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र  : हिन्दी वर्णमाला का सत्ताईसवाँ व्यंजन जो व्याकरण और भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अंतस्थ, मूर्धन्य, घोष, अल्पप्राण तथा ईषत्सपृष्ट है। पुं० [सं० रा+ड] १. अग्नि। आग। २. काम वासना का ताप। कामाग्नि। ३. जलना, झुलसना या तपना। ४. आँच। गरमी। ताप। ५. सोना। स्वर्ण। ६. पिंगल में रगण का संक्षिप्त रूप। ७. सितार का एक बोल। वि० तीव्र। प्रखर।
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रअय्यत  : स्त्री० [अ०] १. प्रजा। रिआया। २. मध्ययुग और ब्रिटिश शासन में जमींदार के अधीन रहनेवाला काश्तकार।
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रइअत  : स्त्री०=रअय्यत।
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रइकौ  : अव्य० [सं० रंच] जरा भी। तनिक भी। कुछ भी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रइनि  : =रैन (रात)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रइबारी  : पुं० [हिं० राह+वारी] वह जो ऊँट चराता या पालता हो।
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रई  : स्त्री० [सं० रय=हिलाना] दही मथने की लकड़ी। मथानी। खैलर। क्रि० प्र०—चलाना।—फेरना। स्त्री० [हिं० रवा] १. गेहूँ का मोटा आटा। दरदरा आटा। २. सूखी। ३. कोई महीन चूर्ण। वि० स्त्री० [हिं० रँचना=सं० रंजन] १. डूबी हुई। पगी हुई। २. अनुरक्त। ३. मिली हुई।
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रईस  : पुं० [अ०] १. रियासत का स्वामी। इलाकेदार। ताल्लुकेदार। २. बहुत बड़ा धनी या सम्पन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति। ३. किसी स्थान का राजा या प्रधान अधिकारी।
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रईसजादा  : पुं० [फा० रईसजादः] [स्त्री० रईसजादी] रईस या बहुत बड़े आदमी का लड़का।
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रईसी  : स्त्री० [हिं० रईस] १. रईस होने की अवस्था या भाव। २. कोई ऐसा काम या बात जिसमें केवल शौक से और रईसों की तरह बहुत अधिक व्यय किया गया हो।
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रउताई  : स्त्री० [हिं० रावत+आई (प्रत्यय)] राउत (रावत) या मालिक होने की अवस्था या भाव। प्रभुत्व। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रउरे  : सर्व० [पश्चिमी रावरे का पूर्वी रूप] मध्यम पुरुष के लिए आदरसूचक शब्द। आप। जनाब। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रऐयत  : स्त्री० [अ०] प्रजा। रिआया।
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रंक  : वि० [सं०√रम् (तुष्ट होना)+कु] १. गरीब। दरिद्र। कंगाल। २. कंजूस। कृपण। ३. आलसी। ४. मट्ठर। सुस्त।
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रकछ  : पुं० [हिं० रिकवंच] कुछ विशिष्ट प्रकार के पत्तों की बनाई हुई पकौड़ी। पतौड़ी।
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रकत  : पुं० [सं० रक्त] लटू। खून। रुधिर। वि० रक्त वर्ण का। लाल। सुर्ख। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रकतकंद  : पुं० [सं० रक्त-कंद] १. मूँगा। प्रवाल। विद्रुम (डिं०) २. रताल।
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रकतांक  : पुं० [सं० रक्तांक] १. विद्रुम। प्रवाल। मूँगा। (डिं०) २. केसर ३. लाल चन्दन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रक़बा  : पुं० [अ० रकबः] क्षेत्रफल। (दे०)
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रकबाहा  : पुं० [अ०] घोड़ों का एक भेद।
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रकम  : स्त्री० [अ० रकम] १. लिखने की क्रिया या भाव। २. छाप। मोहर। ३. रुपया-पैसा या बीघा-बिसवा आदि लिखने के फारसी के वे विशिष्ट अंक जो साधारण संख्यासूचक अंकों से भिन्न होते हैं। ४. रुपया-पैसा जिसकी संख्या नियत या सूचित की गई हो। ५. बही-खाते में लिखी जानेवाली उक्त प्रकार की संख्या या कोई ऐसा पद जो उस संख्या से संबद्ध हो। जैसे—(क) यह रकम बही में लिख दो। (ख) तुम्हारे नाम अभी दो रकमें बाकी पड़ी हैं। ६. गहना या जेवर जो मूल्यवान होता है और जिससे धन मिल सकता है। जैसे—घर की एक रकम रखकर दो सौ रूपये लाया हूँ। ७. कोई ऐसी चीज जिसका कुछ विशेष महत्त्व या मूल्य हो। ८. बहुत ही चलता-पुरजा या चालाक आदमी। ९. सुन्दर स्त्री। (बाजारू)। १॰. ब्रिटिश भारत में, लगान की दर। ११. तरह। प्रकार। भांति। जैसे—रकम-रकम की चीजें वही रखी थीं।
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रक़मी  : वि० [अ० रक़मी] १. रकम संबंधी। रकम का। २. लिखा हुआ। लिखित। ३. निशान किया हुआ। पुं० मध्ययुग और ब्रिटिश भारत में वह काश्तकार जिससे रकम या धन लेने में कोई खास रिआयत की जाती थी।
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रकान  : स्त्री० [?] १. तरीका। २. लगाम।
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रकाब  : स्त्री० [फा० रकाब] १. घोडे़ की काठी का झूलता हुआ पावदान जिस पर पैर रखकर घोड़े पर सवार होते हैं, और बैठने में जिससे सहारा लेते हैं। मुहावरा—रकाब पर पैर रखना=कहीं जाने या चलने के लिए बिल्कुल तैयार होना। २. दे० ‘रकाबी’।
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रकाबत  : स्त्री० [अ०] १. रकीब होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. किसी प्रेमिका के सम्बन्ध में उसके प्रेमियों में होनेवाली प्रतिद्वंद्विता।
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रकाबदार  : पुं० [फा०] १. मुरब्बा, मिठाई आदि बनानेवाला कारीगर या हलवाई। २. रकाबियों में खाना चुनने और परोसनेवाला। खानसामा। ३. नवाबों, बादशाहों आदि के साथ उनका भोज लेकर चलनेवाला सेवक। खासाबरदार। ४. रकाब पकड़कर घोड़े पर सवार करनेवाला नौकर। साईस।
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रकाबा  : पुं० [फा० रकाबः] १. बड़ी रकाबी। २. परात।
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रकाबी  : स्त्री० [फा०] छिछली गोल छोटी थाली। वि० १. रकाब सम्बन्धी। २. रकाबी की तरह का। जैसे—रकाबी चेहरा।
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रकाबी-चेहरा  : पुं० [फा० हिं] गोल या चौड़ा मुँह।
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रकाबी-मजहब  : वि० [फा० +अ] खुशामदी। चाटुकार।
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रकार  : पुं० [सं० र+कार] र वर्ण का बोधक अक्षर। र।
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रक़ीक़  : वि० [अ०] १. पानी की तरह पतला। तरल द्रव। २. कोमल। नरम। मुलायम। पुं० गुलाम। दास।
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रक़ीब  : पुं० [अ०] १. वह जो किसी प्रेमिका के प्रेम के संबंध में उसके दूसरे प्रेमी से प्रतियोग करता हो। प्रेमिका का दूसरा प्रेमी। २. प्रतिद्वंद्वी। प्रतिस्पर्धा।
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रंकु  : पुं० [सं०√रम्+कु] १. हिरनों की एक जाति। २. उक्त जाति का हिरन जिसके पृष्ठभाग पर सफेद चित्तियाँ होती हैं।
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रकेबी  : स्त्री=रकाबी।
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रक्कास  : पुं० [अ०] [स्त्री० रक्कासी] नाचनेवाला। नर्त्तक।
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रक्खना  : स०=रखना।
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रक्त  : वि० [सं०√रंज् (रँगना)+क्त] १. जिसका रंजन हुआ हो। २. रँगा हुआ। ३. किसी के अनुराग या प्रेम से युक्त। अनुरक्त। ४. लाल रंग का। सुर्ख। ५. आमोद-प्रमोद या विहार में लगा हुआ। ६. शुद्ध और साफ किया हुआ। पुं० १. लाल रंग का वह प्रसिद्ध तरल पदार्थ जो नसों आदि में से होकर सारे शरीर में चक्कर लगाता रहता है। लहू। खून। रुधिर। शोणित। (मुहा० के लिए दे खून के मुहा०) २. उत्साहपूर्वक अग्रसर होने या आगे बढ़ाने वालों का दल या वर्ग। जैसे—कांग्रेस को अब नये रक्त की आवश्यकता है। ३. केसर। ४. ताँबा। ५. कमल। ६. सिंदूर। ईगुर। ७. लाल चंदन। ८. लाल रंग। ९. कुसुभ। १॰. गुल। दुपारिया। बन्धूक। ११. पतंग नामक वृक्ष की लकड़ी। १२. एक प्रकार का बेंत। हिज्जल। १३. एक प्रकार की मछली। १४. एक प्रकार का जहरीला मेंढ़क। १५. एक प्रकार का बिच्छू। १६. अच्छी तरह पका हुआ आँवले का फल।
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रक्त-कदंब  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. एक प्रकार का कदंब जिसके फूल गहरे लाल रंग के होते हैं। २. उक्त वृक्ष का फूल।
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रक्त-कंदल  : पुं० [सं० ब० स०] मूँगा। विद्रुम।
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रक्त-कदली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] चंपा केला।
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रक्त-कमल  : पुं० [सं० कर्म० स०] लाल रंग का कमल।
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रक्त-करबीर  : पुं० [सं० कर्म० स०] लाल रंग का कनेर।
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रक्त-कांचन  : पुं० [सं० कर्म० स०] कचनार का वृक्ष। कचनाल।
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रक्त-काश  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का काश-रोग जिसमें फेफड़े से मुँह के रास्ते खून निकलता है।
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रक्त-काष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] पतंग की लकड़ी।
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रक्त-कुमुद  : पुं० [सं० कर्म० स०] कूँई। नीलोफर।
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रक्त-कुरुडंक  : पुं० [सं० कर्म० स०] लाल कटलसरैया।
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रक्त-कुसुम  : पुं० [सं० ब० स०] १. कचनार। २. आक। मदार। ३. धामिन नामक वृक्ष। ४. फरहद। पारिभद्र।
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रक्त-कुसुमा  : स्त्री० [कर्म० स० टाप्] अनार का पेड़।
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रक्त-कृमिजा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०√जन् (उत्पत्ति)+ड, टाप्] लाख। लाह।
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रक्त-केशर  : पुं० [ब० स०] पारिभद्रक वृक्ष। फरहद का पेड़।
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रक्त-कैरव  : पुं० [कर्म० स०] लाल कुमुद।
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रक्त-क्षीणता  : स्त्री० [सं०] शरीर की वह स्थिति जिसमें रक्त या खून की बहुत कमी हो जाती है (एनीमिया)।
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रक्त-खदिर  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का खैर का वृक्ष जिसके फूल लाल रंग के होते हैं। रक्तसार।
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रक्त-गत-ज्वर  : पुं० [रक्त, गत, द्वि, त० रक्त-ज्वर० कर्म० स०] वह ज्वर जिसके कीटाणु रोगी के रक्त में समा गये हों।
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रक्त-गंधक  : पुं० [कर्म० स०] बोल नामक गंध-द्रव्य।
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रक्त-गर्भा  : स्त्री० [ब० स, टाप्] मेंहदी का पेड़।
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रक्त-गुल्म  : पुं० [मध्य० स०] स्त्रियों का एक रोग जिसमें उनके गर्भाशय में रक्त की गाँठ-सी बँध जाती है।
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रक्त-गैरिक  : पुं० [कर्म० स०] स्वर्ण गैरिक। लाल गेरू।
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रक्त-ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] १. कबूतर। २. राक्षस।
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रक्त-चंचु  : पुं० [ब० स०] शुक्र तोता।
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रक्त-चंदन  : पुं० [कर्म० स०] लाल रंग का चंदन। (दे० ‘चंदन’)
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रक्त-चाप  : पुं० [सं० रक्त और हिं० चाप] १. खून का जोर या दबाव। २. चिकित्सा शास्त्र में एक रोग जो उस समय माना जाता है जब अवस्था के प्रसम अनुपात से रक्त का दबाव या वेग घट या बढ़ गया होता है। (ब्लड प्रेसर)
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रक्त-चित्रक  : पुं० [कर्म० स०] लाल रंग का चित्रक या चीता वृक्ष।
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रक्त-दृग (श्)  : पुं० [ब० स०] १. कोयल। कोकिल। २. कबूतर। ३. चकोर। वि० लाल आँखोंवाला।
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रक्त-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] लाल बीजासन वृक्ष।
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रक्त-धरा  : स्त्री० [ष० त०] वैद्यक के अनुसार मांस के अन्दर की दूसरी कला या झिल्ली जो रक्त को धारण किये रहती है।
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रक्त-धातु  : पुं० [कर्म० स०] १. गेरु। २. ताँबा।
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रक्त-नयन  : पुं० [ब० स०] १. कबूतर। २. चकोर।
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रक्त-नाल  : पुं० [ब० स०] सुसना नामक साग।
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रक्त-नालिक  : पुं० [ब० स०] उल्लू।
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रक्त-नील  : पुं० [कर्म० स०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला बिच्छू।
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रक्त-नेत्र  : पुं० [ब० स०] १. कोयल। २. सारस पक्षी। ३. कबूतर। ४. चकोर। वि० लाल आँखोंवाला। जिसके नेत्र लाल हों।
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रक्त-पक्ष  : पुं० [ब० स०] गरुड़।
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रक्त-पलल्व  : पुं० [सं० ब० स०] अशोक का वृक्ष।
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रक्त-पात  : पुं० [ष० त०] १. लहू का गिरना या बहना। रक्तस्राव। २. ऐसी मारपीट या लड़ाई-झगड़ा जिसमें अधिक मारकाट के कारण अनेक शरीरों से खून बहता है। खून-खराबी।
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रक्त-पाता  : स्त्री० [सं० रक्त√पत् (गिरना)+णिच्+अच्+टाप्] जोंक।
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रक्त-पाद  : पुं० [ब० स०] १. बरगद। २. तोता।
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रक्त-पायी (यिन्)  : वि० [सं० रक्त√पा+णिनि, युगागम] [स्त्री० रक्तपायिनी] रक्तपान करनेवाला। खून पीनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. खटमल।
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रक्त-पाषाण  : पुं० [कर्म० स०] १. लाल पत्थर। २. गेरू।
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रक्त-पिंड  : पुं० [उपमित० स०] जवाफूल।
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रक्त-पिंडक  : पुं० [सं० रक्तपिंड+कन्] १. रतालू। २. अड़हुल। जवा।
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रक्त-पिंडालु  : पुं० [कर्म० स०] रतालू।
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रक्त-पित्त  : पुं० [मध्य० स०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें मुँह, नाक, कान, गुदा, योनि आदि इंद्रियों से रक्त गिरता है। २. नाक से लहू बहने का रोग। नकसीर।
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रक्त-पुनर्नवा  : स्त्री० [कर्म० स०] लाल गदहपूरना। २. वैशाखी।
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रक्त-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. करबीर। कनेर। २. अनार का पेड़। ३. गुलदुपहरिया। बन्धूक। ४. पुन्नाग।
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रक्त-पुष्पक  : पुं० [सं० रक्तपुष्प+कन्] सेमल (पेड़)।
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रक्त-पुष्पिका  : स्त्री० [सं० रक्तपुष्प+कन्-टाप्, इत्व] १. लाल पुनर्नवा। २. लजालू। लाजवंती।
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रक्त-पूरक  : पुं० [ष० त०] इमली।
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रक्त-पूर्ण  : वि० [तृ० त०] खून से लथपथ।
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रक्त-प्रतिश्याय  : पुं० [मध्य० स०] प्रतिश्याय या जुकाम का एक भेद जिसमें नाक से खून भी जाने लगता है।
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रक्त-प्रदर  : पुं० [मध्य० स०] स्त्रियों के प्रदर रोग का वह भेद जिसमें उनकी योनि से रक्त बहता है।
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रक्त-प्रमेह  : पुं० [कर्म० स०] दुर्गन्धियुक्त गरम, खारा और खून के रंग का पेशाब होने का एक पुरुष रोग।
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रक्त-प्रवृत्ति  : पुं० [सं० ब० स०] पित्त के प्रकोप के फलस्वरूप होनेवाला रोग।
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रक्त-प्रसव  : पुं० [ब० स०] १. लाल कनेर। २. मुचकुंद वृक्ष।
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रक्त-फूल  : पुं० [सं० रक्त+हिं० फूल] १. जवा फूल। अड़हुल का फूल। २. ढाक। पलास।
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रक्त-फेनज  : पुं० [सं० रक्तफेन, ष० त० रक्तफेन√जन् (उत्पन्न होना)+ड०] फुफ्फुस। फेफड़ा।
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रक्त-बिंदु  : पुं० [ष० त०] १. रुधिर या लहू की बूँद। २. [ब० स०] लाल चिचड़ा। ३. [कर्म० स०] रत्न आदि में दिखाई पड़नेवाला धब्बा जिसकी गिनती दोषों में होती है।
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रक्त-बीज  : पुं० =रक्त-बीज।
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रक्त-भव  : पुं० [ब० स०] गोश्त। मांस। वि० रक्त से उत्पन्न।
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रक्त-मंजरी  : स्त्री० [ब० स०] लाल कनेर।
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रक्त-मंडल  : पुं० [ब० स०] १. लाल कमल। २. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का साँप। ३. एक जहरीला पशु।
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रक्त-मत्त  : वि० [तृ० त०] जो रक्त पीकर तृप्त हो। रक्त पीकर मतवाला होनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. खटमल। ३. जोंक।
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रक्त-मस्तक  : पुं० [ब० स०] लाल रंग के सिरवाला सारस पक्षी।
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रक्त-मुख  : पुं० [ब० स०] १. रोहू (मछली) २. यष्टिक धान्य। वि० लाल मुँहवाला।
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रक्त-मोचन  : पुं० [ष० त०]=रक्त-मोक्षण।
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रक्त-यष्ठि  : स्त्री० [ब० स०] मंजीठ।
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रक्त-रज (स्)  : पुं० [कर्म० स०] सिंदूर।
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रक्त-रसा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] रास्ना (कंद)।
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रक्त-रेणु  : पुं० [ब० स०] १. सिंदूर। २. पुन्नाग।
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रक्त-रोग  : पुं० [मध्य० स०] १. ऐसा रोग जिसके फलस्वरूप शरीर का रक्त दूषित हो जाता है। २. रक्त के दूषित होने के कारण उत्पन्न होनेवाला रोग।
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रक्त-वटी  : स्त्री० [कर्म० स०] शीतला रोग। चेचक। माता।
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रक्त-वर्ग  : पुं० [ब० स०] वैद्यक के अनार, ढाक, लाख, हलदी, दारुहलदी, कुसुम के फूल, मंजीठ और दुपहिया के फूल, इन सबका समूह।
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रक्त-वर्ण  : पुं० [ब० स०] १. बीरबहूटी नामक कीड़ा। २. गोमेद या लहसुनिया नामक रत्न। ३. मूँगा। ४. कभीला। वि० लाल रंग का।
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रक्त-वर्तक  : पुं० [कर्म० स०] लाल बटेर।
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रक्त-वर्द्धन  : वि० [सं० रक्त√वृध् (वृद्धि)+णिच्+ल्यु-अन] रक्त बढ़ानेवाला। रक्त वर्धक। पुं० बैंगन। भंटा।
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रक्त-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] १. मंजीठ। २. नलिका या पचारी नामक गन्ध द्रव्य। ३. दंडोत्पल ४. पित्ती नाम की लता।
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रक्त-वसन  : पुं० [ब० स०] संन्यासी।
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रक्त-वह-तंत्र  : पुं० [सं० रक्त√वह् (ले जाना)+अच्, रक्तवह्-तंत्र, ष० त०] शरीर की वे सब शिराएं और अंग जो सारे सरीर में रक्त पहुँचाने में सहायक होते हैं। (सर्क्युलेटरी सिस्टम)।
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रक्त-वात  : पुं० [मध्य० स०] वात-रक्त। (दे०)
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रक्त-वालुक  : पुं० [ब० स०] सिंदूर।
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रक्त-विद्रधि  : पुं० [मध्य० स०] रक्त-विकार के फलस्वरूप होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा। इसमें किसी अंग में सूजन होती है और उसके चारों ओर काले रंग की फुँसिया हो जाती है।
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रक्त-विस्फोटक  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर में गुंजा के समान लाल-लाल फफोले पड़ जाते हैं।
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रक्त-वीज  : पुं० [ब० स०] १. लाल बीजोंवाला दाड़िम। अनार। २. रीठा। ३. शुंभ और निशुंभ का सेनापति एक राक्षस। जिसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि धरती पर गिरनेवाली उसके रक्त की हर एक बूँद से एक-एक राक्षस उत्पन्न होते थे।
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रक्त-वीजा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] सिंदूर पुष्पी। सिंदूरिया।
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रक्त-वृंत्तक  : पुं० [सं० कर्म० स०] पुनर्नवा। गदहपूरना।
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रक्त-वृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] आकाश से रक्त या लाल रंग के पानी की वृष्टि होना। दे० ‘रुधिर वर्षण’।
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रक्त-व्रण  : पुं० [मध्य० स०] वह फोड़ा जिसमें मवाद के स्थान पर रक्त निकलता हो।
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रक्त-शर्करा  : स्त्री० [मध्य० स०] शर्करा का वह तत्त्व जो शरीर के रक्त में रहता है। (ब्लड शूगर)
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रक्त-शालि  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का लाल रंग का चावल। दाऊदरबानी।
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रक्त-शासन  : पुं० [सं० रक्त√शास् (वश में करना)+ल्यु-अन] सिंदूर।
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रक्त-शिग्रु  : पुं० [कर्म० स०] लाल सहिंजन।
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रक्त-श्रृंग  : पुं० [कर्म० स०] हिमालय की एक चोटी।
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रक्त-श्वेत  : पुं० [कर्म० स०] एक तरह का अत्यधिक जहरीला बिच्छू (सुश्रुत)।
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रक्त-संज्ञक  : पुं० [ब० स० कप्] कुंकुम। केसर।
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रक्त-संबंध  : पुं० [ष० त०] कुलगत संबंध। एक ही कुल, परिवार या वंश की दृष्टि से होनेवाला सम्बन्ध।
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रक्त-सर्षण  : पुं० [कर्म० स०] लाल सरसों।
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रक्त-संवरण  : पुं० [ष० त०] सुरमा।
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रक्त-सार  : पुं० [ब० स०] १. लाल चंदन। २. पतंग। बक्कम। ३. अमलबेंत। ४. खदिर। खैर। ५. वाराही कंद। गेंठी। ६. रक्त-बीजासन।
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रक्त-स्तंभन  : पुं० [ष० त०] शरीर के किसी अंग से बहते हुए रक्त को बंद करना या रोकना।
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रक्त-स्राव  : पुं० [ष० त०] १. शरीर के किसी अंग से रक्त निकलना या बहना। २. घोड़ों का एक रोग जिसमें उनकी आँखों से रक्त या लाल रंग का पानी बहता है।
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रक्त-हर  : पुं० [ष० त०] भिलावाँ। वि० रक्त सुखाने या सोखनेवाला।
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रक्तक  : पुं० [सं० रक्त√कै (शब्द)+क] १. गुल दुपरिया का पौधा और उसका फूल। बंधुक। २. लाल सहिंजन का पेड़। ३. लाल रेंड़। ४. लाल कपड़ा। ५. लाल रंग का घोड़ा। ६. केसर। वि० १. रक्त वर्ण का । लाल। २. अनुरक्त। ३. विनोदप्रिय।
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रक्तकंठ  : पुं० [सं० ब० स०] १. कोयल। २. बैंगन। ३. भंटा। वि० जिसका कंठ या गला रक्त अर्थात् लाल हो।
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रक्तकंद  : पुं० [सं० ब० स०] १. विद्रुम। मूँगा। २. प्याज। ३. रतालू।
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रक्तकांता  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] लाल पुनर्नवा। लाल गदह-पूरना।
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रक्तकुष्ठ  : पुं० [कर्म० स०] विसर्प, नामक रोग जिसमें सारा शरीर लाल हो जाता है और इसमें बहुत जलन होती है और कुष्ठ की तरह अंग गलने लगते हैं।
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रक्तक्षय  : पुं० [सं० ष० त०] १. रक्त का क्षय होना। २. दे० ‘रक्त क्षीणता’।
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रक्तचूर्णा  : पुं० [कर्म० स०] १. सिंदूर। २. कमीला।
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रक्तच्छर्दि  : स्त्री० [ष० त०] खून की कै होना। रक्त-वमन।
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रक्तज  : वि० [सं० रक्त√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. जो रक्त से उत्पन्न हो। २. (रोग) जो रक्त विकार के कारण उत्पन्न हो।
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रक्तजकृमि  : पुं० [कर्म० स०] वह कृमि जो रक्त-विकार के कारण उत्पन्न होता है।
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रक्तजपा  : स्त्री० [कर्म० स०] अड़हुल। जवा। देवीफूल।
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रक्तजिह्व  : पुं० [ब० स०] सिंह। शेर। वि० लाल जीभवाला।
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रक्तजूर्ण  : पुं० [कर्म० स०] ज्वार। जोन्हरी।
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रक्ततप्त  : वि० [कर्म० स०] इतना अधिक तपा या तपाया हुआ कि देखने में लाल हो गया हो। बहुत अधिक तपा हुआ। (रेड-हॉट)
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रक्ततर  : पुं० [सं० रक्त+तरप्] गेरू।
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रक्ततला  : स्त्री० [सं० रक्त√ला (आदान)+क+टाप्] १. काकतुंडी। कौआ-ठोंठी। २. गंजा। घुँघची।
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रक्तता  : स्त्री० [सं० रक्त+तल्+टाप्] रक्त होने की अवस्था या भाव। लाली। सुर्खी।
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रक्तताप  : पुं० [कर्म० स०] उस अवस्था की ताप या गरमी जब कोई चीज तपाने से लाल हो गई हो। (रेड-हीट)।
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रक्ततिसार  : पुं० [सं० रक्त-अतिसार, मध्य० स०] एक प्रकार का अतिसार रोग जिसमें लहू के दस्त आते हैं।
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रक्ततुंड  : पुं० [सं० ब० स०] तोता।
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रक्ततुंडक  : पुं० [सं० रक्ततुंड+कन्] सीसा।
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रक्ततृण  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का लाल रंग का तृण।
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रक्तदंतिका  : स्त्री० [ब० स० कप्+टाप्, इत्व] दुर्गा का वह रूप जो उन्होंने शुंभ-निसुंभ को मारने के समय धारण किया था। चंडिका।
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रक्तदंती  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्]=रक्तदंतिका।
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रक्तदला  : स्त्री० [ब० स० टाप्] नालिका नामक गंध-द्रव्य।
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रक्तदान-बैंक  : पुं० [सं० रक्तदान+अं० बैक] वह स्थान जहाँ स्वस्थ व्यक्तियों के शरीर से निकाला हुआ रक्त इसलिए सुरक्षित रखा जाता है कि आवश्यकता पड़ने पर ऐसे रोगियों के शरीर में प्रविष्ट किया जा सके जो रक्त की कमी के कारण मरणासन्न हो रहे हों। (ब्लड बैंक)
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रक्तदूषण  : वि० [ष० त०] जिसके रक्तदूषित हो। खून-खराब करनेवाला।
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रक्तध्न  : पुं० [सं० रक्त√हन् (हिंसा)+टक्] रोहितक वृक्ष। वि० रक्त का नाश करनेवाला।
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रक्तध्नी  : स्त्री० [सं० रक्तध्न+ङीष्] एक प्रकार की दूब। गंडदूर्वा।
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रक्तप  : वि० [सं० रक्त√पा (पान)+क] रक्त पान करने अर्थात् लहू पीनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. खटमल।
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रक्तपट  : वि० [ब० स०] लाल रंग के कपड़े पहननेवाला। पुं० बौद्ध श्रमण।
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रक्तपत्र  : पुं० [ब० स०] पिंडालू।
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रक्तपत्रा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. लाल गदहपूरना। २. नाकुली।
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रक्तपर्ण  : पुं० [ब० स०] लाल गदहपूरना।
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रक्तपा  : स्त्री० [सं० रक्तप+टाप्] १. जोंक। २. डाकिनी।
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रक्तपारद  : पुं० [कर्म० स०] हिंगुल। ईगुर।
