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मोर  : पुं० [सं० मयूर, प्रा० मोर] [स्त्री० मोरनी] १. एक बहुत सुन्दर प्रसिद्ध बड़ा पक्षी जो प्रायः चार फुट तक लम्बा होता है और जिसकी लम्बी गरदन और छाती का रंग बहुत ही गहरा और चमकीला नीला होता हैं। यह बादलों के देखकर प्रसन्नता से पर फैलाकर नाचने लगता है। उस समय इसके परों की शोभा परम दर्शनीय होती है। केकी। बरही। २. नीलम नामक रत्न की एक प्रकार की बढ़िया रंगत जो मोर के पर के समान होती है। स्त्री० [डिं] सेना की अगली पंक्ति। वि० =मेरा (अवधी) सर्व० [सं० मम] मेरा। (अवधी)। मुहावरा—मोर-तोर करना=दे० ‘मेरा’ के अंतर्गत।
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मोर-चंद्रिका  : स्त्री० [हिं० मोर+सं० चंद्रिका] मोर-पँख के छोर की वह बूटी जो चंद्राकार होती है।
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मोर-जुटना  : पुं० [हिं० मोर+जुटना] एक प्रकार का जड़ाऊ आभूषण जिसके बीच का भाग गोल बेदें के समान होता है और दोनों ओर मोर बने रहते हैं।
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मोर-नाच  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का नाच जिसमें पेशवाज के अगल-बगल वाले दोनों सिरे दोनों हाथों में पकड़कर कमर तक उठा लिए जाते हैं। और तब खड़े-खड़े या घुटनों के बल कुछ बैठकर इस प्रकार नाचा जाता है कि नाचनेवाले की आकृति मोर की-सी हो जाती है। रक्सेताऊस।
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मोर-पंख  : पुं० [हिं० मोर+पंख=पर] १. मोर का पर या पंख २. मोर के पर की बनायी हुई कलगी।
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मोर-पंखी  : वि० [हिं० मोरपंख] मोर के पंख के रंग का। गहरा चमकीला नीला। पुं० मोर के पंख की तरह का गहरा, चमकीला नीला रंग। स्त्री० १. एक तरह की नाव जिसके अगले भाग में मोर की सी आकृति बनी रहती है। २. एक तरह का छोटा पंखा जो खोलने पर मंडलाकार हो जाता है। ३. एक तरह की कसरत।
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मोर-पाँव  : पुं० [हिं० मोर+पाँव] बावर्चीखाने की मेज पर खड़ा जड़ा हुआ लोहे का छड़ जिस पर खाने के लिए मांस के बड़े-बड़े टुकड़े लटकाए जाते हैं। (लश०)
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मोर-मुकुट  : पुं० [हिं० मोर+सं० मुकुट] मोरपंखों से युक्त मुकुट।
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मोर-शिखा  : स्त्री० [सं० मयूर-शिखा] एक प्रकार की जड़ी जिसकी पत्तियाँ मोर की कलगी के आकार की होती है। यह बहुधा पुरानी दीवारों पर उगती है।
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मोरंग  : पुं० [देश] नैपाल देश का पूर्वी भाग जो कौशिकी नदी के पूर्व पड़ता है। संस्कृत ग्रन्थों में इसी भाग को किरात देश कहा गया है।
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मोरचंग  : पुं० [हिं० मुरचंग] मुंह-चंग नामक बाजा।
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मोरचंदा  : पुं० =मोर-चंद्रिका।
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मोरचा  : पुं० [फा० मोर्चः] १. लोहे की ऊपरी सतह पर जमनेवाली वह लाल या पीले रंग की मैल की सी तह जो वायु और नमी के योग के कारण उसके अन्दर होनेवाले रासायनिक विकार से उत्पन्न होती है और जिसके कारण लोहा कमजोर और खराब हो जाता है। जंग। क्रि० प्र०—जमना।—लगना। मुहावरा—मोरचा खाना=मोरचा लगने से खराब होना। २. दर्पण या शीशे के ऊपर जमनेवाली मैल। पुं० [फा० मोरचाल] १. वह गड्ढा जो गढ़ के चारों ओर रक्षा के लिए खोदा जाता है। २. गढ़ के अन्दर रहकर शत्रु से लड़नेवाली सेना। ३. वह स्थान जहाँ से सेना, गढ़, नगर आदि की रक्षा की जाती है। मुहावरा—मोरचा जीतना=शत्रु को परास्त करके उसके मोरचे पर अधिकार कर लेना। मोरचा बाँधना=शत्रु से लड़ने के लिए उपयुक्त स्थान पर सेनाएं नियुक्त करना। मोरचा मारना=मोरचा जीतना (देखें ऊपर) मोरचा लेना=सामने आकर शत्रु से बराबरी का युद्ध करना। ४. लाक्षणिक रूप में, ऐसी स्थिति जिसमें प्रतिद्वंन्द्वी या विरोधी का अच्छी तरह जमकर सामना किया जाता है और उस पर बार किये जाते तथा उसके वारों के उत्तर दिये जाते हैं।
