाह।
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चारन  : पुं०=चारण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चारना  : सं० १.=चराना। २. =चलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चारपाई  : स्त्री० [हिं० चार+पाया] चार पायोंवाला वह प्रसिद्ध उपकरण जो बीच में बाध, सुतली, निवाड़ आदि से बिना रहता है और जिस पर लोग सोते हैं। छोटा पलंग। खाट। पद–चारपाई का कान=चारपाई का वह अंग जो उसके टेढ़े हो जाने के कारण एक ओर ऊपर उठ आया हो। मुहा–चारपाई धरना, पकड़ना या लेना=(क) चारपाई पर लेटना। (ख) इतना बीमार होना कि चारपाई से उठ न सके। अत्यन्त रुग्ण होना। चारपाई पर पड़ना= चारपाई पकड़ना। चारपाई सेना=रोग आदि के कारण अधिक समय तक चारपाई पर पड़े रहना। चारपाई से पीठ लगना=चारपाई पकड़ना। चारपाई से लगना।=चारपाई पकड़ना।
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चारपाया  : पुं० [फा० चारपायः] चार पैरोंवाला पशु। चौपाया।
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चारयारी  : स्त्री० [हिं० चार+फा० यार] १. चार मित्रों का दोस्ताना। २. चार मित्रों की गोष्ठी या मंडली। ३. मुसलमानों में सुन्नियों का वह सम्प्रदाय जो मुहम्मद के चार मित्रों और सहायकों (अबूबकर, उसर, उस्मान और अली) को खलीफा मानता है। ४. मुसलमानी शासनकाल का चाँदी का एक चौकोर सिक्का जिस पर मुहम्मद साहब के उक्त चारों मित्रों या साथियों के नाम अंकित हैं और जिसका प्रचार कई तरह के टोने-टोटकों के लिए होता है।
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चारवा  : पुं०=चौपाया।
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चारा  : पुं० [हिं० चरना] १. गाय, बैल आदि पशुओं के खाने के लिए दी जानेवाली, पत्ती, घास, आदि। २. चिड़ियों, मछलियों आदि को फँसाने अथवा जीवित रखने के लिए खिलाई जाने वाली वस्तु। ३.निकृष्ट भोजन। (व्यंग्य) ४. लाक्षणिक अर्थ में, किसी को फँसाने अथवा अपना काम निकालने के लिए दूसरों को दिया जानेवाला प्रलोभन। क्रि० प्र०–डालना।–फेंकना। पुं० [फा० चारः] १. इलाज। २. उपाय। ३. युक्ति।
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चाराजोई  : स्त्री० [फा०] दूसरे से पँहुची हुई या पँहुचनेवाली हानि के प्रतिकार या बचाव के लिए न्यायालय या हाकिम से की जानेनाली याचना। नालिश। फरियाद। जैसे–अदालत से चाराजोई करना।
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चारातंरित  : पुं० [सं० चार-अंतरित तृ० त०] गुप्तचर।
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चारायण  : पुं० [सं० चर+फक्-आयन] काम-शास्त्र के एक आचार्य।
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चारासाज  : वि० [फा० चारः साज] [भाव० चारासाजी] विपत्ति के समय सहायता देकर दूसरे का काम बनानेवाला।
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चारि  : वि० पुं०=चार।
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चारिका  : स्त्री० सं० चारक+टाप्, इत्व] सेविका, दासी।
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चारिटी  : स्त्री०=चारटी।
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चारिणी  : स्त्री० [सं०√चर्+णिच्+णिनि-डीप्] करुणी वृक्ष। वि० सं० चारी (चारिन्) का स्त्री० रूप। जैसे–ब्रह्मचारिणी, व्रतचारिणी। स्त्री० [हिं० चारण] चारण जाति की स्त्री।
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चारित  : भू० कृ० [सं० चर्+णिच्+क्त] १. जो चलाया गया हो। चलाया हुआ। गतिमान किया हुआ। २. भभके आदि से उतारा या खींचा हुआ। जैसे– चारित आसव। पुं० आरा(लकड़ी चीरने का)। पुं०=चारा (पशुओं का भोजन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चारितार्थ्य  : पुं० [सं० चरितार्थ+ष्यञ] चरितार्थ होने की अवस्था या भाव। चरितार्थता।
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चारित्र  : पुं० [सं० चरित्र+अण्] १. किसी कुल या वंश में परम्परा से चला आया हुआ आचार-व्यवहार। कुल की रीति। २. अच्छा चाल चलन। सदाचार। ३. रीति-व्यवहार। ४. मरुत् गणों में से एक। ५. स्त्री का पातिव्रत या सतीत्व। ६. संन्यास। (जैन)
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चारित्र-विनय  : पुं० [तृ० त०] आचरण या चरित्र द्वारा नम्र और विनीत भाव-प्रदर्शन। शिष्टाचार। नम्रता।
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चारित्रवती  : स्त्री० [सं० चारित्र+मातुप्, वत्व, डीप्] योग में एक प्रकार की समाधि।
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चारित्रा  : स्त्री० [सं० चारित्र+अच्-टाप्] इमली।
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चारित्रिक  : वि० [सं० चारित्र+ठक्-इक्] १. चरित्र-संबधी। २. अच्छे चरित्रवाला।
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चारित्रिकता  : स्त्री० [सं० चारित्रिक+तल्-टाप्] १. अच्छा चरित्र । २. चरित्र-चित्रण की कला या कौशल।
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चारित्री(त्रिन्)  : वि० [सं० चरित्र+इनि] अच्छे चरित्रवाला। सदाचारी।
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चारित्र्य  : पुं० [सं० चरित्र+ष्यञ] चरित्र। आचरण।
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चारिम  : वि० १.=चौथा। उदा०–जामिनि चारिम पहर पाओल। विद्यापति। २.=चारों।
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चारी(रिन्)  : वि० [सं० (पूर्वरद के साथ होने पर) √ चर् (चलना)+णिनि] एक विशेषण जो समस्त पदों के अंत में लग कर निम्नलिखित अर्थ देता है। (क) चलने या विचरण करनेवाला। जैसे–व्योम-चारी। (ख) कोई विशिष्ट आचरण या क्रिया करनेवाला। जैसे–व्यभिचारी। (ग) पालन करनेवाला। जैसे–ब्रह्मचारी, व्रतचारी। पुं० १. पैदल चलनेवाला सिपाही। २. साहित्य में, संचारी भाव। ३. नृत्य में एक प्रकार की क्रिया।
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चारु  : वि० [सं०√चर् (चलना)+उण्] आकर्षक और मनोहर। सुन्दर। पुं० १. वृहस्पति। २. रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण का एक पुत्र। ३. कुंकुम। केसर।
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चारु-केशरा  : स्त्री० [ब० स०] १. नागरमोथा। २. सेवती का फूल।
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चारु-गर्भ  : पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।
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चारु-गुप्त  : पुं० [कर्म० स०] श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।
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चारु-चित्र  : पुं० [ब० स०?] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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चारु-धामा  : स्त्री० [ब० स०] इन्द्र की पत्नी, शची।
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चारु-धारा  : स्त्री० [ब० स०] इन्द्र की पत्नी, शची।
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चारु-नालक  : पुं० [ब० स०, कप्] कोकनद। लाल कमल।
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चारु-नेत्र  : वि० [ब० स०] [स्त्री० चारूनेत्रा] सुन्दर नेत्रोंवाला। पुं० एक प्रकार का हिरन।
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चारु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, डीष] प्रसारिणी लता। गंधपसार।
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चारु-पुट  : पुं० [ब० स०] ताल के ६॰ मुख्य भेदों में से एक। (संगीत)
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चारु-फला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] अंगूर या दाख की लता।
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चारु-लोचन  : वि० [ब० स०] [स्त्री० चारु-लोचना] सुन्दर नेत्रोंवाला। पुं० एक प्रकार का हिरन।
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चारु-वर्धना  : स्त्री० [स० चारु√वृध् (वृद्धि करना)+णिच्+ल्युट-अन-टाप्] सुन्दर स्त्री। सुन्दरी।
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चारु-शिला  : स्त्री० [कर्म० स०] एक प्रकार का रत्न।
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चारु-शील  : वि० [ब० स०] [स्त्री० चारु-शील] उत्तम शील या स्वभाव-वाला।
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चारु-श्रिष्ण  : पुं० [स०] ग्यारहवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक।
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चारु-सार  : पुं० [कर्म० स०] सोना। स्वर्ण।
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चारुक  : पुं० [सं० चारु+कन्] सरपत के बीज जो दवा के काम आते हैं।
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चारुता  : स्त्री० [सं० चारु+तल्-टाप्] चारु होने की अवस्था, गुण या भाव। मनोहरता। सुन्दरता।
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चारुत्व  : पुं० [स० चारु+त्व] चारुता।
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चारुदेष्ण  : पुं० [स०] रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न कृष्ण के एक पुत्र जिन्होनें निकुंभ आदि दैत्यों के साथ युद्ध किया था। (हरिवंश)
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चारुहासिनी  : स्त्री० [स० चारुहासिन्+डीप्] १. सुन्दर रूप से हँसने वाली स्त्री। २. वैताली नामक छंद का एक प्रकार या भेद।
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चारुहासी(सिन्)  : वि० [स० चारु√हस् (हँसना)+णिनि] [स्त्री० चारुहासिनी] १. सुंदर रूप से हँसनेवाला। मनोहर मुसकान वाला। २. जो हँसता हुआ सुंदर तथा भला जान पड़े। पुं० वैताली छन्द का एक भेद।
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चारू-दर्शन  : वि० [ब० स०] [स्त्री० चारु-दर्शना] जो देखने में बहुत सुन्दर हो। रूपवान्।
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चारेक्षण  : पुं० [स० चार-ईक्षण, ब० स०] राजा।
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चारोली  : स्त्री० [देश०] फलों आदि की गुठली।
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चार्घा  : स्त्री० [स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार की सड़क जो छः हाथ चौड़ी होती थी।
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चार्चिक  : वि० [स० चर्चा+ठक्-इक] वेद-पाठ में कुशल।
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चार्चिक्य  : पुं० [स० चर्चिका+ष्यञ] १. शरीर में अंग राग का लेपन। २. अंगराग। ३. वेद-पाठ-संबंधी कौशल या निपुणता।
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चार्ज  : पुं० [अं०] १. किसी काम या पद का भार। कार्यभार। २. रक्षण आदि के लिए की जाने वाली देख-रेख। ३. किसी पर लगाया जाने वाला अभियोग। ४. किसी कार्य या सेवा का पारिश्रमिक। परिव्यय। ५.एक दम से किया जाने वाला आक्रमण।
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चार्टर  : पुं० [अं०] १. वह लेख जिसमें शासन की ओर से किसी को कोई स्वत्व या अधिकार देने की बात लिखी रहती है। सनद। अधिकार-पत्र २. कुछ शर्तो पर जहाज या और कोई बड़ी सवारी किराये पर देना या लेना।
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चार्म  : वि० [स० चर्मन+अण्] १. चर्म-संबंधी। २. चमड़े का बना हुआ। ३. चमडे से मढ़ा हुआ।
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चार्मिक  : वि० [स० चर्मन+ठक्-इक] चमड़े से बना हुआ।
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चार्य  : पुं० [स० चर+ष्यञ] १. चर होने की अवस्था या भाव। चरता। २. दूतत्व। ३. जासूसी। ४. [चर्+ण्यत्] एक प्राचीन वर्ण संकर जाति। (व्रात्य वैश्य की सवर्णा स्त्री से उत्पन्न)
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चार्वाक  : पुं० [सं० चारू-वाक, ब० स०, पृषो० सिद्धि०] १. एक प्रसिद्ध अनीश्वरवादी और नास्तिक विद्वान। बार्हस्पत्य। (चार्वाक दर्शन के रचियता) २. उक्त विद्वान द्वारा चलाया हुआ मत या दर्शन जो ‘लोकायत’ कहलाता है। चार्वाक दर्शन। ३. एक राक्षस जिसने कौरवों के मारे जाने पर ब्राह्मण वेश में युधिष्ठिर की राजसभा में जाकर उनको राज्य के लोभ से भाई-बन्धुओं को मारने के लिए धिक्कारा था और जो उस सभा के ब्राह्मणों के हाथों मारा गया था।
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चार्वाक-दर्शन  : पुं० [मध्य० स०] चार्वाक नामक प्रसिद्ध विद्वान का बनाया हुआ दर्शन-ग्रन्थ जिसमें ईश्वर, पर-लोक, पुनर्जन्म और वेदों के मत का खंडन किया गया है।
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चार्वाक-मत  : पुं० [ष० त०] चार्वाक का चलाया हुआ मत या संप्रदाय।
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चार्वी  : स्त्री० [सं० चारू+डीप्] १. बुद्धि। २. चाँदनी। ज्योत्स्ना। ३. चमक। दीप्ति। ४. सुन्दर स्त्री। सुन्दरी। ५. कुबेर की पत्नी का नाम। ६. दारु हल्दी।
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चाल  : स्त्री० [हिं० चलना या सं० चार] १. चलने की क्रिया या भाव। गति। २. वह अवस्था क्रिया जिसमें कोई जीव या पदार्थ किसी दिशा में अथवा किसी रेखा पर बराबर अपना स्थान बदलता हुआ क्रमशः आगे बढ़ता रहता है। चलने, दौड़ने आदि के समय निरंतर आगे बढ़ते रहने की अवस्था, क्रिया या भाव। जैसे–चलते या दौड़ते आदमी की चाल,डाक या सवारी गाड़ी की चाल। ३. पैर उठाने और रखने के ढंग के विचार से किसी के आगे बढ़ते रहने का प्रकार, मुद्रा या रूप। जैसे–(क) खरीदने से पहले घोड़े की चाल देखी जाती है। (ख) वह झूमती (लडखड़ाती) हुई चाल से चला आ रहा था। ४. गति में लगने वाले समय के विचार से, चलने की क्रिया या भाव। जैसे–कछुए या च्यूँटी की चाल। ५. किसी आदमी या चीज के चलते रहने की दशा में उसकी गति-विधि आदि की सूचक ध्वनि या शब्द। आहट। मुहा–(किसी की) चाल मिलना=किसी के गतिमान होने, चलने-फिरने आदि की आहट, ध्वनि या शब्द सुनाई पड़ना। जैसे–(क) आज तो पिछवाड़े वाले मकान में कुछ आदमियों की चाल मिल रही है; अर्थात ऐसा जान पड़ता है कि उसमें कुछ लोग आकर ठहरे हैं। (ख) सन्ध्या हो जाने पर जंगल में पशु-पक्षियों की चाल नहीं मिलती। ६. बहुत से आदमियों या जीवों के चलने-फिरने के कारण होनेवाली चहल-पहल, धूम-धाम, हलचल या हो-हल्ला। जैसे– कूच की आज्ञा मिलते (या नगाड़ा बजते) ही सारी छावनी में चाल पड़ गई। क्रि० प्र०–पड़ना। ७. फलित ज्योतिष के अनुसार अथवा और किसी प्रकार के सुभीते के विचार से कहीं से चलने या प्रस्थान करने के लिए स्थिर किया हुआ दिन, मुहूर्त या समय। चाला। उदा०-पोथी काढ़ि गवन दिन देखें, कौन दिवस है चाला।–जायसी। ८. किसी पदार्थ (जैसे–यंत्र आदि) अथवा उसके किसी अंग की वह अवस्था जिसमें वह बराबर इधर-उधर आता-जाता, घूमता या हिलता-डोलता रहता है। जैसे–इंजन के पुरजों की चाल; घड़ी के लंगर की चाल। ९. तत्परता, वेग आदि के विचार से किसी काम या बात के होते रहने की अवस्था या गति। जैसे–(क) आज-कल कार्यालय(या ग्रंथ-सम्पादन) का काम बहुत धीमी चाल से हो रहा है।(ख) इमारत (या नहर) के काम की चाल अब तेज होनी चाहिए। १॰.किसी चीज की बनावट, रचना, रूप आदि का ढंग या प्रकार। ढंग। तर्ज। जैसे–नई चाल का कुरता या टोपी; नई चाल की थाली या लोटा। ११. कोई काम करने का ढंग, प्रकार या युक्ति। जैसे–अब उसे किसी और चाल से समझाना पड़ेगा। १२. ऐसा ढंग, तरकीब या युक्ति जिसमें कुछ विशिष्ट भी मिला हो। विशिष्ट प्रकार का उपाय। तरकीब। जैसे–अब तो किसी चाल से यहाँ से अपना छुटकारा कराना चाहिए। १३. किसी को धोखा देने या बहकाने के लिए की जाने वाली चालाकी से भरी तरकीब या युक्ति। जैसे–हम तुम्हारी चाल समझते हैं। मुहा०-(किसी से)चाल चलाना=किसी को धोखा देने या भ्रम में रखने की तरकीब या युक्ति करना। जैसे–तुम कहीं चाल चलने से बाज नहीं आते। (किसी की) चाल मे फँसना=किसी के धोखे या बहकावे में आना। जैसे–वह सीधा आदमी तुम्हारी चाल में आ गया। पद– चाल-बाज, चालबाजी। (देखें स्वतंत्र पद)। १४. किसी काम, चीज या बात के चलनसार या प्रचलित रहने की अवस्था या भाव। जैसे–आज-कल इस तरह के गहनों (या साडियों) की चाल नहीं है। १५. नैतिक दृष्टि से आचरण, व्यवहार आदि करने का ढंग, प्रकार या स्वरूप। जैसे–(क) तुम अपने लड़के की चाल सुधारो। (ख) यदि तुम्हारी यही चाल रही तो तुम्हारा कहीं ठिकाना न लगेगा। पद–चाल-चलन, चाल-ढाल। (देखें स्वतंत्र पद) १६. चौसर, ताश, शतरंज आदि खेलों में अपना दाँव या बारी आने पर गोटी, पत्ता, मोहरा आदि आगे बढाने या सामने लाने की क्रिया। जैसे–(क) हमारी चाल हो चुकी; अब तुम्हारी चाल है।(ख) तुम्हारी इस चाल ने सारी बाजी का रुख पलट दिया। १७. मुद्रणकला में, छापने के लिए यथा-स्थान बैठाये हुए अक्षरों के संबंध में वह स्थिति, जब बीच में कोई नया पद, वाक्य या शब्द घटाये-बढ़ाये जाने के कारण कुछ अक्षरों या शब्दो के आगे पीछे खिसकाने या हटाने-बढ़ाने की आवश्यकता होती है। १८. यंत्रों के पुरजों के संबंध में, वह स्थिति जिसमें वे किसी त्रुटि या दोष के कारण कुछ आगे-पीछे या इधर-उधर हट-बढकर चलते हैं और इसीलिए या तो कुछ खड़-खड़ करते या यंत्र के ठीक तरह से चलने में बाधक होते हैं। जैसे–इस आगे वाले चक्कर (या पहिये) में कुछ चाल आ गई है। स्त्री० [हिं० चालना=छानना] छलनी आदि में रखकर कोई चीज चालने या छानने की क्रिया, ढंग या भाव। पुं० [सं० चल् (चलना)+ण;; णिच्+अच् वा] १. घर के ऊपर का छप्पर या छाजन। २. छत। पाटन। ३. स्वर्णचूड़ पक्षी। ४. आज-कल बड़े नगरों में वह बहुत बडा मकान जो गरीबों अथवा साधारण स्थिति के लोगों को किराये पर देने के लिए बनता है। जैसे– बम्बई में उसने सारी उमर एक ही चाल में रहकर बिता दी।
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चाल-चलन  : पुं० [हिं० चाल+चलन] नैतिक दृष्टि से देखा जाने वाला आचरण या व्यवहार। चरित्र। मनुष्य के आचरण और व्यवहार करने का ढंग जिसका मूल्यांकन नैतिक दृष्टि से किया जाता है।
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चाल-ढाल  : स्त्री० [हिं० चाल+ढाल] १. किसी व्यक्ति के चलने-फिरने का ढंग या मुद्रा। रंग-ढंग। २. किसी व्यक्ति का ऊपरी आचरण और व्यवहार। ३. किसी चीज की बनावट या रचना का ढंग या प्रकार। ४. चाल-चलन।
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चालक  : वि० [सं०√चल् (चलना)+ण; णिच्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० चालिका] १. चलानेवाला। जो चलाता हो। २. चलने के लिए प्रेरित करनेवाला। जैसे–चालक शक्ति। ३. चालबाज। धूर्त्त। उदा०-घर घालक, चालक, कलहप्रिय कहियतु परम परमारथी।–तुलसी। पुं० १. वह व्यक्ति जो यानों, इंजनों आदि को गतिमान करता हो। २. संवाहक (दे०)। ३. वह हाथी जो अंकुश का दबाव या नियंत्रण न माने। उद्दंड और नटखट हाथी। ४. नृत्य में भाव बताने और सुंदरता लाने के लिए हाथ मिलाने की क्रिया।
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चालकुंड  : पुं० [सं०] चिल्का नाम की झील जो उड़ीसा में है।
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चालणी  : स्त्री०=चलनी (छलनी)।
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चालन  : पुं० [सं०√चल् (चलना)+णिच्+ल्युट्+अन] १. चलाने की क्रिया या भाव। परिचालन। २. चलने की क्रिया या भाव। गति। ३. चलनी। छाननी। पुं० [हिं० चालना] १. भूसी या चोकर जो आटा चालने के बाद बच रहता है। २. बड़ी चलनी।
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चालनहार  : वि० [हिं० चलना+हार (प्रत्य०)] १. चलानेवाला। २. ले जाने या ले चलनेवाला। वि० [हिं० चलना] चलनेवाला।
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चालना  : स० [सं चालन] १. किसी को चलने में प्रवृत्त करना। चलाना। २. हिलाना-डुलाना। ३. एक जगह से दूसरी जगह ले जाना। ४. बहू को उसके मैके से बिदा कराके लाना। उदा०-पाखहू न बीत्यो चालि आयो हमें पीहर तें।–शिवराम। ५. कार्य या उसके भार का निर्वाह या वहन करना। परिचालन करना। उदा०-चालत सब राज-काज आयसु अनुभरत।–तुलसी। ६. चर्चा या प्रसंग उठाना। ७. आटे को छलनी में रखकर इधर-उधर हिलाना जिसमें महीन आटा नीचे गिर जाय और भूसी या चोकर छलनी में ऊपर रह जाय। छानना। ८. बहुत-सी चीजों में से छाँटकर कोई अच्छी चीज अलग करना या निकलना।उदा०–जाति, वर्ण, संस्कृति समाज से मूल व्यक्ति को फिर से चालो।–पंत। अ०=चलना। पद-चालन हार। (देखें) पुं० [स्त्री०=चालनी] चलना (बड़ी चलनी)।
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चालनीय  : वि० [सं०√चल् (चलना)+णिच्+अनीयर्] चलाये या हिलाये जाने के योग्य। जो चलाया या हिलाया-डुलाया जा सके।
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चालबाज  : वि० [हिं० चाल+फा० बाज] [भाव० चालबाजी] स्वार्थ साधन के लिए व्यवहार आदि में कपट या छल से भरी हुई चालें चलनेवाला। धूर्त्तता से अपना काम निकाल लेने वाला।
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चालबाजी  : स्त्री० [हिं० चालबाज] १. चालबाज होने की अवस्था या भाव। २. व्यवहार आदि में छल-पूर्ण चालें चलने की क्रिया या भाव। चालाकी। छल। धोखेबाजी।
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चाला  : पुं० [हिं० चाल] १. चलने या प्रस्थान करने की क्रिया या भाव। २. दुल्हिन का पहली बार अपने मायके से ससुराल अथवा ससुराल से मायके जाने की क्रिया। उदा०–चाले की बातें चलीं सुनत सखिन के टोला।–बिहारी। ३. वह दिन या समय जो किसी दिशा में रवाना होने के लिए शुभ समझा जाता है। जैसे–रविवार को पश्चिम का चाला नहीं है बल्कि सोमवार को है। ४. एक प्रकार का औपचारिक कृत्य जो मृतक की षोडशी आदि हो जाने पर रात के समय किया जाता है। ५. दे० ‘चलौआ’।
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चालाक  : वि० [फा०] [भाव० चालाकी] १. कौशलपूर्ण ढंग से कोई काम करनेवाला। होशियार। २. व्यवहार-कुशल। सूझ-बूझ वाला। समझदार। ३. चालबाज। धूर्त्त।
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चालाकी  : [फा०] १. चालाक होने की अवस्था या भाव। चतुराई। व्यवहार-कुशलता। दक्षता। २. चालबाजी। धूर्त्तता। मुहा०–चालाकी खेलना=धूर्त्तता-पूर्ण चाल चलना। ३. कौशल या होशियारी से मिली हुई युक्ति।
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चालान  : पुं० चलान (देखें)।
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चालानदार  : पुं०=चलानदार।
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चालिया  : पुं० [हिं० चाल+इया (प्रत्यय)] धूर्त्तता-पूर्ण चालें चलनेवाला। चालबाज।
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चालिस  : वि० चालीस।
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चाली  : वि० [हिं० चाल] १. चालबाज। २. नटखट। पाजी। ३. चंचल। पुं० [?] केंचुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० चालछाजन] १.नाव के ऊपर का छप्पर या छाजन। २. घोड़े की जीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० चलाना] व्यक्तियों का वह दल जो अपने काम से अलग कर दिया या हटा दिया गया हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चालीस  : वि० [सं० चत्वारिशत्, पा० चत्तालीस] जो गिनती में तीस से दस अधिक हो। जैसे–चालीस दिन। पुं० उक्त की सूचक संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है– ४॰ ।
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चालीस-सेरा  : वि० [हिं० चालीस+सेर] १. (घी) विशुद्ध या अमिश्रित। २. निरा मूर्ख। (व्यक्ति)।
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चालीसवाँ  : वि० [हिं० चालीस] गिनती में जिसका स्थान उनतालीसवें के बाद पड़ता हो। जो क्रम में ४॰ के अंक या संख्या पर पड़ता हो। पुं० मुसलमानों का एक कृत्य जो किसी के मर जाने के चालीसवें दिन किया जाता है। चहलुम।
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चालीसा  : पुं० [हिं० चालीस] [स्त्री० चालीसी] १.चालीस वस्तुओं का समूह। जैसे–चालीसा चूरन (जिसमें चालीस चीजें पड़ती है) २. चालीस पदों का संकलन या समूह। जैसे–हनुमान चालीसा। ३. चालीस दिनों का समय। चिल्ला। ४. मृत्यु के चालीसवें दिन होनेवाला कृत्य। चालीसवाँ। (मुसल०)
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चालुक्य  : पुं० [?] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध प्रतापी राजवंश जिसने ईसवी ५ वीं शताब्दी से ईसवी १२ वीं शताब्दी तक राज्य किया था।
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चालू  : वि० [हिं० चलना] १. जो चल रहा हो। जो ठीक प्रकार से काम कर रहा हो। जैसे–चालू घड़ी। २. जो चलन या रिवाज में हो। प्रचलित। जैसे–चालू प्रथा, चालू सिक्का। ३. जो प्रयोग या कार्य के रूप में लाया जा रहा हो। ४. चलता हुआ। चालाक। जैसे–चालू आदमी। पुं० चाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चाल्य  : वि० [सं०√चल् (चलना)+णिच्+यत्] जो चलाया जा सके। चालनीय।
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चाल्ह  : स्त्री० चेल्हा (मछली)।
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चाल्ही  : स्त्री [हिं० चलाना] नाव में वह स्थान जहाँ मल्लाह बैठकर नाव खेता या चलाता है।
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चाव  : पुं० [हिं० चाह] १. किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति होनेवाली अनुरागजन्य और स्नेहपूर्ण ऐसी अभिलाषा या लालसा जिसमें यथेष्ट उत्कंठा भी मिली हो। अरमान। उदाहरण–चित्र केतु पृथ्वीपति राव। सुत हित भयो तासु हिय चाव।–सूर। मुहावरा–चाव निकालना=अभिलाषाएँ या लालसाएँ जी खोलकर पूरी करना। २. अनुराग। प्रीति। स्नेह। ३. उत्कंठा। ४. प्रिय या प्रेम-पात्र के साथ किया जानेवाला लाड़-प्यार। दुलार। उदाहरण–बिछुड़े सजन मिलाय दे मैं कर लूँ मन के चाव।–गीत। पद–चाव-चोचलेनाज=नखरे। ५. उत्साह और उमंग से भरा हुआ आनंद।
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चाँवँ-चाँवँ  : स्त्री० चाँयँ-चाँयँ।
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चावड़ा  : पुं० [?] १. एक प्रकार के राजपूत। चावण। २. खत्रियों की एक उपजाति या वर्ग।
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चावड़ी  : स्त्री० [देश०] यात्रियों के टिकने या ठहरने का स्थान। पड़ाव।
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चावंडु  : पुं०=चांमुंड।
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चावण  : पुं० [देश०] गुजरात का एक प्रसिद्ध और प्राचीन राजपूत वंश जिसने कई शताब्दियों तक गुजरात में राज्य किया था। इस वंश की राजधानी अन्हिलवाड़ा में थी। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय सोमनाथ चावण राजा के ही अधिकार में था।
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चावना  : स०=चाहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चाँवर  : पुं० चावल। स्त्री० चँवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चावर  : पुं० =चावल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चावल  : पुं० [सं० तंडुल] १. धान के बीजों के अन्दर के दाने जिनकी गिनती प्रसिद्ध अन्नों में हैं। विशेष–इनका उबाला या पकाया हुआ रूप ही भात कहलाता है। मुहावरा–चावल चबवाना=जिन लोगों पर कोई चीज चुराने के संदेह हो, उन्हें जादू-टोना के रूप में इस उद्देश्य से कच्चे चावल चबवाना कि जो चोर होगा, उसके मुंह से थूकने पर खून निकलेगा। २. उबाला या पकाया हुआ चावल। भात। ३. बीजों के छोटे दाने जो किसी प्रकार खाने के काम में आवें। जैसे–तिन्नी या साँवे के चावल। ४. लगभग एक चावल की तौल जो रत्ती के आठवें भाग के रूप में मानी जाती है। पद–चावल भर (क) रत्ती के आठवें भाग के बराबर। (ख) बहुत ही थोड़ा।
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चाशनी  : स्त्री० [फा०] १. खाने के पहले चखकर देखी जानेवाली चीज या उसका कोई अंश। खाने की चीज का नमूना। २. गुड़, चीनी, मिसरी आदि के घोल को पकाकर गाढ़ा किया हुआ वह रूप जिसमें दवाएँ पकवान, मिठाइयाँ आदि पागी जाती हैं। शीरा। मुहावरा–चाशनी देखना=शीरा पकाने के समय यह देखना कि चाशनी ठीक तरह से तैयार हो गई है या नहीं। ३. किसी चीज का वह थोड़ा सा अंश जो किसी दूसरी चीज में उसका स्वाद बढ़ाने के लिए मिलाया जाय। जैसे–पीने के तमाकू में मिलाई हुई खमीर की चाशनी। ४. किसी चीज या बात का ऐसा आनंद मजा या स्वाद जो उक्त बात के प्रति लालसा उत्पन्न करे। चस्का। जैसे–जब तुम्हें अफीम (या शराब) की चाशनी मिल गई है, तब तुम उसे जल्दी नहीं छोड़ोगे। ५. चाँदी, सोने आदि का वह थोड़ा सा अंश जो सुनारों को गहने बनाने के लिए देने से पहले इसलिए अपने पास रख लिया जाता कि कि जब गहना बन जाय तब उससे मिलाकर देखा जा सके कि सुनार ने उसमें किसी तरह का खोट तो नही मिलाया है।
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चाशनीगीर  : पुं० [फा०] वह कर्मचारी जो नावाबों और बादशाहों के यहाँ उनके खाद्य पदार्थ पहले चखकर देखने के लिए नियुक्त होता था।
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चाष  : पुं० [सं०√चष् (खाना)+णिच्+अच्] १. नीलकंठ पक्षी। २. चाहा नामक पक्षी। पुं० चक्षु (नेत्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चास  : स्त्री० [हिं० चासा] १. खेत जोतने की क्रिया या भाव। जोताई। २. जोता हुआ खेत। स्त्री० [फा० चाशनी] किसी चीज की जाँच या परख के लिए उसमें से निकाला हुआ कुछ अँश। चाशनी।
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चासना  : अ० [हिं० चास] जोतना।
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चासनी  : स्त्री०=चाशनी।
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चासा  : पुं० [देश०] १. उड़ीसा की एक जाति जो खेती-बारी करती है। २. किसान। खेतिहर। ३. हल चलाने या जोतनेवाला। हलवाहा।
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चाह  : स्त्री० [सं० उत्साह, प्रा० उच्छाह] १. वह मनोवेग जो मनुष्य को ऐसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है जिससे उसे संतोष या सुख मिल सकता हो। जैसे–मुझे आपके दर्शनों की चाह थी। २. प्रेम या स्नेहपूर्वक किसी को चाहने की अवस्था या भाव। अनुराग। प्रेम। जैसे–दिल तो तुम्हारी ही चाह है। ३. चाहे जाने की अवस्था या भाव। आवश्यकता। गरज। जरूरत। जैसे–जिसकी यहाँ चाह है, उसकी वहाँ भी चाह है। ४. इस बात की जानकारी या परिचय कि किसे किस चीज की आवश्यकता या चाह है। उदाहरण–सब की चाह लेइ दिन राती।जायसी। ५. दे० चाव। पुं० [फा०] कूआँ। कूप। स्त्री०=चाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० चाल=आहट](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) १. खबर। समाचार। उदाहरण को सिहल पहुँचावै चाहा।–जायसी। २. टोह। ३. गुप्त भेद। रहस्य।
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चाहक  : वि० [हिं० चाहना] १. चाहनेवाला। २. अनुराग या प्रेम करनेवाला।
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चाहत  : स्त्री० [हिं० चाहता] किसी को अनुराग तथा उत्कंठापूर्वक चाहने की अवस्था, क्रिया या भाव। चाह। प्रेम।
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चाहना  : स्त्री० [हिं० चाह] १. ऐसी वस्तु की प्राप्ति अथवा ऐसे कार्य या बात की सिद्धि की इच्छा करना जिससे संतोष या सुख मिल सकता हो। जैसे– कौन नहीं चाहता की मैं धनी हो जाऊँ। २. किसी से कोई चीज लेने या कोई कार्य कर देने की विनयपूर्ण प्रार्थना करना। जैसै–हम तो आपकी की कृपा दृष्टि चाहते हैं। ३. अधिकार या अनधिकार पूर्वक किसी का या किसी से कुछ लेने की उत्कट या उग्र इच्छा व्यक्त करना। जैसे–मेरे भाई तो मेरी जान लेना चाहता है। ४. अनुराग, प्रेम या स्नेहपूर्वक किसी व्यक्ति को अपने पास और सुख से रखने की अभिलाषा या कामना करना। जैसे–माता अपने छोटे पुत्र को बहुत चाहती है। ५. श्रृंगारिक क्षेत्र में, स्त्री के मन में किसी पुरुष के प्रति क्रमात् कामवासना से युक्त अनुराग या प्रेम का भाव होना। जैसे–राजा अपनी छोटी रानी को सबसे अधिक चाहता था। ६. अनुराग, चाह या प्रेम से युक्त होकर किसी की ओर ताकना या देखना। जोहना। उदा०–अली अली की ओट ह्वै चली भली बिधि चाहि।–बिहारी। ७. साधारण रूप से देखना। दृष्टिपात करना। उदा०–चालिया चंदाणी मग चाहि।–प्रिथीराज। स्त्री० चाहने की अवस्था या भाव। जैसे–आपकी चाहना तो यहाँ भी है।
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चाहा  : पुं० [सं० चाष] एक प्रकार का जल-पक्षी जिसका सारा शरीर फूलदार और पीठ सुनहरी होती है। लोग मांस के लिए इसका शिकार करते हैं। यह कई प्रकार का होता है। जैसे–चाहा करमाठी=गर्दन सफेद बाकी सब अंग काले। चाहा चु्क्का=चोंच और पैर लाल; बाकी सब अंग खाकी; चाहा लमगोडा=लम्बी और चितकबरी चोंच वाला। पुं० [हिं० चाहना](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) [स्त्री० चाही] वह जिसे चाहा या जिससे प्रेम किया जाय। चहेता। प्रिय।
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चाहि  : अव्य० [सं० चैव=और भी?] बनिस्बत। से। किसी की तुलना में अधिक या बढकर। उदा०–कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा।–तुलसी।
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चाहिए  : अव्य० [हिं० चाहना] १. आवश्यकता या जरूरत है। जैसे–हमें वह पुस्तक चाहिए। २. उचित, मुनासिब या वाजिब है। जैसे–आगे से तुमको सँभलकर चलना चाहिए।
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चाही  : वि० [फा० चाह=कूआँ] (खेत) जो कूएँ के पानी से सींचा जाता हो।
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चाहे  : अव्य० [हिं० चाहना] १. ‘यदि जी चाहे’ का सक्षिप्त रूप। यदि जी चाहे। यदि मन में आवे। जैसे–(क) चाहे यहाँ रहो, चाहे वहाँ। (ख) जो चाहे सो करो। २. दो में से किसी एक वरण करने के प्रसंग में, जो इच्छा हो। जो चाहते हो। जैसे–चाहे कपड़ा ले लो, चाहे रुपया। ३. जो कुछ हो सकता हो, वह सब; या उनमें से कुछ। जैसे–चाहे जो हो, तुम वहाँ जरूर जाओ।
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चिआँ  : पुं०=चीयाँ (इमली का बीज)।
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चिंउँटा  : पुं०=च्यूँटा।(देखें)
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चिउँटा  : पुं०=च्यूँटा। (देखें)।
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चिउँटी  : स्त्री०=च्यूँटी।(देखें)
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चिउँटी  : स्त्री०=च्यूँटी।(देखे)
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चिउड़ा  : पुं०=चिड़वा।(देखें)
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चिउरा  : पुं०=चिड़वा।
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चिउली  : स्त्री० [देश०] १. महुए की जाति का एक जंगली पेड़ जिसमें एक प्रकार का तेल निकलता है जो मक्खन की तरह जम जाता है। और इसी लिए जो कहीं-कहीं घी में मिलाया जाता है। २. एक प्रकार का रंगीन रेशमी कपड़ा। स्त्री० [सं० चिपिट, प्रा० चिविड़, चिविल] चिकनी सुपारी।
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चिक  : स्त्री० [तु० चिक] बाँस या सरकँड़े की तीलियों का बना हुआ झँझरी-दार परदा। चिलमन। पुं० माँस बेचनेवाला कसाई। बूचड़। स्त्री० [अनु०] कमर, पीठ आदि में बल पड़ने के कारण सहसा उत्पन्न होनेवाला दर्द या चिलक। पुं०=चेक (दे० देयादेश)
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चिकट  : वि०=चिक्कट।
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चिकटना  : अ० [हिं० चिकट] चिक्कट से युक्त होना। मैल जमने के कारण चिपचिपा होना।
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चिकटा  : वि०=चिक्कट।
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चिकड़ी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है। इस लकड़ी की कंघियाँ बहुत अच्छी बनती हैं।
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चिकन  : पुं० [फा०] एक प्रकार का सूती कपड़ा जिस पर सूई और डोरे के कढ़े हुए उभारदार फूल या बूटियाँ बनी होती है।
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चिकनकारी  : स्त्री० [फा०] कपड़े पर सूई-डोरे की सहायता से उभारदार फूल, बूटियाँ आदि काढ़ने या बनाने की कला काम।
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चिकनगर  : पुं० [फा०] चिकन का काम करनेवाला कारीगर।
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चिकनदोज  : पुं०=चिकनगर।
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चिकना  : वि० [सं० चिक्कण, प्रा० चिक्कण्ण, गु० चिकोणु, मरा० चिक्कण] [वि० स्त्री० चिकनी] १. जिसका ऊपरी तल जरा भी ऊबड़-खाबड़ या खुरदुरा न हो, बल्कि इतना समतल हो कि हाथ फेरने से कहीं उभार न जान पड़े। जैसे–चिकना, पत्थर चिकनी लकड़ी। २. जिसका ऊपरी तल बहुत ही कोमल और समतल हो। जिस पर पैर या हाथ बिना किसी बाधा या रुकावट के आगे बढ़ता या फिसलता जाय। जैसे–चिकनी जमीन, चिकनी मलमल। ३. जिसका ऊपरी तल या रूप बना सँवारकर बहुत ही मोहक और स्वच्छ किया गया हो। जैसे–तुम्हारा यह चिकना मुँह देखकर ही कोई तुम्हें नौकरी देगा। मुहावरा–चिकने घड़े पर पानी पड़ना=अच्छी बातों का उसी प्रकार व्यर्थ सिद्ध होना जिस प्रकार चिकने घड़े पर पानी पड़ना इसलिए व्यर्थ सिद्ध होता है कि वह पानी तुरंत बहकर नीचे चला जाता है। पद–चिकना घड़ा (क) वह जिस पर उपदेश, दंड आदि का कुछ भी प्रभाव न पड़ता हो, फलतः निर्लज्ज या लापरवाह। (उक्त मुहावरे के आधार पर) चिकना-चुपड़ा= (क) घी, तेल आदि अच्छी तरह लगाकर चिकना और साफ करना। (ख) अच्छी तरह सजाया हुआ। (ग) ऊपर से देखने पर बहुत अच्छा जान पड़ने या प्रिय लगनेवाला। जैसे–चिनकी-चुपड़ी बातें। ४. जिस पर घी, चरबी तेल या ऐसा ही और कोई स्निग्ध पदार्थ चुपड़ा या लगा हो। जिसका खुरदरापन या रूखाई किसी प्रकार दूर कर दी गई हो। ५. जिसका ऊपरी रूप केवल दिखाने के विचार से सँवारकर सुन्दर बनाया गया हो। मुहावरा–चिकना देखकर फिसल पड़ना=केवल वैभव, सजावट, सौन्दर्य आदि देखकर मोहित होना। केवल ऊपरी रूप देखकर रीझना। ६. केवल दूसरों को प्रसन्न करने के लिए चिकनी-चुपड़ी अर्थात् मीठी और सुन्दर बातें कहनेवाला। खुशामदी। चाटुकार। ७. अनुराग, प्रेम या स्नेह करनेवाला। (क्व०)। पुं० घी चरबी तेल आदि चिकने पदार्थ। जैसे–इसमें चिकना बहुत अधिक पड़ा है।
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चिकनाई  : स्त्री० [हिं० चिकना+ई(प्रत्य०)] १. चिकने होने की अवस्था या भाव। चिकनापन। चिकनाहट। २. मन, व्यवहार आदि की सरसता या स्निग्धता। ३. घी, तेल आदि चिकने पदार्थ।
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चिकनाना  : स० [हिं० चिकना] १. खुरदरापन दूर करके ऊपरी तल चिकना, सम या साफ करना। २. घी, तेल या कोई चिकना पदार्थ लगाकर रूखापन दूर करना। ३. किसी प्रकार साफ या स्वच्छ करना या बनाना-सँवारना। ४. केवल बिगड़ी हुई बातें बनाने के लिए बनावटी बातें कहना। अ० १. चिनका होना। २. चिकने पदार्थ से युक्त होकर स्निग्ध बनना। ३. शरीर में कुछ चरबी भरने और ऊपर से सँवारे-सजाये जाने के कारण डील-डौल या रूप रंग अच्छा निकलना या बनना। जैसे–जब से उनका रोजगार चला है, तब से बहुत कुछ चिकना गये है। ४. अनुराग स्नेह आदि से युक्त होना। उदाहरण–ज्यों ज्यों रुख रुखो करति त्यों-त्यों चित चिकनाय।–बिहारी।
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चिकनापन  : पुं० [हिं० चिकना+पन (प्रत्यय)] चिकने होने की अवस्था या भाव। चिकनाई। चिकनाहट।
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चिकनावट  : स्त्री० [हिं० चिकना] १. चिकनी-चुपड़ी बातें कहने की अवस्था या भाव। २. बिगड़ा हुआ काम बनाने के लिए मीठी बातें कहने की क्रिया या भाव। जैसे–तुम्हारी यह चिकनाहट हमें अच्छी नहीं लगती। ३. दे० ‘चिकनाहट’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिकनाहट  : स्त्री० [हिं० चिकना+हट (प्रत्यय)] चिकने होने की अवस्था या भाव। चिकनापन।
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चिकनिया  : वि० [हिं० चिकना] (व्यक्ति) जो प्रायः या सदा तेल-फुलेल आदि लगाकर और खूब बन-ठनकर रहता हो। छैला और बाँका। सजधजवाला और सुन्दर। उदाहरण–सूरदास प्रभु तजी कामरी अब हरि भय चिकनियाँ।–सूर।
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चिकनी-मिट्टी  : स्त्री० [हिं० चिकनी+मि्टटी] १. एक प्रकार की लसदार मिट्टी जो सिर मलने आदि के काम आती है। करैली मि्टटी। २. पीले या सफेद रंग की वह लसीली मिट्टी जो हाथ धोने तथा जमीन दीवार आदि लीपने-पोतने के काम आती है।
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चिकनी-सुपारी  : स्त्री० [सं० चिक्कणी] एक प्रकार की उबाली हुई बढ़िया सुपारी जो चिपटी और अधिक स्वादिष्ट होती है। चिकनी डली।
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चिकर  : पुं०[देश] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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चिकरना  : अ० [सं० चीत्कार, प्रा० चीक्कार, चिम्कार] १. चीत्कार करना। जोर से चिल्लाना। २. चिघाड़ना
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चिकवा  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का टसर। २. उक्त टसर का बना हुआ कपड़ा। चिकट। पुं०=चिक (कसाई)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिकार  : पुं० [सं० चीत्कार, प्रा० चिक्कार] १. चीत्कार। चिल्लाहट। क्रि० प्र० पड़ना।-मचना।-मचाना। २. चिंघाड़।
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चिकारना  : अ० [हिं० चिकार] १. चीत्कार करना। चिल्लाना। २. हाथी का चिघाड़ना।
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चिंकारा  : पुं०=चिकारा।
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चिकारा  : पुं० [हिं० चिकार] [स्त्री० अल्पा० चिकारी] १. सारंगी की तरह की एक बाजा जो घोड़े की बालों की कमानी से बजाया जाता है। २. [स्त्री० चिकारी] हिरन की जाति का एक जानवर जो बहुत तेज दौड़ता है और अपनी बड़ी तथा सुन्दर आँखो के लिए प्रसिद्ध है। इसके स्वादिष्ट मांस के लिए इसका शिकार किया जाता है। छिकरी। छिगार।
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चिकारी  : स्त्री० [हिं० चिकारा] १. छोटा चिकारा। २. मच्छर की तरह का एक फतिंगा। स्त्री०=चीत्कार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिकित  : पुं० [सं०√कित (ज्ञाने)+यङ-लुक्, द्वित्वादि,+अच्] एक ऋषि का नाम।
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चिकितायन  : पुं० [सं० चिकित+फक्-आयन] चिकित ऋषि के वंशज।
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चिकित्सक  : पुं० [सं०√कित+सन्, द्वित्वादि,+ण्वुल्-अक] रोगों की चिकित्सा करनेवाला वैद्य।
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चिकित्सन  : पुं [सं०√कित्+सन्, द्वित्वादि+ल्युट्–अन] चिकित्सा करना।
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चिकित्सन-प्रमाणक  : पुं० [ष० त०] वह प्रमाण-पत्र जिसमें चिकित्सक किसी की अवस्था या अस्वस्थता को प्रमाणित करता है। (मेडिकल सर्टिफिकेट)
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चिकित्सा  : स्त्री० [सं०√कित+सन्, द्वित्वादि,+अ-टाप्] १. वे सब उपाय और कार्य जो किसी रोगी का रोग दूर कर उसे स्वस्थ बनाने के लिए किये जाते हैं। इलाज। (ट्रीटमेट) २. वैद्य का काम या व्यवसाय। ३. उक्त की कोई विशिष्ट प्रणाली या ढंग। (थेरैपी) जैसे–जल चिकित्सा, विद्युत-चिकित्सा।
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चिकित्सा-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें अनेक प्रकार के लोगों के लक्षणों और चिकित्साओं का विवेचन होता है। (मेडिकल सायन्स)।
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चिकित्सालय  : पुं० [चिकित्सा-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ रोगियों की चिकित्सा की जाती है। अस्पताल। दवाखाना।
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चिकित्सावकाश  : पुं० [चिकित्सा-अवकाश, ष० त०] वह अवकाश या छुट्टी जो किसी रोगी कर्मचारी को चिकित्सा कराने के लिए मिलती है। (मेडिकल लीव)
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चिकित्सित  : भू० कृ० [सं०√कित+सन्, द्वित्वादि,+क्त] जिसकी चिकित्सा या दवा की गई हो। जिसका इलाज किया गया हो। पुं० एक प्राचीन ऋषि का नाम।
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चिकित्सु  : पुं० [सं०√कित+सन्, द्वित्वादि,+उ] चिकित्सक।
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चिकित्स्य  : वि० [सं०√कित+सन्, द्वित्वादि,+यत्] १. (रोग) जिसे दूर किया जा सके। २. (रोगी) जिसे स्वस्थ्य बनाया जा सके। (क्योरेबुल; उक्त दोनों अर्थों में)
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चिकिन  : वि० [सं० नि=नत नासिका+इनच्, चिक् आदेश] चिपटी नाकवाला। पुं०=चिकन।
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चिकिल  : पुं० [सं०√चि (चयन)+इलच् क् आगम] कीचड़। पंक।
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चिकीर्षक  : वि० [सं०√कृ (करना)+सन्, द्वित्वादि+ण्वुल्-अक] (व्यक्ति) जो कोई कार्य करने के लिए इच्छुक हो।
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चिकीर्षा  : स्त्री० [सं०√कृ+सन्, द्वित्वादि,+अ–टाप्] [वि० चिकीर्षित,चिकीर्ष्य] कुछ या कोई काम करने अथवा कोई काम जानने की इच्छा।
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चिकुटी  : स्त्री०=चिकोटी।
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चिकुर  : पुं० [सं० चि√कुर् (शब्द करना)+क] १. सिर के बाल। केश। २. पर्वत। पहाड़। ३. रेंगकर चलनेवाले जंतु। सरीसृप ४. एक प्रकार का पक्षी। ५. एक प्रकार का वृक्ष। ६. छछूँदर। ७. गिलहरी। वि० चंचल। चपल।
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चिकुर-पक्ष  : पुं० [ष० त] १. सिर के सँवारे और सजाये हुए बाल। २. बालों की लट। जुल्फ।
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चिकुर-भार  : पुं० [ष० त]=चिकुर-पक्ष।
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चिकुर-हस्त  : पुं० [ष० त०]=चिकुर-पक्ष।
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चिकुला  : पुं० [सं० चिकुर] १. चिकुर नामक पक्षी का बच्चा। २. चिड़िया का बच्चा।
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चिकूर  : पुं० [सं० चिकुर, नि०-दीर्घ]=चिकुर (केश)।
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चिकोटी  : स्त्री० [अनु०] हाथ की चुटकी की वह मुद्रा जिससे किसी के शरीर का थोड़ा-सा मांस पकड़कर (उसे पीड़ित अथवा कभी सचेत करने के लिए) दबाया जाता है। चुटकी।
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चिक्क  : वि० [सं० चिक्√कै (शब्द करना)+क] चिपटी नाकवाला। पुं० छछूँदर। पुं० चिक (कसाई)। स्त्री०=चिक (तीलियों का झँझरीदार परदा)।
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चिक्कट  : वि० [सं० चिक्लिद] १. चिकनाहट और मैल से भरा हुआ। जिस पर तेल आदि की मैल जमी हो। बहुत गंदा और मैला। २. चिपचिपा। लसीला। पुं० [?] १. एक प्रकार का टसर या रेशमी कपड़ा। २. वे कपड़े जो भाई अपनी बहन को उसकी संतान के विवाह के समय देता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिक्कण  : वि० [सं० चित्√कण (शब्द करना)+क] चिकना। पुं० १. सुपारी का पेड़ और उसका फल। २. हरीतकी। हर्रे। ३. आयुर्वेद में पाक बनाने के समय उसके नीचे की आँख की एक अवस्था।
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चिक्कणा  : स्त्री० [सं० चिक्कण+टाप्]=चिक्कणी।
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चिक्कणी  : स्त्री० [सं० चिक्कण+ङीष्] १. सुपारी। २. हड़। हर्रे।
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चिक्कन  : वि०=चिकना।
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चिक्करना  : अ० [सं० चीत्कार] चीत्कार करना। जोर से चिल्लाना।
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चिक्कस  : पुं० [सं०√चिक्क (पीसना)+असच्] १. जौ का आटा अथवा जौ के आटे का बना हुआ भोजन। २. तेल, और हल्दी के योग से बनाया हुआ जौ के आटे का उबटन जो प्रायः यज्ञोपवीत के समय वटु के शरीर पर मला जाता हैं। पुं० [देश०] लोहे, पीतल आदि के छड़ का बना हुआ वह अड्डा जिस पर तोते, बाज, बुलबुल आदि पक्षी बैठाये जाते है।
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चिक्का  : स्त्री० [सं०√चिक्क्+अच्-टाप्] सुपारी। पुं०√चिक्किर (चूहा)। पुं०=चक्का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिक्कार  : पुं०=चीत्कार।
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चिक्किर  : पुं० [सं० चिक्क+इरच्] १. एक प्रकार का जहरीला चूहा जिसके काटने से सूजन होती है। २. गिलहरी।
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चिक्लिद  : पुं० [सं० क्लिद् (गीला करना)+यङ्-लुक्, द्वित्वादि+अच्] १. आर्द्रता। नमी। २. चंद्रमा।
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चिखना  : पुं० [हिं० चखना] मद्यपान के समय चखी या खाई जानेवाली चटपटी चीज। चाट। स०=चखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिखर  : पुं० [सं० चिकुर या चिक्क] चने का छिलका या भूसी। चने की कराई।
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चिखल्ल  : पुं० [सं०] १. कीचड़। २. दलदल।
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चिखुरन  : स्त्री० [सं० चिकुर?] पौधों आदि के आस पास आप से आप उग आनेवाली घास।
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चिखुरना  : स० [हिं० चिखुरन] पौधों आदि के आपस-पास उगी हुई घास को निकालना।
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चिखुरा  : पुं० [सं० चिक्किर या चिकुर] [स्त्री० चिखुरी] नर गिलहरी। गिलहरा।
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चिखुराई  : स्त्री० [हिं० चिखुराना] चिखुरने अर्थात् पौधों आदि आस-पास उगी हुई घास को उखाड़ने तथा निकालने की क्रिया, भाव या मजदूरी। स्त्री० [हिं० चीखना=चखना] चखने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक।
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चिखुरी  : स्त्री० [हिं० चिखुरा] गिलहरी।
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चिखौनी  : स्त्री० [हिं० चीखना] १. चखने या स्वाद देखने की क्रिया या भाव। २. मद्य आदि के साथ चखकर खाई जानेवाली चीज। चाट।
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चिंगट  : पुं० [सं०] [स्त्री०अल्पा० चिंगटी] झींगा मछली।
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चिंगड़ा  : पुं० [सं० चिंगट] झींगा(मछली)।
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चिंगना  : पुं० [सं० चिंगट?] १. मुरगी आदि का छोटा बच्चा। २. छोटा बच्चा।
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चिंगारी  : स्त्री०=चिनगारी।
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चिंगुड़ना  : अ० [हिं० सिकुड़ना] १. सूखने आदि के कारण ऊपरी तल में झुर्रियाँ या शिकन पडना। जैसे–शरीर का चमड़ा चिंगुडना। २. एक ही स्थिति में रहने अथवा तनाव या दबाव पड़ने और फलतः खून का दौरा रुकने के कारण नसों आदि का इस प्रकार तनना या सिकुड़ना कि वह अंग सहसा उठाया या फैलाया न जा सके। ३. संकुचित होना। सिकुड़ना। जैसे–कपड़ा चिंगुड़ना।
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चिंगुड़ा  : पुं० [हिं० चिंगुड़ना] बहुत देर तक एक स्थिति में रहने के कारण किसी अंग के चिंगुड़ने की स्थिति जिसमें वह अंग फैलाने से जल्दी न फैले। क्रि० प्र०–लगना। पुं० [??] एक प्रकार का बगला।
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चिंगुरना  : अ०=चिंगुड़ना।
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चिंगुरा  : पुं०=चिंगुड़ा।
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चिंगुला  : पुं० [देश०] १. बच्चा। बालक। २. पक्षियों आदि का बच्चा।
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चिग्ग  : स्त्री० चिक (बाँस की तीलियों का झँझरीदार परदा)।
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चिंघाड़  : स्त्री० [सं० चीत्कार] १. हाथी के बहुत जोर से चिल्लाने या बोलने का शब्द। २. किसी के सहसा उत्तेजित होकर बहुत जोर से चिल्लाने की ध्वनि या शब्द।(क्व०)
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चिंघाड़ना  : अ० [सं० चीत्कार] १. हाथी का बहुत जोर से चिल्लाना या बोलना। २. उक्त प्रकार से सहसा जोर की ध्वनि या शब्द करना। चिल्लाना। चीखना।
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चिंघाना  : अ०=चिंघाडना।
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चिचड़ा  : पुं० [सं० चिचड़] १. डेढ, दो हाथ ऊँचा एक प्रकार का बरसाती पौधा जिसकी डालों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर गाँठे होती हैं। इसकी जड़, पत्तियाँ आदि दवा के काम आती हैं। इसके फल ककड़ी की तरह के होते और तरकारी के काम आते हैं। २. अपामार्ग। ३. पशुओं के शरीर में चिमटकर उनका खून पीनेवाला एक प्रसिद्ध कीड़ा। किलनी।
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चिचड़ी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो गाय, बैलआदि पशुओं के विभिन्न अंगों में चिपटा रहता है और उनका खून पीता है। किलनी।
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चिंचा  : स्त्री० [सं० चिम्√चि (चयन)+ड-टाप्] १. इमली। २. इमली का बीज। चीआँ।
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चिंचाटक  : पुं० [सं० चिंचाअट् (गमनादि+)ण्वुल्-अक] चेंच नामक साग।
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चिचान  : पुं० [सं० सचान] बाज पक्षी।
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चिंचाम्ल  : पुं० [सं० चिंचा-अम्ल, उपमि० स०] चूका नामक साग।