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रक्तपित्तहा  : स्त्री० [सं०√रक्तपित्त√हन् (हिंसा)+ड+टाप्] रक्तध्नी नामक दूब।
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रक्तपित्ती (त्तिन्)  : पुं० [सं० रक्तपित्त+इनि] वह जो रक्तपित्त रोग से ग्रस्त हो।
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रक्तपुष्पा  : स्त्री० [सं० रक्तपुष्प+टाप्] १. शाल्मली वृक्ष। सेमल। २. पुनर्नवा। ३. सिंदूरी। ४. चंपा केला। ५. नागदौन।
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रक्तपुष्पी  : स्त्री० [सं० रक्तपुष्प+ङीष्] १. जवा। अड़हुल। २. नाग दौड़। घौ। घव। ४. आवर्त्तकी लता। ५. पाढर।
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रक्तपूतिका  : स्त्री० [कर्म० स०] लाल रंग की पूतिका। लाल पोई।
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रक्तफल  : पुं० [ब० स०] १. शाल्मलि। सेमल। २. बड़ का पेड़। वटवृक्ष।
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रक्तफला  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] १. कुंदरू। तुष्टी। बिंवी। २. स्वर्णवल्ली।
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रक्तमत्स्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार की लाल रंग की मछली जो बहुत बड़ी नहीं होती।
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रक्तमातृका  : स्त्री० [सं० रक्त-मातृ, ष० त० कन्+टाप्] १. वैद्यक के अनुसार शरीर का वह रस (धातु) जिसकी उत्पत्ति पेट में पचे हुए भोजन से होती है और जिससे रक्त बनता है। २. तंत्र के अनुसार एक प्रकार का रोग।
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रक्तमूर्द्धा (र्द्धन्)  : पुं० [ब० स०] सारस।
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रक्तमूलक  : पुं० [ब० स० कप्] देवसर्षण नामक सरसों का पौधा।
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रक्तमेह  : पुं० =रक्त-प्रमेह।
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रक्तमोक्षण  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में एक प्रकार का उपचार या क्रिया जिससे शरीर का अथवा उसके किसी अंग का खराब खून बाहर निकाला जाता है। फसद खोलना।
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रक्तरंगा  : स्त्री० [ब० स०] मेंहदी।
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रक्तलोचन  : पुं० [ब० स०] १. कबूतर। २. कोयल। ३. सारस। ४. चकोर। वि० लाल आँखोंवाला।
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रक्तवृंत्ता  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] शेफालिका। निर्गुडी।
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रक्तशीर्षक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] १. गंधा बिरोजा। २. सारस पक्षी।
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रक्तष्ठीवि  : पुं० [सं० रक्त√ष्ठीव् (थूकना)+णिनि, उप० स०] एक प्रकार का घातक और असाध्य सन्निपात जिसमें मुँह से लहू जाता है।
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रक्ता  : स्त्री० [सं० रक्त+अच्+टाप्] १. संगीत में पंचम स्वर की चार श्रुतियों में से दूसरी श्रुति। २. गुंजा। घुंघची। ३. लाक्षा। लाख। ४. मंजीठ। ५. ऊँटकटारा। ६. एक प्रकार का सेम। ७. लक्ष्मण नामक कन्द। ८. वच। वचा। ९. एक प्रकार की मकड़ी। १॰. कान के पास की एक नस।
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रक्ताकार  : पुं० [रक्त-आकार, ब० स०] मूँगा।
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रक्तांक्त  : वि० [रक्त-अक्त, तृ, त०] १. लाल रंग में रँगा हुआ। २. जिसमें रक्त या खून लगा हो। पुं० लाल चंदन।
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रक्ताक्ष  : पुं० [रक्त-अक्षि, ब० स० षच्, प्रत्यय] १. कोयल। २. चकोर। ३. सारस। ४. कबूतर ५. भैंसा। ६. साठ संवत्सरों में से अट्ठानवें संवत्सर का नाम। वि० लाल आँखोंवाला।
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रक्तांग  : पुं० [रक्त-अंग, ब० स०] १. मंगल ग्रह। २. कमीला। ३. मूँगा। ४. खटमल। ५. केसर। ६. लाल चंदन। वि० लाल अँगोंवाला।
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रक्तांगी  : स्त्री० [सं० रक्तांग+ङीष्] १. मंजीठ। २. जीवंती। ३. कुटकी।
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रक्ताधर  : वि० [रक्त-अधर, ब० स०] [स्त्री० रक्ताधार] लाल होंठोंवाला।
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रक्ताधरा  : स्त्री० [रक्त-अधर, ब० स० टाप्] किन्नरी।
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रक्ताधार  : पुं० [रक्त-आधार, ष० त०] चमड़ा।
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रक्तापह  : पुं० [सं० रक्त-अप√हन् (हिंसा)+ड] बोल (गंधद्रव्य)।
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रक्तांबर  : पुं० [रक्त-अंबर, कर्म० स०] १. लाल वस्त्र। गेरुआ वस्त्र। २. [ब० स०] संन्यासी जो गेरुआ वस्त्र पहनता है।
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रक्ताभ  : पुं० [रक्त-आभा, ब० स०] बीरबहूटी। वि० रक्त की तरह की लाल आभावाला। जो कुछ-कुछ लाली लिये हो।
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रक्ताभा  : स्त्री० [सं० रक्ताभ+टाप्] लाल जवा।
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रक्ताभ्र  : पुं० [रक्त-अभ्र, कर्म० स०] लाल अभ्रक।
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रक्तारि  : पुं० [रक्त-अरि, ष० त०] महाराष्ट्री नामक क्षुप (पौधा)।
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रक्तार्बुद  : पुं० [रक्त-अर्बुद, ब० स०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर में पकने और बहनेवाली गाँठे निकल आती हैं। २. शुक्रदोष के कारण उत्पन्न होनेवाला एक रोग जिसमें लिंग पर, काले फोडे़ और उनके साथ लाल फुन्सियाँ निकल आती है।
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रक्तार्श (र्शस्)  : पुं० [रक्त-अर्शस्, मध्य० स०] खूनी बवासीर।
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रक्तालु  : पुं० [रक्त-आलु, कर्म० स०] रतालू (कंद)।
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रक्तावरोधक  : वि० [रक्त-अवरोधक, ष० त०] बहते हुए खून को रोकनेवाला।
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रक्तावसेचन  : पुं० [रक्त-अवसेचन, ष० त०] १. शरीर के सात आशयों में से चौथा जिसमें रक्त का रहना माना जाता है। २. रक्त मोक्षण।
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रक्ताशोक  : पुं० [रक्त-अशोक, कर्म० स०] लाल अशोक का वृक्ष।
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रक्ति  : स्त्री० [सं०√रंज् (राग+क्तिन्)] १. अनुराग। प्रेम। २. रत्ती नामक तौल या परिमाण।
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रक्तिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० रक्त+इमानिच्] रक्तिम होने की अवस्था या भाव।
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रक्तेक्षु  : पुं० [रक्त-इक्षु, कर्म० स०] लाल रंग का ऊख।
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रक्तोत्पल  : पुं० [रक्त-उत्पल, कर्म० स०] १. लाल कमल। २. शाल्मलि। सेमल।
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रक्तोदर  : पुं० [रक्त-उदर, ब० स०] १. रोहू मछली। २. एक प्रकार का जहरीला बिच्छू।
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रक्तोपदंश  : पुं० [रक्त-उपदंश, मध्य० स०] आतशक (रोग)।
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रक्तोपल  : पुं० [रक्त-उपल, कर्म० स०] गेरू।
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रक्ष  : पुं० [सं०√रक्ष् (पालन)+अच्] १. रक्षक। रखवाला। २. रक्षा। रखवाली। हिफाजत। ३. लाक्षा। लाख। ४. छप्पय के साठवें भेद का नाम जिसमें ११ गुरु और १३0 लघु मात्राएं अथवा ११ गुरु और १२६ लघु मात्राएँ होती है। पुं० =राक्षस।
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रक्षक  : पुं० [सं०√रक्ष्+ण्वुल्—अक] १. रक्षा करनेवाला। बचानेवाला। हिफाजत करनेवाला। २. पहरेदार। ३. पालन-पोषण करनेवाला।
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रक्षण  : पुं० [सं०√रक्ष्+ल्युट—अन] १. रक्षा करना। हिफाजत करना। रखवाली। २. पालन-पोषण करना। ३. रक्षक।
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रक्षणकर्ता (र्तृ)  : पुं० [ष० त०] रक्षा करनेवाला। रक्षक।
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रक्षणीय  : वि० [सं०√रक्ष्+अनीयर्] [स्त्री० रक्षणीया] रक्षा किये जाने के योग्य। जिसे रक्षित रखना हो।
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रक्षन  : पुं० =रक्षण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रक्षना  : स० [सं० रक्षण] रक्षा करना। हिफाजत करना। सँभालना। बचाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रक्षपाल  : पुं० [सं० रक्ष√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण, उप० स०] वह जिसका काम रक्षा करना हो।
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रक्षमाण  : वि० =रक्ष्यमाण।
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रक्षस  : पुं० =राक्षस। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रक्षा  : स्त्री० [सं०√रक्ष्+अ-टाप्] १. ऐसा काम जो आक्रमण, आघात, आपद, नाश आदि से बचने या बचाने के लिए किया जाता हो। हिफाजत। जैसे—अपनी रक्षा, घर की रक्षा, संकट में पड़े हुए मित्र की रक्षा। २. बालकों को भूत-प्रेत नजर आदि से बचने के उद्देश्य से बाँधा जानेवाला यंत्र या सूत्र। कवच। ३. गोद। ४. भस्म।
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रक्षा-कवच  : पुं० [मध्य० स०] १. तंत्र-मंत्र की विधि से बनाया हुआ वह कवच या यंत्र जो किसी को आपत्तियों आदि से रक्षित रखने के लिए पहनाया जाता है। २. कोई ऐसी चीज या बात जो सब प्रकार से किसी की रक्षा करने के लिए यथेष्ट मानी जाती है। (सेफ-गार्ड)।
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रक्षा-गृह  : पुं० [ष० त०] १. चौकी। २. सूतिका-गृह। जच्चा-खाना।
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रक्षा-पति  : पुं० [ष० त०] नगर का शासक या रक्षा का प्रबंध करनेवाला एक प्राचीन भारतीय अधिकारी।
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रक्षा-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. भोजपत्र। २. सफेद सरसों।
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रक्षा-पुरुष  : पुं० [च० त०] पहरेदार। प्रहरी।
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रक्षा-प्रदीप  : पुं० [च० त०] भूत-प्रेत आदि की बाधा से बचे रहने के उद्देश्य से जलाया जानेवाला दीपक। (तंत्र)
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रक्षा-बंधन  : पुं० [ष० त०] १. किसी के हाथ में रक्षासूत्र बाँधने की क्रिया या भाव। २. हिन्दुओं का एक त्यौहार जो श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को होता है, जिसमें बहन अपने भाई तथा पुरोहित अपने यजमान की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधता है।
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रक्षा-भूषण  : पुं० [च० त०] वह भूषण या जंतर जिसमें किसी प्रकार का कवच आदि हो और जो भूत-प्रेत या रोग आदि की बाधाओं से रक्षित रहने के लिए पहना जाय।
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रक्षा-मंगल  : पुं० [च० त०] भूत-प्रेत आदि की बाधा से रक्षित रहने के उद्देश्य से किया जानेवाला अनुष्ठान।
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रक्षा-रत्न  : पुं० =रक्षामणि।
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रक्षाइद  : स्त्री० [हिं० रक्ष+आइद (प्रत्यय)] राक्षसपन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रक्षापाल  : पुं० [सं० रक्षा√पाल् (बचाना)+णिच्+अण्] पहरेदार। प्रहरी।
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रक्षापेक्षक  : पुं० [रक्षा-अपेक्षक, ष० त०] १. पहरेदार। प्रहरी। २. अंतःपुर का पहरेदार। ३. अभिनेता। नट।
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रक्षामणि  : पुं० [च० त०] वह मणि या रत्न जो किसी ग्रह के प्रकोप से रक्षित रहने के लिए धारण किया जाय।
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रक्षासूत्र  : पुं० [च० त०] वह मंत्रपूत सूत या डोरा जो हाथ की कलाई में रक्षा-कारक मानकर बाँधा जाता है। राखी।
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रक्षिक  : वि० [सं०√रक्ष्+णिनि+कन्] रक्षक। पुं० पहरेदार। संतरी।
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रक्षिका  : स्त्री० [सं० रक्षा, कन्-टाप्, ह्रस्व, इत्व] रक्षा। हिफाजत।
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रक्षित  : भू० कृ० [सं०√रक्ष्+क्त] [स्त्री० रक्षिता] १. जिसकी रक्षा की गई हो। हिफाजत किया हुआ। २. पाला-पोसा हुआ। ३. संभाल कर रखा हुआ। जैसे—रक्षित वन। ४. किसी विशिष्ट कार्य, व्यक्ति आदि के उपयोग के लिए निश्चित किया या ठहराया हुआ।
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रक्षित-राज्य  : पुं० [सं० कर्म० स०]=संरक्षित-राज।
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रक्षिता  : स्त्री० [सं० रक्षिन्+तल्+टाप्] १. रक्षा। हिफाजत। २. [रक्षित+टाप्] बिना विवाह किये रखी हुई स्त्री। रखेली स्त्री।
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रक्षिता (तृ)  : पुं० [सं०√रक्ष्+तृच]= रक्षक।
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रक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं०√रक्ष्+णिनि] १. रक्षक। २. पहरेदार। प्रहरी। पुं० [हिं० रक्षस् से] वह जो राक्षसों की उपासना करता हो।
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रक्षी-दल  : पुं० [सं० रक्षि-दल] आरक्षी (पुलिस) विभाग के साधारण सिपाहियों के वर्ग का सामूहित नाम (कान्स्टेबुलेरी)
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रक्षोध्न  : पुं० [सं० रक्षासहन् (हिंसा)+टक्] १. हींग। २. भिलावाँ। ३. सफेद सरसों। ४. चावल का वह पानी या माँड़ जो कुछ समय तक रखने से खट्टा हो गया हो।
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रक्षोध्नी  : स्त्री० [सं० रक्षोध्न+ङीष्] वचा। बच।
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रक्ष्य  : वि० [सं०√रक्ष्+ण्यत्] जिसका रक्षा करना उचित या कर्त्तव्य हो। रक्षणीय।
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रक्ष्यमाण  : वि० [सं०√रक्ष्+लट् (कर्मणि)-शानच्, यक्, मुगागम] जिसकी रक्षा की जा सके या की जाने को हो।
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रक्स  : पुं० [अ०] १. नाच। नृत्य। २. किसी चीज का इस प्रकार बार-बार इधर-उधर हिलना-डोलना या झूमना कि वह नाचती हुई जान पड़े। जैसे—शमा का रक्स=मोमबत्ती की लौ का हवा में हिलना-डोलना।
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रक्से-ताऊस  : पुं० [अ०+फा० ] =मोर-नाच (देखें)।
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रख  : स्त्री० रखा (चरी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)]
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रख-रखाव  : पुं० [हिं० रखना+रखाना] १. रक्षा। हिफाजत। २. मर्यादा, परंपरा, व्यवहार सम्बन्ध आदि का उचित रूप में होनेवाला निर्वाह। उदाहरण—दुनिया है रख-रखाव की, इससे सँभल के चल।—कोई सायर। ३. दोनों पक्षों की बात रखने तथा उन्हें संतुष्ट करने की क्रिया या भाव। ४. पालन-पोषण। रखल
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रखटी  : स्त्री० [देश] ईख की एक जाति।
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रखड़ा  : पुं० =रखटी।
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रखना  : स० [सं० रक्षण, प्रा० रक्खणा] १. किसी आधार, तल, वस्तु, व्यक्ति, स्थान आदि पर कोई चीज टिकाना, धरना, लादना या स्थापित करना। जैसे—(क) मेज पर गिलास रखना। (ख) मुँह पर हाथ रखना। (ग) घोड़े पर असबाब रखना। २. किसी वस्तु को दूसरे को देने, सौंपने या समर्पित करने के उद्देश्य से स्थापित करना या छोड़ देना। जैसे—किसी पर निर्णय का भार रखना। ३. किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट पद पर या स्थिति में नियुक्त या स्थापित करना। तैनात या मुकर्रर करना। जैसे—घर के काम के लिए नौकर तथा कोठी के काम के लिए मुनीम रखना। ४. कोई बात या विषय किसी के सामने समझाने आदि के लिए उपस्थित करना या प्रस्तुत करना। जैसे—(क) पसंद करने के लिए ग्राहक के सामने चीजें रखना। (ख) अदालत के सामने मामला या सूबत रखना। (ग) श्रोताओं के सामने उदाहरण अथवा प्रसंग रखना। ५. कोई चीज या बात इस प्रकार अपने अधिकार या वश में करना कि उसका दुरुपयोग न हो सकें, अथवा वह दूसरे के अधिकार में न जा सके। जैसे—(क) सौ रुपये हमने अपने पास रखे हैं। (ख) यह बात अपने मन में रखना, अर्थात् किसी से कहना मत। मुहावरा—(किसी का) कुछ रख लेना=इस प्रकार अपने अधिकार में कर लेना कि उसका वास्तविक स्वामी उसे पा या ले न सके। दबा लेना। जैसे—उन्होंने हमारा सारा काम भी रख लिया, और हमें रुपए भी नहीं दिये। ६. किसी प्रकार के उपयोग के लिए चीजें एकत्र करना। संग्रह या संचय करना। जैसे—(क) यह दूकानदार सब तरह की चीजें रखता है। (ख) हम हस्तलिखित ग्रन्थ और पुराने सिक्के रखते हैं। ७. पालन-पोषण, मनोविनोद, व्यवहार आदि के लिए अपने अधिकार में करना। जैसे—(क) कबूतर, कुत्ता या गौ रखना। (ख) गाड़ी, घोड़ा या मोटर रखना। (ग) रंडी रखेली रखना। ८. किसी के टिकने, ठहरने या रहने के लिए स्थान की व्यवस्था करना। टिकाना। ठहराना। जैसे—बरातियों को तो उन्होंने अपने बगीचे में रखा, और नौकर-चाकरों को धर्मशाला में। ९. किसी प्रकार का आरोप करना। जिम्मे लगाना। सिर मढ़ना। जैसे—तुम तो सदा सारा दोष मुझ पर ही रखते हो। १॰. कोई चीज गिरवी या बंधक में देना। रेहन करना। जैसे—घर के गहने रख कर ये ५००) लाया हूँ। ११. किसी का ऋणी या कर्जदार होना। जैसे—हम उनका कुछ रखते नहीं है, जो उनसे दबें। १२. किसी पुरुष का किसी स्त्री (या किसी स्त्री का पर-पुरुष को) उपपत्नी (या उपपति) के रूप में ग्रहण करके उसे अपने यहाँ स्थान देना। जैसे—विधवा होने पर उसने अपने देवर (या नौकर) को रख लिया था। १३. प्रसंग-संभोग या सहवास करना। (बाजारू) जैसे—एक दिन तो तुमने भी उसे रखा था। १४. सामाजिक व्यवहार आदि में परंपरा संबंध आदि का निर्वाह या पालन करना। बिगड़ने न देना। जैसे—(क) तुम भले ही सबसे लड़ते फिरो, पर हमें तो सबसे रखना ही पड़ता है। (ख) वह ऐसी कर्कशा और कलहनी थी, कि उसने अपने किसी रिश्तेदार से नहीं रखी। १५. किसी चीज की देख-भाल या रखवाली करना। विपत्ति, हानि आदि से रक्षा करना। १६. उक्त सुरक्षा की दृष्टि से कोई चीज किसी के पास छोड़ना। सुपुर्द करना। जैसे—अभी यह घडी़ भइया के पास रख दो, जरूरत पड़ने पर ले लेना। संयो० क्रि०—देना। १७. ऐसी स्थिति में लाना या रखना कि जाने, निकलने या भागने न पावे (प्राय० संयो० क्रि० के रूप में प्रयुक्त) जैसे—दबा रखना, भार रखना, रोक रखना। १८. कुछ विशिष्ट मनोवेगों के संबंध में, मन में दृढ़तापूर्वक धारण करना या स्थान देना। जैसे—आशा या भरोसा रखना। १९. आघात, प्रहार आदि के रूप में जमाना या लगाना। (क्व०) जैसे—उसने लाठी का एक ऐसा हाथ रखा कि लड़के का सिर फूट गया। २0०कोई काम या बात किसी और समय के लिए स्थगित करना। जैसे—अब इसका निश्चय कल पर रखो। २१. किसी रूप में किसी पर अवलंबित या आश्रित करना। जैसे—(क) किसी के कंधे पर हाथ रखना। (ख) खंभों या दीवारों पर छत रखना। मुहावरा—(कोई बात किसी पर) रखकर कहना=इस प्रकार कोई बात कहना कि उसका कुछ अंश किसी पर ठीक घटता या सार्थक होता हो। किसी को आरोप का लक्ष्य बनाकर कोई बात कहना। जैसे—मैने तो वह बात उन पर रख कर कही थी, तुम उसे व्यर्थ अपने ऊपर ले गये। २२. पक्षियों आदि के संबंध में, अंडे देना। जैसे—यह मुरगी साल में पचास अंडे रखती है। विशेष—(क) कुछ अवस्थाओं में यह क्रिया दूसरी क्रियाओं के साथ संयो० क्रि० के रूप में लगकर किसी कार्य की पूर्णता, समाप्ति आदि भी सूचित करती है। जैसे—यह रखना, बचा रखना, माँग रखना, ले रखना आदि। (ख) कुछ अवस्थाओं में संज्ञाओं के साथ लगकर यह क्रिया कुछ मुहावरे भी बनाती है। जैसे—हाथ रखना। ऐसे अर्थों के लिए संज्ञाएँ देखें। (ग) कुछ अवस्थाओं में इस क्रिया के साथ कुछ और क्रियाएँ भी संयो० क्रि० के रूप में लगती हैं। जैसे—रख छोड़ना, रख देना, रख लेना। ऐसे अवसरों पर भी प्रायः क्रिया की पूर्णता या समाप्ति ही सूचित होती है। पुं० [अ० रखनः] १. छेद। सुराख। २. ऐब। दोष। ३. बाधा। रूकावट।
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रखनी  : स्त्री० [हिं० रखना+ई (प्रत्यय)] वह स्त्री जिससे विवाह संबंध न हुआ हो और जो यों ही घर में पत्नी के रूप में रख ली गई हो। रखेली। सुरैतिन। क्रि० प्र०—बनाना।—रखना।
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रखला  : पुं० =रहकला। पुं० [हिं० रहँकला] मध्य युग में तोप, आदि लाद कर ले चलने की छोटी गाड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखवाई  : स्त्री० [हिं० रखना, या रखाना] १. खेतों की रखवाली। चौकीदारी। २. रखवाली करने का काम, भाव या मजदूरी। ३. ब्रिटिश शासन में वह कर जो गाँवों से, उनमें चौकीदार रखने के बदले में लिया जाता था।
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रखवाना  : स० [हिं० रखना का प्रेर] १. रखने की क्रिया दूसरे से कराना। २. किसी को कुछ रखने अर्थात् निकालकर दे देने या सौंपने में प्रवृत्त या विवश करना। ३. दे० ‘रखाना’।
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रखवार  : पुं० =रखवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रखवारी  : स्त्री०=रखवाली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखवाला  : पुं० [हिं० रखना+वाला (प्रत्यय)] [भाव० रखवाली] १. वह जो किसी की या दूसरों की रक्षा करता हो। २. पहरा देनेवाला चौकीदार।
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रखवाली  : स्त्री० [हिं० रखना+वाली (प्रत्यय)] १. रखनेवाले का काम। रक्षा करने की क्रिया या भाव। हिफाजत। २. चौकीदारी। पहरेदारी।
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रखशी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की नेपाली शराब। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखा  : स्त्री० [हिं० रखना] गोचर भूमि। चरी।
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रखाई  : स्त्री० [हिं० रखना+आई (प्रत्यय)] १. रक्षा करने की क्रिया या भाव। रखवाली। २. रखवाली करने के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक।
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रखान  : स्त्री० [हिं० रखना] चराई की भूमि। चरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखाना  : स० [हिं० रखना का प्रे०] रखने की क्रिया दूसरे से कराना। दूसरों को कुछ रखने में प्रवृत या विवश करना। अ० रखवाली या हिफाजत करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखिया  : वि० [हिं० रखना+इया (प्रत्यय)] रखनेवाला। पुं० १. गाँव के समीप का वह पेड़ जो पूजनार्थ रक्षित रहता है। २. रक्षक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रखियाना  : स० [हिं० राखी+इयाना (प्रत्यय)] १. राखी लगाना। २. बरतन आदि राखी से रगड़ कर माँजना और साफ करना।
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रखी  : पुं० =ऋषि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखीराज  : पुं० =ऋषिराज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखेड़िया  : पुं० [हिं० राख+एड़िया (प्रत्यय)] एक प्रकार के साधु जो शरीर पर भस्म लगाये रहते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखेली  : स्त्री० [हिं० रखना+एली (प्रत्यय)] बिना विवाह किए ही घर में पत्नी के रूप में रखी हुई स्त्री। रखनी सुरैतिन।
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रखैया  : वि० [हिं० रखना+ऐया (प्रत्यय)] १. रखनेवाला। २. रक्षा करनेवाला। रक्षक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखैल  : स्त्री०=रखेली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखौड़ी  : स्त्री० [हिं० राखी=रक्षा] रक्षासूत्र। राखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रखौत  : गोचर भूमि। चरी।
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रखौना  : पुं० =रखौंत।
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रखौनी  : स्त्री०=राखी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंग  : पुं० [सं०√रंग् (गति)+अच्, वा√रञ्ज् (राग)+घञ्] १. किसी दृश्य पदार्थ का वह गुण जो उसके आकार या रूप से भिन्न होता है और जिसका अनुभव केवल आँखों से होता है। वर्ण। जैसे—नीला, पीला, लाल, सफेद या हरा रंग। विशेष—वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाश की भिन्न-भिन्न प्रकार की और अलग अलग लंबाइयों वाली किरणों के कारण हमें रंग की अनुभूति या ज्ञान होता है। जिन पदार्थों पर ऐसी किरणें पड़ती हैं, उनके रासायनिक गुण या तत्त्व भी हमें रंगों का बोध कराने में सहायक होते हैं। जब किसी वस्तु पर प्रकाश की किरणें पडती है, तब तीन प्रकार की क्रियाएँ होती हैं। एक तो उनका परावर्तन या पीछे की ओर लौटना, दूसरे उनका वर्तन या किसी ओर मुड़ना और तीसरे उस पदार्थ के द्वारा होनेवाला शोषण जिस पर प्रकाश की किरणें पड़ती हैं। जिन पदार्थों पर से प्रकाश किरणों का पूरा परावर्तन होता है, वे सफेद दिखाई देती हैं। जिन पदार्थों पर से प्रकाश परावर्तित नहीं होता, केवल वर्तित तथा शोषित होता है, वे बिना रंग के दिखाई देते हैं। जैसे—शुद्ध जल। और जो पदार्थ सारा प्रकाश सोख लेते हैं, वे काले दिखाई देते हैं, । प्रकाश की किरणें मुख्यतः सात रंगों की होती है। यथा—बैंगनी, नीली, काली या आसमानी, हरी, पीली, नारंगी के रंग की और लाल। इन सातों रंगों का मिश्रित रूप सफेद होता है, और रंग मात्र का अभाव काला दिखाई देता है। अलग-अलग प्रकार के पदार्थ अलग-अलग प्रकार के रंग सोखते और इसलिए अलग-अलग रंगों के दिखाई देते हैं। २. कुछ विशिष्ट रासायनिक क्रियाओं से बनाया हुआ वह पदार्थ जिसका व्यवहार किसी चीज को रँगने या रंगीन बनाने के लिए होता है। जैसे—जल-रंग, तैल-रंग। क्रि० प्र०—आना।—उड़ना।—उतरना।—करना।—चढ़ाना।—पोतना।—लगाना। पद—रंग-बिरंग। मुहावरा—रंग खेलना=होली के दिन में पानी में रंग घोलकर एक-दूसरे पर डालना। (किसी पर) रंग डालना= (होली में) पानी में रंग घोलकर किसी पर डालना। रंग निखरना=रंग का चमकीला या तेज होना और फलतः सुंदर जान पड़ना। ३. किसी पदार्थ के ऊपरी तल या शरीर का ऊपरी वर्ण। वक्ष और चेहरे की रंगत। वर्ण। क्रि० प्र०—उड़ना।—उतरना। मुहावरा—रंग निकलना या निखरना=चेहरे के रंग का साफ होना। चेहरे पर रौनक आना। ४. चौपट की गोटियों के खेल के काम के लिए किये हुए दो काल्पनिक विभागों में से हर एक। मुहावरा—रंग जमना=चौपड़ में रंग की गोटी का किसी अच्छे और उपयुक्त घर में जा बैठना, जिसके कारण खेलाड़ी की जीत अधिक निश्चित होती है। रंग मारना= (क) चौपड़ के खेल में किसी रंग की गोटी मारना। (ख) लाक्षणिक रूप में बाजी जीतना। प्रतियोगिता आदि में विजय। प्राप्त करना। ५. रूप, रंग आदि की सुंदरता के कारण दिखाई देनेवाली शोभा। छवि। रौनक। जैसे—आज तो इस पर रंग है। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना।—पकड़ना।—होना। पद—रंग है=वाह क्या बात है। बहुत अच्छे। मुहावरा—रंग पर आना=ऐसी स्थिति में आना कि यथेष्ट शोभा या सौदर्य दिखाई पड़े। रंग बरसना=शोभा या सौन्दर्य का इतना आधिक्य होना कि चारों ओर यथेष्ट प्रभाव पड़ रहा हो। ६. श्रृंगारिक क्षेत्र में होनेवाला अनुराग या प्रेम। मुहब्बत। मुहावरा—(किसी पर) रंग देना=किसी को अपने प्रेम पाश में फँसाने के उद्देश्य से उसके प्रति उत्कट प्रेम प्रकट करना। (बाजारू)। (किसी पर) रंग डालना=अपनी ओर अनुरक्त करना। उदाहरण—सतगुरु हो महाराज मोपै साई रंग डारा०।—कबीर। (किसी के) रंग में बींधना=किसी पर पूर्णरूपेण अनुरक्त होना। ७. किसी पर अनुरक्त होने के कारण उसके प्रति की जानेवाली कृपा या प्रकट की जानेवाली प्रसन्नता। ८. मनोविनोद के लिए की जानेवाली कीड़ा, और उससे प्राप्त होनेवाला आनंद या मजा। उदाहरण—मोकों व्याकुल छाँड़ि कै आपुन करै जु रंग।—सूर। क्रि० प्र०—आना।—उख़ड़ना।—जमना।—मचाना।—रचाना। पद—रंगरली या रंगरलियाँ। मुहावरा—रंग में भंग करना=आनंद में बाधा डालना। होते हुए आमोद-प्रमोद को ठप करना। रंग में होना=मन की यथेष्ट उमंग या प्रसन्नता की दशा में होना। जैसे—आज तो यह रंग में है। रंग में भंग पड़ना या होना=आनंद और हर्ष के समय कोई दुःखद घटना घटित होना या कोई बाधक बात होना। रंग रलना=आमोद-प्रमोद करना। क्रीड़ा या भोग-विलास करना। ९. यौवन। जवानी। युवावस्था। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना। मुहावरा—रंग चूना या टपकना=पूर्ण यौवन की अवस्था में रूप या सौदर्य का इतना आधिक्य होना कि औरों पर उसका पूरा-पूरा प्रभाव पड़ता हो। १॰. गुण, महत्त्व, योग्यता, शक्ति आदि का दूसरों के हृदय पर पडनेवाला आतंक या प्रभाव। धाक। रोब। क्रि० प्र०—उखड़ना।—जमना। मुहावरा—रंग बाँधना= (क) धाक या रोब जमाने के उद्देश्य से लंबी-चौड़ी हाँकना। (ख) प्रभावित करने के लिए व्यर्थ का आडम्बर खड़ा करना या ढोंग रचना। (किसी का) रंग बिगाड़ना= (क) प्रभाव या महत्व कम होना या न रह जाना। (ख) अभिमान चूर्ण करना। शेखी किरकिरी करना। रंग लाना=अपना गुण या प्रभाव दिखाना। उदाहरण—रंग लाएगी हमारी फाका मस्ती एक दिन।—गालिब। ११. किसी प्रकार का अद्भुत दृश्य। विलक्षण कार्य या व्यापार। जैसे—आज तो तुमने वहाँ एक रंग खड़ा कर दिया। १२. नृत्य, गीत आदि का उत्सव। पद—नाच-रंग। १३. वह स्थान जहाँ नृत्य या अभिनय होता हो। नाचने, गाने आदि के लिए बना हुआ स्थान। पद—रंग-देवता, रंगभूमि, रंगमंच, रंगशाला। १४. अवस्था। दशा। हालत। जैसे—कहो आज-कल उनका क्या रंग है १५. ढंग। ढब। पद—रंग-ढंग। मुहावरा—रंग काछना=कोई नई चाल या नया ढंग अख्तियार करना। (किसी को अपने) रंग में ढालना या रंगना=किसी को अपने ही विचारों का अनुयायी बना लेना। प्रभाव डालकर अपना सा कर लेना। १६. भाँति। प्रकार। तरह। पद—रंग-बिरंग। १७. युद्ध। लड़ाई। समर। क्रि० प्र०—ठानना।—मचाना। १८. लड़ाई का मैदान। युद्ध क्षेत्र। रणभूमि। पुं० [सं०+अच्] १. राँगा नामक धातु। २. खदिर सार।
