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तृतीय  : वि० [सं० त्रि+तीय (सम्प्रसारण)] जो क्रम संख्या, महत्व आदि के विचार से दूसरे के बाद का हो। तीसरा।
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तृतीय-प्रकृति  : स्त्री० [कर्म० स०] पुंलिग और स्त्री लिंग से भिन्न और तीसरा अर्थात् नपुंसक। हिजड़ा।
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तृतीय-सवन  : पुं० [कर्म० स०] अग्निष्टोम आदि यज्ञों का तीसरा सवन जिसे सांय सवन भी कहते हैं। दे० ‘सवन’।
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तृतीयक  : पुं० [सं० तृतीय+कन्] वह ज्वर जो हर तीसरे दिन आता हो। तिजारी।
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तृतीया  : स्त्री० [सं० तृतीय+टाप्] १. चांद्रमास के प्रत्येक पक्ष का तीसरा दिन। तीज। २. व्याकरण में करण कारक या उसकी विभक्ति की संज्ञा।
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तृतीया-प्रकृति  : वि० [सं०] नपुंसक। हिजड़ा।
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तृतीयांश  : पुं० [तृतीय-अंश, कर्म० स०] तीसरा उपंश या भाग। तिहाई।
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तृतीयाश्रम  : पुं० [तृतीय-आश्रम, कर्म० स०] चार आश्रमों में से तीसरा आश्रम। वानप्रस्थ।
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तृतीयी(यिन्)  : वि० [सं० तृतीय+इनि] तीन बराबर भागों में से एक का हकदार।
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