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चिचावना  : अ०=चिल्लाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिंचिका  : स्त्री० [सं० चिंचा+कन्-टाप्, हृस्व,इत्व] घुँघची। गुंजा।
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चिचिंगा  : पुं०=चचींड़ा।
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चिचिंडा़  : पुं०=चचींड़ा।
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चिंचिनी  : स्त्री० [सं०] १. इमली का पेड़। २. इमली की फली।
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चिचियाना  : अ० [अनु० चीं चीं] [भाव० चिचियाहट] बार-बार जोर से चिल्लाना।
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चिचियाहट  : स्त्री०=चिल्लाहट।
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चिंची  : स्त्री० [सं० चिंच+ङीष्] गुंजा। घुँघची।
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चिचुकना  : अ०=चुचुकना।
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चिचेड़ा  : पुं०=चचींड़ा।
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चिंचोटक  : पुं० [सं० चिंचाटक, पृषो० सिद्धि] चेंच नाम का साग।
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चिचोड़ना  : स०=चचोड़ना।
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चिचोड़वाना  : स०=चचोड़वाना।
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चिच्छक्ति  : स्त्री० [सं० चिद्-शक्ति, कर्म० स०] चेतना शक्ति।
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चिच्छल  : पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी।
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चिंजा  : पुं० [सं० चिरंजीव] [स्त्री० चिंजी] १. पुत्र। बेटा। २. बालक। लड़का। ३. जीव-जंतुओं का छोटा बच्चा।
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चिजारा  : पुं० [?] मकान बनानेवाला कारीगर। मेमार। राज।
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चिज्जड़  : वि० [सं० चिद्-जड़, कर्म० स०] जो कुछ अंशों में चेतन और कुछ अंशों में जड़ हो।
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चिट  : स्त्री० [हिं० चिट्ठी से?] १. कागज का वह छोटा टुकड़ा जिस पर कोई बात लिखी जाय। छोटा पत्र। रुक्का। २. कागज कपड़े आदि का फटा हुआ कोई छोटा लंबा टुकड़ा। धज्जी।
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चिटक  : वि०=चिक्कट या चीकट (बहुत गंदा और मैला)।
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चिटकना  : अ० [अनु० चिट चिट+ना (प्रत्यय)] १. कड़े तलवाले पदार्थ का चिट शब्द करते हुए टूटना अथवा उसमें पतली दरार पड़ना। जैसे–लालटेन की चिमनी चिटकना। २. लकड़ी का जलते समय चिट चिट शब्द करते हुए चिगारियाँ छोड़ना। ३. चिट शब्द करते हुए खिलना। जैसे–कलियों का चिटकना। ४. अपनी इच्छा के अनुसार कोई कार्य न होते देख अथवा अपने विरूद्ध कोई कार्य या बात होते देखकर सहसा कुछ बिगड़ खड़े होना। ५. चिढ़ना।
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चिटकनी  : स्त्री०=सिटकनी।
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चिटका  : पुं०=चिता।
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चिटकाना  : स० [अनु०] १. किसी चीज को चिटकने में प्रवृत्त करना। २. किसी व्यक्ति को खिझाना या चिढ़ाना।
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चिटनवीस  : पुं० [हिं० चि+फा० नवीस] मध्ययुग में दक्षिण भारतीय दरबारों आदि में चिट्ठी-पत्री या हिसाब-किताब लिखनेवाला कर्मचारी। मुहर्रिर। लेखक।
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चिटनीस  : पुं०=चिटनवीस।
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चिटी  : स्त्री० [सं०√चिट् (प्रेरणा)+क-ङीष्] चांडाल वेष धारिर्णी योगिनी, जिसकी उपासना वशीकरण के लिए की जाती है। (तंत्रशास्त्र)।
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चिटुकी  : स्त्री०=चुटकी।
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चिट्ट  : स्त्री०=चिट।
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चिट्टा  : वि० [सं० सित, प्रा० चित] [स्त्री० चिट्टी] जिसका रंग या वर्ण सफेद हो। जैसे–कपड़ा धोने से चिट्ठा हो जाता है। पुं० १. कुछ विशेष प्रकार की मछलियों के ऊपर का सीप के आकार का बहुत सफेद छिलका या पपड़ी जिससे रेशम के लिए माँड़ी तैयार की जाती है। २. रुपया। (दलालों की बोली)। पुं० [चटचट शब्द से अनु?] वह उत्तेजना जो किसी को कोई ऐसा काम करने के लिए दी जाय जिसमें उसकी हानि या हँसी हो। झूठा बढ़ावा। क्रि० प्र०–देना। मुहावरा–चिट्टा लड़ानाउक्त प्रकार की उत्तेजना देकर किसी को कुछ अनुचित काम करने में प्रवृत्त करना।
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चिट्ठा  : पुं० [हिं० चिट्ठी का पुं० रूप] १. आय-व्यय या लेन-देन का वह हिसाब जो मुख्यतः एक ही कागज पर लिखा गया हो। उदाहरण–दिया चिट्ठा चाकरी चुकाई।–कबीर। मुहावरा–चिट्ठा बाँटना-(क) दैनिक मजदूरी पर काम करनेवाले मजदूरों की मजदूरी चुकाना। जैसे–अब मंगल के दिन चिट्ठा बँटेगा। (ख) चिट्ठे पर लिखे हुए आदमियों को अन्न या रसद बाँटना। चिट्ठा बाँधना=आय व्यय आदि का लेखा तैयार करना। २. वह कागज जिस पर नियमित रूप से किसी निश्चित अवधि के आय-व्यय आदि का मोटा हिसाब लिखा रहता है और जिससे यह पता चलता है कि इस काम में कितना आर्थिक लाभ या हानि हुई। जैसे–कोठी या दूकान का छमाही या सालाना चिट्ठा। ३. वह कागज जिस पर प्राप्य धनराशि का विवरण लिखा रहता है। मुहावरा–चिट्ठा उतारना (क) चिट्ठा तैयार करना या बनाना। (ख) चिट्ठे पर लिखी हुई रकम वसूल करना। (ग) लोगों से रकम वसूल करते हुए चिट्ठे पर क्रमशः लिखते या लिखाते चलना। ४. किसी प्रकार के काम में लगनेवाले धन का विवरण। खरच के मदों की सूची। जैसे–ब्याह का चिट्ठा मकान की मरम्मत का चिट्ठा। ५. किसी काम या बात का पूरा ब्योरा या विस्तृत विवरण। पदृ-कच्चा चिट्ठा (क) आय-व्यय आदि का वह आरंभिक विवरण जो अभी पूरी तरह से जँचा न हो अथवा ठीक और पक्का न माना जा सकता हो। जैसे–पहले कच्चा चिट्ठा तैयार कर लो फिर रोकड़ चढ़ाना। (ख) किसी आदमी के आचरण, व्यवहार आदि का अथवा घटना के संबंध की ऐसी बातों का विवरण जो अभी तक पूरी तरह से सबके सामने न आया हो अथवा जिसमें कुछ ऐसी बातें हों जो अनुचित होने के कारण साधारणतः सब लोगों के सामने आने योग्य न हो। जैसे–अब तुम चुपचाप बैठे रहो नहीं तो वह तुम्हारा सारा कच्चा चिट्ठा खोलकर रख देगा। क्रि० प्र०–खोलना।
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चिट्ठी  : स्त्री० [सं० चिट् (?) चिट्टीका-चिट्टी, फा० चिट, उ० बँ० मरा० सिं० चिठी, पं० चिट्ठी] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जानेवाला कागज का वह टुकड़ा जिस पर सूचना आदि के लिए कुछ समाचार लिखे हों। खत। पत्र। २. मध्ययुग में किसी के नाम लिखा हुआ वह पत्र जिसमें किसी को कुल रुपए देने का आग्रह या आदेश होता है। मुहावरा–(किसी के नाम) चिट्टी करना=किसी के नाम इस आशय का पत्र लिखना कि अमुक व्यक्ति या पत्र-वाहक को हमारे हिसाब में इतने रुपए दे दो। (किसी की) चिट्ठी भरना=(क) किसी के लिखे हुए पत्र के अनुसार कुछ रुपए देना। (ख) किसी प्रकार की विवशता के कारण किसी दूसरे का ऋण, देन आदि चुकाना या और किसी तरह का खरच करना। जैसे–नानी खसम करे, दोहता चिट्ठी भरे।–कहा०। ३. कागज का कोई छोटा टुकड़ा या पुरजा जिस पर कुछ लिखा हो। जैसे–निमंत्रणा या ब्राह्मण भोजन की चिट्ठी। ४. वह कागज या पत्र जिस पर कहीं भेजे जानेवाले माल की तालिका मूल्य विवरण आदि लिखे रहते हैं। ५. एक क्रियात्मक प्रणाली जिसके अनुसार कुछ नाम या समस्या के नहिक और सहिक सूचक संकेत कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर अलग-अलग लिखकर उन कागजों की छोटी गोलियाँ बनायी जाती हैं; और तब उनमें से कोई गोली उठाकर यह निश्चय किया जाता है कि अमुक काम कौन करे, अमुक चीज किसे मिले अथवा अमुक काम किया जाना चाहिए या नहीं। गोटी। (बैलट) क्रि० प्र०–उठाना।–डालना।–निकलना।-पड़ना।
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चिट्ठी-पत्री  : स्त्री० [हिं० चिट्ठी+पत्री] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जानेवाला खत। पत्र। २. आपस में चिट्ठियाँ या पत्र भेजने-मँगाने आदि का व्यवहार। पत्र-व्यवहार। पत्रालाप। (कारेस्पान्डेन्स)
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चिट्ठीरसाँ  : पुं० [हिं० चिट्ठी+फा० रसाँ] डाकखाने में आई हुई चिट्ठियाँ बाँटनेवाला कर्मचारी। डाकिया।
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चिंड  : पुं० [सं०] नृत्य का एक प्रकार या भेद।
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चिड़  : स्त्री० [सं० चटक] चिडिया। पक्षी। उदाहरण–चारौं पल ग्रीधणी चिड़।–प्रिथीराज। स्त्री=चिढ़।
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चिड़चिड़ा  : वि० [हिं० चिड़चिड़ाना] [स्त्री० चिड़चिड़ी] १. (व्यक्ति) जो बिना किसी बात के अथवा बहुत ही साधारण बाते से चिढ़कर बिगड़ खड़ा होता हो। बात-बात पर कुद्ध हो जानेवाला। जैसे–रुपए-पैसे की तंगी से वे चिड़चिड़े हो गये हैं। २. (स्वभाव) जिसमें चिड़चिड़ापन हो। ३. जो चिड़चिड़े या चिट चिट शब्द करता हुआ जलता हो। जैसे–चिड़ चिड़ लकड़ी। पुं० [अनु०] भूरे रंग का एक प्रकार का छोटा पक्षी। पुं०=चिचड़ा(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिड़चिड़ाना  : अ० [अनु०] [भाव० चिड़चिड़ाहट] १. (व्यक्ति के संबध में) जरा-सी बात से चिढ़कर क्रोध-भरी बातें कहना। नाराज होना। बिगड़ बैठना। २. (काठ या जलावन के संबंध में) जलने या जलाने पर चिड़ चिड़ शब्द होना। ३. (पदार्थ के संबंध में) ऊपरी तल का सूख कर जगह-जगह से थोड़ा बहुत उखड़ या फट जाना। जैसे–चमड़े का पट्टा या जूता चिड़चिड़ाना। स० किसी व्यक्ति को इस प्रकार अप्रसन्न या रुष्ट करना कि वह चिढ़ या बिगड़कर उलटी-सीधी बातें कहने लगे। जैसे–तुमने तो आते ही उन्हें चिड़चिड़ा दिया।
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चिड़चिड़ा़हट  : स्त्री० [हिं० चिड़चिड़ाना+हट (प्रत्य०)] १. चिड़चिड़ाने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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चिड़वा  : पुं० [सं० चिविट] हरे भिगोये या कुछ उबाले हुए धान को भाड़ में भूनकर और फिर कूटकर बनाया हुआ उसका चिपटा दाना। चिउड़ा।
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चिड़ा  : पुं० [हिं० चिड़ी का पुं०] गौरा या गौरैया पक्षी का नर।
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चिड़ाना  : स० दे० ‘चिढ़ाना’।
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चिड़ारा  : पुं० [देश०] नीची जमीन का खेत जिसमें जड़हन बोया जाता है। डबरी।
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चिड़िया  : स्त्री० [सं० चटिका, प्रा० चड़िआ या सं० चिरि=तोता] १. वह जीव जो पंखों या परों की सहायता से आकाश में उड़ता है। पक्षी। मुहावरा–चिड़िया के छिनाले में पकड़ा जाना=अकारण झंझट में पड़ना या फँसना। २. गोरैया। पद–चिड़िया का दूध=ऐसी चीज जो वास्तव में उसी प्रकार न होती हो, जिस प्रकार चिड़ियों का दूध नहीं होता। चिड़िया-नोचन=ऐसी स्थिति जिसमें चारों ओर से लोग उसी प्रकार तंग या परेशान करते हों, जैसे–चिड़िया के पर नोचे जाते हैं। ३. ऐसा मालदार असामी जिससे कुछ धन ऐंठा या ठगा जा सकता हो। ४. कोई युवती और सुन्दर परन्तु कुछ दुशचरित्रा स्त्री। (बाजारू)। पद–सोने की चिड़िया (क) बहुत बड़ा और मालदार असामी। (ख) बहुत रूपवती और सुंदर स्त्री। ५. काठ का वह डंडा जिसके दोनों ओर निकला हुआ कुछ लंबोतरा अंश होता है और जो किसी चीज के नीचे बैसाखी की तरह टेक या सहारे के लिए लगाया जाता है। जैसे–डोली या पालकी रोकने के समय डंडों के नीचे लगाई जानेवाली चिड़िया। ६. उक्त आकार का लोहे का वह टुकड़ा जो तराजू की डाँड़ी के ऊपर और नीचे लगा रहता है। ७. अँगिया, कुरती आदि में लगे हुए वे गोलाकार टुकड़े जिनमें स्त्रियों के स्तन रहते हैं। कटोरी। ८. पायजामें, लहँगे आदि का वह ऊपरी नलाकार अंश जिसमें इजारबंद या नाला डाला जाता है। नेफा। ९. ताश के चार रंगों में एक रंग जो काला और प्रायः पक्षी के आकार का होता है। चिड़ी। (शेष तीन रंग हुकुम, पान, और ईट कहलाते हैं।) १॰. एक प्रकार की सिलाई जिसमें पहले कपड़े के दोनों पल्ले सीकर तब सिलाई की ओर वाले उनके दोनों सिरों को अलग-अलग उन्हीं पल्लों पर उलट कर इस प्राकार बखिया कर देते हैं कि एक प्रकार की बेल-सी बन जाती है।
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चिड़िया-घर  : पुं० [हिं० पद] वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार के पशु-पक्षी आदि जन-साधारण को प्रदर्शित करने के लिए एकत्र करके रखे जाते हैं। चिड़िया-खाना। (जू)।
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चिड़िया-चुनमुन  : पुं० [हिं० चिड़िया+अनु०] चिड़िया और उनकी तरह के दूसरे छोटे जीव-जंतु।
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चिड़ियाखाना  : पुं०=चिड़िया-घर।
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चिड़िहार  : पुं० [हिं० चिड़िया+हार (प्रत्यय)] चिड़िया पकड़ने वाला व्यक्ति। बहेलिया।
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चिड़ी  : स्त्री० [हिं० चिड़िया] १. चिड़िया। पक्षी। पखेरू। २. ताश का चिड़िया नामक रंग।
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चिड़ीमार  : पुं० [हिं० चिडी+मारना] चिड़ियाँ पकड़ने या फँसानेवाला। बहेलिया।
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चिढ़  : स्त्री० [हिं० चिढ़ना] १. चिढ़ने की अवस्था, क्रिया, या भाव। २. किसी विशिष्ट काम या बात के प्रति होनेवाली वह मनोवृत्ति जिसमें वह चिढ़ता (अर्थात् अप्रसन्न होता या खीझता) हो। किसी के प्रति होनेवाला रोषपूर्ण विराग। जैसे–मुझे चालबाजी और झूठ से बहुत चिढ़ है। ३. किसी के संबंध में ढूढंकर निकाली या बनाई हुई वह बात जिससे वह बहुत चिढ़ता हो। जैसे–उनकी चिढ़ ‘करेला’ थी। अर्थात् करेला कहने या दिखाने पर वे बहुत चिढ़ते थे। मुहावरा–(किसी की) चिढ़ निकालना=किसी को चिढ़ाने के लिए कोई खास बात ढूँढ़ निकालना। जैसे–जब वह सिरके के नाम से बहुत चिढ़ने लगे तो उनके लिए सिरके की चिढ़ निकाली।
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चिढ़कना  : अ०=चिढ़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिढ़काना  : स०=चिढ़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिढ़ना  : अ० [हिं० चिड़चिड़ाना] १. कोई अप्रिय या अरुचिकर घटना देख या बात सुनकर दुखी या क्रुद्ध होना। जैसे–(क) वे पैसे के नाम पर चिढ़ जाते हैं। (ख) उन्हें स्त्री जाति से चिढ़ है। २. वैर-विरोध आदि के कारण किसी का नाम अथवा उसका कार्य या बात सुनना या देखना न पसंद करना। जैसे–वह तुम्हारे नाम से चिढ़ता है।
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चिढ़वाना  : स० [हिं० चिढ़ाना का प्रे०] किसी को दूसरे से चिढ़ाने का काम कराना।
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चिढ़ाना  : सं० [हिं० चिढ़ना] १. जान-बूझकर कोई ऐसा काम करना या बात कहना जिससे कोई चिढ़ और नाराज हो। अप्रसन्न और खिन्न करना। खिझाना। जैसे–तुम तो मेरा नाम लेकर उन्हें और भी चिढ़ाते हो। २. किसी को अप्रसन्न या खिन्न करने के लिए उसी की तरह की कोई चेष्टा करना या मुद्रा बनाना। नकल उतारना। मुहावरा–(किसी का) मुँह चिढ़ाना उपहास करने के लिए उपेक्षापूर्वक किसी के बोलने, हँसने आदि अथवा मुख की आकृति का विद्रूपित अनुकरण करना बहुत बिगाड़कर वैसा ही मुँह बनाना जैसा किसी दूसरे का हो। जैसे–रास्ते में लड़के बुढिया को मुँह चिढ़ाते थे। ३. किसी का उपहास करके उसे अप्रसन्न और खिन्न करने के लिए बार-बार कोई काम करना या बात कहना। जैसे–अब तो घर के लड़के भी उन्हें चिढा़ने लगे हैं।
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चिढ़ौनी  : स्त्री० [हिं० चिढ़ाना] ऐसी बात जो किसी को केवल चिढ़ाने के लिए प्रायः बार-बार कही जाती हो। छेड़।
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चिंत  : स्त्री० १.=चिंतन। २.=चिंता।
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चित  : वि० [सं०√चि (चयन करना)+क्त] १. चुनकर इकट्ठा किया हुआ। ढेर के रूप में लगाया हुआ। २. ढका हुआ। आच्छादित। वि० [सं० चित्र] इस प्रकार जमीन पर लंबा पड़ा हुआ कि पीठ या पीछे की ओर के सब अंग जमीन से लगे हों और छाती, पेट मुँह आदि ऊपर हो। पीठ के बल सीधा पड़ा हुआ। ‘औधा’ या ‘पट’ का विपर्याय। विशेष-प्राचीन काल में चित्र प्रायः कपड़ों पर बनाये जाते थे। जिस ओर चित्र बना रहता था उस ओर का भाग चित्र कहलाता था, और इसके विपरीत नीचे वाला भाग पट (कपड़ा) कहलाता था। इसी चित्र-पट मे के चित्र और पट शब्द से विशेषण रूप में ‘चित’ और ‘पट’ शब्द बने है। मुहावरा–(किसी को) चित करना=कुश्ती में पछाड़कर जमीन पर सीधा पटकना और जो हराने का सूचक होता है। चित होना=बेसुध होकर या और किसी प्रकार सीधे पड़ जाना। जैसे–इतनी भाँग में तो तुम चित हो जाओंगे। पद–चारों खाने (या शाने) चित (क) हाथ पैर फैलाये बिलकुल पीठ के बल पड़ा हुआ। (ख) लाक्षणिक रूप में पूरी तरह से परास्त या हारा हुआ। क्रि० वि० पीठ के बल। जैसे–चित गिरना या लेटना। पुं० [हिं० चितवन] चितवन। दृष्टि। नजर। पुं० चित्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चित-चोर  : पुं० [हिं० चित+चोर] चित्त को चुराने अर्थात् मोहित करने या लुभावने वाला। बलपूर्वक अपनी ओर अनुरक्त और मुग्ध कर लेनेवाला। परम आकर्षक और मनोहर। (व्यक्ति)।
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चित-पट  : पुं० [हिं० चित+पट] १. बाजी लगाकर खेला जानेवाला एक प्रकार का खेल जिसमें किसी फेंकी हुई वस्तु (जैसे–सिक्का आदि) के चित या पट पड़ने पर हार या जीत मानी जाती है। २. मल-युद्ध। कुश्ती (क्व०)।
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चित-बाहु  : पुं० [हिं० चित+बाहु] तलवार चलाने के ३२ प्रकारों या हाथों में से एक।
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चित-भंग  : पुं० [हिं० चित+भंग] १. वह अवस्था जिसमें मनुष्य का चित या मन एकाग्र और स्वस्थ न रह सके। मानस शांति में होनेवाली बाधा। २. किसी ओर से मन उचटने पर होनेवाली उदासी और विकलता। ३. चेतना, ज्ञान, बुद्धि आदि का ठिकाने न रहना।
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चितउन  : स्त्री०=चितवन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चितउर  : पुं० १. दे० ‘चित्तौर’। २. दे० चित्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चिंतक  : वि० [सं०√चिंत् (सोचना-विचारना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. चिंतन या मनन करनेवाला। २. चिंता करनेवाला। ३. चाहने तथा सोचनेवाला। जैसे–शुभ चिंतक।
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चितकबरा  : वि० [सं० चित्र+कर्बुर] [स्त्री० चितकबरी] १. सफेद रंग पर काले, लाल या पीले दागों वाला। २. रंग-बिरंगा। कबरा। चितला। शबल। जैसे–चितकबरा कबूतर, चितकबरी बिल्ली। पुं० उक्त प्रकार का रंग या वर्ण।
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चितकाबर  : वि०=चितकबरा।
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चितकूट  : पुं०=चित्रकूट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चितगुपति  : पुं०=चित्रगुप्त।
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चिंतन  : पुं० [सं० चिंत्+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० चिंतनीय, चिंतित, चिंत्य] १. कोई बात समझने या सोचने के लिए मन में बार-बार किया जानेवाला उसका ध्यान या विचार। मन ही मन किया जानेवाला विवेचन। गौर। जैसे–यह विषय अच्छी तरह से चिंतन करने के योग्य है। २. किसी वस्तु या विषय का स्वरूप जानने या समझने के लिए मन में रह-रहकर होनेवाला उसका ध्यान या स्मरण। जैसे–ईश्वर चिंतन में समय बिताना।
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चिंतना  : स्त्री० [सं०√चिंत्+णिच्+युच्-अन्, टाप्] १. चिंतन करने की क्रिया या भाव। चिंतन। २. चिंता। फिक्र। ३. सोच-विचार। स० १. किसी का चिंतन या ध्यान करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) २. किसी बात की चिंता या फ्रिक करना। ३. किसी विषय का विचार करना। गौर करना। सोचना-समझना।
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चिंतनीय  : विं० [सं०√चिंत्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका चिंतन किया जा सके या हो सके। जो चिंतन का विषय हो सके। २. जिसके संबंध में चिंता, फ्रिक या सोच करना आवश्यक अथवा उचित हो। जो चिंता का विषय हो। जैसे– रोगी की दशा चिंतनीय है।
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चितरना  : स० [सं० चित्र] १. चित्रित करना। चित्र बनाना २. बेल-बूटों आदि की तरह की आकृतियाँ बनाना। जैसे–आड़ चितरना=किसी रंग या चमकीली चीज के मस्तक या मुख पर बेल-बूटों आदि की आकृतियाँ बनाना। ३. ठीक ढंग से लगाना। जैसे–काजल चितरना।
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चितरवा  : पुं० दे० ‘चितरोख’।
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चितरा  : पुं०=चीतल (देखें)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चितराला  : पुं० [सं० चित्र] एक प्रकार का छोटा जंतु या पशु जो छोटे-छोटे झुड़ों में रहता है और प्रायः पेड़ों पर चढ़कर गिलहरियाँ, चिड़ियाँ आदि खाता है।
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चितरोख  : पुं० [सं० चित्रक] लाल रंग की एक प्रकार की छोटी सुन्दर चिड़िया जिसकी चोंच और पीठ काली तथा पैर कुछ लाल होते हैं।
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चितला  : वि० [सं० चित्रल] चितकबरा। रंग-बिरंगा। पुं० १. एक प्रकार का खरबूजा जिसके छिलके पर चितियाँ होती हैं। २. एक प्रकार की बड़ी मछली जिसकी पीठ उभारदार होती है और जिसके शरीर से यथेष्ट चरबी निकलती है जो खाने और जलाने के काम आती है।
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चिंतवन  : पुं०=चिंतन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चितवन  : स्त्री० [हिं० चितवना] १. किसी की ओर प्रेमपूर्वक या स्नेहपूर्वक देखने की अवस्था, ढंग या भाव। २. दृष्टि। निगाह।
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चितवना  : स० [सं० चित्=ध्यानपूर्वक देखना] १. अनुराग या स्नेहपूर्वक किसी की ओर देखना। उदाहरण–जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवन इक बार।–बिहारी। २. यों ही या जल्दी में देख जाना। उदाहरण–फिरि चितवा पाछै प्रभु देखा।–तुलसी।
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चितवनि  : स्त्री०=चितवन।
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चितवाना  : स० [हिं० चितवना का प्रे०] किसी को चितवने (देखने) में प्रवृत्त करना।
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चितसारी  : स्त्री० दे० ‘चित्रसारी’।
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चिंता  : स्त्री० [सं० चिंत्+णिच्+अङ्-टाप्] १. चिंतन करने का कार्य या भाव। किसी बात या विचार का मन में होनेवाला ध्यान या स्मरण। मन में उठने और कुछ समय तक बनी रहने वाली भावना जो कोई कष्ट या संकट उपस्थित होने या सामने आने पर उसका निवारण करने या उससे बचने के उपाय सोचने के संबंध में होती है। फिक्र। सोच। (वरी) विशेष–साहित्य में तैंतीस संचारी भावों में से एक जिसके विभाव धनहानि, वस्तु का अपहरण, निर्धनता आदि और अनुभाव उच्छ्वास, चिंतन, दुर्बलता, नत मुख होना आदि कहे गये हैं। और इसे वियोग की दस दशाओं में दूसरा स्थान दिया गया है। ३. किसी बात के महत्व का विचार। परवाह। (सदा नहिक रूप में) जैसे–तुम्हें इसकी क्या चिंता है। मुहा०–(किसी बात की)चिंता लगना=चिंता का बराबर बना रहना। जैसे–तुम्हें तो दिन-रात खाने की चिंता लगी रहती है। पद-कुछ चिंता नहीं= कुछ परवाह नहीं। खटके की कोई बात नही हैं। चिंता मत करो। ४. कोई ऐसी बात या विषय जिसके लिए चिंतन या फ्रिक की जाती हो या की जानी चाहिए।
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चिता  : स्त्री० [सं०√चि (चयन करना)+क्त-टाप्] १. क्रम से चुनकर रखी या सजाई हुई लकड़ियों का वह ढेर जिस पर मृत शरीर जलाये जाते हैं। चिति। चित्या। चैत्य। मुहावरा–चिता चुनना या सजाना=शव-दाह के लिए लकड़ियाँ क्रम से सजाकर रखना। चिता तैयार करना। चिता पर चढ़नामरने पर जलाये जाने के लिए चिता पर रखा जाना। (स्त्री का) चिता पर चढना=पति के शव के साथ उसकी चिता पर जलने के लिए जाकर बैठना। २. श्मशान। मरघट।
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चिंता-जनक  : वि० [ष० त०] १. चिंता उत्पन्न करनेवाला। जिसके कारण मन में चिंता हो। २. जिसकी अवस्था गंभीर या शोचनीय हो।
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चिता-प्रताप  : पुं० [ष० त०] जीते जी चिता पर रखकर जला देने का दंड।
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चिता-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] मरघट। श्मशान।
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चिंता-मणि  : पुं० [स० त०] १. एक प्रसिद्ध कल्पित मणि या रत्न जिसके संबंध में कहा जाता है कि जिसके पास यह रहता है, उसकी सब आवश्यकताएँ आप से आप और तुरंत पूरी हो जाती हैं। २. कोई ऐसी चीज या तत्त्व जो किसी विषय की आवश्यकताएँ और इच्छाएँ पूरी कर दे। ३. ब्रह्मा। ४. परमात्मा। ५. सरस्वती का एक मंत्र जो लड़के के जीभ पर इसलिए लिखा जाता है कि उसे खूब विद्या आवे। ६. एक बुद्ध का नाम। ७. घोड़े के गले की एक भौरी जो शुभ मानी जाती है। ८. वह घोड़ा जिसके गले में उक्त भौंरी हों। ९. फलित ज्योतिष में यात्रा का एक योग। १॰. वैद्यक में एक प्रकार का रस जो अभ्रक गंधक पारे आदि के योग से बनता है। ११. पुराणानुसार एक गणेश जिन्होंने कपिल के यहाँ जन्म लेकर महाबाहु नामक दैत्य से उस चिंतामणि रत्न का उद्धार किया था जो उसने कपिल से छीन लिया था।
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चिंता-वेश्म(न्)  : वि० [ष० त०] गोष्ठी, मंत्रणा विचार आदि करने का स्थान। मंत्रणागृह।
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चिंता-शील  : वि० [ब० स०] १. जो किसी बात की प्रायः या बहुत चिंता करता रहता हो। २. दे० ‘चिंतन’ शील’।
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चिता-साधन  : पुं० [ष० त०] चिता के पास या श्मसान पर बैठकर इष्ट सिद्धि के लिए मंत्र आदि जपना। (तंत्र)।
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चिताउनी  : स्त्री० १=चेतावनी। २.=चितवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिंताकुल  : वि० [चिंता-आकुल, तृ० त०] चिंता से आकुल या उद्दिग्न।
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चिंतातुर  : वि० [चिंता-आतुर, तृ० त०] चिंता से उद्विग्न या घबराया हुआ।
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चिताना  : स०=चेताना (देखें)। अ० [सं० चित्रण] चित्रित होना। उदाहरण–लता सुमन पशु पच्छि चित्र सौ चारू चिताए।–रत्नाकर। स०–चित्रित करना।
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चिंतापर  : वि० [चिंता-पर ब० स०] जो चिंतन या चिंता में लगा हुआ या लीन हो।
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चितारना  : स० [सं० चिंतन] १. चित्त या मन में लाना। किसी ओर चित्त या ध्यान देना। उदाहरण–युगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारै।–कबीर। २. ध्यान में लाना। याद करना। उदाहरण–रे पपइया प्यारे कब को बैर चितारयौ।–मीराँ। स० चितरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चितारी  : पुं०=चितेरा।
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चितारोहण  : पुं० [चिता-आरोहण, ष० त०] १. चिता पर जल मरने के उद्देश्य से चढ़कर बैठना। २. विधवा स्त्री का सती होने के लिए अपने पति के शव के साथ चिता पर बैठना।
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चितावनी  : स्त्री०=चेतावनी।
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चिंति  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी।
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चिति  : स्त्री० [सं०√चि (चयन करना)+क्तिन्] १. चुनकर लगाने या सजाने की क्रिया या भाव। २. चिता। ३. ढेर। राशि। ४. अग्नि का एक प्रकार का वैदिक संस्कार। ५. यज्ञ में वेदी बनाने की ईटों का एक संस्कार। ६. चेतनता। ७. दुर्गा।
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चिति-व्यवहार  : पुं० [ष० त०] गणित की वह क्रिया जिसके द्वारा किसी दीवार या मकान में लगनेवाली ईटों आदि की संख्या जानी जाती है।
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चितिका  : स्त्री० [सं० चिति√कै (शब्द करना)+क-टाप्] १. करधनी। मेखला। २. दे० ‘चिति’।
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चिंतित  : भू० कृ० [सं०√चिंत्+क्त] जो चिंता से विकल हो रहा हो। जिसे किसी बात की चिंता या फिक्र हो रही हो। चिंतायुक्त।
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चिंतिति  : स्त्री० [सं०√चिंत्+क्तिन्] चिंता।
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चितिया  : वि० [हिं० चित्ती] जिस पर चित्तियाँ या दाग पड़े हों। चित्तीदार। जैसे–चितिया साँप, चितिया हिरन।
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चितिया-गुड़  : पुं० [हिं०] खजूर की चीनी की जूसी से जमाया हुआ गुड़।
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चिंतीड़ी  : स्त्री०[सं०-तिंतिड़ी,पृषो.सिद्धि] इमली।
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चितु  : पुं०=चित्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिंतेरा  : पुं० [सं० चित्रकार, गु० चितारो, पं० चितेरा, सिंह, सितिए र] [स्त्री० चितेरिन, चितेरी] वह जो चित्र अंकित करने या बनाने का काम करता हो। चित्रकार। मुसौवर।
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चितेला  : पुं०=चितेरा।
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चितैना  : स०=चितवना।
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चितोद्रेक  : पुं० [सं० चित्त-उद्रेक, ष० त०] गर्व। घमंड।
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चितौन  : स्त्री०=चितवन।
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चितौना  : स०=चितवना।
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चितौनि(नी)  : स्त्री०=चितवन।
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चित्  : स्त्री०[सं०√चित् (ज्ञाने)+क्विप्] १. सोची, विचारी या अनुभूत की हुई कोई बात। विचार। अनुभूति। २. चेतना। ज्ञान। ३. चित्त की वृत्ति। ४. हृदय। मन। ५. आत्मा। ६. ब्रह्म। ७. रामानुजाचार्य के अनुसार तीन पदार्थों में से एक जो ज्ञान-स्वरूप, नित्य, निर्मल और भोक्ता कहा गया है। ८. अग्नि। प्रत्यय० संस्कृत का एक अनिश्चयवाचक प्रत्यय जो कः, किम् आदि सर्वनाम शब्दों में लगता है। जैसे–कदाचित्, कश्चित्, किंचित् आदि।
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चित्कार  : पुं०=चीत्कार।
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चित्त  : पुं० [सं०√चित्(ज्ञान करना)+क्त] १. अंतःकरम की चार वृत्तियों में से एक जो अंतरिद्रिय के रूप में मानी गई है और जिसके द्वारा धारण, भावना आदि की क्रियाएँ संपन्न होती है। जी। दिल। मुहावरा–चित्त उचटना=किसी काम, बात या स्थान से जी विरक्त होना या हटना। दिल को भला न लगना। चित्त करना=जी चाहना। इच्छा होना। जैसे–उनसे मिलने को मेरा चित्त नहीं करता। चित्त चढ़ना=दे० ‘‘चित पर चढ़ना’। चित्त चिहुँटना=प्रेमासक्त होने के कारण मन में कष्टदायक स्मृति होना। उदाहरण–नहिं अन्हाय नहिं जाय घर चित चिहुँठयों स्मृति तकि तीर।–बिहारी। चित्त चुराना-मन को मोहित करना। चित्त देना=ध्यान देना। मत लगाना। उदाहरण–चित्त दै सुनो हमारी बात।-सूर। चित्त धरना (क) किसी बात पर ध्यान देना। मन लगाना। (ख) कोई बात या विचार मन में लाना। उदाहरण–हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।–सूर। चित्त पर चढ़ना=(क) मन में बसने के कारण बार-बार ध्यान में आना। (ख) स्मृति जाग्रत होना। याद आना, या पड़ना। चित्त बँटना=एक बात या विषय की ओर ध्यान रहने की दशा में कुछ समय के लिए दूसरी ओर ध्यान जाना जो बाधा के रूप में हो जाता है। चित्त में जमना, धँसना, या बैठना अच्छी तरह हृदयंगम होना। दृढ़ निश्चय के रूप में मन में बैठना। चित्त में होना या चित्त होना=इच्छा होना। जी चाहना। चित्त लगना=किसी काम या बात में मन की वृत्ति लगना। ध्यान लगना। जैसे–चित्त लगाकर काम किया करो। चित्त से उतरना (क) ध्यान में न रहना। भूल जाना। जैसे–वह बात हमारे चित्त से उतर गई थी। (ख) पहले की तरह आदरणीय या प्रिय न रह जाना। जैसे–अब तो वह हमारे चित्त से उतर गया है। चित्त से न उतरनाध्यान में बराबर बना रहना। न भूलना। २. नृत्य में, श्रृंगारिक प्रसंगों में अनुराग, प्रसन्नता आदि प्रकट करनेवाली चितवन या दृष्टि। वि० चित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्त-कलित  : वि० [स० त०] १. मन में जिसकी आशा या ध्यान किया गया हो। २. प्रत्याशित।
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चित्त-गर्भ  : वि० [सं० चित्त√गर्भ (ग्रहण करना)+अच्, उप० स०] मनोहर। सुंदर।
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चित्त-चारी(रिन्)  : वि० [सं० चित्√चर् (चलना)+णिनि, उप० स०] दूसरों की इच्छा के अनुसार आचरण करने या चलनेवाला।
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चित्त-चौर  : पुं० [ष० त०]=चित्त-चोर।
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चित्त-जन्मा(न्मन्)  : पुं०[ब० स०] कामदेव।
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चित्त-निवृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] इच्छा, कष्ट, भावना आदि से होनेवाला चित्त का छुटकारा या निवृत्ति। मन की शांति, संतोष और सुख।
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चित्त-प्रसादन  : पुं० [ष० त०] योग में चित्त का एक संस्कार जो करुणा, मैत्री, हर्ष आदि के उपयुक्त व्यवहार द्वारा होता है। जैसे–किसी को सुखी देखकर प्रसन्न होना, दुःखी के प्रति करुणा दिखाना, पुण्य के प्रति हर्ष और पाप के प्रति उपेक्षा करना। इस से चित्त में सात्त्विक वृत्ति का प्रादुर्भाव होता है।
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चित्त-भंग  : पुं० [ब० स०] बदरिकाश्रम के समीप स्थित एक पर्वत श्रेणी।
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चित्त-भू  : पुं० [सं० चित्त√भू (होना)+क्विप्, उप० स०] १. प्रेम। २. कामदेव।
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चित्त-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] योग-साधन के समय होनेवाली चित्त की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ या वृत्तियाँ जिनमें से कुछ तो अनुकूल और कुछ बाधक होती हैं। मुख्यतः क्षिप्त, मूल, विक्षिप्त और निरुद्ध ये पाँच चित्तभूमियाँ मानी गई है जिनमें से अन्तिम दो योग-साधन के लिए अनुकूल होती हैं।
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चित्त-भेद  : पुं० [ष० त०] मन की अस्थिरता और चंचलता। २. दृष्टिकोणों या विचारों में होनेवाला भेद।
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चित्त-भ्रम  : पुं० [ष० त०] १. मन में होनेवाला किसी प्रकार का भ्रम या भ्रांति। २. [ब० स०] उन्माद। पागलपन।
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चित्त-भ्रांति  : स्त्री० [ष० त०]=चित्त-भ्रम।
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चित्त-योनि  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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चित्त-विक्षेप  : पुं० [ष० त०] १. चित्त का एकाग्र न हो पाना या न रह जाना। चित्त का स्थिर न रहना। २. चित्त की अस्थिरता या चंचलता।
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चित्त-विद्  : पुं० [सं० चित्त√विद् (जानना)+क्विप्, उप० स०] १. वह जो दूसरों के चित्त की बात जानता हो। २. वह जो चित्त या मन के सब भेद और रहस्य जानता हो।
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चित्त-विप्लव  : पुं० [ब० स०] उन्माद। पागलपन।
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चित्त-विभ्रंश  : पुं० [ब० स०]=चित्त-भ्रम।
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चित्त-विश्लेषण  : पुं०[ष० त०] मनोविश्लेषण। (दे०)
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चित्त-वृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. चित्त की गति। चित्त की अवस्था। २. अभिरुचि। झुकाव।
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चित्त-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] बुरे विचारों को मन से हटाकर अच्छी बातों की ओर ध्यान देना। जिससे चित्त निर्मल तथा शुद्ध हो जाय।
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चित्त-हारी(रिन्)  : वि० [सं० चित्त√हृ (हरण करना)+णिनि, उप० स०] चित्त हरण करनेवाला, अर्थात् आकर्षक। मनोहर।
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चित्तक  : पुं० दे० ‘चित्रक’।
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चित्तज  : वि० [सं० चित्त√जन् (उत्पन्न होना)+ड, उप० स०] चित या मन में उत्पन्न। पुं० १. प्रेम। २. कामदेव।
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चित्तज्ञ  : वि० [सं० चित्त√ज्ञा (जानना)+क, उप० स०] दूसरों के चित्र या मन की बातें जाननेवाला।
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चित्तर  : पुं०=चित्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्तर-सारी  : स्त्री०=चित्रशाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्तरा  : स्त्री० चित्रा (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्तल  : पु० चीतल। (मृग)।
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चित्तवान्(वत्)  : वि० [सं० चिता+मतुप्, मव] [स्त्री० चित्रवती] जिसके चित्त में सदा अच्छी बातें रहती हों।
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चित्ताकर्षक  : वि० [सं०चित्त-आकर्षक, ष० त०] जो चित्त को अपनी ओर आकृष्ट करता हो। मोहित करने या लुभानेवाला।
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चित्तापहारक  : वि० [सं० चित्त-अपहारक, ष० त०]=चित्तहारी।
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चित्ताभोग  : पुं० [सं० चित्त-आभोग, ष० त०] १. पूर्ण चेतनता। २. किसी विषय के प्रति मन की आसक्ति।
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चित्तासंग  : पुं० [सं० चित्त-आर्सग] अनुराग। प्रेम।
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चित्ति  : स्त्री० [सं०√चित्त (ज्ञान होना)+क्तिन्] १. चित्त की वह वृत्ति जो मनु्ष्य को सोचने-विचारने में प्रवृत्त या समर्थ करती है। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. आस्था। श्रद्धा। ४. कर्म। कार्य। ५. उद्देश्य। लक्ष्य। ६. अथर्व ऋषि की पत्नी का नाम।
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चित्ती  : स्त्री० [सं० चित्र, प्रा० चित्त] १. किसी एक रंगवाली वस्तु पर दूसरे रंग का लाया हुआ चिन्ह्र या दाग। मुहावरा–(रोटी पर) चित्ती पड़ना=रोटी सेंकते समय उस पर छोटे-छोटे दाग पड़ना। २. वे छोटे-छोटे चिन्ह जो वस्त्रों पर काढ़े या छापे जाते हैं। ३. मादा लाल। मुनिया। ४. एक प्रकार का साँप। चीतल। (दे०)। स्त्री० [हिं० चित्त=सफेद दाग] एक ओर से कुछ रगड़ा हुआ इमली का चिआँ जिससे छोटे लड़के जूआ खेलते हैं।
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चित्तौर  : पुं० [सं० चित्रकूट, प्रा० चित्त ऊड़ चितउड़] राजपूताने का एक प्रसिद्ध नगर जहाँ किसी समय महाराणा प्रताप की राजधानी थी।
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चिंत्य  : वि०[सं०चित्+ण्यत्] १.जिसके संबंध में चिंता करना आवश्यक उचित हो। २. दे० ‘चिंतनीय’।
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चित्य  : वि० [सं०√चि (चयन)+क्यपु, तुक् आगम] १. इकट्ठा किये या चुने जाने के योग्य। २. जो इकट्ठा किया या चुना जा सके। ३. चिता संबंधी। पुं० १. चिता। २. अग्नि।
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चित्र  : पुं० [सं०√चित्र (लिखना)+अच्] १. चंदन आदि से शरीर के किसी अंग विशेषतः मस्तक पर बनाया जानेवाला चिन्ह। तिलक। २. कलम कूचीं पेंसिल आदि की सहायता से कपडे़ कागज दीवार या किसी चिपटे तलवाली वस्तु पर बनाई हुई किसी वस्तु या व्यक्ति की आकृति। क्रि० प्र०–उतारना।–बनाना।–लिखना। ३. यंत्र की सहायता से खींचा या छापा जानेवाला चित्र। जैसे–कैमरे का चित्र (फोटो) या समाचार-पत्रों में प्रकाशित होनेवाले चित्र। ४. कल्पना करने या सोचने पर मानसिक चक्षुओं के सामने आनेवाली आकृति या रूप। मानसिक चित्र। ५. चित्र काव्य। (दे०) ६. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसका प्रत्येक चरण समानिका वृत्त के दो चरणों के योग से बनता है। ७. काव्य के तीन अंगो में से एक जिसमें व्यंग्य की प्रधानता नहीं होती। अलंकार। ८. चित्रगुप्त। ९. एक यम का नाम १॰. धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक। ११. रेंड़ का पेड़। १२. अशोक का वृक्ष। १३. चित्रक। चीता। १४. एक प्रकार का कोढ़ जिसमें शरीर में सफेद चितियाँ या दाग पड़ जाते हैं वि० १. रंग-बिंरंगा। कई रंगों का २. चित-कबरा। ३. अनेक प्रकार का। कई तरह का। ४. अदभुत। विचित्र। विलक्षण। ५. प्रायः बदलता रहनेवाला या तरह-तरह के रंग बदलनेवाला। ६. चित्र की तरह सब प्रकार से ठीक, दुरुस्त और सुंदर।
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चित्र-कंठ  : पुं० [ब० स०] कबूतर।
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चित्र-कंबल  : पुं० [कर्म० स०] १. कालीन दरी या इसी तरह की और कोई रंगीन बुनावटवाला कपड़ा। २. हाथी की झूल।
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चित्र-कर  : पुं० [सं०√चित्रकृ (करना)+ट, उप० स०] १. एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति विश्वकर्मा पुरुष और शूद्रा स्त्री से कही गई है। २. उक्त जाति का व्यक्ति। ३. तिनिश का पेड़। ४. चित्रकार।
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चित्र-कर्म(न्)  : पुं० [ष० त०] चित्रकारी।
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चित्र-कला  : स्त्री० [ष० त०] चित्र अंकित करने की क्रिया, ढंग भाव या विद्या। तसवीर बनाने का हुनर।
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चित्र-काय  : पुं० [ब० स०] चीता (जंतु)।
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चित्र-कार  : पुं० [सं० चित्र√कृ (करना)+अण्, उप० स०] वह व्यक्ति जो चित्र अंकित करने की कला में दक्ष हो। चित्र बनानेवाला। चितेरा।
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चित्र-काव्य  : पुं० [मध्य० स०] वह आलंकारिक काव्य जिसके चरणों की रचना ऐसी युक्ति से की गई हो कि वे चरण किसी विशिष्ट क्रम से लिखे जाने पर कमल, खड़ग, घोड़े, रथ, हाथी आदि के चित्रों के समान बन जाते हों। (इसकी गणना अधम प्रकार के काव्यों में होती है।)
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चित्र-कुष्ठ  : पुं० [मध्य० स०] सफेद कोढ़।
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चित्र-कूट  : पुं० [सं० ब० स०] १. उत्तर प्रदेश का एक प्रसिद्ध रमणीय पर्वत जहां वन-वास के समय राम-लक्ष्मण और सीता ने बहुत दिनों तक निवास किया था। यह बाँदा जिले में है और इसके नीचे पयोष्णी नदी बहती है। २. हिमवत् खंड के अनुसार हिमालय की एक चोटी का नाम। ३. राजस्थान के चित्तौर नगर का पुराना नाम।
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चित्र-कृत्  : पुं० [सं० चित्र√कृ (करना)+क्विप्, तुक्, उप० स०] १. चित्र कार। २. तिनिश का पेड़। वि० अद्भुत। विलक्षण।
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चित्र-केतु  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसकी पताका चित्रित या रंग-बिरंगी हो। २. लक्ष्मण के एक पुत्र का नाम। (भागवत) ३. वशिष्ठ के एक पुत्र का नाम। ४. गरुड़ के एक पुत्र का नाम। ५. शूरसेन का एक पौराणिक राजा जिसे नारद ने मंत्र का उपदेश दिया था।
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चित्र-कोण  : पुं० [ब० स०] १. कुटकी। २. काली कपास।
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चित्र-गंध  : पुं० [ब० स०] हरताल।
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चित्र-घंटा  : स्त्री० [ब० स०] एक देवी जो नौ दुर्गाओं में से एक है।
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चित्र-जल्प  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में ऐसी बातें जो मान करनेवाली नायिका अथवा रूठा हुआ नायक एक दूसरे से कहते हैं। (इसके दस भेद कहे गये हैं)।
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चित्र-जात  : पुं०=चित्र योग।
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चित्र-तंडुल  : पुं० [ब० स०] वायविडंग।
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चित्र-तल  : पुं० [ष० त०] वह तल या सतह जिस पर चित्र अंकित हो। जैसे–कपड़ा, कागज, काठ, पत्थर आदि।
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चित्र-ताल  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में एक प्रकार का चौताला ताल।
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चित्र-तैल  : पुं०[कर्म० स०] अंडी या रेंडी का तेल।
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चित्र-त्वक्(च्)  : पुं० [ब० स०] भोज-पत्र।
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चित्र-दंडक  : पुं० [ब० स० कप्] जमीकंद। सूरन।
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चित्र-देव  : पुं० [कर्म० स०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
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चित्र-देवी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. एक प्रकार की देवी या शक्ति। २. महेन्द्रवारुणी लता।
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चित्र-धर्मा(र्म)  : पुं० [ब० स० अनिच्] महाभारत में उल्लिखित एक दैत्य।
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चित्र-धाम  : पुं० [कर्म० स०] यज्ञादि में पृथ्वी पर बनाया जानेवाला एक चौखूँटा चक्र जिसके खाने भिन्न-भिन्न रंगों से भरे जाते हैं। सर्वतोभद्र चक्र।
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चित्र-नेत्रा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] मैना पक्षी।
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चित्र-पक्ष  : पुं० [ब० स०] तीतर पक्षी।
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चित्र-पट  : पुं० [ष० त० ] १. वह पट (वस्त्र) जिस पर प्राचीन भारत में चित्र बनता था। २. कपड़े या चमड़े पर बना हुआ वह चित्र जो लपेटकर रखा जा सकता हो और आवश्यकता पड़ने पर दीवार आदि पर टाँगा जा सकता हो। ३. कोई ऐसा तल (जैसे–कागज, काठ, पत्थर, हाथी दांत आदि) जिस पर चित्र बना या अंकित हुआ हो। ४. चल-चित्र। (दे०)।
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चित्र-पटी  : स्त्री० [ष० त०] छोटा चित्र-पट।
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चित्र-पत्र  : पुं० [ब० स०] आँख की पुतली के पीछे का वह परदा जिस पर देखी जानेवाली वस्तुओं का प्रतिबिंब पड़ता है। वि० रंग-बिरंगे और विचित्र पंखों या परों वाला।
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चित्र-पत्रिका  : स्त्री० [ब० स० कप्, टाप्, इत्व] १. कपित्थपर्णी वृक्ष। २. द्रोणपुष्पी। गूमा।
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चित्र-पत्री  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] जल-पिप्पली।
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चित्र-पथा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] प्रभास तीर्थ के अंतर्गत ब्रह्मकुंड के पास की एक छोटी नदी जो अब सूख चली है।
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चित्र-पदा  : पुं० [ब० स० टाप्] १. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में २ भगण और २ गुरु होते हैं। २. मैना पक्षी। ३. लजालू या लज्जावती लता। छूई-मुई।
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चित्र-पर्णी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. मजीठ। २. कनफोड़ा नाम की लता। ३. जल-पिप्पली। ४. द्रोण पुष्पी। गूमा।
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चित्र-पादा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] मैना पक्षी।
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चित्र-पिच्छक  : पुं० [ब० स०] मयूर। मोर।
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चित्र-पुंख  : पुं० [ब० स०] बाण। तीर।
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चित्र-पुट  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का छः ताला ताल।
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चित्र-पुत्री  : स्त्री० [मध्य० स०] कपड़े, लकड़ी आदि की बनी हुई गुड़िया।
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चित्र-पुष्प  : पुं० [ब० स०] शर जाति की एक घास जिसे राम-शर कहते हैं।
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चित्र-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] आमड़ा।
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चित्र-पृष्ठ  : पुं० [ब० स०] गौरैया पक्षी।
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चित्र-फल  : पुं० [ब० स०] चितला मछली। २. तरबूज।
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चित्र-फलक  : पुं० [ष० त०] काठ, पत्थर, हाथी-दांत आदि की वह तख्ती या पटिया जिस पर चित्र बना हो।
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चित्र-बर्ह  : पुं० [ब० स०] १. मोर। मयूर। २. गरुड़ के एक पुत्र का नाम।
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चित्र-भानु  : पुं० [ब० स०] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. चीते का पेड़। ४. आक। मदार। ५. भैरव का एक नाम। ६. अश्विनीकुमार। ७. साठ संवत्सरों के अंतर्गत सोलहवें वर्ष का नाम. ८. अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा के पिता जो मणिपुर में राज्य करते थे।
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चित्र-भेषजा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] कठगूलर। कठूमर।
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चित्र-भोग  : पुं० [ब० स०] राजा का वह सहायक और शुभ-चिंतक जो समय पर अनेक प्रकार के पदार्थों तथा गाड़ी घोड़े आदि से उसकी सहायता करे। कौ०)।
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चित्र-मंच  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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चित्र-मंडप  : पुं० [ब० स०] १. अश्विनी कुमार । २. अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा के पिता का नाम।
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चित्र-मंडल  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का साँप।
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चित्र-मति  : वि० [ब० स०] विचित्र या विलक्षण बुद्धिवाला।
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चित्र-मद  : पुं० [तृ० त०] नाटक में किसी स्त्री का पति या प्रेमी का अभिनय या चित्र देखकर मस्त होना और उसके प्रति अपने अनुराग का भाव दिखलाना।
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चित्र-मृग  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का चितकबरा हिरन जिसकी पीठ पर सफेद सफेद-चित्तियाँ होती हैं। चीतल।
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चित्र-मेखल  : पुं०[ब० स०] मयूर। मोर।
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चित्र-योग  : पुं० [कर्म० स०] ६४ कलाओं में से एक जिसके द्वारा बुड्ढे को जवान या जवान को बुड्ढा बनाया जाता था।
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चित्र-योधी(धिन्)  : वि० [सं० चित्र√युध् (युद्ध करना)+णिनि, उप० स०] असाधारण और विलक्षण योद्धा। अद्भुत ढंग से युद्ध करनेवाला। पुं० १. अर्जुन। २. अर्जुन वृक्ष।
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चित्र-रथ  : पुं० [ब० स०] १. सूर्य। २. कुबेर का सखा एक गंधर्व, अंगारपर्ण। ३. गद के एक पुत्र और श्रीकृष्ण के पौत्र का नाम ४. गंधर्वों के एक राजा का नाम जो कश्यप ऋषि का पुत्र था।
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चित्र-रश्मि  : पुं० [ब० स०] ४९ मरुतों में से एक।
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चित्र-रेखा  : स्त्री० [ब० स०] वाणासुर की कन्या ऊषा की एक सखी का नाम।
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चित्र-रेफ  : पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
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चित्र-लता  : स्त्री० [कर्म० स०] मँजीठ।
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चित्र-लिखित  : भू० कृ० [उपमि० स०] १. जो चित्र की तरह सुन्दर बनाकर या सजा-सँवारकर लिखा गया हो। २. जो लिखे हुए चित्र की तरह निश्चल हो गया हो।
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चित्र-लिपि  : स्त्री० [मध्य० स०] वह लिपि जिसमें अक्षरों या वर्णों की जगह वस्तुओँ और क्रियाओं के चित्र बनाकर उनके द्वारा भाव व्यक्त किये जाते हैं। (पिक्टोग्राफी) जैसे–चीन की प्राचीन लिपि।