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रग  : स्त्री० [फा०] १. शरीर की नस या नाड़ी। पद—रग-पट्ठा, रग-रेशा। मुहावरा—रग उतरना=(क) क्रोध, हठ आदि दूर होना। (ख) आँत उतरना (रोग)। रग चढ़ना=मन में क्रोध, हठ आदि का आवेश होना। (किसी से) रग दबना=ऐसी स्थिति में होना कि विवश होकर किसी के दबाव या प्रभाव में रहना पड़े। जैसे—हम्हीं से उसकी रग दबती है, तुम्हें तो वह कुछ समझता ही नहीं। रग फड़कना=किसी आनेवाली आपत्ति की पहले से ही आशंका होना। माथा ठनकना। रग रग फड़कना=शरीर में बहुत अधिक आवेश, उत्साह, चचंलता आदि के लक्षण प्रकट होना। रग रग में=सारे शरीर के सभी भागों में। सर्वांग में। २. जिद या हठ से जो शरीर की किसी रग के विकार का परिणाम माना जाता है। ३. पत्तों आदि में दिखाई पड़नेवाली नसें।
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रंग स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] १. आमोद-प्रमोद के लिए नियत स्थान। २. रंगशाला।
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रंग-काष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] पतंग नामक वृक्ष की लकड़ी। बक्कम।
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रंग-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. अभिनय करने का स्थान। रंग-स्थल। २. उत्सव आदि के लिए सजाया हुआ स्थान। रंगभूमि।
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रंग-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] रंगशाला। (दे०)
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रंग-चर  : पुं० [सं० रंग√चर् (गति)+ट, उप० स०] अभिनेता। नट।
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रंग-चित्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] विशेष प्रकार के रंगों के घोल से कूँची या तूलिका की सहायता से बनाया हुआ चित्र। (पेन्टिंग)
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रंग-चित्रक  : पुं० [सं० रंगचित्र+णिच्+ण्वुल्—अक] रंगचित्र बनानेवाला चित्रकार (पेन्टर)।
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रंग-चित्रण  : पुं० [सं० रंगचित्र+णिच्+ल्युट—अन] रंगचित्र बनाने की कला, क्रिया या भाव। (पेन्टिंग)।
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रंग-जननी  : स्त्री० [सं० ष० त०] लाख। लाक्षा।
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रंग-जीवक  : पुं० [सं० रंग√जीव (जीना)+ण्वुल्-अक, उप० स०] १. चित्रकार। २. अभिनेता। नट।
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रंग-ढंग  : पुं० [सं० +हिं] १. गति-विधि आदि की प्रवृत्ति या स्वरूप। जैसे—इसका रंग-ढंग ठीक नहीं दिखाई देता। २. आचरण, व्यवहार आदि का प्रकार का रूप। तौर-तरीका। जैसे—अब वह धीरे-धीरे अपना रंग-ढंग बदल रहा है। ३. ऐसी दशा बात या लक्षण जो किसी भावी व्यापार या स्थिति का सूचक हो। आसार। जैसे—आज तो आकाश में वर्षा का रंग-ढंग है।
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रंग-देवता  : पुं० [सं० ष० त०] रंग-भूमि के अधिष्ठाता।
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रंग-द्वार  : पुं० [सं० ष० त०] १. रंगमंच का प्रवेश-द्वार। २. नाटक की प्रस्तावना।
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रग-पट्ठा  : पुं० [फा० रग+पिं० पट्ठा] १. शरीर के भीतरी भिन्न-भिन्न अंग, मुख्यतः रगें और मांस-पेशियाँ। २. किसी विषय की भीतरी और सूक्ष्म बातें। मुहावरा—(किसी के) रग पट्ठे से परिचित या वाकिफ होना=किसी के रंग-ढंग, शक्ति, स्वभाव आदि से परिचित होना। खूब पहचानना।
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रंग-पीठ  : पुं० [सं० ष० त०] रंगशाला।
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रंग-पुरी  : स्त्री० [रंगपुर=बंगाल का एक नगर] एक तरह की छोटी नाव, जिसके दोनों ओर की गलही एक-सी होती है।
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रंग-प्रवेश  : पुं० [सं० स० त०] अभिनय के निमित्त रंगमंच पर अभिनेता या नट का आना।
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रंग-बदल  : पुं० [हिं० रंग+बदलना] हल्दी। (साधू)
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रंग-बाती  : स्त्री० [हिं० रंग+बत्ती] शरीर में लगाई जानेवाली सुगंधित वस्तुओं की बत्ती।
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रंग-बिरंग (ा)  : वि० [हिं० रंग+बिंरगा (अनु)०] १. कई रंगों का। २. कई तरह या प्रकार का। भांति-भांति का। जैसे—रंग-बिरंगे कपड़े।
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रंग-भरिया  : पुं० [हिं०] दीवारों, छतों आदि पर रंग पोतने का काम करनेवाला कारीगर।
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रंग-भूति  : स्त्री० [सं० ब० स०] आश्विन की पूर्णिमा।
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रंग-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पर आमोद-प्रमोद के उद्देश्य से उत्सव समारोह आदि किये जाते हैं। २. खेल-कूद तमाशे आदि का स्थान। क्रीड़ास्थल। ३. नाटक खेलने का स्थान। रंगमंच। ४. कुश्ती लड़ने का अखाड़ा। ५. युद्ध क्षेत्र। लड़ाई का मैदान।
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रंग-भौन  : पुं० =रंग-भवन (रंगमहल)।
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रंग-मंच  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह ऊँचा उठा हुआ स्थान जहाँ पर पात्र अभिनय करते हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में कोई ऐसा स्थान जिसे आधार बनाकर कोई काम किया जाय।
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रंग-मंडप  : पुं० [सं० ष० त०] नृत्यशाला।
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रंग-मल्ली  : स्त्री० [सं० च० त०] वीणा। बीन।
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रंग-महल  : पुं० [हिं० +अ०] १. भोग-विलास करने का महल। २. अंतःपुर।
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रंग-मातृका  : स्त्री० [सं० रंगमातृ+कन्-टाप्]=रंगमाता।
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रंग-मार  : पुं० [हिं० रंग+मारना] ताश का एक प्रकार का खेल।
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रंग-रली  : स्त्री०[हिं० रंग+रलना] आमोद-प्रमोद। आनंद। क्रीड़ा। चैन। मौज। (प्रायः बहुवचन रूप में प्रयुक्त)। क्रि० प्र०—मचना।—मनाना।
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रंग-रस  : पुं० [हिं० रंग+रस] आमोद-प्रमोद। आनंद-मंगल।
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रंग-रसिया  : पुं० [हिं०] १. वह व्यक्ति जिसकी प्रवृत्ति सदा आमोद-प्रमोद के कार्यों में रमती हो। २. विलासी पुरुष।
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रंग-राज  : पुं० [सं० ष० त०] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। (संगीत)।
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रग-रेशा  : पुं० [फा० रग+रेशा] १. शरीर के अन्दर के अंग। २. पत्तियों की नसें। पद—रग रेशे में=सारे शरीर में। अंग-अंग में। जैसे—शरारत तो उसके रग-रेशे में भरी है। ३. किसी काम बात या वस्तु के अन्दर की गुप्त और सूक्ष्म बातें। जैसे—वह इस काम के रग-रेशे से वाकिफ है।
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रंग-लासिनी  : स्त्री० [सं० रंग√लस् (शोभित होना)+णिच्+णिनि+ङीष्] शेफालिका।
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रंग-विद्याधर  : पुं० [सं० ष० त०] १. अभिनेता। नट। २. नृत्य-कला में, कुशल नर्तक। ३. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक (संगीत)।
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रंग-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. भोग-विलास का स्थान। २. वह स्थान जहाँ दर्शकों को अभिनेतागण या नट लोग अपना अभिनय या करतब दिखाते हों। ३. नाट्यशाला।
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रंग-स्थापक  : पुं० [सं० ष० त०] कोई ऐसी चीज जिसकी सहायता से रंग, पतले पत्तर आदि दूसरी चीजों पर चिपक या जम जाते हों। (मारडेंट)
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रंगई  : पुं० [सं० रंग+ई (प्रत्यय)] १. धोबियों की एक जाति जो विशेष रूप से रंगीन या छापे के कपड़े धोती है। २. उक्त जाति का व्यक्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगज  : पुं० [सं० रंग√जन् (उत्पत्ति+ड] सिंदूर। वि० रंग से उत्पन्न निकला या बना हुआ।
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रगंड  : पुं० [सं० गंड] हाथी का कपोल (डिंगल)।
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रगड़  : स्त्री० [हिं० रगड़ना] १. रगड़ने की क्रिया या भाव। २. रगड़े जाने की अवस्था या भाव। ३. वह चिन्ह जो किसी चीज से रगड़े जाने पर लक्षित होता है। ४. किसी काम के लिए की जानेवाली कड़ी मेहनत और दौड़-धूप। ५. झगड़ा। तकरार। ६. धक्का (कहार)।
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रगड़ना  : स० [सं० घर्षण] १. किसी चीज के तल पर किसी दूसरी चीज का तल बार-बार दबाते हुए चलाना। जैसे—जमीन पर एड़ी रगड़ना। २. दो तलों के बीच में रखी हुई वस्तु टुकड़े-टुकड़े या चूर-चूर करना अथवा पीसना। जैसे—सिल बट्टे से मसाला या भाँग रगड़ना। ३. निरंतर परिश्रमपूर्वक कोई काम करते रहना। जैसे—सारा दिन कलम रगड़ते बीतता है। ४. किसी काम या बात का निरंतर परिश्रम पूर्वक अभ्यास करना। जैसे—जब इसी तरह कुछ दिनों तक रगड़ते रहोगे तो इस काम में चल निकलोगे। ५. किसी को कष्ट देते हुए या दबाते हुए बहुत तंग या परेशान करना। जैसे—इस मुकदमें में तुमने उन्हें खूब रगड़ा। ६. दंड आदि के संबंध में कठोरतापूर्वक आदेश देना। जैसे—अदालत ने उन्हें दो बरस के लिए रगड़ दिया। ७. किसी के साथ काम-वासना की तृप्ति मात्र के लिए (प्रेमपूर्वक नहीं) प्रसंग या संभोग करना (बाजारू)। संयो० क्रि०—डालना-देना। अ० बहुत मेहनत करना। अत्यंत श्रम करना।
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रगड़वाना  : स० [हिं० रगड़ना का प्रेर० रूप] रगड़ने का काम दूसरे से करना। दूसरे को रगड़ने में प्रवृत्त करना।
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रगड़ा  : पुं० [हिं० रगड़ना] १. रगड़ने की क्रिया या भाव। घर्षण। रगड़। २. वह आघात जो किसी चीज पर उसे रगड़ने के उद्देश्य से किया जाता है। ३. किसी चीज की रगड़ लगने पर होनेवाला आघात। ४. एक बार में होनेवाली रगड़ाई। ५. निरन्तर किया जानेवाला बहुत अधिक परिश्रम। काफी और पूरी-मेहनत। ६. बराबर कुछ दिनों तक चलता रहनेवाला झगड़ा या वैर-विरोध। पद—रगड़ा-झगड़ा=बहुत समय तक चलनेवाला झगड़ा या लड़ाई।
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रगड़ान  : स्त्री० [हिं० रगड़ना+आन (प्रत्यय)] रगड़ने या रगड़े जाने की क्रिया या भाव। रगड़ा। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—लगाना।
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रगड़ी  : वि० [हिं० रगड़ा+ई (प्रत्यय)] रगड़ा अर्थात् लड़ाई-झगड़ा या हुज्जत करनेवाला। झगड़ालू। हुज्जती।
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रगण  : पुं० [सं० ष० त०] छंद-शास्त्र में ऐसे तीन वर्णों का गण या समूह जिसका पहला वर्ण गुरु, दूसरा लघु और तीसरा फिर गुरु होता है (ऽ।ऽ)।
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रंगत  : स्त्री० [सं० रंग+हिं० त (प्रत्यय)] १. रंग से युक्त होने की अवस्था या भाव। २. किसी रंगीन पदार्थ की दिखाई पड़नेवाली रंग की झलक। ३. किसी विलक्षण काम या बात में आनेवाला आनंद या मजा। ४. अवस्था। दशा। हालत। ५. वे कपड़े जो रँगने के लिए आये हों या रंगे जाने को हो। (रंगरेज) ६.छाप। प्रभाव। मुहावरा—(किसी की किसी पर) रंगत चढ़ना=किसी के विचारों या रहन-सहन का प्रभाव किसी दूसरे पर लक्षित होना।
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रगत  : पुं० =रक्त। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगतरा  : पुं० [हिं० रंग] एक प्रकार की बड़ा और मीठी नारंगी। संगरा।
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रंगद  : पुं० [सं० रंग√दा (काटना)+क] १. सोहागा। २. खदिर सार।
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रगदना  : स०=रगेदना (दे०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रगदल  : वि० [हिं०] कुबड़ा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगदा  : स्त्री० [सं० रंगद+टाप्०] फिटकरी, जिससे रंग पक्का होता है।
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रंगदानी  : स्त्री० [हिं० रंग+फा० दानी] वह प्याली जिसमें चित्रकार आदि किसी चीज पर लगाने के लिए अपने सामने रंग रखते हैं।
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रंगदुनी  : पुं० [?] खरगोश की तरह का एक प्रकार का पहाड़ी जन्तु जो हिमालय के ऊँचे पर्वतों पर रहता है। रँगरूट।
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रंगदृढ़ा  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] फिटकरी, जिससे रंग पक्का होता है। रंगदा।
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रंगन  : पुं० [देश] एक प्रकार का मझोले आकार का वृक्ष जिसके हीर की लकड़ी कड़ी, चिकनी और मजबूत होती है। कोटा गंधल।
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रंगना  : स० [सं० रंग+हिं० ना (प्रत्यय)] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज किसी एक या अनेक रंगों से युक्त हो जाय। जैसे—(क) धोती या साड़ी रँगना। (ख) दीवार या छत रँगना। (ग) चित्र रँगना। मुहावरा—रँगे हाथ या रँगे हाथों पकड़ा जाना=अपराधी या दोषी का ठीक अपराध करते समय पकड़ा जाना। २. लेखन में, बहुत अधिक लिखना विशेषतः लीपा-पोती करना। जैसे—कापी या किताब रँगना। ३. किसी को अपने प्रेम में फँसाना। अनुरक्त करना। ४. किसी को अपने अनुकूल बनाने के लिए अपने मतलब की बातें बतलाना या समझाना अथवा और किसी प्रकार अपने अनुकूल बनाना। ५. किसी के शरीर, विशेषतः सिर पर ऐसा भीषण आघात करना कि उसमें से रक्त की धार बहने लगे (गुण्डे) ६. किसी को अपने प्रभाव से युक्त करना। अ०१. रंग से युक्त होना। २. किसी के प्रेम में लिप्त होना। किसी पर आसक्ति होना। संयो० क्रि०—जाना।
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रगपत  : पुं० =रघुपति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगपत्री  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] नीली (वृक्ष)।
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रंगपुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] रंगपत्री। (दे०)
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रगबत  : स्त्री० [अ० रग्बत] १. इच्छा। कामना। चाह। २. किसी काम या बात की ओर होनेवाली प्रवृत्ति या रुचि। क्रि० प्र०—आना।—रखना।—होना।
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रंगबाज  : वि० [सं०+फा० ] १. दूसरों पर अपना आतंक जमानेवाला। रंग बाँधनेवाला। २. मौज-मस्ती करनेवाला। आनंद मनानेवाला।
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रंगबाजी  : स्त्री० [हिं० +फा० ] १. रंगबाज होने की अवस्था या भाव। २. चौसर का एक विशेष प्रकार का खेल जो स्त्री और पुरुष मिलकर खेलते हैं, और जो विशेष नियमों या प्रतिबंधों के कारण अपेक्षाकृत अधिक कठिन होता है। ३. ताश का एक प्रकार का खेल।
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रंगबीज  : पुं० [सं० ब० स०] चाँदी।
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रंगभवन  : पुं० [सं० ष० त०] रंगमहल।
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रंगमाता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. कुटनी। २. लाक्षा। लाख।
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रगर  : स्त्री०=रगड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रगरा  : पुं० =रगड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगरुडा  : वि० [सं० रंग+हिं० रूढ़ (प्रत्यय)] सुंदर। उदाहरण—नहिं भावै थाँरौं देश लड़ो रगरूड़ों।—मीराँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगरूट  : पुं० [अं० रिक्रूट] १. पुलिस, सेना आदि में भर्ती हुआ नया व्यक्ति। २. नौसिखुआ।
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रंगरेज  : पुं० [फा० रँगरेज] [स्त्री० रँगरेजिन] वह जो कपड़े रँगने का व्यवसाय करता हो।
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रंगरैनी  : स्त्री० [हिं० रंग+रैनी=जुगनू] रंगी हुई लाल चुनरी।
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रंगरैली  : स्त्री०=रंगरली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगवा  : पुं० [देश] चौपायों का एक रोग।
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रंगवाई  : स्त्री० [हिं० रँगवाना] रँगवाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। स्त्री०=रँगाई।
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रँगवाना  : स० [हिं० रँगना का प्रे०] रँगने का काम किसी दूसरे से कराना। किसी को रँगने में प्रवृत्त करना।
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रगवाना  : स० [हिं० रगाना का प्रेर, रूप] १. चुप कराना। २. शांत कराना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगसाज  : पुं० [फा० हिं० रंग+फा० साज] [भाव० रंगसाजी] १. उपकरणों के योग से तरह-तरह के रंग तैयार करनेवाला कारीगर। २. मेज, कुरसी, किवाड़, आदि पर रंग चढ़ानेवाला कारीगर। (पेंटर)
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रंगसाजी  : स्त्री० [हिं० रंग+फा० साजी] १. रंगने की कला या विद्या। २. रंगसाज का काम पेशा या भाव।
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रगा  : पुं० [देश] मोर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रँगाई  : स्त्री० [हिं० रंग+आई (प्रत्यय)] रँगने का काम , पेशा या भाव या मजदूरी।
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रंगांगण  : पुं० [सं० रंग-अंगण, ष० त०] नाट्यशाला। २. रंगभूमि।
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रंगांगा  : स्त्री० [सं० रंग-अंग, ब० स०-टाप्] फिटकरी।
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रंगाजीव  : पुं० [सं० रंग-आ√जीव् (जीना)+अण्] वह जिसकी जीविका का आधार रंग सम्बन्धी काम हो। जैसे—रंगसाज, रँगरेज आदि।
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रंगाना  : स० [हिं० रँगना का प्रे०] रँगवाना (दे०)
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रगाना  : अ० [देश] १. चुप होना। २. शांत होना। स० १. चुप कराना २. शांत कराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रँगामेज़ी  : स्त्री० [फा०] १. किसी चीज में यथास्थान तरह-तरह के रंग भरने का काम। २. तरह-तरह की चीजें एक साथ बनाने या रखने की क्रिया या भाव। उदाहरण—रंगामेजी का खेल जब हो तो क्यों न सब सृष्टि बने अनुरागी।—बालकृष्ण शर्मा नवीन। ३. किसी बात को रोचक बनाने के लिए उसमें अपनी तरफ से भी कुछ बातें बढ़ाना।
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रंगार  : पुं० [देश] १. वैश्यों की एक जाति या वर्ग। २. राजपूतों की एक जाति या वर्ग।
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रंगारंग  : वि० [हिं०] १. बहुत से रंगोंवाला। २. अनेक प्रकार का। तरह-तरह का। जैसे—रंगारंग कपड़े या खिलौने। पुं० आकाश-वाणी का एक प्रकार का कार्यक्रम जिसमें अनेक प्रकार के गीत सुनाये जाते हैं।
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रंगारि  : पुं० [सं० रंग-अरि, ष० त०] कनेर।
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रंगालय  : पुं० [सं० रंग-आलय, ष० त०] रंगभूमि। रंगशाला।
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रंगावट  : स्त्री० [हिं० रंग+आवट (प्रत्यय)] १. रँगे हुए होने का भाव। २. वह झलक या आभा जो किसी रँगे हुए वस्त्र आदि में प्रकट होती है।
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रंगावतारक  : पुं० [सं० रंग-अवतारक, ष० त०] १. रँगरेज। २. अभिनेता। नट।
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रँगावतारी (रिन्)  : पुं० [सं० रंग-अव√तृ (पार करना)+णिनि] अभिनेता। नट।
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रंगासियार  : पुं० [हिं] ऐसा व्यक्ति जो ऊपर से तो भला लगता हो परन्तु हो बहुत बड़ा चालाक या धूर्त।
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रंगिया  : पुं० [हिं० रंग+इया (प्रत्यय)] १. कपड़ा रँगनेवाला। रंगरेज। २. रंगसाज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगी  : स्त्री० [सं० रंग+अच+ङीष्] १. शतमूली। २. कैवर्तिकी लता। वि० [हिं० रंग] १. विनोदशील प्रकृति का। २. मनमौजी।
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रगी  : स्त्री० [देश] १. एक प्रकार का मोटा अन्न। स्त्री०=रग्गी। वि० =रगीला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगीन  : वि० [फा०] १. जिस पर कोई रंग चढ़ा हो। रँगा हुआ। रंगदार। जैसे—रंगीन साड़ी, रंगीन चित्र। २. जिसकी प्रकृति या स्वभाव में विनोद, विलास आदि तत्त्वों की प्रधानता हो। आमोदप्रिय और विलासी। ३. चमत्कारपूर्ण तथा विलासमय। जैसे—रंगीन तबीयत, रंगीन महफिल।
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रंगीनबाजी  : स्त्री०=रँगबाजी (चौसर का खेल)।
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रंगीनी  : स्त्री० [फा०] १. रंगीन होने की अवस्था या भाव। २. बनाव-सिंगार। सजावट। ३. प्रकृति या स्वभाव से रसिक और विनोदप्रिय होने की अवस्था या भाव।
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रंगीरेटा  : पुं० [देश] एक प्रकार का जंगली वृक्ष जो दारजिलिंग में अधिकता से होता है।
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रंगीला  : वि० [हिं० रंग+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० रँगीली] १. जिसकी प्रकृति या स्वभाव में रसिकता, विनोदशीलता आदि बातें मुख्य रूप से हों। रसिक-प्रकृति। रसिया। २. कई रंगों से युक्त होने के कारण आकर्षक और मनोहर लगनेवाला। जैसे—रँगीले छैल खेलैं होरी।
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रगीला  : पुं० [हिं० रग=जिद+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० रगीली] १. हठी। जिद्दी। दुराग्राही। २. दुष्ट। पाजी। वि० [हिं० रग] जिसमें रगें या नसें हो। रगों से युक्त। रगोंवाला।
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रंगीली टोड़ी  : स्त्री० [हिं० रंगीला+टोड़ी (रागिन)] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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रगेद  : स्त्री० [हिं० रगेदना] दौड़ने या भागने की क्रिया।
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रगेदना  : स० [सं० खेट० हिं० खेदना] किसी को ढकेलते, धक्का देते या दौड़ते हुए दूर करना या हटाना। बल-प्रयोग करते हुए भागना। खदेड़ना। संयो० क्रि०—देना।
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रंगैया  : पुं० [हिं० रंग+ऐला (प्रत्यय)] रँगनेवाला।
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रंगोपजीवी (विन)  : पुं० [सं० रंग-उप√जीव् (जीना)+णिनि] अभिनय आदि के द्वारा अपनी जीविका चलानेवाला।
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रंगोली  : स्त्री० [सं० रंगवल्ली] साँझी का वह रूप जो महाराष्ट्र में प्रचलित है (देखें ‘साँझी’)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंगौधी  : स्त्री० [हिं० रंग+औंधी (अधा से) प्रत्यय] आँखों का वह रोग जिसमें रोगी रंग या वर्ण नहीं पहचान सकता। वर्णान्धता (कलर ब्लाइन्डनेस)।
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रंगौनी  : स्त्री० [हिं० रंग] लाल रंग की एक प्रकार की चुनरी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रग्गा  : पुं० [देश] एक प्रकार का मोटा अन्न। रगी। पुं० =रग्गी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रग्गी  : स्त्री० [?] वह धूप विशेषतः वर्षा ऋतु की कड़ी धूप जो पानी बरस जाने और बादल छँट जाने पर निकलती है। स्त्री०=रगी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रघु  : पुं० [सं०√लंघ् (गति)+कु, नलोप, रत्व] १. सूर्यवंशी राजा दिलीप के पुत्र जो रामचन्द्र के परदादा और प्रसिद्ध रघुवंश के मूल पुरुष तथा संस्थापक थे। २. रघु के वंश में उत्पन्न कोई व्यक्ति।
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रघु-कुल  : पुं० [ष० त०] राजा रघु का वंश।
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रघु-नाथ  : पुं० [ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघु-नायक  : पुं० [ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघु-पति  : पुं० [ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघु-वर  : पुं० [स० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघु-वंश  : पुं० [ष० त०] १. महाराज रघु का वंश या खानदान जिसमें दशरथ या रामचन्द्र जी उत्पन्न हुए थे। २. महाकवि कालिदास का रचा हुआ एक प्रसिद्ध महाकाव्य जिसमें राजा दिलीप की कथा और उनके वंशजों का वर्णन है।
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रघु-वीर  : पुं० [स० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघुनंद  : पुं० [सं० रघु√नन्द (हर्ष)+णिच्+अच्] श्रीरामचन्द्र।
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रघुनंदन  : पुं० [सं० रघु√नन्द+णिच्+ल्यु-अन] श्रीरामचन्द्र।
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रघुराइ  : पुं० =रघुराज (श्रीरामचन्द्र)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रघुराज  : पुं० [ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघुराय  : =रघुराय।
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रघुरैया  : पुं० =रघुराय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रघुवंश-कुमार  : पुं० [ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघुवंशी (शिन्)  : पुं० [सं० रघुवंश+इनि] १. वह जो रघु के वंश में उत्पन्न हुआ हो। २. क्षत्रियों की एक जाति या शाखा।
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रघूत्तम  : पुं० [रघु-उत्तम, स० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघूद्वह  : पुं० [रघु-उद्दह, ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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रघ्रन्ती  : पुं० [डिं०] संतोष। सब्र।
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रंच-रंचक  : वि० [सं० न्यंच, प्रा०णच्] थोड़ा। अल्प। तनिक।
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रचक  : पुं० [सं०√रच् (रचना)+णिच्+युच-अक] रचयिता। वि० =रंचक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रचना  : स्त्री० [सं०√रच्+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. कोई चीज रचने अर्थात् बनाने की क्रिया या भाव। जैसे—फूलों से होनेवाली मालाओं की रचना। निर्माण। २. किसी चीज के बनाये जाने का ढंग या प्रकार जो उसका स्वरूप निश्चित करता है। बनावट। ३. बनाकर तैयार की हुई चीज। कृति। जैसे—किसी कवि या लेखक की नई रचना। ४. कोई चीज कौशलपूर्वक और सुन्दर रूप में बनने की क्रिया या भाव। जैसे—अनेक प्रकार की केश-रचनाएँ। ५. स्थापित करने की क्रिया। स्थापना। ६. उद्यमपूर्वक किया हुआ काम। ७. ऐसा गद्य या पद्य जिसमें कोई विशेष कौशल या चमत्कार हो। ८. पुराणानुसार विश्वकर्मा की पत्नी का नाम। सं० [सं० रचन] १. कोई चीज हाथ से बनाकर तैयार करना। बनाना। सिरजना। २. किसी बात या विधान या स्वरूप स्थिर करना। ३. किसी प्रकार की कृति प्रस्तुत करना। जैसे—कविता या पुस्तक रचना। ४. उत्पन्न करना। पैदा करना। ५. किसी काम या बात का अनुष्ठान करना। ठानना। ६. अच्छी तरह ध्यान देते हुए कोई काम या उपाय करना या युक्ति लगाना। पद—रचि रचि=बहुत ही अच्छी तरह और ध्यान तथा युक्ति-पूर्वक। ७. किसी प्रकार की काल्पनिक कृति, रूप या सृष्टि खड़ी करना। ८. अच्छी तरह संवारना-सजाना। श्रृंगार करना। ९. उचित क्रम से चीजें रखना या लगाना। अ० [सं० रंजन] १. किसी के प्रेम में फँसना। किसी पर अनुरक्त होना। २. रंगों से युक्त होना। रँगा जाना। ३. किसी चीज का अच्छी तरह और सुन्दर रूप में बनाकर प्रस्तुत होना। ४. आकर्षण और सुन्दर जान पड़ना। फबना। जैसे—उसके मुँह में पान और हाथ-पैरों में मेंहदी अच्छी रचती हैं। स०१. रँगों से युक्त करना। रँगना। २. किसी के साथ अनुराग या प्रेम का संबंध स्थापित करना। जैसे—बैरी से बच सज्जन से रच।—कहा०। वि० [स्त्री० रचनी] जो सहज में रच सकें, अर्थात् अच्छा रंग या रूप ला सके। जैसे—वाह यह कैसी अच्छी मेंहदी है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रचना-तंत्र  : पुं० [ष० त०] १. किसी कलात्मक कृति का वह अंग या ढंग जो उसके रचना-कौशल से संबंध रखता हो और जो सूत्रों के रूप में बद्ध हो सकता हो। रचना का कलात्मक और कौशलपूर्ण प्रकार। तकनीक (टेकनिक) २. उक्त की अवस्था या भाव। प्राविधिकता (टेक्निकैलटी)।
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रचना-तंत्री  : वि० [सं० रचनातंत्रीय] रचना-तंत्र से संबंध रखनेवाला (टेक्निकल) जैसे—किसी कृति का रचनातंत्री ज्ञान।
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रचयिता (तृ)  : वि० [सं०√रच्+णिन्+तृच्] रचना करने या रचनेवाला। बनानेवाला।
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रचवाना  : स० [हिं० रचना का प्रेर० रूप] १. दूसरे को रचना करने में प्रवृत्त करना २. हाथ-पैर में मेंहदी या महावर लगवाना। ३. अनुरक्त करना। ४. सुन्दर रूपरंग दिलवाना।
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रचाना  : स० [सं० रचना] १. अनुष्ठान या आयोजन करना। जैसे—ब्याह, रचाना, यज्ञ रचाना। २. दे० रचवाना। अ० स०=रचना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रचिक  : अव्य० [हिं० रंच] थोड़ा। अल्प। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रचित  : भू० कृ० [सं० रच्+णिच्+क्त] १. रचा अर्थात् बनाया हुआ। २. कृति आदि के रूप में प्रस्तुत किया हुआ।
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रची  : अव्य०=रचिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रच्छ  : पुं० =रक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
रच्छक  : पुं० =रक्षक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
