शब्द का अर्थ
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तत :
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पुं० [सं०√तन्+क्त] १. वायु। हवा। २. लंबाई। चौड़ाई। फैलाव। विस्तार। ३. पिता। बाप। ४. पुत्र। बेटा। ५. [√तन्+तन्] वे बाजे जिनमें बजाने के लिए तार लगे होते हैं। तंत्री। जैसे–बीन, सितार आदि। पुं०=तत्त्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=तप्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) सर्व० [सं० तत्] वह। जैसे–तत् छन=उस समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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समानार्थी शब्द-
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तत-पत्री :
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पुं० [सं० ब० स० ङीष्] केले का पेड़। |
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ततकार :
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स्त्री० [हिं० तत+कार] तत्ताथई। (दे०)। अव्य०=तत्काल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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ततकाल :
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अव्य०=तत्काल। |
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ततखन :
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अव्य=तत्क्षण। |
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ततछन :
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अव्य०=तत्क्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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ततताथेई :
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स्त्री० [अनु०]=तत्ताथेई। (नाच के बोल)। |
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ततपर :
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वि०=तत्पर। |
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ततबाउ :
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पुं०=तंतुवाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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ततबीर :
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स्त्री०=तदबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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ततरी :
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स्त्री० [देश०] एक तरह का पेड़। |
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ततसार :
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स्त्री० [सं० तप्तशाला] वह स्थान जहाँ कोई चीज तपाई जाती है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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ततहँड़ा :
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पुं० [सं० तप्त+हिं० हाँड़ी] [स्त्री० अल्पा० ततहँड़ी] मिट्टी की बड़ी हाँड़ी जिसमें नहाने आदि के लिए पानी गरम किया जाता है। |
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तताई :
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स्त्री० [हिं० तत्ता] १. तत्ते अर्थात् गरम होने की अवस्था या भाव। २. उग्रता प्रचंडता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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ततामह :
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पुं० [सं० तत+डामह] पितामह। |
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ततारना :
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स० [हिं० तत्ता=गरम] १. गरम जल से धोना। २. किसी चीज पर जल आदि की धार गिराना या छोड़ना। |
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तति :
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स्त्री० [सं०√तन् (विस्तार)+क्तिन्] १. श्रेणी। ताँता। २. समूह। ३. लंबाई-चौडा़ई। फैलाव। विस्तार। वि० लंबाचौड़ा या फैला हुआ। विस्तृत। |
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ततु :
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पुं=तत्त्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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ततुबाऊ :
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पुं०=तंतुवाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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ततुरि :
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वि० [सं०√तर्वु (मारना)+कि, पृषो० सिद्धि] १. हिंसा करनेवाला। हिंसक। २. उबारने या तारनेवाला। उद्धारक। |
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ततैया :
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स्त्री० [सं० तिक्त] १. बर्रे। भिड़। २. एक प्रकार की छोटी पतली मिर्च जो बहुत कड़वी होती है। वि० १. बहुत तेज या तीखा। तीक्ष्ण। २. बहुत अधिक चपल और तीव्र बुद्धिवाला। |
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ततोधिक :
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वि० [सं० ततस्-अधिक, पं० त०] १. उससे अधिक। २. उससे बढ़कर। |
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तत् :
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पुं० [सं०√तन् (विस्तार)+क्विप्] १. ब्रह्मा या परमात्मा का एक नाम। २. वायु। हवा। सर्व० १. वही या वह। २. उस या उसी। जैसे–तत्संबंधी, तत्काल, तत्क्षण। |
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तत्काल :
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अव्य० [सं० कर्म० स०] फौरन। उसी समय। उसी क्षण। |
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तत्कालीन :
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वि० [सं० तत्काल+ख-ईन] १. उस समय का। २. उन दिनों का। |
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तत्क्षण :
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अव्य,० [सं० कर्म० स०] उसी क्षण। तुरन्त। |
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तत्त :
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पुं=तत्त्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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तत्तत् :