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चित्र-लेखक  : पुं० [ष० त०] चित्रकार
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चित्र-लेखन  : पुं० [ष० त०] १. कलम, कूँची आदि की सहायता से चित्र अंकित करना। २. बहुत बनाकर और सुन्दर अक्षर लिखना।
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चित्र-लेखनी  : स्त्री० [ष० त०] चित्र अंकित करने की कलम। कूँची।
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चित्र-लेखा  : स्त्री० [ब० स०] १. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १ भगण, १ मगण, १ नगण और ३ यगण होते हैं २. बाणासुर की कन्या ऊषा की एक सखी जो चित्र बनाने में बहुत निपुण थी। ३. एक अप्सरा का नाम। ४. [ष० त०] चित्र बनाने की कलम या कूँची।
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चित्र-लोचना  : स्त्री० [ब० स०] मैना पक्षी।
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चित्र-वन  : पुं० [कर्म० स०] गंडकी नदी के किनारे का पुराण-प्रसिद्ध एक वन।
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चित्र-वर्मा(र्मन्)  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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चित्र-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] १. विचित्र नामक लता। २. महेन्द्रवारुणी।
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चित्र-वहा  : स्त्री० [सं० चित्र√वह् (ढोना)+अच्-टाप्] महाभारत के अनुसार एक नदी।
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चित्र-वाण  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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चित्र-विचित्र  : वि० [द्व० स०] १. जिसमें कई रंग हों। रंग बिरंगा। २. जिसके कई रूप या प्रकार हों। ३. विलक्षण। ४. बेल-बूटेदार. ५. नक्काशीदार।
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चित्र-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] चित्र बनाने की विद्या। चित्रकारी। चित्रकला।
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चित्र-विन्यास  : पुं० [ष० त०] चित्रकारी।
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चित्र-वीर्य्य  : वि० [ब० स०] विचित्र और बहुत बड़ा बलवान या वीर। पुं० लाल रेंड।
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चित्र-शार्दूल  : पुं० [कर्म० स०] चीता नामक हिंसक पशु।
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चित्र-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहां चित्र बनते हों या विक्रयार्थ रखे जाते हों। २. वह स्थान जहाँ प्रदर्शन के लिए बहुत से चित्र रखे रहते हों। ३. एक कमरा जिसमें बहुत से चित्र टँगें या लगे हों। (पिक्चर गैलरी) ४. मध्य युग में दंपति के रहने और सोने का कमरा। (राज०)
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चित्र-शालिका  : स्त्री०=चित्र-शाला।
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चित्र-शिखंडिज  : पुं० [सं० चित्र-शिखंडिन्√जन् (उत्पत्ति+ड, उप० स०] बृहस्पति।
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चित्र-शिखंडी(डिन्)  : पुं० [सं० चित्र-शिखंड, कर्म० स०+इनि] मरीचि, अंगिरा, अत्रि पुलस्त्य, पुलह क्रतु वसिष्ठ ये सातों ऋषि। सप्तऋषि।
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चित्र-शिर(स्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक गंधर्व का नाम। २. मल-मूत्र के विकार से उत्पन्न होनेवाला एक प्रकार का विष। (सुश्रुत)।
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चित्र-शिल्पी(ल्पिन्)  : पुं० [ष० त०] चित्रकार।
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चित्र-संग  : पुं० [ब० स०] १६ अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त।
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चित्र-सभा  : स्त्री० चित्र=शाला।
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चित्र-सर्प  : पुं० [कर्म० स०] चीतल साँप।
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चित्र-सामग्री  : स्त्री० [ष० त०] चित्र अंकित करने की सामग्री। जैसे–रंग, तूलिका, कागज कपड़ा आदि।
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चित्र-सारी  : स्त्री० [सं० चित्र-शाला] १. चित्र अंकित करने या बनाने की क्रिया या भाव। २. चित्रशाला। ३. राजाओं के भोग-विलास और शयन का कमरा जिसमें अनेक सुंदर चित्र लगे रहते थे। ४. स्त्रियों की वह ओढ़नी जिस पर सलमे-सितारे का काम हुआ हो।
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चित्र-सेन  : पुं० [ब० स०] १. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। २. एक गंधर्व का नाम। ३. पुरुवंशी राजा परीक्षित के एक पुत्र। ४. पुराणानुसार शंबरासुर का एक पुत्र।
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चित्र-हस्त  : पुं० [ब० स०] तलवार या और कोई हथियार चलाने का एक विशिष्ट ढंग या हाथ।
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चित्रक  : पुं० [सं० चित्र+कन्] १. मस्तक पर लगाया जानेवाला टीका या तिलक। २. चीता नामक पेड़। ३. चीता नाम का जंतु। ४. रेड़ का पेड़। ५. चिरायता। ६. मुचकुंद का पेड़। ७. चित्रकार। ८. बहादुर। शूर-वीर।
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चित्रकर्मी(र्मिन्)  : पुं० [सं० चित्रकर्म+इनि] १. चित्रकार। मुसौवर। २. अदभुत या विलक्षण काम करनेवाला व्यक्ति। ३. तिनिश का पेड़।
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चित्रकारी  : स्त्री० [हिं० चित्र+कारी] १. चित्र बनाने की कला या विद्या। २. चित्रकार का काम, पद या भाव। ३. बनाये हुए चित्र।
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चित्रगुप्त  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार चौदह यमराजों में से एक जो प्राणियों के पाप और पुण्य का लेखा रखनेवाले कहे गये हैं।
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चित्रण  : पुं० [सं०√चित्र+णिच्+ल्युट-अन] १. चित्र अंकित करने या बनाने की क्रिया या भाव। २. चित्र में रंग भरने का भाव। ३. किसी घटना, भाव, वस्तु, व्यक्ति, आदि का विशद तथा सजीव रूप से शब्दों में किया जानेवाला वर्णन। जैसे–चरित्र-चित्रण।
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चित्रना  : स० [सं० चित्र+हिं० ना (प्रत्य)] १. चित्र आदि बनाना। २. चित्रों में रंग भरना। ३. किसी तल या बेल-बूटे आदि बनाना। ४. शोभा के लिए मुँह पर चमकी आदि लगाना।
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चित्रफला  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. ककड़ी। २. बैंगन। ३. भटकटैया। ४. लिंगिनी नाम की लता। ५. महेंन्द्र वारुणी लता। ६. फलुई नाम की मछली।
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चित्ररथा  : स्त्री० [सं० चित्ररथ+टाप्] महाभारत में वर्णित एक नदी।
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चित्रल  : वि० [सं० चित्र√ला (लेना+क] चितकबरा। रंग-बिंरगा। चितला।
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चित्रला  : स्त्री० [सं० चित्रिल+टाप्] गोरख इमली।
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चित्रवत  : पुं०=चित्रकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चित्रवती  : स्त्री० [सं० चित्र+मतुप्, वत्व,+ङीष्] गांधार स्वर की एक मूर्च्छना। (संगीत)।
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चित्रवत्  : वि० [सं० चित+वति] उसी प्रकार गति-रहित और स्तब्ध जिस प्रकार चित्र होता है। (ला०)।
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चित्रवदाल  : पुं० [सं०√ आल, आअल् (पर्याप्ति)+अच्, चित्रवत्, आल, कर्म० स०] पाठीन मत्स्य। पहिना मछली।
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चित्रस्थ  : वि० [सं० चित्र√स्था (ठहरना)+क] १. चित्र में अंकित किया हुआ। २. चित्र में अंकित व्यक्ति के समान निश्चल या स्तब्ध।
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चित्रा  : स्त्री० [सं०√चित्र+अच्-टाप्] १. सत्ताइस नक्षत्रों में से चौदहवाँ नक्षत्र जिसमें तीन तारे होते हैं। इसमें गृह-प्रवेश, गृहारंभ और यानों, वाहनों आदि का व्यवहार शुभ कहा गया है। २. मूषिकपर्णी या मूसाकानी लता। ३. ककड़ी खीरा आदि फल। ४. दंती वृक्ष। ५. गाँडर नामक घास। ६. मँजीठ। ७. बायबिंडग। ८. अजवायन। ९. चितकबरी गाय। १॰. एक अप्सरा का नाम। ११. सुभद्रा का एक नाम। १२. एक प्राचीन नदी। १३. एक प्रकार की रागिनी जो भैरव राग की पत्नी कही गई है। १४. संगीत में एक प्रकार की मूर्च्छना। १५. एक प्रकार का पुराना बाजा। १६. पंद्रह अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसमें पहले तीन नगण, फिर दो यगम होते हैं। १७. एक प्रकार की चौपाई जिसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और अंत में एक गुरु होता है। इसकी पाँचवी, आठवीं और नवीं मात्रा लघु तथा अंतिम मात्रा गुरु होती है।
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चित्रा-विरली  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पुराना कामदार कपड़ा जो आज-कल की जामदानी की तरह का होता था।
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चित्रांकन  : पुं० [चित्र-अंकन, ष० त०] [भू० कृ० चित्रांकित] चित्र अंकित करने या हाथ में तसवीर बनाने का काम। आलेख्य कर्म। (पेन्टिंग)।
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चित्रांकित  : भू० कृ० [सं० चित्र-अंकित, स० त० जो चित्र के रूप में या चित्र में अंकित किया गया हो। चित्रित।
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चित्राक्ष  : पुं० [चित्र-अक्षि, ब० स० षच्] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। वि० [स्त्री० चित्राक्षी] विचित्र और सुन्दर आँखोंवाला।
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चित्राक्षी  : स्त्री० [सं० चित्राक्ष+ङीष्] मैना पक्षी।
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चित्रांग  : भू० [चित्र-अंग, ब० स०] जिसके अंग पर चित्तियाँ धारियाँ चिन्ह्र आदि हों। पुं.१.चित्रक या चीता नाम का पेड़। २. चीतल सांप। ३. ईगुर। सिंदूर। ४. हरताल।
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चित्रांगद  : पुं० [चित्र-अंगद, ब० स०] १. सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न राजा शांतनु के एक पुत्र और विचित्रवीर्य्य के छोटे भाई। २. पुराणानुसार एक गंधर्व। ३. महाभारत के अनुसार दशार्ण के एक राजा।
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चित्रांगदा  : स्त्री० [सं० चित्रांगद+टाप्] १. मणिपुर के राजा चित्रवाहन की कन्या जो अर्जुन को ब्याही थी। और जो बभ्रुवाहन की माता थी। २. रावण की एक पत्नी जिसके गर्भ से वीरबाहु का जन्म हुआ था।
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चित्रांगी  : स्त्री० [सं० चित्रांग+ङीष्] १. मँजीठ। २. कनखजूरा।
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चित्राटीर  : पुं० [सं० चित्रा√अट् (गति)+ईरच्] १. चंद्रमा। २. शिव का घंटाकर्ण नामक अनुचर।
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चित्रादित्य  : पुं० [चित्र-आदित्य, मध्य० स०] प्रभास क्षेत्र में चित्रगुप्त की स्थापित सूर्य्य की मूर्ति। (स्कंद पुराण)।
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चित्राधार  : पुं० [चित्र-आधार, ष० त०] कोरे पन्नों की नत्थी की हुई वह पुस्तक जिसमें आग्रहण, चित्र, रेखा-चित्र आदि लगाये जाते हैं। (एलबम)।
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चित्रान्न  : पुं० [चित्र-अन्न, कर्म० स०] बकरी के दूध में पकाया और बकरी के कान के रक्त में रंगा हुआ जौ और चावल। (कर्मकांड)।
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चित्रायस  : पुं० [चित्र-अयस्, कर्म० स० टच्] इस्पात। (लोहा)।
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चित्रायुध  : पुं० [चित्र-आयुध, कर्म० स०] १. विलक्षण अस्त्र। २. [ब० स०] धृतराष्ट्र का एक पुत्र। वि० जिसके पास विचित्र या विलक्षण अस्त्र-शस्त्र हों।
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चित्रार  : पुं० चित्रकार। उदाहरण–किरि कठचीत्र पूतली निज करि चीत्रारै लागी चित्रण।–प्रिथीराज।
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चित्राल  : पुं० [?] कश्मीर के पश्चिम का एक पहाड़ी प्रदेश। चितराल।
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चित्रालय  : पुं० [चित्र-आलय, ष० त०] चित्रशाला। (दे०)।
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चित्रावसु  : स्त्री० [सं०] तारों से शोभित रात।
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चित्राश्व  : पुं० [चित्र-अश्व, ब० स०] सत्यवान् का एक नाम।
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चित्रिक  : पुं० [सं० चैत+क, पृषो० सिद्धि] चैत का महीना। चैत मास।
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चित्रिणी  : स्त्री० [सं० चित्र+इनि+ङीप्] कामशास्त्र तथा साहित्य में चार प्रकार की नायिकाओं या स्त्रियों में वह नायिका जो अनेक प्रकार की कलाओं तथा बनाव-सिंगार करने में निपुण हो।
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चित्रित  : भू० कृ० [सं०√चित्र्+क्त] १. चित्र के रूप में खींचा या दिखाया हुआ। २. जिसका रंग-रूप चित्र में दिखाया गया हो। ३. जिस पर चितियाँ बेल-बूटे आदि बनें हों। ४. जिसका चित्रण हुआ हो। ५. जो शब्दों में बहुत ही सुन्दर रूप में लिखा गया हो।
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चित्री(त्रिन्)  : वि० [सं० चित्र+इनि] १. चितकबरा। २. चित्रित।
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चित्रीकरण  : पुं० [सं० चित्र+चिव्, ईत्व० दीर्घ√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. विभिन्न वर्णों से रंग भरकर चित्रित करना। २. चित्र के रूप में लाना या उपस्थित करना। ३. सजाना।
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चित्रेश  : पुं० [चित्रा-ईश, ष० त०] चित्रा नक्षत्र के पति चंद्रमा।
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चित्रोक्ति  : स्त्री० [चित्रा-उक्ति, कर्म० स०] १. आकाश। २. अलंकृत भाषा में कही हुई बात। ३. सुन्दर अलंकारों से युक्त उक्ति या कविता।
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चित्रोत्तर  : पुं० [चित्र-उत्तर, ब० स०] साहित्य में उत्तर अलंकार का एक भेद जिसमें प्रश्न ऐसे विचित्र ढंग से रखे जाते हैं कि उन्हीं के शब्दों में उनके उत्तर भी रहते हैं अथवा कई प्रश्नों का एक ही उत्तर भी रहता है। जैसे–‘मुग्धा तियकी केलि रुचि कोन भौन में होय। में का उत्तर ‘कोन भौन’ अर्थात् भवन का कोना है।
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चित्रोत्पला  : स्त्री० [चित्र-उत्पल, ब० स०] उड़ीसा की एक नदी जिसे आज-कल चितरतला कहते हैं २. पुराणानुसार ऋक्षपाद पर्वत से निकली हुई एक नदी।
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चित्र्य  : वि० [सं०√चित्र+ण्यत्] १. पूज्य २. चुनने या चयन किये जाने के योग्य। ३. जिसे चित्र के रूप में लाया जा सके। ४. जो चित्र के रूप में अंकित किये जाने के लिए उपयुक्त हो।
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चिथड़ा  : पुं० [हिं० चीथना=दाँत से फाड़ना] १. पुराने तथा घिसे हुए कपड़े का फटा या फाड़ा हुआ ऐसा छोटा टुकड़ा जो किसी काम न आ सकता हो। २. बहुत पुराना,फटा हुआ और मैला कपड़ा। पद-चिथड़ा-गुदड़ाफटे-पुराने और रद्दी कपड़ें। मुहावरा–चिथड़ा लपेटनाफटा-पुराना कपड़ा पहनना। वि० बहुत फटा हुआ। जैसे–चिथड़ा कपड़ा।
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चिथाड़ना  : स० [सं० चीर्ण] १. चादर के रूप में वस्तुओं को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े करना। धज्जी-धज्जी उडा़ना। २. किसी को खूब खरी खोटी सुनाकर अपमानित करना। धज्जियाँ उडा़ना। डाँटना।
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चिद  : पुं०=चित्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चिदाकाश  : पुं० [सं० चित्-आकाश, उपमि० स०] आकाश के समान निर्लिप्त और सब का आधार भूत ब्रह्म। परब्रह्म।
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चिदात्मक  : वि० [सं० चित्-आत्मन्, ब० स० कप्] चेतना से युक्त।
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चिदात्मा(त्मन्)  : पुं० [चित्-आत्मन्,ब० स०] १. चैतन्य स्वरूप परब्रह्म। २. चेतना शक्ति।
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चिदानंद  : पुं० [सं० चित्-आनंद, कर्म० स०] चैतन्य और आनन्दमय पर ब्रह्म।
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चिदाभास  : पुं० [सं० चित्-आभास, ष० त०] १. आत्मा के चैतन्य स्वरूप पर पड़नेवाला ब्रह्म का आभास या प्रतिबिंब। २. जीवात्मा।
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चिदालोक  : पुं० [सं० चित्-आलोक, ष० त०] सदा बना रहनेवाला आत्मा का प्रकाश। शाश्वत प्रकाश।
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चिंदी  : स्त्री० [देश०] किसी चीज का बहुत ही छोटा टुकड़ा या धज्जी। मुहावरा–चिंदी चिंदी करना=किसी चीज को ऐसा तोडना-फोड़ना या चीरना फाड़ना कि उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ। धज्जियों के रूप में लाना। हिंदी की चिंदी निकालनाबहुत ही सूक्ष्म परन्तु व्यर्थ का तर्क करना या दोष निकालना।
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चिद्घन  : वि० [सं० चित्√हन्+अप्, घन, आदेश०] जिसमें चेतना शक्ति हो। चेतना से युक्त। उदाहरण–श्री वृंदावन चिद्घन कंछु छवि बरनि न जाई।–नंददास। पुं० ब्रह्मा।
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चिद्रूप  : वि० [सं० चित्-रूप, ब० स०] १. शुद्ध चैतन्य रूप, चिन्मय। २. परम ज्ञानी। ३. अच्छे स्वभाववाला। पुं० चैतन्य स्वरूप। परब्रह्म।
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चिद्विलास  : पुं० [सं० चित्-विलास, ष० त०] १. चैतन्य स्वरूप ईश्वर की माया। २. शंकराचार्य के एक प्रसिद्ध शिष्य।
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चिन  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का बहुत बड़ा सदाबहार पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और इमारतों में लगती है। २. एक प्रकार की घास जो चौपायों के खाने के लिए सुखाकर भी रखी जा सकती है।
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चिनक  : स्त्री० [हिं० चिनगी] १. जलन लिए हुए हलकी स्थानिक पीड़ा। चुनचुनाहट। जैसे–पेशाब करने के समय मूत्रनाली में होनेवाली चिनक। २. चिनगारी।
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चिनग  : स्त्री०=चिनक।
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चिनगटा  : पु०=चिथड़ा।
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चिनगारी  : स्त्री० [सं० चूर्ण, हिं० चुन+अंगार] १. जलती हुई वस्तु से निकलकर अलग होनेवाला आग का छोटा कण जो उड़कर इधर-उधर जाता या या सकता हो। मुहावरा–(किसी की) आँखों से चिनगारी छूटना=अत्यधिक क्रुद्ध होने पर आँखों का लाल हो जाना। चिनगारी छोड़ना=ऐसा काम करना या बात कहना जिससे बहुत बड़ा उपद्रव या लड़ाई खड़ी हो। २. दो कड़ी वस्तुओं की रगड़ से उत्पन्न होनेवाला आग का कण। ३. लाक्षणिक अर्थ में कोई ऐसा छोटा कार्य या बात जिसका प्रभाव आगे चलकर बहुत उग्र तथा भीषण हो सकता है।
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चिनगी  : स्त्री०=चिनगारी। पुं० बाजीगरों और मदारियों के साथ रहनेवाला एक छोटा लड़का जो अनेक प्रकार के कौशलपूर्ण खेल दिखलाता है।
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चिनत्ती  : स्त्री० [हिं० चेना] चेना नामक कदन्न के आटे की रोटी।
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चिनना  : स०=चुनना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चिनाई दौड़  : स्त्री० [चिनाई+दौड़] जहाज की घुमाव-फिराव की चाल। (लश०)
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चिनाना  : स०=चुनवाना।
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चिनाब  : स्त्री० [सं० चन्द्रभागा] पंजाब की एक प्रसिद्ध नदी। चंद्रभागा नामक नदी।
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चिनार  : पुं० [?] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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चिनिंग  : पुं० [?] बटेर की जाति का एक पक्षी जो रूप-रंग में घाघस जैसा किंतु उससे कुछ छोटा होता है।
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चिनिया  : वि० [चीन देश से] १. चीन देश में उपजने,बनने या होनेवाला। जैसे–चिनिया केला। २. जिसका संबंध चीन देश से हो। चीन संबंधी। पुं० एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। वि० [हिं० चीनी] १. चीनी का बना हुआ। २. जिसमें चीनी मिली हो। ३. चीनी के रंग या स्वाद का।
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चिनिया-केला  : पुं० [हिं० चिनिया+केला] भारत के पूर्वी प्रदेशों में होनेवाला छोटी जाति का एक केला जिसका स्वाद चीनी की तरह मीठा होता है।
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चिनिया-घोड़ा  : पुं० [हिं० चीन या चीनी] वह घोड़ा जिसके पैर सफेद रंग के और शरीर का अधिकांश लाल और कुछ भाग सफेद होता है।
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चिनिया-बत  : पुं० [हिं० चिनिया+बत] बत्तख की तरह की एक चिड़िया।
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चिनिया-बदाम  : पुं० [हिं० चीन+बादाम] मूँगफली।
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चिनिया-बेगम  : स्त्री० [हिं० चिनिया+बेगम] अफीम। (परिहास)
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चिनियारी  : स्त्री० [सं० चुचु?] सुसना का साग।
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चिनौटिया  : वि० [हिं० चिननाचुनना] १. जिसमें चुनट पड़ी हुई हो। २. चुना हुआ।
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चिनौटिया-चीर  : पुं० [हिं०+सं०] चुँदरी या चूनरी नाम का कपड़ा। उदाहरण–पहिरै चीर चिनौटिया चटक चौगुनी होति।–बिहारी।
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चिनौती  : स्त्री०=चुनौती।
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चिन्न  : पुं० [सं० चणक] चना।
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चिन्मय  : पुं० [सं० चित्+मयट्] पूर्ण तथा शुद्ध ज्ञानमय। पुं० परमात्मा।
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चिन्ह  : पुं० चिन्ह। (अशुद्ध रूप)।
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चिन्हना  : अ० चीन्हना। (पहचानना)।
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चिन्हवाना  : स० [हिं० चीन्हना का प्रे०] किसी को कुछ चीन्हने (पहचानने) में प्रवृत्त करना।
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चिन्हाना  : स० [हिं० चीन्हना का प्रे०] पहचान या परिचय कराना। चीन्हने या पहचानने में प्रवृत्त करना।
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चिन्हानी  : स्त्री० [हिं० चिन्ह्र] १. निशानी। यादगार। २. पहचान। ३. रेखा आदि के रूप में लगाया हुआ चिन्ह्र या निशान।
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चिन्हार  : वि० [सं० चिन्ह] १. जिसे कोई चीन्हता अर्थात् पहचानता हो। २. जान-पहचान का परिचित।
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चिन्हारना  : स० [सं० चिन्ह] चिन्हित करना। निशान लगाना।
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चिन्हारी  : स्त्री० [हिं० चिन्ह्र] १. जान-पहचान। परिचय। २. चिह्रानी पुं० १. व्यक्ति जिसमें जान-पहचान या परिचय हो। परिचित। २. चिन्ह। निशान।
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चिन्हित  : भू० कृ०=चिह्रित। (अशुद्ध रूप)।
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चिपकना  : अ० [अनु० चिपचिप] १. एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ बीच में कोई लसदार वस्तु होने के कारण लग या सट जाना। जुड़ जाना। जैसे–आँखें चिपकना। २. दो वस्तुओँ का तल से तल मिलकर इस प्रकार एक होना कि बीच में अवकाश न रह जाय। जैसे–दरवाजा चिपकना। ३. व्यक्तियों का पास-पास या सटकर बैठना। जैसे–दूर बैठो, चिपको मत। ४. किसी वस्तु या बात का कसकर पकड़ लेना। जैसे–लता का खंभे से चिपकना। ५. किसी व्यक्ति से प्रगाढ़ प्रेम स्थापित करना और उसके पास या साथ रहना। ६. लीन या रत रहना। जैसे–बच्चे खेल में चिपके रहते हैं।
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चिपकाना  : स० [हिं० चिपकना] १. किसी लसीली वस्तु की सहायता से दो वस्तुओं के तल परस्पर इस प्रकार जोड़ना कि वे जल्दी अलग न हो सकें। श्लिष्ट करना। जैसे–लिफाफे पर टिकट चिपकाना। २. अच्छी तरह आलिंगन करना। गले लगाना। लिपटाना। ३. किसी काम-धंधे या नौकरी में लगाना। (बोल-चाल) जैसे–इस लड़के को कहीं चिपका दो।
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चिपचिप  : स्त्री० [अनु०] १. वह अनुभूति जो किसी रसदार वस्तु को छूने से होती है। २. लसदार वस्तु को बार-बार छूते और उस पर से उँगली या हाथ हटाने से उत्पन्न होनेवाला शब्द।
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चिपचिपा  : वि० [हिं० चिपचिप] [स्त्री० चिपचिपी] (पदार्थ) जो गाढ़ा तथा लसदार होने के कारण वस्त्र, शरीर आदि से छूए जाने पर उससे चिपक जाता हो। जैसे–किवाड़ पर लगा हुआ चिपचिपा रंग।
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चिपचिपाना  : अ० [हिं० चिपचिप] किसी गाढ़ी तथा लसीली वस्तु का चिपचिप शब्द करना या किसी वस्तु से छूए जाने पर उससे चिपक जाना। जैसे–गोंद या चाशनी का चिपचिपाना। स० किसी चीज को चिपचिपा करना या बनाना।
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चिपचिपाहट  : स्त्री० [हिं० चिपचिपा] चिपचिपाने अथवा चिपचिपे होने की अवस्था, गुण या भाव। लसीलापन। लस। लसी।
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चिपट  : वि० [सं० नि+पटच्, चि० आदेश] १. चिपटी नाकवाला। पुं० चिड़वा। इस प्रकार जुड़ना कि जल्दी अलग न हो सके। चिपकना। सटना। जैसे–लता या पेड़ से चिपटना। २. दे० ‘चिमटना’।
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चिपटा  : वि० [सं० चर्पट, दं० प्रा० चाप्टो, बँ, चाप्टी, उ० चप्टो० गु० चांपट, चपट्, ने० चेप्टो, मरा० चापट] [स्त्री० चिपटी] १. जिसके ऊपरी तल में आवश्यक अथवा उचित उभार न हो। जैसे–चिपटी नाक, चिपटी सुपारी।
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चिपटाना  : स० [हिं० चिपटना] १. चिपकना। सटाना। २. आलिंगन करना। लिपटाना।
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चिपटी  : स्त्री० [हिं० चिपटा] १. कान में पहनने की एक प्रकार की बाली। २. भग। योनि। (बाजारू)। मुहावरा–चिपटी खेलना या लड़ाना=कामातुर अथवा दुश्चरित्रा स्त्रियों का आपस में भग या योनि रगड़ना। (बाजारू) वि० हिं० चिटा का स्त्री रूप।
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चिपड़ा  : वि० [हिं० चीपड़ा] जिसकी आँख में अधिक चीपड़ रहता हो। पुं० [स्त्री० चिपड़] जलाने के लिए सुखाए हुए गोबर के बड़े पिंड। उपला। कंडा। गोंइठा।
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चिपड़ी  : स्त्री० [हिं० चिप्पड़] छोटा चिपड़ा या कंडा। उपली। गोंइठी।
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चिपबत्ती  : वि० [हिं० चिरना+बत्ती] (कपड़ा) जो चिर या फटकर इतने छोटे-छोटे टुकडों के रूप में हो गया हो कि दीए की बत्ती बनाने के सिवा और किसी काम में न आ सकता हो। चिथड़े-चिथड़े किया हुआ।
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चिंपा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का काला कीड़ा जो ज्वार बाजरे अरहर और तमाखू की फसल में लगकर उसे खा जाता है।
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चिंपाजी  : पुं० [अं० शिंपैंजी] अफ्रीका में होनेवाला एक प्रकार का बन मानुष जिसकी आकृति मनुष्य से बहुत मिलती जुलती है। इसके सारे शरीर पर काले, घने और मोटे बाल होते है। यह प्रायः झुंड बनाकर रहता है।
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चिपिट  : वि० [सं०√चि (चयन)+पिटच्] चिपटा। पुं० १. चिड़वा। २. चिपटी नाकवाला व्यक्ति। ३. आँख में उँगली लगने, दबने आदि के कारण दृष्टि में होनेवाला वह क्षणिक विकार जिससे चीजें अपने स्थान से कुछ ऊपर-नीचे हटी हुई या एक ही जगह दो दिखाई देती हैं।
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चिपिट-नासिक  : पुं० [ब० स०] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो कैलाश पर्वत के उत्तर कहा गया है। २. तातार या मंगोल देश जहाँ के निवासियों की नाक चिपटी होती है। ३. उक्त देश का निवासी। वि० चिपटी नाकवाला।
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चिपीटक  : पुं० [सं० चिपिट+कन्, पृषो० सिद्धि] चिड़वा।
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चिपुआ  : पुं० [देश०] चेल्हवा या चेल्हा मछली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिप्प  : पुं० [सं०√चिक्क (पीड़ा देना)+अच्, क्क, को० प्प आदेश] एक रोग जिसमें उँगलियों के नाखूनों के नीचे तथा आस-पास का माँस गलने या पकने लगता है।
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चिप्पख  : वि० [हिं० चिपकना] १. चिपका या दबा हुआ। २. चिपटा। ३. बहुत ही दुबला-पतला।
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चिप्पड़  : पुं० [सं० चिपिट] [स्त्री० चिप्पी] १. एक छोटा चिपटा टुकड़ा जो किसी चीज के सूख जाने पर उसकी ऊपरी तल में से कुछ अलग हो रहा हो या निकल चला हो। जैसे–जलाने की लकड़ी के ऊपर का चिप्पड़। २. ऊपर से लगाया या सटाया जानेवाला कोई चिपटा खंड। जैसे–इसका छेद बंद करने के लिए ऊपर से एक चिप्पड़ लगा दो।
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चिप्पिका  : स्त्री० [सं० चिप्प+कन्-टाप्,इत्व] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक रात्रिचर जंतु। २. एक प्रकार की चिड़िया।
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चिप्पी  : स्त्री० [हिं० चिप्पड़] १. छोटा चिप्पड़ जो ऊपर से चिपकाया, लगाया या सटाया जाय। जैसे–कागज की चिप्पी। २. वह बटखरा जिससे तौलकर सब को बराबर-बराबर अनाज या रसद बाँटी जाती है। ३. उक्त प्रकार से बाँटा जानेवाला अनाज या रसद। सीधा (साधुओं की परिभाषा)। स्त्री०=चिपड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिबि  : स्त्री० दे० ‘चिवि’।
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चिबिल्ला  : वि० दे० ‘चिलबिल्ला’।
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चिबिल्लापन  : पुं०=चिलबिल्लापन।
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चिबुक  : पुं० दे० ‘चिवुक’।
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चिमगादड़  : पुं०=चमगादड़।
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चिमटना  : अ० [सं० स्तिम, प्रा० तिम, चिम्, बँ० चिमटा, उ० चिमुटबा, मरा० चिवटणें] १.किसी जीव का दूसरे जीव या पदार्थ को अच्छी तरह पकड़कर उसके साथ लग या सट जाना। जैसे–(क) बच्चे का माँ के गले से चिमटना। (ख) गुड़ से च्यूँटों का चिमटना। २. स्वाथ साधन के लिए बुरी तरह से किसी को ग्रसना या पकड़ना। जैसे–मुफ्त खोरों का किसी रईस से चिमटना। ३. बहुत बुरी तरह से किसी के पीछे पड़ना और जल्दी उसका पिंड न छोड़ना। जैसे–भिखमंगों का यात्रियों से चिमटना। ४. चिपकना। सटना।
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चिमटवाना  : स० [हिं० चिमटना का प्रे०] दूसरे से चिमटाने का काम कराना। किसी को चिमटने या चिमटाने के लिए प्रवृत्त करना।
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चिमटा  : पुं० [हिं० चिमटना] [स्त्री० चिमटी] (हाथ की सुरक्षा के लिए) पीतल, लोहे आदि की धातुओं का बना हुआ वह लंबा उपकरण जिसमें आगे की ओर से दो लंबी फलियाँ होती हैं और जिनसे पकड़कर चीजें उठाई या रखी जाती हैं। दस्त-पनाह। जैसे–रसोई घर में कोयला उठाने या तवा पकड़ने का चिमटा, साँप पकड़ने का चिमटा।
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चिमटाना  : स० [हिं० चिमटना] १. किसी को चिमटने में प्रवृत्त करना। २. आलिंगन करना। गले लगाना। लिपटाना।
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चिमटी  : स्त्री० [हिं० चिमटा] कई प्रकार के कारीगरों के काम का वह छोटा उपकरण जो चिमटे के आकार-प्रकार का होता है और जिससे वे छोटी-छोटी चीजें उठाते, जमाते या रखते हैं। जैसे–लोहारों सुनारों या हज्जामों की चिमटी।
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चिमड़ा  : वि०=चीमड़
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चिमन  : पुं० चमन।=(बगीचा)।
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चिमनी  : स्त्री० [अं०] १. भवनों, यंत्रों आदि में ऊपर की ओर ऊँची उठी हुई वह गोलाकार नली जिसके द्वारा नीचे का धुआँ ऊपर उठकर बाहर निकलता है। जैसे–बिजलीघर की चिमनी, रेल के इंजन की चिमनी। २. लंपों आदि में शीशे की वह गोलाकार नली जिससे धुआँ ऊपर जाता है और नीचे की ओर प्रकाश फैलता है।
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चिमिक  : पुं० [सं०√चि (चयन)+मिक्, चिमि+कन्] तोता।
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चिमीट  : स्त्री० [हिं० चिमटना] १. चिमटने की क्रिया या भाव। २. चिमटने के कारण पड़नेवाला दबाव या भार। उदाहरण–इनको लक्कड़ की चिमीट में भूमि से सटा हुआ कर दो।-वृदावनलाल वर्मा।
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चिमोटा  : पुं०=चिमोटा।
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चिमोटी  : स्त्री० १.=चिमटी। २.=चमोटी।
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चिर  : वि० [सं०√चि (चयन करना)+रक्] १.जो बहुत दिनों से चला आ रहा हो या बहुत दिनों तक चलता रहे। दीर्घ काल-व्यापी। जैसे–चिरायु=अधिक काल तक बनी रहने वाली आयु।, चिरस्थायी-बहुत दिनों तक बना रहने वाला। २. दीर्घ या बहुत (समय)। पुं० देर। विलंब। क्रि० वि० बहुत दिनों तक। पुं० तीन मात्राओं का वह गण जिसका पहला वर्ण लघु हो।
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चिर-काल  : पुं० [कर्म० स०] [वि० चिरकालिक] दीर्घकाल। बहुत समय। जैसे–चिरकाल से ऐसा ही होता चला आ रहा है।
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चिर-कुमार  : वि० [च० त०] [स्त्री० चिर कुमारी] सदा कुमार अर्थात् ब्रह्मचारी बना रहनेवाला। विवाह न करनेवाला।
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चिर-क्रिय  : वि० [ब० स०] काम में देर लगानेवाला। दीर्घसूत्री।
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चिर-जीवन  : पुं० [मध्य० स०] सदा बना रहनेवाला जीवन। अमर जीवन।
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चिर-तिक्त  : पुं० [ब० स०] चिरायता।
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चिर-तुषार-रेखा  : स्त्री० [मध्य० स०] पहाड़ों आदि की ऊँचाई का वह स्तर जिसके ऊपर सदा बरफ जमा रहता है। (स्नोलाइन)।
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चिर-निद्रा  : स्त्री० [च० त०] मृत्यु।
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चिर-नूतन  : वि० [च० त०] बहुत दिनों तक या सदा नया बना रहनेवाला।
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चिर-परिचित  : वि० [तृ० त०] जिससे बहुत दिनों से परिचय या जान पहचान हो।
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चिर-प्रतीक्षित  : वि० [तृ० त०] जिसकी बहुत दिनों से प्रतीक्षा की जा रही हो।
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चिर-प्रसिद्ध  : वि० [तृ० त०] जो बहुत दिनों से प्रसिद्ध या मशहूर हो।
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चिर-बिल्ब  : पुं० [सं० चिर√बिल् (ढकना)+वन्] करंज वृक्ष। कंजा।
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चिर-मेही(हिन्)  : पुं० [सं० चिर√मिह् (मूत्र करना)+णिनि] गधा, जो बहुत देर तक पेशाब करता रहता है।
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चिर-रोगी(गिन्)  : वि० [तृ० त०] १. जो बहुत दिनों से बीमार चला आ रहा हो। २. सदा रोगी बना रहनेवाला।
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चिर-विस्मृत  : वि० [तृ० त०] जिसे लोग बहुत दिनों से भूल चुके हों।
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चिर-वीर्य्य  : पुं० [ब० स०] लाल रेडं का वृक्ष।
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चिर-शत्रु  : वि० [कर्म० स०] [भाव० चिर शत्रुता] १. पुराना दुश्मन। २. सदा दुश्मन या शत्रु बना रहनेवाला।
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चिर-शांति  : सत्री० [च० त०] १. मृत्यु। २. मुक्ति। मोक्ष।
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चिर-संगी(गिन्)  : वि० [कर्म० स०] बहुत दिनों का या पुराना संगी (साथी)।
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चिर-समाधि  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी समाधि जिसका कभी अंत न हो अर्थात् मृत्यु।
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चिर-स्मरणीय  : वि० [सं० कर्म० स०] जिसे लोग बहुत दिनों तक याद या स्मरण करते रहें। जो जल्दी भुलाया या भूला न जा सके। (पूजनीयता, महत्व आदि का सूचक)।
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चिरई  : स्त्री०=चिड़िया। (पूरब)।
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चिरक  : स्त्री० [हिं० चिरकना] बहुत जोर लगाने पर होनेवाला जरा सा पाखाना। मल-कण।
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चिरक-ढाँस  : स्त्री० [हिं० चिरकना+ढाँसना] १ कुकरखाँसी। ढाँसी। २. वह अवस्था जिसमें मनुष्य प्रायः कुछ न कुछ रोगी बना रहता है। ३. नित्य होता रहनेवाला या प्रायः बना रहनेवाला झगड़ा।
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चिरकना  : अ० [अनु०] बहुत कष्ट से और थोड़ा-थोड़ा मल-त्याग करना, (कोष्ठ-बद्धता का लक्षण)।
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चिरकार  : वि० [सं० चिर√कृ (करना)+अण्] हर काम में बहुत देर लगाने वाला। दीर्घ-सूत्री।
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चिरकारिक  : वि० [सं० चिरकारिन+कन्] =चिरकार।
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चिरकारी(रिन्)  : वि० [सं० चिर√कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० चिरकारिणी] चिरकार। (दे०)।
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चिरकालिक  : वि० [सं० चिर-काल+ठन्-इक] १. बहुत दिनों से चला आता हुआ। पुराना। २. बहुत दिनों तक बना रहनेवाला।
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चिरकालीन  : वि० [सं० चिरकाल+ख-ईन] चिरकालिक।
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चिरकीन  : वि० [फा०] १. कोष्ठबद्धता के कारण थोड़ा-थोड़ा मल-त्याग करनेवाला। २. बहुत अधिक कुत्सित, गंदा या मैला।
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चिरकुट  : पुं० [हिं० चिरना+कुटना] फटा-पुराना कपड़ा। चिथड़ा।
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चिरक्रियता  : स्त्री० [सं० चिरक्रिय+तल्-टाप्] चिर-क्रिय होने की अवस्था या भाव। दीर्घसूत्रता।
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चिरचना  : अ०=चिड़चिड़ाना।
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चिरचिटा  : पुं० [सं० चिंचिड़ा] १. चिचड़ा। अपामार्ग। २. एक प्रकार की बहुत ऊँची या बड़ी घास जो चौपाये खाते है।
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चिरचिरा  : वि० चिड़चिड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० दे० ‘चिंचड़ा’।
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चिरंजीव  : वि० [सं० चिरम्जीव् (जीना)+अच्] १. बहुत दिनों तक जीवित रहनेवाला। २. अमर। अव्य० छोटों के लिए आशीर्वादात्मक विशेषण या संबोधन जिसका अर्थ होता है–बहुत दिनों तक जीवित रहो। पुं० १. पुत्र। बेटा। जैसे–हमारे भाई साहब के चिरंजीव आज यहाँ आनेवाले हैं। २. पुराणों के अनुसार अश्वत्थामा, कृपाचार्य, परशुराम, बलि, विभीषण, व्यास और हनुमान जो सदा जीवित रहनेवाले माने जाते हैं। ३. विष्णु। ४. कौआ।
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चिरजीवक  : वि० [सं० चिर√जीव् (जीना)+ण्वुल-अक] बहुत दिनों तक जीवित रहनेवाला। चिरजीवी। पुं० जीवक नामक वृक्ष।
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चिरंजीवी(विन्)  : वि० [सं० चिरम्√जीव्+णिनि] =चिरजीवी।
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चिरजीवी(विन्)  : वि० [सं० चिर√जीव्+णिनि] १. अधिक या बहुत दिनों तक जीनेवाला। दीर्घजीवी। २. सदा जीवित रहनेवाला। अमर। ३. सदा बना रहनेवाला। शाश्वत। पुं० १. विष्णु। २. मार्कडेय ऋषि। ३. कौआ। ४. जीवक वृक्ष। ५. सेमर का वृक्ष। ६. अश्वत्थामा, बलि व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम जो चिरजीवी माने गये हैं।
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चिरंटी  : स्त्री० [सं० चिरम्अट् (गति)+अच्, ङीष्, पृषो० मुम्०] १. वह सयानी लड़की जो पिता के घर रहती हो। २. युवती।
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चिरंतन  : वि० [सं० चिरम्+टयु-अन, तुट् आगम] जो बहुत दिनों से चला आ रहा हो। पुरातन। पुराना।
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चिरता  : पुं०=चिलता (कवच)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिरना  : अ० [सं० चीर्ण, हिं० चीरना] १. किसी वस्तु का किसी दूसरी धारदार वस्तु द्वारा चीरा जाना। छोटे-छोटे टुकड़ों में आरे, चाकू आदि के द्वारा विभक्त होना। २. किसी सीध में फटना या फाड़ा जाना। जैसे–चाकू से उंगली चिरना। पुं० वह औजार जिससे कोई चीज चीरी जाती हो। जैसे–कसेरों, कुम्हारों या सुनारों का चिरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिरपाकी(किन्)  : वि० [सं० चिर√पच् (पकना)+णिनि] १. बहुत देर में पकनेवाला। २. बहुत देर में पचनेवाला। पुं० कपित्थ । कैथ।
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चिरपुष्प  : पु० [ब० स०] बकुल। मौलसिरी।
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चिरम  : स्त्री० [सं० चर्मरी] गुंजा। घुँघची।
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चिरमिटी  : स्त्री० [हिं० चिरम] गुंजा। घुँघची।
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चिरमी  : स्त्री०=चिरमिटी।
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चिरला  : पुं० [देश०] एक प्रकार की छोटी झाड़ी।
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चिरवल  : पुं० [सं० चिरबिल्व या चिरबल्ली] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ की छाल से कपड़े रंगने के लिए सुन्दर लाल रंग निकलता है।
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चिरवाई  : स्त्री० [स्त्री० चिरवाना] चिरवाने का काम, भाव या मजदूरी। स्त्री० [सं० चिर+वाही ?] पानी बरसने पर खेतों में होनेवाली पहली जोताई।
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चिरवादार  : पुं० [चिरवा?+फा० दार] [स्त्री० चिरवा दारिन] साईस।
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चिरवाना  : स० [हिं० चीरना का प्रे०] चीरने का काम दूसरे से कराना।
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चिरस्थ  : वि० [सं० चिर√स्था (ठहरना)+क] चिरस्थायी।
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चिरस्थायी(यिन्)  : वि० [सं० चिर√स्था+णिनि] बहुत दिनों तक बना रहनेवाला। जैसे–चिरस्थायी आदेश।
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चिरहँटा  : पुं०[हिं०चिड़ी+हंता] चिड़ीमार। बहेलिया।
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चिरहुला  : पुं० [?] [स्त्री० चिरहुली] १. चिड़ा। २. पक्षी।
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चिराइता  : पुं० =चिरायता।
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चिराइन  : स्त्री०=चिरायँध।
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चिराई  : स्त्री०=[हिं० चीरना] चीरने या चीरे जाने का काम, भाव या मजदूरी।
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चिराक  : पुं० =चिराग।
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चिराग  : पुं० [फा० चिराग] दीपक। दीआ। मुहावरा–चिराग का हँसना=दीये की बत्ती से फूल (अर्थात् चिनगारियाँ) झड़ना। चिराग को हाथ देना-चिराग बुझाना। चिराग गुल होना (क) दीये का बुझ जाना। (ख) रौनक या शोबा का नष्ट हो जाना। (ग) परिवार या वंश में कोई न बच रहना। चिराग ठंढा करना-दीया बुझाना। चिराग तले अँधेरा होना=ऐसा स्थान या स्थिति में खराबी या बुराई होना जहाँ साधारणयतः वह किसी प्रकार न होता या न हो सकता हो। जैसे–हाकिम के सामने रिश्वत लेना, उदार धनी के संबंधी का भूखों मरना आदि। चिराग बढ़ानाचिराग बुझाना। दीया ठंढ़ा करना। चिराग में बत्ती पड़नासंध्या हो जाने पर दीया जलाना। चिराग लेकर ढूँढ़ना-बहुत अधिक प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ना। चिराग से चिराग जलना=एक से दूसरे का उपकार, लाभ या हित होना। चिराग से फूल झडऩा=चिराग की जली हुई बत्ती से चिनगारियाँ निकलना या गिरना। पद-चिराग जले=अँधेरा होने पर। संध्या समय। चिराग बत्ती का वक्त=संध्या का समय जब दीया जलाया जाता है। कहा०–चिराग गुल पगड़ी गायदमौका मिलते ही धन का उड़ा लिया जाना।
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चिराग-गुल  : पुं० [फा०] १.युद्ध आदि के समय वह संकट स्थिति जिसमें शत्रुओं के आक्रमण से लोग या तो रोशनी नहीं करते या अपने घर से रोशनी बाहर नहीं आने देते । २. युद्धाभ्यास के समय नगर में बत्तियाँ न जलाने से उत्पन्न होनेवाली स्थिति। (ब्लैक आउट)।
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चिराग-दाग  : पुं० [अं०] वह आधार जिस पर दीया रखा जाता, है। दीयट। शमादान।
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चिरागी  : स्त्री० [अं०] १. किसी स्थान पर दीया बत्ती करने अर्थात् नित्य और नियमित रूप से दीया जलाते रहने का व्यय। २. किसी पवित्र स्थान पर उक्त प्रकार के व्यय-निर्वाह के लिए चढ़ाई जानेवाली भेंट। ३. वह पुरस्कार जो जुए के अड्डे पर दीया जलाने और सफाई करनेवाले व्यक्ति को जीतनेवाले जुआरियों से मिलता है।
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चिराटिका  : स्त्री० [सं० चिर√अट्+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] १. सफेद पुनर्नवा। २. चिरायता।
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चिरातन  : वि० [सं० चिर+तनप्, दीर्घ] १. पुरातन। पुराना। २. फटा हुआ। जीर्ण-शीर्ण।
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चिरातिक्त  : पुं०=चिरतिक्त।
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चिराद  : पुं० [सं० चिराद्] बत्तक की जाति की एक बड़ी चिड़िया जिसका माँस खाने में स्वादिष्ट होता है।
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चिराँदा  : वि० [अनु० चिर चिरलकड़ी आदि जलने का शब्द] थोड़ी थोड़ी बात पर बिगड़ बैठने वाला। चिड़चिड़ा।
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चिराद्  : पुं० [सं० चिर√अत् (गति)+क्विप्] गरुड़।
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चिरान  : वि०=चिराना। (पुराना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिराना  : स० [हिं० चीरना] चीरने का काम किसी से कराना। फड़वाना। जैसे–लकड़ी चिराना। वि० [सं० चिरतन] १. पुराना। प्राचीन। २. जीर्ण-शीर्ण। जैसे–पुराने-चिराने कपड़े।
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चिरायता  : पुं० [सं० चिरतिक्त] एक प्रसिद्ध पौधा जिसकी पत्तियाँ और छाल बहुत कड़वी होती और वैद्यक में ज्वर-नाशक तथा रक्तशोधक मानी जाती है। इसकी छोटी-बड़ी अनेक जातियाँ होती हैं। जैसे–कलपनाथ, गीमा, शिलारस, आदि। किरातक। चिरतिक्त। भूनिंब।
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चिरायँध  : स्त्री० [सं० चर्म+गंध] १. वह दुर्गध जो चरबी, चमड़े, बाल, माँस आदि के जलने से फैलती है। २. किसी के संबंध में बहुत बुरी तरह से फैलनेवाली बदनामी।
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चिरायु(स्)  : वि० [सं० चिर-आयुस्, ब० स०] जिसकी आयु लंबी हो । दीर्घायु।
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चिरारी  : स्त्री० [सं० चार] चिरौंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिराव  : पुं० [हिं० चीरना] १. चीरने या चीरे जाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. चीरने या चीरे जाने के कारण होनेवाला क्षत या घाव।
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चिरि  : पुं० [सं०√चि (चयन करना)+रिक्] तोता। स्त्री०=चिड़ियाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिरिका  : स्त्री०[सं०चिरि+कन्-टाप्] एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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चिरिंटिका, चिरिंटी  : स्त्री०=चिरंटी।
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चिरिया  : स्त्री०=चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिरिहार  : पुं० [हिं० चिड़िया+हार(प्रत्यय)] चिड़ीमार। उदाहरण–कत चिरिहार ढुकत लै लासा।–जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चिरी  : स्त्री० चिड़ी (चिड़िया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिरु  : पुं० [सं० चि+रुक्] कंधे और बाँह का जोड़। मोढ़ा।
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चिरैता  : पुं०=चिरायता।
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चिरैया  : स्त्री० [हिं० चिड़िया] १. पक्षी। २. पुष्प नक्षत्र।
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चिरोंटा  : पुं० चिड़ा (गौरैया पक्षी)।
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चिरौंजी  : स्त्री० [सं० चार+बीज] पयार या पयाल नामक वृक्ष के फलों के बीच की गिरी जो खाने में बहुत स्वादिष्ट होती है और मेवों में गिनी जाती तथा पकवानों और मिठाइयों में पड़ती है।
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चिरौरी  : स्त्री० [अनु०] दीनतापूर्वक की जानेवाली प्रार्थना या विनती।
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चिर्क  : पुं० [फा०] १. गंदगी। २. गृह। मल। ३. पीब। मवाद।
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चिर्म  : पुं० [फा० मि० सं० चर्म] चमड़ा।
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चिर्मटी  : स्त्री० [सं० चिर√भट् (पालना)+अच्, पृषो० सिद्धि] ककड़ी।
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चिर्री  : स्त्री० [सं० चिरिका=एक अस्त्र] बिजली। वज्र। क्रि. प्र. ० –गिरना।–पड़ना।
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चिलक  : स्त्री० [हिं० चिलकना] १. सहसा दिखाई देनेवाली और क्षणिक कांति या चमक। उदाहरण–चिलक चौंधि में रूप ठग हाँसी फाँसी डारि।–बिहारी। २. सहसा अथवा रह-रहकर कुछ समय के लिए उठनेवाली क्षणिक पीड़ा। टीस। चमक। पुं०=तिलक (पौधा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिलकना  : अ० [हिं० चिल्ली=बिजली या अनु०] १. रह-रहकर चमकना। चमचमाना। उदाहरण–सब ठाठ इसी चिलकी से देखें हैं चिलकत्ते।-नजीर। २. रह-रहकर दरद या पीड़ा होना। जैसे–उठने-बैठने में कमर या पीठ चिलकना।
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चिलका  : पुं० [?] नवजात शिशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० चिलकी। (रुपया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० उड़ीसा की एक प्रसिद्ध बड़ी झील।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिलकाई  : स्त्री० [हिं० चिलक+आई (प्रत्य)] १. चमक। उदाहरण–कै मेधनि सों सुचि चंचला की चिलकाई।–रत्नाकर। २. उतार-चढ़ाव। ३. उत्तेजना। वि० चमकीला।
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चिलकाना  : स० [हिं० चिलक] १. चिलकने या चमकने में प्रवृत्त करना। जैसे–माँज या रगड़कर गहने या बरतन चिलकाना। २. चमकाना।
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चिलकी  : स्त्री० [हिं० चिलकना] १. चाँदी का रुपया, विशेषतः नया रुपया जो चमकता हो। उदाहरण–सब ठाठ इसी चिलकी से देखे हैं चिलकते।–नजीर। २. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा उदाहरण–चिलकी चिक्कन चाह चीर चीनी ज़ापानी।–रत्नाकर। वि० चमकीला।
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चिलगोजा  : पुं० [फा०] चीड़ या सनोबर का छोटा, लंबोतरा फल जिसके अंदर मीठी और स्वादिष्ट गिरी होती है और इसी लिए जिसकी गिनती मेवों में होती है।
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चिलचिल  : पुं० [हिं० चिलकना] अभ्रक। अबरक। भोंडल। वि० चमकीला।
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चिलचिलाना  : अ० चिलकना। (चमकना)। स०=चमकाना।
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चिलड़ा  : पुं० [देश०] पिसी हुई दाल बेसन आदि की बनी हुई पूरी या रोटी के आकार का पकवान। उलटा। चीला।
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चिलता  : पुं० [फा० चिलतः] एक प्रकार का कवच या बकतर।
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चिलबाँस  : पुं० [हिं० चिड़िया] चिड़िया फँसाने का एक प्रकार का फंदा।