रच्छन  : पुं० =रक्षण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रच्छस  : पुं० =राक्षस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रच्छा  : स्त्री०=रक्षा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रछया  : स्त्री०=रक्षा। उदाहरण—दान करै रछया मँझ मीराँ।—जायसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रंज  : पुं० [फा०] [वि० रंजीदा] १. मन में होनेवाला दुःख। मानसिक दुःख। २. मृतक का शोक। ३. अप्रसन्नता। नाराजगी।
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रज (स्)  : पुं० [सं०√रज् (राग्)+असुन्, नलोप] १. गर्द। धूल। २. गर्द या धूल के वे छोटे-छोटे कण जो धूप में इधर-उधर चलते हुए दिखाई देते हैं। ३. आठ परमाणुओं की एक पुरानी तौल या भाव। ४. फूलों का पराग। ५. जोता हुआ खेत। ६. आकाश। ७. जल। पानी। ८. भाप। वाष्प। ९. बादल। मेघ। १॰. भुवन। लोक। ११. स्वेतपापड़ा। १२. पाप। १३. अंधकार। अंधेरा। १४. मन में रहनेवाला अज्ञान, और उसके फल-स्वरूप उत्पन्न होनेवाले दूषित भाव। १५. एक प्रकार का पुराना बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था। १६. पुराणानुसार एक ऋषि जो वशिष्ठ के पुत्र कहे गये हैं। १७. धार्मिक क्षेत्रों में प्रकृति के तीन गुणों में से दूसरा जिसके कारण जीवों में भोगविलास करने तथा बल-वैभव के प्रदर्शन की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। रजोगुण (अन्य दो गुण सत्त्व और तम हैं। १८. वह दूषित रक्त जो युवती तथा प्रौढ़ा स्त्रियों और स्तनपायी मादा जंतुओं की योनि से प्रति मास तीन चार दिनों तक बराबर निकलता रहता है। आर्तव। ऋतु। कुसुम। १९. स्कंद की एक सेना का नाम। २॰. केसर। वि० [हिं० राजा] हिं० ‘राजा’ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—रजवाड़ा। स्त्री=रजनी (रात)। पुं० १. =रजत (चाँदी) २. रजक (धोबी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रज-तंत  : पुं० [सं० राजतत्त्व] शूरता। वीरता।
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रजअत  : स्त्री० [अ० रजअत] १. वापस जाना। लौटना। प्रत्यागमन। २. जिस स्त्री को तलाक दिया गया हो, उसे फिर से अपनी पत्नी बनाना। (मुसल०)
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रंजक  : वि० [सं०√रज्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. रँगनेवाला २. प्रायः आनंद-मंगल करने और प्रसन्न रहनेवाला। पुं० [सं०] १. रँगसाज। २. रँगरेज। ३. ईगुर। ४. भिलावाँ। ५. मेंहदी। ६. सुश्रुत के अनुसार पेट की एक अग्नि जो पित्त के अन्तर्गत मानी जाती है। स्त्री० [हिं० रची=अल्प] १. वह थोड़ी सी बारुद जो बत्ती लगाने के वास्ते बंदूक की प्याली पर रखी जाती है। क्रि० प्र०—देना।—भरना। मुहावरा—रंजक उड़ाना=बदूक या तोप की प्याली में बत्ती लगाने के लिए बारुद रखकर जलाना। (प्याली का) रंजक चाट जाना=तोप या बंदूक की प्याली में रखी हुई बारूद का यों ही जलकर रह जाना और उससे गोला या गोली न छूटना। रंजक पिलाना=तोप या बंदूक की प्याली में रंजक रखना। २. गाँजे, तमाकू या सुलफे का दम (बाजारू)। मुहावरा—रंजक देना=गांजे आदि का दम लगाना। ३. वह बात जो किसी को भड़काने या उत्तेजित करने के लिए कही जाय। ४. किसी प्रकार का ऐसा चटपटापूर्ण या और कोई पदार्थ जिसके सेवन से शरीर में तत्काल स्फूर्ति आती हो।
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रजक  : पुं० [सं०√रंज्+ष्वुन्—अक, नलोप] [स्त्री० रजकी] धोबी।
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रजगज  : पुं० [हिं० रज=राजा+गज, अनु०] राजसी ठाठ-बाट।
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रजगीर  : पुं० [देश] कूटू (अन्न) फफरा। पुं० =राजगीर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रजगुण  : पुं० दे० ‘रजोगुण’।
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रजत  : पुं० [सं०√रंज्+अतच्, न-लोप] १. चांदी। रूपा। २. सोना। स्वर्ण। ३. हाथी-दाँत। ४. गले में पहनने का हार। ५. रक्त। लहू। ६. पुराणानुसार शाकद्वीप के अस्ताचल का नाम। वि० १. चांदी के रंग का। उज्जवल। शुभ्र। २. चाँदी का बना हुआ।
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रजत-जयंती  : स्त्री० [मध्य० स०] किसी व्यक्ति अथवा संस्था की २५वीं वर्ष-गाँठ पर मनाई जानेवाली जयंती। (सिलवर जुबिली)
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रजत-द्युति  : पुं० [ब० स०] हनुमान।
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रजत-पट  : पुं० [उपमित स०] वह परदा जिसपर सिनेमा घर में चित्र दिखलाये जाते हैं। (सिलवर स्क्रीन)
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रजत-प्रस्थ  : पुं० [ब० स०] कैलाश पर्वत।
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रजत-मानक  : पुं० =रजत-मान।
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रजतमान  : पुं० [ष० त०] अर्थशास्त्र में वह स्थिति जिसमें कोई देश अपनी मुद्रा की इकाई या मात्रक का अर्घ चाँदी की एक निश्चित तौल के अर्घ के बराबर रखता है। (सिलवर स्टैन्डर्ड)
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रजताई  : स्त्री० [हिं० रजत+आई (प्रत्यय)] शुभ्रता। सफेदी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रजताकर  : पुं० [रजत-आकर, ष० त०] चाँदी की खान।
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रजताचल  : पुं० [रजत-अचल, मध्य० स०] १. चाँदी का पहाड़। २. चाँदी के टुकड़ों या आभूषणों का वह ढेर या ढेरी जो दान की जाती है। महादान का भेद। ३. कैलाश पर्वत।
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रजताद्रि  : पुं० [रजत-अद्रि, मध्य० स०] रजताचल। (दे०)
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रजतोपम  : पुं० [रजत-उपमा, ब० स०] रूपामाखी। रूपा-मक्खी।
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रजधानी  : स्त्री०=राजधानी।
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रंजन  : पुं० [सं०√रंज्+ल्युट-अन] १. रंगने की क्रिया या भाव। २. वे पदार्थ जिनसे रंग निकलते या बनते हों ३. चित्त प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। ४. शरीर में का पित्त नामक तत्त्व। ५. लाल चन्दन। ६. मूँज। ७. सोना। ८. जायफल। ९. कभीला नामक वृक्ष। १॰. छप्पय छंद के पचासवें भेद का नाम। वि० [स्त्री० रंजना] चित्त प्रसन्न करनेवाला। जैसे—चित्त रंजन।
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रजन  : स्त्री० [अं० रेजिन] राल नामक गोंद दे० (राल)। स्त्री० [हिं० रजना] रजने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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रंजनक  : पुं० [सं० रंजन+कन्] कटहल।
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रंजना  : स० [सं० रंजन] १. रंजन करना। २. मन प्रसन्न करना। आनंदित करना। ३. मन लगाकर किसी को भजना या बार-बार स्मरण करना। ४. दे० ‘रँगना’। वि० स्त्री० रंजन करनेवाली। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रजना  : अं० [सं० रजन] १. रँग से युक्त होना। रँग जाना। २. अच्छी तरह तृप्त होना। जैसे—खा-पीकर रजना। स० रंग से युक्त करना। रँगना। स्त्री० [सं० रंजन] संगीत में एक प्रकार की मूर्च्छना जिसका स्वर ग्राम इस प्रकार है-नि, स, रे, ग, म, प, ध। नि, स० रे, ग, म, प, ध, नि। स, रे, ग, म, प, ध, नि।
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रंजनी  : स्त्री० [सं० रंजन+ङीष्] १. ऋषभ स्वर की तीन श्रुतियों में से दूसरी श्रुति (संगीत) २. संगीत में कर्णाटकी पद्धति की एक रागिनी। ३. नीली नामक पौधा। ४. मंजीठ। ५. हलदी। ६. पर्पटी। ७. नागवल्ली। ८. जतुका लता। पहाड़ी।
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रजनी  : स्त्री० [सं०√रञ्ज्+कनि+ङीष्] १. रात। रात्रि। निशा। २. हलदी। ३. जंतुका लता। ४. नीली नामक पौधा। ५. दारुहलदी। ६. लाक्षा। लाख। ७. एक नदी। (पुराण)
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रजनी-गंधा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके फूल रात के समय फूलते हैं। २. उक्त पौधे का फूल।
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रजनी-जल  : पुं० [सुप्सुपा० स०] १. ओस। २. कोहरा।
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रजनी-पति  : पुं० [ष० त०] चन्द्रमा।
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रजनीकर  : पुं० [सं० रंजनी√कृ (करना)+ट] चंद्रमा।
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रजनीकर  : पुं० [सं० रजनी√चर् (गति)+ट] १. राक्षस। २. चंद्रमा। वि० रात के समय निकल कर घूमने-फिरने या विचरण करने वाला।
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रजनीमुख  : पुं० [ष० त०] संध्या। रात होने से कुछ पहले का समय। सूर्यास्त के चार दंड बाद का समय। शाम।
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रंजनीय  : वि० [सं०√रंज्+अनीयर] १. जो रँगे जाने के योग्य हो। २. जिसका चित्त प्रसन्न किया जा सकता हो या किया जाने को हो।
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रजनीश  : पुं० [रजनी-ईश, ष० त०] चन्द्रमा।
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रजपूत  : पुं० =राजपूत। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रजपूती  : स्त्री० [हिं० राजपूत+ई (प्रत्यय)] १. राजपूत होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. राजपूत का कोई कार्य अथवा उसके जैसा कार्य। ३. बहादुरी। वीरता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रजब  : पुं० [अ०] अरबी साल का सातवाँ महीना।
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रजबली  : पुं० [सं० राजा+बली] राजा। (डि०)
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रजबहा  : पुं० [सं० राज राजा=बडा़+हिं० बहना] किसी बड़ी नदी या नहर से निकाला हुआ नाला या छोटी नगर, जिससे और भी अनेक छोटे-छोटे नाले और नालियाँ निकलती है।
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रजबार  : पुं० =राजद्वार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रजल-बाह  : पुं० [सं० जलवाह] मेघ बादल (डि०)।
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रजवट  : स्त्री० [हिं० राज+वट (प्रत्यय)] १. क्षत्रियत्व। २. बहादुरी। वीरता।
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रजवंती  : वि० [सं० रजोवती] रजस्वला।
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रजवती  : स्त्री०=रजवंती (रजस्वली)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रजवाड़ा  : पुं० [हि० राज्य+बाड़ा] १. मध्य-युग तथा ब्रिटिश भारत में देशी रियाअत। २. रियासत का मालिक राजा।
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रजवार  : पुं० =राजद्वार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रज़वी  : वि० [अ० रिजवी] इमाम मूसा अली रजा से संबंध रखनेवाला। पुं० वह जो इमान का वंशज हो।
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रजस  : स्त्री०=‘रज’।
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रजस्वला  : वि० स्त्री० [सं० रजस्+क्लच्-टाप्] १. (स्त्री०) जिसका रज प्रवाहित हो रहा हो। रजवन्ती। ऋतुमती। २. (बरसाती नदी) जिसका पानी बहुत गंदला और मट-मैला हो गया हो।
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रंजा  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मछली जिसे उलबी भी कहते हैं।
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रजा  : स्त्री० [अ० रिजा] १. इच्छा। मरजी। २. अनुमति। आज्ञा। ३. किसी की अनुमति से मिलनेवाली छुट्टी रुखसत। ४. मंजूरी। स्वीकृति। ५. प्रसन्नता। क्रि० प्र० देना।—पाना।—मिलना। लेना। स्त्री० [अ०] आशा।
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रजाइ  : स्त्री०=रजा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रजाइस  : स्त्री० [अ० रजा+आइस (हिं० प्रत्यय)] १. आज्ञा। हुकुम। २. दे० ‘रजा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रजाई  : स्त्री० [सं० रजक=कपड़ा] एक प्रकार का रुईदार ओढ़ना। हलका लिहाफ। स्त्री० [हिं० राजा+आई (प्रत्यय)] राजा होने की अवस्था या भाव। राजापन। स्त्री०=रजा (अनुमति या आज्ञा)। उदाहरण—चले सीस धरि राम रजाई।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रजाकार  : पुं० [अ० रिजाकार] स्वयं-सेवक।
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रजाना  : पुं० [हिं० रजना का स०] १. राज-सुख का भोग करना। २. बहुत अधिक सुख देना। ३. अच्छी तरह तृप्त या सन्तुष्ट करना। ४. पेट भरकर खिलाना।
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रजामंद  : वि० [अ० रिज़ा+फा० बंद] [भाव० रजामंदी] जो किसी बात पर राजी या सहमत हो।
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रजामंदी  : स्त्री० [अ० रिजा+फा० मंदी] रजामंद अर्थात् राजी या सहमत होने की अवस्था या भाव। सहमति।
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रजाय  : स्त्री० [प्रा० रजाएस] राजा की आज्ञा। स्त्री०=रजा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रजायस (स्)  : स्त्री० [फा० रजाएस] १. राजा की आज्ञा २. आज्ञा। हुकुम। ३. अनुमति।
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रंजित  : भू० कृ० [सं०√रंज्+क्त] १. जिस पर रंग चढ़ा या चढ़ाया गया हो। रंगा हुआ। २. जिसका चित्त प्रसन्न किया गया हो या हुआ हो। ३. किसी के अनुराग या प्रेम में पगा हुआ। अनुरक्त।
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रजिया  : स्त्री० [देश] १. अनाज नापने का एक मान जो प्रायः डेढ़ सेर का होता है। २. उक्त मान से नापने का काठ या बरतन।
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रंजिश  : स्त्री० [फा०] १. किसी की ओर से मन में बैठा हुआ। रंज। २. किसी के प्रति होनेवाली अप्रन्नता या नाराजगी। ३. आपस में होनेवाला मन-मुटाव या वैमनस्य।
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रजिस्टर  : पुं० [अं०] अँगरेजी ढंग की बही या वह किताब जिसमें किसी मद का आय-व्यय अथवा किसी विषय का विस्तृत विवरण, सिलसिलेवार या खानेवार लिखा जाता है। पंजी।
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रजिस्टरी  : स्त्री० [अं०] १. किसी लिखित प्रतिज्ञापत्र को कानून के अनुसार सरकारी रजिस्टरों में दर्ज कराने का काम। पंजीयन। २. डाक से पत्र भेजने का एक प्रकार जिसमें कुछ अधिक महसूल देकर भेजे जानेवाला पत्र का तौल, पता आदि डाकखाने के रजिस्टर में चढ़वाया जाता है।
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रजिस्टर्ड  : वि० [अं०] रजिस्टरी किया हुआ। पंजीकृत।
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रजिस्ट्रार  : पुं० [अं०] १. विधिक लेख्यों को राजकीय पंजियों में निबंधित करनेवाला अधिकारी। २. विश्वविद्यालय का वह अधिकारी जिसकी देखरेख में कार्यालय संबंधी सब कार्य होते हैं।
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रजिस्ट्री  : स्त्री०=रजिस्ट्री।
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रजिस्ट्रेशन  : पुं० [अं०] रजिस्टर में दर्ज करना, कराना या होना।
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रंजीदगी  : स्त्री० [फा०] रंजीदा होने की अवस्था या भाव।
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रंजीदा  : वि० [फा०] १. जिसे रंज हो। दुःखित। २. अप्रसन्न। नाराज।
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रजील  : वि० [अं०] अधम। कमीना। नीच।
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रजु  : स्त्री०=रज्जु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रजोकुल  : पुं० [सं० राजकुल] राजवंश। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रजोगुण  : पुं० [सं० रजस्-गुण, मयू० स०] प्रकृति के तीन गुणों में से दूसरा गुण (सत्त्व और तम से भिन्न) जिससे जीवधारियों में भोग-विलास तथा बल-वैभव के प्रदर्शन की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है राजस दे० ‘गुण’।
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रजोदर्शन  : पुं० [सं० रजस्-दर्शन, ष० त०] स्त्रियों का रजस्वला होना।
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रजोधर्म  : पुं० [सं० रजस्-धर्म, ष० त०] स्त्रियों का मासिक धर्म।
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रजोनिवृत्ति  : स्त्री० [सं० रजस्-निवृत्ति] स्त्रियों की वह अवस्था या दशा जिसमें उनका मासिक रज निकलना सदा के लिए बंद हो जाता है। (मेनीपांज)।
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रज्जाक  : वि० [अं०] १. रिजक अर्थात् रोजी देनेवाला। अन्नदाता। २. खाना खिलानेवाला। पेट भरनेवाला। पुं० ईश्वर।
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रज्जु  : स्त्री० [सं०√सज् (रचना)+उ, नि, सिद्धि०] १. डोरी। रस्सी। २. घोड़े की लगाम। बागडोर० ३. स्त्रियों की चोटी बाँधने की डोरी।
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रज्जु-सर्प-न्याय  : पुं० [सं० रज्जु-सर्प, सुप्सुपा० स० रज्जुसर्प-न्याय, ष० त०] रस्सी को अच्छी तरह न देख सकने के कारण भूल से साँप समझ लेने अथवा इसी प्रकार और किसी भ्रम में पड़ने की स्थिति या न्याय।
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रज्जुमार्ग  : पुं० [सं०] ऊँची-नीची पंकिल या पहाड़ी जगहों, बड़े-बड़े कल-कारखानों आदि में एक स्थान से दूसरे स्थान तक चीजें पहुँचाने के लिए बड़े-बड़े खंभों में रस्से विशेषतः लोहे के छोटे रस्से बाँधकर बनाया जानेवाला मार्ग। (रोप-बे)
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रज्म  : स्त्री० [अ० रज्म] युद्ध। संग्राम। लड़ाई।
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रंझना  : अ० [सं० रंजन] १. रंग से युक्त होना। रंजित होना। २. फलना-फूलना। जैसे—वृक्षों का रंझना। ३. संपन्न समृद्ध या सुखी होना। ४. स्थायी या स्थिर होना।
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रझना  : पुं० [सं० रंधन वा रंजन] रँगरेजों का वह पात्र, जिसमें वे रँगे हुए कपड़े का रंग निचोड़ते हैं।
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रट  : स्त्री० [हिं० रट] रटने की अवस्था, क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—मचाना।—लगाना।
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रटंत  : स्त्री० [चि० रटना+अंत (प्रत्यय)] रटने की क्रिया या भाव। रटाई।
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रटति  : वि० [सं०√रट्+क्त] १. रटा हुआ। २. जो रटा जा रहा हो। उदाहरण—अगणित कंठ रटित वन्दे मातरम् मंत्र से।—पंत।
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रटंती  : स्त्री० [सं०√रट् (रटना)+झच्-अन्त, +ङीष्, ] माघ कृष्ण चतुर्दशी।
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रटन  : स्त्री० [सं०√रट् (रटाना)+ल्युट-अन] बार-बार किसी नाम, शब्द आदि का उच्चारण करने अर्थात् रटने की क्रिया या भाव। रट। रटाई। पुं० कहना। बोलना।
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रटना  : [सं० रटन] कंठस्थ करने तथा स्मृति-पथ में लाने के लिए किसी पद, वाक्य आदि का बार-बार जोर-जोर से तथा जल्दी-जल्दी उच्चारण करना।
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रठ  : वि० [?] रूखा। शुष्क।
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रंड  : वि० [सं० रम् (क्रीड़ा)+ड] १. धूर्त। चालाक। २. विकल। बेचैन।
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रंडक  : पुं० [सं० रंड+कन्] ऐसा पेड़ जो फूलता-फलता न हो।
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रड़क  : स्त्री० [हिं० रड़कना] १. किसी चीज के चुभने तथा पीड़ा देने की अवस्था या भाव। जैसे—आँख में होनेवाली रड़क। २. हल्का दर्द या पीड़ा। कसक। जैसे—घाव में कुछ रड़क हो रही है।
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रड़कन  : स्त्री०=रड़क। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रड़कना  : अ० [अं०] १. हल्का दरद होना। २. शरीर में किसी गड़ी या चुभी हुई चीज की कष्टदायक अनुभूति होना। जैसे—आँख में पड़ी हुई धूल या उसके कण का रड़कना। स० धक्का देना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रड़का  : पुं० [?] झाड़ू। स्त्री०=रड़क। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रड़काना  : स० [?] धक्का देकर निकालना या हटाना।
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रँडवा  : पुं० =रँडुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंडा  : वि० स्त्री० [सं० रंड+टाप्] राँड़। विधवा। बेवा। पुं० =रँडुआ। (पश्चिम)।
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रँडापा  : पुं० [हिं० राँड़+आपा (प्रत्यय)] १. राँड़ अर्थात् विधवा होने की दशा या भाव। २. रांड़ के रूप में बिताया जानेवाला समय।
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रडार  : पुं० =रैडर।
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रंडाश्रमी (मिन्)  : पुं० [सं० रंड-आश्रम, ष० त० रंडाश्रम+इनि] ४८ वर्ष से अधिक की अवस्था में होनेवाला रँडुआ।
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रंडिया  : स्त्री०=राँड़। २. =रंडी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंडी  : स्त्री० [सं० रंडा] १. वह स्त्री जिसका पति मर चुका हो। राँड़। विधवा (पश्चिम) २. ऐसी स्त्री जो विधवा होने पर व्यभिचार से अपनी जीविता चलाती हो। ३. धन लेकर संभोग करानेवाली स्त्री। वेश्या। ४. युवती और सुन्दर स्त्री। (राज०)
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रंडीबाज  : पुं० [हिं० रंडी+फा० बाज] [भाव० रंडीबाजी] वह जो प्रायः रंडियों के यहाँ जाकर उनसे संभोग करता हो। वेश्यागामी।
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रंडीबाजी  : स्त्री० [हिं० रंडी+फा० बाजी] १. रंडीबाज होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. रंडी के साथ की जानेवाली मित्रता या संभोग। क्रि० प्र०—करना।
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रँडुआ  : पुं० [हिं० राँड़+उआ (प्रत्यय)] ऐसा व्यक्ति जिसकी पत्नी मर चुकी हो और अन्य पत्नी अभी न आई हो। विधुर।
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रँडुवा  : पुं० =रँडुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंडोरा  : पुं० =रँडुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रँडोरी  : स्त्री०=राँड़।
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रढ़ना  : स०=रटना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रढ़िया  : स्त्री० [देश या राढ़ देश०] एक प्रकार की निम्न कोटि की देशी कपास। वि० [हिं० रार] जिद्दी। हठी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रण  : पुं० [सं०√रण् (शब्द)+अप्] १. लड़ाई। युद्ध। जंग। पद—रण-क्षेत्र, रण-भूमि, रण-स्थल। २. रमण। ३. आवाज। शब्द। ४. गति। चाल। ५. दुंबा नामक भेड़। पुं० [सं० अरण्य] जंगल। वन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रण-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] युद्धभूमि। लड़ाई का मैदान।
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रण-चंडी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] रण-क्षेत्र में मार-काट करनेवाली देवी।
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रण-छोड़  : पुं० [सं० रण+हिं० छोड़ना] श्रीकृष्ण का एक नाम जो इस कारण पड़ा था कि वे जरासन्ध के आक्रमण के समय व्रज छोड़कर द्वारका चले गये थे।
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रण-नाद  : पुं० [ष० त०] युद्ध के समय होनेवाली योद्धाओं की गरज।
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रण-प्रिय  : पुं० [ब० स०] १. विष्णु २. बाज पक्षी। ३. उशीर। खस।
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रण-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] लड़ाई का मैदान।
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रण-मत्त  : पुं० [स० त०] हाथी। वि० जो युद्ध करने के लिए उतावला हो रहा हो।
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रण-रंग  : पुं० [सं० रण-रण+कन्] १. व्यग्रता। घबराहट। व्याकुलता। २. पछतावा। पश्चात्ताप।
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रण-रणक  : पुं० [सं० रणरण+कन्] १. कामदेव का एक नाम। २. प्रबल कामना। ३. घबराहट। विकलता।
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रण-लक्ष्मी  : स्त्री० [मध्य० स०] युद्ध में विजय दिलानेवाली एक देवी। विजय-लक्ष्मी।
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रण-वाद्य  : पुं० [ष० त०] युद्ध का बाजा।
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रण-वीर  : पुं० [स० त०] बहुत बड़ा योद्धा।
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रण-वृत्ति  : पुं० [ब० स०] योद्धा। वह जिसकी वृत्ति लड़ते रहने की हो। सैनिक। योद्धा।
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रण-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] वह स्तंभ जो किसी रण में विजय प्राप्त करने के स्मारक में बना हो। विजय का स्मारक।
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रण-स्थल  : पुं० [ष० त०] लड़ाई का मैदान।
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रण-स्वामी (मिन्)  : पुं० [ष० त०] १. युद्ध का प्रधान संचालक या सेनापति। २. शिव। महादेव।
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रण-हंस  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सगण, जगण, भगण और रगण होते हैं।
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रणखेत  : पुं० =रणक्षेत्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रणत्कार  : पुं० [सं०√रण्+शतृ=रणत्-कार, ष० त०] १. झनझनाहट। २. गुंजन (मधु-मक्खी का)।
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रणधीर  : पुं० [सं० स० त०] युद्ध में धैर्यपूर्वक लड़नेवाला अर्थात् बहुत बड़ा योद्धा।
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रणन  : पुं० [सं०√रण्+ल्युट-अन] शब्द करना। बजना।
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रणमंडा  : स्त्री० [सं० रण-मंडन] पृथ्वी (डि०)
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रणरोज (स्)  : पुं० [सं० अरण्य-रोदन] वन में (जहाँ कोई सुननेवाला न हो) बैठकर व्यर्थ रोना जिसका कोई फल नहीं होता। अरण्य-रोदन।
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रणसिंघा  : पुं० [सं० रण+हिं० सिंघा] मध्ययुग में, युद्ध के समय बजाया जानेवाला नरसिंघा या तुरही नाम का बाजा।
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रणसिंहा  : पुं० =रणसिंघा।
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रणांगण  : पुं० [रण-अंगण, ष० त०] लड़ाई का मैदान।
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रणाजिर  : पुं० [रण-अजिर, ष० त०] लड़ाई का मैदान।
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रणि  : स्त्री० [सं० रजनी] रात्रि। रात। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रणेचर  : पुं० [सं० रणे√चर् (गति)+अच्, अलुक, स०] विष्णु।
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रणेश  : पुं० [रण-ईश, ष० त०] १. शिव। विष्णु।
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रणोत्कट  : पुं० [रण-उत्कट, स०त०] कार्तिकेय का एक अनुचर। वि० =रणोन्मत्त।
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रत  : पुं० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+क्त] १. मैथुन। प्रसंग। २. भग। योनि। ३. लिंग। ४. प्रीति। प्रेम वि० १. जो किसी काम में पूरे मनोयोग से लगा हुआ हो। २. प्रेम में पड़ा हुआ। आसक्त। वि० पुं० +रक्त। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रत-कील  : पुं० [सं० रत√कील् (बाँधना)+क, उप० स०] कुत्ता।
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रत-गुरु  : पुं० [स०त०] स्त्री का पति। खसम। शौहर।
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रत-जगा  : पुं० [हिं० रात+जागना] १. रात में होनेवाला जागरण। २. ऐसा आनन्दोत्सव जिसमें लोग रात भर जागते हैं। ३. एक त्योहार जो पूर्वी संयुक्त प्रान्त तथा बिहार आदि में भाद्रपद कृष्ण की रात हो होता है और जिसमें स्त्रियाँ रात भर जागकर कजली गाती और नाचती हैं।
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रत-द्रु  : पुं० [मध्य० स०] १. तिनिश का पेड़। २. बेंत।
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रत-निधि  : पुं० [ब० स०] खंजन पक्षी। ममोला।
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रत-मुँहा  : वि० [हिं० रत=राजा+मुँह+आँ (प्रत्यय)] [स्त्री० रतमुँही] लाल मुँहवाला। पुं० बंदर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतन  : पुं० =रत्न। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतन-जोत  : स्त्री० [सं० रत्न-ज्योति] १. एक प्रकार की मणि। २. एक प्रकार की सुगंधित लकड़ी जिसकी छाल से लाल रंग तैयार किया जाता या तेल आदि रँगा जाता है। ३. बड़ी दंती।
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रतनाकर  : पुं० १. दे० ‘रत्नाकर’। २. दे० ‘रतन-जोत’।
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रतनागर  : पुं० =रत्नाकर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रतनागरभ  : स्त्री० [सं० रत्नगर्भा] पृथ्वी। भूमि। (डि०)
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रतनार  : वि० =रतनारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतनारा  : वि० [सं० रक्त, प्रा० रत्त अथवा रत्न=मानिक+आर (प्रत्यय)] लाल रंग का। सुर्ख।
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रतनारी  : पुं० [हिं० रतनार+ई (प्रत्यय)] एक प्रकार का धान। स्त्री० लाली। सुर्खी। वि०=रतनार।
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रतनारीच  : पुं० [सं० स० त०] १. कामदेव। २. कामुक और लंपट व्यक्ति।
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रतनालिया  : वि० =रतनारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रतनावली  : स्त्री०=रत्नावली।
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रतबंध  : पुं० =रतिबंध।
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रतब्रण  : पुं० [सं० ब० स०] कुत्ता।
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रतल  : स्त्री० [अ० रत्ल] १. शराब का प्याला। चषक। २. एक पौंड का बटखरा। ३. तौल में पौंड या कोई चीज।