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सर्व० [सं० द्व० स०] उन उन। जैसे–इनमें से कुछ शब्दों की व्याख्या तत्तत् सास्त्रों में की गई है। |
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तत्ता :
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वि० [सं० तप्त] [स्त्री० तत्ती] १. जो छूने में अधिक गरम लगे। अधिक तपा हुआ। गरम। जैसे–तत्ता दूध या तत्ती कड़ाही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पद–तत्ता तवा-गरम मिजाजवाला व्यक्ति। २. तेजगतिवाला। उदाहरण–-दिन महि तत्ते हयनि तजि महि मंडे अति घाइ।–चंदवरादाई। |
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तत्ताथेई :
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स्त्री० [अनु०] नाच के समय जमीन पर पैर पड़ने के शब्द जो नाच के बोल कहे जाते हैं। |
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तत्तिम्मा :
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पुं० [अ० तत्तिम] १. परिशिष्ट। २. क्रोड़ पत्र। |
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तत्तोथंबो :
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पुं० [हिं० तत्ता=गरम+थामना] १. लड़ाई-झगड़ा रोकने के लिए दोनों पक्षों को समझा-बुझाकर शान्त करने की क्रिया या भाव। बीच-बचाव। २. बार-बार आशा दिलाते हुए किसी को उग्र रूप धारण करने से रोक रखने की क्रिया या भाव। बहलावा। जैसे–पावनेदारों को तत्तों-थंबो करके टाल चलना। |
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तत्त्व :
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पुं० [सं० तन्+त्व] १. आकश, अग्नि, जल, थल और पवन ये पाँच गुण (अथवा इनमें से हर एक) जो प्राचीन भारतीय विचारधारा के अनुसार किसी पदार्थ को अस्तित्व में लाते है और जो जगत् या सृष्टि के मूल कारण कहे जाते हैं। विशेष–सांख्य में तत्त्वों की संख्या २५ मानी गई है। २. आधुनिक रसायन शास्त्र के अनुसार कोई ऐसा पदार्थ जिसमें दूसरें पदार्थों का कुछ भी अंश या मेल न पाया जाता हो, अर्थात् जो सब प्रकार से अमिश्र और विशुद्ध हो। (एलिमेन्ट)। विशेष–पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने अब तक १॰॰. से ऊपर ऐसे तत्त्व ढूँढ़ निकाले हैं जो अमिश्र और विशुद्ध रूप से मिलते हैं। ३. कोई मूल, मौलिक या वास्तविक आधार, गुण या बात। सार वस्तु। ४. ईश्वर। ५. यथार्थता। |
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तत्त्व-दृष्टि :
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स्त्री० [मध्य० स०] १. वह दृष्टि जो किसी बात के मूलकारण या गुण का पता लगाती या उस पर तक पहुँचती हो। २. दिव्य दृष्टि। |
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तत्त्व-न्यास :
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पुं० [मध्य० स०] तंत्र के अनुसार विष्णु पूजा में एक अंग न्यास जो सिद्धि प्राप्त करने के लिए किया जाता है। |
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तत्त्व-भाव :
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पुं० [ष० त०] प्रकृति। स्वभाव। |
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तत्त्व-विद्या :
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स्त्री० [ष० त०] दर्शन शास्त्र। |
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तत्त्व-वेत्ता-(त्तृ) :
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पुं० [ष० त०] १. जिसे तत्त्व का ज्ञान हो। तत्त्वविद्। २. दार्शनिक। |
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तत्त्व-शास्त्र :
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पुं० [सं० ष० त०] दर्शन शास्त्र। |
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तत्त्वज्ञ :
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पुं० [सं० तत्त्व√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो ईश्वर या ब्रह्म को जानता हो। तत्वज्ञानी। ब्रह्मज्ञानी। २. किसी बात या विषय का तत्त्व जानने या समझने वाला व्यक्ति। ३. दार्शनिक। |
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तत्त्वज्ञान :
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पुं० [ष० त०] आत्मा, परमात्मा तथा उसकी दृष्टि के संबंध में होनेवाला सच्चा या यथार्थ ज्ञान जो मोक्ष का कारण माना गया है। ब्रह्मज्ञान। |
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तत्त्वज्ञानी(निन्) :
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पुं० [सं० तत्त्वज्ञान+इनि] तत्त्वज्ञ (दे०)। |
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तत्त्वतः :
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अव्य० [सं०] तत्त्व या सार-भूत गुण के विचार से। यथार्थतः वस्तुतः। |
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तत्त्वता :
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स्त्री० [सं० तत्त्व+तल्-टाप्] तत्त्व होने की अवस्था, गुण या भाव। २. यथार्थता। वास्तविकता। |
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तत्त्वदर्श :
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पुं० [सं० तत्त्व√दृश् (देखना)+अण्] १. तत्त्वज्ञ। २. सावर्णि मन्यवन्तर के एक ऋषि का नाम। |
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तत्त्वदर्शी(र्शिन्) :
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पुं० [सं० तत्त्व√दृश्+णिनि] १. तत्त्वज्ञ। २. रैवत मनु के एक पुत्र का नाम। |
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तत्त्वभाषी(षिन्) :
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पुं० [सं० तत्त्व√भाष् (कहना)+णिनि] वह व्यक्ति जो यथार्थ या सच्ची बात कहता हो। यथार्थ भाषी। |
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तत्त्वमसि :
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पद–[सं० तत्-त्वग-असि, व्यस्त पद] वेदान्त का एक प्रसिद्ध वाक्य जिसका अर्थ है तू बही अर्थात् ब्रह्म है। |
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तत्त्वावधान :
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पुं० [सं० तत्व-अवधान, ष० त०] किसी काम के ऊपर होनेवाली देख-रेख या निरीक्षण। |
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तत्त्वावधायक :