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चिलबिल  : पुं० [सं० चिलबिल्व] १. एक प्रकार का बड़ा जंगली पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और खेती के औजार बनाने के काम आती है। २. एक प्रकार का बरसाती पौधा जिसका सफेद जड़ से वर के लिए मुकुट मौर आदि बनते हैं।
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चिलबिला  : वि० [सं० चल+बल] [स्त्री० चिलबिल्ली] चंचल। चपल। नटखट।
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चिलबिल्ला  : वि०=चिलबिला।
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चिलम  : स्त्री० [फा०] मि्टटी का कटोरी के आकार का नलीदार एक प्रसिद्ध पात्र जिसमें गाँजा चरस या तमाकू तथा आग रखकर यों ही अथवा हुक्के की नली पर लगाकर पीया जाता है। क्रि० प्र०–पीना। मुहावरा–चिलम चढ़ाना या भरना=चिलम पर तमाकू (गाँजा आदि) और आग रखकर उसे पीने के लिए तैयार करना। (किसी की) चिलमें चढ़ाना या भरना=किसी की तुच्छ से तुच्छ सेवाएँ करना।
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चिलम-गर्दी  : स्त्री० [फा०] हुक्के में वह लंबी बाँस की नली जो चुल और जामिन से मिली होती है। इस पर चिलम रखी जाती है। (नैचाबन्द)।
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चिलम-चट  : वि० [फा० चिलम+हिं० चाटना] १. वह जो चिलम पीने का बहुत व्यसनी हो। २. वह जो इस प्रकार कसकर चिलम पीता हो कि फिर वह दूसरे के पीने योग्य न रह जाय।
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चिलम-पोश  : पुं० [फा०] धातु का झँझरीदार गहरा ढक्कन जो चिलम पर इसलिए रखा जाता है कि उसमें से चिनगारियाँ उडकर इधर-उधर न गिरे।
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चिलम-बरदार  : पुं० [फा०] चिलम भरकर हुक्का पिलानेवाला । सेवक।
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चिलमची  : स्त्री० [फा०] देग के आकार का एक बरतन जिसके किनारे चारों ओर थाली की तरह दूर तक फैले होते हैं। इसमें लोग हाथ धोते और कुल्ली आदि करते हैं।
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चिलमन  : स्त्री० [फा०] बाँस की फट्टियों आदि का परदा जो खिड़कियों दरवाजों आदि के आगे लटकाया जाता है। चिक।
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चिलमिलिका  : स्त्री० [सं० चिर√मिल्+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] १.गले में पहनने की एक प्रकार की माला। २. खद्योत जुगनूँ। ३. बिजली।
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चिलमीलिका  : स्त्री०=चिलमिलिका।
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चिलसी  : स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का सुरती का पत्ता जो कश्मीर में होता है। २. दे० चिलबाँस।
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चिलहुल  : पुं० [सं० चिल] एक प्रकार की छोटी मछली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिलिम  : स्त्री०=चिलम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिलिया  : स्त्री० [सं० चिल] चिलहुल मछली।
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चिलुआ  : स्त्री० चेल्हा। (मछली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिल्काउर  : स्त्री० [?] प्रसूता स्त्री। जच्चा।
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चिल्ल-पों  : स्त्री० [हिं० चिल्लाना+अनु० पों] १. सकंट पड़ने पर होनेवाली दीनतापूर्वक चिल्लाहट। जैसे–कुत्ते आदि मार पड़ने पर करते हैं। २. चिल्लाहट। शोर-गुल। जैसे–इस घर में रोज चिलपों होती रहती हैं। क्रि० प्र०–मचना।–मचाना।
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चिल्लका  : स्त्री०[सं०चिल्ल√का (शब्द करना)+क टाप्] झींगुर।
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चिल्लड़  : पुं० चीलर। (कीड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिल्लभक्ष्या  : स्त्री० [ष० त०] नख या नखी नामक गंध द्रव्य।
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चिल्लवाना  : स० [हिं० चिल्लाना का प्रे०] किसी को चिल्लाने में प्रवृत्त करना।
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चिल्लवांस  : स्त्री० [हिं० चिल्लाना] कष्ट, रोग आदि के समय बच्चों का चिल्लाना।
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चिल्ला  : पुं० [फा० चिल्लः] १. किसी विशिष्ट अवसर पर या किसी विशेष उद्देश्य की सिद्धि के लिए नियत किये हुए ४॰ दिन जिसमें बहुत सी बातों का बचाव और बहुत–से नियमों का पालन करना पड़ता है। जैसे–(क) प्रसूता के संबंध में प्रसव के दिन से ४॰ दिनों का समय। (ख) किसी की मृ्त्यु होने पर ४॰ दिनों तक मनाया जानेवाला शोक। (ग) व्रत आदि के पालन के लिए ४॰ दिनों का समय। मुहावरा–चिल्ला खींचना या बाँधना=४॰ दिनों तक धार्मिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट प्रकार के व्रतों का आचरण या पालन करना। २, सौर धनुमास के अंतिम १५ दिनों और मकर मास के आरंभिक २५ दिनों का समय जिसमें बहुत कड़ी रसदी पड़ती है। पद-चिल्ले का जाड़ा यासरदी=बहुत कड़ा जाड़ा या तेज सरदी। पुं० [?] १. कमान या धनुष की डोरी। पतंचिका। क्रि० प्र० उतारना। चढ़ना। २. पगड़ी का वह पल्ला या सिरा जिस पर कलाबत्तू का काम बना हो। ३. एक प्रकार का जंगली पेड़। ४. चीला या उलटा नाम का पकवान।
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चिल्लाना  : अ० [हिं चीत्कार] १. अधिक जोर से तीखे स्वर में मुँह से कोई शब्द बार-बार कहना। जैसे—वह पगला दिन भर गालियों में राम राम चिल्लाता फिरता है। २. किसी का ध्यान आकृष्ट करने के लिए गलाफाड़ कर कुछ कहना। जैसे—इस मिथ्या दोष के लगाये जाने पर वह चिल्लाकर बोल उठे। अस्पष्ट तथा कर्णकटु शब्द या ध्वनि करना। शोर या हल्ला करना। जैसे—गली के कुत्ते चिल्ला रहे थे।
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चिल्लाभ  : पुं० [सं० चिल्ला-आ√भा (प्रतीत होना)+क] १. छोटी-छोटी चोरियाँ करनेवाला व्यक्ति। २. गिरहकट।
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चिल्लाहट  : स्त्री० [हिं० चिल्लाना] १. चिल्लाने की क्रिया या भाव। ऊँचे तथा अस्पष्ट शब्दों में किया हुआ उच्चारण। २. शोर-गुल। हो-हल्ला। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना।
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चिल्लिका  : स्त्री० [सं० चिल्ल+इनि+कन्,टाप्√] १. दोनों भौहों के बीच का स्थान। २. छोटी पत्तियों वाली एक प्रकार का बथुआ नामक साग। ३. झिल्ली नामक कीड़ा।
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चिल्ली  : स्त्री० [सं० चिल्लि+ङीष्] १. झिल्ली नाम का कीड़ा। २.लोध ३. बथुआ का साग। ४. एक प्रकार का छोटा वृक्ष जिसकी खाकी छाल पर सफेद चित्तियाँ होती हैं। स्त्री० [सं०=चिरिका-एक प्रकार का अस्त्र] १. एक प्रकार का भीषण अस्त्र। चिर्री। २. बिजली। वज्र।
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चिल्हवाड़ा  : पुं० [हिं० चील] लड़कों का एक खेल जो पेड़ों पर चढ़कर खेला जाता है। गिलहर।
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चिल्हवाँस  : पुं०=चिलवाँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चिल्ही  : स्त्री०=चील (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिल्होर  : स्त्री०=चील(पक्षी)।
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चिवि  : स्त्री० [सं०√चीव् (ढँकना)+इनि, पृषो० सिद्धि] चिबुक। ठोढ़ी।
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चिविट  : पुं० [सं० चिपिट, पृषो० सिद्धि] चिड़वा।
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चिविल्लिका  : स्त्री० [सं० चिविल्ल+कन्+टाप्, इत्व] एक प्रकार का क्षुप।
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चिवुक  : पुं० [सं०√चीव्+उ,+कन्] १. चिबुक। ठुड्डी। ठोढ़ी। २. मुचकुंद का पेड़।
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चिंहकार  : पुं० १. =चीत्कार। २. =चहचहा (पक्षियों का)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चिहल  : स्त्री० =चहल (आनंद)।
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चिहाना  : अ० [?] चकित होना।
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चिहार  : स्त्री० दे० ‘चिघाड़’।
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चिहु  : वि० दे० चहुँ। उदाहरण–लगन लिद्धि अनु जासु, नाम चिहु चक्क चलायप।–चंदबरदाई।
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चिहुँक  : स्त्री० [हिं० चिहुँकना] १. चिहुँकने अर्थात् चौंकने की अवस्था या भाव। २. ऐसी आशंका या बात जिससे कोई चौकन्ना हो।
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चिहुँकना  : स० [सं० चमत्कृ, प्रा० चवाँकि] चौंकन्ना। (देखें)।
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चिहुँटना  : स० [सं० चिपिट, हिं० चिमटना] १. चुटकी से किसी के शरीर का माँस इस प्रकार पकड़ना जिसमें कुछ पीड़ा हो। चिकोटी या चुटकी काटना। २. लाक्षणिक रूप में उक्त प्रकार की ऐसी क्रिया करना जिससे किसी को मार्ग भेदी कष्ट या पीड़ा हो। जैसे–किसी का चित्त या मन चिहुँटना। ३. अच्छी तरह से किसी को पकड़कर दबा या दबोच लेना, जैसा आलिंगन आदि के समय होता है। ४. चिपटना। लिपटना।
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चिहुँटनी  : स्त्री० [चिहुँटना] १. चिहुँटने अर्थात् चिकोटी काटने की क्रिया या भाव। २. चिहुँटी। चुटकी। स्त्री० [देश०] गुंजा। घुँघची।
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चिहुर  : पुं० [सं० चिकुर] सिर के बाल। उदाहरण–(क) चिहुरे जल लागौ चुवण।–प्रिथीराज। (ख) कटि अति-सात चिउर की नाई।–जायसी।
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चिहुरार  : पुं० चिहुर। उदाहरण–लंबोजा चिहुरार भार जघना विघना घनानासिनी।–चंदबरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चिहूँटना  : स० चिहुँटना। उदाहरण–चतुरनारि चित अधिक चिहूँटी।–
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चिह्न  : पुं० [सं० चिह्न (निशान लगाना)+अच्] १. ऊपर या बाहर से दिखाई देनेवाले कोई विकार-सूचक शारीरिक निशान। जैसे–आघात या प्रहार का चिन्ह्र। २. कोई विकार सूचक निशान। दाग। धब्बा। ३. किसी वस्तु आदि पर अंकित वह विशेष शब्द, बात या छाप जिससे उस वस्तु के निर्माता या निर्माणशाला का ज्ञान होता है। ४. किसी चीज के संपर्क संषर्घ या दाब से पड़ा हुआ निशान। जैसे–चरण चिह्र। ५. कोई ऐसी आरंभिक छोटी बात जो किसी भावी बात या घटना की सूचक हो। लक्षण। ६. किसी चीज या बात का पता देने वाला कोई तत्व। ७. झंडा। पताका।
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चिह्नकारी(रिन्)  : वि० [सं० चिह्र√कृ (करना)+णिनि] १. चिह्न या निशान करने, बनाने या लगाने वाला। २. घाव करनेवाला। ३. वध करनेवाला। ४. भयानक। भीषण।
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चिह्नधारिणी  : स्त्री० [सं० चिह्र√धृ (धारण करना)+णिनि, ङीप्] श्यामा लता। कालीसर।
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चिह्नित  : भू० कृ० [सं० चिह्र+क्त] पहचान के लिए जिस पर चिह्न लगाया गया हो।
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चीं  : स्त्री० [अनु०] १. चिड़ियों के बोलने का शब्द। २. कष्ट या के समय किसी दीन के मुँह से निकलनेवाला उक्त प्रकार का शब्द। मुहावरा–चिं० बोलना=असमर्थता और दीनता के सूचक लक्षण दिखाना।
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चीं-चपड़  : स्त्री० [अनु०] वह हल्का प्रतिवाद या विरोध जो किसी कड़े या सबल के सामने किया जाय। जैसे–उसने बिना चीं-चपड़ किये सारा अत्याचार सह लिया।
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चीं-चीं  : स्त्री० [अनु०] १. पक्षियों अथवा छोटे बच्चों का बहुत ही कोमल और दीनता सूचक शब्द। २. धीमे स्वर में की जानेवाली बातें।
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चीक  : स्त्री०=चीख। पुं०=चिक (बूचड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० कीच (कीचड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चीकट  : पुं०, वि० चिक्कट। पुं० [हिं० कीचड़] १. मटियार भूमि। २. कीचड़। पुं०=चिकट (रेशमी कपड़ा)।
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चीकड़  : पुं० कीचड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चीकन  : वि० चिकना।
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चीकना  : अ० [सं० चीत्कार] १. पीड़ा या कष्ट आदि के कारण जोर से चिल्लाना। चीत्कार करना। चीखना। २. बहुत जोर से चिल्लाकर कुछ कहना या बोलना। ३. बहुत जोर से कर्णकटु शस्त्र करना। जैस–कुत्तों का चीकना वि० [स्त्री० चीकनी]=चिकना।
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चीकर  : पुं० [देश०] १. कुएँ के ऊपर का वह स्थान जिसमें मोट या चरस आदि से निकाला हुआ पानी गिराया जाता है।
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चीख  : स्त्री० [अनु०] १. तीव्र और कर्णकटु ध्वनि। जैसे–इंजन की चीख। २. भय अथवा अधिक पीड़ा या व्यथा के कारण निकलने वाली उच्च या तीव्र ध्वनि या शब्द। जैसे–बच्चे की चीख निकल गई। मुहावरा–चीख मारना=कष्ट या पीड़ा के समय जोर से चिल्लाना।
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चीख-पुकार  : स्त्री० [हिं०] कष्ट के समय रक्षा, सहायता आदि के लिए चिल्लाकर मचाई जानेवाली पुकार।
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चीखना  : सं० चखना। (खाने की चीज)। अ० चीकना। (चिल्लाना)।
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चीखर(ल)  : पुं० [हिं० चीकड़ (कीचड़)] १. कीच। कीचड़। २. गारा। (डि०)
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चींचख  : स्त्री० [अनु०] चिल्लाहट। उदाहरण–उल्लुओं की चींचख सोना को नहीं सुहाती थी।–वृदांवनलाल वर्मा।
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चीज  : स्त्री० [फा० चीज] १. दैनिक उपयोग या व्यवहार में काम आनेवाला कोई भौतिक पदार्थ। जैसे–बाजार से कई चीजें लानी हैं। २. किसी कला-कृति, रचना, वस्तु आदि का कोई अंग या अवयव। जैसे–इस मशीन में कोई चीज खराब जरूर है। ३. कोई उपयोगी, निराली या महत्वपूर्ण वस्तु। जैसे–यह भी तो कोई चीज है। ४. स्त्रियों की बोल-चाल में कोई आभूषण। जैसे–उनसे कई बार कहा कि लड़की के लिए कोई चीज बनवा दें। ५. कोई उत्कृष्ट, महत्वपूर्ण या विचारणीय बात जैसे–इस लेख की कई चीजें समझने और समझाने की है। ६. संगीत साहित्य आदि में कोई विशिष्ट कृति। जैसे–उन्होने कई चीजें सुनाईं।
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चींटवा  : पुं०=चींटा (च्यूँटा)।
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चींटा  : पुं० [स्त्री० चींटी] =च्यूँटा।
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चीठ  : स्त्री० [हिं० चीकड़=कीचड़] गंदगी। मैल।
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चीठा  : पुं०=चिट्ठा।
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चीठी  : स्त्री०=चिट्ठी।
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चीड़  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का देशी लोहा। २. चमड़ा छीलकर साफ करने की क्रिया। (मोची) पुं० चीढ़।
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चीड़ा  : स्त्री० [सं० चीड़-टाप्, दीर्घ, पृषो] चीढ़ नामक पेड़।
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चीढ़  : पुं० [सं० चीढ़ा] एक प्रसिद्ध बड़ा पेड़ जिसकी चिकनी और नरम लकड़ी इमारत और संदूक बनाने के काम आती है। इस लकड़ी में तेल का अंश अधिक होता है जो निकाला जाता और ताड़पीन के तेल के नाम से बिकता है। गंधा बिरोजा इसी पेड़ का गोंद है। इसके कुछ अंशों का प्रयोग ओषध गंध-द्रव्य आदि के रूप में भी होता है। पुं०=चीड़ (लोहा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चीत  : पुं० [सं०√चि(चयन करना)+क्त-दीर्घ, पृषो] सीसा नामक धातु। पुं० चित्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० चित्रा (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चीतक  : पुं० दे० ‘चीतल’।
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चीतकार  : पुं० १. चीतकार। २. चित्रकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चींतना  : स० [सं० चित्रण] अंकित या चित्रित करना। चित्र बनाना या लिखना। चित्रना। अ०=चीतना।
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चीतना  : स० [सं० चेत] [वि० चीता] १. मन मे किसी प्रकार की भावना या सोच-विचार करना। सोचना। जैसे–किसी का बुरा या भला चीतना। २. याद या स्मरण करना। जैसे=विरह में प्रिय को चीतना। अ० होश में आना। चेतना। स० [सं० चित्रल] चित्र अंकित या चित्रित करना।
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चीतल  : पुं० [सं० चित्रल] १. एक प्रकार का बारहसिंघा जिसका चमड़ा चित्तीदार और बहुत सुन्दर होता है। यह जलाशयों के पास झुंड में रहता है और मांस के लिए इसका शिकार किया जाता है। २. एक प्रकार का चित्तीदार बड़ा साँप या छोटा अजगर जो खरगोश, बिल्ली आदि छोटे जंतुओं पर निर्वाह करता है। ३. एक प्रकार का पुराना सिक्का।
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चीता  : पुं० [सं० चित्रक, पा० चित्रो, चित्तो, प्रा० चित्तअ, बँ० चिता, गु० सिं० चित्रो, मरा० चित्ता;] १. बिल्ली शेर आदि की जाति का एक प्रसिद्ध हिंसक जंतु जिसके शरीर पर धारियाँ होती हैं। इसकी कमर पतली होती है और गरदन पर अयाल या बाल नहीं होते। इसकी सहायता से कुछ लोग हिरनों आदि का शिकार भी करते हैं। २. एक प्रकार का बड़ा क्षुप जिसकी पत्तियाँ जामुन की पत्तियों से मिलती-जुलती होती हैं। इसकी कई जातियाँ हैं जिनमें भिन्न-भिन्न रंगों के सुंगधित फूल लगते हैं। इसकी छाल और जड़ ओषधि के काम में आती है। पुं० [सं० चित्त] १. चित्त। मन। हृदय। दिल। २. चेतना। संज्ञा। होश-हवास। वि-[हिं० चेतना] [स्त्री० चीता] मन में विचारा या सोचा हुआ। जैसे–मन-चीती बात होना।
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चीतावती  : स्त्री० [सं० चेत्] यादगार। स्मारक चिह्न।
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चीत्कार  : पुं० [सं० चीत्√कृ(करना)+अण्] १. खूब जोर से चिल्लाने की क्रिया, भाव या शब्द। चिल्लाहट। २. घोर दुःख या संकट में पड़ने पर मुँह से अनायास निकलनेवाली बात या शब्द।
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चीथड़ा  : पुं०=चिथड़ा। (देखें)।
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चींथना  : स०=चीथना।
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चीथना  : स० [सं० चीर्ण] १. टुकड़े-टुकड़े करना। २. दांतों से कुचलना।
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चीथरा  : पुं०=चिथड़ा।
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चीद  : वि० [फा०] चुना या छाँटा हुआ।
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चीन  : पुं० [सं० चि+नक्, दीर्घ, चीन+अण्-लुक्] १. झंड़ी। पताका। २. सीसा नामक धातु। नाग। ३. तागा। सूत। ४. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। ५. एक प्रकार का हिरन। ६. एक प्रकार की ईख या ऊख। ७. एक प्रकार का साँवाँ (कदन्न)। पुं० [चि+नक्, दीर्घ] १. दक्षिण-पूर्वी एशिया का एक प्रसिद्ध विशाल देश। २. उक्त देश का निवासी। पुं० १. चिन्ह (निशान) २. चुनन।
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चीन की दीवार  : स्त्री० [चीन देश+फा० दीवार] १. चीन के उत्तरी भाग में प्रायः १५॰॰ मील लंबी एक दीवार जो प्रायः दो हजार वर्ष पहले बनी थी और जिसकी गिनती संसार के सात आश्चर्यजनक वस्तुओं में होती है। २. कोई बहुत बड़ी अड़चन या बाधा।
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चीन पिष्ट  : पुं० [ष० त० स०] १. सीसा नामक धातु। २. सिंदूर। ३. इस्पात (लोहा)।
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चीन-कर्पूर  : पुं० [मध्य० स०] चीनी कपूर।
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चीन-वास(स्)  : पुं० [मध्य० स०] चीन देश का बना हुआ एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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चीनक  : पुं० [सं० चीन+कन्] १. चीनी कपूर। २. चेना नामक कदन्न। ३. कंगनी नामक कदन्न।
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चीनज  : पुं० [सं० चीन√जन्+ड] एक प्रकार का इस्पात या लोहा जो चीन से आता था। वि० चीन देश में उत्पन्न होनेवाला।
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चीनना  : स० चीन्हना। (पहचानना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चीनवंग  : पुं० [मध्य० स०] सीसा नामक धातु।
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चीना  : पुं० [हिं० चीन] चीन देश का वासी। पुं० [सं० चिन्ह] एक प्रकार का कबूतर जिसके शरीर पर काले या लाल दाग या फूल होते हैं। वि० चीन देश का। जैसे–चीना कपूर। पुं० चेना (कदन्न)।
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चीना ककड़ी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की छोटी ककड़ी।
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चीनाक  : पुं० [सं० चीनअक्(गति)+अण्] चीनी कपूर।
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चीनाचंदन  : पुं० [हिं० पद] एक प्रकार का पक्षी जिसके पीले शरीर पर काली धारियाँ होती हैं और जिसका स्वर मनोहर होता है। यह प्रायः पाला जाता है।
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चीनाबादाम  : पुं० [हिं० चीन+फा० बादाम] चिनिया बादाम। मूँगफली।
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चीनांशुक  : पुं० [चीन-अंशुक, मध्य० स०] १. एक प्रकार का लाल ऊनी कपड़ा जो पहले चीन से आता था। २. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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चीनिया  : वि० [देश०] चीन देश का। चीन देश संबंधी।
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चीनी  : स्त्री० [चीन (देश)+ई (प्रत्यय)] सफेद रंग का एक प्रसिद्ध मीठा, चूर्ण जो ईख, चुकंदर, खजूर आदि कई पदार्थों के मीठे रस को उबाल और गाढ़ा करके बनाया जाता है। इसका व्यवहार प्रायः मिठाइयाँ बनाने और पीने के लिए दूध या पानी आदि को मीठा करने में होता है। वि० चीन देश-संबंधी। चीन देश का। जैसे–चीनी भाषा,चीनी मिट्टी। पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पौधा।
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चीनी कपूर  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का कपूर जो पहले चीन देश से आता था।
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चीनी कबाब  : स्त्री० दे० ‘कबाब चीनी’।
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चीनी मिट्टी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की मिट्टी जो पहले-पहल चीन के एक पहाड़ से निकली थी और अब अन्य देशों में भी कहीं-कहीं पायी जाती है। इस पर पालिश बहुत अच्छी होती है, इसीलिए इससे खिलौने, गुलदान और छोटे बरतन बनाए जाते हैं।
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चीनी-चंपा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा बढ़िया केला। चिनिया केला।
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चीनी-मोर  : पुं० [हिं० चीनी+मोर] सोहन, चिड़िया की जाति का एक पक्षी जिसका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है।
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चीन्ह  : पुं० दे० ‘चिन्ह’ । (अशुद्ध रूप)।
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चीन्हना  : स० [सं० चिन्ह] किसी ऐसी वस्तु या व्यक्ति को पहचान लेना जिसे पहले कभी देखा हो।
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चीन्हा  : पुं० दे० ‘चिन्ह’। पुं० परिचय। (जान-पहचान)।
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चीप  : स्त्री० [देश०] वह लकड़ी जो जूते के कलबूत में सब से पीछे भरी या चढ़ाई जाती है। (मोची)। स्त्री० चिप्पड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=चेप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चीपड़  : पुं० [हिं० कीचड़] १. आँख में से निकलनेवाली सफेद रंग की लसदार मैल। आँख का कीचड़। २. दे० ‘चिप्पड़’।
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चीमड़  : वि० [हिं० चमड़ा] १. (वस्तु) जो चमड़े की तरह कड़ी हो तथा लचीली न हो। २. (व्यक्ति) जो जल्दी किसी बात या व्यक्ति का पीछा न छोड़ता हो। किसी बात या व्यक्ति के पीछे पड़ा रहनेवाला। ३. (व्यक्ति) जिससे जल्दी पैसा वसूल न किया जा सकता हो।
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चीयाँ  : पुं० [सं० चिंचा] इमली का बीज।
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चीया  : पुं०-चित्र। उदाहरण–अदेषि देषिबा देपि बिचारिबा आदि सिहि राबिबा चीया।–गोरखनाथ।
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चीर  : पुं०√[चि (ढकना)+क्रन्, दीर्घ] १. कपड़ा वस्त्र। २. आजकल थान, धोती आदि में लंबाई के बल का वह अंतिम छोर या सिरा जिसमें बनावट कुछ भिन्न प्रकार की अथवा हलकी होती है। ३. कपड़े कागज आदि का कम चौड़ा और अधिक लंबा टुकड़ा। धज्जी। ४. पुराने कपड़े का टुकड़ा। चिथड़ा। लता। ५. योगियों, साधुओं आदि और विशेषतः बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का कपड़ा। ६. पेड़ की छाल। ७. गौ का थन। ८. मोतियों की माला जिसमें चार लड़ हो। ९. एक प्रकार का बड़ा पक्षी जिसकी लंबी दुम बहुत सुन्दर होती है। यह प्रायः चीर चीर शब्द करता है। १॰. धूप या सरल का पेड़। ११. सीसा नामक धातु। १२. छप्पर या छाजन का अगला भाग। मँगरा। मथौत। पुं० [हिं० चीरना] १. चीरने की क्रिया या भाव। पद–चीर-फाड़ (क) चीरने या फाड़ने का भाव या क्रिया। (ख) शल्य चिकित्सा। २. चीर कर बनाई हुई दरार या संधि। शिगाफ। ३. रेखा। लकीर। ४. कुश्ती का एक दाँव या पेंच जिसमें विपक्षी के दोनों हाथ एक दूसरे से बिलकुल अलग और बहुत दूर करके उसे नीचे गिराया जाता है।
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चीर-चरम  : पुं० [सं० चीर+चर्म] हिरन आदि की खाल जो ओढ़ी या बिछाई जाय। जैसे–बाघंबर, मृग-छाला आदि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चीर-पत्रिका  : स्त्री० [ब० स०] चेंच नाम का साग।
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चीर-परिग्रह  : पुं० वि० [ब० स०]=चीर-वासा।
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चीर-फाड़  : स्त्री० [हिं० चीर+फाड़] १. चीरने और फाड़ने की क्रिया या भाव। २. नश्तर आदि से फोड़े चीरने का काम शल्य-चिकित्सा। ३. बहुत ही अनुचित रूप से किया जानेवाला किसी साहित्यिक कृति, तथ्य, वाद आदि का विश्लेषण।
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चीर-वर्ण  : पुं० [ब० स०] साल नामक वृक्ष।
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चीर-हरण  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण की एक प्रसिद्ध लीला जो इस अनुश्रुति के आधार पर है कि एक बार यमुना में नहाती हुई गोपियों के चीर या वस्त्र लेकर वे वृक्ष के ऊपर जा बैठे थे।
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चीरक  : पुं० [सं० चीर+कन्] १. कागज के किसी टुकड़े पर लिखी हुई कोई सार्वजनिक घोषणा। २. लिखने का ढंग। ३. लेख्य। ४. मुट्ठे की तरह गोलाकार लपेटा हुआ लंबा कागज। खर्रा। (रोल, स्क्रोल)।
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चीरना  : स० [सं० चीर्णन] १. किसी चीज को एक जगह या सिरे से दूसरी जगह या सिरे तक सीध में किसी धारदार उपकरण द्वारा काट या फाड़कर अलग या टुकड़े करना। जैसे–कपड़ा, फोड़ा या लकड़ी चीरना। २. कहीं से कोई चीज निकाल लेना। मुहावरा–माल चीरना=अनुचित रूप से बहुत अधिक आर्धिक लाभ करना। ३. किसी बड़ी चीज या तल के अंश इधर-उधर करते हुए आगे बढ़ने के लिए मार्ग निकालना या रास्ता बनाना। जैसे–(क) पानी चीरते हुए नाव का आगे बढ़ना। (ख) भीड़-चीर कर सबसे आगे पहुँचना।
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चीरनिवसन  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक देश जो कूर्म विभाग के ईशान कोण में है। २. उक्त् देश का निवासी।
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चीरल्लि  : पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का पक्षी।
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चीरवासा(सस्)  : पुं० [सं० चीरवासस्] १. शिव। महादेव। २. यक्ष। वि० जो चीर (छाल या वल्कल) ओढ़ता या पहनता हो।
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चीरा  : पुं० [सं० चीर] १. एक प्रकार का लहरिएदार रंगीन कपड़ा जो पगड़ी बनाने के काम में आता है। २. उक्त प्रकार के कपड़े की बनी या बँधी हुई पगड़ी। पुं० [हिं० चीरना] १. चीरने की क्रिया या भाव। २. चीरकर बनाया हुआ क्षत या घाव। क्रि० प्र०–देना।–लगाना। मुहावरा–चीरा उतारना या तोड़ना=कुमारी के साथ पहले-पहल संभोग या समागम करना। (बाजारू)। ३. गाँव की सीमा सूचक खंभा या पत्थर।
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चीरा-बंद  : पुं० [हिं० चीरा=पगड़ी+फा० बंद] वह कारीगर जो लोगों के लिए चीरे बाँधकर तैयार करता हो। वि० (कुमारी या बालिका) जिसके साथ अभी तक किसी पुरुष ने संभोग या समागम न किया हो। (बाजारू)।
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चीरा-बंदी  : स्त्री० [हिं० चीरा=पगड़ी का कपड़ा+फा० बंदी] १. चीरा (पगड़ी) बनाने या बाँधने की क्रिया या भाव। २. एक प्रकार की बुनावट जो पगड़ी बनाने के लिए ताश के कपड़े पर कारचोबी के साथ की जाती है।
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चीरि  : स्त्री० [सं० चि+क्रि० दीर्घ] १. आँख पर बाँधी जानेवाली पट्टी। २. धोती आदि की लाँग। ३. झींगुर।
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चीरिका  : स्त्री० [सं० चीरि√कै (शब्द करना)+क-टाप्] झींगुर। झिल्ली।
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चीरिणी  : स्त्री० [सं० चीर+इनि-ङीप्] बदरिकाश्रम के निकट की एक प्राचीन नदी जिसके तट पर वैवस्वत मनु ने तपस्या की थी (महाभारत)।
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चीरित  : भू० कृ० [सं० चीर+इतच्] फटा हुआ। (केवल समास में)।
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चीरितच्छदा  : स्त्री० [सं० चीरित-छद, ब० स० टाप्] पालक का साग।
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चीरी-वाक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का कीड़ा।
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चीरी(रिन्)  : वि० [सं० चीर+इनि] १. वल्कलधारी। २. चिथड़े लपटनेवाला। पुं० १. झिल्ली। झींगुर। २. एक प्रकार की छोटी मछली। स्त्री० =चिड़ी (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० दे० ‘चीढ़’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० चीर] चिट्ठी। पत्र। उदाहरण–सात बरस पेहलो रह्यो चीरी जणहन मोकल्यें कोई।–नरपति नाल्ह।
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चीरु  : पुं०=चीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चीरुक  : पुं० [सं० ची√रु (शब्द करना)+क] एक प्रकार का फल जो वैद्यक में रुचिकर और कफ-पित्त वर्द्धक माना गया है।
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चीरू  : पुं० [सं० चीर] १. एक प्रकार का लाल रंग का सूत। २. चीर। कपड़ा।
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चीरेवाला  : पुं० [हिं०] १. घोड़ों आदि की चीर-फाड़ करनेवाला हकीम। जर्राह। २. चिकित्सक। (मुसल० स्त्रियाँ)।
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चीर्ण  : वि० [सं०√चर् (चलना)+नक्, पृषो० ईत्व] चिरा या चीरा हुआ।
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चीर्ण-पर्ण  : पुं० [ब० स०] १. नीम का पेड़। २. खजूर का पेड़।
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चील  : स्त्री० [सं० चिल्ल] गिद्ध और बाज आदि की जाति की बहुत तेज उड़ने तथा झपट्टा मारकर चीजें छीन ले जानेवाली एक बड़ी चिड़िया जो संसार के प्रायः सभी गरम देशों में पायी जाती है। पद-चील का मूतकोई दुर्लभ वस्तु।
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चील-झपट्टा  : पुं० [हिं० चील+झपट्टा] १. चील की तरह एकाएक झपटकर किसी से कोई चीज छीन कर ले भागना। २. बच्चों का एक खेल जिसमें वे एक दूसरे के सिर पर धौल लगाते हैं।
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चीलड़  : पुं०=चीलर।
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चीलर  : पुं० [देश०] पहने जानेवाले गंदे कपड़ों अथवा कुछ पशुओं के शरीर में पड़नेवाला एक प्रकार का सफेद रंग का छोटा कीड़ा।
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चीला  : पुं०=चिल्ला (पकवान)।
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चीलिका  : स्त्री० [सं०√ला (लेना)+क-टाप्, इत्व] झिल्ली। झींगुर।
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चीलू  : पुं० [देश०] आड़ू की तरह का एक प्रकार का पहाड़ी फल।
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चील्लक  : पुं० [सं० ची√लक्क् (शब्द करना)+अच, पृषो० सिद्धि] झिल्ली। झींगुर।
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चील्ह  : स्त्री० चील (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चील्हर  : पुं० चीलर (कीड़ा)।
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चील्ही  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का टोटका जो स्त्रियाँ बालकों के कल्याणार्थ करती हैं।
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चीवर  : पुं० [सं० चि (चयन करना)+ष्वरच्, नि० सिद्धि] १. भिक्षुओं, योगियों, संन्यासियों आदि के पहनने का फटा-पुराना कपड़ा। २. बौद्ध भिक्षुओं का गैरिक उत्तरीय वस्त्र या चादर।
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चीवरी (रिन्)  : पुं० [सं० चीवर+इनि] १. चीवर पहननेवाला। बौद्ध भिक्षु। २. भिक्षुक। भिखमंगा।
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चीस  : स्त्री० १.=टीस। २. =चीख। उदाहरण–हसति भागि कै चीसा मारै।–कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चीसना  : अ० चीखना। उदाहरण–परिभख्खन रख्खिसन, कुइक, चीसन मुख सासन।–चन्दवरदाई।
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चीह  : स्त्री०=चीख (चीत्कार) उदाहरण–मोर सोर को किलनि रोर, चीह पप्पहि पुकारत।–चन्दवरदाई।
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चुअना  : अ० दे० ‘चूना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [स्त्री० चुअनी] जो जूता हो। चूनेवाला। जैसे–चुअना लोटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुआ  : पुं० [हिं० चौआ=चौपाया] चार पैरोंवाला पशु। चौपाया। पुं०[?] १. हड्डी की नली के अन्दर का गाढ़ा लसीला पदार्थ। गूदा। मज्जा। २. एक प्रकार का पहा़ड़ी गेहूँ। ३. दे० ‘चौआ’।
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चुआई  : स्त्री० [हिं० चुआना] १. चुआने या टपकाने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. गौ-भैस आदि दुहने या दुहाने का काम या पारिश्रमिक।
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चुआक  : पुं० [हिं० चूना=टपकना] वह छेद जिसमें से पानी चूता (अथवा जहाज के अन्दर आता) हो। (लश०)।
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चुआना  : स० [हिं० चूनाटपकना] १. किसी तरल पदार्थ को चूने या टपकने में प्रवृत्त करना। बूँद-बूँद गिराना या टपकाना। २. भभके आदि की सहायता से अरक, आसव आदि तैयार करना। जैसे–शराब चुआना। ३. अच्छी तरह परिष्कृत करके संयम और सावधानी से थोड़ा-थोड़ा प्रस्तुत करना या किसी के सामने लाना। उदाहरण–वेष सु बनाई सुचि बचन कहै चुआइ जाई तौन जरनि धरनि धन धाम की।–तुलसी। स० दे० ‘दुहाना’।
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चुआब  : स्त्री०=चुआन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुक  : पुं०=चूक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुक  : पुं० [सं० चक्र (तृप्त करना)+रक्, उत्व] १. चूक नाम की खटाई। चूक। महाम्ल। २. चूका नाम का खट्टा साग। ३. अमलबेत। ४. काँजी। संधान।
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चुकचुकाना  : अ० [हिं० चूना=टपकना] तरल पदार्थ का किसी पात्र या तल में होनेवाले छोटे छेद के मार्ग से सूक्ष्म कणों के रूप में बाहर निकलना। पसीजना। जैसे–थप्पड़ लगने पर गाल से खून चुकचुकाना।
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चुकचुहिया  : स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की छोटी चिड़िया जो बहुत तड़के बोलने लगती है। २. बच्चों का एक प्रकार का खिलौना जिसे दबाने या हिलाने से चुँ चूँ शब्द होता है।
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चुकट  : पुं०[हिं० चुटका] १. चंगुल। २. चुटकी।
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चुकता  : वि० [हिं० चुकना] १. (ऋण या देना) जो चुका दिया गया हों। २. (हिसाब) जिसमें लेना और देना दोनों बराबर हो गयें हो।
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चुकती  : वि०=चुकता।
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चुकंदर  : पुं० [फा०] गाजर, शलजम आदि की तरह का एक प्रसिद्ध मीठा कंद जो लाल रंग का होता है और तरकारी बनाने के काम आता है। इसके रस से एक प्रकार की चीनी भी बनती है।
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चुकना  : अ० [सं० च्यव, चुक्क, प्रा० चुक्कइ, उ० चुकाइबा, पं० चुक्कणा, सि० चुकणु, गु० चुकबूँ, मरा० चुकणें] १.(काम या बात का) पूरा या समाप्त होना। बाकी न रहना। २. (पदार्थ का) कम होते होते निःशेष या समाप्त होना। जैसे–घर में आटा चुक गया। ३. (ऋण या देन का) पूरा-पूरा परिशोध होना। देना बाकी न रहना। जैसे–उनका हिसाब तो कभी का चुक गया। ४. (झगड़ा या बखेड़ा) तै हो जाना। निपटना। जैसे–चलो, आज यह झगड़ा भी चुका। ५. एक संयोज्य क्रिया, जो मुख्य क्रिया की समाप्ति की सूचक होती है। जैसे–खेल चुकना, लड़ चुकना आदि। ६. दे० कूकना। अ० चूकना। उदाहरण–चुकइन घात मुठ भेरी।–तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुकरी  : स्त्री० [देश०] रेवंद चीनी।
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चुकरैंड़  : पुं० [देश०] दो-मुँहा साँप जिसे गूँगी भी कहते हैं।
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चुकवाना  : स० [हिं० चुकाना का प्रे०] किसी को कुछ चुकाने में प्रवृत्त करना। जैसे–कर्ज या झगड़ा चुकवाना।
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चुकाई  : स्त्री० [हिं० चुकता] चुकने या चुकाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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चुकाना  : स० [हिं० चुकना का स०] १. किसी से लिया हुआ धन पूरा पूरा वापस करना। जैसे–ऋण चुकाना। २. किसी की हुई हानि को पूरा करना। क्षति-पूर्ति करना। जैसे–रेल दुर्घटना में मरनेवाले व्यक्ति के परिवारों को दो दो हजार रुपए सरकार ने चुकाए हैं। ३. झगड़ा या विवाद तै करना। निपटाना।
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चुकाव  : पुं० [हिं० चुकना] चुकने या चुकाये जाने की क्रिया या भाव।
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चुकावरा  : पुं० [हिं० चुकाना] ऋण, देन आदि चुकाने की क्रिया या भाव। (बुन्देल०)।
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चुकिया  : स्त्री० [देश०] तेलियों की धानी में पानी देने का छोटा बरतन। कुल्हिया।
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चुकौता  : पुं० [हिं० चुकाना+औता (प्रत्य०)] १. चुकाने की क्रिया या भाव। २. रुपया चुकता पाने के समय लिखी जानेवाली पावती। रसीद।
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चुकौती  : स्त्री०=चुकौता।
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चुक्क  : पुं०=चूक (खटाई) उदाहरण–चुक्क लाइकै रीधें भाँटा।–
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चुक्कड़  : पुं० [?] पानी, शराब आदि पीने का मिट्टी का गोल छोटा बरतन। कुल्हड़। पुरवा।
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चुक्का  : पुं० १. दे० ‘चूक’। (खटाई)। २. दे० ‘चुक्कड़’।
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चुक्कार  : पुं० [सं०√चुक्क (पीड़ा देना)+अच्, चुक्क-आ√रा (लेना)+क] गरजने की क्रिया या भाव। गर्जन। गरज।
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चुक्की  : स्त्री० [हिं० चूकना] १. चूक। भूल। २. छल। धोखा।
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चुक्कीमाली  : स्त्री० [?] मुड़े हुए घुटनों को पीठ के सहारे अंगौछे से कुछ ढीला बाँधकर बैठने का एक ढंग। (देहाती)।
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चुक्र-फल  : पुं० [ब० स०] इमली।
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चुक्र-वास्तुक  : पुं० [उपमि० स०] अमलोनी नाम का साग।
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चुक्र-वेधक  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का काँजी।
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चुक्रक  : पुं० [सं० चुक्र+कम्] चूक नाम का साग।
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चुक्रा  : स्त्री० [सं० चुक्र+टाप्] १. अमलोनी नाम का साग। २. इमली।
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चुक्राम्ल  : पुं० [सं० चुक्र-अम्ल, उपमि० स०] १. चूक नाम की खटाई। २. चूका नाम का साग।
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चुक्रिका  : स्त्री० [सं० चुक्र+ठन्-इक+टाप्] १. अमलोनी नाम का साग। नोनिया। २. इमली।
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चुक्रिमा(मन्)  : स्त्री० [सं० चुक्र+इमानिच्] खट्टापन। खटाई। खटास।
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चुक्षा  : स्त्री० [सं०√चष् (वध करना)+स० बाहु पृषो] हिंसा।
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चुखाना  : स० [सं० चूषण] १. गौ, भैंस आदि दुहने के समय थन से दूध उतारने के लिए पहले उसके बछड़े को थोड़ा-सा अंश पिलाना। २. कोई चीज या उसका स्वाद चखना। ३. दे० ‘चुसाना’।
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चुगद  : पुं० [फा०] १. उल्लू पक्षी। २. उल्लू की जाति का डुंडुल नामक पक्षी। वि० बहुत बड़ा बेवकूफ। महामूर्ख।
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चुँगना  : स०=चुगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुगना  : स० [सं० चयन] पक्षियों आदि का अपनी चोंच से अनाज के कण, कीड़े-मकोड़े आदि उठा-उठाकर खाना।
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चुंगल  : पुं० दे० ‘चंगुल’।
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चुगल  : पुं० [फा०] १. चुगलखोर। २. तमाकू आदि पीने के समय चिलम के छेद पर रखा जानेवाला कंकड़। गिट्टक।
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चुगलखोर  : पुं० [फा०] किसी की परोक्ष में उसकी हानि करने के उद्देश्य से दूसरों के सम्मुख बुराई करनेवाला।
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चुगलखोरी  : स्त्री० [फा०] किसी को हानि करने के उद्देश्य से परोक्ष में उसकी निन्दा करने की क्रिया या भाव। चुगलखोर का काम।
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चुगलस  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लकड़ी।
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चुगलाना  : स० दे० ‘चुभलाना’।
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चुँगली  : स्त्री० [देश०] नाक में पहनने का एक प्रकार की नथ, जिसे ‘समथा’ भी कहते हैं।
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चुगली  : स्त्री० [फा०] किसी को हानि करने के उद्देश्य से परोक्ष में दूसरों से की जानेवाली उसकी निंदा या शिकायत। पीठ पीछे की जानेवाली बुराई या लगाया जानेवाला अभियोग। मुहावरा–(किसी की) चुगली खाना=किसी के परोक्ष में दूसरों से की जानेवाली उसकी अभियोगात्मक निंदा।
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चुँगवाना  : स०=चुगवाना।
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चुंगा  : पुं०=दे० ‘चोंगा’।
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चुगा  : पुं० [हिं० चुगना] अन्न के वे दाने जो चिड़ियों के आगे चुगने के लिए डाले जाते है। चिड़ियों का चारा। उदाहरण–कपट-चुगौ दै फिरि निपट करौ बुरी।–घनानंद। पुं०=चोगा। (पहनावा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुगाई  : स्त्री० [हिं० चुगाना+ई (प्रत्यय)] चुगने या चुगाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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चुँगाना  : स०=चुगाना।
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चुगाना  : स० [हिं० चुगना] चिड़ियों को चुगने में प्रवृत्त करना। अनाज के कण इस प्रकार बिखेरना कि चिड़ियाँ चुगने लगें।
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चुंगी  : स्त्री० [हिं० चुंगल या चंगुल] १. चंगुल भर वस्तु। चुटकी भर चीज। २. मध्य युग में वह कर जो पैठों, बाजारों या मंडियों में आकर अन्न, फल आदि बेचनेवालों से उनकी विक्रय वस्तुओं आदि में से एक-एक चुंगल या चंगुल भरकर लिया जाता था। ३. आज-कल नगरपालिकाओं, जिला मंडलों आदि में उक्त कर का वह विकसित रूप जो बाहर से आनेवाले पदार्थों पर नगद धन के रूप में लगता है। (ऑक्ट्रॉय, अंतिम दोनों अर्थो के लिए)
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चुंगी-कचहरी  : स्त्री० [हिं० पद] नगरपालिका आदि का प्रधान कार्यालय जहां काम होने के सिवा चुंगी भी वसूल की जाती है।
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चुंगीकर  : पुं० [हिं०] १. नगर की सीमा पर का वह स्थान जहाँ नगरपालिका आदि की चुंगी वसूल करने का काम होता है। २. दे० ‘चुंगीकचहरी’।
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चुगुल  : पुं०=चुगलखोर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुगुलखोरी  : स्त्री०=चुगलखोरी।
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चुगुली  : स्त्री०=चुगली।
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चुग्गा  : पुं० १. =चुगा। २. चोगा।
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चुग्धी  : स्त्री० [देश०] १. चखने की थोड़ी-सी वस्तु। २. चसका। चाट।
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चुँघाना  : स० [हिं० चुसाना] माता का बच्चे को अपना स्तन अथवा पशुओं का अपने बच्चों को थन चूसने में प्रवृत्त करना। चुसाकर बच्चे को दूध पिलाना। स०=चुगाना।
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चुंच  : स्त्री०=चोंच।
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चुचकना  : अ० [सं० शुष्क+ना (प्रत्यय)] १ अधिक ताप आदि के कारण किसी वस्तु का सूख जाना। २. फल आदि का इतना अधिक सूख जाना कि उसमें का रस उड़ जाय। अ०=चुचकना।
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चुचकारी  : स्त्री० [अनु०] चुचकारने या चुमकारने की क्रिया या भाव। चुमकार। पुचकार।
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चुंचरी  : स्त्री० [सं० चुंच√रा(लेना)+क, ङीप्] वह जूआ जो इमली के चीओं से खेला जाय।
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चुंचली  : स्त्री०=चुंचरी।
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चुचाना  : अ० दे० ‘चुकचुकाना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुचि  : स्त्री०[सं०] स्तन।
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चुंचु  : पुं० [सं०√चंच् (हिलना)+उ, पृषो० उत्व] १. छछूँदर। २. एक प्राचीन संकर जाति जिसकी उत्पत्ति वैदेहिक माता और ब्राह्मण पिता से कही गई है। ३. चिनियारी नाम का पौधा।
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चुचु  : पुं० [सं० चञ्चु] चेंच नाम का साग।
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चुचुआना  : अ० दे० ‘चुकचुकाना’।
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चुंचुक  : पुं० [सं० चुंचु+कन्] बृहत्संहिता के अनुसार नैर्ऋत्य कोण का एक देश।
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चुचुक  : पुं० [सं० चुचु√कै(शब्द करना)+क] १. कुच या स्तन के सिरे या नोक पर का भाग जो गोल घुंडी का सा होता है। ढिपनी। २. दक्षिण भारत का एक प्राचीन देश। ३. उक्त देश का निवासी।
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चुचुकना  : अ० [सं० शुष्क] १. इस प्रकार सूखना कि ऊपरी या बाहरी तल पर झुर्रियाँ पड़ जाएँ। सूखकर सिकुड़ना। जैसे–आम या चेहरा चुचकना। २. मुरझा जाना।
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चुचुकारना  : स० चुमकारना।
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चुचुकारना  : स० दे० ‘चुमकारना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुंचुल  : पुं० [सं०] विश्वामित्र का एक पुत्र जो संगीत सास्त्र का बहुत बड़ा पंडित था।
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चुचूक  : पुं० [सं०√चूष् (पीना)+उक्र वाहु ष-च] कुच के ऊपर की अगली काली घुंडी। चूची की ढेंपी।
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चुच्चु  : पुं० [सं०] पालक की तरह का एक प्रकार का साग। चौपतिया।
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चुटक  : स्त्री० [हिं० चुटकना] १. चुटकने की क्रिया या भाव। २. चुटकी। ३. एक प्रकार का कोड़ा जिसका प्रयोग घोड़ों को चलाना सिखाने के लिए होता है। पुं० [?] एक प्रकार का कालीन या गलीचा।
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चुटकना  : स० [हिं० चुटकी] १. चुटकी से पकड़कर कोई चीज उखाड़ना या तोड़ना। जैसे–पत्तियाँ, फूल या साग चुटकना। २. चुटकी से पकड़कर शरीर का कुछ अंश जोर से दबाना। चिकोटी काटना। ३. साँप का किसी को काटना। ४. कोड़ा मारना। चाबुक चलाना। अ० १. चुटकी बजाना। २. चुट चुट शब्द करना। उदाहरण–करै चाह सौं चुटकिं कै खरे उडौंहैं मैन।–बिहारी।
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चुटकला  : पुं०=चुटकुला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुटका  : पुं० [हिं० चुटकी] १. बड़ी चुटकी। २. उतनी चीज जो चुटकी में आवे। जैसे–चुटका भर आटा।
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चुटकी  : स्त्री०=चुटकी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुटकी  : स्त्री० [चुट-चुट शब्द से अनु०] १. कोई वस्तु उठाने, दबाने, पकड़ने आदि के लिए अथवा कोई विशिष्ट कार्य करने के लिए अँगूठे के सिरे से तर्जनी का सिरा मिलाने की मुद्रा या स्थिति। जैसे–गौ, भैंस दुहने या पत्तों का दोना बनाने के लिए चुटकी से काम लेना। मुहावरा–चुटकी बैठना=चुटकी की सहायता से किये जानेवाले काम का ठीक और पूरा अभ्यास होना। जैसे–जब चुटकी बैठ जायेगी तबदोने ठीक बनने लगेगे। चुटकी लगाना=(क) कोई चीज उठाने, खींचने तोडने पकड़ने आदि के लिए अँगूठे और तर्जनी की उक्त प्रकार की मुद्रा से काम लेना। जैसे–(क) उचक्के ने चुटकी लगाकर उसके जेब से नोट निकाल लिये। (ख) पत्तों को मोड़कर दोना बनाने के लिए चुटकी लगाना। (ग) चुनरी आदि रंगने के समय जगह-जगह से कपड़े के कुछ अंश पकड़कर डोरी-तागे से इस प्रकार बाँधना कि उतने अंश पर रंग न बढ़ने पावे। २. किसी के शरीर में पीड़ा उत्पन्न करने अथवा उसका ध्यान किसी बात की ओर आकृष्ट करने के लिए अँगूठे और तर्जनी से उसके शरीर का थोड़ा सा चमड़ा पकड़ कर दबाने की क्रिया या भाव। चिकोटी। जैसे–(क) उसने ऐसे जोर से चुटकी काटी कि चमड़ा लाल हो गया। क्रि० प्र०–काटना। मुहावरा–चुटकी भरना=उक्त प्रकार की मुद्रा से किसी के शरीर का चमड़ा पकड़कर दबाना। चिकोटी या चुटकी काटना। ३. उक्त के आधार पर लाक्षणिक रूप में किसी को मार्मिक कष्ट पहुँचाने, लज्जित करने या हास्यास्पद बनाने के लिए कही हुई कोई चुभती या लगती हुई व्यंग्यपूर्ण उक्ति या बात। जैसे–अपने भाषण में वे मंत्रियों पर भी चुटकियाँ लेते चलते थे। क्रि० प्र०–लेना। मुहावरा–(किसी को) चुटकियों में उड़ाना किसी को बहुत ही तुच्छ या हीन समझते हुए और बहुत सहज में नगण और हास्यास्पद ठहराना या सिद्ध करना। जैसे–पंडित जी को तो उन्होंने चुटकियों में ही उड़ा दिया। ४. किसी चीज को उठाने या देने के लिए अँगूठे, तर्जनी और मध्यमा उँगलियों के अगले सिरों को मिलाने की मुद्रा या स्थिति। पद–चुटकी भर=किसी चीज का उतना अंश जितना उक्त प्रकार की पकड़ में आता हो अर्थात् बहुत थोड़ा। जैसे–भिखमंगे को चुटकी भर आटा दे दो। मुहावरा–चुटकी मांगना=उक्त प्रकार से थोड़ा-थोड़ा अन्न घर-घर भीख के रूप में माँगते फिरना। ५. चुमकारने, पुचकारने अथवा अपनी ओर किसी का ध्यान आकृष्ट करने के लिए अँगूठे और मध्यमा के सिरों को मिलाकर इस प्रकार जोर से चटकाने की क्रिया जिससे चुट शब्द होता है। जैसे–चुटकी बजाकर तोते को पढ़ाना या बच्चे को बुलाना। क्रि० प्र०–बजाना। मुहावरा–चुटकी देना अँगूठे और तर्जनी की उक्त प्रकार की मुद्रा से चुट-चुट शब्द उत्पन्न करना। चुटकी बजाना। उदाहरण–सो मूरति तू अपने आँगन दै दै चुटकी नचाई।–सूर। (किसी की) चुटकी या चुटकियों पर कोई काम करना=बहुत ही थोड़े या सामान्य संकेत पर कोई काम ठीक या पूरा करना। जैसे–हमारा पुराना नौकर तो चुटकियों पर सब काम करता था। चुटकी या चुटकियों में=उतने ही थोड़े समय में जितना चुटकी या चुटकियाँ बजाने में लगता है, अर्थात् बहुत जल्दी या शीघ्र। जैसे–घबराते क्यों हों, सब काम चुटकियों में हुआ जाता है। ६. धातु आदि का बना हुआ वह उपकरण जो देखने में चुटकी की पक़ड़ के आकार का होता है और जिससे कपड़े, कागज आदि पकड़कर इसलिए दबाये जाते हैं कि वे इधर-उधर उड़ने या बिखरने न पावें। (इस पर पहले हाथ की उँगलियों की सी आकृति बनी रहती थी, इसी लिए पंजा भी कहते हैं) ७. जरदोजी के काम में गोटे, लचके आदि को बीच-बीच में मोड़ते हुए बनाया जानेवाला लहरियेदार और सुन्दर रूप जो कई प्रकार का होता है। जैसे–उस ओढनी पर किश्तीनुमा चुटकी बनी थी। ८. एक प्रकार का गुलबदन या मशरू जिसमें उक्त प्रकार का कटावदार काम होता है। ९. पैर की उँगलियों में पहना जानेवाला एक प्रकार का चौड़ा छल्ला। १॰. कपड़े की छपाई और रंगाई का एक प्रकार का पुराना ढंग जिसमें बीच-बीच में कपड़े का कुछ अंश दबाकर रंग से अलग रखा जाता था। ११. दरी की बुनावट में ताने के सूत। १२. बंदूक का वह खटका जिसे दबाने से गोली चलती है। बंदूक का घोड़ा। (लश०) १३. पेच कसने और खोलने, बोतल का काग निकालने आदि का पेचकस। (क्व०)