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रतवाई  : स्त्री० [देश] १. नई ईख का रस पहले-पहल पेरना। २. उक्त रस को लोगों में बाँटने की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० रात] १. मजदूरों का रात-भर काम करना। २. मजदूरों को रात के समय काम करने पर मिलनेवाला पारिश्रमिक। ३. मेवाड़ का एक प्रकार का ग्राम गीत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतवाँस  : पुं० [हिं० रात+वाँस (प्रत्यय] हाथियों, घोड़ों आदि का वह चारा जो उन्हें रात के समय दिया जाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतवाही  : स्त्री०=रतवाई।
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रतशायी (यिन्)  : पुं० [सं० रत√शो (क्षीण करना)+णिनि] कुत्ता।
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रतहिंडक  : पुं० [सं० च०त०] १. वह जो स्त्रियाँ चुराता हो। २. कामुक और लंपक व्यक्ति।
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रता  : स्त्री० [देश] भुकड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंता (तृ)  : वि० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+तृच्] रमण करनेवाला।
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रताना  : अ० [सं० रात+हिं० आना (प्रत्यय)] रत होना। स० रत करना। अ० [हिं० रत+आना (प्रत्यय)] लाल होना। स० लाल करना।
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रतायनी  : स्त्री० [सं० रत-अयन, ब० स० ङीष्] वेश्या।
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रतालू  : पुं० [सं० रक्तालु] १. पिंडालू नामक कंद जिसकी तरकारी बनाते हैं। २. बराही कन्द। गेंठी।
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रंति  : स्त्री० [सं०√रम्+क्तिन्] १. केलि। क्रीड़ा। २. विराम।
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रति  : स्त्री० [सं०√रम्+क्तिन्] १. किसी काम, चीज, बात या व्यक्ति में रत होने की अवस्था या भाव। २. उक्त अवस्था में मिलनेवाला आनंद या होनेवाली तृप्ति। ३. विशेषतः मैथुन आदि में होनेवाली तृप्ति या मिलनेवाला आनंद। साहित्य में इसे श्रृंगार रस का स्थायी भाव माना गया है। ४. मैथुन। संभोग। ५. प्रीति। प्रेम। ६. छवि। शोभा। ७. सौभाग्य। ८. गुप्त-भेद। रहस्य। ९. कामदेव की पत्नी का नाम। स्त्री०=रत्ती। अव्य०=रती। स्त्री०=रात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रति-करण  : पुं० [ष० त०] रति या संभोग करने का कौशल या ढंग।
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रति-कलह  : पुं० [ष० त०] मैथुन। संभोग।
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रति-कांत  : पुं० [ष० त०] रति का पति। कामदेव।
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रति-कुहर  : पुं० [ष० त०] योनि। भग।
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रति-केलि  : स्त्री० [ष० त०] मैथुन। संभोग।
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रति-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] मैथुन। संभोग।
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रति-गृह  : पुं० [ष० त०] योनि। भग।
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रति-तस्कर  : पुं० [ष० त०] वह जो स्त्रियों को अपने साथ व्यभिचार करने में प्रवृत्त करता हो।
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रति-दान  : पुं० [ष० त०] संभोग। मैथुन।
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रति-देव  : पुं० [ष० त०] १. विष्णु। २. [ब० स०] कुत्ता। ३. चंद्रवंशी राजा सांकृति के पुत्र एक राजा।
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रति-नाथ  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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रति-नायक  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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रति-पति  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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रति-पाश  : पुं० [ष० त०] सोलह प्रकार के रति-बंधों में से एक भेद। (काम शास्त्र)
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रति-प्रिय  : पुं० [ष० त०] १. कामदेव। २. [ब० स०] मैथुन से आनंदित होनेवाला व्यक्ति। वि० [स्त्री० रति-प्रिया] रति (मैथुन) का शौकीन। कामुक।
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रति-प्रिया  : स्त्री० [ब० स०] १. तांत्रिकों के अनुसार शक्ति की एक मूर्ति का नाम। २. दाक्षायणी देवी का एक नाम। ३. मैथुन से आनंदित होनेवाली स्त्री।
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रति-प्रीता  : स्त्री० [तृ० त०] १. वह नायिका जिसकी रति में विशेष अनुराग हो। कामिनी। २. रति से आनंदित होनेवाली स्त्री।
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रति-बंध  : पुं० [स० त०] काम-शास्त्र में बतलाये हुए संभोग करने के ८४ आसनों में से हर एक।
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रति-भवन  : पुं० [ष० त०] १. रति-क्रीड़ा या मैथुन करने का कमरा या भवन। २. योनि। भग।
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रति-भाव  : पुं० [ष० त०] १. पति, और पत्नी, प्रेमी और प्रेमिका या नायक और नायिका का पारस्परिक अनुराग। २. प्रीति। प्रेम। मुहब्बत।
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रति-मंदिर  : पुं० [ष० त०] रति-भवन (दे०)।
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रति-मित्र  : पुं० [स०त०] एक रतिबंध। (कामशास्त्र)
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रति-रमण  : पुं० [ष० त०] १. रति-क्रीड़ा। मैथुन। २. कामदेव।
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रति-राज  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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रति-वर  : पुं० [स० त०] १. रति में प्रवीण कामदेव। २. वह धन या भेंट जो नायक-नायिका को रति में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से देता है।
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रति-वर्द्धन  : वि० [सं० ष० त०] काम-शक्ति बढ़ानेवाला।
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रति-वल्ली  : स्त्री० [ष० त०] प्रेम। प्रीति। मुहब्बत।
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रति-समर  : पुं० [ष० त०] संभोग मैथुन।
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रति-साधन  : पुं० [ष० त०] पुरुष का लिंग। शिश्न।
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रति-सुन्दर  : पुं० [ष० त०] एक रति बंध। (कामशास्त्र)
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रतिकर  : अव्य० [हिं० रत्ती] रत्तीभर, अर्थात् बहुत थोड़ा। जरा-सा वि० [सं० रति√कृ (करना)+ट०] १. रति करनेवाला। २. आनन्द और सुख की वृद्धि करनेवाला। ३. अनुराग या प्रेम बढ़ानेवाला। पुं० कामुक और लंपट व्यक्ति।
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रतिगर  : अव्य० [हिं० रात+गर] प्रातःकाल। तड़के। सबेरे। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतिज्ञ  : पुं० [ष०रति√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो रति-क्रिया में चतुर हो। २. वह जो स्त्रियों को अपने प्रेम में फँसाने की कला में निपुण हो।
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रंतिदेव  : पुं० [सं०√रम्+तिक्, रन्तिदेव, कर्म० स०] १. पुराणानुसार एक बहुत बड़े दानी राजा जिन्होंने बहुत से यज्ञ किये थे। २. विष्णु का एक नाम। ३. कुत्ता।
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रंतिनदी  : स्त्री० [सं०] चम्बल (नदी)।
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रतिनाह  : पुं० =रतिनाथ (कामदेव)।
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रतिभौन  : पुं० =रतिभवन।
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रतिमदा  : स्त्री० [सं० ब० स०] अप्सरा।
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रतियाना  : अ० [हिं० रति=प्रीति+आना (प्रीति)] किसी पर रत या अनुरक्त होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रतिराइ  : पुं० =रतिराज (कामदेव)।
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रतिवंत  : वि० [सं० रति+हिं० वंत (प्रत्यय)] सुंदर। खूबसूरत।
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रतिवाही (हिन्)  : पुं० [सं० रति√वह् (ढोना)+णिनि] संगीत में एक प्रकार का राग, जिसका गान-समय रात को १६ दंड से २0 दंड तक है।
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रतिशास्त्र  : पुं० [मध्य० स०] वह शास्त्र जिसमें रति के ढंगों, आकारों आसनों आदि का विवेचन होता है। कामशास्त्र।
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रतिसत्वरा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] असबरग। पृक्का।
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रती  : स्त्री० [सं० रति] १. कामदेव की पत्नी। रति। २. सौन्दर्य। ३. शोभा। ४. मैथुन। संभोग। ५. आनन्द। मौज। स्त्री०=रत्ती। अव्य०बहुत थोड़ा। जरा सा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतीक  : अव्य०=रतिक (थोड़ा सा)।
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रतीश  : पुं० [रति-ईश, ष० त०] कामदेव।
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रंतु  : स्त्री० [सं०√रम्+तुन्] १. सड़क। २. नदी।
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रतुआ  : पुं० [देश] एक तरह का बरसाती घास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतून  : पुं० [देश] वह ईख या गन्ना जो एक बार काट लेने पर सिर उसी पहली जड या पेड़ी से निकलता है। पेड़ी या गन्ना।
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रंतूला  : पुं० =रणतुर्य।
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रतोपल  : पुं० [सं० रक्तोत्पल] १. लाल कमल। २. लाल सुरमा। ३. लाल खड़िया। ४. गेरू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रतौंधी  : स्त्री० [हिं० रात+अंधा] आँख का एक प्रसिद्ध रोग जिसके कारण रोगी को रात के समय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
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रतौन्हीं  : स्त्री०=रतौंधी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रत्त  : पुं० =रक्त। वि० रत।
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रत्तक  : पुं० [सं० रत्तक, प्रा० रत्त] एक तरह का लाल रंग का पत्थर।
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रत्तरी  : स्त्री०=रात्रि।
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रत्तिका  : स्त्री० [सं० रक्त+ठन्—इक, टाप्] १. घुंघची। २. रत्ती नामक तौल या परिमाण।
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रत्ती  : स्त्री० [सं० रक्ति, का प्रा० रत्तीआ] १. माशे के आठवें अंश के बराबर की एक तौल या मान। २. उक्त परिमाण या बटखरा। ३. घुंघची का दाना जो साधारणतया तौल में माशे के आठवें अंश के बराबर होता है। पद—रत्ती भर=बहुत थोड़ा। जरा सा। वि० बहुत ही थोड़ा। किंचित् मात्र। स्त्री० [सं० रति] १. छवि। शोभा। २. सौन्दर्य।
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रत्थी  : स्त्री०=अरथी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रत्न  : पुं० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+णिच्, न० तकार-अन्तादेश] १. कुछ विशिष्ट छोटे चमकीले खनिज पदार्थ या बहूमूल्य पत्थर जो आभूषणों आदि में जड़े जाते हैं २. माणिक्य मानिक। लाल। ३. वह जो अपनी जाति या वर्ग में औरों से बहुत अच्छा या बढ़-चढ़कर हो। ४. जैनों के अनुसार सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र।
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रत्न-कंदल  : पुं० [ष० त०] प्रवाल। मूँगा।
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रत्न-कर्णिका  : स्त्री० [मध्य० स०] कान में पहनने का एक तरह का जड़ाऊ गहना।
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रत्न-कांति  : स्त्री० [ब० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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रत्न-कूट  : पुं० [ब० स०] १. एक पौराणिक पर्वत का नाम। २. एक बोधिसत्व का नाम।
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रत्न-गर्भ  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] वह जिसके गर्भ में रत्न हो। पृथ्वी।
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रत्न-त्रय  : पुं० [ष० त०] सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र (जैन)।
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रत्न-दामा  : स्त्री० [ष० त०] १. रत्नों की माला। २. सीता की माता। (गर्ग संहिता)।
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रत्न-दीप  : पुं० [मध्य० स०] १. रत्नों से जड़ा हुआ दीपक। रत्नजटित दीपक। २. एक कल्पित रत्न का नाम जो बहुत उज्जवल माना गया है।
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रत्न-द्रुम  : पुं० [ष० त०] मूँगा।
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रत्न-द्वीप  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार एक द्वीप का नाम।
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रत्न-धर  : पुं० [ष० त०] धनवान्। वि० रत्न धारण करनेवाला।
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रत्न-धेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] दान के उद्देश्य से रत्नों की बनाई हुई गौ की मूर्ति।
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रत्न-ध्वज  : पुं० [ब० स०] एक बोधिसत्त्व।
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रत्न-नाभ  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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रत्न-निधि  : पुं० [ष० त०] १. खंजन पक्षी। ममोला। २. समुद्र। ३. मेरू पर्वत। ४. विष्णु।
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रत्न-परीक्षक  : पुं० [ष० त०] जौहरी।
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रत्न-पर्वत  : पुं० [ष० त०] सुमेरु पर्वत।
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रत्न-पाणि  : पुं० [ब० स०] एक बोधिसत्व।
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रत्न-पारखी  : पुं० =रत्न-परीक्षक (जौहरी)।
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रत्न-प्रदीप  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा एक कल्पित रत्न जो दीपक के समान प्रकाशमान माना गया है।
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रत्न-प्रभ  : पुं० [ब० स०] देवताओं का एक वर्ग।
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रत्न-प्रभा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] १. पृथ्वी। २. जैनों के अनुसार एक नरक।
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रत्न-बाहु  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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रत्न-भूषण  : पुं० [मध्य० स०] रत्न जटित आभूषण। जड़ाऊ गहना।
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रत्न-माला  : स्त्री० [मध्य० स०] १. रत्नों की माला। २. राजा बलि की कन्या का नाम।
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रत्न-माली (लिन्)  : पुं० [सं० रत्नमाला+इनि] देवताओं का एक वर्ग।
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रत्न-राज्  : पुं० [सं० रत्न√राज् (चमकना)+क्विप्, उप० स०] माणिक्य। लाल।
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रत्न-वती  : स्त्री० [सं० रत्न+मतुप्+ङीष्] पृथ्वी।
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रत्न-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. रत्नों के रखने का स्थान। २. ऐसा भवन या महल जिसकी दीवारों पर रत्न जड़े हों।
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रत्न-सागर  : पुं० [मध्य० स०] समुद्र का वह भाग जहाँ से प्रायः रत्न निकलते हों।
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रत्न-सानु  : पुं० [ब० स०] सुमेरु पर्वत।
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रत्न-सू  : स्त्री० [सं० रत्न√सू (प्रसव)+क्विप्] पृथ्वी।
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रत्नकर  : पुं० [सं० रत्न√कृ (करना)+ट] कुबेर का एक नाम।
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रत्नगर्भा  : पुं० [ब० स०] १. कुबेर का एक नाम। २. रत्नाकर। समुद्र। ३. एक बुद्ध का नाम।
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रत्नगिरि  : पुं० [मध्य० स०] बिहार के एक पहाड़ का प्राचीन नाम।
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रत्नचूड़  : पुं० [ब० स०] एक बोधिसत्व।
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रत्नछाया  : स्त्री० [सं० रत्नच्छाया] रत्न की आभा, छाया या पानी।
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रत्नाकर  : पुं० [रत्न-आकर, ष० त०] १. समुद्र। २. ऐसी खान जिसमें से रत्न निकलते हों। ३. वाल्मिकी का पुराना नाम। ४. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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रत्नागिरि  : पुं० =रत्नगिरि बिहार में स्थित एक पर्वत।
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रत्नाचल  : पुं० [रत्न-अचल, मध्य० स०] दान के उद्देश्य से लगाया हुआ रत्नों का ढेर।
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रत्नाद्रि  : पुं० [रत्न-अद्रि, मध्य० स०] एक पर्वत। (पुराण)
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रत्नाधिपति  : पुं० [रत्न-अधिपति, ष० त०] कुबेर।
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रत्नावली  : स्त्री० [रत्न-आवली, ष० त०] १. मणियों या रत्नों की अवली या श्रेणी। २. रत्नों की माला। ३. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें कोई बात ऐसे कलिष्ट शब्दों में कही जाती है कि उनसे प्रस्तुत अर्थों के सिवा कुछ और अर्थ भी निकलते हैं। जैसे—‘आप चतुरास्य लक्ष्मीपति और सर्वज्ञ है’ का साधारण अर्थ के सिवा यह भी अर्थ निकलता है कि आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं।
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रत्यर्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० रति√अर्थ√णिच् (स्वार्थ में)+णिनि, उप० स०] [स्त्री० रत्यर्थिनी] रति की इच्छा या कामना रखनेवाला। जो रति करना चाहता हो।
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रत्युत्सव  : पुं० [सं० रति-उत्सव, ष० त०] रति या संभोग का उत्सव।
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रथ  : पुं० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+कथन्] १. प्राचीन काल की एक प्रकार की सवारी जिसमें चार या दो पहिये हुआ करते थे। गाडी। बहल। शतांग। स्यंदन। २. शरीर जो आत्मा का यान या सवारी है। उदाहरण—तीरथ चलत मन तीरथ चलत है।—सेनापति। ३. पग या पैर जिससे प्राणी चलते हैं। ४. क्रीड़ा या विहार का स्थान। ५. तिनिश का पेड़। ६. वह शिला-मंदिर जो किसी चट्टान को काटकर बनाया गया हो। (दक्षिण)
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रथ-कल्पक  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्राचीन भारत में वह अधिकारी जो किसी राजा के रथों, यानों आदि की देख-रेख रखता था। २. वाहन। ३. घर। ४. प्राचीन भारत में, धनवानों का वह प्रधान अधिकारी जो उनके घर आदि सजाता और उनके पहनने के वस्त्र आदि रखता था।
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रथ-कूबर  : पुं० [ष० त०] रथ का वह भाग जिस पर जूआ बाँधा जाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रथ-क्रांत  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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रथ-क्रांता  : स्त्री० [सं० रथक्रांत+टाप्] एक प्राचीन जनपद का नाम।
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रथ-गर्भक  : पुं० [ब० स०+कप्] कंधों पर उठाई जानेवाली सवारी। जैसे—डोला, पालकी आदि।
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रथ-गुप्ति  : स्त्री० [ब० स०] रथ-नीड। (दे०) के चारों ओर सुरक्षा की दृष्टि से लकड़ी-लोहे आदि का लगाया जानेवाला घेरा।
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रथ-चरण  : पुं० [ष० त०] १. रथ का पहिया। [रथचरण+अच्] २. चकवा। चक्रवाक।
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रथ-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] रथ पर चढ़कर भ्रमण करना।
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रथ-नीड  : पुं० [ष० त०] रथ में वह स्थान जहाँ लोग बैठते हैं। गद्दी।
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रथ-पति  : पुं० [ष० त०] रथ का नायक। रथी।
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रथ-पर्याय  : पुं० [ब० स०] १. तिनिश का पेड़। २. बेंत।
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रथ-पाद  : पुं० =रथचरण।
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रथ-महोत्सव  : पुं० [ष० त०] रथ-यात्रा। (दे०)
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रथ-यात्रा  : स्त्री० [तृ० त०] हिन्दुओं का एक पर्व या उत्सव जो आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होता है और जिसमें जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियाँ रखकर उनकी सवारी निकालते हैं।
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रथ-योजक  : पुं० [ष० त०] सारथि।
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रथ-वर्त्म (न्)  : पुं० [ष० त०] राजमार्ग।
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रथ-वाहक  : पुं० [सं० रथवाह+कन्] सारथि।
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रथ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ रथ रखे जाते हों। गाड़ी खाना।
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रथ-शास्त्र  : पुं० [मध्य० स०] रथ चलाने की क्रिया।
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रथ-सप्तमी  : स्त्री० [मध्य० स०] माघ शुक्ला सप्तमी।
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रथंकर  : पुं० [सं० रथ√कृ (करना)+खच्, मुमागम] १. एक कल्प का नाम। २. एक प्रकार का साम। ३. एक प्रकार की अग्नि।
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रथकार  : पुं० [सं० रथ√कृ (करना)+अण्] १. रथ बनानेवाला कारीगर। २. बढ़ई। ३. माहिष्य पिता से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति।
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रथवान् (वत्)  : पुं० [सं० रथ+मतुप्] रथ हाँकनेवाला। सारथि।
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रथवाह  : पुं० [सं० रथ√वह (ढोना)+अण्] १. रथ चलानेवाला सारथि २. रथ खींचनेवाला घोड़ा।
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रथस्था (स्या)  : स्त्री० [सं०] पंचाल देश की राम-गंगा नामक नदी का पुराना नाम।
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रथाक्ष  : पुं० [रथ-अक्षि, ष० त०] १. रथ का पहिया। २. रथ का धुरा। ३. कार्तिकेय का एक अनुचर। ४. चार अंगुल का एक परिमाण।
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रथांग  : पुं० [रथ-अंग, ष० त०] १. रथ का पहिया। २. [रथांग+अच्] चक्र नामक अस्त्र। ३. चकवा पक्षी।
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रथांग-धर  : पुं० [ष० त०] १. श्रीकृष्ण। २. विष्णु।
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रथांग-पाणि  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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रथांगी  : स्त्री० [सं० रथांग+ङीष्] ऋद्धि नामक ओषधि।
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रथाग्र  : पुं० [रथ-अग्र, ब० स०] वह जिसका रथ सबसे आगे हो, अर्थात् श्रेष्ठतम योद्धा।
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रथिक  : पुं० [सं० रथ+ठन्—इक] १. वह जो रथ पर सवार हो। रथी। २. तिनिश का पेड़।
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रथी (थिन्)  : पुं० [सं० रथ+इनि] १. वह जो रथ पर चढ़कर चलता हो। रथी। २. रथ पर चढ़कर युद्ध करनेवाला। रथवाला योद्धा। पद—महारथी। ३. एक बार योद्धाओं से अकेला युद्ध करनेवाला योद्धा। उदाहरण—पूरण प्रकृति सात धीर वीर है विख्यात रथी महारथी अतिरथी रण साजिके।—रघुराज। वि० जो रथ पर सवार हो। स्त्री०=अरथी (मृतक की)।
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रथोत्सव  : पुं० [रथ-उत्सव, ष० त०] रथ-यात्रा। (दे०)
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रथोद्धता  : स्त्री० [रथ-उद्धता, उपमित, स०] ग्यारह अक्षरों का एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसका पहला, तीसरा, सातवां, नवाँ और ग्यारहवाँ वर्ण गुरु तथा अन्य वर्ण लघु होते हैं।
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रथ्य  : पुं० [सं० रथ+यत्] १. वह घोड़ा जो रथ में जोता जाता हो २. रथ चलानेवाला। सारथि। ३. पहिया।
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रथ्या  : स्त्री० [सं० रथ्य+टाप्] १. रथों का समूह। २. वह मार्ग जो वनों में रथ के चलने से बन जाता था। ३. बड़े नगरों में वह चौड़ी मार्ग या सड़क जिस पर रथ चलते थे। ४. घर का आँगन या चौक। ५. नाबदान। पनाला।
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रंद  : पुं० [सं० रंघ्र] १. झरोखा। रोशनदान। २. किले की दीवार में वह मोखा या झरोखा जिसमें से बाहर गोले फेंके जाते थे। स्त्री० [हिं० रँदना या फा० ] वह छीलन जो लकड़ी को रँदने पर निकलती है।
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रद  : पुं० [सं०√रद् (विलेखन)+अच्] दंत। दाँत। वि०=रद्द।
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रद-क्षत  : पुं० [तृ० त० या ष० त०] रति आदि के समय दाँतों में गड़ने या लगने का चिन्ह।
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रद-छत  : पुं० =रद-क्षत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रद-दान  : पुं० [सं० ष० त०] (रति के समय) दाँतो से ऐसा दबाना कि चिन्ह पड़ जाय। रद-क्षत करना।
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रद-पट  : पुं० [सं० ष० त०] अधर। होंठ।
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रद-बदल  : स्त्री० [अ० रद्दोबदल] परिवर्तन।
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रदच्छद  : पुं० [सं० रद्√छद् (आच्छादन)+णिच्+घ, ह्रस्व] होंठ। ओष्ठ।
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रदन  : पुं० [सं०√रद्+ल्युट-अन] दशन। दाँत। दंत।
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रदनच्छद  : पुं० [सं० रदन√छद्+णिच्+घ, ह्रस्व०] ओष्ठ। अधर। होंठ।
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रँदना  : स० [हिं० रंदा+ना (प्रत्यय)] १. रंदे से छीलकर लकड़ी की सतह चिकनी और समतल करना। २. छीलना। तराशना।
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रदनी (नि्न्)  : वि० [सं० रदन+इनि] दाँतवाला। पुं० हाथी।
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रदबास  : पुं० [सं० रद+वास=आवरण] होंठ। उदाहरण—अन्तरपट रदबास सरीरु।—नूर मोहम्मद।
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रंदा  : पुं० [सं० रंदन=काटना, चीरना मि० फा० रंद] बढ़इयों का एक औजार जिससे वे लकड़ी की सतह छीलकर चिकनी और समतल करते हैं।
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रदी (दिन्)  : पुं० [सं० =रद+इनि] हाथी। गज।
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रदीफ  : स्त्री० [अ० रदीफ़] १. वह व्यक्ति जो घोड़े पर मुख्य सवार के पीछे बैठता है। २. वह शब्द जो गजलों आदि में प्रत्येक काफिए या अन्त्यानुप्रास के बाद आनेवाला शब्द या शब्द-समूह। जैसे—चला है ओ दिले राहत-तलब क्या शदियाँ होकर। जमीने कूए जानों रंज देनी आस्माँ होकर। में ‘शादयाँ’ और ‘आस्माँ’ काफिया है, तथा ‘होकर’ रदीफ है। ३. पीछे की ओर रहनेवाली सेना। पृष्ठ-भाग के सैनिक।
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रदीफवार  : अव्य० [अ+फा० ] १. रदीफ के अनुसार २. वर्णमाला के क्रम से। अक्षर-क्रम से।
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रद्द  : वि० [अ०] १. बदला हुआ। परिवर्तित। २. (लिखित सामग्री) जो नापसंद अथवा दूषित होने पर काट या छांट दी गई हो। जो अनुपयुक्त समझकर निरर्थक या व्यर्थ कर दिया गया हो। स्त्री० [देश] कै। वमन।
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रद्दा  : पुं० [फा० रदः] १. दीवार में जुड़ाई की एक पंक्ति। २. मिट्टी की दीवार उठाने में उतना अंश, जितना चारों ओर एक बार में उठाया जाता है। क्रि० प्र०—उठाना।—रखना। ३. थाली में एक प्रकार की मिठाइयों का चुनाव जो स्तरों के रूप में नीचे-ऊपर होता है। क्रि० प्र०—रखना।—लगाना। ४. नीचे ऊपर रखी हुई वस्तुओं का थाक या ढेर। क्रि० प्र०—चुनना। ५. कुश्ती में अपने प्रतिपक्षी को नीचे लाकर उसकी गरदन पर कुहनी और कलाई के नीचे की हड्डी से रगड़ते हुए आघात करना। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। ६. चमड़े की वह मोहरी जो भालुओं के मुँह पर बाँधी जाती है।
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रद्दी  : वि० [फा० रद] १. जो व्यर्थ हो तथा किसी उपयोग में न लाया जा सकता हो। जैसे—रद्दी कागज। २. जिसमें कुछ भी बढ़ियापन या अच्छाई न हो। बहुत ही निम्न कोटि या प्रकार का। जैसे—रद्दी कपड़ा। स्त्री लिखे अथवा छपे हुए ऐसे कागज जिनका उपयोग अब न होने को हो। पुराने और व्यर्थ के कागज।
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रद्दीखाना  : पुं० [हिं० रद्दी+फा० खाना] वह स्थान जहाँ खराब और निकम्मी चीजें रखी या फेंकी जाएँ।
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रंधक  : पुं० [सं०√रंध् (पाक-क्रिया)+ण्वुल्-अक] रसोई बनानेवाला। रसोइया। वि० नष्ट करने-वाला। नाशक।
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रंधन  : पुं० [सं०√रंध्+ल्युट-अन] १. रसोई बनाने की क्रिया। पाक करना। राँधना। २. नष्ट या बरबाद करना।