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पुं० [सं० तत्त्व-अवधायक, ष० त०] देख-रेख या निरीक्षण करनेवाला। |
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तत्थ :
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वि० [सं० तत्त्व] मुख्य। प्रधान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=तथ्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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तत्पत्री :
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स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. केले का पेड़। २. वंशपत्री नाम की घास। |
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तत्पद :
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पुं० [सं० कर्म० स०] परमपद। निर्वाण। |
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तत्पदार्थ :
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पुं० [सं० तत्पद-अर्थ, ष० त०] सृष्टि-कर्त्ता। परमात्मा। |
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तत्पर :
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वि० [सं० ब० स०] [भाव० तत्परता] १. जो कोई काम करने के लिए तैयार हो। उद्यत। मुस्तैद। २. जो किसी काम में मनोयोगपूर्वक लगा हुआ हो या लगने को हो। ३. दक्ष। निपुण। होशियार। ४. चतुर। चालाक। पुं० समय का एक बहुत छोटा मान जो एक निमेष का तीसवाँ भाग होता है। |
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तत्परता :
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स्त्री० [सं० तत्पर+तल्-टाप्] १. तत्पर होने की अवस्था, गुण या भाव। सन्नद्धता। मुस्तैदी। २. मनोयोगपूर्वक काम करने का भाव। जैसे–उन्होंने यह काम पूरी तत्परता के किया है। ३. दक्षता। निपुणता। ४. चालाकी। |
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तत्पश्चात् :
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अव्य० [सं० ष० त०] उसके बाद। अनंतर। |
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तत्पुरुष :
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पुं० [सं० कर्म० स०] १. ईश्वर। परमेश्वर। २. एक रुद्र का नाम। ३. एक कल्प या बड़े काल विभाग का नाम। ४. संस्कृत व्याकरण में एक प्रकार का समास जिसके अनुसार दो संज्ञाओं के बीच की विभक्ति लुप्त हो जाती है, और जिसमें दूसरा पद प्रधान होकर यह सूचित करता है कि वह पहले पद का कार्य या परिणाम है अथवा उस पहले पद से ही सम्बन्ध रखता अथवा उस में ही होता है। जैसे–ईश्वर दत्त-ईश्वर का दिया हुआ, देश-भक्ति-देश की भक्ति, ऋण-मुक्त-ऋण से मुक्त, निशाचर-निशा में विचरण करनेवाला। विशेष–व्याकरण में यह समास दो प्रकार का माना गया है–व्यधिकरण और समानाधिकरण और इसके विग्रह में कर्त्ता तथा संबोधन कारकों को छोड़कर सभी कारकों की विभक्तियाँ लगती है। |
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तत्प्रतिरूपक व्यवहार :
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पुं० [सं० तत्-प्रतिरूपक, ष० तत्प्रतिंरूपक व्यवहार, कर्म० स०] जैनियों के मत से एक अतिवाचर जो बेची जानेवाली खालिस वस्तुओं में मिलावट करने से होता है। |
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तत्फल :
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पुं० [सं० तत्√फल् (फलना)+अच्] १. कूट नामक औषध। कुट। २. बेर का फल। ३. नीला कमल। ४. चोर नामक गंध-द्रव्य। |
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तत्र :
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अव्य० [सं० तत्+त्रल्] उस स्थान पर। उस जगह। वहाँ। |
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तत्रक :
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पुं० [देश०] एक तरह का पेड़ जिसकी पत्तियों आदि से चमड़ा सिझाया जाता है। |
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तत्रत्य :
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वि० [सं० तत्र+त्यप्] वहाँ रहनेवाला। |
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तत्रभवान्(वत्) :
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पुं० [सं० पूज्य अर्थ में नित्य० स०] माननीय। पूज्य। श्रेष्ठ। |
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तत्रापि :
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अव्य० [सं० तत्र-अपि, द्व० स०] तथापि। तो भी। |
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तत्व-रश्मि :
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पुं० [ष० त०] तंत्र के अनुसार स्त्री देवता का बीज। वधू बीज। |
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तत्ववाद :
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पुं० [सं० ष० त०] १. दर्शन-शास्त्र संबंधी विचार। २. किसी प्रकार की दार्शनिक विचार-प्रणाली या मत-विरूपण का ढंग। (फिलासिफिकल सिस्टम)। |
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तत्ववादी(दिन्) :
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पुं० [सं० तत्त्व√वद्+णिनि] जो तत्ववाद का ज्ञाता और समर्थक हो। वि० १. तत्त्ववाद संबंधी। तत्त्वकी। २. सच्ची और साफ बात कहनेवाला। |
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तत्वविद् :
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पुं० [सं० तत्त्व√विद् (जानना)+क्विप्] १. तत्वज्ञ। (दे०) २. परमात्मा। |
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तत्संबंधी(धिन्) :
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वि० [सं० ष० त०] उससे संबंध रखनेवाला। |
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तत्सम :
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पुं० [सं० तृ० त०] किसी भाषा का वह शब्द जो किसी दूसरी भाषा में अपने मूल रूप में (बिना विकृत हुए) चलता हो, ‘तद्भव’ से भिन्न। जैसे–हिन्दी में प्रयुक्त होनेवाले कृपा, महत्व, सेवा आदि संस्कृत के और खराब मिजाज, हाजिर आदि अरबी-फारसी के शब्द तत्सम रूप में ही चलते हैं। |
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तत्सामयिक :
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वि० [सं० ष० त०] उस समय का। |
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