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चुटकुला  : पुं० [हिं० चुटकी] १. कोई ऐसी चमत्कारपूर्ण और विलक्षण उक्ति, कहानी, आदि जिसे सुनकर सब लोग प्रसन्न हो जायँ या हँस पड़ें। हँसी-विनोद की कोई बढिया और मजेदार बात। मुहावरा–चुटकुला छेड़ना कोई ऐसी बात कहना जिससे लोगों को कौतूहल हो और वे उसकी चर्चा करने लगे या उसके संबंध में आपस में कुछ झगड़ा या विवाद करने लगें। २. दवा का कोई ऐसा छोटा और सहज अनुयोग या नुस्खा जो बहुत गुण-कारक सिद्ध होता हो। लटका।
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चुटफुट  : वि० [अनु०] १. इधर-उधर फैला या बिखरा हुआ, परन्तु छोटा और बहुत साधारण। जैसे–घर का चुट-फुट सामान। २. जो सब जगह न होकर कभी थोड़ा यहाँ और कभी थोड़ा वहाँ होता है। जैसे–नगर में हैजे से चुट-फुट मौतें होने लगीं हैं। स्त्री० इधर-उधर फैली हुई फुटकर और मामूली चीजें।
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चुटला  : पुं० [हिं० चोटी] १. एक प्रकार का गहना जो सिर पर चोटी या वेणी के ऊपर पहना जाता है। २. सिर के बालों की वेणी या जूड़ा। वि० दे० ‘चुटीला’।
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चुंटली  : स्त्री० [देश०] घुँघची। गुंजा।
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चुंटा  : पुं०=चुंडा।
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चुटाना  : अ० [हिं० चोट] चोट खाना। घायल होना।
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चुटिया  : स्त्री० [हिं० चोटकी] १. सिर के बालों की वह लट जो हिंदू पुरुष सिर के बीचो-बीच रखते है। शिखा। चुंदी। चोटी। विशेष-विस्तृत विवरण और मुहावरा के लिए देखें चोटी। २. चोरों या ठगों का सरदार।
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चुटियाना  : स० [हिं० चोट] १. घायल या जख्मी करना। चोट पहुँचाना २. जीव-जन्तुओं का किसी को काट या डसकर घायल करना।
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चुटिला  : पुं० चुटला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुटीलना  : स० [हिं० चोट] चोट पहुँचाना।
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चुटीला  : वि० [हिं० चोट+ईला (प्रत्य)] १. चोटा खाया हुआ। जिसे घाव या चोट लगी हो। २. चोट करनेवाला। (जन्तु)। वि० [हिं० चोटी] १. चोटी पर का यासिरे का सब से अच्छा और बढ़कर । २. ठाठ-बाटवाला। भड़कीला। पुं० चुटला।
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चुटुकी  : स्त्री०=चुटकी।
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चुटैल  : वि० [हिं० चोट] १. जो चोट खाकर घायल हुआ हो। जिसे चोट लगी हो। जैसे–इस मार-पीट में चार आदमी चुटैल हुए हैं। २. आक्रमण या चोट करनेवाला। (क्व०)।
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चुट्टना  : स० दे० चुनना। (राज०) उदाहरण–कली न चुट्टई आइ।-ढोलामारू।
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चुट्टा  : पुं०[हिं० चोटी] बड़ी और भारी या उसका बना हुआ जूड़ा। चुटला।
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चुड़  : स्त्री० दे० ‘चूड्ड’।
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चुड़क्का  : पुं० [हिं० चिड़िया] लाल की तरह की एक छोटी चिड़िया जिसकी चोंच और पैर काले, पीठ मटमैली तथा पूँछ कुछ लंबी होती है। चिडुक्का।
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चुड़ला  : पुं० [स्त्री० अल्पा० चुड़ली]=चूड़ा (हाथ में पहनने का)।
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चुंडा  : पुं० [सं० चुडि+अच्-टाप्] [स्त्री० अल्पा० चुंडी] कूआँ। कूप। पुं०=चोंड़ा।
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चुड़ाव  : पुं० [देश०] एक जंगली जाति।
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चुंडित  : वि० [हिं० चुंड़ी=शिखा] चुंडी या शिखावाला। शिखाधारी।
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चुड़िया  : स्त्री०=चूड़ी।
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चुड़िहारा  : पुं० [हिं० चूड़ी+हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० चुड़िहारिन] १. स्त्रियों के पहनने की चूड़ियाँ बनानेवाला। २. चूड़ियाँ बेचनेवाला व्यक्ति।
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चुंड़ी  : स्त्री०=चुंदी (शिखा)।
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चुड़ैल  : स्त्री० [सं० चूड़ा या हिं० चुड्ड ?] १. भूत की स्त्री। भूतनी। डायन। पिशाचिनी। २. बहुत ही क्रूर या दुष्ट स्वभाववाली स्त्री। ३. बहुत ही कुरूप या घृणित स्त्री।
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चुड्ड  : स्त्री० [सं० च्युत=भग] भग। योनि। (पश्चिम)।
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चुड्डो  : स्त्री० [हिं० चुडु] स्त्रियों को दी जानेवाली एक गारी। छिनाल स्त्री।
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चुत  : पुं० [सं०√चुत् (बहना)+क] गुदद्वार।
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चुत्थल  : वि० [हिं० चुहल] ठठोल। मसखरा। वि०=चुत्था।
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चुत्था  : पुं०[हिं० चोथना=नोचना] वह बटेर जिसे लड़ाई में दूसरे बटेर ने घायल किया हो, और उसके पर आदि चोथ या नोच लिये हों। वि० चोंथा या नोचा-बकोटा हुआ।
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चुदक्कड़  : वि० [हिं० चोदना] बहुत अधिक चोदने वाला। अत्यन्त कामी।
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चुदना  : अ० [हिं० चोदना] स्त्री का पुरुष के द्वारा चोदा जाना।
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चुंदरी  : स्त्री०=चुनरी।
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चुँदरीगर  : पुं० [हिं० चुँदरी+फा० गर] वह रँगरेज जो रँगकर चुनरी तैयार करता हो।
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चुदवाई  : स्त्री० [हिं० चुदवाना] चुदवाने की क्रिया, भाव या पुरस्कार।
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चुदवाना  : अ, स० दे० ‘चुदाना’।
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चुदवास  : स्त्री० [हिं० चुदवाना+आस (प्रत्य०)] स्त्री की संभोग कराने की इच्छा। मैथुन कराने की कामना।
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चुदवैया  : पुं० [हिं० चोदना+वैया (प्रत्य०)] स्त्री के साथ प्रसंग करने या संभोग करनेवाला।
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चुदाई  : स्त्री० [हिं० चोदना] १. चोदने की क्रिया या भाव। स्त्री-प्रसंग। मैथुन। २. उक्त क्रिया के बदले में लिया या दिया जानेवाला धन।
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चुदाना  : अ० [हिं० चोदने का प्रे०] स्त्री का पुरुष से प्रसंग या संभोग कराना।
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चुदास  : स्त्री० [हिं० चोदना+आस (प्रत्य)] स्त्री-प्रसंग करने की प्रबल इच्छा या कामना।
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चुदासा  : पुं० [हिं० चोदना] [स्त्री० चुदासी] वह पुरुष जिसे स्त्री-प्रसंग करने की प्रबल इच्छा या कामना हो।
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चुंदी  : स्त्री० [सं०√चुद् (प्रेरणा देना)+अच्-ङीष् निया० सिद्ध] कुटनी। दूती। स्त्री० [सं० चूड़ा ?] हिंदू पुरुषों के सिर पर चुटिया। चोटी। शिखा।
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चुदौवल  : स्त्री० [हिं० चोदना] स्त्री के साथ पुरुष के प्रसंग या संभोग करने की क्रिया या भाव।
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चुँधलाना  : अ० चौंधियान। अ०=चौंधराना।
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चुंधा  : वि० [हिं० चौ=चार+अंध] [स्त्री०चुंधी] १.(जीव) जिसे कुछ दिखाई न देता हो। अंधा। २. अपेक्षाकृत बहुत छोटी आँखोवाला।
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चुँधियाना  : अ०=चौंधियाना।
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चुन  : पुं० [सं० चूर्ण, हिं० चून] १. गेहूँ, जौ आदि का आटा। २. चूर्ण। बुकनी।
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चुनचुना  : पुं० [अनु०] पेट में उत्पन्न होनेवाले एक प्रकार के सफेद रंग के लंबोतरे कीड़े जो मलद्वार से मल के साथ बाहर निकलते हैं। मुहावरा–चुनचुना लगना=चुभती या लगती हुई बात सुनने पर बहुत बुरा लगना। वि० [देश०] जिसके स्पर्श करने से हलकी जलन होती है। क्रि० प्र०–लगना।
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चुनचुनाना  : अ० [अनु०] [भाव० चुनचुनाहट, चुनचुनी] १. शरीर के किसी अंग में रह-रहकर हल्की खुजली और जलन सी होना। जैसे–घाव चुनचुनाना। २. कोई तीक्ष्ण वस्तु खाने अथवा किसी अंग से उसका स्पर्श होने पर हलकी जलन होना। जैसे–सूरन खाने से गला अथवा राई का लेप करने से किसी अंग का चुनचुनाना। ३. लड़कों का धीरे-धीरे चीं चीं शब्द करते हुए रोना। (क्व०)
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चुनचुनाहट  : स्त्री०=चुनचुनी।
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चुनचुनी  : स्त्री० [हिं० चुनचुनाना] १. चुनचुनाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. हलकी जलन। स्त्री० दे० ‘चुलचुली’।
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चुनट  : स्त्री० दे० ‘चुनना’।
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चुनत  : स्त्री०=चुनट (चुनन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुनन  : स्त्री० [हिं० चुनना] १. चुनने की क्रिया या भाव। २.अनाज में का वह रद्दी अंश जो उसमें से चुनकर अलग किया जाता है। जैसे–सेर भर दाल में से आधा पाव चुनन निकली है। ३. कपड़े को जगह-जगह से मोड़ या दबा कर उसमें सुंदरता लाने के लिए डाली या बनायी जानेवाली परतें। कपड़े में डाला जानेवाला बल या शिकने। जैसे–साड़ी की चुनन। ४. कुरते, दुपट्टे आदि में चुटकी से चुनकर या इमली के चीएँ से रगड़कर डाली या बनाई जानेवाली छोटी-छोटी रेखाएँ या शिकनें जो देखने में सुंदर जान पड़ती हैं।
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चुननदार  : वि० [हिं० चुनन+फा० दार] जिसमें चुनन पड़ी हो। जो चुना गया हो।
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चुनना  : स० [सं० चयन] १. बहुत सी चीजों में से अपनी आवश्यकता, इच्छा, रुचि आदि के अनुसार अच्छी या काम की चीजें छाँटकर अलग करना। जैसे–(क) पढ़ने के लिए किताब और पहनने के लिए कपड़ा चुनना। (ख) चुन-चुनकर गालियाँ देना। २. आज-कल राजनीतिक क्षेत्र में, कई उम्मीदवारों में से किसी को अपने प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित करना। जैसे–नगरपालिका या राज-सभा के लिए सदस्य चुनना। ३. कहीं पड़ी या रखी हुई छोटी चीजें उठाना या लेना। जैसे–कबूतरों या मुर्गियों का जमीन पर पड़े हुए दाने चुनना। चुगना। ४. पौधों में लगे हुए फूलों आदि के संबंध में, उँगलियों या चुटकी से तोड़कर इकट्ठा करना। जैसे–माली का कलियाँ या फूल चुनना। ५. एक में मिली हुई कई तरह की चीजों में से अच्छी और काम की चीजें एक ओर करना और फालतू या रद्दी चीजें अलग करना। जैसे–चावल या दाल चुनना, अर्थात् उसमें मिले हुए कदन्न, कंकड़ियों आदि उठा-उठाकर अलग करना या फेंकना। ६. किसी स्थान पर बहुत सी चीजें क्रम से और सजाकर यथा-स्थान रखन। जैसे–अलमारी में किताबें चुनना,मेज पर खाना चुनना। ७. दीवारों की जुडा़ई में क्रम से और ठीक तरह से ईंटें पत्थर आदि बैठाना या लगाना। जैसे–इस कमरे की दीवारें चुनने में ही दस दिन लग गये। मुहावरा–(किसी को) दीवार में चुनना=मध्य युग में किसी को प्राण-दंड देने के लिए कहीं खडा़ करके उसके आस-पास या चारों ओर ईंट-पत्थर आदि की दीवार या दीवारें बनाना, जिसमें दम घुटने के कारण अभियुक्त उसी में मर जाय। ८. उँगलियों की चुटकी, इमली के बड़े चीएँ आदि की सहायता से कपड़े में सुन्दरता लाने के लिए उसे बहुत ही थोड़ी-थोड़ी दूर पर दबाते तथा मोड़ते हुए उसमें छोटी-छोटी शिकनें या सिकुंड़ने डालना या बनाना। जैसे–कुरता चुनना। ९. हाथ की चारों उँगलियों की सहायता से कपड़े को बार-बार इधर-उधर घुमाते या ले जाते हुए उसकी तीन-चार अंगुल चौड़ी तहें लगाना। जैसे–दुपट्टा या धोती चुनकर खूँटी पर टाँगना या रखना।
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चुनरिया  : स्त्री०=चुनरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुनरी  : स्त्री० [हिं० चुनना] १. पुरानी चाल का एक प्रकार का रंगीन विशेषतः लाल रंग का कपड़ा जिसके बीच में थोड़ी-थोड़ी दूर पर सफेद अथवा किसी दूसरे रंग की बुँदकियाँ होती थी। इस कपड़े का उपयोग स्त्रियाँ साड़ी के रूप में भी और चादर के रूप में भी करती थीं। २. चुन्नी नामक रत्न का छोटा टुकड़ा।
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चुनवट  : स्त्री०=चुनट।
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चुनवाँ  : वि० [हिं० चुनना] १. चुना हुआ। २. अच्छा। बढ़िया। पुं० [हिं० चुन्नी या चुन्नू (लड़कों का नाम)] [स्त्री० चुनियाँ] १. वह छोटा लड़का जो अभी काम सीखता हो। २. बालक। लड़का।
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चुनवाना  : स० [हिं० चुनना का प्रे०] चुनने का काम किसी दूसरे से कराना। किसी को चुनने में प्रवृत्त करना।
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चुनाँ  : वि० [फा०] इस प्रकार का। ऐसा। केवल यौ में प्रयुक्त। जैसे–चुनाँच, चुनाँ-चुंनी आदि।
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चुनाँ, चुनी  : स्त्री० [फा०] १. किसी के आदेश, कथन आदि के संबंध में यह कहना या पूछना कि ऐसा क्यों होना चाहिए अथवा इसका औचित्य क्या है। २. व्यर्थ की आपत्ति या विरोध। जैसे–अब चुनाँ-चुनीं मत करो, हम जो कहते हैं, वह करो।
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चुनाई  : स्त्री० [हिं० चुनना] १. चुनने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. कोई चीज चुनने का ढंग, प्रणाली या स्वरूप। जैसे–इस दीवार की चुनाई कुछ टेढ़ी हुई है।
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चुनाखा  : पुं० [हिं० चूड़ी+नख] वृत्त बनाने का कंपास या परकार।
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चुनांचे  : अव्य० [फा० चुनान्चः] इसलिए। अतः।
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चुनाना  : स०=चुनवाना।
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चुनाव  : पुं० [हिं० चुनना] १. चुनने की क्रिया या भाव। २. बहुत सी वस्तुओं आदि में से अपनी रुचि, पसन्द, विवेक आदि के अनुसार कोई चीज अंगीकार, ग्रहण करने या ले लेने का कार्य। जैसे–शिक्षा अधिकारी पुरस्कार के लिए पुस्तकों का चुनाव करेगें। ३. किसी पद के लिए कई उम्मीदवारों में से किसी एक को मतों या बहुमत के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनने का कार्य या व्यापार। मुहावरा–चुनाव लड़ना=निर्वाचन में उम्मीदवार के रूप में खड़े होना। ४. वह चीज, बात या वस्तु जो आवश्यकता, रुचि आदि के अनुसार चुनी जाय। जैसे–यह भी तो आप का ही चुनाव है।
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चुनाव-याचिका  : स्त्री० [हिं० पद] विधिक क्षेत्र में, वह याचिका या आवेदन-पत्र जो किसी विशिष्ट न्यायालय में इस आधार पर तथा इस उद्देश्य से किया जाता है कि प्रतिनिधि रूप में अमुक सदस्य का चुनाव अवैध रूप से हुआ है, अतः यह चुनाव रद्द किया जाय। (इलेक्शन पेटिशन)
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चुनावट  : स्त्री०=चुनट।
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चुनिंदा  : वि० [हिं० चुनना+फा० इंदा (प्रत्य०)] १. चुना या छँटा हुआ। २. अच्छा। श्रेष्ठ। ३. गण्य-मान्य या प्रतिष्ठित।
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चुनिया गोंद  : पुं० [हिं० चूना+गोंद] ढाक या पलास का गोंद। कमरकस।
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चुनी  : स्त्री० [सं० चूर्णी] १. मोटे अन्न दाल आदि का पीसा हुआ आटा या चूर्ण जो प्रायः गरीब लोग खाते हैं पद–चुनी-भूसी।(देखें)। स्त्री०=चुन्नी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुनी भूसी  : स्त्री० [हिं०] मोटे अन्न का पीसा हुआ चूर्ण, चोकर आदि।
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चुनैटी  : स्त्री०=चुनौटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुनौटिया  : पुं० [हिं० चुनौटी] एक प्रकार का खैरा या का करेजी रंग जो आकिलखानी रंग से कुछ अधिक काला होता है। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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चुनौटी  : स्त्री० [हिं० चूना+औटी (प्रत्य०)] वह छोटी डिबिया जिसमें पान, सुपारी आदि के साथ खाने के लिए गीला चूना रखा जाता है।
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चुनौटी  : स्त्री०=चूनेदानी।
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चुनौती  : स्त्री० [हिं० चुनना या चुनाव] १. किसी को ललकारते हुए उससे यह कहना कि या तो तुम हमारी बात मान लो या यदि अपनी बात पर दृढ़ रहना चाहते हो तो हम से लड़-झगड़कर या वाद-विवाद आदि के द्वारा निपटारा कर लो। अपना कथन या पक्ष पुष्ट या सिद्ध करने अथवा अपनी बात मनवाने के लिए किसी को उत्तेजित करते हुए आकर सामना करने के लिए कहना। प्रचारणा। २. इस प्रकार कहीं हुई बात। क्रि० प्र०–देना। स्त्री० चुनट। (चुनन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुन्नट  : स्त्री०=चुनट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुन्नन  : स्त्री०=चुनन।
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चुन्ना  : पुं० दे० ‘चूना’। स० दे० ‘चुनना’। पुं० [मुन्ना का अनु०] छोटे बच्चों को प्यार से बुलाने का शब्द।
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चुन्नी  : स्त्री० [सं० चूर्णी] १. किसी प्रकार के रत्न विशेषतः मानिक का बहुत छोटा टुकड़ा या नग। २. सुनहले-रुपहले सितारे जो स्त्रियाँ सोभा के लिए कपोलों और मस्तक पर लगाती है। चमकी। मुहावरा–चुन्नी रचनामस्तक और कपोलों पर सितारे या मचकी लगाना। ३. अनाज के दानों का चूरा या छोटे-छोटे टुकड़े। ४. लकड़ी को आरे से चीरने पर निकलनेवाला उसका चूरा या बुरादा। कुनाई। ५. एक प्रकार का छोटा कीड़ा।
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चुप  : वि० [सं० चुप्, उ० बँ० चुप; पं० चुप्प; सिं० चुपु; गु० मरा० चुप] १. जो कुछ भी बोल न रहा हो। जिसके मुँह से कोई बात या शब्द न निकल रहा हो। मौन। जैसे–सब लोग चुप थे। पद-चुप-चाप। (देखें)। मुहावरा–चुप नाधना, मारना, लगाना या साधना=बोलने का अवसर या आवश्यकता होने पर भी जान-बूझकर कुछ न बोलना और चुप रहना। उदाहरण–गुस्सा चुप नाध के निकालते हैं।-इन्शाउल्ला। २. (यौं० के आरंभ में) इस प्रकार चुपचाप और चोरी से काम करनेवाला कि औरों को पता न लगे। जैसे–चुप छिनाल। स्त्री० बिलकुल चुप रहने की अवस्था, क्रिया या भाव। चुप्पी। मौन। जैसे–(क) सबसे भली चुप। (ख) एक चुप सौ बातों को हराती है। स्त्री० [?] पक्के लोहे की वह तलवार जिसे टूटने से बचाने के लिए ऊपर से कच्चा लोहा लगा रहता है।
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चुप-चुपाते  : अव्य० वि०=चुपचाप।
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चुपका  : वि० [हिं० चुप] [स्त्री० चुपकी] १. जो बिलकुल चुप हो। मौन। मुहावरा–चुपके से (क) बिना कुछ भी कहे-सुने। बिलकुल चुपचाप। जैसे–चुपके से हमारे रुपए चुका दो। (ख) इस प्रकार जिसमें किसी को कुछ भी पता न चले। जैसे–वह किताब उठाकर चुपके से चलता बना। २. दे० चुप्पा। पुं० बिलकुल चुप रहने की अवस्था या भाव। चुप्पी। मौन। क्रि० प्र०–साधना। पुं० [?] एक प्रकार का चाहा पक्षी जिसकी चोंच नुकीली और लंबी होती है।
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चुपकाना  : स० [हिं० चुपका] १. चुप या मौन कराना। २. बोलने से रोकना।
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चुपकी  : स्त्री०=चुप्पी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुपचाप  : अव्य० [हिं० चुप+अनु० चाप] १. बिना कुछ भी कहे-सुने। बिलकुल चुप या मौन रहकर। जैसे–वह चुप-चाप यहां से उठकर चला गया। २. इस प्रकार छिपे-छिपे या धीरे से कि किसी को पता तक न लगे। जैसे–घर में लोगो के जागते ही चोर चुपचाप निकल भागा। ३. बिना कोई उद्योग या प्रयत्न किये। जैसे–यों चुपचाप बैठे रहना ठीक नहीं है। ४. धीर और शांत भाव से। जैसे–यह लड़का तो चुपचाप बैठना तो जानता ही नहीं।
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चुपचुप  : अव्य दे० ‘चुपचाप’।
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चुपछिनाल  : स्त्री० [हिं० पद] छिपे-छिपे व्यभिचार करनेवाली स्त्री। वि० चुप-चाप अथवा छिपे-छिपे सब प्रकार के दुष्कर्म करने वाला।
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चुपड़ना  : स० [हिं० चिपचिपा] १. किसी वस्तु के तल पर किसी गाढ़े चिकने पदार्थ का लेप करना। जैसे–रोटी पर घी या तेल चुपड़ना। २. लाक्षणिक रूप में, किसी प्रकार की बात का किसी पर आरोप करना या भार रखना। जैसे–सब दोष हमारे ही सिर चुपड़ते चलो। ३. कोई बिगड़ी हुई बात बनाने के लिए चिकनी-चुपड़ी या चापलूसी की बातें करना।
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चुपड़ा  : वि० [हिं० चुपड़ना] [स्त्री० चुपड़ी] जिसकी आँखों में बहुत कीचड़ हो। कीचड़ से भरी आँखोंवाला।
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चुपरना  : स०=चुपड़ना।
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चुपरी आलू  : पुं०=रतालू (पिंडालू)।
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चुपाना  : अ० [हिं० चुप] चुप हो जाना। मौन रहना। न बोलना। स० किसी को चुप या मौन कराना। उदाहरण–मै आज चुपा आई चातक।-महादेवी।
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चुप्पा  : वि० [हिं० चुप] [स्त्री० चुप्पी] १. बहुत कम बोलनेवाला। जो किसी बात का जल्दी उत्तर न दे। २. जो अपने मन का भाव सहसा दूसरे पर प्रकट न होने दे। मन की बात मन में रखनेवाला। घुन्ना।
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चुप्पी  : स्त्री० [हिं० चुप] बिलकुल चुप रहने की अवस्था या भाव। मौन। क्रि० प्र०–लगाना।–साधना।
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चुंब  : पुं० [सं०√चुम्ब (चूमना)+घञ्] चुंबन।
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चुंबक  : वि० [सं०√चुम्ब+ण्वुल्-अक] १. चुंबन करनेवाला। २. कामुक। ३. धूर्त। ४. जो ग्रंथों को ध्यानपूर्वक पढ़ता हो, बल्कि इधर-उधर से कुछ देखकर छोड़ देता हो। पुं० १. वह फंदा जो कुएँ से पानी भरते समय घड़े के गले में फँसाया जाता है। फाँस। २. एक प्रकार का पत्थर जो लोहे आदि के छोटे-छोटे टुकड़ों को अपनी ओर खींच लेता है। ३. लोहे आदि का बनाया हुआ वह कृतिम उपकरण जिसमें उक्त पत्थर के गुणों का आरोपण किया गया हो तथा जो लोहे, निकिल आदि के टुकड़ों को अपनी ओर खींच लेता हो। (मेगनेट) ४. लाक्षणिक अर्थ में, वह व्यक्ति जो किसी को अपनी ओर आकृष्ट करता हो।
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चुंबकत्व  : पुं० [सं० चुम्बक+त्व] चुम्बक पत्थर का गुण या भाव।
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चुंबकीय  : वि० [सं० चुंबक+इ-ईय] १. चुंबक संबंधी। २. जिसमें चुंबक या उसका गुण हों।
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चुंबना  : स०=चूमना।
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चुबलाना  : स०=चुभलाना।
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चुंबा  : पुं० दे० सुंबा (लश०) पुं०=चुम्मा।
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चुंबित  : भू० कृ० [सं०√चुंब+क्त] १. जिसका चुंबन किया गया हो। चूमा हुआ। २. किसी के साथ थोड़ा स्पर्श करता हुआ।
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चुंबी  : वि० [सं०√चुंब+णिनि] १. चूमनेवाला। २. जो किसी को छूता या स्पर्श करता हुआ हो। बहुत ऊँचा। जैसे–गगन चुंबी पर्वत या प्रासाद।
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चुभकना  : अ० [अनु०] पानी में डूबते चुभ-चुभ शब्द करते हुए गोता खाना बार-बार डूबना-उतराना।
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चुभकाना  : स० [अनु०] पानी में डुबाकर इस प्रकार बार-बार गोते देना कि मुँह से चुभ-चुभ शब्द निकलने लगे।
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चुभकी  : स्त्री० [अनु० चुभ-चुभ] १. चुभकने की क्रिया या भाव। २. गोता। डुबकी।
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चुभन  : स्त्री० [हिं० चुभन] १. चुभने की क्रिया या भाव। २. किसी के चुभने के कारण होनेवाली टीस या पीड़ा।
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चुँभना  : स०=चूमना।
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चुभना  : अ० [अनु०] १. दाब पड़ने पर किसी नुकीली चीज का सिरा अंदर घुसना या धँसना। जैसे–पैर में कांटा या हाथ में सूई चुभना। २. कोई बात मन को उसी प्रकार कष्टदायक जान पड़ना जिस प्रकार किसी चीज का चुभना कष्टदायक होता है। जैसे–हँसी में कही हुई उसकी वह बात भी मेरे कलेजे (या मन) में चुभ गई। ३. उक्त कथन आदि का मन में प्रविष्ट होकर अच्छी तरह स्थित होना। ४. किसी चीज या बात का अपने गुण,रूप आदि के कारण मन में घर करना। उदाहरण–टरति न टारे यह छबि मन में चुभी।–सूर।
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चुभर-चुभर  : अव्य० वि० [अनु०] इस प्रकार कि मुँह से चुभ-चुभ शब्द निकले। जैसे–कुत्ता चुभर चुभर पानी पीता है।
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चुभलाना  : स० [अनु०] मुँह में कोई खाद्य पदार्थ रखकर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करना और इस प्रकार उसका रस चूसना या स्वाद लेना।
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चुभवाना  : स० [हिं० चुभना का प्रे०] किसी को कुछ चुभाने में प्रवृत्त करना।
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चुभाना  : स० [हिं० चुभना का प्रे०] ऐसी क्रिया करना जिससे नुकीली चीज या उसका सिरा अन्दर धँसे। गड़ाना। जैसे–किसी के शरीर में काँटा या सूई चुभाना।
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चुभीना  : वि०=चुभीला।
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चुभीला  : वि० [हिं० चुभना] १. जो शरीर में चुभता हो, अर्थात् नुकीला। २. जो मन में खटकता हो। ३. जो मन में बरबस घर कर लेता हो, अर्थात् मनोहर या मोहक।
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चुभोना  : स०=चुभाना।
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चुमकार  : स्त्री० [हिं० चूमना+कार] १. चुपकारने की क्रिया या भाव। पुचकार। २. किसी को चूमने के समय मुँह से निकलनेवाला चुम शब्द।
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चुमकारना  : स० [हिं० चुमकार] किसी को अनुरक्त, आकृष्ट या शांत करने केलिए चूमने का सा चुम चुम शब्द मुँह से निकालते हुए उससे दुलार या प्रेम करना। पुचकारना। जैसे–घोड़े या बच्चे को चुमकारना।
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चुमकारी  : स्त्री०=चुमकार।
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चुमवाना  : स० [हिं० चूमना का प्रे०] किसी को कुछ चूमने में प्रवृत्त करना। चुंबन कराना।
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चुमाना  : स० [हिं० चूमना] चूमने में प्रवृत्त करना।
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चुम्मक  : पुं०=चुंबक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुम्मा  : पुं० [हिं० चूमना] किसी को, विशेषतः प्रिय को चूमने की क्रिया। चुंबन। पद-चुम्मा-चाटी(देखें)।
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चुम्मा-चाटी  : स्त्री० [हिं० चूमना+चाटना] किसी को बार-बार चूमने और उसके अंगों को चाटने या उन पर मुँह रखने की क्रिया या भाव।
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चुर  : वि० [√चुर्(चुराना)+क] चोरी करनेवाला। वि० [सं० प्रचुर] बहुत अधिक या ज्यादा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १. जंगली हिंसक पशुओं के रहने का गड्ढा। माँद। २. कुछ लोगों के मिलकर बैठने का स्थान। उदाहरण–घाट, बाट, चौपार, चुर देवल, हाट, मसान।-भगवतरसिक। पुं० [अनु०] कड़ी चीजों सूखे पत्तों आदि के दबकर टूटने से होनेवाला चुर शब्द।
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चुरकट  : वि० १.=चिरकुट। २.=चुरकुट।
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चुरकना  : अ० [अनु० चुर चुर] १. चूर-चूर होना। २. चटकना, दरकना या फटना। अ०=चुरगना।
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चुरकी  : स्त्री० [हिं० चोटी] सिर पर की चुटिया। चोटी। शिखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुरकुट  : वि० [हिं० चूर+कूटना] १. चकनाचूर या चूर-चूर किया हुआ। चूर्णित। २. घबराया, डरा या सहमा हुआ। उदाहरण–कुरकुट सुनि चुरकुट भइ बाला।–नंददास।
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चुरकुस  : वि० [हिं० चूर] जो चूर-चूर हुआ या किया गया हो। चकनाचूर। पुं० चूर्ण। बुकनी।
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चुरगना  : अ० [चुर-चुर से अनु०] १. प्रसन्न या मगन होकर बातें बोलना या मुँह से शब्द निकालना। जैसे–चिडियों का चुरगना। २. किसी व्यक्ति का मगन होकर अपने संबंध में कुछ बढ़-बढ़कर परन्तु धीरे-धीरे बातें करना। जैसे–आज चुपचाप मोहन का चुरगना सुनो।
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चुरगम  : स्त्री० [हिं० चुरगना] १. आनंद या मगन होकर की जानेवाली बातें। २. आपस में बहुत धीरे-धीरे की जानेवाली बातें। काना-फूसी। जैसे–उन लोगों की आपस में खूब चुरगम हो रही थी।
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चुरचुरा  : वि० [अनु०] १. (खाद्य वस्तु) जिसे खाने पर मुँह से चुर चर शब्द निकले। खस्ता। जैसे–चुरचुरा पापड़। २. (वस्तु) जो टूटते समय चुरचुर शब्द करती हो।
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चुरचुराना  : अ० [अनु०] १. चुरचुर शब्द उत्पन्न होना या निकलना। २. (किसी वस्तु का) चूर-चूर शब्द करते हुए चूरचूर या टुकड़े-टुकड़े होना। स० १. चुरचुर शब्द उत्पन्न करना या निकालना। २. इस प्रकार चूर करना या तोड़ना कि चुर चुर शब्द होने लगे।
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चुरना  : अ० [सं० चूर=जलना, पकना] १. खाद्य पदार्थ का आँच पर पकना विशेषतः खौलते हुए पानी में उबलकर पकना। जैसे–चावल या दाल चुरना। २. आपस में धीरे-धीरे गुप्त या रहस्यपूर्ण बातें होना। अ० चोरी जाना। चुराया जाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० चुनचुना। (कीड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुरमुर  : पुं० [अनु०] करारी, कुरकुरी या खरी वस्तु के टूटने का शब्द। जैसे–भुने हुए चने या सूखी पत्तियों का चुरमुर बोलना। वि०=चुरमुरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुरमुरा  : वि० [अनु०] (वस्तु) जो दबाये या तोड़े जाने पर चुरमुर शब्द करे। करारा।
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चुरमुराना  : अ० [अनु०] चुरमुर शब्द करते हुए चूर होना। स० चुरमुर शब्द करते हुए चूर करना या तोड़ना।
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चुरवाना  : स० [हिं० चुराना=पकाना] चुरने अर्थात् उबलने और पकने में प्रवृत्त करना। स० [चुराना=चोरी करना] चुरने या चोरी करने में प्रवृत्त करना। चोरी कराना।
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चुरस  : स्त्री० [देश०] दबने, मुड़ने आदि के कारण पड़नेवाली शिकन। सिकुड़न। पुं०=चुरुट।
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चुरा  : पुं०=चूरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चूड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुराई  : स्त्री० [हिं० चुरना] चुरने अर्थात् उबलने की क्रिया या भाव। स्त्री०[हिं० चुराना]चुराने की क्रिया या भाव।
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चुराना  : स० [सं० चुर=चोरी करना] १. किसी की कोई वस्तु बिना उसकी अनुमति के तथा छलपूर्वक कहीं से उठाकर अपने उपयोग के लिए ले जाना। चोरी करना। जैसे–किसी की कलम या किताब चुराना। २. किसी दूसरे का कोई भाव, विचार आदि अपना बनाकर कहना या लिखना। छलपूर्वक अपना बना लेना। ३. इस प्रकार बरबस अपने अधिकार या वश में कर लेना कि सहसा किसी को पता न चले। जैसे–किसी का चित्त या मन चुराना। ४. किसी वस्तु को इस प्रकार सुरक्षित रखना कि कोई उसे देखने न पावे। छिपाकर रखना। जैसे–गाय का अपने थन में दूध चुराना। ५. भय, संकोच आदि के कारण कोई चीज या बात दबा रखना और दूसरों के सम्मुख न लाना अथवा उन्हें न बतलाना। जैसे–(क) रमणी का आँखें चुराना। (ख) मित्रों से विवाह का समाचार चुराना। ६. आवश्यकता पड़ने पर ठीक या पूरा प्रयोग न करना। जैसे–काम करने से जी चुराना। स० [हिं० चुरना का स०] किसी तरल पदार्थ को उबालकर अच्छी तरह गरम करते हुए पकाना। चुरने में प्रवृत्त करना। जैसे–हाँड़ी में चावल या दाल चुराना।
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चुरिला  : पुं०=चुड़िला।
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चुरिहारा  : पुं०=चुड़िहारा।
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चुरी  : स्त्री० [सं०] छोटा कूआँ। स्त्री० चूड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुरुट  : पुं० [अं० शेरूट–चेरूट] तंबाकू के पत्तों के चूरे से बनाई हुई बड़ी पत्ती जिसका धूआँ लोग पीते हैं। सिगार।
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चुरू  : पुं०=चुल्लू। उदाहरण–एक चुरू रस भरै न हिया।–जायसी।
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चुरैल  : स्त्री०=चुड़ैल।
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चुर्ट  : पुं०=चुरुट।
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चुर्स  : पुं०=चुरुट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=चुरस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुल  : स्त्री० [हिं० चुलचुलाना से] १. शरीर के किसी अंग के मले या सहलाए जाने की इच्छा। खुजलाहट। खुजली। २. प्रसंग या संभोग की प्रबल इच्छा या कामना। काम-वासना। ३. किसी प्रकार की प्रबल इच्छा, कामना या वासना। क्रि० प्र०–उठना।–मिटना।–मिटाना। स्त्री०=चुर (माँद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदाहरण–तेदुओं के आकार स्पष्ट दिखलाई पड़ने लगे उनकी चुल भी दिखलाई पड़ी।–वृंदावनलाल वर्मा।
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चुलका  : स्त्री० =चुलुका।
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चुलचुलाना  : अ० [अनु०] १. शरीर के किसी अंग में ऐसी हलकी जलन या सुरसुरी होना कि उसे खुजलाने को जी चाहे। हलकी खुजली होना। २. प्रसंग या संभोग की प्रबल कामना होना। ३. चंचलतापूर्वक इधर-उधर हाथ-पैर करना या चीजें हटाना-बढ़ाना। चिलबिल्लापन करना।
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चुलचुलाहट  : स्त्री०[हिं० चुलचुलाना] चुलचुलाने की क्रिया या भाव।
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चुलचुली  : स्त्री० [हिं० चुलचुलाना] १. शरीर में होनेवाली हलकी खुजली। २. काम-वासना। चुल।
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चुलबुल  : स्त्री० [सं० चल और बल] १. चुलबुलाने की अवस्था, क्रिया या भाव। चुलबुलाहट। २. चंचलता। चपलता।
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चुलबुला  : वि० [हिं० चुलबुलाना] [स्त्री० चुलबुली] १. उमंग के कारण जिसके अंग बहुत अधिक हिलते-डुलते रहते हों। चंचल। चपल। २. दुष्ट। नटखट। पाजी।
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चुलबुलाना  : अ० [सं० चल=चंचल अथवा अनु०] १. उमंग, यौवन आदि के कारण बार-बार अंग हिलाना-डुलाना। चुलबुल करना। २. चंचलता या चपलता दिखलाना।
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चुलबुलापन  : पुं० [हिं० चुलबुला+पन (प्रत्यय)] १. चुलबुले होने की अवस्था, क्रिया या भाव। चुलबुलाहट। २. चंचलता। चपलता। शोखी।
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चुलबुलाहट  : स्त्री०=चुलबुलापन।
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चुलबुलिया  : वि०=चुलबुला।
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चुलहाई  : वि० [हिं० चुलहाया का स्त्री०] (स्त्री) जिसमें काम या संभोग की वासना अधिक हो। स्त्री० छिनाल। पुंश्चली।
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चुलहाया  : वि० [हिं० चुल+हाया (प्रत्य०)] [स्त्री० चुलहाई] जिसमें काम-वासना की अधिकता या प्रबलता हो।
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चुलाना  : स०=चुआना।
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चुलाव  : पुं० [हिं० चुलाना=चुआना] चुलाने अर्थात् चुआने की क्रिया या भाव। पुं० [हिं० पुलाव का अनु०] पुलाव की तरह पकाये हुए ऐसे चावल जिनमें मांस न पड़ा हो।
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चुलियाला  : पुं० [?] एक प्रकार का मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १३ और १६ के विश्राम से २९ मात्राएँ होती हैं। इसके अंत में एक जगण और एक लघु होता है। दोहे के अंत में एक जगण और एक लघु जोड़ने से यह छंद बनता है। कोई इसके दो और चार पद मानते हैं। जो दो पद मानते हैं वे दोहे के अंत में एक जगण और एक लघु रखते हैं। जो चार पद मानते हैं, वे दोहे के अंत में एक यगण रखते हैं।
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चुली  : स्त्री० [हिं० चुल्लू] १. धार्मिक दृष्टि से कोई चीज दान करने के लिए हथेली में जल लेकर किया जाने वाला संकल्प। २. दे० ‘चुल्लू’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुलुक  : पुं० [सं० चुल्(ऊँचा होना)+उकक्० बा०] १. उतना जल जितने में उड़द का दाना डूब जाय। २. बहुत अधिक कीचड़ या दलदल। ३.हाथ में पानी लेने के लिए हथेली का बनाया हुआ चुल्लू। ४. एक प्रकार का पुराना बरतन जिससे अनाज आदि नापते थे। ५. एक गोत्र का प्रवर्तक ऋषि।
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चुलुका  : स्त्री० [सं० चुलुक+टाप्] एक प्राचीन नदी। (महाभारत)।
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चुलुपा  : स्त्री० [सं० चुलुपा(रक्षा करना)+क-टाप्] बकरी।
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चुलूक  : पुं० =चुल्लू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चुल्ल  : वि० [सं० क्लिन्न+लच्, चुल् आदेश] जिसकी आँखों में कीचड़ भरा हो। स्त्री०=चुल।
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चुल्लक  : पुं०[सं०चुल्ल+कन्] चुल्लू।
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चुल्लकी  : स्त्री० [सं०√ चुल्ल् (कीड़ा करना)+ण्वुल्-अक+ङीष्] शिंशुमार या सूँस नामक जल-जंतु।
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चुल्ला  : पुं० [सं० चूड़ा=वलय] जुलाहों के करघे में का काँच का छोटा छल्ला। वि०=चुल्ली (चंचल और दुष्ट)।
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चुल्लि  : स्त्री० [सं०√चुल्ल्+इनि] १.चुल्हा। २. चिता।
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चुल्ली  : वि० [हिं० चुल] १. चुलबुला। चंचल। २. चिलबिल्ला। नटखट। पाजी। स्त्री० [सं० चुल्लि+ङीष्] चुल्लि। स्त्री०=चुली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुल्लू  : पुं० [सं० चुलुक] १. उँगलियों को अंदर की ओर कुछ मोड़कर गहरी की हुई हथेली जिसमें भरकर पानी आदि पी सकें। २. उतनी वस्तु जितनी हाथ की उक्त मुद्रा में आती है। पद-चुल्लू भर=उतना कम या थोड़ा(तरल पदार्थ) जितना एक बार चुल्लू में आता हो। मुहावरा–चुल्लू चुल्लू साधना=थोड़ा-थोडा़ करके किसी प्रकार का अभ्यास संग्रह या साधन करना। चुल्लू भर पानी मे डूब मरना=बहुत ही लज्जाजनक स्थिति में आना,पड़ना या होना। किसी को मुँह दिखाने या जीवित रहने के योग्य न रह जाना।(तिरस्कार सूचक) जैसे–ऐसा काम (या बात) करने से तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना ज्यादा अच्छा है। (किसी का) चुल्लू भर लहू पीना=बदला चुकाने के लिए उसी तरह किसी को मार कर उसका रक्त पीना जिस प्रकार भीम ने दुःशासन का लहू पीया था। चुल्लू में उल्लू होना=बहुत थोड़ी सी नशे की चीज। जैसे–भाँग या शराब पीते ही बेसुध होना। चुल्लुओं रोना=बहुत अधिक आँसू बहाना। बहुत रोना। (किसी का) चुल्लुओं लहू पीना (क चुल्लू भर लहू पीना। (ख) बहुत अधिक तंग या दुःखी करना। बहुत सताना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुल्हौना  : पुं०=चूल्हा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुवना  : अ० चूना। वि०=चूना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुवा  : पुं० दे० ‘चुआ’।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुवाना  : स०=चुआना।
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चुसकी  : स्त्री०=चुस्की।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुसना  : अ० [हिं० चूसना का अ०] १. चूसा जाना। २. चूसे जाने के कारण रस या सार भाग से रहित होना। ३. सोखा जाना। ४. लाक्षणिक अर्थ में दूसरों द्वारा किसी का शोषण किया जाना। धन-धान्य, बल-वीर्य रहति हो जाना। पुं० [स्त्री० अल्पा० चुसनी] बड़ी चुसनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुसनी  : स्त्री० [हिं० चूसना] १. चूसने की क्रिया या भाव। २. बच्चों का एक खिलौना जिसे वे मुँह में रखकर चूसते हैं। ३. बच्चों को दूध पिलाने की शीशी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुसवाना  : स० [हिं० चूसना का प्रे०] १.किसी को कुछ चूसने में प्रवृत्त करना। चुसाना। २. दूसरों से अपना शोषण करवाते जाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुसाई  : स्त्री० [हिं० चूसना] १. चूसने या चूसे जाने की अवस्था, क्रिया या भाव. २. चूसने या चुसाने का पारिश्रमिक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुसाना  : स० [हिं० चूसना का प्रे०] १. चूसने का काम किसी और से कराना। किसी को कुछ चूसने में प्रवृत्त करना। चुसवाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुसौअल  : स्त्री० [हिं० चूसना] अधिक मात्रा या मान में अथवा परस्पर चूसने और चुसाने की क्रिया या भाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुसौवल  : स्त्री०चुसौअल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुस्की  : स्त्री० [हिं० चूसना] १. होठों से कोई तरल पदार्थ थोड़-थोड़ा या धीरे-धीरे सुड़कने की क्रिया या भाव। २. तरल पदार्थ का उतना थोड़ा अंश जितना एक बार में चूस या सुड़ककर पीया जाय। जैसे–एक चुस्की तो और ले लो। क्रि० प्र०–लगाना।–लेना। ३. मद्य पीने का पात्र। (राज०)।
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चुस्त  : वि० [फा०] १. (पहनावा) जो खूब कसा हुआ हो। जो कहीं से कुछ भी ढीला न हो। यथा-स्थान ठीक और पूरा बैठनेवाला जैसे–चुस्त अंगा या पाजामा। २. (व्यक्ति) जिसमें किसी प्रकार का आलस्य या शिथिलता न हो। फुर्तीला। पद-चुस्त चालाकहर काम या बात में ठीक या पूरा और होशियार। ३. जिसमें किसी प्रकार का अभाव या त्रुटि न हो। जो उपयोगिता, औचित्य आदि के विचार से अच्छे और उँचे स्तर पर हो। जैसे–चुस्त बन्दिश या लिखावट। ४. दृढ़। पक्का। मजबूत। पुं० [?] जहाज का वह भाग जो अन्दर की ओर झुका या दबा हो। मूढ़। (लश०)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
चुस्ता  : पुं० [सं० चुस्त=मांसपिंड विशेष] बकरी के बच्चे का आमाशय जिसमें पीया हुआ दूध भरा रहता है।
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चुस्ती  : स्त्री० [फा०] १. चुस्त होने की अवस्था या भाव। २. काम करने में दिखाई देने वाली चुस्ती या फुरती। ३. कसे हुए या तंग होने की अवस्था या भाव। कसावट। ४. पक्कापन। प्रौढ़ता। ५. दृढ़ता। मजबूती।
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चुहचाहट  : स्त्री०=चहचहा।
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चुहचुहा  : वि० [हिं० चुहचुहाना] [स्त्री० चुहचुही]=चुहचुहाता।
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चुहचुहाता  : वि० [हिं० चुहचुहाना] जिसमें चटक या रसीलापन हो। रंगीला और रसीला। जैसे–चुहचुहाता पद।
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चुहचुहाना  : अ० [अनु०] रस से इतना अधिक ओत-प्रोत या भरा हुआ होना कि उसमें से रस टपकता हुआ जान पड़े। अ० चहचहाना। (पक्षियों का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुहचुही  : स्त्री० [अनु०] काले रंग की एक प्रकार की छोटी चिड़िया। फुलसुँघनी।
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चुहट  : स्त्री० [हिं० चुहटना] १. चुहटने की क्रिया या भाव। २. कसक। पीडा़।
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चुहटना  : स० [अनु०] १. चिकोटी काटना। २. पैरों से रौंदना। ३. कुचलना। मसलना। अ० चिमटना।
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चुहटनी  : स्त्री० [?] गुंजा। करजनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुहँटी  : स्त्री०=चुटकी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुहड़ा  : पुं० [देश०] [स्त्री० चुहड़ी] १. भंगी। मेहतर। २. चमार। ३. लाक्षणिक अर्थ में, बहुत ही निकृष्ट और नीच व्यक्ति।
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चुहना  : स०=चूसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चुहल  : स्त्री० [अनु० चुहचुह=चिड़ियों की बोली] मनोरंजन के लिए आपस में होनेवाली रस और विनोद की बात-चीत। हलकी हँसी-दिल्लगी।
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चुहलपन  : पुं०=चुहलबाजी।
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चुहलबाज  : वि० [हिं० चुहल+फा० बाज (प्रत्य०)] जो बीच-बीच में हलकी हँसी-दिल्लगी की बातें भी कहता चलता हो। चुहल करनेवाला। विनोदशील।
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चुहलबाजी  : स्त्री० [हिं० चुहल+फा० बाजी] बार-बार या रह-रहकर चुहल करने की क्रिया या भाव।
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चुहादान  : पु० [हिं० चूहा+फा० दान]=चूहेदानी।
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चुहिया  : स्त्री० [हिं० चूसा का स्त्री० अल्पा०] १. मादा चूहा। चूही। २. छोटा चूहा। चूहे का बच्चा।
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चुहिल  : स्त्री० [हिं० चुहचुहाना] १. रमणीक। सुन्दर। २. (स्थान) जहाँ चहल-पहल या रौनक हो।
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चुहिली  : स्त्री० [देश०] चिकनी सुपारी।
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चुहुकना  : स० [सं० चूष] बछड़े आदि का भैंस, गाय आदि का स्तन-पान करना। चूसना।
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चुहुँटना  : स० [अनु०] १. चिकोटी काटना। २. तोड़ने, दबाने आदि के लिए चुटकी से कसकर पकड़ना। वि० [स्त्री, चुहुँटनी] १. चिकोटी काटनेवाला। २. कसकर पकड़ना(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) और दबानेवाला [हिं० चिमटना] चिपकना। वि०[हिं० स्त्री० चुहुँटनी] चिपकनेवाला।
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चुहुटना  : स०=चुहुँटना।
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चुहुटनी  : स्त्री० [देश०] गुंजा।
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चूँ  : स्त्री० [अनु०] १. छोटी चिड़िय़ों या उनके बच्चों के बोलने का शब्द। २. आपत्ति, विरोध आदि के रूप में डरते या सहमते हुए कही जानेवाली कोई छोटी या हलकी बात। जैसे–वहाँ उसने चूँ तक नहीं की, सब रुपए चुपचाप चुका दिए। मुहावरा–चूँ चिरा करना=आपत्ति या विरोध में डरते या सहमते हुए कुछ कहना। अ० [फा०] किस कारण से। क्यों। पद-चूँकि (देखें)।
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चूअरी  : स्त्री० [देश०] जरदालू नामक फल। खूबानी।
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चूऊ  : पुं० [देश०] पहाड़ी प्रदेशों में बननेवाला एक प्रकार का बढ़िया महीन ऊनी कपड़ा।
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चूक  : स्त्री० [हिं० चूकना] १. चूकने की क्रिया या भाव। २. अनजान मे असावधानी से अथवा प्रमाद, विस्मृति आदि के कारण होनेवाली कोई गलती या भूल। उदाहरण–छमहू चूक अनजानत केरी।–तुलसी। ३. वह अक्षर, शब्द, पद, वाक्य आदि जो कहने, पढ़ने-लिखने आदि के समय अनजान में अथवा असावधानी, जल्दी या विस्मृति के कारण छूट जाता है। (ओमिशन)। ४. छल-कपट। धोखा-फरेब। उदाहरण–अहौ हरिबलि सों चूक करी।–परमानंददास। ५. छोटा छेद या दरार। पुं० [सं० चुक्र] १. किसी खट्टे फल विशेषतः नीबू के रस से बनी एक प्रकार की बहुत तेज खटाई। २. एक प्रकार का खट्टा साग।
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चूकना  : अ० [सं० च्युत कृत] १. भूल करना। २. कहने, पढ़ने, लिखने आदि के समय कोई अक्षर शब्द, पद, बात आदि प्रायः असावधानी या विस्मृति के कारण छोड़ देना। जैसा होना चाहिए उससे भिन्न कुछ और कर या कह जाना। ३. किसी लक्ष्य पर ठीक प्रकार से संधान न कर पाना। निशाना या वार खाली जाना। ४. असावधानी, उपेक्षा आदि के कारण किसी सुअवसर का सदुपयोग करने से रह जाना। ठीक समय पर लाभ न उठा पाना। ५. न रह जाना। समाप्त होना। चुकना। उदाहरण–सतगुरु मिलै अँधेरा चूकै।–कबीर।
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चूका  : पुं० [सं० चुक्र] चूक नामक खट्टा साग।
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चूँकि  : अव्य० [फा०] कारण यह है कि। क्योंकि।
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चूँच  : स्त्री०=चोंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चूँची  : स्त्री०=चूची।
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चूची  : स्त्री० [सं० चूचुक] १. स्तन का अगला भाग अथवा उसके ऊपर की घुंडी। २. कुच। स्तन। मुहावरा–चूची पीना स्तन में मुँह लगाकर उसमें का दूध पीना।
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चूँचूँ  : स्त्री० [अनु०] १. छोटी चिड़ियों या उनके बच्चों के बोलने का शब्द। २. विरोध में धीरे से कही हुई कोई बात। पुं० एक प्रकार का खिलौना जिसे दबाने से चूँ चूँ शब्द निकलता है।
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चूछना  : स०=चूसना।
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चूजा  : पुं० [फा० चूजः] १. मुर्गी का बच्चा। २. छोटी उमर का सुन्दर लड़का और लड़की (संभोग की दृष्टि से) (बाजारू)।
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चूँटना  : स० [हिं० चुटकी या चुटकना] तोड़ने या दबाने के लिए चुटकी से पकड़ना। उदाहरण–मन लुटिगो लोटनि चढ़त ऊँचे फूल।–बिहारी।
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चूड़  : पुं० [सं० चूडा़] १. चोटी। शिखा। २. पक्षियों आदि के सिर पर की कलगी या चोटी। ३. वास्तु रचना में, खंभे आदि का ऊपरी भाग ४. पहाड़ की चोटी। ५. छोटी कूआँ। ६. शंखचूड़ दैत्य का एक नाम।
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चूड़क  : पुं० [सं० चूड़ा+कन्, हृस्व] कुआँ।
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चूड़ा  : पुं० [सं०√चुल् (ऊँचा होना)+अङ्, दीर्घ(नि०),ल को ड, प्रा० चूड़, चूडक (भुजा भरण) गु० चूडो, सि० चूरो, मरा० चुड़ा] १. सिर के बालों की चोटी। शिखर। २. पक्षियों आदि के सिर पर की चोटी। ३. किसी चीज का सबसे ऊंचा और ऊपरी भाग। ४. मस्तक। सिर। ५. कूआँ। ६. घुँघची। ७. प्रधान या मुख्य व्यक्ति। ८. हाथ में पहनी जानेवाली एक प्रकार की चूडियाँ जो प्रायः हाथी दांत की बनती और विवाह के समय कन्या को पहनाई जाती है। ९. हाथ में पहनने का कंगन या कड़ा। १॰. दे० ‘चूड़ा करण’। पुं० १. दे० चुहड़ा। २. दे० चिड़वा।
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चूड़ा मणि  : पुं० [मध्य० स०] १. सिर पर पहनने का एक गहना। शीशफूल। बीज। २. वह जो अपने कुल, वर्ग आदि में सब से बढ़कर या श्रेष्ठ हो। ३. गुंजा। घुँघची।
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चूड़ा-करण  : पुं० [ष० त०] हिंदुओं के १६ संस्कारों में से एक,जिसमें बालक का सिर पहले-पहल मूँड़ा जाता है। मुंडन।
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चूड़ा-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०]=चूड़ाकरण।
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चूड़ांत  : वि० [सं० चूड़ा-अन्त, ब० स०] १. जो चरम सीमा या पराकाष्ठा तक पहुँचा हो। २. बहुत अधिक। अत्यन्त। पुं० [ष० त०] चूड़ा या शिखर का अन्तिम और ऊपरी भाग।