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रंधना  : अ० [सं० रंधन] भोजन पकना। राँधा जाना। स०=राँधना। पुं० पकाकर तैयार किया हुआ भोजन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रधार  : स्त्री० [देश] ओढ़ने का दोहरा वस्त्र। दोहर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रंधित  : भू० कृ० [सं०√रंध्+क्त] १. पकाया हुआ। २. राँधा हुआ। ३. नष्ट किया हुआ।
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रधेरा जाल  : पुं० [सं० रंध=छेद+ऐरा (प्रत्यय)+जाल] मछली फँसाने का छोटे छेदोंवाला जाल।
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रधौती  : स्त्री० [देश०] बड़े व्यापारियों या आढ़तियों की ओर से छोटे दूकानदारों या व्यापारियों को भेजा जानेवाला वह पत्र जिसमें चीजों के भाव लिखे होते हैं। दर या भाव का परिपत्र। (रेट सर्क्यूलर)
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रंध्र  : पुं० [सं० रंध+रक्] १. छेद। सूराख। पद—ब्रह्म-रंध्र। २. स्त्री की भग। योनि ३. छिद्र। दोष। ४. लाक्षणिक अर्थ में कोई ऐसा छिद्र तत्त्व या दुर्बल स्थान जिस पर सफलतापूर्वक या सहज में आक्रमण, आक्षेप या आघात किया जा सके।
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रन  : पुं० [सं० रण] युद्ध। लड़ाई। संग्राम। पुं० [सं० अरण्य] जंगल वन। पुं० [?] १. झील। ताल। समुद्र का वह छोटा खंड जो तीन ओर से स्थल से घिरा हो। छोटी खाड़ी। पुं० [अं०] क्रिकेट के खेल में बल्लेबाज द्वारा एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगाई जानेवाली दौड़। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रन-बरिया  : स्त्री० [देश] एक तरह का जंगली भेड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रन-बाँकुरा  : पुं० =रन-बंका।
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रन-लंपिका  : स्त्री० [डिं०] गौ। गाय।
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रन-वास  : पुं० [हिं० रानी+वास] १. महल का वह अंश जिसमें रानियाँ रहती थीं। अंतःपुर। २. घर में स्त्रियों के रहने का स्थान। जनानखाना।
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रन-वासन  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की फली।
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रन-साजी  : स्त्री० [सं० रण+फा० साजी] युद्ध छिड़ने या छेड़ने की अवस्था क्रिया या भाव। उदाहरण—सरजा शिवाजी की सबेग तेज बाजी चाहि गाजी गजनी के रनसाजी जु चहत है।—रत्नाकर।
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रनकना  : अ० [देश०, सं० रणन=शब्द करना] घुँघरु आदि का मंदमंद शब्द होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रनछोर  : पुं० =रणछोड़ (श्रीकृष्ण)।
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रनना  : अ० [सं० रणन=शब्द करना] घुँघरुओं आदि का मन्द और मधुर शब्द में बजना या बोलना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रनबंका  : पुं० [सं० रण+हिं० बाँका] युद्ध-क्षेत्र में वीरता दिखानेवाला योद्धा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रनवादी  : पुं० [सं० रण+वादी] योद्धा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रनित  : भू० कृ०=रणित (बजता हुआ)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रनिवास  : पुं० =रनवास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रनी  : पुं० [सं० रण+हिं० ई (प्रत्यय)] रण करनेवाला व्यक्ति। योद्धा।
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रनेत  : पुं० [सं० रण+एत (प्रत्यय)] भाला। (डि०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रपट  : स्त्री० [हि० रपटना] १. रपटने की क्रिया या भाव। २. ऐसा स्थान जहाँ पैर रपटता या फिसलता हो। ३. जल्दी-जल्दी रपटने अर्थात् तेजी से चलने की क्रिया या भाव। दौड़। ४. ढालुआँ स्थान। उतार ढाल। स्त्री० [अ० रब्त] आदत। टेव। क्रि० प्र०—डालना।—पडना।—होना। स्त्री० [अं० रिपोर्ट] चौकी, थाने आदि में जाकर दी जानेवाली मारपीट, चोरी-डाके आदि दुर्घटनाओं की सूचना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रपटना  : अ० [सं० रफन=सरकना, मि० फा० रफतन्] १. चिकनी या ढालवी जमीन पर पाँव और फलतः व्यक्ति आदि का फिसलकर आगे बढ़ना। २. तेजी से चलना। स० मैथुन या संभोग करना। (बाजारू) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रपटा  : पुं० [हिं० रपटना] १. रपटने की क्रिया या भाव। २. ऐसा स्थान या स्थिति जिसमें पैर रपटता या फिसलता हो। फिसलन। ३. ढालुई भूमि। ढाल। ढालन। (रैम्प)
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रपटाना  : स० [हिं० रपटना] १. किसी को रपटने में प्रवृत्त करना। २. (काम) जल्दी से पूरा करना।
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रपटीला  : वि० [हिं० रपटर (ना)+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० रपटीली] इतना या ऐसा चिकना जिस पर पैर फिसलता या फिसल सकता हो। पिच्छिल।
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रपट्टा  : पुं० [हिं० रपटना] १. फिसलने की क्रिया या भाव। रपट। २. बहुत जल्दी-जल्दी चलना। तेज चलना। मुहावरा—रपट्टा मारना=बहुत जल्दी-जल्दी या तेजी से चलना। ३. दौड़-धूप। ४. दे० ‘झपट्टा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रपाती  : स्त्री० [?] तलवार। (डि०)
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रपुर  : पुं० [सं० हरिपुर] स्वर्ग। (डि०)
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रफ  : पुं० [अ० रफ़] मचान। वि० [अं०] १. (कागज, कपड़ा आदि) जिसमें चिकनापन न हो। खुरदुरा। २. (विवरण लेख आदि) जो अभी ऐसे रूप में हो कि ठीक तथा साफ किया जाने अर्थात् पुनः लिखा जाने को हो। नमूने के रूप में तैयार किया हुआ।
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रफ़त  : स्त्री० [फा०] चलना या जाना जैसे—आमद रफ्त=आना-जाना।
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रफता  : वि० [अ० रफतः] १. गया या बीता हुआ। गत। २. मृत।
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रफता-रफता  : अव्य० [अ० रफ़तः रफ़तः] शनैःशनै। धीरे-धीरे।
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रफते-रफते  : अव्य, =रफ्ता-रफ्ता।
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रफल  : स्त्री० [अ० राइफल] विलायती ढंग को एक प्रकार की बंदूक। राइफल। पुं० [अं० रैपर] एक तरह की ऊनी मोटी चादर।
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रफा  : वि० [अ० रफस] १. दूर किया या हटाया हुआ। २. मिटाया हुआ। ३. समाप्त या पूरा किया हुआ। ४. निवारित या शांत किया हुआ। पद—रफा-दफा।
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रफाह  : स्त्री० [अं० रिफ्ह] १. आराम। २. भलाई। हित।
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रफीअ  : वि० [अ० रफीअ] १. ऊँचा। बुलंद। २. उत्तम। श्रेष्ठ।
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रफीक  : पुं० [अं० रफीक] १. साथी। संगी। २. सहायक। मददगार। ३. मित्र। वि० प्रायः सदा साथ रहनेवाला।
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रफीदा  : पुं० [अ० रफादः] १. वह गद्दी जिसके ऊपर जीन कसी जाती है। २. कपड़े की वह गद्दी जिसे हाथ में लगाकर नानबाई तंदूर में रोटी चिपकाते हैं। काबुक। ३. एक प्रकार की गोलाकार पगड़ी।
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रफू  : पुं० [फा० रफू] १. एक प्रकार की सिलाई जिसमें बीच से कुछ कटा या फटा हुआ कपड़ा इस प्रकार बीच में सूत भरकर मिलाया जाता है कि साधारणतः जोड़ नहीं दिखाई पड़ता। २. असंगत या असंबद्ध बातों की संगति बैठाने की क्रिया। मुहावरा—(बात) रफू करना=कही हुई दो असंबद्ध या असंगत बातों में सामंजस्य स्थापित करना। बात बनाना।
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रफू-चक्कर  : वि० [अ० रफू+हिं० चक्कर] जो धीरे से तथा बिना आहट दिये कहीं चला गया हो। चंपत। गायब। (व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त) क्रि० प्र० बनना।—होना।
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रफूगर  : पुं० [फा० रफूगर] [भाव० रफूगरी] वह कारीगर जो कपड़ों में रफू करने या बनाने का काम करता हो।
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रफूगरी  : स्त्री० [फा] रफूगर का काम पेशा या भाव।
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रफ्तनी  : वि० [फा० ] जो जानेवाला हो। स्त्री० १. जाने की क्रिया या भाव। २. माल का कहीं बाहर भेजा जाना। निकासी। निर्यात।
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रफ्ता-रफ्ता  : अव्य० =रफता-रफता।
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रफ्तार  : स्त्री० [फा०] १. गति। चाल। २. चलने-दौड़ने के समय और पार की जानेवाली दूरी के हिसाब से आनुपातिक गति। जैसे—मोटर ५0 मील घंटे की रफ्तार से चलती है। ३. प्रगति। ४. दशा। हालत।
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रफ्तार-गुफ्तार  : स्त्री० [फा०] उठते-बैठते चलने-फिरने और बात-चीत करने का ढंग या भाव। चाल-चलन। तौर-तरीका।
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रब  : पुं० [अ०] १. मालिक। २. ईश्वर।
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रबकना  : अ० [?] [भाव० रबकी] डर से छिपाना। दुबकना।
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रबड़  : पुं० [अं० रबर] १. एक प्रकार का वृक्ष जो वट वर्ग के अन्तर्गत और जिसका सुखाया हुआ दूध इसी नाम से प्रसिद्ध है। २. उक्त दूध से बना हुआ एक प्रसिद्ध लचीला पदार्थ जिससे गेंद, फीते आदि बहुत सी चीजें बनती हैं। स्त्री० [हिं० रगड़ा] १. बहुत अधिक परिश्रम। रगड़ा। २. व्यर्थ का श्रम। फजूल की हैरानी। क्रि० प्र०—खाना।—पड़ना। ३. रास्ते की ऐसी चक्करदार दूरी जिसमें परिश्रमपूर्वक बहुत चलना पड़ता हो।
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रबड़-छंद  : पुं० [हिं०+सं०] कविता का ऐसा छंद जिसमें मात्राओं आदि की गिनती का कुछ विचार न हो। (व्यंग्य)
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रबड़ना  : स० [हिं० रपटना या सं० वर्तन, प्रा० वहन] १. घुमाना-फिराना। चलाना। २. किसी तरल पदार्थ में कोई वस्तु (करछी आदि) डालकर चारों ओर चलाना या फेरना। फेंटना। ३. किसी से बहुत अधिक परिश्रम कराना। अ० घूमना-फिरना। स०=रगड़ना।
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रबड़ी  : स्त्री० [प्रा० रब्बा=अवलेह] गाढ़ा किया हुआ दूध का लच्छेदार रूप। बसौधी।
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रबदा  : पुं० [हिं० रबड़ना] १. वह श्रम जो कहीं बार-बार आने जाने या दौड़-धूप करने से होता है। २. कीचड़। मुहावरा—रबदा पड़ना=ऐसा पानी बरसना कि रास्ते में कीचड़ हो जाय।
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रबद्द  : स्त्री० [?] आवाज। शब्द
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रबर  : पुं० =रबड़।
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रंबा  : पुं० [हिं० रंभा] १. जुलाहों का लोहे का एक औजार जो लगभग एक गज लंबा होता है। २. दे० ‘रंभा’।
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रबाना  : पुं० [देश] एक प्रकार का छोटा डफ जिसके मेंडरे में मंजीरे भी लगे होते हैं।
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रबाब  : पुं० [अ०] सितार, सारंगी आदि की तरह का एक बाजा।
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रबाबिया  : पुं० =रबाबी।
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रबाबी  : पुं० [अ०] रबाब बजानेवाला।
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रबी  : स्त्री० [अ० रबीअ] १. वसंत ऋतु। बहार का मौसिम। २. उक्त ऋतु में तैयार होनेवाली तथा काटी जानेवाली फसल। खरीफ के भिन्न।
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रबीय  : पुं० [अ०] स्त्री या पुरुष की दृष्टि से उसके पहले ब्याह से उत्पन्न पुत्र।
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रबील  : स्त्री० [देश] मँझोले आकार का एक प्रकार का पक्षी।
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रब्त  : पुं० [अ०] १. अभ्यास। मश्क। मुहावरा। रपट। क्रि० प्र०—पड़ना।—होना। २. आपस में होनेवाला मेल-जोल और आत्मीयता का सम्बन्ध।
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रब्त-जात  : स्त्री० [अ०] आपस में होनेवाला मेल-जोल और संग-साथ।
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रब्ध  : भू० कृ० [सं०√रभ् (आरंभ करना)+वत्] [स्त्री० रब्धा] आरंभ किया हुआ। शुरु किया हुआ।
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रब्ब  : पुं० =रब।
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रब्बा  : पुं० [फा० अराबा] १. वह गाड़ी जिस पर तोप लादी जाती है। तोपखाने की गाड़ी। २. ऐसी गाड़ी या रथ जिसे बैल खींचते हों।
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रब्बाब  : पुं० =रबाब।
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रंभ  : पुं० [सं०√रंभ् (शब्द)+खञ्] १. बहुत जोर का शब्द। जैसे—गौ या भैस का रंभ। २. [√रंभ्+अच्] बाँस। ३. एक प्रकार का तीर या वाण। ४. महिषासुर के पिता का नाम। पुं० +रंभा। पुं० =आरंभ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रभस  : पुं० [सं०√रभ्+असच्] १. वेग। तेजी। २. प्रसन्नता। हर्ष। ३. प्रेमपूर्वक अथवा प्रेम के कारण मन में होनेवाला उत्साह। ४. उत्सुकता। ५. मान। प्रतिष्ठा। संभ्रम। ६. पश्चात्ताप। पछतावा। ७. कार्य-कारण सम्बन्धी अथवा पूर्वापर का विचार। ८. अस्त्र निष्फल करने की विधि।
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रंभा  : स्त्री० [सं०√रंभ+अच्—टाप्] १. केला। कदली। २. गौरी। पार्वती। ३. स्वर्ग की एक प्रसिद्ध अप्सरा। ४. वेश्या। रंडी। ५. उत्तर दिशा। पुं० [सं० रंभ] लोहे का वह मोटा भारी डंडा जिसका अगला सिरा धारदार होता है और जिससे आघात करके मजदूर या दीवार में छेद करते हैं।
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रंभा-तृतीया  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया।
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रँभाना  : अ० [सं० रंभणा] गाय का बोलना। गाय का शब्द करना। स० गौ से रंभण करना। गौ के शब्द करने में प्रवृत्त करना।
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रंभापति  : पुं० [सं० ष० त०] इंद्र।
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रंभाफल  : पुं० [सं० ष० त०] केला।
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रंभित  : भू० कृ० [सं०√रंभ्+क्त] १. जिसमें या जिससे शब्द उत्पन्न किया गया हो। २. बजाया हुआ।
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रंभी (भिन्)  : पुं० [सं०√रंभ्+णिनि] १. व्यक्ति जो हाथ में बेंत या दंड लिए हुए हो। २. द्वारपाल जो हाथ में दंड लिये रहता था। ३. वृद्ध आदमी जो प्रायः छड़ी या लकड़ी लेकर चलता है।
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रंभोरु  : वि० [सं० रंभा-उरु, ब० स०] १. (स्त्री) जिसकी केले के वृक्ष के समान उतार-चढ़ाववाली जाँघें हो। २. मनोहर। सुन्दर।
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रम  : पुं० [सं० रम (क्रीड़ा)+अच्] १. कामदेव। २. स्त्री० की पति। ३. प्रेमी। प्रेमपात्र। ४. दिव्य व्यक्ति। ५. लाल अशोक। वि० १. प्रिय। मनोरम। सुन्दर। ३. आनन्ददायक। ४. मनोरंजक। वि० [हिं० राम] हिं० राम का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौं० शब्दों के आरम्भ में रखने पर प्राप्त होता है। जैसे—रमक, जरा, रमचेरा। पुं० [अं०] एक प्रकार की विलायती शराब।
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रम-चेरा  : पुं० [हिं० राम+चेरा=चेला] छोटी-मोटी सेवाएँ करनेवाला व्यक्ति। टहलुआ। (परिहास)
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रम-झल्ला  : पुं० =झमेला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रम-झिगनी  : स्त्री० दे० ‘भिंडी’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रमइया  : पुं० =राम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रमक  : पुं० [सं०√रम्+क्वुन्—अक] १. प्रेमपात्र। २. प्रेमी। ३. उपपति जार। स्त्री० [हिं० रमकना] १. झूलने की क्रिया या भाव। २. पेंगा। ३. तरंग। लहर। स्त्री० [अ० रमक] १. अंतिम श्वास। २. अंतिम जीवन। ३. किसी चीज में किसी दूसरी चीज का दिया जानेवाला हल्का पुट।
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रमकजरा  : पुं० [हिं० राम+काजल] एक प्रकार का धान जो भादों में पकता है।
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रमकना  : अ० [हिं० रमना] १. हिडोले पर झूलना। हिडोलें पर पेंग मारना। २. झूमते हुए चलना। अ० [हिं० रमक] किसी चीज में किसी दूसरी चीज में हलकी गन्ध, छाया या प्रभाव दिखाई देना।
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रमचकरा  : पुं० [हि० राम+चक्र] बेसन की मोटी रोटी।
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रमचा  : पुं० [हिं० चमचा] छोटी कलछी। चमचा।
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रमजान  : पुं० [अ० रमज़ान] अरबी वर्ष का नवाँ महीना जिसमें मुसलमान रोजा रखते हैं।
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रमझोल  : पुं० [?] ब्रज में, एक प्रकार का लोकगीत।
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रमझोला  : पुं० [हि० राम+झूलना] पैर में पहनने के घुँघरु। नूपुर। (डिं०)
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रमठ  : पुं० [सं०√रम्=अठन्] १. हींग। २. एक प्राचीन देश। ३. उक्त देश का निवासी।
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रमड़ना  : अ० [सं० रमण] १. रमण करना। रमना। २. किसी बात में मन लगाना। ३. युक्त होना।
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रमण  : पुं० [सं०√रम्+—ल्युट् अन] १. मन प्रसन्न करनेवाली क्रिया। क्रीड़ा। विलास। २. स्त्री-प्रसंग। मैथुन। संभोग। ३. घूमना-फिरना या टहलना। विहार। ४. [√रम्+णिच्+ल्यु—अन] स्त्री का पति जो उसके साथ भोग-विलास करता है। ५. कामदेव। ६. गधा। ७. अंडकोश। ८. सूर्य का अरुण नामक सारथि। ९. एक प्राचीन वन। १॰. एक प्रकार का वर्णिक छन्द। वि० १. रमने या विहार करनेवाला। २. रमण के योग्य। ३. आनन्द या सुख देनेवाला। ४. प्रिय।
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रमण-गमना  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] साहित्य में एक प्रकार की नायिका जो यह समझकर दुःखी होता है कि संकेत स्थान पर नायक आया होगा और मैं वहाँ उपस्थित न थी।
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रमणक  : पुं० [सं०√रमण+कन्] पुराणानुसार जंबूद्वीप के अंतर्गत एक वर्ष या खंड। इसे रम्यक भी कहते हैं।
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रमणी  : स्त्री० [सं० रमण+ङीष्] १. रमण करने योग्य युवती और सुन्दर स्त्री। २. औरत। नारी। स्त्री। ३. संगीत में कर्णाटकी पद्धति की एक रागिनी। ४. सुगन्धबाला।
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रमणीक  : वि० [सं० रमणीय] जिसमें मन रमण करता हो या कर सकें, अर्थात् सुन्दर। मनोहर।
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रमणीय  : वि० [सं√रम्+अनीयर] जिसमें मन रमण करे या कर सके। अर्थात् सुन्दर। मनोहर।
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रमणीयता  : स्त्री० [सं० रमणीय+तल्+टाप्] १. रमणीय होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. सुन्दरता। ३. साहित्य-दर्पण के अनुसार साहित्यिक कृति या रचना का वह माधुर्य जो सब अवस्थाओं में बना रहे या क्षण-क्षण में नवीन रूप धारण किया करे।
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रमता  : वि० [हिं० रमना=घूमना फिरना] जो एक जगह जमकर न रहे बल्कि बराबर इधर-उधर रमण करता हो। घूमता-फिरता। जैसे—रमता जोगी।
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रमति  : पुं० [सं०√रम्+अतिच्] १. नायक। २. स्वर्ग। ३. कामदेव। ४. काल। ५. कौआ।
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रमदी  : पुं० [हिं० राम+सं० आद्य] एक प्रकार का जड़हन जो अगहन के महीने में पकता है। इसका चावल कई बरस तक रह सकता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रमन  : पुं० वि० =रमण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रमनक  : वि० =रमणक।
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रमनकसोरा  : पुं० [देश] एक प्रकार की मछली। कँवल-सोरा।
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रमना  : अ० [सं० रमण] १. रमण करना। २. भोग-विलास या सुख प्राप्ति के लिए कही रहना या ठहरना। मन लगने के कारण कही ठहरना या रहना। ३. रति-क्रीड़ा या संभोग करना। ४. आनंद या मौज करना। मजा लेना। ५. किसी चीज के अन्दर अच्छी तरह भरा हुआ या व्याप्त होना। ६. किसी काम, बात या व्यक्ति में अनुरक्त या लीन होना। ७. किसी के आस-पास घूमना या चक्कर लगाना। ८. चुपके से चल देना। गायब या चंपत होना। संयो० क्रि-जाना।—देना। ९. आनंदपूर्वक घूमना-फिरना। विहार करना। पुं० [सं० रमण] १. चरागाह। चरी। २. वह घेरा जिसमें घूमने-फिरने के लिए पशुओं को खुला छोड़ा जाता है। ३. उपवन। ४. कोई सुन्दर या रमणीक स्थान।
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रमनी  : स्त्री०=रमणी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रमनीक  : वि० =रमणीक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रमनीय  : वि० =रमणीय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रमल  : पुं० [अ०] १. भविष्यत् घटनाओं के संबंध में पासे की बिंदियों की गणना आदि के आधार पर किया जानेवाला कथन। २. वह विद्या जिसके द्वारा उक्त कथन किया जाता है। (यह फलित ज्योतिष का एक प्रकार है)।
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रमा  : स्त्री० [सं०√रम्+णिच्+अच्+टाप्] लक्ष्मी।
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रमा-कांत  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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रमा-नरेश  : पुं० [हिं० रमा+नरेश=पति] विष्णु। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रमा-निवास  : पुं० [हिं० रमा+निवास] लक्ष्मीपति विष्णु।
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रमा-रमण  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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रमा-वीज  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का तांत्रिक मंत्र जिसे लक्ष्मीबीज भी कहते हैं।
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रमा-वेष्ट  : पुं० [ष० त०] श्रीवास चंदन जिससे तारपीन नामक तेल निकलता है।
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रमाधव  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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रमाना  : स० [हिं० रमना का स० रूप] १. रमण करना। २. अनुरंजित करना। अनुरक्त बनाना। मोहित करना। लुभाना। ३. अनुरक्त करके अपने अनुकूल बनाना। ४. अनुरक्त करके अपने पास रोक रखना। ५. किसी के साथ जोड़ना या लगाना। संयुक्त करना। जैसे—किसी काम में मन रमाना। ६. किसी काम या बात का अनुष्ठान आरंभ करना। जैसे—रास रमाना=रास की व्यवस्था करना। ७. अपने अंग या शरीर में पोतना या लगाना जैसे—शरीर में भभूत रमाना।
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रमाली  : पुं० [फा० रूमाली] एक तह का बढ़िया पतला चावल।
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रमास  : पुं० =रवाँस (फली और दाने)।
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रमित  : भू० कृ० [हिं० रमना] लुभाया हुआ। मुग्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रमी  : स्त्री० [मलाय] एक प्रकार की घास। स्त्री० [अं०] एक प्रकार का ताश का खेल।
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रमूज  : स्त्री० [अ० रमज् का बहु] १. कटाक्ष। २. इशारा। संकेत । ३. कोई ऐसी गूढ़ जो सहज में न समझी जा सकती हो। गंभीर विषय। ४. पहेली। ५. श्लिष्ट कथन या बात। श्लेष। ६. भेद या रहस्य की बात।
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रमेश  : पुं० [रमा-ईश, ष० त०] रमा के पति, विष्णु।
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रमेश्वर  : पुं० [रमा-ईश्वर, ष० त०] विष्णु।
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रमेसर  : पुं० =रामेश्वर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रमेसरी  : स्त्री० [हिं० रामेसर] लक्ष्मी। उदाहरण—पाँचई तेरासि दखिन रमेसरी।—जायसी।
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रमैती  : स्त्री० [देश] १. किसानों की एक रीति जिसमें एक कृषक आवश्यकता पड़ने पर दूसरे खेत में काम करता है और उसके बदले में वह भी उसके खेत में काम कर देता है। इसे पूर्व में पैंठ और अवध के उत्तरीय भागों से हूँड़ कहते हैं। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। २. वह नफरी या काम का दिन जो इस प्रकार कार्य करने में लगे।
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रमैनी  : स्त्री० [हिं० रामायण] कबीरदास के बीजक का एक भाग जिसमें दोहे और चौपाइयाँ हैं।
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रम्ज  : स्त्री० [अ०] [बहु, रमूज] १. आँख, भौंह आदि से किया जानेवाला इशारा। संकेत। २. भेद। रहस्य।
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रम्माल  : पुं० [अ०] रमल विद्या का ज्ञाता।
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रम्य  : वि० [सं० रम्+यत्] [स्त्री० रम्या] १. जिसमें मन रमण करता या कर सकता हो। रमणीय। २. मनोहर। सुन्दर। रमणीक। पुं० १. चंपा का पेड़। २. अगस्त का पेड़। ३. परवल की जड़। ४. पुरुष का वीर्य। शुक्र। ५. वायु के सात भेदो में से एक।
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रम्य-पुष्प  : पुं० [ब० स०] सेमल का पेड़।
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रम्य-फल  : पुं० [ब० स०] कुचला।
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रम्य-श्री  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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रम्य-सानु  : पुं० [कर्म० स०] पहाड़ के शिखर पर की समस्त भूमि। प्रस्थ।
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रम्यक  : पुं० [सं० रम्य+कन्] १. जंबूद्वीप का एक खंड। (पुराण) २. महानिंब बकायन।
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रम्या  : स्त्री० [सं० रम्य+टाप्] १. रात। २. गंगा नदी। स्थल-पद्मिनी। ४. महेन्द्र-वारुणी। इंद्रायन। ५. लक्षणा नामक कंद। ६. मेरु की एक कन्या जो रम्य को ब्याही थी ७. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। ८. संगीत में धैवत स्वर की तीन श्रुतियों में से अंतिम श्रुति का नाम।
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रम्यामली  : स्त्री० [सं० रम्या-आमली, कर्म० स०] भुँई आँवला।
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रम्हाना  : अ०=रँभाना।
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रय  : पुं० [सं०√रय् (गतौ)+घ] १. वेग। तेजी। २. प्रवाह। बहाव। ३. ऐल के ६ पुत्रों में से एक। पुं० =रज (धूल)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रयणपत  : पुं० [सं० रजनीपति] चंद्रमा। (डि०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रयणि  : स्त्री० [सं० रजनी] रात। (डि०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रयन  : स्त्री०=रयनि।
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रयना  : स० [सं० रंजन] १. रंग से भिगोना। सराबोर करना। २. अनुरक्त करना। अ० १. रँगा जाना। रंजित होना। २. किसी के प्रेम में अनुरक्त होना। ३. किसी से संयुक्त होना। मिलना।
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रयनि  : स्त्री० [सं० रजनी, प्रा० रयणी] रात्रि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रया  : स्त्री० [अ०] १. लोगों को धोखे में रखने के लिए बनाया हुआ बाहरी रूप। दिखावा। बनावट। २. धूर्तता। मक्कारी।
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रयाकार  : वि० [अ+फा० ] [भाव० रयाकारी] १. झूठा या दिखौआ बाहरी रूप बनानेवाला आडंबरी। २. धूर्त। मक्कार।
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रयासत  : स्त्री०=रियासत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रय्यत  : स्त्री० [अ० रइअत] प्रजा। रिआया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रर  : स्त्री० [हिं० ररना] ररने की क्रिया या भाव। रट। रटन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ररक  : स्त्री०=रड़क। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ररकना  : अ०=रड़कना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ररंकार  : पुं० [सं० रकार] रकार की ध्वनि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ररना  : अ० [प्रा० रड=खिसकना] १. अपनी जगह से खिसक कर नीचे आना। २. दीन भाव से प्रार्थना या याचना करते हुए रोना। ३. विलाप करना। रोना। उदाहरण—ररि दूबरि भइ टेक बिहूनी।—जायसी। स०=रटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ररिहा  : वि० [हिं० रखना+हा (प्रत्यय)] ररने या गिड़गिड़ानेवाला। पुं० बहुत ही गिड़गिड़ाते हुए पीछे पड जानेवाला। भिखमंगा या याचक। पुं० =रुरुआ (उल्लू की जाति का पक्षी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रर्रा  : वि० [हिं० रार=झगड़ा] १. रार अर्थात् झगड़ा करनेवाला। झगड़ालू। २. अधम। नीच। पुं० =ररिहा।
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रल-मिल  : स्त्री० [हिं० रलना+मिलना] १. रलने-मिलने की क्रिया या भाव। २. सम्मिश्रण। मिलावट।
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रलना  : अ० [सं० ललन=लुब्ध होना] १. किसी चीज का दूसरी चीज में अच्छी तरह से घुल मिल जाना। जैसे—दूध में चीनी रलना। २. व्यक्तियों आदि का किसी भीड़ दल आदि में पहुँचना तथा मिलना। सम्मिलित होना। जैसे—दो दलों का रलना। पद—रलना-मिलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रला-मिला  : वि० [हिं० रलना-मिलना] [स्त्री० रली-मिली] १. जिसमें कई चीजों का मेल या मिश्रण हो। २. जिसका किसी से घनिष्ठ संबंध हो। ३. मिला-जुला मिश्रित।
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रलाना  : स० [हिं० रलना का सक० रूप] १. एक चीज को दूसरी चीज में मिलाना। २. य़ुक्त करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रलिका  : स्त्री०=रली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रली  : स्त्री० [सं० ललन=केलि, क्रीड़ा] १. रखने अर्थात् मिलने की क्रिया दशा या भाव। २. विहार। क्रीड़ा। ३. आनन्द। प्रसन्नता। हर्ष। पद—रंग-रली (दे०) स्त्री० [?] चेना नामक कदन्न।
