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प्रख्या  : स्त्री० [सं० प्र√ख्या (कहना)+अङ+टाप्] १. दिखलाई देना। २. प्रकट या प्रकाश रूप में उपस्थित होना। ३. विख्याति। प्रसिद्धि। ४. बराबरी। समता। ५. उपमा। तुलना।
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प्रख्यात  : वि० [सं० प्र√ख्या+क्त] जिसे सब या बहुत से लोग जानते हों। प्रसिद्ध। मशहूर। विख्यात। पुं० नाटक की कथा-वस्तु के स्वरूप की दृष्टि से किये गये तीन भेदों में एक, जिसमें कथा-वस्तु का मुख्य रूप से इतिहास, पुराण आदि की प्रसिद्ध कहानियाँ होती हैं, और नाटककार द्वारा कल्पना से जोड़े गये प्रक्षिप्त अंगों से उसमें विकृति नहीं आती। हिन्दी के चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, रक्षाबन्धन, वितस्वा की लहरें आदि नाटकों की कथा-वस्तु इसी भेद के अंतर्गत हैं। (शेष दो भेद उत्पाद्य और मिश्र कहलाते हैं)।
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प्रख्याति  : स्त्री० [सं० प्र√ख्या+क्तिन्] प्रख्यात होने की अवस्था या भाव। प्रसिद्धि। विख्याति।
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प्रख्यान  : पुं० [सं० प्र√ख्या+ल्युट्—अन] १. खबर देना। सूचित करना। २. दी हुई खबर या सूचना। ३. अनुभूति।
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प्रख्यापन  : पुं० [सं० प्र+ख्या√णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रख्यापित] १. लोगों को जतलाने के लिए कोई बात औपचारिक, निश्चित और स्पष्ट रूप से कहना। (प्रोमल्गेशन) २. इस प्रकार का कोई ऐसा कथन लेख या वक्तव्य जो किसी अधिकारी के सामने सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेते हुए उपस्थित किया जाता है। (डिक्लेरेशन)
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प्रख्यापित  : भू० कृ० [प्र√ख्या+णिच्, पुक+क्त] जिसका प्रख्यापन हुआ हो। जो प्रख्यापन के रूप में उपस्थित किया गया हो।
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