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चूड़ामणि  : वि० पुं० =चूड़ामणि।
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चूड़ाम्ल  : पुं० [चूड़ा-अम्ल, ब० स०] इमली।
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चूड़ार  : वि० [सं० चूड़ाऋ (गति) √+अण्] १.चूड़ा से युक्त। चूड़ावाला। २. (बालक) जिसके सिर पर चुंदी या चोटी हो। ३. (पशु या पक्षी) जिसके सिर पर कलगी हो।
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चूड़ाल  : वि० [सं० चूड़ा+लच्] चूड़ायुक्त। पुं० सिर।
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चूड़ाला  : स्त्री० [सं० चूड़ा+टाप्] १. सफेद घुँघची। २. नागरमोथा। ३. एक प्रकार की निर्विषी (वनस्पति)।
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चूड़िया  : पुं० [हिं० चूड़ी+इया (प्रत्यय)] एक प्रकार का धारीदार कपड़ा।
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चूड़ी  : स्त्री० [दे० प्रा० चूड़; बं० उ० चुरी; गु० पं० चूड़ी० सि० चूरी; ने० चूरि, मरा० चूडा] १. स्त्रियों का एक प्रसिद्ध वृत्ताकार गहना जो धातु लाख शीशे सींग आदि का बनता है और जो स्त्रियाँ हाथ में शोभा के लिए और प्रायः सौभाग्य-सूचक चिन्ह के रूप में पहनती हैं। मुहावरा–चूड़ियाँ ठंडी करना या बढ़ाना (क) बदलने के लिए चूडि़यां उतारना। (ख) विधवा होने पर चूड़िया तोड़ डालना। चूडिया पहनना स्त्रियों का सा आचरण या व्यवहार करना। (कायरता सूचक व्यंग्य) जैसे–तुम्हें तो चूड़ियाँ पहनकर घर में बैठना चाहिए था। (किसी पर या किसी के नाम की) चूडियाँ पहनना=स्त्री का किसी को अपना उपपति बना लेना और उसके वशवर्ती होकर रहना। (किसी स्त्री को) चूड़ियाँ पहनाना (क) विधवा स्त्री का विवाह करना। (ख) विधवा स्त्री को पत्नी बनाकर अपने घर में रखना। २. उक्त आकार-प्रकार की वे वृत्ताकार रेखाएँ जो किसी चीज में उसके विभाग नियत करने के लिए बनाई जाती है। जैसे–कल के किसी पुरजे या पेंच की चूड़ियाँ, मेहराब की चूड़ियाँ। ३. फोनोग्राफ नामक बाजे का वह उपकरण जो पहले नल के आकार का होता था और जिस पर उक्त प्रकार की रेखाएँ बनी होती थीं इसी के योग से उक्त बाजा बजता था, क्योंकि वैज्ञानिक क्रिया से इसी पर कही जानेवाली बात या सुनाई पड़नेवाला गीत अंकित होता था। ४. उक्त के आधार पर और उक्त प्रकार का काम देनेवाला तवे की तरह का वह उपकरण जो आजकल ग्रामोफोन नामक बाजे पर रखकर बजाया जाता है। ५. रेशम फेरनेवालों का एक उपकरण जो मोटे कड़े के आकार का होता है। छत में बँधा रहता है और इसके दोनों सिरों पर दो तकलियाँ होती हैं जिनमें से एक पर उलझा हुआ और दूसरी पर साफ किया हुआ तथा सुलझा हुआ रेशम रहता है।
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चूड़ीदार  : वि० [चूड़ी+फा० दार] जिसमें बहुत-सी चूड़ी के आकार की वृत्ताकार रेखाएँ या धारियाँ पड़ी हो या पड़ती हो। जैसे–चूड़ीदार पायजामा।
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चूड़ीदार पायजामा  : पुं० [हिं० चूड़ीदार+पायजामा] तंग और लंबी मोहरी का एक प्रकार का पायजामा जिसे पहनने पर टखने पर चूड़ी के आकार की वत्ताकार अनेक धारियाँ या रेखाएँ बन जाती हैं।
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चूड़ों  : पुं० १. दे० ‘चुहड़ा’। २. दे० ‘चूड़ा’।
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चूत  : पुं० [सं√चूष् (चूसना)+क, पृषो० षलोप] आम का पेड़। स्त्री० [सं० च्युति=भग] स्त्रियों की भग। योनि।
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चूतक  : पुं० [सं० चूत+कन्] आम का पेड़।
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चूतड़  : पुं० [हिं० चूत+तल] मनुष्य के शरीर का वह मांसल भाग जो अर्द्ध गोलाकार रूप में जाँघ कमर के नीचे पीछे की ओर होता है। मुहावरा–चूतड़ दिखाना=कठिन समय पर भाग खड़े होना। पीठ दिखाना। (अपना) चूतड़ पीटना या बजाना ओछेपन से बहुत प्रसन्नता प्रदर्शित करना।
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चूतर  : पुं०=चूतड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चूतिया  : वि० [हिं० चूत+इया (प्रत्यय)] १. बिलकुल नासमझ या मूर्ख। २. चूत-संबंधी। जैसे–चूतिया चक्कर। क्रि० प्र०–फँसाना।–बनाना।
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चूतिया पंथी  : स्त्री० [हिं० चूतिया+पंथी] मूर्खता। बेवकूफी।
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चूतिया शहीद  : पुं० [हिं०+फा] बहुत बड़ा मूर्ख।
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चूतिया-चक्कर  : वि० चूतिया। पुं० बिलकुल व्यर्थ की झंझट, झगड़ा या प्रपंच।
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चूँदरी  : स्त्री०=चुनरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चूँदी  : स्त्री०=चुंदी।
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चून  : पुं० [सं० चूर्ण] १. गेंहूँ जौ आदि का आटा। २. चूरा। चूर्ण। जैसे–लोह चून–लोहे का चूरा। पुं० [?] पश्चिमी भारत में होनेवाला एक प्रकार का बड़ा थूहर। पुं०=चूना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चूनर  : स्त्री०=चूनरी।
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चूनरी  : स्त्री० [हिं० चुनना] वह रंगीन बुंदकियोंवला महीन-पतला कपड़ा जिसे स्त्रियाँ चादर के रूप में कंधों पर रखती हैं और जिससे सिर तथा सारा शरीर ढकती हैं।
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चूना  : पुं० [सं० चूर्ण, पा० प्रा० चुण्ण; दे० प्रा० चणुओ; उ० बँ० चून, चुना, सि० चुनु, गु० चुनो, मरा० चुना] कुछ विशिष्ट प्रकार के कंकड़-पत्थरों, शंख,सीप आदि को फूँककर बनाया जानेवाला एक प्रसिद्ध तीक्ष्ण और दाहक क्षार जिसका उपयोग दीवारों पर सफेदी करने, पान-सुरती के साथ खाने और दवाओं आदि में डालने के लिए होता है। मुहावरा–चूना छूना या फेरना=चूने को पानी में घोलकर दीवारों पर उन्हें सफेद करने के लिए लगाना। (किसी को) चूना लगाना=दाँव-पेच, छल-कपट आदि के व्यवहार में किसी को बुरी तरह से परास्त करना। नीचा दिखाना। अ० [सं० च्यवन] १. किसी आधान या पात्र में रखे हुए तरल पदार्थ का किसी छंद या संधि में से होकर बाहर निकलना। जैसे–घड़ा या बाल्टी चूना। २. भीगें हुए वस्त्र आदि में से जल आदि का निकलना या बह चलना। ३. घाव में से रक्त निकल कर टपकना। ४. किसी वस्तु का ऊपरी आधार छोड़कर नीचे आ गिरना। जैसे–पेड़ में से फल चूना। ५. किसी चीज में ऐसा छेद या दराज हो जाना जिससे कोई द्रव्य पदार्थ बूँद-बूँद करके नीचे गिरने लगे। जैसे–छत चूना, लोटा चूना। ६. स्त्री का गर्भ-पात या गर्भ-स्राव होना। वि०[स्त्री० चूनी] जिसमें किसी चीज के चूने योग्य छेद या दराज हो। जैसे–चूना घड़ा, छूनी छत। चूनादानी
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चूनी  : स्त्री०[सं० चूर्णिका] १. गेहूँ, चावल आदि का छोटा कण। कनी। पद-चूनी-भूसी=मोटे अन्न का पीसा हुआ चूर्ण। २. चुन्नी। ३. बिंदी पर लगाये जानेवाले सितारे। चमकी। उदाहरण–तिलक संवारि जो चूनी रची।–जायसी।
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चूनेदानी  : स्त्री० [हिं० चूना+फा० दान] पान या सुपारी के साथ खाने के लिए चूना रखने की छोटी डिबिया। चुनौटी।
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चूमना  : स० [सं० चुब्, पा० चुंब, प्रा० चुम्ब, बं० चुचा, उ० चुबिंबा, गु० चुमवूँ, सि० चुमनु] १. आदर, प्रेम या स्नेह पूर्वक किसी प्रिय या स्नेह-भाजन व्यक्ति (या वस्तु) के किसी अंग को होंठों से स्पर्श कर कुछ चूसने की सी क्रिया करना। जैसे–बच्चे या स्त्री का मुँह चूमना। मुहावरा–(कोई चीज) चूमकर छोड़ देना अपने वश या सामर्थ्य के बाहर का काम या बात देखकर अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के विचार से उस काम या बात के प्रति अपना आदर-भाव प्रकट करते हुए उससे अलग या दूर होना। जैसे–जब भारी पत्थर दिखाई पड़े तो उसे (न उठा सकने के कारण) चूमकर छोड़ देना चाहिए। (कहा०) (किसी को) चूमना चाटना (बच्चे आदि को) बार-बार चूमना और दुलार करना। २. हिंदुओं में विवाह से पहले वर के भिन्न-भिन्न अंगों से हरी दूब का स्पर्श कराके उस दूब पर होंठ रखते हुए उक्त प्रकार की क्रिया करना।
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चूमा  : पुं० [सं० चुम्बन, हिं० चूमना] चूमने की क्रिया। चुंबन। चुम्मा। पद-चूमा-चाटी (देखें)।
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चूमा-चाटी  : पुं० [हिं० चूमना+चाटना] प्रेम या स्नेह प्रकट करने के लिए बार-बार चूमने की क्रिया या भाव। (बाजारू)
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चूर  : वि० [सं० चूर्ण] १. बहुत अधिक और बार-बार काटे,कूटे या तोड़े-फोड़े जाने के कारण बहुत ही छोटे-छोटे खंडों या टुकड़ों में बँटा हुआ। जैसे–काँच की प्याली जमीन पर गिरते ही चूर हो गई। २. जो थकावट, परिश्रम आदि के कारण अत्यन्त शिथिल हो गया हो। जैसे–दिन भर काम करते-करते सन्ध्या को हम थक कर चूर हो जाते हैं। ३. जो किसी काम या बात में इतना अधिक तन्मय या लीन हो जाता हो कि उसे किसी बात या काम का ध्यान ही न रह गया हो। जैसे–बातें करने में चूर। ४. आवेश,उमंग आदि के कारण किसी भाव या विषय में बेसुध। जैसे–(क) घमंड में चूर। (ख) नशे में चूर।
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चूरट  : पुं०=चुरुट।
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चूरण  : पुं० =चूरन। वि० =चूर्ण।
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चूरन  : पुं० [सं० चूर्ण] खूब महीन पीसी हुई पाचक ओषधियों की बुकनी। चूर्ण।
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चूरनहार  : पुं० [सं० चूर्णहार] चिकने, मोटे तथा लंबे पत्तोंवाली एक जंगली बेल, जिसके पत्ते दवा के काम आते हैं।
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चूरना  : स० [सं० चूर्ण] १. चूर करना। टुकड़े-टुकडे करना। २. तोड़-फोड़ कर नष्ट करना। स० चुराना। उदाहरण–तुम्ह अँब राँड लीन्ह का चूरी।– जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चूरमा  : पुं० [सं० चूर्ण] रोटी को घी में गूँध तथा भूनकर और चीनी मिलाकर बनाया जानेवाला व्यंजन।
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चूरमूर  : पुं० [देश०] जौ या गेहूँ की वे खूँटियाँ जो फसल कट जाने पर खेत में बची रह जाती हैं।
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चूरा  : पुं०[सं०चूर्ण] १.किसी चीज के टूटे फूटे या घिसे-पिटे बहुत छोटे-छोटे टुकड़े। जैसे–शीशे का चूरा। २. काठ,धातु आदि को चीरने-रेतने आदि पर उसमें से निकले हुए छोटे-छोटे कण। बुरादा। जैसे–लकड़ी या लोहे का चूरा। वि.-चूर (देखें)। पुं०[सं० चूड़] १. पैर या हाथ में पहनने का कड़ा। २. दे० चूड़ी। पुं० चिड़वा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चूरी  : स्त्री० [सं० चूर्ण] १. बहुत महीन चूरा या चूर्ण। बुकनी। २. पूरी, रोटी आदि को चूर-चूर करके घी और चीनी मिलाया हुआ एक प्रकार का खाद्य पदार्थ। चरमा। स्त्री० चूड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चूरू  : पुं० [सं० चूर] गाँजे के मादा पेड़ों से निकाली हुई एक प्रकार की चरस जो कुछ घटिया समझी जाती है।
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चूर्ण  : पुं० [सं० चूर्ण (चूर्ण करना)+अप्] १. किसी चीज के वे बहुत छोटे-छोटे कण जो उसे बहुत अधिक कूटने, पीसने रेतने आदि से बनते हैं। चूरा। बुकनी। सफूफ। २. वैद्यक में, औषधों आदि का वह पिसा हुआ रूप जो खाने, छिड़कने आदि के काम में आता है। बुकनी। ३. विशिष्ट रूप से उक्त प्रकार से तैयार की हुई कोई ऐसी दवा जो पाचक हो। जैसे–हिंगाष्टक चूर्ण। ४. अबीर। ५. गर्दा। धूल। ६. चूना। ७. कौड़ी। वि० १. तोड़-फोड या काट-चीर कर बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में लाया हुआ। चूर किया हुआ। २. सब प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट या शक्तिहीन किया हुआ। जैसे–किसी का गर्व या शक्ति चूर्ण करना।
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चूर्ण-कार  : वि० [सं० चूर्ण√कृ (करना)+अण्, उप० स०] चूर्ण करनेवाला। पं० १. आटा पीसने और बेचनेवाला व्यापारी। २. पराशर के अनुसार एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति पुंड्रक पुरूष और नट-स्त्री से कही गई है।
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चूर्ण-कुंतल  : पुं० [कर्म० स०] गुँथे हुए बाल। लट। जुल्फ।
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चूर्ण-खंड  : पुं० [सं० च० त०] कंकड़।
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चूर्ण-पारद  : पुं० [एक० त० स०] शिंगरफ।
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चूर्ण-योग  : पुं० [ष० त० स०] पीसकर एक में मिलाए हुए बहुत से सुंगधित पदार्थ।
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चूर्ण-हार  : पुं० [ष० त०] चूरनहार नाम की बेल।
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चूर्णक  : पुं० [सं० चूर्ण+कन्] १. सत्तू। सतुआ। २. एक प्रकार का शालि धान्य। ३. एक प्रकार का वृक्ष। ४. साहित्य में ऐसी गद्य रचना जिसमें छोटे-छोटे तथा मधुर शब्द और पद होते हैं।
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चूर्णन  : पुं० [सं०√चूर्ण+ल्युट-अन] चूर्ण करना। किसी सूखी वस्तु को कूट अथवा पीसकर उसे चूर्ण का रूप देना।
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चूर्णशाकांक  : पुं० [सं० चूर्ण-शाक, उपमि० स०√अंक+अण्, उप० स०] गौर सुवर्ण नामक साग।
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चूर्णा  : स्त्री०[सं० चूर्ण+टाप्] आर्या छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में १८ गुरु और २१ लघु होते हैं।
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चूर्णि  : स्त्री० [सं०√चूर्ण+इन्] १. पतंजलि मुनि का रचा हुआ भाष्य। २. कौड़ी। ३. सौ कौड़ियों का समूह।
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चूर्णि-कृत्  : पुं० [सं० चूर्ण√कृ(करना)+क्विप्, उप० स०] १. भाष्यकार। २. महाभाष्यकार पतंजलि मुनि की एक उपाधि।
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चूर्णिका  : स्त्री० [सं० चूर्ण+ठन्-इक+टाप्] १. सत्तू। सतुआ। २. किसी बहुत कठिन ग्रंथ की किसी टीका या भाष्य जिससे उसके सब प्रसंग या स्थल स्पष्ट हो जाएँ। ३. प्राचीन साहित्य में, गद्य की एक शैली।
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चूर्णित  : भू० कृ० [सं०√चूर्ण+क्त] १. जिसे कूट अथवा पीसकर चूर्ण का रूप दिया गया हो। २. अच्छी तरह तोड़ा-फोड़ा या नष्ट-भ्रष्ट किया हुआ।
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चूर्णी  : स्त्री० [सं० चूर्णि+ङीष्] १. कार्षापण नामक पुराना सिक्का। २. कपर्द्दिका। कौड़ी। ३. एक प्राचीन नदी का नाम। ४. दे० ‘चूर्णिका’।
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चूर्मा  : पुं०=चूरमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चूल  : पुं० [सं०+चुल् (ऊँचा होना)+क, पृषो० दीर्घ चर+क, रल पृषो०] १. चोटी। शिखा। २. सिर के बाल। ३. पशुओं आदि के शरीर पर के बाल। पुं० [?] एक प्रकार का थूहड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चून।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [देश०] १. किसी आधार पर इधर-उधर घूमनेवाली चीज के ऊपर और नीचे के नुकीले पतले सिरे जो किसी छंद या गड्ढे में जमाये या फँसाये जाते हैं और जिनके सहारे वह चीज इधर-उधर घूमती है। (पिवॉट) जैसे–किवाड़े के पल्ले की चूल। २. वह मुख्य आधार जिसके सहारे कोई काम चलता या कोई चीज ठहरी रहती हो। मुहावरा–(किसी की) चूलें ढीली करना बहुत अधिक कष्ट पहुँचाकर या परिश्रम करके उसे बहुत कुछ त्रस्त, पराभूत या शिथिल करना।
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चूलक  : पुं० [सं० चूल+कन्] १. हाथी की कनपटी। २. हाथी के कान का मैल। ३. खंभे का ऊपरी भाग। चूड़ा। ४. किसी घटना या बात की परोक्ष रूप में मिलनेवाली सूचना।
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चूलदान  : पुं० [सं० चुल्लि-आधान] १. पाकशाला। रसोईघर। २. बैठने या चीजें आदि रखने के लिए सीढ़ीनुमा बना हुआ स्थान। (गैलरी)।
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चूला  : स्त्री० [सं० चूग़=उ=ल] १. चोटी। शिखा। २. बालाखाने का कमरा। ३. चंद्रशाला।
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चूलिक  : पुं० [सं०√चुल् (उन्नत होना)+ण्वुल्-अक, नि० इत्व] मैदे की पतली पूरी। लूची। चुलुई।
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चूलिका  : स्त्री० [सं० चूलक+टाप्, इत्व.] १. चूलक। २. नाटक में वह स्थिति जिसमें किसी घटना की सूचना नेपथ्य से पात्रों द्वारा दी जाती है।
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चूलिकोपनिषद्  : स्त्री० [सं० चूलिका-उपनिषद्, मध्य०सस०] अथर्ववेदीय एक उपनिषद् का नाम।
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चूल्हा  : पुं० [सं० चुल्लि बं० उ० चुल्ली० चुला; बि० चूल्ह, पं० चुल्ह, गु० चूलो, ने० चुलि, सिं० चल्ही; मरा० चूल] [स्त्री० अल्पा० चूल्ही] मिट्टी लोहे आदि का वह प्रसिद्ध उपकरण जिसमें चीजें पकाने या गरम करने के लिए कोयले, लकड़ियाँ आदि जलाई जाती हैं। मुहावरा–चूल्हा जलना=भोजन या रसोई बनना। जैसे–आज दो दिन बाद उनके घर चूल्हा जला है। चूल्हा झोंकना या फूँकना=भोजन बनाने के लिए चूल्हे में आग सुलगाना। चूल्हा न्यौतना=किसी के घर के सब लोगों को भोजन का निमंत्रण देना। चूल्हे में जाना=(क) नष्ट-भ्रष्ट होना। (ख) किसी के विनाश की ओर से उपेक्षा दिखाने के लिए प्रयुक्त होनेवाला पद। जैसे–हमारी तरफ से वह चूल्हे में जाय। चूल्हें में झोंकना या डालना=बहुत ही उपेक्ष्य, तुच्छ या नगण्य समझना। चूल्हे में पड़ना=दे० ‘चूल्हें मे जाना’। चूल्हे से निकलकर भाड़ में आना या पड़ना=छोटी विपत्ति से निकल कर बड़ी विपत्ति में फँसना।
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चूषण  : पुं० [सं०+चूष् (चूसना)+ल्युट्-अन] [वि० चूषणीय, चूष्य] चूसने की क्रिया या भाव।
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चूषणीय  : वि० [सं०+चूष्√अनीयर] जो चूसा जा सके। चूसे जाने के योग्य।
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चूषा  : स्त्री० [सं०√चूष्+क, टाप्] हाथी की कमर में बाँधा जानेवाला चमड़े का पट्टा।
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चूष्य  : वि० [सं०√चूष्+ण्यत्] १. जो चूसा जा सकता हो। २. जो चूसा जाने को हो।
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चूसना  : स० [सं० चूषण] १. किसी वस्तु विशेषतः किसी फल को मुँह और होठों से लगाकर उसका रस अन्दर खींचना। जैसे–आम चूसना, अँगूठा चूसना। २. किसी वस्तु को मुँह में डालकर तथा उसे दांतों से दबाकर उसमें से निकलनेवाला रस पीना। जैसे–गडेरी चूसना। ३. किसी वस्तु को मुँह में रखकर तथा जीभ से चाटते हुए उसका रस लेना। जैसे–दवा की गोली मुँह में रखकर चूसना। ४. बच्चे का माता के स्तन का दूध पीना। ५. किसी आर्द्र अथवा गीली वस्तु में की आर्द्रता सोख लेना जैसे–सोखते ने सारी स्याही सोख ली है। ६. बलपूर्वक अथवा अनुचित रूप से, किसी का सत्व या सर्वस्व छीन, निकाल या हड़प लेना। जैसे–इसे खुशामदियों ने चूस डाला है। मुहावरा–(किसी को) चूस डालना या लेना=किसी का धन खा-पका या हड़पकर उसे कंगाल या निर्धन कर देना।
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चूहड़  : पुं०=चूहड़ा।
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चूहड़ा  : पुं० [?] [स्त्री० चुहड़ी] १. भंगी या मेहतर। चांडाल। २. बहुत गंदा तथा तुच्छ व्यक्ति।
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चूहर  : पुं०=चूहड़ा।
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चूहरी  : स्त्री०=चुड़िहारिन।
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चूहा  : पुं० [फा० चुवा, बँ० चुया; उ० चुआ; पं० चुहा, सि० चूहो, गु० चुवो; ने० चुहा; मरा० चुवा] [स्त्री० अल्पा० चूहिया, चुही] लंबी पूँछ तथा चार पैरोंवाला एक प्रसिद्ध छोटा घरेलू जन्तु जो अनाज, कपड़े आदि कुतरकर खा जाता है।
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चूहा-दंती  : स्त्री० [हिं० चूहा+दाँत] चाँदी या सोने की बनी हुई एक प्रकार की पहुँची जिसे स्त्रियाँ पहनती हैं। इसके दाँत चूहे के दाँत जैसे लंबे और नुकीली होते हैं जो रेशम या सूत में पिरोये रहते हैं।
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चूहेदानी  : स्त्री० [हिं०] चूहे पकड़ने या फँसाने का एक प्रकार का पिजड़ा।
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चें  : स्त्री० [अनु०] चिड़ियों का शब्द। पद-चें चें=(क) व्यर्थ की बकवाद। (ख) रोने, चिल्लाने आदि का शब्द। मुहावरा–चें बोलना=चीं बोलना। (दे०)।
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चेउरी  : स्त्री० [हिं० जेंवड़ी=रस्सी] कुम्हार का वह डोरा जिससे वह चाक पर तैयार किये हुए पात्र आदि को काटकर उतारता है।
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चेक  : पुं० [अं०] १. आड़ी और बेड़ी पड़ी हुई धारियाँ। चारखाना। २. दे० ‘धनादेश’।
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चेकित  : पुं० [सं० कित् (ज्ञान)+यङ्-लुक्+अच्] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. बहुत बड़ा ज्ञानी।
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चेकितान  : पुं० [सं०√कित्+यङ्-लुक्+चानश्] १. महादेव। शिव। २. बहुत बड़ा ज्ञानी ३. केकय देश का एक राजकुमार जो महाभारत में पांडवों की ओर से लड़ा था।
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चेंगड़ा  : पुं० [अनु०] [स्त्री० चिंगड़ी] छोटी बच्चा। शिशु।
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चेंगा  : पुं० दे० ‘‘चेंगड़ा’’। स्त्री० दे० ‘चेनगा’।
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चेंगी  : स्त्री० [देश०] गाड़ियों में चमड़े की वह चकती अथवा सन का घेरा जिसे पैजनी और पहिए के बीच में इसलिए पहना देते हैं जिससे दोनों एक दूसरे से रगड़ न खाएँ।
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चेंघी  : स्त्री०=चेंगी।
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चेंच  : पुं० [सं० चंचु] एक प्रकार का बरसाती साग।
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चेचक  : स्त्री० [फा०] शीतला या माता नामक रोग।
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चेचकरू  : वि० [फा०] (व्यक्ति) जिसके मुँह पर चेचक के दाग हों।
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चेंचर  : वि० [चें चें से अनु०] चें चें करनेवाला। बकवादी।
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चेंचुआ  : पुं० [चें चें से अनु०] चातक का बच्चा।
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चेजा  : पुं० [हिं० छेद ?] सुराख। छेद।
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चेजारा  : पुं० [?] दीवारों की चुनाई का काम करनेवाला व्यक्ति। राज।
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चेट  : पुं० [सं०√चिट् (प्रेरणा)+अच्] [स्त्री० चेटी, चेटिका] १. दूसरों की छोटी-मोटी सेवाएँ करनेवाला। टहलुआ। २. पति। स्वामी। ३. दुराचारिणी स्त्रियों को पुरुषों से मिलानेवाला दलाल। ४. भाँड़। ५. एक प्रकार की मछली। वि० दे० ‘कनौड़ा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेटक  : पुं० [सं०√चिट्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० चेटकनी, चेटकी] १. दास या सेवक विशेषतः वह दास या सेवक जो किसी विशिष्ट काम में लगाया गया हो। २. दूत। ३. इंद्रजाल। जादूगरी। ४. हास्यरस का खेल या तमाशा। ५. चस्का। ६. फुरती। जल्दी। ७. चटकमटक।
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चेटकनी  : स्त्री० [सं० चेटक का स्त्री० रूप] गोली। दासी।
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चेटका  : स्त्री० [सं० चिता] १. शव जलाने की चिता। २. मरघट। श्मशान।
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चेटकी(किन्)  : पुं० [सं० चेटक+इनि] १. चेटक या जादू के खेल दिखानेवाला। जादूगर। इंद्रजाली। २. तरह-तरह के कौतुक करनेवाला। कौतुकी। स्त्री० ‘चेटक’ का स्त्री रूप। दासी।
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चेटवा  : स्त्री० दे० ‘तुरमुती’। पुं०=चेंटुआ।
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चेटिका  : स्त्री० [सं० चेटक+टाप्, इत्व] सेविका। दासी।
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चेटिकी  : स्त्री० [सं० चेटी+कन्, ङीष्, ह्रस्व] चेटिका।
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चेटिया  : पुं० [सं० चेटक] १. चेला। शिष्य। उदाहरण–सब चेटियन ऐसी मन आई। रहे सबै हरि पद चितलाई।–सूर। २. दास। नौकर।
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चेंटियारी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा जल-पक्षी जिसके पैर और चोंच लंबी होती है और जिसका शिकार किया जाता है।
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चेंटी  : स्त्री०=च्यूँटी।
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चेटी  : स्त्री० [सं० चेट+ङीष्] दासी। नौकरानी।
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चेंटुआ  : पुं० [हिं० चिड़िया] चिड़िया का बच्चा।
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चेटुवा  : पुं०=चेंटुआ।
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चेंड़  : पुं० [सं०√चिट् (प्रेरणा करना+अच्] चेट। चेटक।
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चेड़क  : पुं०=चेटक।
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चेंड़ा  : पुं०=चेंगड़ा।
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चेड़िका  : स्त्री०=चेटिका।
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चेड़ी  : स्त्री०=चेटी।
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चेत(स्)  : पुं० [सं० चित्+असुन] १. चित्त की मुख्य वृत्ति, चेतना। होश। २. ज्ञान। बोध। ३. सावधानी। होशियारी। ४. याद। स्मृति। ५. चित्त। मन।
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चेतक  : वि० [सं०√चित्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. सचेत करनेवाला। २. चेतन। पुं० १. महाराणा प्रताप का प्रसिद्ध और परम प्रिय घोड़ा जो हल्दी घाटी की लड़ाई में मारा गया था। २. दे० सचेतक। पुं०=चेटक।
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चेतकी  : स्त्री० [सं० चेतक+ङीष्] १. एक विशिष्ष्ट प्रकार की हड़ या हर्रे जिस पर तीन धारियाँ होती हैं। २. हड़। हर्रे। ३. चमेली का पौधा। ४. संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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चेतत  : स्त्री० दे० ‘चेतना’।
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चेतन  : पुं० [सं०√चित् (जानना)+ल्यु-अन] १. आत्मा। २. जीव। प्राणी। ३. आदमी। मनुष्य। ४. परमात्मा। वि० जिसमें चेतना या ज्ञान हो। चेतनायुक्त। जड़ का विपर्याय। जैसे–जीव, जन्तु आदि।
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चेतनकी  : स्त्री० [सं० चेतन√कृ (करना)+ड-ङीष्] हरीतकी। हड़।
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चेतनता  : स्त्री० [सं० चेतन+तल्–टाप्] १.चेतन होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव। चैतन्य। संज्ञानता। २. सजीवता।
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चेतनत्व  : पुं० [सं० चेतन+त्व]=चेतनता।
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चेतना  : स्त्री० [सं० चित्+युच्-अन, टाप्] १. मन की वह वृत्ति या शक्ति जिससे जीव या प्राणी को आन्तरिक (अनुभूतियों, भावों, विचारों आदि) और ब्राह्य (घटनाओं) तत्त्वों या बातों का अनुभव या भान होता है। होश-हवाश। २. बुद्धि। समझ। ३. मनोवृत्ति, विशेषतः ज्ञानमूलक मनोवृत्ति। ४. याद। स्मृति। अ० [हिं० चेत] १. संज्ञा से युक्त होना। होश में आना। उदाहरण–नैन पसारि चेत धन चेती।–जायसी। २. ऐसी स्थिति में होना कि बुरे परिणामों या बातों से बचकर अच्छी बातों की ओर प्रवृत्त हो सके। ३. सावधान या होशियार होना। ४. सोच-समझकर किसी बात की ओर ध्यान देना। स० विचारना। समझना। जैसे–किसी का बुरा या भला चेतना।
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चेतनीय  : वि० [सं०√चित्+अनीय] जो चेतन करने या जानने योग्य हो। चेतन का अधिकारी या पात्र।
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चेतनीया  : स्त्री० [सं० चेतना+छईय,टाप्] ऋद्धि नाम की ओषधि।
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चेतन्य  : पुं०=चैतन्य।
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चेतवनि  : स्त्री० १. =चेतावनी। २.=चितवन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चेतव्य  : वि० [सं०√चि(चयन करना) तव्यत्] जो चयन या संग्रह किये जाने के योग्य हो। संग्राह्म।
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चेता  : वि० [सं० चेतस्] (यौ० शब्दों के अंत में) जिसे चेतना हो। चित्तवाला। जैसे–दृढ़ चेता। पुं० १. चेतना। संज्ञा। होश। २. याद। स्मृति। क्रि० वि०–भूलना।–रहना।
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चेताना  : स० [हिं० चेनता का स०] १. किसी का किसी विस्मृत बात की ओर ध्यान दिलाना। २. उपदेश देना। ३. चेतावनी देना। सावधान करना। ४. (आग) जलाना या सुलगाना। (पू०)
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चेतावनी  : स्त्री० [हिं० चेत+आवनी (प्रत्यय)] १. किसी को चेतावना या सावधान करने के लिए कही जानेवाली बात। २. भविष्य में पुनः आज्ञा, आदेश, कर्त्तव्य आदि का पालन न करने अथवा ठीक प्रकार से पालन न करने पर किसी के विरुद्ध की जानेवाली कारवाई की पहले से दी जानेवाली आदेशात्मक और आधिकारिक सूचना (वार्निग) ३. उपदेश। शिक्षा।
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चेतिका  : स्त्री० [सं० चिति] चिता।
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चेतुरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेंतुला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पकवान जिसमें आटे की पूरी की तरह पतला बेलकर गोंठते और चौखूँटा बनाकर कुछ दबा देते हैं फिर घी में तल लेते हैं।
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चेतोजन्मा(न्मन्)  : पुं० [सं० चेतस्-जन्मन्, ब० स०] कामदेव।
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चेतोभव  : पुं० [सं० चेतस्-भव, ब० स०] कामदेव।
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चेतोभू  : पुं० [सं० चेतस्+भू (होना)+क्विप्] कामदेव।
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चेतोविकार  : पुं०[सं० चेतस्-विकार, ष० त०] चित्त संबंधी विकार
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चेतोहर  : वि० [सं० चेतस्√ह्र(हरण करना)+अच्] चेतना हरने या नष्ट करनेवाला।
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चेतौनी  : स्त्री०=चेतावनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेत्  : अव्य० [सं० चित्(जानना)+विच्-लुक्] १. ऐसा हुआ तो। ऐसी अवस्था या परिस्थिति में। अगर। २. कदाचित्।
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चेत्य  : वि० [सं०√चित् (जानना)+ण्यत्] १. जो चेतना का विषय हो। २. जो जाना जा सके। ३. स्तुत्य।
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चेदि  : पुं० [सं०] १. आधुनिक चँदेरी के आस-पास का एक प्राचीन जनपद। शिशुपाल यहीं का राजा था। इसे त्रैपुर और चेद्य भी कहते थे। २. उक्त जनपद का राजा। ३. उक्त जनपद का निवासी। ४. कौशिक मुनि के पुत्र का नाम।
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चेदि-राज  : पुं० [ष० त०] १. चेदि देश का राजा। २. शिशुपाल जो चेदि देश का राजा था। ३. एक वसु जिन्हें इन्द्र से एक विमान मिला था। ये जमीन पर नहीं चलते थे और उसी विमान पर घूमा करते थे, इसलिए इन्हें ‘उपरिचर’ भी कहते हैं।
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चेदिक  : पुं०=चेदि (दे०)
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चेंधी  : स्त्री०=चेंगी।
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चेन  : स्त्री० [अं०] एक में गुँथी हुई छोटी-छोटी कड़ियों की लचीली माला या श्रंखला। जंजीर। सिकड़ी। जैसे–गले में पहनने की चेन।
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चेनआ  : पुं०=चेना।
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चेनगा  : स्त्री० =चेगा (मछली)।
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चेनवा(वा)  : पुं०=चेना। (साग)।
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चेना  : पुं० [सं० चणक] १. साँवे की जाति का एक मोटा अन्न जिसके दाने छोट-छोटे और सुन्दर होते हैं। २. चेंच नाम का साग। पुं०=चीनी कपूर।
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चेप  : पुं०[हिं० चिप-चिपा का भाव०] १. गाढा, चिपचिपा और लसदार रस। लसीला पदार्थ। जैसे–किसी फल या वृक्ष का चेप, चेचक नामक रोग का चेप। २. चिड़ियों को फँसाने के लिए फैलाया या बिछाया जानेवाला लासा। पुं० दे० ‘चाव’ (ओषधि)।
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चेपदार  : वि० [हिं० चेप+फा० दार] (पदार्थ) जो चिपचिपा या लसदार हो। जिसमें चेप हो। लसीला।
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चेपना  : स० [हिं० चेपना] १. किसी वस्तु पर चेप लगाना। २. चेप लगाकर चिपकाना या सटाना।
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चेपांग  : पुं० [देश०] नेपाल देश की एक जाति।
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चेंपु  : पुं०=चेप। उदाहरण–दृग खंजन गहि लै गयौ चितवन चेंपु लगाय।–बिहारी।
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चेंपें  : स्त्री० [अनु०] १. चिल्लाहट। व्यर्थ की बकवाद। २. डरते या सहमते हुए कही जानेवाली बात।
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चेंफ  : पुं०[देश०] ऊख का छिलका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेबुला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जिसकी छाल से चमड़ा सिझाया और रंग बनाया जाता है।
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चेय  : वि० [सं० चि+यत्] चयन किये जाने के योग्य। जिसका चयन किया जा सके या होने को हो। स्त्री० वह अग्नि जो धार्मिक-विधि-पूर्वक चयन की या लाई गई हो।
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चेंयरी  : स्त्री० [?] मस्तक का ऊपरी भाग। उदाहरण–अक्कल चेंथरी में चढ़ गई।–वृंदावनलाल वर्मा।
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चेर  : पुं० =चेरा। (चेला)।
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चेरना  : पुं० [हिं० चीरना ?] नक्काशों की एक प्रकार की छेनी जिससे वे काठ, धातु, पत्थर आदि पर सीधी रेखा खींचते हैं।
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चेरा  : पुं० [सं० चेटक, प्रा० चेड़ा] [स्त्री० चेरी, भाव० चेराई] १. चेला। शिष्य। २. नौकर। सेवक। ३. गुलाम। दास। पुं० [?] एक प्रकार का गलीचा जो मोटे ऊन का बुना होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेराई  : स्त्री० [हिं० चेरा+ई (प्रत्य)] चेरा (अर्थात् चेला अथवा दास) होने की अवस्था या भाव।
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चेरायता  : पुं०=चिरायता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेरि  : स्त्री०=चेरी।
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चेरी  : स्त्री० [सं० चेटी] हिं० चेरा (चेला, दास या सेवक) का स्त्री।
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चेरु  : वि० [सं० चि (चयन)+रु बा०] १. जिसे संग्रह करने का अभ्यास हो। २. संग्रह करनेवाला।
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चेरुआ  : पुं० [देश०] एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो सत्तू सानकर और पानी में उबालकर बनाया जाता है।
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चेरुई  : स्त्री० [देश०] घड़े के आकार का एक प्रकार का मिट्टी का बड़ा बरतन।
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चेरू  : स्त्री० [?] १. एक प्रकार की जंगली जाति जो मिरजापुर जिले तथा दक्षिण भारत में पाई जाती है। २. उत्तरी भारत के पर्वतों में रहनेवाला एक प्रकार का हिरन।
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चेल  : पुं० [सं० चिल् (पहनना)+घञ्] कपड़ा। वस्त्र। वि० (समासांत में) अधम।
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चेल-गंगा  : स्त्री० [उपमि० स०] गोकर्ण (आधुनिक मालाबार) प्रदेश की एक नदी।
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चेल-प्रक्षालक  : वि० [ष० त०] कपड़े धोनेवाला। पुं० धोबी।
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चेलक  : पुं० [सं०] वैदिक काल के एक मुनि।
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चेलकाई  : स्त्री० =चेलकाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेलवा  : स्त्री०=चेल्हा। (मछली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेलहाई  : स्त्री० [हिं० चेला+हाई (प्रत्य)] १. चेलों का समूह। शिष्य वर्ग। २. धार्मिक गुरुओं का चारों ओर घूम-घूमकर अपने चेले बनाने अथवा चेलों से भेंट पूजा आदि लेने की प्रणाली या प्रथा।
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चेला  : पुं० [सं० चेट, दे० प्रा० चेल्ल, चिल्ल] [स्त्री० चेलिन, चेली] १. वह जिसने किसी गुरु से शिक्षा पाई हो। २. वह जो धार्मिक दृष्टि से किसी से उपदेश या गुरु मंत्र लेकर उसका शिष्य बना हो। ३.वह जो किसी को आदर्श या पूज्य मानकर उसके आचरणों, सिद्धांतों आदि का अनुकरण करता हो। शिष्य। पद-चेले-चाटीअनुयायियों चेलों आदि का वर्ग या समूह। पुं० [देश] एक प्रकार का साँप जो बंगाल में अधिकता से पाया जाता है। स्त्री०=चेल्हा (मछली)।
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चेलान  : पुं० [सं०] तरबूज की लता। पुं० [हिं० चेला] चेलों का वर्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेलाल  : पुं०=चेलान। (तरबूज की लता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चेलाशक  : पुं० [चेल–आशक, ष० त०]=चैलाशक।
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चेलिका  : स्त्री० [सं० चेल+कन्-टाप्, इत्व] १. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। चिउली। २. चोली।
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चेलिकाई  : स्त्री०=चेलहाई।
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चेलिन, चेली  : स्त्री० हिं० चेला का स्त्री० रूप।
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चेलुक  : पुं० [सं०√चेल(चलना)+उक] बौद्ध भिक्षुओं का एक वर्ग।
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चेल्हवा  : स्त्री० चेल्हा।
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चेल्हा  : स्त्री० [सं० चिल=मछली] एक प्रकार की छोटी मछली।
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चेवारी  : पुं० [देश०] दक्षिण भारत का एक प्रकार का बाँस जिसकी खमाचियों से चटाइयाँ और टोकरियाँ बनाई जाती हैं।
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चेवी  : स्त्री० [सं० चेव+ङीप्] एक प्रकार की रागिनी (संगीत)
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चेषटा  : स्त्री० दे० ‘चेष्टा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चेष्टक  : वि० [सं०√चेष्ट (चेष्टा करना)+ण्वुल्-अक] चेष्टा करनेवाला। पुं० काम-शास्त्र में एक प्रकार का आसन या रति-बंध।
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चेष्टन  : पुं० [सं०√चेष्ट (इच्छा करना) +ल्युट्–अन] चेष्ठा करने की क्रिया यी भाव।
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चेष्टा  : स्त्री० [सं० चेष्ट+अङ्-टाप्] १. इधर-उधर हाथ पैर हिलाना। हिलना-डोलना। २. मन में कोई भाव या विचार उत्पन्न होने पर ब्राह्म आकृति या शरीर पर होनेवाली उसकी प्रतिक्रिया। मन का भाव सूचित करनेवाली अंग-भंगी या शारीरिक व्यापार। ३. मन का भाव प्रकट करने वाली मुख की आकृति। मुहावरा–चेष्ट बिगड़ना=मरने से कुछ समय पहले आकृति या चेहरा बिगड़ जाना। ४. वह शारीरिक आयास या व्यापार जो कोई उद्देश्य या काम पूरा करने के लिए किया जाय। कोशिश। प्रयत्न। ५. उक्त के आधार पर साहित्य में वह क्रिया या प्रयत्न जो प्रिय को अनुरक्त करने के लिए उसके प्रति किया जाय। जैसे–प्रिय को देखकर आँखें नचाना, हँसना आदि। ६. काम। कार्य। ७. परिश्रम। मेहनत। ८. इच्छा। कामना।
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चेष्टा नाश  : पुं० [ष० त०] सृष्टि का अंत। प्रलय।
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चेष्टा-बल  : पुं० [मध्य० स०] फलित ज्योतिष में, ग्रहों का किसी विशिष्ट गति या स्थिति के अनुसार अधिक बलवान हो जाना। जैसे–उत्तरायण में सूर्य या वक्रगामी मंगल।
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चेष्टित  : भू० कृ० [सं०√चेष्ट् (चेष्टा करना)+क्त] (काम या व्यापार) जिसके लिए चेष्टा या प्रयत्न हुआ हो।
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चेस  : पुं० [अं०] १. लोहे का वह चौखट जिसमें मुद्रण के लिए जोड़े हुए टाइप कसे जाते हैं। २. शतरंज का खेल।
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चेहरई  : वि० [हिं० चेहरा] हलका गुलाबी। (रंग)। स्त्री० १. चित्र या मूर्ति आदि में चेहरे की रंगत या बनावट। २. चित्रकला में चेहरे में ऐसे रंग भरना जिससे आकृति सजीव सी जान पड़े। ३. ऐसा रंग जो चेहरे की रंगत ठीक तरह से दिखानेवाला हो।
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चेहरा  : पुं० [फा० चेहरः] १. काली खोपड़ी और गरदन के बीच का वह अगला गोलाकार भाग जिसमें मुँह, आँख, नाक आदि रहते हैं। मुखड़ा। वदन। २. आकृति शकल। मुहावरा–चेहरा उतरना=कष्ट, चिन्ता, रोग, लज्जा आदि के कारण मन की आकृति का तेज या श्री रहति या हीन होना। चेहरा तमतमाना=क्रोध, ताप आदि के कारण चेहरे का लाल हो जाना। चेहरा बिगाड़ना=इतना अधिक मारना कि सूरत न पहचानी जाय। (किसी का चेहरा भाँपना=शकल-सूरत देखकर किसी के मन का भाव ताड़ लेना। चेहरा होना=मुसलमानी शासन काल में, लोगों का सेना में नाम लिखाना या भरती होना। ३. कागज, मिट्टी, धातु आदि का बना हुआ किसी देवता, दानव या पशु आदि की आकृति का वह साँचा जो लीला या स्वाँग आदि में चेहरे के ऊपर बाँधा या पहना जाता है। मुहावरा–चेहरा उठाना=नियमपूर्वक पूजन आदि के उपरांत किसी देवी या देवता का चेहरा अपने मुँह पर बाँधना या लगाना। जैसे–काली या हनुमान का चेहरा उठाना। ४. किसी चीज का अगला या सामने का भाग।
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चेहल  : वि० [फा०] चालीस। स्त्री० चहल।
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चेहलुम  : पुं० [फा०] १. मुसलमानों में किसी की मृत्यु के उपरान्त का चालीसवाँ दिन। २. उक्त दिन होनेवाला धार्मिक कृत्य। ३. मुहर्रम में ताजिया दफन होने के दिन से चालीसवाँ दिन और उस दिन होनेवाला कृत्य।
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चेहाना  : अ० [?] चकित या विस्मित होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चै  : पुं०[सं० चय] ढेर। राशि। समूह। विभ० [?] १ से। २ के। उदाहरण–देवाधिदेव चै लाधै दूवै।–प्रिथीराज।
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चैक  : पुं०=चेक।
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चैकित  : पुं० [सं० चिकित+अण] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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चैकितान  : वि० [सं० चेकितान+अण्] चेकितान के वंश में उत्पन्न। चेकितान का वंशज।
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चैकित्य  : पुं० [सं० चैकित+य] वह जो चैकित ऋषि के गोत्र का हो।
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चैत  : पुं० [सं० चैत्र] [वि० चैती] वह चांद्र मास जिसकी पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र पड़े। फागुन के बादवाला महीना। पुं० दे० ‘चैती’ (गीत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चैत-रथ  : पुं० [सं० चित्ररथ+अण्] १. पुराणानुसार कुबेर का वह उपवन या बगीचा जो चित्ररथ ने बनाया था। २. एक प्राचीन ऋषि।
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चैतन्य  : पुं० [सं० चेतन+ष्यञ्] १. चेतन आत्मा। २. न्याय दर्शन के अनुसार प्राणियों में होनेवाला ज्ञान। ३. चेतन होने का भाव। चेतनता। ४. ब्रह्म। ५. परमात्मा। ६. निसर्ग। प्रकृति। ७. बंगाल के एक प्रसिद्ध वैभव भक्त श्रीकृष्ण चैतन्य जो गौरांग महाप्रभु भी कहे जाते हैं। वि० १. जिसमें चेतना या चेतना-शक्ति हो। सचेत। सचेतन। २. जो अपना ठीक और पूरा काम करने और सब बातें सोचने-समझने की स्थिति में हो।
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चैतन्य-भैरवी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. तांत्रिकों की एक देवी। २. संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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चैतन्यता  : स्त्री० [सं० चैतन्य+तल्-टाप्] चैतन्य। (दे०)।
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चैता  : पुं० [सं० चित्रित] काले रंग का एक प्रकार का पक्षी। पुं० [हिं० चैत] चैत मास में गाये जानेवाले एक प्रकार के लोक-गीत जिनकी प्रत्येक पंक्ति के आरंभ में रामा और अंत में हो रामा विशेष रूप से लगता है। जब वाद्य के साथ गाया जाता है तब इसे झलकुटिया कहते हैं। (उत्तर प्रदेश)।
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चैतावर  : पुं० [हिं० चैता] बिहार में चैत मास में गाये जानेवाले लोक-गीत।
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चैती  : वि० [हिं० चैत महीना] १. चैत-संबंधी। चैत का। २. चैत महीने में होनेवाला। जैसे–चैती गुलाब, चैती फसल। स्त्री० १. वह फसल जो चैत में तैयार होती और काटी जाती है। रबी। २. चैत-बैसाख में गाया जानेवाला एक प्रकार का पूरबी चलता गाना। ३. चैत में बोया जानेवाला जमुअ नील। ४. बत्तख की जाति की एक प्रकार की चिड़िया जो प्रायः चैत-बैसाख में मैदानों मे दिखाई देती है।
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चैती-गौरी  : स्त्री० [सं० चैत्र-गौडी] चैत के महीने में प्रायः संध्या समय गाई जानेवाली षाडव संपूर्ण जाति की एक रागिनी।
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चैतुआ  : पुं० [हिं० चैत महीना] चैत में रबी की फसल काटनेवाला मजदूर।
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चैत्त  : वि० [सं० चित्त+अण्] चित्त-संबंधी। चित्त का। पुं० बौद्ध दर्शन में विज्ञान स्कंध को छोड़कर शेष सब स्कंध।
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चैत्य  : वि० [सं० चित्या+अण्] चिता-संबंधी। चिता का। पुं० १. घर। मकान। २. देवालय। मंदिर। ३. किसी देवी देवता के नाम पर अथवा किसी की मृत्यु या शव-दाह के स्थान पर बना हुआ भवन या चबूतरा। ४. यज्ञ-शाला। ५. गौतम बुद्ध की मूर्ति। ६. बौद्ध भिक्षुओं के रहने का मठ या विहार। ७. बौद्ध भिक्षु। ८. गाँव की सीमा पर के वृक्ष। ९. पीपल। १॰. बेल। ११. चिता।
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चैत्य-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] १. पीपल का पेड़। २. अशोक का पेड़।
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चैत्य-मुख  : पुं० [ब० स०] कमंडलु।
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चैत्य-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का यज्ञ।
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चैत्य-वंदन  : पुं० [ष० त०] १. जैन या बौद्ध देवता। २. जैन या बौद्ध मंदिर।
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चैत्य-वृक्ष  : पुं०=चैत्य-तरु।
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चैत्य-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ बुद्धदेव की मूर्ति स्थापित हो। २. कोई पवित्र स्थान।
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चैत्यक  : पुं० [सं० चैत्य√कौ (प्रतीत होना)+क] १. अश्वत्थ। पीपल। २. राजगृह के पास का एक पुराना पर्वत।
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चैत्यतरु  : पुं० कर्म० स०] १. अश्वत्थ। पीपल। २. गाँव या बस्ती का पूज्य या पवित्र बड़ा वृक्ष।
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चैत्यपाल  : पुं० [सं० चैत्य√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+अच्] चैत्य (घर, चबूतरे, मन्दिर आदि का) अधिकारी, प्रबंधक या रक्षक।
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चैत्र  : पुं० [सं०√चि(चयन)+ष्ट्रन्+अण्] १. वह महीना जिसकी पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र पड़े। चैत। २. पुराणानुसार चित्रा नक्षत्र के गर्भ से उत्पन्न बुधग्रह का एक पुत्र जो सातों द्वीपों का स्वामी कहा गया है। ३. पुराणानुसार सात वर्ष पर्वतों में से एक। ४. चैत्य। ५. बौद्ध। भिक्षु। ६.यज्ञ-भूमि। ७. देवालय। मंदिर। वि० चित्रा नक्षत्र संबंधी चित्रा नक्षत्र का।
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चैत्र-गौड़ी  : स्त्री० [मध्य० स०] ओड़व जाति की एक रागिनी जो चैत्र मास में संध्या समय अथवा रात के पहले पहर में गाई जाती है। कुछ लोग इसे श्रीराग की पुत्र वधू मानते हैं।
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चैत्र-मख  : पुं० [ष० त०] चैत मास के उत्सव जो प्रायः मदन संबंधी होते हैं।
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चैत्र-रथ्य  : पुं० [सं० चैत्ररथ+ष्यञ्] =चैत्ररथ।
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चैत्रक  : पुं० [सं० चैत्र+कन्] चैत मास। चैत।
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चैत्रवती  : स्त्री० [सं० चैत्र+मनुप्–ङीष्, तत्व] एक पौराणिक नदी। (हरिवंश पुराण)
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चैत्रसखा  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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चैत्रावली  : स्त्री० [सं० चैत्र-आ√वृ (वरण करना)+णिच्+अच्–ङीष्, लत्व] १. चैत्र शुक्ला त्रयोदशी। २. चैत्र मास की पूर्णिमा।
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चैत्रि  : पुं० [चैत्री+इञ्] चैत मास। चैत्र।
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चैत्रिक  : पुं० [चैत्र+ठक्-इक] चैत्र। चैत।
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चैत्री  : स्त्री [सं० चित्रा+अण्–ङीष्] चैत मास की पूर्णिमा।
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चैदिक  : वि० [सं० चेदि+ठञ्–इक] चेदि (प्रदेश उसके निवासी अथवा उसके राज से) संबंध रखनेवाला।
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चैद्य  : पुं० [सं० चेदि+ष्यञ्] शिशुपाल। वि० चेदि-संबंधी। चेदि का।
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चैन  : पुं० [सं० शयन] १. कष्ट, थकावट, विकलता आदि का अंत होने पर मिलनेवाला आराम या सुख। २. किसी प्रकार की झंझट, दायित्व भार आदि से छुटकारा होने पर मिलनेवाली मानसिक शांति। क्रि० वि० जाना। मिलना। ३. आनंद और सुख का भोग। मुहावरा–चैन उड़ाना आनंद करना। खूब अच्छी तरह मनमाने ढंग से आराम या सुख भोगना। आनंद मंगल करना। चैन पड़ना कष्ट,चिता,विकलता आदि का अन्त होने पर शांति का अनुभूत होना। चैन से कटना आनंद और सुख से समय बीतना। पुं० [सं० चैलक ?] एक छोटी जाति।
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चैपला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
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चैयाँ  : स्त्री० [?] बाँह।(वज्र०)।
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चैराही  : वि० दे० ‘चेहरई’। (रंग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चैल  : पुं० [सं० चेल+अण्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. पहनने का कपड़ा। पोशाक।
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चैलक  : पुं० [सं० चैल+कन्] एक प्राचीन वर्ण संकर जाति जो शुद्र पिता और क्षत्रिया माता से उत्पन्न मानी जाती है।
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चैला  : पुं० [चीरना-छीलना] कुल्हाड़ी से चोरी की हुई लकड़ी का बड़ा टुकड़ा जो जलाने के काम में आता है।
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चैलाशक  : पुं० [सं० चैल-आशक, ष० त० ] कपड़ों में लगने वाले कीड़ों को खानेवाला एक छोटा कीड़ा।
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चैलिक  : पुं० [सं० चैल+ठक्-इक] कपड़े का टुकड़ा।
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चैली  : स्त्री० [हिं० चैला का स्त्री अल्पा रूप] १ रँदने पर निकलने वाले लकड़ी के पतले-पतले टुकड़े जो जलाने के काम आते हैं। २. गरमी के कारण नाक से निकलनेवाला जमे हुए खून का थक्का।
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चैलेज  : पुं० [अं०] लड़ाई-भिड़ाई, संघर्ष आदि के लिए ललकारने की क्रिया या भाव। ललकार।
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चोंआ  : पुं० [हिं० चुआना=टपकना] १. चुआकर गिराई, निकाली या रखी हुई चीज। २. वह छोटा और हलका दाँव जो जुआरी लोग किसी दूसरे जुआरी के दाँव पर उसके साथ मिलकर हार-जीत के लिए लगाते हैं। ३. वह कंकड़, पत्थर जो तराजू के पल्ले या बटखरे की कमी पूरी करने के लिए पल्ले पर रखा जाता है। ४. अनेक प्रकार के सुंगधित पदार्थों को पकाकर निकाला हुआ रस जिसकी गिनती गन्ध द्रव्यों में होती है। ५. दें० ‘चोटा’।