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रल्ल  : पुं० =रेला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रल्लक  : पुं० [सं०√रम्+क्विप्, म-लोप, तुक्, रत√ला+क, रल्ल+कन्] १. एक प्रकार का मृग। २. कंबल।
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रव  : पुं० [सं०√रु (ध्वनि)+अप्] १. आवाज। शब्द। २. कुछ देर तक निरन्तर होता रहनेवाला जोर का शब्द। २. गुल। शोर। हल्ला। पुं० =रवि (सूर्य) स्त्री०=रौ (गति)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रवक  : पुं० [?] एरंड या रेंड का वृक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रवकना  : अ० [हिं० रमना=चलना] १. तेजी से आगे बढ़ना। २. कोई चीज लेने के लिए उस पर झपटना। ३. उछलना।
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रवण  : पुं० [सं०√रु (ध्वनि)+युच्] १. कांसा नामक धातु। २. कोयल। ३. ऊँट। ४. विदूषक। ५. [√रु+ल्युट-अन]। वि० १. रव अर्थात् शब्द करता हुआ। २. तपा हुआ। गरम ३. अस्थिर। चंचल।
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रवण-रेती  : स्त्री०=रमण-रेती।
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रवताई  : स्त्री० [हिं० रावत+आई (प्रत्यय)] १. रावत होने की अवस्था या भाव। २. रावत का कर्त्तव्य, गुण या पद। ३. प्रभुत्व। स्वामित्व।
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रवथ  : पुं० [सं०√रु+अथ] कोयल।
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रवन  : पुं० [सं० रमण] पति। स्वामी। वि० रमण करनेवाला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रवना  : अ० [सं० रव+हिं० ना (प्रत्यय)] १. शब्द होना। किसी शब्द या ना्म से प्रसिद्ध होना। ३. बोला या पुकारा जाना। अ० [सं० रमण] १. रमण करना। २. कौतुक या क्रीड़ा करना। ३. किसी के साथ अच्छी तरह मिलना-जुलना। उदाहरण—राम-नाम रवि रहिऔ।—कबीर।
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रवनि, रवनी  : स्त्री०=रमणी।
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रवन्ना  : पुं० [फा० रवाना] घरेलू काम-काज करनेवाला तथा बाजार से सौदा-सुल्फ लानेवाला नौकर। जैसे—एक मेरे घर अन्ना, दूसरे रवन्ना। २. वह कागज जिस पर रवाना किये माल का ब्यौरा होता है। ३. कोई चीज कहीं ले जाने का अनुमति पत्र। जैसे—चुंगी चुका देने पर मिलनेवाला रवन्ना। वि० =रवाना।
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रवाँ  : वि० [फा०] १. बहता हुआ। प्रवाहित। २. जो चल रहा हो। जारी। प्रचलित। ३. (कार्य) जिसका अच्छी तरह अभ्यास हो गया हो, और जिसके निर्वाह या सम्पादन में कोई कठिनता न होती हो। ४. अभ्यस्त। जैसे—रवाँ हाथ। ५. (शस्त्र) जिस की धार चोखी या तेज हो और इसीलिए जो ठीक और पूरा काम देना हो। ५. दे० ‘रवाना’। स्त्री जान। रूह।
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रवा  : पुं० [सं० रज, प्रा, रअ=धूल] [स्त्री० अल्पा० रई] १. किसी चीज का बहुत छोटा टुकड़ा। कण। दाना। रेजा। जैसे—चाँदी का रवा, मिस्री का रवा। २. किसी चीज के वे कोणाकार या लंबोतरे टुकड़े जो नमी निकल जाने पर प्रायः आपसे आप बन जाते हैं केलास (क्रिस्टल)। पद—रवा भर=बहुत थोड़ा। जरा सा। ३. सूजी जिसके कण उक्त प्रकार के होते हैं। ४. बारुद का कण या दाना। ५. घुँघरू में बजनेवाला कण या दाना। वि० [फा०] १. उचित। वाजिब। २. प्रचलित।
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रवा-रवी  : स्त्री० [फा०] १. जल्दी। शीघ्रता। २. चल-चलाव। ३. भाग-दौड़।
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रवाज  : स्त्री० [फा०] १. तरीका। दस्तूर। २. समाज में प्रचलित या मान्य कोई परंपरा या रूढ़ि। प्रथा। रीति। क्रि० प्र०—चलना।—देना।—निकलना।—पाना।—होना।
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रवादार  : वि० [फा०] [भाव० रवादारी] १. उचित प्रकार का व्यवहार करने तथा संबंध या लगाव रखनेवाला। उदारचेता। २. शुभचिंतक। हितैषी। ३. सहनशील। वि० =रवेदार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रवादारी  : स्त्री० [फा०] १. रवादार होने की अवस्था या भाव। इस बात का ख्याल कि किसी को कष्ट या दुःख न दिया जाय। ३. उदारता। ४. सहृदयता।
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रवानगी  : स्त्री० [फा०] रवाना होने की क्रिया या भाव। प्रस्थान। चाला।
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रवाना  : वि० [फा० रवानः] १. जिसने कहीं से प्रस्थान किया हो। जो कहीं से चल पड़ा हो। प्रस्थित। २. कहीं से किसी के पास भेजा हुआ।
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रवानी  : स्त्री० [फा०] १. रवाँ होने की अवस्था या भाव। २. बहाव। ३. ऐसी गति जिसमें अटक आदि न होती हो। जैसे—पढ़ने या बोलने में रवानी होना। ४. प्रस्थान। रवानगी। (क्व०)
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रवाब  : पुं० =रबाब।
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रवाबिया  : पुं० [देश] लाल बलुआ पत्थर। पुं० =रबाबिया।
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रवायत  : स्त्री० [अ०] १. कहानी। किस्सा। २. कहावत। स्त्री० [अ० रिवायत] १. किसी के मुख से विशेषतः पैगम्बर के मुख से सुनी हुई बात दूसरों से कहना। २. इस प्रकार कही जानेवाली बात। ३. किवदंती। अफवाह। ४. कहावत। ५. किस्सा। कहानी।
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रवाँस  : पुं० [देश] बोडे की जाति का एक पौधा और उसकी फली जिसके बीजों की तरकारी बनती है।
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रवासन  : पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष जिसके बीज और पत्ते औषधि के काम आते हैं।
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रवि  : पुं० [सं०√रु+इ] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. अग्नि। ४. नायक। नेता। सरदार। ५. लाल अशोक का पेड़। ६. पुराणानुसार एक आदित्य का नाम। ७. एक प्राचीन पर्वत। ८. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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रवि-उच्च  : पुं० [सं०] किसी ग्रह की कक्षा या भ्रमण-पथ का वह बिंदु जो सूर्य से दूरतम पड़ता हो। ‘रवि-नीच’ का विपर्याय। (एफेलियन)
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रवि-कर  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य की किरण।
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रवि-कांत-मणि  : पुं० [सं० रवि-कांत, तृ० त० रविकान्त-मणि, कर्म० स०] सूर्यकांत मणि।
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रवि-कुल  : पुं० [ष० त०] क्षत्रियों का सूर्यवंश।
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रवि-चक्र  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य का मंडल। २. सूर्य के रथ का चक्र या पहिया। ३. फलित ज्योतिष में, एक प्रकार का चक्र जो मनुष्य के शरीर के आकार का होता है और जिसमें यथा-स्थान नक्षत्र आदि रख कर बालक के जीवन की शुभ और अशुभ बातों के सम्बन्ध में फल कहा जाता है।
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रवि-जात  : पुं० [सं० पं० त०] सूर्य की किरण। वि० रवि से उत्पन्न।
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रवि-तनया  : स्त्री० [ष० त०] सूर्य की कन्या यमुना।
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रवि-तनुजा  : स्त्री०=रवि-तनया (यमुना)।
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रवि-दिन  : पुं० [ष० त०] रविवार।
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रवि-नतय  : पुं० [ष० त०] १. यमराज। २. शनैश्चर। ३. सुग्रीव। ४. कर्ण। ५. अश्वनी कुमार। ६. सावर्णि मनु। ७. वैवस्वत मनु।
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रवि-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] यमुना।
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रवि-नाथ  : पुं० [ब० स०] पद्म। कमल।
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रवि-नीच  : पुं० [सं०] किसी तरह ग्रह की कक्षा या भ्रमण-पथ का वह बिंदु जो सूर्य के निकटतम पड़ता है। ‘रवि-उच्च’ का विपर्याय। (पेरिहीलियन)
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रवि-पुत्र  : पुं० =रवि-तनय।
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रवि-प्रिय  : पुं० [ब० स०] १. लाल कमल। २. लाल कनेर। ३. ताँबा। ४. आक। मदार। ५. लकुच या लकुट नामक वृक्ष और उसका फल।
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रवि-प्रिया  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] एक देवी। (पुराण)
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रवि-बिंब  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य का मंडल। २. माणिक्य या मानिक नामक रत्न।
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रवि-मंडल  : पुं० [ष० त०] वह लाल मंडलाकार बिंब जो सूर्य के चारों ओर दिखाई देता है। रविबिंब।
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रवि-मणि  : पुं० [मध्य० स०] सूर्यकांत मणि।
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रवि-मार्ग  : पुं० [सं०] सूर्य के भ्रमण का मार्ग। क्रांतिवृत्त। (ईक्लिक्टिक)
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रवि-रत्न  : पुं० [मध्य० स०] सूर्यकांत मणि।
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रवि-लोचन  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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रवि-लौह  : पुं० [मध्य० स०] ताँबा।
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रवि-वंश  : पुं० [ष० त०] क्षत्रियों का सूर्यकुल।
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रवि-वंशी (शिन्)  : वि० [सं० रविवंश+इनि] सूर्यवंशी।
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रवि-वाण  : पुं० [सं० उपमित० स०] पौराणिक कथाओं में वर्णित वह वाण जिसके चलाने से सूर्य का सा प्रकाश उत्पन्न होता था।
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रवि-वार  : पुं० [ष० त०] शनिवार और सोमवार के बीच का वार। एतवार।
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रवि-वासर  : पुं० [ष० त०] रविवार।
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रवि-संक्रांति  : स्त्री० [ष० त०] सूर्य का एक राशि में से दूसरी राशि में जाना। सूर्य-संक्रमण। दे० ‘संक्रांति’।
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रवि-संज्ञक  : पुं० [ब० स० कप्] ताँबा।
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रवि-सारथ  : पुं० [ष० त०] रवि अर्थात्, सूर्य का रथ हाँकनेवाला, अरुण।
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रवि-सुअन  : पुं० =रविनंदन (रवि-तनय)।
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रवि-सुत  : पुं० =रविनंदन (रवि-तनय)।
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रवि-सुन्दर  : पुं० [सं० उपमित स०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जिसके सेवन से भगंदर रोग नष्ट हो जाता है।
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रवि-सूनु  : पुं० =रविनंदन (रवि-तनय)।
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रविज  : पुं० [सं० रवि√अन् (उत्पत्ति)+ड] शनैश्चर, जिसकी उत्पत्ति रवि या सूर्य से मानी जाती है।
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रविज-केतु  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का केतु या पुच्छल तारे जिसकी उत्पत्ति सूर्य से मानी गई है।
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रविजा  : स्त्री० [सं० रविज+टाप्] यमुना। कालिंदी।
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रविनंद, रवि-नंदन  : पुं० =रवि-तनय।
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रविपूत  : पुं० रविपुत्र (रवि-तनय)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रविश  : स्त्री० [फा०] १. चलने की क्रिया, ढंग या भाव। गति। चाल। २. आचार-व्यवहार। ३. तौर-तरीका। रंग-ढंग। ४. शैली। ५. बगीचों की क्यारियों के बीच में चलने के लिए बना हुआ छोटा मार्ग। क्रि० प्र०—काटना।—बनाना।
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रवे-दार  : वि० [हिं० रवा+फा० दार] जो रवों के रूप में हो। जिसमें रवे हों।
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रवैया  : पुं० [फा० रवीयः] १. आचार-व्यवहार। २. चाल-चलन। ३. तौर-तरीका। रंग-ढंग।
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रशना  : स्त्री० [सं०√अश् (भोजन)+युच्-अन+टाप्, रशादेश] १. जीभ। रसना। २. रस्सी। ३. कर-धनी। मेखला।
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रशना-कलाप  : पुं० [ष० त०] धागे आदि की बनी हुई एक प्रकार की करधनी जो प्राचीन काल में स्त्रियाँ कमर में पहनती थीं।
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रशना-गुण  : पुं० =रशनाकलाप।
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रशनोपमा  : स्त्री०=रशनोपमा (अलंकार)।
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रशाद  : पुं० [अ०] १. सदाचार। २. सन्मार्ग।
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रशीद  : वि० [अ०] १. रशाद अर्थात् सन्मार्ग पर चलनेवाला तथा दूसरों को सन्मार्ग पर चलानेवाला। २. गुरु-कृपा से जिसने किसी कला या विद्या में निपुणता प्राप्त की हो।
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रश्क  : पुं० [फा०] ईर्ष्याजन्य यह विचार कि जैसा वह है वैसा मुझे भी होना चाहिए, अथवा मैं किसी प्रकार उसके स्थान पर हो जाता।
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रश्मि  : स्त्री० [सं०√अश्+मि, रशादेश] १. किरण। २. पलकों परके बाल। बरौनी। ३. घोडे की लगाम। बाग।
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रश्मि-कलाप  : पुं० [ष० त०] मोतियों का वह हार जिसमें ६४ या ५४ लड़ियाँ हों।
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रश्मि-केतु  : पुं० [मध्य० स०] १. वह केतु या पु्च्छल तारा जो कृतिका नक्षत्र में स्थित होकर उदित हो।
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रश्मि-चित्रण  : पुं० [सं०] रेडियो-चित्रण।
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रश्मि-मापक  : पुं० [ष० त०] विकिरणमापी।
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रश्मि-मुक्  : पुं० [सं० रश्मि√मुच् (छोड़ना)+क्विप्, उपपद, स] सूर्य।
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रष्षन  : पुं० =रक्षण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रस  : पुं० [सं०√रस् (आस्वादन)+अच्] [वि० रसाल, रसिक] १. वनस्पतियों अथवा उनके फूल-पत्तों आदि में रहनेवाला वह जलीय अंश या तरल पदार्थ जो उन्हें कूटने, दबाने, निचोड़ने आदि पर निकलता या निकल सकता है। (जूस)। जैसे—अंगूर, ऊख, जामुन आदि का रस। २. वृक्षों के शरीर से निकलने या पोछकर निकाला जानेवाला तरल पदार्थ। निर्यास। मद। (सैप) जैसे—ताड़, शाल आदि वृक्षो में से निकला या निकाला हुआ रस। ३. किसी चीज को उबालने पर निकलनेवाला अथवा तरल सार भाग। जूस। रस। शोरबा। ४. प्राणियों के शरीर में से निकलनेवाला कोई तरल पदार्थ। जैसे—पसीना, दूध रक्त आदि। पद—गो-रस=दूध या उससे बने हुए दही, मक्खन आदि पदार्थ। ५. प्राणियों, विशेषतः मनुष्यों के शरीर में खाद्य पदार्थों के पहुँचने पर उनका पहले-पहल बननेवाला वह तरल रूप जिससे आगे चलकर रक्त बनता है। चर्मसार। रक्तसार। रसिका। (वैद्यक में इसे शरीरस्थ सात धातुओं में से पहली धातु माना जाता है)। ६. जल। पानी। उदाहरण—महाराजा किवड़िया खोखो, रस की बूँदें पड़ी।—गीत। ७. पानी में घोला हुआ गुड़, चीनी, मिसरी या ऐसी ही और कोई चीज। जैसे—देहात में किसी के घर जाने पर वह प्रायः रस पिलाता है। ८. कोई तरल या द्रव पदार्थ। ९. घोड़ों, हाथियों आदि का एक रोग जिसमें उनके पैरों में से जहरीला या दूषित पानी बहता या रसता है। १॰. किसी पदार्थ का सार भाग। तत्त्व। सत्त। ११. पारा। उदाहरण—रस मारे रसायन होय (कहा०) १२. धातुओं आदि को (प्रायः पारे की सहायता से) फूँककर तैयार किया हुआ भस्म या रसौषध। जैसे—रसपर्पटी, रस-माणिक्य, रस-सिंदूर आदि। १३. लासा। लुआब। १४. वीर्य। १५. शिंगरफ। हिंगुल। १६. गंध-रस। शिलारस। १७. बोल नामक गंध द्रव्य। १८. जहर। विष। १९. पहले खिचाव का शोरा जो बहुत तेज होता और बढ़िया माना जाता है। २॰. खाने-पीने की चीज मुँह में पड़ने पर उससे जीभ को होनेवाला अनुभव या मिलनेवाला स्वाद। रसनेंद्रिय में होनेवाली अनुभूति या संवेदन (फ्लेवर)। विशेष—हमारे यहाँ वैद्यक में छः रस माने गये हैं—अम्ल, कटु, कषाय, तिक्त, मधुर और लवण। २१. कविता आदि में उक्त रसों के आधार पर माना हुआ छः की संख्या का वाचक शब्द। २२. कार्य, विषय व्यक्ति आदि के प्रति होनेवाला अनुराग। प्रीति। प्रेम। मुहब्बत। पद—रस-भंग=रस-रीति। मुहावरा—रस खोटा होना=आपस में प्रेम-पूर्ण व्यवहार में अन्तर पड़ना। २३. यौवन काल में मनुष्य के मन में अनुराग या प्रेम का होनेवाला संचार। मुहावरा—रस भीजना या भीनना= (क) मनुष्य में यौवन का आरंभ होना। (ख) मन में किसी के प्रति अनुराग या प्रेम का संचार होना। (ग) किसी पदार्थ का ऐसा समय आना कि उससे पूरा आनंद या सुख मिल सके। २४. दार्शनिक क्षेत्र में, इंद्रियार्थों के साथ इंद्रियों का संयोग होने पर मन या आत्मा को प्राप्त होनेवाला आनंद या सुख। २५. लोक-व्यवहार में, किसी काम या बात से किसी प्रकार का संबंध होने पर उससे मिलनेवाला आनंद या उसके फल-स्वरूप उत्पन्न होनेवाली रुचि। मजा। जैसे—कोई किसी रस में मगन है तो कोई किसी रस में। उदाहरण—राम पुनीत विषय रस रुखे। लोलुप भूप भोग के भूखे।—तुलसी। २६. उपनिषदों के अनुसार आनंद-स्वरूप ब्रह्म। २७. मन की उमंग या तरंग। मौज। २८. मन का कोई आवेग। जोश। मनोवेग। २९. किसी काम या बात में रहने या होनेवाला कोई प्रिय अथवा सुखद तत्त्व। जैसे—उसके गले (या गाने) में बहुत रस है। ३॰. किसी कार्य या व्यवहार के प्रति होनेवाली कुतूहलमूलक प्रवृत्ति या उससे होनेवाली सुखद अनुभूति। दिलचस्पी। (इन्टरेस्ट) जैसे—(क) इस पुस्तक में हमें कोई रस नहीं मिला। (ख) वे अब सार्वजनिक कार्यों में विशेष रस लेने लगे हैं। ३१. साहित्यिक क्षेत्र में, (क) तात्वत् वक दृष्टि से कथानकों, काव्यों, नाटकों आदि में रहनेवाला वह तत्त्व जो अनुराग, करुणा क्रोध, प्रीति, रति आदि मनोभाव जो जाग्रत, प्रबल तथा सक्रिय करता है। यह तत्त्व कवियों, लेखकों आदि की प्रतिभा, रचना-कौशल और उपयुक्त शब्द-योजना तथा वाक्य-विन्यास से उत्पन्न होता है। (ख) भारत के प्राचीन साहित्यकारों के मत से उक्त तत्त्व का वह विशिष्ट स्वरूप जिसकी निष्पत्ति अनुभाव विभाव और संचारी के योग से होती है और जो सहृदय पाठकों या दर्शकों के मन में रहनेवाले स्थायी भावों को परिपक्व, पुष्ट और जाग्रत या व्यक्त करके उत्कृष्ट या परम सीमा तक पहुँचाता और पाठकों या दर्शकों को प्रसन्न तथा संतुष्ट करके उनके साथ एकात्मता स्थापित करता है। (सेन्टिमेन्ट) इसके नौ प्रकार या भेद कहे गये हैं०-अद्भुत, करुण, भयानक, रौद्र, वीभत्स, वीर, शांत, श्रृंगार और हास्य। विशेष—प्रत्येक रस के ये चार अंग कहे गये हैं।—स्थायी भाव, विभाव (आलंबन और उद्दीपन), अनुभाव और संचारी भाव। ३२. कविता के उक्त नौ रसों के आधार पर नौ की संख्या का सूचक शब्द। ३३. अनुराग, दया आदि कोमल वृत्तियों के वश में रहने की अवस्था या भाव। उदाहरण—राजत अंग, रस-बिरस अति, सरस-सरस रस भेद।—केशव। ३४. काम-क्रीड़ा,। केलि। रति। विहार। ३५. काम-वासना। ३६. गुण, तत्त्व, रूप, विशेषता आदि के विचार से होनेवाला वर्ग या विभाग। तरह। प्रकार। जैसे—एक रस, समरस। उदाहरण—(क) एक ही रस दुनी न हरब सोक सोंसति सहति।—तुलसी। (ख) सम-रस, समर-सकोच-बस, बिबस न ठिक ठहराइ।—बिहारी। ३७. ढंग। तर्ज। उदाहरण—तिनका बयार के बस भावै त्यों उड़ाइ लै जाइ अपने रस।—स्वामी हरिदास। ३८. गुण। सिफत। ३९. केशव के अनुसार रगण और सगण की संज्ञा। स्त्री० [?] एक प्रकार की भेड़ जो गिलगित्त के पामीर आदि उत्तरी प्रदेशों में पाई जाती है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रस-कपूर  : पुं० [सं० रसकर्पूर] एक प्रसिद्ध उपधातु जिसमें पारे का भी कुछ अंश होता है और जो दवा के काम में आता है। यह प्रायः ईगुर के समान होता है, इसीलिए कहीं-कहीं सफेद शिगरफ भी कहलाता है। (कैलोमेल)।
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रस-कर्म  : पुं० [ष० त०] पारे की सहायता से रस आदि तैयार करने की क्रिया। (वैद्यक)
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रस-कलानिधि  : पुं० [स० त०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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रस-कुल्या  : स्त्री० [ष० त०] कुशद्वीप की एक नदी पुराण।
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रस-केलि  : स्त्री० [मध्य० स०] १. प्रेमी और प्रेमिका की क्रीड़ा या विहार। २. हँसी-दिल्लगी। मजाक।
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रस-गर्भ  : पुं० [ब० स०] १. रसौत। रसांजन। २. ईगुर। शिगरफ।
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रस-गुनी  : पुं० [सं० रस+गुणी] काव्य, संगीत आदि का अच्छा ज्ञाता। रसज्ञ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रस-गुल्ला  : पुं० [हिं० रस+गोला] छेने की एक प्रकार की बँगला मिठाई जो गुलाब जामुन के समान गोल और शीरे में पगी हुई होती है।
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रस-ग्रह  : पुं० [सं० रस√ग्रह (ग्रहण)+अच्] जीभ। रसना।
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रस-घन  : पुं० [सं० ब० स०] आनंदघन, श्रीकृष्णचन्द्र। वि० १. बहुत अधिक रसवाला। २. स्वादिष्ट।
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रस-जात  : पुं० [सं० पं० त०] रसौत।
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रस-ज्येष्ठ  : पुं० [सं० स० त०] १. मधुर या मीठा रस। २. साहित्य में श्रृंगार रस।
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रस-तन्मात्रा  : स्त्री० [ष० त०] जल की तन्मात्रा। वि० दे० ‘तन्मात्र’।
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रस-तेज (स्)  : पुं० [ब० स०] खून। रक्त। लहू।
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रस-त्याग  : पुं० [ष० त०] मीठी अथवा रसपूर्ण वस्तुओं का किया जानेवाला त्याग। (जैन)
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रस-दारु  : पुं० [मध्य० स०] वृक्षों में वह ताजी बनी हुई लकडी जो उसकी हीर की लकड़ी और छाल के बीच में रहती है। (सैप-उड)
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रस-दालिका  : स्त्री० [ष० त०] ऊख। गन्ना।
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रस-द्रव्य  : पुं० [मध्य० स०] वह द्रव्य या पदार्थ जो रासायनिक प्रक्रियाओं से बनता या उनमें काम आता हो। (केमिकल)
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रस-धातु  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पारा। २. शरीर में बननेवाली रस नामक धातु। (दे० रस)।
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रस-धेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] दान के उद्देश्य से गुड़ की भेलियों आदि से बनाई जानेवाली गाय की मूर्ति।
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रस-नाथ  : पुं० [ष० त०] पारा।
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रस-नायक  : पुं० [ष० त०] १. शिव। २. पारा।
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रस-पर्पटी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] पारे को शोधकर बनाया जानेवाला एक प्रकार का रस। (वैद्यक)
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रस-पाकज  : पुं० [सं० रस-पाक, ष० त०√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. गुड़। २. चीनी।
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रस-पाचक  : पुं० [सं० ष० त०] मधुर भोजन बनानेवाला। रसोइया।
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रस-पूर्तिका  : स्त्री० [सं० ब० स० कप्+टाप्] मालकंगनी। २. शतावर।
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रस-प्रबंध  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. ऐसी कविता जिसमें एक ही विषय बहुत से परस्पर असंबद्ध पद्यों में कहा गया हो। २. नाटक। ३. प्रबंध-काव्य।
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रस-फल  : पुं० [सं० ब०स] १. नारियल का वृक्ष। २. आँवला।
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रस-बत्ती  : स्त्री० [हिं० रस+बत्ती] एक प्रकार का पतीला जिसके व्यवहार से पुराने ढंग की तोपे और बंदूकें दागी जाती थी।
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रस-बंधन  : पुं० [सं० ष० त०] शरीर के अंतर्गत नाड़ी के एक अंश का नाम (वैद्यक)।
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रस-भस्म  : पुं० [सं० ष० त०] पारे का भस्म।
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रस-भीना  : वि० [सं० रस+भीनना] [स्त्री० रसभीनी] १. आनन्द में मग्न। २. (व्यंजन) आदि जो न तो अधिक रसेदार ही हो और न बिल्कुल सूखा ही। थोड़े रसावाला।
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रस-भेद  : पुं० [सं० ष० त०] वैद्यक में एक प्रकार का औषध जो पारे से बनता है।
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रस-मंजरी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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रस-मंडूर  : पु० [सं० मध्य० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध जो हर्रे, गंधक और मंडूर से बनता है और जिसका व्यवहार शूल रोग में होता है।
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रस-मर्द्दन  : पुं० [सं० ष० त०] पारे को भस्म करने या मारने की प्रक्रिया या भाव। (वैद्यक)
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रस-मल  : पुं० [सं० ष० त०] शरीर से निकलनेवाला किसी प्रकार का मल। जैसे—विष्ठा, मूत्र, पसीना, थूक आदि।
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रस-मसा  : वि० [हिं० रस+मसा (अनु०)] १. आर्द्र। गीला। २. पसीने से तर और थका हुआ। ३. आनन्दमग्न। ४. किसी के प्रेम में पूरी तरह से मग्न। ५. आन्नद देनेवाला। सुखद। जैसे—रस-मसे दिन।
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रस-माणिक्य  : पुं० [सं० स० त०] वैद्यक में एक प्रकार का औषध जो हरताल से बनता है और जो कुष्ट आदि रोगों में उपकारी माना जाता है।
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रस-माता  : स्त्री० [सं० रस-मातृका] जीभ। रसना। जबान। (डिं०) वि० रस में मत्त या मस्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रस-मातृका  : स्त्री० [सं० ष० त०] जीभ। जबान।
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रस-मारण  : पुं० [सं० ष० त०] पारा मानने अर्थात् शुद्ध करके उसका भस्म बनाने की क्रिया या भाव।
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रस-योग  : पुं० [सं० ष० त०] वैद्यक में एक प्रकार का औषध।
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रस-रंग  : पुं० [हिं०] १. प्रेम के द्वारा उत्पन्न या प्राप्त होनेवाला आनन्द या सुख। मुहब्बत का मजा। २. प्रेम के प्रसंग में की जानेवाली क्रीड़ा। केलि।
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रस-रंजनी  : स्त्री० [ष० त०] संगीत में बिलावन ठाठ की एक रागिनी।
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रस-राज  : पुं० [सं० ष० त०] १. पारद। पारा। २. साहित्य का श्रृंगार रस। ३. रसांजन। रसौत। ४. वैद्यक में एक प्रकार का औषध जो ताँबे के भस्म, गंधक और पारे के योग से बनता है और जिसका व्यवहार तिल्ली, बरवट आदि में होता है।
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रस-रीति  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्रेमी या प्रेमिका से बरताव करने का अच्छा ढंग।
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रस-वर्णक  : पुं० [सं० ष० त०] वैद्यक की कुछ विशिष्ट वनस्पतियाँ, जिनसे रंग तैयार किये जाते हैं। जैसे—अनार का फूल, लाख, हल्दी मंजीठ आदि।
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रस-वाहिनी  : स्त्री० [सं० रस√वह् (प्रापण)+णिनि, +ङीष् उप० स०] वैद्यक के अनुसार खाए हुए पदार्थ से बने सार-भाग को फैलानेवाली नाड़ी।
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रस-वेधक  : पुं० [सं० ष० त०] सोना।
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रस-शार्दूल  : पुं० [सं० स० त०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो अभ्रक, ताँबे, लोहे, मैनसिल, पारे, गंधक, सोहागे, जवाखार, हड़ और बहेड़े आदि के योग से बनता है और जो सूतिका रोग के लिए विशेष उपकारी कहा गया है।
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रस-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] रसायन-शास्त्र।
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रस-शेखर  : पुं० [सं० स० त०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रस जो पारे और अफीम के योग से बनता है और जो उपदंश आदि रोगों में गुणकारी कहा गया है।
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रस-शोधन  : पुं० [सं० ष० त०] १. पारे को शुद्ध करने की क्रिया या भाव। २. सुहागा।
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रस-संप्रदाय  : पुं० [सं०] साहित्यिक क्षेत्र में ऐसे लोगों का वर्ग या समूह जो रसवाद के अनुयायी हों अथवा उसके सिद्धान्तों का पालन करते हों।
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रस-संभव  : पुं० [सं० ष० त०] रक्त। लहू। खून।
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रस-संरक्षण  : पुं० [सं० ष० त०] पारे को शुद्ध और मूर्च्छित करने, बाँधने और भस्म करने की ये चारों क्रियाएँ। (वैद्यक)
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रस-संस्कार  : पुं० [सं० ष० त०] पारे के मूर्च्छन, बंधन, मारण आदि अठारह प्रकार के संस्कार। (वैद्यक)
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रस-सागर  : पुं० [सं० ष० त०] प्लक्ष द्वीप में स्थित ऊख के रस का एक सागर। (पुराण)
