शब्द का अर्थ
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तैल :
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वि० [सं० तिल+अञ्] तिल-संबंधी। तिल या तिलों का। पुं० १. तिल के दानों या बीजों को पेरकर निकाला हुआ तेल। २. दे० ‘तेल’। |
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तैल-कंद :
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पुं० [मध्य० स०] तेलिया-कंद। |
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तैल-किट्ट :
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पुं० [ष० त०] खली। |
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तैल-कीट :
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पुं० [मध्य० स०] तेहिन नाम का कीड़ा। |
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तैल-चित्र :
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पुं० [मध्य० स०] बहुत मोटे कपड़े पर तैल रंगों की सहायता से अंकित किया हुआ चित्र। (आयल पेंटिग)। |
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तैल-द्रोणी :
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स्त्री० [मध्य० स०] तेल रखने का एक तरह का बहुत बड़ा पात्र जिसमें कुछ विशिष्ट रोगियों को प्राचीन काल में लेटाया जाता था। |
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तैल-धान्य :
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पुं० [मध्य० स०] १. धान्य का एक वर्ग जिसके अंतर्गत तीनों प्रकार की सरसों, दोनों प्रकार की राई, खस और कुसुम के बीज हैं। २. तेलहन। |
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तैल-पर्णक :
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पुं० [ब० स० कप्] गठिवन। |
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तैल-पिष्टक :
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पुं० [ष० त०] खली। |
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तैल-फल :
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पुं० [ब० स०] १. इंगुदी। २. बहेंड़ा। |
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तैल-भाविनी :
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स्त्री० [सं० तैल√भू (होना)+णिच्+णिनि-ङीप्] चमेली का पेड़। |
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तैल-यंत्र :
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पुं० [मध्य० स०] कोल्हू। |
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तैल-रंग :
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पु० [सं०] चित्र कला में, जल से भिन्न वे रंग जो कई तरह के तेलों या साफ किए हुए प्रट्रोल में मिलाकर तैयार किये जाते है। ऐसे रंग जल-रंग की अपेक्षा अच्छे समझे जाते और अधिक स्थायी होते हैं। (आयल कलर)। |
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तैल-वल्ली :
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स्त्री० [मध्य० स०] शतावरी। शतमूली। |
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तैल-साधन :
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पुं० [सं० तैल√साध् (सिद्ध करना)+णिच्+ल्यु–अन] शीतलचीनी। कवाबचीनी। |
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तैलकार :
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पुं० [सं० तैल√कृ (करना)+अण्] तेल पेरने और बेचनेवाला व्यक्ति। तेली। |
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तैलंग :
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पुं० [सं० त्रिकलिंग] आधुनिक आंध्र प्रदेश का पुराना नाम तैलंग। |
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तैलंगा :
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पुं०=तिलंगा। |
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तैलंगी :
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वि० [हिं० तैलंग+ई (प्रत्यय)] तैलंग देश का। पुं० तैलंग देश का निवासी। स्त्री० तैलंग देश की भाषा तेलगू। |
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तैलत्व :
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पुं० [सं० तैल+त्व] तेल का भाव या गुण। |
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तैलपक :
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पुं० [सं० तैल√पा (पीना)+क+कन्] झींगुर नामक कीड़ा। |
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तैलपर्णिक :
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पुं० [सं० तिलपर्ण+ठन्-इक] सलई का गोंद। |
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तैलपर्णी :
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स्त्री० [सं० तिलपर्ण+अण्-ङीष्] १.चन्दन। २. लोबान। ३. तुरुष्क। शिलारस। |
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तैलपायी(यिन्) :
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पुं० [सं० तैल√पा (पीना)+णिनि] झींगुर। चपड़ा। (कीड़ा) वि० तेल पीनेवाला। |
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तैलपिपीलिका :
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स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की चींटी |
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तैलमाली :
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स्त्री० [ब० स० ङीष्] तेल की बत्ती। |
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तैलस्फटिक :
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पुं० [मध्य० स०] १. अंबर नामक गंध-द्र्व्य। २. कहरुबा। तृण-मणि। |
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तैलस्यंदा :
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स्त्री० [सं० तैल√स्यन्द (चूना)+अच्-टाप्] १. गोकर्णी नाम की लता। मुरहटी। २. काकोली। |
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तैलाक्त :
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स्त्री० [सं० तैल-अक्त, तृ० त०] जिस, में तेल लगा हो। तेल से सना हुआ। |
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तैलाख्य :
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पुं० [सं० तैल-आख्या, ब० स०] शिली रस या तुरुष्क नाम का गंध द्रव्य। |
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तैलागुरु :
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पुं० [सं० तैल-अगुरु, मध्य० स०] अगर की लकड़ी। |
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तैलाटी :
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स्त्री० [सं० तैल√अट् (जाना)+अच्-ङीष्] बर्रे। भिड़। |
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तैलाभ्यंग :
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पुं० [सं० तैल-अभ्यंग, ष० त०] शरीर में तेल लगाने की क्रिया या भाव। |
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तैलि-शाला :
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स्त्री० [सं० ष० त०] वह घर या स्थान जहाँ कोल्हू चलता हो। |
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तैलिक :
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वि० [सं० तैल+ठक्–इक] तेल-संबधी। पुं० [तैल+ठक-इक] तेली। |
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तैलिक-यंत्र :
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पुं० [कर्म० स०] तिल आदि पेरने का यंत्र। कोल्ह। |
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तैलिनी :
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स्त्री० [सं० तैल+इनि–ङीष्] बत्ती। |
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तैली(लिन्) :
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पुं० [सं० तैल+इनि] तेली। |
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तैलीन :
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पुं० [सं० तिल+खञ्-ईन] तिल का खेत। |
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तैल्वक :
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वि० [सं० तिल्व+वुञ्–अक] लोध की लकड़ी से बना हुआ। पुं० लोध। |
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