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चोईँ  : स्त्री० [देश०] १. मछली आदि कुछ जल-जन्तुओं के त्वचा पर होनेवाला गोल चितकबरा तथा चमकीला छिलका। २. दाल आदि का छिलका।
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चोई  : स्त्री०=चोई।
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चोंक  : स्त्री० [?] वह चिह्र जो दाँत गड़ाने हुए चूमने के समय किसी के गाल पर पड़ जाता है।
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चोक  : पुं० [सं०√कुच् (रोकना)+क्विप्, क च, पृषो० चुक-अच्] भड़भाँड़ या सत्यानासी नामक पौधे की जड़ जो दवा के काम आती है।
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चोकठ  : पुं०=चौखट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोंकना  : स० [हिं० चोका] १. स्तन से मुँह लगाकर दूध पीना २. पानी पीना।
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चोंकर  : पुं०=चोकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोकर  : पुं० [हिं० चून=आटा+कराई =छिलका] गेहूँ जौ आदि के आटे को छानने पर उसमें से बचनेवाला छिलके का अंग जो दरदरा तथा मोटे कणों के रूप में होता है।
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चोंका  : पुं० [देश] चूसने की क्रिया या भाव। मुहावरा–चोंका-पीना बच्चों का माँ का स्तन-पान करना।
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चोका  : पुं० दे० ‘चोहका’। उदाहरण–चोका लाई अधर रस लेंही।–जायसी। वि० [स्त्री० चोकी] चोखा। उदाहरण–चोकी मेरी देह, तन सँजोग कोइ लाल कौं।–सेनापति।
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चोकी  : स्त्री० चौकी।
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चोक्ष  : वि० [सं०√चक्ष् (प्रशस्त होना)+घञ्-पृषो० सिद्धि] १. पवित्र। शुद्ध। २. चतुर। दक्ष। ३. तीक्ष्ण। तेज। ४. प्रशंसित।
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चोख  : पुं० [हिं० चोखा] चोखे अर्थात् प्रखर होने की अवस्था या भाव। चोखापन। वि० चोका। पुं० [सं० चंक्षु]आँख (बंगाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोंखना  : स० चोखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोखना  : स० [सं० चूषण] प्राणियों विशेषतः पशुओं का अपनी माता के थन में मुँह लगाकर उसका दूध पीना। उदाहरण–नियरावनि चोखनि मन ही में झुकि बछियान छबीली।–ललित किशोरी।
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चोखनि, चोखनी  : स्त्री० [हिं० चोखना] चोखने अर्थात् स्तन-पान करने का क्रिया या भाव।
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चोखा  : वि० [सं० चोक्ष, पा० प्रा० चोख, मरा० गु० ष० चोख, आ० ड० पं० चोखा] १. तेज या पैनी धारवाला। जैसे–चोखा, चाकू। २. जिसमें किसी प्रकार का खोट या मिलावट न हो। जैसे–चोखा घी चोखा सोना। ३. व्यवहार आदि में खरा और साफ। जैसे–चोखा असामी। ४. औरों की तुलना में बहुत अच्छा या बढ़कर। जैसे–इस मामले में तो तुम्हीं सब से चोखे रहे। ५. सब प्रकार से अच्छा और ठीक। उदाहरण–चला बिमान तहाँ ते चोखा।–तुलसी। ६. मात्रा, मान आदि में अधिक। पुं० [?] १. एक प्रकार का चटपटा व्यंजन या सालन जो आलू या बैगन को उबाल या भूनकर बनाया जाता है। भरता। भुरता। २. पकाया हुआ चावल। भात (राज०)।
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चोखाई  : स्त्री० [हिं० चोखना] चोखने या चोखाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। चुसाई। स्त्री० चोखापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोखाना  : स० [हिं० चोखना] १. बछड़ों आदि को चीखने अर्थात् स्तन-पान करने में प्रवृत्त करना। २. स्तन-पान कराना। ३. दूध दुहना। ४. धार चोखी या तेज करना। जैसे–चाकू चोखना। अ० १.चोखा अर्थात् स्तन-पान किया जाना। २. दूहा जाना। ३. धार या चोखा या तेज किया जाना।
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चोगर  : पुं० [फा० चुगद] उल्लू की सी आँखोंवाला घोड़ा।
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चोंगा  : पुं० [सं० चतुर अंगुलि ? बँ० चुंगी; उ० चुंगा] [स्त्री० अल्पा० चोंगी] १. बाँस का वह खोखला टुकड़ा जिसका मुँह तो ऊपर से खुला हो और पेंदा नीचेवाली गाँठ के कारण बंद हो। २. टीन, बाँस आदि की वह नली जिसमें कागज-पत्र रखे जाते हैं।
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चोगा  : पुं० [तु० चुगड़] एक प्रकार का पहनावा जो घुटनों तक लंबा और ढीला-ढाला होता है। लबादा।
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चोगान  : पुं०=चौगान।
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चोंगी  : स्त्री० [हिं० चोंगा का स्त्री अल्पा०] भाथी में की वह नली जिससे होकर हवा निकलती है।
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चोंच  : स्त्री० [सं० चंचु] १. पक्षियों के मुँह का नुकीला और प्रायः लंबोतरा भाग जिसमें उनके जबड़ों पर सींग की तरह का कड़ा आवरण रहता है। जैसे–कबूतर, चील या तोते की चोंच। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा व्यक्ति या उसका मुँह जो कोई अनुचित, असंगत या विरुद्ध बात कहने को हो या कहता हो। मुहावरा–चोंच बंद करना या कराना भय आदि के कारण स्वंय चुप हो जाना अथवा भय दिखाकर किसी को कुछ कहने से रोकना। (किसी से दो-दो) चोंच होना कुछ हलकी कहा सुनी या झड़प हो जाना।
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चोच  : पुं० [सं०√कुच् (रोकना+अच्, पृषो० कच] १. छाल । २. चमड़ा। त्वचा। ३. तेजपत्ता। ४. दालचीनी। ५. नारियल । ६. कदली-फल। केला।
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चोचक  : पुं० [सं० चोच+कन्] छाल। बल्कल।
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चोंचना  : स० [अनु०] १. किसी चीज में से उसका कुछ अंश बुरी तरह से काट, नोच या बकोटकर निकालना। २. लाक्षणिक रूप में किसी का धन बुरी तरह से और जबरदस्जी उसेस लेना।
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चोचलहाई  : स्त्री० [हिं० चोचला+हाई (प्रत्यय)] (स्त्री०) जो चोचले करती या दिखाती हो।
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चोंचला  : पुं०=चोंचला।
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चोचला  : पुं० [अनु०] १. अल्हड़पन या जवानी की उमंग में किसी को खिझाने, रिझाने आदि के उद्देश्य से दिखाई जानेवाली बात या किया जाने वाला व्यवहार जिसकी गिनती निकृष्ट प्रकार के हाव-भावों में होती है। नखरा। मुहावरा–चोचले दिखाना या बघारना दूसरों को खिझाने,रिझाने आदि के लिए ऐसी अंग-भंगी हाव-भाव दिखलाना अथवा चेष्टा या बात करना जो प्रिय या रुचिकर न लगे। जैसे–चोचले मत बघारो, सीधी तरह से बातें करो। २. ऐसा कार्य जो अपनी आन-बान दिखाकर किसी को विशेष रूप से प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। जैसे–ये सब अमीरों के चोचले हैं।
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चोज  : पुं० [सं० चोंद्य ?] १. किसी चुटीली उक्ति या बात में का वह चमत्कारपूर्ण अंश या तत्त्व जिससे लोग प्रसन्न और मुग्ध हो जाएँ। अनूठी, सुन्दर और हास्य की बात। २. ऐसी बात जिससे उक्त प्रकार का चमत्कारपूर्ण अंश या तत्त्व दिखाई देता हो। पद-चोच का अनोखा, दुष्प्राप्य और बढ़िया। उदाहरण–चोज के चंदन खोज खुले जहँ ओछे उरोज रहे उर में घिसि।–देव।
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चोट  : स्त्री० [सं० चुट-काटना] १. किसी धारदार वस्तु के प्रबल या वेगपूर्ण आघात से शरीर के किसी अंग के कट, फट अथवा छिल जाने से होनेवाला घाव। जैसे–तलवार या पत्थर की चोट। २. अस्त्र-शस्त्र आदि के द्वारा किसी जीव पर किया जानेवाला लक्ष्य-भेदन या वार का आघात। मुहावरा–चोट खाली जाना आघात या वार का चूक जाना। वार खाली=जाना (किसी की) चोट बचाना किसी के आघात या प्रहार को युक्ति से विफल करना। (आपस में) चोंटें चलना दोनों पक्षों का एक दूसरे पर मौखिक रूप से आघात या वार करना। ३. गिरने, पड़ने, टकराने ठोकर खाने अथवा किसी वस्तु के शरीर पर आ गिरने से होनेवाला बाहरी या भीतरी घाव, विकृति या सूजन। मुहावरा–चोट उभरना किसी ऐसी पुरानी चोट में फिर से पीड़ा सूजन आदि उत्पन्न होना जो बीच में अच्छी या ठीक हो गई हो। चोट खाना किसी आघात या प्रहार के फल-स्वरूप कष्टदायक या विकृतिकारक परिणाम, प्रभाव या फल से युक्त होना। ४. किसी हिंसक जंतु या पशु द्वारा किया हुआ आघात, वार या प्रहार जो घातक भी हो सकता है । जैसे–शेर या साँप छेड़ने पर अवश्य चोट करते है। ५. कोई ठोस चीज तोड़ने, फोड़ने या चिपटी करने के लिए उस पर किया जानेवाला किसी भारी औजार का आघात। जैसे–पत्थर या लोहे पर की जानेवाली घन या हथौड़े की चोट। ६. लाक्षणिक रूप में, (क) किसी का कोई ऐसा कथन जिससे कोई अपने को अपमानित या लज्जित समझने लगे। (ख) कोई ऐसी घटना जिससे किसी की कोई बहुत बड़ी क्षति या हानि हुई हो अथवा (ग) अनिष्ट आदि के कारण होनेवाला कष्ट जिसके परिणाम-स्वरूप मनुष्य चिंतित दुःखी या विकल होता है। ७. कपट या छलपूर्वक किया जानेवाला कोई ऐसा काम या बात जिससे किसी का कुछ अनिष्ट हो। दगा। धोखा। विश्वासपात्र। जैसे–तुमने बहुत बुरे समय में मेरा साथ छोड़ कर मुझ पर चोट की है। ८. आक्रमण, आघात, प्रहार आदि के रूप में होनेवाले कामों या बातों के संबंध में प्रत्येक बार होनेवाली उक्त प्रकार की क्रिया। जैसे–एक चोट कुश्ती, दो चोट दंगा-फसाद चार चोट लड़ाई-झगड़ा आदि। ९. वह जो किसी की तुलना में बराबरी या मुकाबले का ठहरता या सिद्ध होता हो। उदाहरण–उज्जवल, अखंड खंड सातएँ महल महामंडल चबारो चंदमंडल की चोट ही।–देव। मुहावरा–(किसी की) चोट का तुलना या बराबरी का। जोड़ या मुकाबले का।
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चोटइल  : वि०=चुटैल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोंटना  : स० [हिं० चिकोटी का अनु०] हाथ की चुटकी से कोई चीज तोड़ना। जैसे–फूल चोंटना।
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चोटना  : पोटना
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चोंटली  : स्त्री० [?] सफेद घुँघची।
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चोटहा  : वि० [हिं० चोट+हा (प्रत्यय)] [स्त्री० चोटही] १. जिस पर चोट का निशान हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) २. व्यक्ति या जीव-जंतु) जिसे चोट लगी हो। ३. (अंग) जिस पर चोट या दाग का निशान बना हो। ४. चोट करनेवाला।
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चोटा  : पुं० [हिं० चोआ] गुड़ से चीनी बनाते समय उसे छानने पर निकला हुआ गुड़ का पसेव। चोआ। माठ।
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चोटा-पोटा  : वि० [?] [स्त्री० चोटी-पोटी] खुशामद से भरा हुआ (कथन)। चिकनी-चुपड़ी। (बात-चीत)। उदाहरण–हमसों सदा दुरावति सो यह बात कहत मुख चोटी-पोटी।–सूर।
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चोटाना  : अ० [हिं० चोट] चोट से युक्त होना। चोट खाना। स० चोट या प्रहार करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोटार  : वि० [हिं० चोट+आर (प्रत्यय)] १. (जीव) जो चोट करता या कर सकता हो। २. चोट खाया हुआ। चुटैल।
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चोटारना  : अ० [हिं० चोट] चोट पहुँचाना। चुटैल करना।
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चोटिका  : स्त्री० [सं०√चट्(घेरदार)+अण्-ङीष्-कन्-टाप्] लहँगा।
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चोटिया  : स्त्री० =चुटिया (चोटी)।
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चोटियाना  : स० [हिं० चोटी] १. मारने-पीटने आदि के लिए किसी की चोटी या सिर के बाल हाथ से पक़ड़ना। २. किसी को इस प्रकार पकड़कर तंग करना या दबाना कि मानों उसकी चोटी अपने हाथ में आ गई हो। अ० [हिं० चोटी] स्त्रियों का चोटी करना या वेणी बाँधना।
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चोटियाला  : वि० [हिं० चोटी] [स्त्री० चोटियाली] सिर पर के बड़े-बड़े बालोंवाला। उदाहरण–चोटियाली कूदै चौसठि चाचरि।–प्रिथीराज। पुं० पिशाच, प्रेत, भूत आदि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोटी  : स्त्री० [सं० चूड़ा ? प्रा० पं० चोटी, गु० मरा० चोटी, चोटली] १.स्त्रियों के सिर के वे बड़े और लंबे बाल जो कई प्रकार से लट या लटों के रूप में गूँथे रहते हैं। वेणी। मुहावरा–चोटी करना स्त्रियों का सिर के बाल गूँथ और सँवारकर उनकी लट या वेणी बनाना। २. हिन्दू पुरुषों में सिर के ऊपर पिछले भाग के मध्य में थोड़े से बचाकर रखे हुए वे लंबे बाल जो हिन्दुत्व का एक मुख्य चिन्ह होता है। चुंदी। शिखा। पद-चोटीवाला (देखें)। मुहावरा–चोटी कटना सिर मूँड़ाकर साधु-सन्यासी या संसार-त्यागी होना। (किसी के नीचे चोटी दबना ऐसी स्थिति में होना कि किसी से दबकर रहना पड़े। जैसे–जब तक उनके नीचे तुम्हारी चोटी दबी है, तब तक तुम उनके विरुद्ध नहीं जा सकते। (किसी की) चोटी (किसी के) हाथ में होना किसी का किसी दूसरे के अधीन या वश में होना। जैसे–उनकी चोटी तो हमारे हाथ में है। वे हम से बचकर कहाँ जायेंगे। चोटी रखना सिर के पिछले मध्य भाग में थोड़े से बाल आस-पास के बालों से अलग रखकर बढा़ना जो हिंदुत्व का चिन्ह है। शिखा धारण करना। ३. प्रायः काले धागों या सूतों का वह लंबा लच्छा जो स्त्रियाँ अपने सिर के बालों के साथ गूँथकर उन्हें बाँधने और अपनी चोटी लंबी तथा सुन्दर बनाकर दिखाने के काम में लाती है। ४. पान के आकार का वह गहना जो स्त्रियाँ सिर के बालों की जूड़े में खोंसती या अपनी चोटी के नीचे लटकाती हैं। ५. कुछ विशिष्ट पक्षियों के सिर पर या ऊपर उठे हुए कुछ लंबे पर या बाल। कलगी। जैसे–मुरगे या मोर की चोटी। ६. किसी बड़ी या भारी चीज का सबसे ऊँचा और ऊपरी भाग। जैसे–पहाड़ या महल की चोटी। ७. किसी चीज का किसी ओर निकला हुआ कुछ नुकीला और लंबा सिरा। जैसे–नीलम, पन्ने या हीरे की चोटी। ८. किसी प्रकार के उतार-चढ़ाव या ऊपरी मोड़ का सब से ऊँचा और ऊपरी अंश या भाग। जैसे–पूस-माघ में गेहूँ का भाव चोटी पर पहुँच जाता है। पद–चोटी का=अपने वर्ग में सब से अच्छा, बढ़कर या श्रेष्ठ। सर्वोतम। जैसे–चोटी का ग्रन्थ, चोटी का पंडित या विद्वान्।
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चोटीवाला  : पुं० [हिं०] जिन, प्रेत या भूत जिसके संबंध में यह अपवाद है कि उसकी चोटी बहुत लंबी होती है। (स्त्रियाँ)। विशेष-प्रायः स्त्रियाँ भूत-प्रेत आदि बहुत डरती हैं और उनका नाम तक नहीं लेना चाहतीं, इसलिए वे इसी नाम से उसकी चर्चा करती हैं।
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चोट्टा  : पुं० [हिं० चोर] [स्त्री० चोट्टी, भाव० चोट्टापन] वह व्यक्ति जो छोटी-मोटी चीजें दूसरों के घरों से उनकी नजरें बचाकर उठा लाता हो। छोटे दरजे का चोर।
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चोड़  : पुं०[सं०√चुड् (संवरण करना)+अच्] १. उत्तरीय वस्त्र। २. चोल देश का।
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चोड़क  : पुं० [सं० चोड़+कन्] पहनने का एक कपड़ा।
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चोंड़ा  : पं० [सं० चूड़ा] १. स्त्रियों के सिर के बाल। झोंटा। २. मस्तक। सिर। पद–(किसी के) चोंड़े पर चढ़कर=किसी की परवाह न करते हुए उसके सामने होकर। सिर पर चढ़ कर। जैसे–हमें जो कुछ करना होगा, वह हम उनके घोड़े पर चढ़कर करेंगे। (स्त्रियाँ) पुं० [सं० चूंड़ा] वह कच्चा धूआँ जिससे खेती की सिंचाई की जाती है।
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चोड़ा  : पुं० [सं० चोड़+टाप्] बड़ी गोरखमुंड़ी।
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चोंड़ी  : स्त्री० [हिं० चोड़ा=सिंर ?] स्त्रियों के पहनने की साड़ी।
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चोड़ी  : स्त्री० [सं० चोड़+ङीष्] स्त्रियों के पहनने की साड़ी।
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चोढ़  : पुं० [?] उत्साह। उमंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोतक  : पुं० [सं० चुत् (टपकना)+ण्वुल्-अक] १. दालचीनी। २. छाल। वल्कल।
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चोंथ  : पुं० [अनु०] परिमाण के विचार से उतना गोबर जितना एक बार में गाय, भैंस ने किया या गिराया हो। स्त्री० [हिं० चोंथना] चोंथने की क्रिया या भाव।
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चोथ  : पुं० चोंथ। स्त्री०=चौंथ (गुजरात)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोथना  : सं०=चोंथना।
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चोद  : पुं० [सं०√चुद् (प्रेरणा करना)+णिच्+अच्] १. चाबुक। २. ऐसी लंबी लकड़ी जिसके सिरे पर नुकीला लोहा लगा हो।
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चोदक  : वि० [सं०√चुद्+णिच्+ण्वुल्–अक] चोदना या प्रेरणा करने वाला।
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चोदना  : स्त्री० [सं०√चुद्+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. वह वाक्य जिसमें कोई कार्य करने का विधान हो। विधि-वाक्य। २. प्रेरणा। ३. प्रयत्न। स० पुरुष का स्त्री के साथ संभोग करना। स्त्री-प्रसंग करना।
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चोदू  : पुं० [हिं० चोदना] चोदने अर्थात् प्रसंग या संभोग करनेवाला।
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चोद्दू  : वि० [हिं० चोदना]=चूतिया। (राज०)
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चोद्य  : वि० [सं०√चुद्+णिच्+यत्] जो चोदना या प्रेरणा का उपयुक्त पात्र या विषय हो। पुं० १. प्रश्न। सवाल। २. तर्क-वितर्क या वाद-विवाद में पूर्व पक्ष।
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चोंधना  : स० [अनु०] १.पक्षियों का दाने चुगना। २. दे० चुँधना।
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चोंधर  : वि० [सं० चक्षुरध्र] १. बहुत छोटी आँखोंवाला (व्यक्ति या पशु)। २. जिसे अपेक्षया बहुत कम दिखाई देता हो। ३. बेवकूफ। मूर्ख। (अवज्ञा और हास्य में)
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चोंप  : पुं०=चोप। स्त्री०=चोब।
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चोप  : पुं० [हिं० चाव] १. उत्साह और उमंग से भरी हुआ कामना या वासना। चाव। क्रि० प्र०–चढ़ना। २. उत्साह या उमंग बढ़ानेवाला काम, चीज या बात। ३. उत्तेजना। बढ़ावा। क्रि० प्र०–देना। पुं० [हिं० चूना=टपकना] कच्चे आम के ऊपरी भाग का वह रस जो शरीर में लगने पर खुजली जलन फुन्सी आदि उत्पन्न करता है। स्त्री० [फा० चोब] १. दे० ‘चोब’। २. डंके पर लकड़ी से किया जानेवाला आघात। डंके की चोट। ३. इस प्रकार उत्पन्न होनेवाला शब्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोपदार  : पुं०=चोबदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोंपी  : स्त्री =चेप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोपी  : वि० [हिं० चोप] १. जिसे किसी बात का बहुत अधिक चाव या चाह हो। २. जिसमें विशेष उत्साह या उमंग हो। स्त्री०=चेप (लसीला पदार्थ) जैसे–आम की चोपी।
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चोब  : स्त्री० [फा०] १. शामियाना खड़ा करने का बड़ा खंभा या बाँस। २. वह पतली लकड़ी या खमाची जिससे नगाड़े पर आघात किया जाता है। ३. मोटा डंडा विशेषतः वह मोटा डंडा जिस पर सोने या चाँदी का पत्तर चढ़ा या लगा हो।
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चोबकारी  : स्त्री० [फा०] जरदोजी।
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चोबचीनी  : स्त्री० [फा० चोब+हि० चीनी] (चीन देश का) चीन देश में होनेवाली एक लता जिसकी जड़ औषध के काम आती है।
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चोबदार  : पुं० [फा०] [भाव० चोबदारी] वह दरबान या नौकर जिसके हाथ में चोब (मोटा डंडा) रहता हो।
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चोबदारी  : स्त्री० [फा०] चोबेदार का काम या पद।
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चोबा  : पुं० [फा० चोब] १. उबाले हुए चावल। भात। २. दे० चोअ। पुं० चौबे। (पंजाब)।
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चोबी  : वि० [फा०] लकड़ी का बना हुआ। जैसे–धोबी इमारत या मकान।
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चोभ  : स्त्री० [हिं० चुभना] १. चुभने की क्रिया या भाव। २. चुभनेवाली कोई वस्तु या बात।
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चोभना  : स० चुभाना।
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चोभा  : पुं० [हिं० चोभना] १. चोभने या चुभाने की क्रिया या भाव। २. लोहे की सूइयोंवाला वह दस्ता जिससे मुरब्बा बनाने के लिए आँवला, आम, पेठे के टुकडे़ आदि कोंचे जाते हैं। ३. दवाओं की बँधी हुई वह पोटली जिससे पीड़ित अंग मुख्यतः आँख सेंकी जाती है। भाथा। ४. उक्त पोटली से शरीर का कोई पीड़ित अंग सेकने की क्रिया या भाव।
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चोभाकारी  : स्त्री० [हिं० चोभना+फा० कारी काम] पत्थरों, रत्नों आदि का किसी चीज पर होनेवाला ऐसा जड़ाव जो किसी तल में चुभा या धँसाकर कुछ उभारदार रूप में बनाया गया हो।
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चोभाना  : स०=चुभाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोम  : स्त्री० [अ० जोम] १. उमंग। जोश। २. गर्व। घमंड (राज०)
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चोया  : पुं०=चोआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोर  : पुं० [सं०√चुर् (चुराना) +णिच्+अच्, प्रा, पा० गुज० पं० बँ० मरा० चोर, सि० चोरू, सिह, होर] १. वह जो लोगो की आँख बचाकर दूसरों की कोई चीज अपने उपयोग के लिए उठा ले जाता या रख लेता हो। बिना किसी को जतलाये हुए पराई चीज लेकर उस पर अपना अधिकार या स्वामित्व स्थापित करने वाला व्यक्ति। चुराने या चोरी करनेवाला। तस्कर। जैसे–(क) चोर उनके घर में घुसकर सब माल–असबाब उठा ले गये। (ख) आजकल नगर में चोरों का ऐसा दल आया है जो मकान किराये पर लेकर आस-पास की दूकानों या मकानों में चोरी करता है। मुहावरा–(कहीं या किसी के घर) चोर पड़ना चोर या चोरों का आकर बहुत सी चीजें चुरा ले जाना। कहा०–चोर के घर (या चोर पर) मोर पड़ना=(क) एक चोर के घर पहुंचकर दूसरे चोर का चीजें चुराना या चोरी करना। (ख) किसी दुष्ट या धूर्त के साथ उससे भी बड़े दुष्ट या धूर्त के द्वारा दुष्टता या धूर्त्तता का व्यवहार होना। २. लड़कों के खेल में, प्रायः एक दूसरे लड़के को छूकर चोर बनाना या अपनी पीठ पर चढ़ाकर कुछ दूर पहुँचाना या ले जाना हो है। ३. क्षत या घाव के संबंध में, वह दूषित और विषाक्त अंश, तत्त्व या विकार जो किसी प्रकार अन्दर या नीचे छिपा या दबा रह गया हो और आगे चलकर दुष्परिणाम उत्पन्न कर सकता हो। जैसे–इस घाव का मुँह ऊपर से बंद हो गया है, पर अभी इसके अन्दर चोर है।(आशय यह है कि इसका मुँह फिर से खुलकर दूषित अंश या विकार निकलना चाहिए) ४. किसी तल में वह थोड़ा-सा या सूक्ष्म अंश जो ठीक तरह से बनने, भरने आदि से छूट गया हो, इसलिए जो दुष्परिणाम उत्पन्न कर सकता या दोषमाना जाता है। जैसे–(क) जब छत बनने में कही चोर रह जाता है, तभी वह चूती या टपकती है, (ख) मेंहदी हाथ में ठीक तरह से नहीं लगी हैं, कई जगह चोर रह गया है। ५. ताश, गंजीफे आदि के खेलों में, वह हलका पत्ता जो किसी खिलाड़ी के हाथ में इसलिए रुका रहता है कि इसे चलने पर उसकी हार की सम्भावना होती है। पद–गुलाम चोर ताश का एक विशिष्ट खेल जिसमें कोई एक पत्ता चोर बनाकर अलग कर दिया जाता है। खेल के अंत में जिसके हाथ में उस पत्ते के जोड़ का दूसरा पत्ता बच रहता है, वही खिलाड़ी चोर कहलाता है। ६. लाक्षणिक रूप में, मन में उत्पन्न होने या रहनेवाला कोई अनुचित और कपटपूर्ण उद्देश्य, भाव या विचार। जैसे–यदि तुम उनसे मिलकर सब बातों का निपटारा नहीं करना चाहते तो तुम्हारे मन में जरूर कोई चोर है। ७. चोरक नाम का गंध द्रव्य। ८. रहस्य संप्रदाय में, (क) काम, क्रोध, मोह आदि विकार। (ख) मृत्यु। वि० (क) समस्त पदों में उत्तर पदों के रूप में और व्यक्तियों के संबंध में–१.किसी की कोई चीज चुरानेवाला। चोरी करनेवाला। जैसे–किताब चोर, जूता चोर। २. किसी प्रकार कुछ चुराने, छिपाने दबा रखने या सामने न करनेवाला। जैसे–मुँहचोर=जल्दी किसी को मुँह न दिखानेवाला। ३. कर्त्तव्यपालन, कष्ट, परिश्रम आदि से अपने आप को बचानेवाला। (ख) समस्त पदों में पूर्वपद के रूप में पदार्थों आदि के संबंध में–१. जो इस प्रकार आड़ में छिपा हो कि ऊपर या बाहर से देखने पर जल्दी दिखाई न दे, जिसका सब लोगों को सहसा पता न चलता हो या जिसे साधारण लोग न जानते हों। जैसे–अलमारी या संदूक में का चोर-खाना या चोर-ताला, किसी बड़ी बस्ती में चोर गली, जिसे तख्ते में का चोर छेद, किसी बड़े मकान में का चोर दरवाजा या चोर सीढ़ी आदि। २. (स्थान) जहाँ या जिसमें कोई ऐसा काम या बात होती हो जो उसके सामने या खुले-आम न हो सकती हो, बल्कि चुरा-छिपाकर की जाती हो। जैसे–चोरबाजार, चोर महल आदि। ३. (तल या स्थान) जो ऊपर से देखने पर तो बिलकुल ठीक और पक्का जान पड़े, परन्तु जिसके नीचे कुछ पोलापन हो और इसलिए जो थोड़ा-सा भार पड़ने पर या सहज में दब अथवा धँस सकता हो। जैसे–चोर जमीन, चोर बालू या चोर मिट्टी आदि। ४. शरीर या उसके किसी अंग के संबंध में, जिसकी क्रिया शक्ति, स्वरूप आदि का बाहर से देखने पर अनुमान न हो सकता हो या पूरा पता न चलता हो। जैसे–चोर थन, चोर पेट चोर बदन आदि। ५. अनाज के दानों के संबंध में जो साधारण से बहुत अधिक कड़ा हो और इसलिए कूटने-पीसने आदि पर भी ज्यों का त्यों बचा या बना रहता हो और टूटता या पिसता न हो। जैसे–चोर ऊड़द, चोर मटर, चोर मूँग आदि।
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चोर-कंटक  : पुं० [कर्म० स] चोरक नाम का गंद द्रव्य।
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चोर-खिड़की  : स्त्री० [हिं०] छोटा चोर दरवाजा (दे० चोर दरवाजा’)
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चोर-गणेश  : पुं० [कर्म० स] तांत्रिकों के एक गणेश जिनके विषय में कहा जाता है कि यदि जप करने के समय हाथ की उंगलियों में संधि रह जाय, तो वे उसका फल चुरा या हरण कर लेते हैं।
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चोर-चकार  : पुं० [हिं० चोर+अनु० चकार] १. चोर। २. उचक्का। चोट्टा।
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चोर-चमार  : वि० [हिं०] [भाव० चोरी-चमारी] (व्यक्ति) जो चोरी आदि निन्दनीय तथा निकृष्ट काम करता हो।
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चोर-छेद  : पुं० [हिं०] दो चीजों के बीच का बहुत छोटा और छिपा हुआ अवकाश। संधि। दरज।
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चोर-जमीन  : स्त्री० [हिं० चोर+जमीन] ऐसी जमीन जो ऊपर से देखने में तो ठोस या पक्की जान पड़े, पर नीचे से पोली हो और जो भार पड़ते ही नीचे धँस या दब जाय।
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चोर-ताला  : पुं० [हिं०] ऐसा ताला जो ऊपर से सहसा दिखाई न देता हो, अथवा साधारण से भिन्न और किसी विशिष्ट युक्ति से खुलता हो।
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चोर-थन  : पुं० [हिं०] गौओं-भैसों का ऐसा थन जिसके अंदर दूध बचा रह जाता या बचा रह सकता हो। वि० [हिं०] (गौ, बकरी या भैंस) जो अपने बच्चे के लिए थन में कुछ दूध चुरा या बचा रखे, दुही जाने पर पूरा या सारा दूध न दे।
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चोर-दंत  : पुं० [हिं०] वह दांत जो बत्तीस दाँतों के अतिरिक्त निकलता और निकलने के समय बहुत कष्ट देता हो।
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चोर-दरवाजा  : पुं० [हिं०] किसी महल या बड़े मकान में प्रायः पिछवाड़े की ओर का वह छोटा दरवाजा जो आड़ में हो और जिसका पता सब लोगों को न हो।
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चोर-द्वार  : पुं० चोर-दरवाजा।
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चोर-पट्टा  : पुं० [हिं० चोर+पाट=सन] एक प्रकार का जहरीला पौधा जिसके पत्तों और डंठलों पर बहुत जहरीले रोएँ होते हैं जो शरीर में लगने से सूजन पैदा करते हैं। सूरत।
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चोर-पहरा  : पुं० [हिं० चोर=गुप्त+पहरा] पहरे का वह प्रकार जिसमें पहरेदार या तो छिपे रहते हैं अथवा भेष बदल कर पता लगाने के लिए घूमते-फिरते रहते हैं।
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चोर-पुष्प  : पुं०=चुरपुष्पी।
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चोर-पुष्पिका  : स्त्री०[चोरपुष्पी+कन्-टाप्,ह्रत्व]=चोर-पुष्पी।
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चोर-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्.] एक प्रकार का क्षुप जिसमें आसमानी रंग के फूल लगते हैं। अंधाहुली। शंखाहुली।
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चोर-पेट  : पुं० [हिं०] १. स्त्रियों का ऐसा पेट जिसमें गर्भ की स्थिति का ऊपर से देखने पर जल्दी पता न चले। २. ऐसा छोटा उदर या पेट जिसमें साधारण से बहुत अधिक भोजन समा सकता या समाता हो। ३. किसी चीज के अन्दर का कोई ऐसा गुप्त विभाग या स्थान जो ऊपर से दिखाई न दे।
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चोर-पैर  : पुं० [हिं०] ऐसे पैर जिनके चलने की आहट न मिले या शब्द न सुनाई पड़े। उदाहरण–ऐसा ही मोर के चोर पैर आला के ने उन्हें पाया।–अज्ञेय।
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चोर-बत्ती  : पद स्त्री० [हिं०] हाथ में रखने की बिजली की वह बत्ती जो खटका या बटन दबाने पर ही जलती है।
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चोर-बदन  : पद पुं० [हिं०] ऐसा बदन या शरीर जो देखने में विशेष हृष्ट-पुष्ट न होने पर भी यथेष्ट बलवान या शक्तिशाली हो।
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चोर-बाजार  : पुं० [हिं०] [भाव चोर-बाजारी] व्यापार का वह क्षेत्र जिसमें नियंत्रित अथवा राशन में मिलनेवाली चीजें चोरी से और अधिक ऊँचें मूल्य पर खरीदी और बेची जाती हैं।
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चोर-बाजारी  : स्त्री० [हिं०] नियंत्रित अथवा राशन में मिलनेवाली वस्तुएँ खुले बाजार में और उचित मूल्य पर न बेचकर चोरी से और अधिक दाम पर बेचने की क्रिया, प्रकार या भाव।
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चोर-बालू  : पुं० [हिं० चोर+बालू] वह बालू या रेत जिसके नीचे दलदल, धँसाव या पोलापन हो।
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चोर-महल  : पुं० [हिं०] १. राजाओं, रईसों आदि का ऐसा महल या मकान जिसमें वे अपनी रखेली स्त्री या स्त्रियाँ रखते थे। २. घर के अन्दर का वह छिपा हुआ छोटा कमरा जो साधारणतः लोगों की दृष्टि में न आता हो।
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चोर-मिहीचनी  : स्त्री० [हिं० चोर+मीचना=बंद करना] आँख मिचौली नाम का खेल।
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चोर-रास्ता  : पुं० [हिं०] वह छिपा हुआ मार्ग जिसका जन-साधारण को पता न हो। चोरगली।
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चोर-सीढ़ी  : स्त्री० [हिं०] किसी बड़े मकान या महल में वह छोटी और सँकरी सीढ़ी जो कहीं आड़ में हो और जिसका पता सब लोगों को न हो।
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चोर-स्यानु  : पुं० [ष० त] कौवा ठोंठी। काकतुंडी।
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चोर-हटिया  : पुं० [हिं० चोर+हटिया] चोरों से अथवा चोरी का माल खरीदनेवाला दुकानदार।
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चोर-हुली  : स्त्री०=चोर-पुष्पी।
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चोरक  : पुं० [सं० चोर+कन्] १. एक प्रकार का गठिबन जिसकी गणना गंध द्रव्यो में होती है। २. असबरग जिसकी गिनती गंध द्रव्यों में होती है।
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चोरकट  : पुं० [हिं० चोर+कट=काटनेवाला] उचक्का। चोट्टा।
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चोरखाना  : पद पुं० [हिं०] अलमारी, संदूक आदि में का ऐसा छिपा हुआ खाना, घर या विभाग जो ऊपर से देखने पर सहसा न दिखाई देता हो।
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चोरगली  : स्त्री० [हिं०] १. नगर या बस्ती की वह छोटी या तंग गली जिसका पता सब लोगों को न हो। २. पाजामें का वह भाग जो दोनों जाँघों के बीच में पड़ता है।
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चोरटा  : वि० [हिं० चोर+टा (प्रत्य)] [स्त्री० चोरटी] १. चोरी करने या चुरानेवाला। उदाहरण–लिये जाति चित चोरटी वह गोरटी नारि।–बिहारी। २. दे० चोट्टा। पुं० चोर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोरना  : स०=चुराना।
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चोरा  : स्त्री० [सं० चोर+अच्-टाप्]=चोर-पुष्पी।
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चोराख्य  : पुं० [सं० चोर-आख्या, ब० स०]=चोर-पुष्पी।
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चोराना  : स०=चुराना।
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चोरिका  : स्त्री० [[सं० चोर+ठन्-इक,टाप्]] चुराने का काम। चोरी।
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चोरित  : भू० कृ० [सं०√चुर् (चुराना)+णिच्+क्त] चुराया हुआ।
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चोरिला  : पुं० [सं० ?] एक प्रकार का बढ़िया चारा जिसके दाने या बीज कभी-कभी गरीब लोग अनाज की तरह खाते हैं।
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चोरी  : स्त्री० [हिं० चोर] १. चुराने या चोरी करने की क्रिया या भाव। २. दूसरों से कोई बात चुराने या छिपाने की क्रिया या भाव जैसे–खुदा की गर नहीं चोरी की तो फिर बन्दे की क्या चोरी।√
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चोरी-चोरी  : क्रि० वि० [हिं० चोरी] १. धीरे-धीरे। २. चुपके-चुपके। ३. बिना किसी को कहे या बतलाये हुए। जैसे–(क) उन्होंने चोरी-चोरी विवाह कर लिया। (ख) आप चोरी-चोरी चले गये, मुझसे मिले तक नहीं।
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चोल  : पुं० [सं० चुल्(ऊँचाई+घञ्] १. दक्षिण भारत का एक प्राचीन देश जो आधुनिक तंजौर त्रिचनापल्ली आदि के आस-पास और दक्षिणी मैसूर तक विस्तृत था। २. उक्त देश का निवासी। ३. स्क्षियों के पहने की चोली। ४. मंजीठ। ५. कवच। जिरह-बक्तर। ६. छाल। वल्कल। वि० लाल (रंग)।
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चोल-खंड  : पुं० [मध्य० स०] कपड़े का वह टुकड़ा जो प्रायः साड़ियों के साथ (अथवा अलग भी) इसलिए बुना जाता है कि उससे चोली या कुरती बन सके।
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चोल-रंग  : पुं० [सं० चोल=मंजीठ+रंग] मंजीठ का रंग जो पक्का लाल होता है।
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चोल-सुपारी  : स्त्री० [सं० चोल+हिं० सुपारी] चोर देश की बढ़िया सुपारी।
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चोलक  : पुं० [सं० चोल+कन्] चोल।
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चोलकी(किन्)  : पुं० [सं० चोलक+इनि] १. बाँस का कल्ला। २. नारंगी का पेड़। ३. करील का पेड़। ४. हाथ की कलाई या पहुँचा।
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चोलन  : स्त्री० [सं० चोल+क्विप्+ल्यु-अन]=चोलकी।
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चोलना  : स० [?] थोड़ीमात्रा में कोई चीज खाना। मुहावरा–मुँह चोलना नाममात्र के लिए कुछ या थोड़ा-सा खा लेना। पुं०=चोला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोला  : पुं० [सं० चोड़क, चोलक, प्रा० चोलअ. पा० चोलो; पं० चोल्ला, सि० चोली] [स्त्री० अल्पा० चोली] १. एक प्रकार का बहुत लंबा और घेरदार पहनावा जो प्रायः साधु-संत आदि पहनते हैं। २. वह सिला हुआ नया कपड़ा जो कुछ रसम करने के बाद छोटे बच्चों को पहले-पहल पहनाया जाता है। मुहावरा–चोला पड़ना कुछ धार्मिक और सामाजिक कृत्यों के बाद छोटे बच्चे को पहले-पहल सिला हुआ नया कपड़ा पहनाया जाना। ३. छोटे बच्चे को पहले-पहल सिला हुआ नया कपड़ा पहनाने की रसम या रीति। ४. तन बदन। शरीर। जैसे–चोला मगन रहे (आर्शीवाद)। मुहावरा–चोला छोड़ना दूसरा और नया जन्म या शरीर धारण करने के लिए यह शरीर छोड़ना। जैसे–स्वामी जी ने अस्सी वर्ष की आयु भोग कर चोला छोड़ा था। चोला बदलना (क) एक शरीर छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करना। (ख) एक रूप या वेष छोड़कर दूसरा रूप या वेश धारण करना। जैसे–आज तो आप चोला बदल कर आये हैं।
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चोली  : स्त्री० [सं० चोल+ङीष्,हिं० चोला] १. स्त्रियों का वह मध्य युगीन पहनावा जिससे उनका वक्ष-स्थल ढका रहता था, और जिसमें नीचे की लगी हुई तनियाँ या बंद पीठ की ओर खींचकर बाँधे जाते थे। २. आज-कल उक्त पहनावे का वह हुआ सुधरा रूप जो स्त्रियाँ स्तनों को ढलने से बचाने के लिए कुरती आदि के नीचे पहनती है। ३. अँगरखें आदि का वह ऊपरी भाग जिसमें बंद लगे रहते हैं। पद-चोली दामन का साथ वैसा ही अभिन्न, घनिष्ट और सदा बना रहनेवाला साथ जैसे–अँगरखें के उक्त ऊपरी भाग तथा दामन या नीचे वाले भाग में होता है। जैसे–रिश्तेदारी में तो आपस में चोली दामन का साथ होता है। ४. साधु-संतों आदि के पहनने का कुछ मोटा चोला। स्त्री०[?] तमोंलियों की पान रखने की डलिया या दौरी।
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चोली-मार्ग  : पुं० [मध्य० स०] वाम मार्ग का वह भेद या संप्रदाय जिसमें उपासिकाओं की चोलियाँ एक बरतन में ढककर रख दी जाती हैं, और तब निकालने पर जिस स्त्री की चोली जिस उपासक के हाथ में आती है, उसी के साथ वह संभोग करता है।
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चोल्ला  : पुं०=चोला।
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चोवा  : पुं०=चोआ (दे०)।
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चोष  : पुं० [सं०√चि (चयन)+ड, च-उप, कर्म० स०] पार्श्व या बगल में जलन होने का एक रोग। (भाव प्रकाश)।
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चोषक  : वि० [सं०√चूष (चूसना)+ण्वुल्-अक, आर्ष, गुण] चोषण करने अर्थात् चूसनेवाला।
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चोषण  : पुं० [सं० चूष्+ल्युट-अन, आर्ष० गुण] चूसने की क्रिया या भाव। चूसना।
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चोषना  : स० [सं० चोषण] चूसना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चोष्य  : वि० [सं०√चूष्+ण्यत्, आर्ष०] १. जो चूसा जा सके। २. जो चूसा जाने को हो।
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चोसर  : स्त्री०=चौसर।
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चोसा  : पुं० [देश०] वह रेती जिससे लकड़ी को रगड़ या रेतकर समतल किया जाता है।
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चोस्क  : पुं० [सं०] १. अच्छी जाति की घोड़ा। २. सिधुवार वृक्ष।
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चोंहका  : पुं० [सं० चूषण] १. गाय, बकरी भैंस आदि को दुहने से पहले उनके बच्चों को चुसाया जाने=वाला दूध। २. इस प्रकार दूध चुसाने की क्रिया या भाव। ३. होंठ लगाकर किसी प्रकार का रस चूसने की क्रिया या भाव।
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चोहट  : पुं० चोहट्टा। (बाजार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चोहान  : पुं०=चौहान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौं  : अव्य० [हिं० क्यों] क्यों। इसलिए। उदाहरण–झुकि जा बदरिया बरस चौं न जाय। (व्रज का लोक गीत)।
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चौ  : वि० [सं० चतु, प्राचउ] चार का संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे–चौकोना, चौखंडा, चौगुना आदि। पुं० मोती आदि तौलने का एक बहुत छोटा मान। जैसे–यह मोती तौल में चार चौ है। विभ० सम्बन्ध कारक की विभक्ति का या की।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (राज०) उदाहरण–बालकति करि हंस चौ बालक।–प्रिथीराज।
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चौ-माप  : स्त्री० [हिं० च (=चार)+सं० माप] कोई चीज नापने के ये चार अंग है–लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई, तथा काल या इन चारों का समन्वित रूप। चारों आयाम। विशेष दे० ‘आयाम’।
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चौ-मापी  : वि० [हिं० चौ-माप] चार आयामों वाला। उदाहरण–चीर मुझे वितरण करना है चौमासी धरती अम्बर को।–बच्चन।
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चौ-लड़ा  : वि० [हिं० चौ+लड़] [स्त्री० चौ-लड़ी] जिसमें चार लड़ या मालाएँ हो। जैसे–चौ–लड़ा झुमका या हार।
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चौअन  : वि० पुं०=चौवन।
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चौआ  : पुं० [सं० चतुष्पाद] गाय, बैल, भैंस, आदि पशु। चौपाया। वि० [हिं० चौ चार] जिसमें चार हों। चार से युक्त। पुं० १. हाथ की चार उँगलियों का समूह। २. चौड़े बल में अँगूठे को छोड़कर बाकी चार उँगलियों का विस्तार जो नाप का एक मान है। ३. हाथ की उक्त चार उँगलियों को सटाकर उन पर लपेटा हुआ तागा। ४. ताश का वह पत्ता जिस पर चार बूटियाँ हों जैसे–पान का चौआ।
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चौआई  : स्त्री० चौवाई।
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चौआना  : अ० [हिं० चौकना] १. चकित या विस्मित होना। चकपकाना। २. चौंकना। ३. चौकन्ना या सतर्क होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौंक  : स्त्री०[हिं० चौंकना] चौंकने की क्रिया या भाव।
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चौक  : पुं० [सं० चतुष्क, प्रा० चउक्क, गु० पं० बँ० मरा० चौक, उ० चौका, सि० चउकु, चौको] १. कोई ऐसी चौकोर जमीन जो ऊपर से बिलकुल खुली हो। २. मकान के अन्दर का चारों ओर से घिरा और ऊपर से खुला स्थान। आँगन। सहन। जैसे–इस मकान में दो चौक हैं। ३. कोई ऐसा चौकोर तल जो चारों ओर से सीमित, परन्तु ऊपर से खुला हो। जैसे–यज्ञ की वेदी। ४. उक्त के आधार पर कर्मकांड में या मांगलिक अवसरों पर अबीर, आटे, गुलाब आदि से बनाई जानी वाली वह विशिष्ट आकृति जिसमें बहुत से खाने या घर और रेखाएँ या लकीरें बनी रहती है। मुहावरा–चौक पूरना अबीर, आटे आदि से उक्त प्रकार की आकृतियाँ बनाना। ५. चौसर खेलने की बिसात जो प्रायः उक्त आकार-प्रकार की होती है। ६. नगर या बस्ती का वह चौकोर मध्यभाग जो कुछ दूर तक बिलकुल खुले मैदान की तरह रहता है। ७. उक्त के आस-पास या चारों ओर के बाजार और मकान जो एक मुहल्ले के रूप में होते हैं। ८. मकानों के संबंध में प्रयुक्त होनेवाला संख्या-सूचक शब्द। अदद। जैसे–शहर में उनके तीन चौक मकान है। ९. चौमुदनी। चौराहा। १॰. चार चीजों या बातों का समूह। जैसे–दाँतों का चौक ठीक सामने के (दो ऊपर के और दो नीचे के) चार दाँत। उदाहरण–दसन चौक बैठे जनु हीरा।–जायसी। पद–चारों चौक (क) चारों ओर या चारों कोनों से। (ख) हर तरह से बिलकुल ठीक, पक्का या बढिया। उदाहरण–पुनि सोरहो सिंगार जस चारिहु चउक (चौक) कुलीन।–जायसी। ११. स्त्रियों के गर्भ-धारण के आठवें महीने होनेवाला सीमंत कर्म नामक संस्कार। अठमासा। अठवाँसा।
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चौक-गोभी  : स्त्री० [हिं० गोभी] एक प्रकार की गोभी।
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चौकठा  : पुं०=चौखटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौकड़  : वि० [हिं० चौ+सं० कलाअंग, भाग] अच्छा। बढ़िया। (बाजारू) जैसे–चौकड़ माल।
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चौकड़याऊ  : पुं० [?] बुदेलखंड में होली के दिनों में गाया जानेवाला एक प्रकार का गीत।
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चौंकड़ा  : पुं० [देश०] करील का पौधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौकड़ा  : पुं० [हिं० चौ+कड़ा] १. कान में पहनने की बाली जिसमें दो दो मोती हों। २. फसल में का चौथा भाग जो जमींदार का होता है। ३. दे० ‘चौघड़ा’।
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चौकड़ी  : स्त्री० [हिं० चौक(चार चीजों का समूह) का स्त्री०] १. एक में बँधी या लगी हुई एक ही तरह की चार चीजों का वर्ग या समूह। घोड़ों दाँतों या मोतियों की चौकड़ी। पद–चंडाल चौकड़ी=चार अथवा चार के लगभग गुडो़, बदमाशों या लुच्चों का वर्ग या समूह। २. वह गाड़ी जिसके आगे चार घोड़े या बैल अथवा ऐसे ही और पशु जुतकर खींचते हों। ३. गले में पहनने का एक प्रकार का गहना जिसमें चार-चार चौकोर खंड एक साथ पिरोये या लगे रहते हैं। ४. कालमान की सूचना के लिए चार युगों या समूह। चतुर्युगी। ५. बैठने का वह ढंग या प्रकार जिसमें दोनों पैरों और दोनों जाँघों के नीचेवाले भाग जमीन पर समतल रूप से लगे रहते हैं। पलथी। पालथी। मुहावरा–चौकड़ी मारकर बैठना=उक्त प्रकार से आसन या जमीन पर बैठना। ६. चारपाई की वह बुनावट जिसमें चार-चार डोरियाँ इकट्ठी और एक साथ बुनी जाती हैं। ७. हिरन की वह चाल या दौड़ जिसमें वह चारों पैर एक साथ जमीन पर उठाकर कूदता य छलाँग मारता हुआ आगे बढता है। क्रि० प्र०–भरना। मुहावरा–(किसी की) चौकड़ी भूल जाना=तेजी से आगे बढ़ते रहने की दशा में सहसा बाधा, विपत्ति आदि आने पर इतन घबड़ा जाना कि यह समझ में न आवे कि अब क्या उपाय करना चाहिए अथवा कैसे आगे बढ़ना चाहिए। ८. वास्तु रचना में, मंदिर की चौकी या मंडप का वह ऊपरी भाग या शिखर जो प्रायः चार खंभों पर स्थित रहता है।
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चौंकना  : अ० [?] १. एकाएक किसी प्रकार की आहट, ध्वनि या शब्द सुनकर कुछ उत्तेजित तथा विकल हो उठना। २. सहसा कोई भयभीत करनेवाली बात सुनकर अथवा वस्तु या व्यक्ति को देखकर घबरा जाना। ३. स्वप्न में कोई विलक्षण या भीषण बात, वस्तु आदि देखने पर एका-एक घबराकर जाग उठना। ४. किसी प्रकार की अहित संबंधी अप्रत्याशित सूचना मिलने पर चौंकन्ना या सतर्क होना। ५. आशंका, भयआदि से सहमना या काँपने लगना। ६. बिदकना। भड़कना। जैसे–चलते-चलते घोड़े का चौंकना।
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चौकनिकास  : पुं० [हिं० चौक+निकास] चौक (बाजार) में बैठनेवाले दूकानदार से लिया जाने वाला कर।
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चौकन्ना  : वि० [हिं० चौ=चारों ओर+कान] १. (जीव) जो कान लगाकर चारों ओर की आहट लेता रहे। जैसे–चौकन्ना कुत्ता। २. (व्यक्ति) जो चारों ओर होनेवाले कार्यों या बातों विशेषतः अपने विरुद्ध होनेवाले कार्यों या बातों का ध्यान रखता हो ३. हर तरह से किसी प्रकार की विपत्ति, संकट आदि का सामना करने को प्रस्तुत। (एलर्ट) ४. जो सतर्क या सावधान रहता हो। जैसे–चौकन्ने कान, चौकन्नी आँखें। ५. चौंका हुआ। सशंकित।
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चौकरी  : स्त्री०=चौकड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौकल  : पुं० [सं०] पिंगल में चार मात्राओं के समूह की संज्ञा। इसके पाँच भेद हैं। यथा-(ऽऽ, ॥ऽ, ।ऽ।,ऽ॥ और ॥)
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चौकस  : वि० [हिं० चौचार+कसकसा हुआ] [भाव० चौकसी] १. चारों ओर से अच्छी तरह कसा हुआ। २. जो अपनी अथवा किसी की रक्षा के लिए पूर्णतः सचेत हो। चौकसी करनेवाला। ३. ठीक। दुरुस्त। जैसे–चौकस माल।
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चौकसाई  : स्त्री०=चौकसी।
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चौकसी  : स्त्री० [हिं० चौकस+ई (प्रत्यय)] १. चौकस होने की अवस्था या भाव। २. किसी की रक्षा के लिए उस पर सूक्ष्म दृष्टि रखने का कार्य या भाव।
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चौका  : पुं० [सं० चतुष्क, प्रा.चउक्क,हिं०चौक] १. एक ही तरह की चार चीजों का वर्ग या समूह। जैसे–अँगोछों का चौका (एक साथ बुने हुए चार अँगोछे), दांतों का चौका (अगले दो ऊपरी और दो नीचे के दाँत) मोतियों का चौका (एक साथ पिरोये हुए चार मोती)। २. एक प्रकार का जंगली बकरा जिसके चार सींग होते हैं। चौसिघा। ३. ताश का वह पत्ता जिस पर चार बूटियाँ होती हैं। चौआ। जैसे–पान या हुकुम का चौका। ४. किसी प्रकार चौकोर कटा हुआ ठोस, भारी और बड़ा टुकड़ा। जैसे–पत्थर या लकड़ी का चौका। ५. एक प्रकार का चौकोर ईट। ६. पत्थर या लकड़ी का गोलाकार टुकड़ा जिस पर रोटी बेलते हैं। चकला। ७. रसोई बनाने और बैठकर भोजन करने का स्थान जो पहले प्रायः चौकोर हुआ करता था। रसोई बनाने से पहले और भोजन कर चुकने के बाद उक्त को धो-पोछकर अथवा गोबर मिट्टी आदि से लीप-पोतकर की जानेवाली सफाई। क्रि० प्र०–करना।–लगाना। पद-चौका बरतन रसोई बनने और भोजन होने के बाद चौका धोकर साफ करने और बरतन माँज-धोकर रखने का काम। जैसे–वह मजदूरनी चार घरों का चौका-बरतन करती है। ९. किसी स्थान को पवित्र और शुद्ध करने के विचार से गोबर, मिट्टी आदि से पोतने या लीपने की क्रिया या भाव। जैसे–आज यहीं पूजन (या हवन) होगा, इसलिए यहाँ जरा चौका लगा दो। क्रि० प्र०–लगाना। मुहावरा–चौका देना, फेरना या लगाना=किसी काम या बात को बुरी तरह से चौपट या नष्ट करना। (परिहास और व्यंग्य) जैसे–तुमने जरा सी भूल करके बने-बनाये काम पर चौका फेर या लगा दिया। उदाहरण–कियो तीन तेरह सबै चौका चौका लाय।–भारतेंदु। पद–चौके की राँडवह स्त्री जो विवाह के कुछ दिन बाद ही विधवा हो गई हो। १॰.सिर के पिछले भाग में बाँधा जानेवाला चौक या सीसफूल नाम का अर्ध गोलाकार गहना। ११. एक प्रकार का मोटा कपड़ा जो मकानों के चौक में (या फर्श पर) बिछाया जाता है। १२. एक प्रकार का पात्र या बरतन जिसमें अलग-अलग तरह की चीजें (जैसे–नमक, मिर्च, मसाले या साग, भाजी, रायता आदि) रखने के लिए अलग-अलग कटोरे या खाने बने होते हैं। चौघड़ा।
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चौका-विधि  : स्त्री० [हिं० चौका+सं० विधि] कबीर-पंथियों की एक शाखा में प्रचलित एक कर्मकांडीय विधान जिसमें कुछ निश्चित तिथियों या वारों को दिन भर उपवास करके रात को आटे के बनाये हुए चतुर्भुज क्षेत्र की पूजा होती है।
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चौंकाना  : स० [सं० चौंकना] १. कोई ऐसा काम करना या बात कहना जिसे सहसा देख अथवा सुनकर कोई चौंक उठे। २. संभावित अहित, क्षति या हानि की सूचना किसी को देना और उसे उससे बचने के लिए सतर्क तथा सावधान करना। ३. भड़कना।
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चौकिया-सोहागा  : पुं० [हिं० चौकी+सोहागा] छोटे-छोटे टुकड़ों में कटा हुआ सोहागा जो औषध के लिए विशेष उपयुक्त होता है।
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चौकी  : स्त्री० [सं० चतुष्किका, प्रा० चौक्किआ, गु० चौकी, ने० चौकि, उ० पं० बँ० मरा, सि० चौकी] १. लकड़ी धातु या पत्थर का वह (छोटा या बड़ा) आयताकार आसन जो चार पावों पर कसा या जड़ा रहता है। २. मंदिर के मंडप के नीचे की चौकोर भूमि। ३. किसी पवित्र स्थान पर विराजमान किसी देवी देवता या महापुरुष को चढ़ाई जानेवाली भेंट। मुहावरा–चौकी भरना=किसी देवी या देवता के दर्शनों का मन्नत पूरी करने के लिए उक्त प्रकार के किसी स्थान पर जाना और वहाँ पूजन करके कुछ भेंट चढ़ाना। ४. कुरसी। (क्व०) ५. गले में पहनने का एक प्रकार का गहना जिसमें कई छोटे-छोटे चौकोर खंड एक साथ पिरोये रहते हैं। जगनी। पटरी। ६. वह स्थान जहाँ पहरेदार चौकी बिछा कर बैठते या विश्राम करते हों। ७. पहरा। रखवाली। क्रि० प्र०–बैठना या बैठाना। ८. नगर के बाहरी भाग में का वह स्थान जहाँ कुछ अधिकारी या कर्मचारी व्यवस्था, सुरक्षा आदि के लिए नियत रहते हों। जैसे–चुंगी, पुलिस या सेना की चौकी। मुहावरा–चौकी जाना=दुराचारिणी या पुंश्चली स्त्रियों का संभोग कराने तथा धन कमाने के लिए उक्त स्थान पर जाना। चौकी भरना=अपनी बारी आने पर घूम-घूमकर पहरा देना। ९. रक्षा आदि के लिए किया जानेवाला जादू या टोना। १॰. उक्त के आधार पर, रास्ते में पैदल यात्रियों के ठहरने का स्थान। अड्डा। पड़ाव। ११. खेत की पैदावार बढ़ाने के लिए उसमें इस उद्देश्य से रात भर भेड-बकरियों को रखवाना कि वहीं वे मल-मूत्र त्यागें। १२. तेलियों के कोल्हू की एक विशिष्ट लकड़ी। १३. पूरी, रोटी आदि बेलने का गोलाकार चकला। १४. शहनाई और उसके साथ बजनेवाले बाजे। रोशनचौकी। जैसे–आज तो उनके दरवाजे पर चौकी (या हो रही) है। १५. रोशनचौकीवालों के द्वारा एक बैठक में बजाई जानेवाली चीजें। (गीत या धुन) जैसे–एक चौकी और बजा दो तो तुम्हारी छुट्टी हो जाय। क्रि० प्र०–बजाना। १६. प्रासादों, मंदिरों का प्रवेश द्वार जहाँ या जिसके ऊपर शहनाई बजानेवाले बैठते हैं।
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चौकी-घर  : पुं० [हिं० चौकीपहरा+घर] वह छोटा सा छाया हुआ स्थान जहाँ चौकीदार पहरा देने के समय धूप, वर्षा आदि से बचने के लिए खड़ा रहता है।
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चौकी-दौड़  : स्त्री० [हिं०] कई दलों में प्रतियोगिता के रूप में होनेवाली एक प्रकार की दौड़ जिसमें दल के हर आदमी को थोड़ी-थोड़ी दूर पर बनी हुई चौकियों पर नये दौड़ाक को प्रतीक रूप में एक डंडा सौंपना पड़ता है। (रिलेरेस)।
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चौकीदार  : पुं० [हिं० चौकी+फा० दार] १. किसी स्थान पर चौकी-पहरे का काम करने का कर्मचारी। २. राज्य द्वारा नियुक्त पुलिस विभाग का एक निम्न कर्मचारी जो गाँव-देहात में पहरा देता है। ३. जुलाहों का वह खूँटा जिसमें भाँज की डोरी फँसा या बाँधकर रखते हैं।
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चौकीदारी  : स्त्री० [हिं०] १. चौकीदार का काम। रखवाली। २. चौकीदार का पद। ३. गाँव-देहातों में लगनेवाला वह कर जो चौकीदार का वेतन देने के लिए लगाया जाता है।