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मोरचाबंदी  : स्त्री० [फा० मोर्चबंदी] गढ़ के चारों ओर गड्ढा खोदकर सेना नियुक्त करना। मोरचा बनाना।
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मोरचाल  : पुं० [सं०] वह गड्ढा या खाई जिसमें छिपकर शत्रु पर (युद्ध के समय) गोली चलाई जाती है। स्त्री० [?] एक प्रकार की कसरत।
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मोरछड़  : पुं० =मोरछल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरछल  : पुं० [हिं० मोर+छड़] [स्त्री, अल्पा० मोरछली] मोरपंखों का बना हुआ चँवर।
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मोरछली  : पुं० [हिं० मोरछल+ई (प्रत्यय)] वह जो (क) मोरछल बनाता अथवा (ख) देवताओं, राजाओं आदि पर डुलाता हो। स्त्री० मोरछल का स्त्री० अल्पा०। स्त्री०=मौलसिरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरछाँह  : पुं० =मोरछल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरट  : पुं० [सं०√मुर् (लपेटना)+अटन्] १. ऊख की जड़। २. अंकोल का फूल। ३. कर्णपुष्प नामक लता। ४. ब्याई हुई गाय के सातवें दिन के बाद का दूध।
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मोरटक  : पुं० [सं० मोरट+कन्] १. सफेद खैर। २. दे० ‘मोरट’।
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मोरटा  : स्त्री० [सं० मोरट+टाप्] मूर्वा।
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मोरंड  : पुं० =मुरुंडा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरध्वज  : पुं० [सं० मयूरध्वज] एक प्रसिद्ध पौराणिक राजा।
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मोरन  : स्त्री० [सं० मोरठ] बिलोया। शिखरन। (दे०) स्त्री० [हिं० मोड़ना] मोड़ने की क्रिया या भाव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरना  : स० [हिं० मोरन] मथे हुए दही में से मक्खन निकालना। स०=मोड़ना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरना  : स० [हिं० मोरना का प्रे०] १. रस पेरने के समय ऊख को कोल्हू में दबाना या लगाना। २. दे० ‘मोड़ना’। अ० मोड़ा जाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरनी  : स्त्री० [हिं० मोर का स्त्री० रूप] १. मादा मोर। २. मोर के आकार का लटकन जो प्रायः गहनों में लगाया जाता है। जैसे—नथ की मोरनी। ३. मोरनी की-सी चाल चलनेवाली बनी-ठनी और सुन्दरी युवती। ठुमुक-ठुमुक कर चलनेवाली सुन्दरी।
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मोरपंखा  : पुं० [हिं० मोरपंखा] मोर का पर या पंख जो प्रायः सिर पर कलगी की तरह खोंसा जाता था। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरम  : पुं० [ते० मोरमु, पा० मरुम्ब] गेरूई या लाल रंग की एक तरह की पहाड़ी कंकडी जो सड़कों पर बिछाई जाती है और जिससे अब सीमेंट भी बनने लगा है।
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मोरवा  : पुं० [देश] वह रस्सी जो नाव की किलवारी में बाँधी जाती है और जिससे पतवार का काम लेते हैं। पुं० =मोर (पक्षी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरा  : पुं० [देश] अकीक नामक रत्न का एक भेद। बावाँ घोड़ी। वि० =मेरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरिया  : स्त्री० [हिं० मोरना] कोल्हू में कातर की दूसरी शाखा जो बाँस की होती है।
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मोरी  : स्त्री० [हिं० मोर का स्त्री] १. किसी वस्तु के निकलने का तंग द्वार। २. वह छोटी नाली जिसमें से गन्दा या फालतू पानी बहकर निकलता है। पनाली। मुहावरा—मोरी छूटना=दस्त आना। मोरी का जाना=पेशाब करना। मोरी में डालना=नष्ट करना। स्त्री०=मोहरी। (पाजामें आदि की)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोर्चा  : पुं० =मोरचा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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