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चौकुर  : पुं० [हिं० चौचार+कुरा] खेत की फसल बाँटने का वह प्रकार जिसमें एक हिस्सा जमीदार को और तीन हिस्सा काश्तकार को मिलता है।
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चौकोन, चौकोना  : वि० [सं० चतुष्कोण, परा० चउक्कोण] [स्त्री० चौकोनी] १. जिसके या जिसमें चार कोण हों। २. चार कोनोंवाला। चौखूँटा।
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चौकोर  : वि० [सं० चतुष्कोण, प्रा० चउक्कोण, चउक्कोड़] १. (वस्तु या क्षेत्र) जिसके चारों पार्श्व बराबर हों। २. दे० सम ‘चतुर्भुज’। ३. हर तरह से ठीक और दुरस्त। पुं० क्षत्रियों की एक शाखा।
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चौक्ष  : वि० [सं० चुक्षा+ण] १. निर्मल। स्वच्छ। २. प्रिय या लुभावना। ३. चोखा।
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चौखट  : स्त्री० [हिं० चौचार+काठ] १. चार लकड़ियों का वह चौकोर ढाँचा जो दरवाजे के पल्ले सकने के लिए दीवार में लगाया जाता है। २. उक्त ढाँचे की ऊपर या नीचे वाली लकड़ी। जैसे–चौखट से सिर (या पैर) में चोट लगी है।
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चौखटा  : पुं० [हिं० चौखट] १. चौखट के आकार का वह चौकोर छोटा ढाँचा जो चित्र, शीशे आदि के चारों ओर उसकी सुरक्षा तथा शोभा के लिए मढ़ा जाता है। २. उक्त प्रकार का कोई चौकोर वस्त्र जिसके बीच का भाग किसी विशिष्ट कार्य के लिए खाली रहता है।
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चौखंड, चौखंडा  : वि० [हिं० चौ(चार)+सं० खंड] १. जिसके चार खंड और विभाग हों। २. जो चार खंडों में विभक्त हो। पुं० १. चार खंडों या तल्लोंवाला मकान। २. उक्त मकान का सबसे ऊपर वाला अर्थात् चौथा खंड या तल्ला। ३. एक मकान जिसमें चार चौक हों। (क्व०)।
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चौखना  : वि० [हिं० चौखंड] चौखंडा या चौमंजिला। (मकान)।
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चौखा  : पुं० [हिं० चौ+खाई] वह स्थान जहाँ पर चार-गाँवों की सीमाएँ मिलती हों।
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चौखाना  : वि० पुं०=चारखाना।
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चौखानि  : स्त्री० [हिं० चौ=चार+खानि (जाति या प्रकार)] अंडज, पिंडज, स्वेदज और उद्भिज ये चार प्रकार के जीव।
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चौखूँट  : पुं० [हिं० चौ+खूँट] १. चारों दिशाएँ। २. सारी पृथ्वी मंडल। क्रि० वि० १. चारों ओर। २. सब ओर। वि०=चौखूँटा।
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चौखूँटा  : वि० [हिं० चौ+खूँट] जिसमें चार कोने हों। चतुष्कोण। चौकोर।
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चौगड़ा  : पुं० [हिं० चौ+गोड़पैर] १. खरगोश। खरहा। २. चौघड़ा। वि० चार पैरोंवाला (पशु)।
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चौगड्डी  : स्त्री० [हिं० चौ+गड्डा] जानवर फँसाने का बाँस की फट्टियों का चौकोर ढाँचा।
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चौगान  : पुं० [फा०] १. गेंद-बल्ले का एक प्रकार का पुराना खेल जो आज-कल के हाकी खेल से बहुत कुछ मिलता जुलता होता था। यह खेल घोड़ों पर चढ़कर भी खेला जाता था। २. वह मैदान जिसमें उक्त खेल खेला जाता था। ३. उक्त खेल खेलने का बल्ला जिसका अगला भाग कुछ झुका हुआ होता था। ४. नगाड़ा बजाने की लकड़ी। ५. किसी प्रकार की प्रतियोगिता का स्थान।
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चौगानी  : स्त्री० [फा० चौगान ?] हुक्के के ढाँचे की वह सीधी नली जिससे धुआँ खींचा जाता है। निगाली। वि० चौगान संबंधी।
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चौगिर्द  : क्रि० वि० [हिं० चौ+फा० गिर्द=तरफ] (किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान के) चारों ओर। चारों तरफ।
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चौगुड्ढा  : पुं० [हिं० चौ+गड्डबड्ड=मेल] १. चार चीजों का वर्ग या समूह। २. एक गाँव चार गाँवों की सीमाएँ मिली हों। चौहद्दी। चौसिंहा। चौखा।
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चौगुन,चौगुना  : वि० [सं० चतुर्गुण, प्रा० चउगुण] [स्त्री० चौगुनी] मान, मात्रा में जितनी कोई वस्तु, शक्ति आदि हो उस जैसी चार वस्तुओं या शक्तियोंवाला। जैसे–शारीरिक क्षमता में वह आप से चौगुने तो हैं ही। मुहावरा–(किसी का मन) चौगुना होना=बहुत अधिक उत्साह या प्रसन्नता बढ़ना।
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चौगून  : स्त्री० [हिं० चौगूना] १. चौगूना होने का भाव। २. गाना या बजाना आरम्भ करते समय जिस गति से गाया या बजाया जाता है, अन्त में उससे चौगुनी गति में और चौथाई समय में उसे गाने या बजाने का प्रकार।
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चौगोड़ा  : वि० [हिं० चौ+गोड़पैर] चार पैरोंवाला। जिसके चार गोड़ हों अर्थात् पशु।
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चौगोड़िया  : स्त्री० [हिं० चौ+गोड़=पैर] १. वह ऊँची चौकी जिस पर चढ़ने के लिए उसके पाँवों में सीढ़ियों सदृश डंडे लगे हों २. चिड़ियों को फँसाने का बाँस की तीलियों का एक प्रकार का ढाँचा।
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चौगोशा  : पुं० [हिं० चौ+फा० गोशा] एक प्रकार की चौखूँटी तश्तरी जिसमें मेवें, मिठाइयाँ आदि रखकर कहीं भेजते हैं।
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चौगोशिया  : वि० [हिं० चौ=चार+फा०=गोशा=कोना] चार कोनोंवाला। जिसमें चार कोने या सिरे हों। स्त्री० पुरानी चाल की एक प्रकार की टोपी जो चार तिकोने टुकड़ों को सीकर बनाई जाती थी। पुं० तुरकी घोड़ा।
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चौघड़  : पुं० [हिं० चौ=चार+दाढ़] दोनों जबड़ों के चारों सिरों पर होनेवाले एक-एक चिपटे तथा चौड़े दांतों की सामूहिक संज्ञा। चौभड़।
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चौघड़ा  : पुं० [हिं० चौ=चार+घर=खाना] १. वह डिब्बा या बरतन जिसमें अलग-अलग कामों के लिए चार अलग-अलग खाने या घर बने हों। जैसे–नमक मिर्च आदि रखने या तरकारी-भाजी आदि परोसने का चौघड़ा, दीवाली में मिठाइयाँ, धान का लावा आदि रखने का चौघड़ा। २. वह दीवट जिसमें चारों ओर जलाने के लिए चार दीये या बत्तियाँ रखी जाती हैं। ३. पत्ते में खोंसकर एक साथ बाँधे हुए पान के चार बीड़े। जैसे–दो चौघड़े पान लेते आना। ४. चौडोल नाम का बाजा। ५. बड़ी जाति की गुजराती (या छोटी) इलायची जो प्रायः चौकोर सी होती है।
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चौघडिया  : वि० [हिं० चौ=चार+घड़ी+इया(प्रत्य)] चार घड़ियों का। चार घड़ी संबंधी। जैसे–चौघडियाँ मुहुर्त निकालनेवाला। स्त्री० चौकी जिस पर खड़े होकर दीवारों आदि पर चूना आदि छूआ जाता है।
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चौघड़िया मुहुर्त  : पुं० [हिं० चौघड़िया+सं० मुहुर्त] वह मुहुर्त जो कोई आकस्मिक किन्तु आवश्यक कार्य या यात्रा के लिए एक दो दिन के अन्दर ही निकाला जाता है। और जो दो-चार घड़ी तक ही रहता है।
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चौघड़ी  : वि० [हिं० चौ+घेरा] जिसकी अथवा जिसमें चार-तहें या परतें हों।
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चौघर  : वि० [देश०] घोड़ों की सपाट चाल। चौफाल। पोइयाँ। सरपट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० दे० ‘चौघड़’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौचंद  : पुं० [हिं० चौथ+फा० चंद वा चबाव+चंड] १. कलंक-सूचक चर्चा। अपवाद। बदनामी। २. शोर। हल्ला। ३. क्रीड़ा।
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चौंचंदहाई  : वि० स्त्री० [हिं० चौचंद+हाई(प्रत्य०)] (स्त्री) जिसे दूसरों की निंदा करने का व्यसन हो।
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चौंचा  : पुं० [हिं० चौ+फा० चह] सिंचाई के लिए पानी एकत्र करने का गड्ढा।
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चौज  : वि० [हिं० चोज ?] सुन्दर। अच्छा। उदाहरण–सूणिबाई! बचन तै कह्या चौज।–नरपतिनाल्ह। पुं० दे० ‘चोज’।
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चौजुगी  : स्त्री० [हिं० चौ+सं० युग] चार युगों का काल। वि० चारों युगों में होने अथवा उन सबसे संबंध रखनेवाला। स्त्री० सतयुग, द्वापर, त्रेता कलियुग इन चारों युगों का समूह।
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चौंटना  : स० [हिं० चुटकी] हाथ की चुटकी से फूल आदि तोड़ना। चोंटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चौंटली  : स्त्री० [सं० चूड़ाला या श्वेतोच्चटा] सफेद घुँघची। श्वेत। चिरभिटी।
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चौठी  : स्त्री० [सं० चतुर्थ] लबनी (ताड़ी का बर्तन) का चतुर्थाश।
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चौड़  : पुं० [सं० चूड़ा+अण्] चूड़ाकरण संस्कार। वि० चौपट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौड़-कर्म(न्)  : पुं० [कर्म० स०] चूड़ाकर्म। मुंडन।
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चौंड़ा  : पुं० [सं० चुंड़ा] १. वह स्थान जहाँ मोट का पानी गिराया जाता है। २. दे० चोड़ा। पुं० चोंड़ा (स्त्रियों के सिर के बाल)।
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चौड़ा  : वि. [सं० चृद् (?) चतर(चडर>>]चडड); दे० प्रा० चाऊड, बं० उ० पं० चौड़ा, गुं० चोड़ूँ, मरा० चौडे] [स्त्री० चौड़ी, भाव.चौड़ाई] १.जिसके दोनों पार्श्वों के बीच में अधिक विस्तार हो। लंबाई के बल में नहीं, बल्कि उसके विपरीत बल में अधिक विस्तृत। जैसे–चौड़ी नहर। २. जो सँकरा न हो बल्कि खुलता हो। जैसे–चौड़ी गली। पुं० [सं० चुरा] अनाज रखने का गड्ढा।
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चौड़ाई  : स्त्री० [हिं० चौड़ा+ई(प्रत्य)] १.चौड़े होने की अवस्था या भाव। २. वह मान जिससे यह पता चलता हो कि कोई वस्तु कितनी चौ़ड़ी है। जैसे–कपड़े की चौड़ाई दो गज है।
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चौड़ान  : स्त्री० [हिं० चौड़ा+आन (प्रत्य)] चौड़ाई (दे०)।
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चौड़ाना  : स० [हिं० चौड़ा] १. चौड़ा करना। फैलाना। २. व्यर्थ का विस्तार करना। जैसे–बात दौड़ाना। अ० चौड़ा होना। उदाहरण–नद चौड़ात चले आगैं नित आवैं।–रत्नाकर।
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चौड़ाव  : पुं०=चौड़ाई। (दे०)
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चौड़े  : क्रि० वि० [हिं० चौड़ा] खुले आम। सब के सामने। उदाहरण–कोई कहै छाने कोई कहै चौड़े लियोरी बजंता ढोल।–मीराँ।
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चौडोल  : पुं० १. दे० चंडोल (सवारी) । २. दे० ‘चौघड़ा’। (बाजा)।
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चौतग्गा  : पुं० [हिं० चौ+तागा] वह डोरा जिसमें चार तागे एक साथ बटे गये हों।
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चौतनिया  : स्त्री०=चौतनी।
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चौतनी  : स्त्री० [हिं० चौ=चार+तनी=बंद] १. पुरानी चाल की बच्चों की टोपी जिसमें चार तनियाँ या बंद लगते थे। २. अंगिया। चोली।
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चौतरका  : पुं०[हिं०चौ+तड़कलकड़ी धरन] एक प्रकार का खेमा या तंबू।
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चौंतरा  : पुं०=चबूतरा।
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चौतरा  : पुं० [हिं० चौ+(चार)+तार] सांरगी की तरह का एक बाजा जिसमें चार तार लगे होते हैं। वि० चार चारोंवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चबूतरा।
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चौतरिया  : स्त्री० [हिं० चौतरा] छोटा चबूतरा। वि० चार तारोंवाला।
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चौतही  : स्त्री० [हिं० चौ=चार+तह] एक प्रकार का मोटा और बहुत लंबा खेस जो चार तह करके ओढ़ा बिछाया जाता है। चौतरा।
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चौतार  : पुं० [सं० चतुष्पद] चौपाया। उदाहरण–व्यंडै होइ तौ पद की आसा, बंनि निपजै चौतारं।–गोरखनाथ।
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चौताल  : पुं० [हिं० चौ+ताल] १. मृदंग बजाने का एक प्रकार का ताल जिसमें चार आघात और दो खाली होते हैं। २. उक्त ताल पर गाया जानेवाला कोई गीत।
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चौताला  : पुं० [हिं० चौताला] संगीत में वह ताल जिसमें चार ताल होते हैं।
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चौताली  : स्त्री० [देश०] कपास के पौधे की कली जिसमें से रूई निकलती है। ढेंढ़ी। डोंडा।
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चौंतिस  : वि० [सं० चतुस्त्रिशत्प् प्रा० चतुत्तिंसो, पा० चउतीसो] जो गिनती में तीस और चार हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–३४।
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चौंतिसवाँ  : वि० [हिं० चौंतिस+वाँ (प्रत्य)] क्रम या गिनती में चौतिस के स्थान पर पड़नेवाला।
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चौंतीस  : वि० पुं० चौंतिस।
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चौतुका  : वि० [हिं० चौ+तुक] जिसमें चार तुक हो। पुं० एक प्रकार का छन्द जिसमें चारों चरणों में अनुप्रास होते अथवा तुक मिलते हैं।
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चौथ  : स्त्री० [सं० चतुर्थी, प्रा० चउत्थि, हिं० चउथि] १. चौथाई अंश या भाग। चतुर्थांश। २. मराठी, शासन काल का एक प्रकार का कर जो अधीनस्थ भू-खंडों से उनकी आय के चतुर्थाश के रूप में लिया जाता था। ३. चांद्रमास के प्रत्येक पक्ष की चौथी तिथि। चतुर्थी। पद-चौथ का चाँदभाद्र शुक्ल चतुर्थी का चंद्रमा जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि इसे देखने से झूठा कलंक लगता है। वि० चौथा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौथपन  : पुं० [हिं० चौथा+पन] १. मनुष्य के जीवन की चौथी अवस्था। संन्यास आश्रम में रहने का समय। २. बुढापा। वृद्धावस्था।
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चौथा  : वि० [सं० चतुर्थ, प्रा० चउत्थ] [स्त्री० चौथी] क्रम या गिनती में चार की जगह पड़नेवाला। पुं० कुछ बिरादियों में मृतक की मृत्यु के चौथे दिन होनेवाला एक सामाजिक कृत्य जिसमें आपस-दारी के लोग एकत्र होकर मृतक के पुत्र अथवा विधवा को कुछ धन या वस्त्र देते हैं।
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चौथाई  : पुं० [हिं० चौथा+ई (प्रत्य०)] किसी वस्तु के चार सम अंशों या भागों में से कोई एक अंश या भाग। चौथा भाग।
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चौथि  : स्त्री०=चौथ।
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चौथिआई  : पुं०=चौथाई।
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चौथिया  : पुं० [हिं० चौथा] १. हर चौथे दिन अर्थात् तीन-तीन दिन के अन्तर में होनेवाला ज्वर। २. वह व्यक्ति जो किसी व्यवसाय, संपत्ति आदि के चौथे हिस्से का मालिक हो। चौथे हिस्से का हकदार।
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चौथी  : स्त्री० [हिं० चौथा] १. हिन्दुओं में विवाह के चौथे दिन होनेवाला एक रसम जिसमें वर और कन्या के हाथ के कंगन खोले जाते हैं। पद–चौथी का जोड़ा=वस्त्रों का वह कुलक जो वर के घर से कन्या के लिए चौथी के दिन आता है। मुहावरा चौथी के दिन दुल्हा-दलहिन का एक दूसरे के ऊपर मेवे, फल आदि फेंकना। चौथी छूटनाचौथी के दिन वर-कन्या के हाथों के कंगन खुलना। २. फसल का चौथाई अंश जो पहले जमींदार को मिला करता था।
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चौथैया  : पुं० [हिं० चौथाई] चौथाई अंश। चतुर्थांश्। स्त्री० एक प्रकार की छोटी नाव।
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चौदंत  : वि० [सं० चतुर्दंत्त] [स्त्री० चौदंती] १. चार दाँतोंवाला। जिसके चार दांत हों। २. (पशु) जिसके अभी चार ही दाँत निकले हों; फलतः जिसकी जवानी अभी आरंभ होने लगी हो। ३. छोटी उमर का और अल्हड़। पुं० एक प्रकार का हाथी।
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चौंदती  : स्त्री० [हिं० चौदंता] १. नव-यौवन के समय का अल्हड़पन। २. ढिठाई। धृष्टता। ३. अक्खड़पन। उद्दंडता।
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चौदश  : स्त्री०=चौदस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौदस  : स्त्री० [सं० चतुर्दशी, प्रा० चउद्दशि] चांद्रमास के कृष्ण या शुक्ल पक्षी की चौदहवीं तिथि। चतुर्दशी।
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चौदह  : वि० [सं० चतुर्दश, प्रा० चउद्दश, अप० पा० चउद्दह] जो गिनती में दस से चार अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–१४।
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चौदहवाँ  : वि० [हिं० चौदह+वाँ(प्रत्य०)] क्रम या गिनती में चौदह के स्थान पर पड़नेवाला। पद–चदहवीं रात का चाँद (क) शुक्ल पक्ष की चौदस की रात का चाँद। (ख) बहुत ही सुन्दर व्यक्ति।
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चौदा  : पुं०=चौना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौदाँत  : वि० [हिं० चौ=चार+दाँत] (दो हाथी) जिनके दाँत लड़ने के लिए आपस में आमने-सामने आकर मिल गये हों। पुं० हाथियों की लडा़ई।
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चौदानिया  : स्त्री०=चौदानी।
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चौदानी  : स्त्री० [हिं० चौ=चार+दाना+ई (प्रत्य०)] १. कान में पहनने की एक प्रकार की बाली जिसमें चार पत्तियाँ लगी रहती हैं। २. कान की वह बाली जिसमें चार मोती पिरोये रहते हैं।
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चौदायनि  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्त्तक ऋषि।
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चौदावाँ  : वि० [हिं० चौ=चार+दाँव] जिसमें चार दावँ एक साथ लगते हों। पुं० जूए का वह खेल जिसमें चार दाँव एक साथ लगाये जाते हों।
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चौदौंआ, चौदौवाँ  : वि० पुं=चौदाँवा।
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चौंध  : स्त्री० [सं०√चक चमकना या चौं चारों ओर+अंध] प्रखर और प्रायः क्षणिक प्रकाश की वह स्थिति जिसे नेत्र सहसा सहन नहीं कर पाते और इसलिए क्षण भर के लिए मुँद जाते हैं। क्रौध। चकाचौंध।
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चौंधना  : अ० [हिं० चौंध] किसी वस्तु का क्षणिक किन्तु प्रखर प्रकाश से युक्त होना। कौंधना। चमकना।
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चौधरा  : पुं०=चौधड़ा।
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चौधराई  : स्त्री० [हिं० चौधरी] चौधरी होने की अवस्था, काम या पद। चौधरीपन।
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चौधरात  : स्त्री० [हिं० चौधरी] १. चौधराना। २. चौधराई।
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चौधराना  : पुं० [हिं० चौधरी] १. चौधरी का काम या पद। २. चौधरी का अधिकार या हक।
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चौधरानी  : स्त्री० [हिं० चौधरी] चौधरी की स्त्री।
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चौधरी  : पुं० [सं० चतुः+धर(=धरनेवाला)] [स्त्री० चौधरानी, चौधराइन] १. किसी वर्ग, संप्रदाय या समाज का प्रधान या क्षेष्ठ व्यक्ति। मुखिया। २. लाक्षणिक अर्थ में, वह व्यक्ति जो अगुआ होकर हर काम में हाथ डालता हो। विशेष–हमारे यहाँ प्रायः सभी जातियों और वर्गो में कुछ लोग चौधरी बना या मान लिये जाते थे, जो आपस के झगड़ों का निपटारा करते थे।
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चौधारी  : स्त्री० [हिं० चौ=चार+धारा] एक रंग का कपड़ा जिस पर दूसरे रंगो की आड़ी तथा बेड़ी धारियाँ या रेखाएँ छपी या बनी हुई हों।
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चौंधियाना  : अ० [हिं० चौंध] नेत्रो का, किसी वस्तु के चौंधने पर स्वतः पलकें झपकने लगना (जिसके कारण कोई चीज ठीक प्रकार से सुझाई नहीं पड़ती) स० ऐसा काम करना जिससे किसी की आँखे प्रकाश के कारण क्षण भर के लिए झपक या मुँद जाएँ। किसी की आँखों में चौंध उत्पन्न करना।
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चौंधियारी  : स्त्री० दे० ‘कस्तूरी’।
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चौंधी  : स्त्री०=चौंध।
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चौधोड़ी  : स्त्री० [हिं० चौ+घोड़ा] वह गाड़ी जिसमें चार घोड़े जोते-जाते हों। चौकड़ी।
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चौना  : पुं० [सं० च्यवन] वह ढालुआँ स्थान जिस पर चरस या मोट का पानी उँडेला जाता है।
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चौनावा  : वि० [हिं० चौ+नाव (रेखा)] [स्त्री० चौनावी] (शस्त्र आदि का वह फल) जिस पर चार नावें अर्थात् खाँचे या लंबे गड्ढे बने हों। जैसे–चौनावा खड्ग चौनावी तलवार।
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चौप  : पुं०=चोप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौपई  : स्त्री० [सं० चतुष्परी] १५ मात्राओं का एक प्रकार का छंद जिसके चरणों के अन्त में एक-एक लघु होता है।
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चौपखा  : पुं० [हिं० चौ=चार+सं० पक्ष, हिं० पाख] १. चारों ओर के पाखे या दीवारें। २. चहारदीवारी। परिखा।
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चौपग  : पुं० [हिं० चौ+पग] वह जिसके चार पैर हों। चौपाया।
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चौपट  : वि० [हिं० चौ=चार+पट=किवाड़ा, या हिं० चापट] १.चारों ओर से खुला हुआ; और फलतः अरक्षित। जैसे–घर के सब दरवाजे चौपट खुले छोड़कर चल दिये। २. (कार्य या वस्तु) जो नष्ट-भ्रष्ट हो गई हो। जैसे– उन्होंने सारा खेल (या मकान) चौपट कर दिया। ३. (व्यक्ति) जो बुरे संग-साथ के कारण बुरी आदतें सीखकर बिलकुल बिगड़ गया या भ्रष्ट हो चुका हो।
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चौपट चरण  : पुं० [हिं० चौपट+सं० चरण] वह व्यक्ति जिसके कहीं पहुँचने अथवा किसी काम में हाथ लगाने पर सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता हो। (परिहास और व्यंग्य)
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चौपटहा, चौपटा  : वि० [हिं० चौपट+हा (प्रत्य०)] १. किया-धरा काम चौपट करनेवाला। तोड़-फोड़ या नष्ट-भ्रष्ट करनेवाला।
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चौपड़  : स्त्री० [सं० चतुष्पट, प्रा० चउप्पट] १. चौसर (खेल और बिसात)। मुहा०–चौपड़-मँड़ना, मढ़ना या माँड़ना=चौपड़ खेलने के लिए बिसात बिछाना। २. खाट, पलंग आदि की बुनावट का वह प्रकार जिसमें चौसर की आकृति बनी होती है। ३. मन्दिर, महल आदि के आँगन की उक्त प्रकार की बनावट। जैसे–मन्दिर के चौपड़ में....भाले गड़वाये।–वृन्दावनलाल वर्मा।
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चौपड़  : पुं०=चौपाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौपत  : वि० [हिं० चौ=चार+परत] १. चार तहों या परतों में लगाया या लपेटा हुआ। २. जिसकी या जिसमें चार तहें हों। पुं० [?] पत्थर का वह टुकड़ा जिसकी कील पर कुम्हार का चाक रखा रहता है।
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चौपतना, चौपताना  : स० [हिं० चौपात] १. किसी चीज विशेषतः कपड़े आदि की चार तहें लगाना। २. लपेटकर तह लगाना।
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चौपतिया  : वि० [हिं० चौ+पत्ती] १. चार पत्तोंवाला। जिसमें चार पत्ते हों। २. जिसमें चार पत्तियाँ एक साथ दिखाई गई हों। जैसे–चौपतिया फूल, चौपतिया कसीदा। स्त्री० १. कसीदे, चित्रकला आदि में, ऐसी बूटी जिसमें तार पत्तियाँ बनी हों। २. एक प्रकार का साग। ३. एक प्रकार की। घास जो गेहूँ की खेती को हानि पहुँचाती है।
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चौपथ  : पुं० [सं० चतुष्पथ] १. चौराहा। चौमुहानी। २. वह पत्थर जिसकी कील पर कुम्हार का चाक रहता है।
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चौपद ( ा)  : पुं० [सं० चतुष्पद] १. चार पैरोंवाला पशु। चौपाया। २. एक प्रकार का छंद। चतुष्पद।
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चौपया  : पुं०=चौपाया।
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चौपर  : स्त्री०=चौपड़।
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चौपरतना  : स०=चौपतना।
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चौपल  : पुं०=चौपथ।
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चौपहरा  : वि० [हिं० चौ=चार+पहर] [स्त्री० चौपहरी] १. चार पहर का। चार पहर-संबंधी। २. चार-चार पहरों के अन्तर पर होनेवाला। ३. चारों पहर अर्थात हर समय (दिन भर या रात भर) होता रहनेवाला। जैसे–चौपहरी नौबत बजना।
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चौपहल  : वि० [हिं० चौ+फा० पहलू, सं० फलक] जिसके या जिसमें चार पहल या पार्श्व हों। जिसमें लंबाई, चौडाई और मोटाई हो। वर्गात्मक।
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चौपहला  : पुं०=चौपाल(डोला)। वि०=चौपहल।
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चौपहलू  : वि०=चौपहल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौपहिया  : वि० [हिं० चौ+पहिया] चार पहियोंवाला। जिसमें चार पहिये हों। जैसे–रेल-गाड़ी का चौपहिया डिब्बा। पुं० चार पहियोंवाली गाड़ी।
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चौपहिलू  : वि०=चौपहल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौपा  : पुं०=चौपाया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौपाई  : स्त्री० [सं० चतुष्पदी] चार चरणों का एक प्रसिद्ध मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं। स्त्री० चारपाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौपाया  : पुं० [सं० चतुष्पाद, चतुष्पदी, प्रा० चौप्पअ, चउपाइया, बँ० उ० चौपाया, सि० चौपाई, गु० चोपाई] ऐसा पशु जो चारों (दो अगले और दो पिछले) पैरों से चलता हो। जैसे–गाय, घोड़ा, हिरन, आदि। वि० जिसमें चार पाये या पावें हों।
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चौपार  : स्त्री०=चौपाल। उदाहरण–सब चौपारिन्ह चंदन खंभा।–जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौपाल  : पुं० [हिं० चौबार] १. ऊपर से छाया हुआ और चारों ओर से खुलता स्थान जहाँ देहात के लोग बैठकर बात-चीत, विचार-विमर्श आदि करते हैं। २. छायादार बड़ा चबूतरा। ३. देहाती मकानों के आगे का दालान या बरामदा। ४. एक प्रकार की पालकी जो ऊपर से छायादार पर चारों ओर से खुली हुई होती है।
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चौपुरा  : पुं० [हिं० चौ=चार+पुर=चरस+आ(प्रत्यय)] वह बड़ा कूआँ जिस पर एक साथ चार पुर या मोट चलते अथवा चल सकते हों।
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चौपेजी  : वि० [हिं० चौ (चार)+अं० पेज] १. चार पृष्ठोंवाला। २. (पुस्तकों आदि की छपाई में कागज) जिसके पूरे ताव को दो बार मोड़कर चार सम पृष्ठों में विभक्त किया गया हो। (क्वार्टो)
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चौपैया  : पुं० [सं० चतुष्पदी] एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३॰ मात्राएँ और अन्त में गुरु होता है।
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चौफला  : वि० [हिं० चौ+फल] चाकू या ऐसा ही और कोई धारदार (अस्त्र) जिसमें चार फल लगे हों।
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चौफुलिया  : वि० [सं० चार+फूल] १. (पौधा) जिसमें चार फूल एक साथ निकलते हों। २. (अंकन, चित्रण या रचना) जिसमें चार फूल एक साथ बने या बनाये गये हों।
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चौफेर  : क्रि० वि० [हिं० चौ+फेर] चारों ओर। चारों तरफ। वि० चार ओर फेरा या मोड़ा हुआ।
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चौफेरी  : स्त्री० [हिं० चौ+फेरा] १. चारों ओर लगाई जानेवाली फेरी। परिक्रमा। २. मुग्दर भाँजने का एक विशिष्ट प्रकार। क्रि० वि० चारों ओर।
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चौंबक  : वि० [सं० चुम्बक+अण्] १. चुंबक-संबंधी। चुबंक का। चुबंकीय। २. चुबक से युक्त। जिसमें चुंबक मिला या लगा हो।
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चौबगला  : पुं० [हिं०] १. कुरती, अंगे आदि में दोनों ओर बगल के नीचे और कली के ऊपर पड़नेवाला भाग। क्रि० वि० चारों ओर। वि० [स्त्री० चौबगली] जिसमें चार बगलें या पार्श्व हों।
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चौबगली  : स्त्री० [हिं० चौ+अ० बगल] बगलबंदी नाम का पहनावा।
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चौबच्चा  : पुं० चहबच्चा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौबंदी  : स्त्री० [हिं० चौ+बंदी] १. कोई चीज चारों ओर से बाँधने की क्रिया या भाव। जैसे–पल्ले की चौबंदी। २. पुरानी चाल का एक प्रकार का पहनावा जिसके दोनों तरफ दो-दो बंद लगते हैं। बगल-बंदी। ३. घोड़े के चारों सुमों में नाल जड़ने की क्रिया।
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चौबरदी  : स्त्री० [हिं० चौचार+बर्द] वह गाड़ी जिसमें चार बरद या बैल जुते या जुतते हों।
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चौबरसी  : स्त्री० [हिं० चौ+बरसी] १. वह उत्सव या कृत्य जो किसी घटना के चौथे बरस होता है। २. हिंदुओं में किसी मृतक की मरण तिथि से चौथे वर्ष होनेवाला श्राद्ध।
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चौबरा  : पुं० [हिं० चौचार+बखरा] जमींदार को मिलने वाला फसल में का चौथाई अंश।
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चौबंसा  : पुं० [सं०] एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक नगण और एक यगण रहता है।
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चौबा  : पुं० [स्त्री० चौबाइन] चौबे
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चौबाई  : स्त्री० [हिं० चौ+बाईहवा] १. चारों ओर से बहनेवाली हवा। २. चारों ओर फैलनेवाली खबर या होनेवाली धूम-धाम। ३. चारों ओर फैलनेनाली निन्दा या बदनामी।
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चौबाछा  : पुं० [हिं० चौचार+बाछनाकर या चटंदा वसूल करना] मुगल-शासन-काल में पाग (प्रति मनुष्य), ताग (प्रति बालक), कूरी (प्रति घर) और पूँछी (प्रति चौपाया) के हिसाब से लगनेवाला एक कर।
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चौबार  : पुं० चौबारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौबारा  : पुं० [हिं० चौ (चार)+बार (द्वार)] १. वह कमरा जिसमें चार विशेषतः चारों ओर एक-एक दरवाजा हो। २. मकान के ऊपरी तल्ले पर का कमरा जिसके चारों ओर प्रायः दरवाजे होते हैं। क्रि० वि० चौथी बार। जैसे–वे चौबारा भी आ सकते हैं।
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चौबाहा  : वि० [हिं० चौ+बाहना (जोतना)] खेत जो बोने से पहले चार बार जोता गया हो। पुं० चार बार खेत जोतने की क्रिया या भाव।
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चौबिस  : वि०=चौबीस।
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चौबीस  : वि० [सं० चतुविंशति; प्रा० चउवीस, चव्वीस, सिं० चोवीह; पं० चौबी] जो गिनती में बीस से चार अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।–२४।
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चौबीसवाँ  : वि० [हिं० चौबीस+वाँ] क्रम या गिनती में चौबीस के स्थान पर पड़नेवाला।
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चौबे  : पुं० [सं० चतुर्वेदी, प्रा० चउब्बेदी] [स्त्री० चौबाइन] व्रज-मंडल में रहनेवाले चतुर्वेदी ब्राह्मण।
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चौबोला  : पुं० [हिं० चौ+बोल] १५ मात्राओं का एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण के अंत में लघु-गुरु होता है।
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चौभड़  : स्त्री०=चौघड़ (दे०)
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चौभी  : स्त्री० [हिं० चोभना] हल में की वह लकड़ी जिसमें फाल जड़ा होता है।
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चौमंजिला  : वि० [हिं० चौ=चार+फा० मंजिल] (भवन) जिसमें चार मंजिले या तल्ले हों। चार खंडोवाला।
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चौमसिया  : वि० [हिं० चौमासा+इया(प्रत्य०)] १. चौमासे से संबंध रखनेवाला चौमासे का। २. चौमासे में होनेवाला।
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चौमहला  : वि० [हिं० चौ+महल] चार खंडो या तल्लोंवाला। चौमजिला (मकान)।
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चौमार्ग  : पुं० [सं० चतुर्मार्ग] चौरस्सा। चौमुहानी।
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चौमास  : पुं०=चौमासा।
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चौमासा  : पुं० [सं० चतुर्मास] १. वर्षाऋतु के चार महीने-आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, और आश्विन। चातुर्मास। २. उक्त ऋतु में गाया जानेवाला एक प्रकार का गीत। ३. किसी स्त्री के गर्भवती होने के चौथे महीने का कृत्य या उत्सव। वि० १. चातुर्मास में होनेवाला। २. चार महीनों में होनेवाला। वि० पुं० दे० ‘चौमसिया’ (तौल०)।
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चौमासी  : स्त्री० [हिं० चौमासा+ई(प्रत्यय)] बरसात में गाया जानेवाला एक प्रकार का श्रृंगारिक गीत। वि०=चौमासा।
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चौमुख  : क्रि० वि० [हिं० चौ=चार+मुख=ओर] चारों ओर। चारों तरफ। वि०=चौमुखा।
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चौमुखा  : वि० [हिं० चौ=चार+मुख-ओर] [स्त्री० चौमुखी] १. जिसके चारों ओर चार मुख हों। जैसे–चौमुखा दीया। मुहावरा–चौमुखा दीया जलाना=दीवाला निकालना। दिवालिया बनना। २. जो चारों अथवा सब ओर उन्मुक्त या प्रवृत्त हो। जैसे–चौमुखी लड़ाई।
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चौमुहानी  : स्त्री० [हिं० चौ=चार+फा० मुहाना] वह स्थान जहाँ से चारों ओर चार रास्ते जाते हों। चौरस्ता। चौराहा।
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चौमेखा  : वि० [हिं० चौचार+मेख] जिसमें चार मेंखे या कीले हों। चार मेखोंवाला। पुं० प्राचीन काल का एक कठोर दंड जिसमें अपराधी के प्राण लेने के लिए उसको जमीन पर चित्त लिटाकर उसकी हथेलियों और तलुए जमीन में इस प्रकार ठोंक देते थे कि वह उठ-बैठ या हिल-डुल नहीं सकता था।
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चौमेंड़ा  : पुं० [हिं० चौ=चार+मेंड़+आ (प्रत्य)] वह स्थान जहाँ पर चार खेतों की मेंड़े या सीमाएँ मिलती हों।
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चौंर  : पुं० [सं० चामर ?] १. पिंगल में मगण के पहले भेद (ऽ) की संज्ञा। २. भड़भाँड़ या सत्यानाशी नामक पौधे की जड़। पुं.१. चँवर। (देखें)। २. झालर। ३. किसी चीज का गुच्छा।
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चौर  : पुं० [सं० चुरा+ण] १. दूसरों की चीजें चुरानेवाला। चोर। २. चोर नामक गंध द्रव्य। ३. चोर-पुष्पी। पुं० [सं० चुड़ा ?] वह गड्ढा या ताल जिसमें बरसाती पानी इकट्ठा होता हो। खादर।
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चौर-चार  : स्त्री० [?] चहल-पहल (बुल्देल०) उदाहरण–बड़ी चौरचार होगी।–वृन्दावन लाल वर्मा।
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चौरई  : स्त्री०=चौराई।
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चौरंग  : वि० [हिं० चौ=चार+रंग] १. चार रंगोंवाला। चौरंगा। २. चारों ओर समान रूप से होनेवाला। ३. सब प्रकार से एक-जैसा। ४. तलवार से ठीक, पूरा या साफ कटा हुआ। पुं० तलवार चलाने का वह ढंग जिसमें कड़ी से कड़ी अथवा भारी से भारी चीज एक ही हाथ से ठीक और पूरी कट जाती अथवा मुश्किल वार एक ही हाथ में पूरा उतरता या सफल होता है।
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चौरंगा  : वि० [हिं० चौ+रंग] [स्त्री० चौरंगी] चार रंगोंवाला।
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चौंरगाय  : स्त्री०[हिं०चौंर+सं०गो] सुरागाय।
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चौरंगिया  : पुं० [हिं० चौ+रंग] मालखंभ की एक प्रकार की कसरत।
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चौरठ, चौरठा  : पुं०=चौरेठा।
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चौरस  : वि० [सं० चतुरस्र, प्रा० चउरस] १. जो चारों ओर से एक रस हो। सब तरफ से एक-जैसा। २. (स्थल) जिसके सब बिंदु एक समान ऊँचाई के हों। ३. जिसका ऊपरी तल सम हो, कहीं पर ऊँचा-नीच या ऊबड़-खाबड़ न हो। जैसे–चौरस जमीन। ४. चौपहल। पुं० १. ठठेरों का एक औजार जिसमें वे बरतनों का तल खुरचकर चौरस या सम करते हैं। २. एक प्रकार का वर्णृवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण और एक यगण होता है। इसको तनुमध्या भी कहते हैं।
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चौरसा  : वि० [हिं० चौ+रस] जिसमें चार प्रकार के रस या स्वाद हों। चार रसोंवाला। पुं० १. चार रुपए भर का बाट। २. मंदिर में ठाकुर या देवता की शय्या पर बिछाने की चादर।
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चौरसाई  : स्त्री० [हिं० चौरसाना] १. जमीन आदि चौरस करने या होने की अवस्था या भाव। चौरसपन। २. जमीन चौरस करने की पारिश्रमिक या मजदूरी।
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चौरसाना  : स० [हिं० चौरस] चौरस करना। बराबर करना। किसी वस्तु का तल चौरस या सम करना या बनाना।
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चौरसी  : स्त्री० [हिं० चौरस] १. बाँह पर पहनने का एक प्रकार का चौकोर गहना। २. अन्न रखने का कोठा या बखार।
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चौरस्ता  : पुं० [हिं० चौ+फा० रास्ता] वह स्थान जहाँ पर चार रास्ते मिलतें हों। अथवा चार ओर रास्ते जाते हों।=चौराहा।
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चौरहा  : पुं०=चौराहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौंरा  : पुं० [सं० चुंडगड्ढा] १. वह गड्ढा जिसमें सुरक्षा के लिए अन्न गाड़ा जाता है। २. ‘चौंड़ा’।
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चौरा  : पुं० [सं० चतुर, प्रा० चउर] [स्त्री० अल्पा० चौरी] १. चबूतरा। बेदी। २. चबूतरे या वेदी के रूप में बनी हुई वास्तुरचना जिसमें किसी देवी-देवता, भूत-प्रेत, अथवा मृत साधु-सन्त या सती-साध्वी का निवास माना जाता है और इसी लिए जिसकी पूजा की जाती है। पुं० [सं० चाभर] सफेद पूँछवाला बैल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] बोड़ा या लोबिया नाम की फली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०[सं० चुरा+ण–टाप्] गायत्री का एक नाम।
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चौराई  : स्त्री० [?] १. एक प्रकार का साग। चौलाई। मुहावरा–चौराई बाँटना=उदारतापूर्वक कोई चीज चारों ओर से देते या दिखाते फिरना। (बाजारू) २. एक प्रकार की चिड़ियां जिसके डैने चितकबरे, पूँछ ऊपर से लाल और नीचे से सफेद, गला मटमैले रंग का और चोंच तथा पैर पीले रंग के होते हैं। ३. एक रीति जिसमें किसी व्यक्ति को निमंत्रण देते समय उसके घर के द्वार पर हल्दी में रंगे हुए चावल रखे या छिड़के जाते हैं।
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चौरानयन  : पुं० [सं० चौर्य-आनयन] कर, दंड आदि से बचने के लिए कोई चीज चोरी से या छिपाकर एक देश या स्थान से दूसरे देश या स्थान में ले आना या ले जाना। (स्मगलिंग) जैसे–भारत और पाक की सीमा पर होनेवाला चौरानयन।
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चौरानवे  : वि० [सं० चतुर्नवर्ति, प्रा० चउष्णवइ] जो गिनती या संख्या में नब्बे से चार अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।–९४ ।
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चौंराना  : स० [सं० चौंर+आना (प्रत्यय)] १. किसी के ऊपर या चारों ओर चँवर डुलाना। चँवर करना। २. जमीन पर झाड़ देना या लगाना।
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चौराष्टक  : पुं० [सं० चौर–अष्टक, ब० स०] षाड़व जाति का एक संकर राग जो सबेरे के समय गाया जाता है।
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चौरासी  : वि० [सं० चतुशीति, प्रा० चउरासीइ] जो गिनती या संख्या में अस्सी से चार अधिक हो। पुं० १ उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।–८४। मुहावरा–चौरासी में पड़ना या भरमनाबार=बार जनमना और मरना। चौरासी लाख योनियों में एक-एक रूप छोड़कर और हर बार दूसरा रूप धारण कर आना-जाना। इस लोक में आत्मा का बार-बार आना-जाना। २. घुँघरुओं का वह गुच्छा जो नाचते समय पैर में पहनते हैं। ३. छोटा घुँघरु। ४. पत्थर काटने की एक प्रकार की टाँकी। ५. बढ़इयों की एक प्रकार की रुखानी।
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चौराहा  : पुं० [हिं० चौ=चार+राह=रास्ता] वह स्थान जहाँ चारों ओर से आनेवाले मार्ग मिलते हों अथवा चारों दिशाओं को मार्ग जाते हों। चौमुहानी। चौरस्ता।
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चौंरिंदी  : वि०=चउरिंदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चौंरी  : स्त्री० [हिं० चौंर+ई (प्रत्यय)] १. छोटा चँवर। चँवरी। २. रेशम या सूत का वह लच्छा जिससे स्त्रियाँ सिर के बाल बाँधती है। चोटी। ३. किसी चीज के आगे लटकने वाला फुँदना।। ४. सफेद पूँछवाली गाय। ५. सुरागाय।
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चौरी  : स्त्री० [सं० चोर+ङीष्] १. चुराने की क्रिया या भाव। चोरी। २. गायत्री देवी का एक नाम। स्त्री० [हिं० चौरा का स्त्री रूप] १. छोटा चबूतरा। २. विवाह मंडप। स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का पेड़ जिसकी छाल से रंग बनता और चमड़ा सिझाया जाता है। २. एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय में होता है और जिसकी छाल दवा के काम में आती है। स्त्री० [सं० चाभर] छोटा चँवर।
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चौंरेठा  : पुं० [हिं० चाउर(=चावल)+पीठा] चावल को महीन पीस कर बनाया जानेवाला चूर्ण जो कई प्रकार के पकवान बनाने के काम आता है।
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चौर्य  : पुं० [सं० चोर+ष्यञ्] १. चोर होने की अवस्था या भाव। २. चीजें चुराने की क्रिया या भाव।=चोरी। पुंचोल। (देश०।)
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चौर्य-रत  : पुं० [मध्य० स०] गुप्त मैथुन।
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चौर्य-वृत्ति  : स्त्री० [मध्य० स०] १. दूसरों का माल चुराते रहने का स्वभाव। २. चुराये हुए माल से जीविका चलाना।
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चौल-कर्म(न्)  : पुं० [सं० चौल=चौड़+कर्मन्, कर्म० स०] चूड़ाकर्म। मुंडन।
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चौला  : पुं० [देश०] एक लता और उसके बीज। बोड़ा। लोबिया।
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चौलाई  : स्त्री० [?] १. एक पौधा जिसका साग खाया जाता है। उदाहरण–चौलाई लाल्हा अरु पोंई। मध्य मेलि निबुआन निचोई।–सूर। २. छोटी-छोटी पत्तियोंवाला एक प्रसिद्ध पौधा जिसके पत्तों का साग बनाया जाता है। ३. इस पौधे के पत्ते जिनका साग बनता है।
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चौलावा  : पुं० [हिं० चौ+लानालगाना] वह बड़ा कूआँ जिसमें एक साथ चार मोट चल सकें।
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चौलि  : पुं० [सं० चौल+इञ्] एक प्राचीन ऋषि।
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चौली  : पुं० [देश०] बोड़ा या लोबिया नाम की फली।
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चौलुक्य  : पुं० [सं० चुलुक+यञ्] १. चुलुक ऋषि के वंशज। २. दे० ‘चालुक्य’।
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चौवन  : वि० [सं० चतुःपञ्चाशत्, प्रा० चतुपञ्जासो प्रा० चउवरार्ण] जो गिनती या संख्या में पचास से चार अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।-५४।
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चौवा  : पुं०=चौआ।
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चौवाई  : स्त्री०=चौबाई।
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चौंवालिस  : वि० पुं०=चौंवलिस।
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चौवालिस  : वि०[ सं० चतुश्चत्वारिंशत, पा० चतुचत्तालीसति, प्रा० चउव्वालीसइ] जो गिनती या संख्या में चालीस से चार अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक जो इस प्रकार लिखी जाती है–४४।
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चौस  : पुं० [हिं० चौचार+स (प्रत्यय)] १. वह खेत जो चार बार जोता गया हो। २. खेत को चौथी बार जोतने की क्रिया। चौथी जोताई। पुं० चूर्ण। बुकनी।
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चौंसठ  : वि० [सं० चतुः षष्टि, प्रा० चउसट्टि] जो गिनती में साठ से चार अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।–६४।
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चौसठ  : वि० दे० ‘चौसठ’।
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चौसठ-घड़ी  : पद [हिं०] सारा दिन। दिन और रात। आठों पहर। जैसे–चौसठ घड़ी रोना ही बदा है।
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चौंसठवाँ  : वि० [हिं० चौंसठ+वाँ (प्रत्य)] क्रम या गिनती में चौंसठ के स्थान पर पड़नेवाला।
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चौसर  : पुं० [हिं० चौ=चार+सरबाजी अथवा चतुस्सरि] १. एक प्रकार का खेल जो बिसात पर चार रंगों की चार-चार गोटियों और तीन पासों से खेला जाता है। चौपड़। नर्दबाजी। २. उक्त खेल की बिसात। ३. चार लड़कोंवाला हार। ४. खेल में लगातार चार बार होनेवाली जीत। चार सरों की जीत। ५. ताश के नकश नामक खेल में किसी खिलाड़ी के हाथ में एक साथ तीन तसवीरें आना जिसमें चौगुनी जीत होती है।
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चौसरी  : स्त्री०=चौसर।
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चौसल्ला  : पुं० [हिं० चौ=चार+सींग] १. चौकोर जमीन पर विशेषतः आँगन की चारों दीवारों पर लंबाई के बल रखे हुए चार शहतीर जिन पर इमारत खड़ी की जाती है। २. उक्त शहतीरों के ऊपर बनी हुई इमारत।
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चौसिंगा  : वि० [हिं० चौचार+सींग] चार सीगोंवाला। पुं० एक प्रकार का हिरन जिसके चार सींग होते हैं।
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चौसिंघा  : वि०, पुं०=चौसिंगा। पुं०=चौसिंहा।
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चौसिंहा  : पुं० [हिं० चौ=चार+सींव=सीमा] वह स्थान जहाँ चार गाँवों की सीमाएँ मिलती हों।
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चौंह  : पुं० [देश०] गलफड़ा।
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चौहट, चौहट्ट  : पुं०=चौहट्टा।
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चौहट्टा  : पुं० [हिं० चौचार+हाट] १. वह स्थान जिसके चारों ओर हाट या दुकानें हों। २. उक्त प्रकार का बाजार। ३. चौरस्ता। चौमुहनी।
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चौहड़  : पुं० चौघड़ (दे०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चौहत्तर  : वि० [सं० चतुः सप्तति, प्रा० चौहत्तरि] जो गिनती या संख्या में सत्तर से चार अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।–७४।
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चौहद्दी  : स्त्री० [हिं० चौ=चार+हद=सीमा] १. किसी क्षेत्र या स्थान के चारों ओर (पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्खिन) की सीमा। जैसे–खेत या मकान की चौहद्दी। २. किसी मकान या जीमन के चारों ओर पड़नेवाले मकानों, जमीनों, सड़कों आदि का विस्तृत विवरण। स्त्री० [सं० चातुर्भद्र, प्रा० चाउहद्द+ई (प्रत्य)] एक प्रकार का अवलेह जो जायफल, पिप्पली काकड़ासिंगी और पुष्करमूल को पीसकर शहद में मिलाने से बनता है।
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चौहरा  : वि० [हिं० चौचार+हर (प्रत्यय)] [स्त्री० चौहरी] १. जिसमें चार तहें या परतें हों। जैसे–चौहरा कपड़ा। २. चौगुना। पुं० १. एक में बँधी हुई एक ही प्रकार की चार चीजें। जैसे–पानों का चौहरा। २. दे० ‘चौघड़ा’।
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चौहलका  : पुं० [चौचार+फा० हल्कः घेरा] गलीचे की एक प्रकार की बुनावट।
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चौहान  : पुं० [हिं० चौ=चार+भुजा] अग्निकुल के अंतर्गत क्षत्रियों की एक प्रसिद्ध शाखा जो प्रायः उत्तर भारत में निवास करती है।
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चौंही  : स्त्री० [देश०] हल में की एक लकड़ी। परिहारी।
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चौहैं  : क्रि० वि० [देश०] चारों ओर। चारों तरफ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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च्यटा  : पुं० [अल्पा० च्यूँटी] च्यूँटी की जाति और प्रकार का किन्तु आकार में उससे बड़ा कीड़ा।
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च्यंतना  : अ० [सं० चितन] १. चितन करना। २. चिंता करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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च्यंतामनि  : स्त्री० १. दे० चेतावनी। २. दे० ‘चिंतामणि’।
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च्यवन  : पुं० [सं०√च्यु (टपकना)+ल्युट-अन] १. बूँद-बूँद करके चूना या टपकना। २. [√च्यु+ल्युट–अन] एक प्राचीन ऋषि जो भृगु के पुत्र थे।
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च्यवन-प्राश  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक में आँवले के रस से बना हुआ एक प्रकार का अवलेह। कहते है कि यह अवलेह पहले-पहल अश्विनी कुमारों ने च्यवन ऋषि का वृद्धत्व और अंधत्व दूर करने के लिए बनाया था।
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च्यारि  : वि०=चार। उदाहरण–च्यारि प्रकार पिष्पि बन-वारन।–चंदवरदाई।
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च्यावन  : पुं० [सं०√च्यु+णिच्+ल्युट-अन] १. चुआने या टपकाने की क्रिया या भाव। २. निकाल देना।
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च्युत  : वि० [सं०√च्यु+क्त] [भाव० च्युति] १. ऊपर से गिरा, चूआ, झड़ा या टपका हुआ। २. अपने उचित या नियत स्थान से उत्तर, गिर या हटकर नीचे आया हुआ। गिरा हुआ। पतित। जैसे–पदच्युत। ३. औचित्य की सीमा से हटकर अनौचित्य की सीमा में आया हुआ। जैसे–कर्त्तव्य-च्युत। ४. नष्ट-भ्रष्ट।
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च्युत-मध्यम  : पुं० [ब० स०] संगीत में दो श्रुत्तियों का एक विकृत स्वर जो पीति नामक श्रुति से आरंभ होता है।
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च्युत-षड्ज  : पुं० [ब० स०] संगीत में दो श्रुत्तियों का एक विकृत स्वर जो मंदा नामक श्रुति से आरंभ होता है।
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च्युत-संस्कारता  : स्त्री० [सं० च्युत्-संस्कार, ब० स०+तल्–टाप्] १. संस्कार से च्युत होने की अवस्था या भाव। २. साहित्य में काव्य या रचना का वह दोष जो व्याकरण विरुद्ध पदविन्यास करने पर होता है। साहित्यिक रचना का व्याकरण संबंधी दोष।
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च्युत-संस्कृति  : स्त्री० [कर्म० स०]]=च्युत संस्कारता।
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च्युताधिकार  : वि० [सं० च्युत-अधिकार, ब० स०] अपने अधिकार, पद आदि से हटा या हटाया हुआ।
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च्युति  : स्त्री० [सं०√च्यु+क्तिन्] १. च्युत होने अर्थात् ऊपर से गिरने, चूने, झड़ने या टपकने की क्रिया, अवस्था या भाव। २. अपने स्थान से हट जाने विशेषतः नीचे आ जाने का भाव। पतन। ३. तत्परतापूर्वक कोई काम न करने की स्थिति। जैसे–कर्तव्य-च्युति। ४. अभाव। कमी। ५. गुदा। मलद्वार। ६. भग। योनि।
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च्युत्मा(त्मन्)  : वि० [सं० च्युत–आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा या विचार औचित्य और मर्यादा की सीमा से गिरे हुए या पतित हों।
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च्युप  : पुं० [सं०√च्यु+प कित्] मुख। चेहरा।
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च्यूँटी  : स्त्री० [हिं० चिमटना] एक प्रकार का बहुत छोटा कीड़ा जो गुड़, चीनी आदि या मीठी और रसवाली चीजें खाता है और जमीन आदि में गड्ढा करके तथा उसी में अपना घर बनाकर रहता है। मुहावरा–च्यूँटी की चाल चलना=बहुत धीरे-धीरे और प्रायः रुक-रुक कर चलना। च्यूँटी के पर निकलना=मृत्यु या विनाश का समय समीप आना।
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च्यूड़ा  : =चिड़वा।
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च्यूत  : पुं० [सं०√च्यु, पृषो० दीर्घ] आम का पेड़ और फल।
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च्योत  : पुं० [सं०=च्युत, पृषो० गुण] च्युत होने की क्रिया या भाव च्युति।
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