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रस-साम्य  : पुं० [सं० ष० त०] रोगी की चिकित्सा करने के पहले यह देखना कि शरीर में कौन सा रस अधिक और कौन-सा कम है। (वैद्यक)
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रस-सार  : पुं० [सं० ष० त०] १. मधु। शहद। २. जहर। विष। (डिं०)
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रस-सिंदूर  : पुं० [मध्य० स०] पारे और गंधक के योग से बनाया जानेवाला एक प्रकार का रस। (वैद्यक)
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रस-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] ईंगुंर।
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रसक  : पुं० [सं० रस+कन्] १. फिटकरी। २. संगेबसरी। खपरिया। पुं० =रक्षक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसक-कारवेल्लक  : पुं० [सं० कर्म० स०] पतला खपरिया। संगेबसरी।
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रसक-ददुँर  : पुं० [सं० कर्म० स०] दलदार मोटा खपरिया या संगेबसरी।
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रसकोरा  : पुं० [हिं० रस+कौर] रसगुल्ला नाम की मिठाई।
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रसखीर  : स्त्री० [हिं० रस+खीर] गुड़ या चीनी के शरबत अथवा ऊख के रस में पकाए हुए चावल। मीठा भात।
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रसगत-ज्वर  : पुं० [सं० रस-गत, द्वि० त० रसगत-ज्वर, कर्म० स०] वैद्यक के अनुसार ऐसा ज्वर जिसके कीटाणु या विष शरीर की रस नामक धातु तक में पहुँचकर समा गया हो।
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रसगंध  : पुं० =रसगंधक।
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रसगंधक  : पुं० [सं० रस-गंध, ब० स०+कन्] १. गंधक। २. रसांजन। रसौंत। ३. बोल नामक गन्ध द्रव्य। ४. ईगुर। शिगरफ।
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रसचंद्र  : पुं० [सं०] संगीत में बिलावल ठाठ का एक राग।
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रसछन्ना  : पुं० [हिं० रस+छन्ना=छानने की चीज] [स्त्री० अल्पा० रसछन्नी] ऊख का रस छानने की एक प्रकार की चलनी।
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रसज  : पुं० [सं० रस√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. गुड़। २. रसौत। ३. शराब की तलछट।
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रसज्ञ  : वि० [सं० रस√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० रसज्ञता] १. वह जो रस का ज्ञाता हो। रस जाननेवाला। २. काव्य के रस का ज्ञाता। काव्य-मर्मज्ञ। ३. रासायनिक क्रियाएँ या प्रयोग करनेवाला। रसायनी। ४. किसी विषय का अच्छा जानकार। निपुण।
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रसज्ञता  : स्त्री० [सं० रसज्ञ+तल्+टाप्] रसज्ञ होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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रसज्ञा  : स्त्री० [सं० रसज्ञ+टाप्] १. जीभ। २. गंगा।
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रसडली  : स्त्री० [हिं० रस+डली] दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का गन्ना जिसका रंग पीलापन लिए हुए हरा होता है। रसवली।
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रसत  : स्त्री० =रसद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसता  : स्त्री० [सं० रस+तल्+टाप्] रस का धर्म या भाव। रसत्व।
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रसत्व  : पुं० [सं० रस+त्व] रस का धर्म या भाव। रसता।
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रसद  : वि० [सं० रस√दा (देना)+क] १. रस देनेवाला। २. स्वादिष्ट। ३. आनन्द तथा सुख देनेवाला। पुं० १. चिकित्सक। २. मध्ययुग में वह भेदिया जो किसी को विष आदि खिलाता था। स्त्री० [अ०] १. अंश। हिस्सा। २. बांट। ३. खाद्य सामग्री। विशेषतः कच्चा अनाज जो अभी पकाया जाने को हो। ४. वे खाद्य पदार्थ जो यात्री, सैनिक, आदि प्रवास-काल में अपने साथ ले जाते हैं।
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रसदा  : स्त्री० [सं० रसद+टाप्] सफेद निर्गुंडी।
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रसदार  : वि० [सं० रस+फा० दार (प्रत्यय)] १. जिसमें रस अर्थात् जूस हो। जैसे—रसदार आम। २. जिसमें मिठास हो। जैसे—रसदार बात। ३. स्वादिष्ट। ४. रसेदार।
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रसद्रावी (विन्)  : पुं० [सं० रस√द्रु (गति)+णिच्+णिनि, उप० स०] मीठा जंबूरी नींबू।
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रसन  : पुं० [सं०√रस (आस्वादन)+ल्युट—अन] १. खाने-पीने की चीज का स्वाद लेना। चखना। २. ध्वनि। ३. जबान। जीभ। ४. शरीर के अन्दर का कफ। बलगम। वि० पसीना लानेवाला (उपचार या औषध) पुं० =रशना। (रस्सा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसना  : स्त्री० [सं०√रस्+णिच्+युच्-अन+टाप्] १. जीभ। जबान। उदाहरण—सोइ रसना जो हरिगुन गावे। मुहावरा—रसना खोलना=कुछ समय तक चुप रहने के बाद बातें करना या आरंभ करना। बोलने लगना। रसना तालू से लगाना=कुछ भी उत्तर न देना या अथवा न बोलना। २. न्याय के अनुसार ऐसा रस जिसका अनुभव रसना या जीभ से किया जाता है। स्वाद। ३. नागदौनी। रासना। ४. गंध-भद्रा नाम की लता। ५. रस्सी। रज्जु। ६. करधनी। मेखला। ७. लगाम। ८. चन्द्रहार। ९. बौद्ध हठयोग में पिंगला नाड़ी की संज्ञा। अ० [हिं० रस+ना (प्रत्यय)] १. किसी चीज में से कोई तरल या द्रव्य अंश धीरे-धीरे बहना या टपकना। जैसे—छत में से पानी रसना। पद—रस रस या रसे रसे=धीरे-धीरे। २. गीले होने की दशा में, अन्दर का द्रव पदार्थ धीरे-धीरे निकलकर ऊपरी तल पर आना। जैसे—चन्द्रमा के सामने चन्द्रकांत मणि रसने लगती है। ३. रसमग्न होना। प्रफुल्ल होना। ४. अनुराग या प्रेम से युक्त होना। ५. किसी प्रकार के रस में मग्न होना। आनन्द या सुख में लीन होना। ६. किसी चीज या बात से अच्छी तरह युक्त होना।
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रसना-पद  : पुं० [ष० त०] नितंब। चूतड़।
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रसना-रव  : पुं० [ब० स०] पक्षी, जो अपनी रसना से शब्द करते हों।
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रसनीय  : वि० [सं०√रस्+अनीयर] १. जिसका रस या स्वाद लिया जा सके। चखे जाने या स्वाद लेने के योग्य। २. स्वादिष्ट।
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रसनेत्रिका  : स्त्री० [सं० रस-नेत्र, उपमित० स+ठन्-इक-टाप्] मैनसिल (खनिज द्रव्य)।
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रसनेंद्रिय  : स्त्री० [सं० रसना-इंद्रिय, कर्म० स०] रस ग्रहण करने की इंद्रिय, जीभ। रसना।
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रसनेष्ट  : पुं० [सं० रसना-इष्ट, ष० त०] ऊख। गन्ना।
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रसनोपमा  : स्त्री० [सं० रसना-उपमा, उपमित, स०] उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें पहले उपमेय को किसी दूसरे उपमेय का उपमान, दूसरे उपमेय को तीसरे उपमान और इसी प्रकार उत्तरोत्तर उपमेय को उपमान बनाया जाता है।
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रसपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. चन्द्रमा। २. पृथ्वी का स्वामी अर्थात् राजा। ३. पारा। ४. साहित्य में श्रृंगार रस।
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रसबरी  : स्त्री०=रसभरी।
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रसभरी  : स्त्री० [अं० रैप्सबेरी] १. एक प्रकार का पौधा जिसमें खटमीठे गोल फल लगते हैं। २. उक्त पौधे का फल। मकोय।
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रसभव  : पुं० [सं० रस√भू (होना)+अच्] रक्त। खून। लहू।
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रसभेदी (दिन्)  : वि० [सं० रसभेद+इनि] (फल) जो अधिक पक और फलतः जूस या रस के अधिक बढ़ जाने के कारण फट गया हो।
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रसम  : स्त्री०=रस्म।
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रसमंडी  : स्त्री० [हिं० रस+मंडी] एक प्रकार की बंगला मिठाई।
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रसमाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] शिलारस नामक सुगंधित द्रव्य।
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रसमि  : स्त्री० [सं० रश्मि] १. किरण। २. चमक। दीप्ति। ३. प्रकाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रसमैत्री  : स्त्री० [ष० त०] १. दो या अधिक रसों का मिश्रण। २. साहित्य में रसों में होनेवाला पारस्परिक मेल और सामंजस्य। इसका विपर्याय रस-विरोध है। ३. खाद्य पदार्थों के संबंध में दो ऐसे रसों का मेल जिनसे स्वाद में वृद्धि हो। जैसे—तीता-नमकीन खटमीठा आदि।
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रसरा  : पुं० [स्त्री० रसरी] रस्सा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसराय  : पुं० =रसराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रसरी  : स्त्री० रसरा का स्त्री०अल्पा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसरैना  : वि० [सं० रस+रमणी] [स्त्री० रस-रैनी] रसिक। उदाहरण—अति प्रगल्भ बैनी रस रैनी।—नंददास।
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रसल  : वि० [सं० रस√लिह् (आस्वादन)+अच्] १. पारा। २. रसांजन। रसौत।
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रसवट  : पुं० =रसवर (नाव की संधियों में भरने का मसाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसवंत  : पुं० [सं० रसवत्] रसिक। रसिया। वि० रस से भरा हुआ। रसदार।
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रसवत  : स्त्री० १. दे० ‘रसौत’। २. दे० ‘दारुहल्दी’।
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रसवंती  : स्त्री०=रसौत (रसांजन)।
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रसवती  : स्त्री० [सं० रसवत्+ङीष्] १. संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। २. रसोई घर। वि० स्त्री० रसवाली।
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रसवत्  : वि० [सं० रस+मतुप्] [स्त्री० रसवती] जिसमें रस हो। रसवाला। पुं० साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जो उस समय माना जाता है, जब एक रस किसी दूसरे रस अथवा उसके भाव, रसाभाव, भावाभास आदि का अंग बनकर आता है। जैसे—युद्ध में निहत वीरपति का हाथ पकड़कर पत्नी का यह कहते हुए विलाप करना-यह वही हाथ है जो प्रेमपूर्वक मुझे आलिंगन करता था। यहाँ श्रृंगार रस केवल करुण रस का अंग बनकर आया है।
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रसवत्ता  : स्त्री० [रसवत्त+तल्+टाप्०] १. रसयुक्त होने की अवस्था , धर्म या भाव। रसीलापन। २. माधुर्य। मिठास। ३. सुन्दरता।
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रसवर  : पुं० [हिं० रसना] नाव का संधि को बंद करने के लिए उसमें लगाया जानेवाला मसाला।
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रसवली  : स्त्री०=रस-डली (गन्ना)।
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रसवाई  : स्त्री० [हिं० रस+वाई (प्रत्यय)] किसानों के यहाँ किसी फसल का ऊख पहली बार पेरने के समय होनेवाला एक कृत्य।
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रसवाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. रस अर्थात् प्रेम या आनंद की बातचीत रसिकता की बातचीत। २. मन बहलाव के लिए होनेवाला परिहास हँसी-ठट्ठा। ३. प्रेमी और प्रेमिका में होनेवाली व्यर्थ की कहा-सुनी या बकवास। ४. साहित्यिक क्षेत्र में यह मत या सिद्धान्त कि रस के सम्बन्ध में विचार करते हुए और उसके महत्त्व का ध्यान रखते हुए ही साहित्यिक रचना की जानी चाहिए।
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रसवादी (दिन्)  : वि० [सं० रसवाद+इनि] रसवाद-संबंधी। पुं० रसवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादक या अनुयायी।
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रसवान् (वत्)  : पुं० [सं० रस+मतुप्] वह पदार्थ जिसमें ऐसा गुण या शक्ति हो जिसमें उसके कण रसना से संयुक्त होने पर विशेष प्रकार की अनुभूति या संवेदन हो।
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रसवास  : पुं० [सं० ब० स०] ढगण के पहले भेद (।ऽ) की संज्ञा।
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रसविक्रयी (यि्)  : पुं० [सं० रस-वि√क्री (बेचना)+णिनि, उप० स०] वह जो मदिरा बेचता हो, अर्थात् कलवार।
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रसविरोध  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसे रसों का मिश्रण या मेल जिससे स्वाद बिगड़ जाता है। (सुश्रुत) जैसे—तीते और मीठे में नमकीन और मीठे में कड़ुए और मीठे में रसविरोध है। २. साहित्य में एक ही पद्य में होनेवाली दो परस्पर प्रतिकूल रसों की स्थिति।
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रसा  : स्त्री० [सं० रस+अच्+टाप्] १. पृथ्वी। जमीन। २. रासना। ३. पाढ़ा नामक लता। ४. शल्लकी सलई। ५. कंगनी नामक अन्न। ६. द्राक्षा। दाख। ७. मेदा। ८. शिलारस। लोबान। ९. आम। १॰. काकोली। ११. नदी। १२. रसातल। १३. रसना। जीभ। पुं० [हिं० रस] १. तरकारी आदि का झोल। शोरबा। पद—रसेदार= (तरकारी) जिसमें रसा भी हो। शोरबेदार। २. जूस। रस। जैसे—फलों का रसा। वि० =रसाँ।
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रसाँ (सा)  : वि० [फा०] पहुँचाने या ले जानेवाला। जैसे—चिट्टीरसाँ।
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रसा-पति  : पुं० [सं० ष० त०] पृथ्वी-पति। राजा।
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रसाइन  : पुं० =रसायन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसाइनी  : स्त्री०=रसाइनी। पुं० =रसायनज्ञ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रसाई  : स्त्री० [फा०] १. पहुंचने की क्रिया या भाव। पहुँच। २. बुद्धि आदि के कहीं तक पहुँच सकने की शक्ति।
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रसाकर्षण  : पुं० [सं० रस-आकर्षण, ष० त०] वह प्रक्रिया जिससे शरीर का कोई अंग रंध्रों के द्वारा बाहर का रस खींचकर अपने अन्दर करता है। (ओस्मोमिस)।
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रसांगक  : पुं० [सं० रस-अंग, ब० स+कन्] धूप सरल का वृक्ष। श्रीवेष्ठ।
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रसाग्रज  : पुं० [सं० रस-अग्रज, ष० त०] रसौत।
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रसाग्र्य  : पुं० [सं० रस-अग्र, य, ष० त०] १. पारा। २. रसाजंन। रसौत।
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रसांजन  : पुं० [सं० रस-अंजन, मध्य० स०] रसौत। रसवत।
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रसाज्ञान  : पुं० [सं० रस-अज्ञान, ष० त०] १. इस बात की जानकारी न हो कि अमुक रस कौन हैं। २. वह स्थिति या दशा जिसमें रस अर्थात् स्वाद का ज्ञान न होता हो।
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रसाढ्य  : पुं० [सं० रस-आढ्य, तृ० त०] अमड़ा। आम्रातक।
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रसाढ्या  : स्त्री० [रसाढ्य+टाप्] रासना।
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रसांतर  : पुं० [सं० रस-अंतर, मयू० स०] एक रस की अवस्थिति में दूसरे रस का होनेवाला आविर्भाव या संचार।
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रसांतरण  : पुं० [सं० रस-अंतरण, ष० त०] एक रस की अवस्थिति हटा कर दूसरे रस का संचार करना। जैसे—प्रेम चर्चा के समय बिगड़कर प्रिय की उपेक्षा करना या उसे भय दिखाना या क्रोध के समय हँसाकर प्रसन्न करना।
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रसातल  : पुं० [सं० ष० त०] पुराणानुसार पृथ्वी के नीचेवाले सात लोकों में से छठा लोक। मुहावरा—रसातल पहुँचाना या रसातल में पहुँचाना=पूरी तरह से नष्ट या मटियामेट कर देना। मिट्टी में मिला देना। बरबाद कर देना।
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रसादार  : वि० =रसेदार।
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रसाधार  : पुं० [सं० रस-आधार, ष० त०] सूर्य।
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रसाधिक  : पुं० [सं० रस-अधिक, च० त०] सुहागा।
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रसाधिका  : स्त्री० [सं० रस-अधिका, तृ० त०] किशमिश।
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रसाध्यक्ष  : पुं० [सं० रस-अध्यक्ष, ष० त०] प्राचीन भारत में वह राजकर्मचारी जो मादक द्रव्यों को जाँच-पड़ताल और उनकी बिक्री आदि की व्यवस्था करता था।
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रसापकर्षण  : पुं० [सं० रस-अपकर्षण, ष० त०] वह प्रक्रिया जिसके द्वारा शरीर का कोई अंग अथवा अपने अंदर का ऐसा ही और कोई पदार्थ रस-रंध्रों द्वारा बाहर निकालता है। (एन्डोमोसिस)
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रसापायी (यिन्)  : वि० [सं० रसा√पा (पीना)+णिनि] जो जीभ से पानी पीता हो। जैसे—कुत्ता, साँप आदि। पुं० कुत्ता।
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रसाभास  : पुं० [सं० रस-आ√भास् (चमकना)+अच्] १. भारतीय साहित्य शास्त्र के अनुसार किसी साहित्यिक रचना में कहीं-कहीं दिखाई देनेवाली वह स्थिति जिसमें रस का पूरी तरह से परिपाक नहीं होने पाता, और इसलिए जिसके फलस्वरूप सहृदयों को ऐसा जान पड़ता है कि रस की पूर्ण निष्पति नहीं हुई है उसका आभास मात्र दिखाई देता है। जैसे—यदि श्रृंगार रस में हास्य रस का, हास्य रस में वीभत्स रस का अथवा वीर रस में भयानक रस का मिश्रण कर दिया जाय तो प्राथमिक या मूल रस का परिपाक नहीं होने पाता और रस के परिपाक के स्थान पर रसाभाव मात्र होकर रह जाता है कुछ आचार्यों का मत है कि रसाभास वस्तुतः रस का बाधक और विरोधी तत्त्व है पर कुछ आचार्य कहते हैं कि रसाभास होने पर भी रस-दशा ज्यों कि त्यों आस्वाद्य बनी रहती हैं।
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रसामृत  : पुं० [सं० रस-अमृत, कर्म० स०] पारे, गंधक शिलाजीत, चंदन, गुडुच, धनियाँ, इंद्रजौ, मुलेठी आदि के योग से बनाया जानेवाला एक प्रकार का रस।
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रसाम्ल  : पुं० [सं० रस-अम्ल, ब० स०] १. अम्लबेतस्। अमलबेद। २. चुक नाम की खटाई। ३. वृक्षाम्ल। विषांविल।
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रसाम्लक  : पुं० [सं० रसाम्ल+कन्] एक प्रकार की घास।
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रसाम्ला  : स्त्री० [सं० रसाम्ल+टाप्] पलाशी नाम की लता।
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रसायन  : पुं० [सं० स-अयन, ब० स०] १. आरंभिक भारतीय वैद्यक में औषध, चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में रस अर्थात् पारे का प्रयोग करने की कला या विद्या। २. परवर्ती काल में उक्त कला के आधार पर पारे के प्रयोगों से धातुओं आदि में अद्भुत और असाधारण तात्त्विक परिवर्तन कर दिखाने अथवा उन्हें भस्म करने की कला या विद्या जिसके फलस्वरूप आगे चलकर भारत, पश्चिमी एशिया तथा यूरोप के कुछ देशों में बहुत से लोग इस बात की छानबीन और प्रयोग करने लगे थे कि पीतल लोहे आदि को किस प्रकार सोने के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। कीमियागारी। विशेष—पाश्चात्य देशों में इसी प्रकार के प्रयोग करते-करते कुछ लोगों ने वे तत्त्व और सिद्धान्त ढूँढ़ निकाले थे, जिनके आधार पर आधुनिक रसायन-शास्त्र (देखें) का विकास हुआ है। ३. परवर्ती भारतीय वैद्यक में कुछ विशिष्ट प्रकार के ऐसे औषध या दवाएँ जिनके संबंध में यह माना जाता है कि इनके सेवन से मनुष्य कभी बीमार या बुड्ढा नहीं हो सकता और उसमें फिर नया जीवन और युवावस्था आ जाती है। ४. आधुनिक भारतीय वैद्यक में कुछ विशिष्ट प्रकार की ओषधियों से बनी हुई कुछ ऐसी दवाएँ जो मनुष्यों का बल-वीर्य आदि बढ़ानेवाली मानी जाती है। जैसे—आमलक रसायन, ब्राह्मी, रसायन, हरीतकी रसायन आदि। ५. तक्र। मठा। ६. बायबिंडग। बिंडग। ७. जहर। विष। ८. कटि। कमर। ९. गरुड़ पक्षी।
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रसायन-विज्ञान  : पुं० =रसायन-शास्त्र।
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रसायन-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक काल में विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि पदार्थों में क्या-क्या गुण और तत्त्व होते हैं, दूसरे पदार्थों के योग से उनमें क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं, और उन्हें किस प्रकार रूपांतरित किया जा सकता है। (कैमिस्ट्री) विशेष—इस शास्त्र का मुख्य सिद्धान्त यह है कि सभी पदार्थ कुछ मूल तत्त्वों या द्रव्यों के अलग-अलग प्रकार के परमाणुओं से बने हुए होते है वैज्ञानिकों ने अब तक ऐसे १00 से अधिक मूल तत्त्व या द्रव्य ढूँढ़ निकाले हैं। उनका कहना है कि जब एक प्रकार के परमाणु किसी दूसरे प्रकार के परमाणुओं से मिलते हैं, तब उनसे कुछ नये द्रव्य या पदार्थ बनते हैं, इस शास्त्र में इसी बात का विचार होता है कि उन तत्त्वों में किस-किस प्रकार के परिवर्तन या विकार होते हैं, और उन परिवर्तनों का क्या परिणाम होता है।
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रसायन-श्रेष्ठ  : पुं० [सं० स० त०] पारा।
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रसायनज्ञ  : पुं० [सं० रसायन√ज्ञा (जानना)+क] रसायन क्रिया का जाननेवाला। वह जो रसायन विद्या जानता हो।
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रसायनफला  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] हर्रे। हड़। हरीतकी।
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रसायनवर  : पुं० [सं० स० त०] लहसुन।
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रसायनवरा  : स्त्री० [सं० स० त०] १. कँगनी। २. काकजंघा।
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रसायनिक  : वि० =रासायनिक।
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रसायनी  : स्त्री० [सं० रस√अय् (प्राप्ति)+ल्यु-अन+ङीष्] १. वह औषध जो बुढ़ापे को रोकती या दूर करती हो। २. गुडुच। ३. काकमाची। मकोय। ४. महाकरंज। ५. गोरख मुण्डी। अमृत संजीवनी। ६. मांसरोहिणी। ७. मंजीठ। ८. कन-फोड़ा नाम की लता। ९. कौंछ। केवाँच। १॰. सफेद निसोथ। ११. शंखपुष्पी। शंखाहुली। १२. कंदगिलोय। १३. नाड़ी नामक साग। पुं० रसायन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसाल  : वि० [सं० रस-आ√ला (आदान)+क] १. रस से पूर्ण। रस से भरा हुआ। रसपूर्ण। २. मीठा। मधुर। ३. रसिक। रसीला। सहृदय। ४. साफ किया हुआ। परिमार्जित और शुद्ध। पुं० १. ऊख। गन्ना। २. आम। ३. गेहूँ। ४. बोल नामक गंध-द्रव्य। ५. कटहल। ६. कंदूर तृण। ७. अमलबेत। ८. शिलारस। लोबान। पुं० [अ० इरसाल] कर। राजस्व। खिराज। वि० =रिसाल।
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रसाल-शर्करा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] गन्ने या ऊख के रस से बनाई हुई चीनी।
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रसालक  : वि० [सं० रसाल+कन्] [स्त्री० रसालिका] १. मधुर। मृदु। २. सरस। ३. मनोहर। सुन्दर।
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रसालय  : पुं० [सं० रस-आलय, ष० त०] १. आम का पेड़। २. आमोद-प्रमोद का स्थान। क्रीडा़ स्थल। ३. दे० ‘रसशाला’।
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रसालस  : पुं० [हिं० रसाल] अद्भुत या विलक्षण बात। कौतुक।
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रसालसा  : स्त्री० [सं० रस-अलसा, तृ० त०] १. गन्ना। २. गेहूँ। ३. कुंहुर नामक तृण।
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रसाला  : स्त्री० [सं० रसाल+टाप्] १. सिखरन। श्रीखंड। २. दही में मिलाया हुआ सत्तू। ३. दूब। ४. बिदारीकन्द ५. दाख। ६. गन्ना। ७. जीभ। जबान। ८. एक तरह की चटनी। पुं० =रिसाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसालाम्र  : पुं० [सं० रसाल-आम्र, कर्म० स०] बढ़िया कलमी आम।
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रसालिका  : स्त्री० [सं० रसाल√कन्+टाप्, इत्व] १. छोटा आम। अंबिया। २. सप्तला। सातला।
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रसाली  : स्त्री० [सं० रसाल+ङीष्] गन्ना। पुं० [सं० रस] भोग-विलास में रस या आनन्द प्राप्त करनेवाला व्यक्ति।
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रसाव  : पुं० [हिं० रसना] १. वह अवस्था जिसमें कोई तरल पदार्थ किसी चीज में से रस या टपक रहा हो। २. किसी चीज में से रसकर निकालनेवाला पदार्थ। ३. खेती-जोतकर और पाटे से बराबर करके उसे कई दिनों तक यों ही छोड़ देने की क्रिया जिससे उसमें रस या उत्पादन शक्ति का आविर्भाव होता है।
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रसावट  : पुं० =रसावल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसावल  : पुं० [सं० रस] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो यगण होते हैं। कुछ लोग दूसरे यगण की जगह मगण भी रखते हैं। पर कुछ लोगों के मत से ‘रोला’ ही रसावल है। अर्ध-भुजंगी। पुं० [हिं० रस+चावल] १. ऊख के रस में पकाये हुए चावल। २. देहातों में विवाह के उपरांत नववधू द्वारा प्रस्तुत रसावल जीमते समय गाये जानेवाला गीत।
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रसावा  : पुं० [हिं० रस+आवा (प्रत्यय)] वह मटका जिसमें ऊख का रस रखा हुआ है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसाश  : पुं० [सं० रस-आश, ष० त०] मदिरा पान करना। शराब पीना।
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रसाशी (शिन्)  : पुं० [सं० रस√अश् (भोजन)+णिनि] मदिरा पान करनेवाला। शराबी।
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रसाष्टक  : पुं० [सं० रस-अष्टक, ष० त०] पारा, ईगुर, कांतिसार लोहा, सोनामक्खी, रूपामक्खी, वैक्रांतमणि, और शंख इन आठ महारसों का समाहार। (वैद्यक)
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रसास्वादन  : पुं० [सं० रस-आस्वादन, ष० त०] १. किसी प्रकार के रस का स्वाद लेना। रस चखना। २. किसी प्रकार के रस या आनन्द का भोग करना। सुख लेना। ३. किसी बात या विषय का रस चखना या लेना।
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रसास्वादी (दिन्)  : वि० [सं० रस-आ√स्वद् (स्वाद लेना)+णिच्+णिनि] [स्त्री० रसास्वादिनी] १. रस चखनेवाला। स्वाद लेनेवाला। २. आनन्द या मजा लेनेवाला। ३. किसी बात या विषय में रस लेनेवाला। पुं० भ्रमर। भौंरा।
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रसाह्व  : पुं० [सं० रस-आह्वा, ब० स०] गंधा-बिरोजा।
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रसाह्वा  : स्त्री० [सं० रसाह्व+टाप्] १. सतावर। २. रासना।
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रसिआउर  : पुं० =रसावल (रसा में पका हुआ चावल)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसिक  : वि० [सं० रस+ठन्-इक] [भाव० रसिकता, स्त्री० रसिका] १. रसपान करनेवाला २. किसी काव्य, कहानी, बातचीत आदि के रस से आनन्दित होनेवाला। ३. काव्य-मर्मज्ञ। ४. जिसके हृदय में सौन्दर्य मधुर बातें आदि के प्रति अनुराग हो। सहृदय। पुं० १. प्रेमी। २. सारथ। ३. घोड़ा। ४. हाथी। ५. एक प्रकार का छंद।
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रसिक-बिहारी  : पुं० [सं० कर्म० स०] श्रीकृष्ण।
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रसिकता  : स्त्री० [सं० रसिक+तल्+टाप्] १. रसिक होने की अवस्था, भाव या धर्म्म। २. हँसी-ठट्टा या परिहास करने की वृत्ति।
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रसिका  : स्त्री० [सं० रसिक+टाप्] १. दही का शरबत। सिखरन। २. ईख का रस। ३. शरीर में होनेवाला रस या धातु। ४. जीभ। जबान। ५. मैना पक्षी। वि० =रसिक का स्त्री०।
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रसिकाई  : स्त्री०=रसिकता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसिकेश्वर  : पुं० [सं० रसिक-ईश्वर, ष० त०] श्रीकृष्ण।
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रसित  : वि० [सं०√रस् (शब्द)+क्त] १. रस से बना हुआ। रस से युक्त किया हुआ। २. ध्वनि या शब्द करता हुआ। बजता या बोलता हुआ। ३. जिस पर रंग या रोगन किया गया हो। ४. चमकीला। पुं० १. ध्वनि। शब्द। २. अंगूर की शराब।
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रसिया  : पुं० [सं० रस+हिं० इया (प्रत्यय)] १. रस अर्थात् आनन्द लेने का शौकीन। जैसे—गाने-बजाने का रसिया। २. कामुक और व्यसनी व्यक्ति। ३. बुदेलखंड और ब्रज में होली के अवसर पर गाये जानेवाले हास-परिहास-मूलक एक तरह के गीत। ४. प्रेमी।
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रसियाव  : पुं० [हिं० रस+इयाव (प्रत्यय)] रसावल। (दे०)
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रसी  : स्त्री० [देश] उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कुछ क्षेत्रों में पाई जानेवाली एक तरह का क्षारयुक्त मिट्टी। वि० =रसिक (या रसिया)।
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रसीद  : स्त्री० [फा०] १. कोई चीज कहीं पहुँचने या प्राप्त होने की क्रिया या भाव। प्राप्ति। पहुँच। जैसे—पारसल भेजा है, उसको रसीद की इत्तला दीजियेगा। मुहावरा—रसीद करना= थप्पड़ मुक्का आदि लगाना। जड़ना। मारना। जैसे—थप्पड़ रसीद करूँगा, सीधा हो जायगा। २. वह पत्र जिस पर ब्योरेवार यह लिखा हो कि अमुक वस्तु या द्रव्य अमुक व्यक्ति से अमुक कार्य के लिए अमुक समय पर प्राप्त हुआ।
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रसीदी  : वि० [हिं० रसीद] १. रसीद के रूप में होनेवाला। २. रसीद के संबंध में या उसके लिए काम में आनेवाला। जैसे—रसीदी टिकट=वह विशेष प्रकार का टिकट जो रुपये पाने की रसीद पर लगता है।
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रसील  : वि० =रसीला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसीला  : वि० [हि० रस+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० रसीली, भाव० रसीलापन] १. रस से भरा हुआ। रसयुक्त। २. खाने में मजेदार। स्वादिष्ट। ३. (व्यक्ति) जिसके मन में रस अर्थात् आनन्द लेने की प्रवृत्ति या भोग-विलास के प्रति अनुराग हो। रसिक। रसिया। ४. देखने में बाँका निराला या सुन्दर हो। जैसे—रसीली आँख।
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रसीलापन  : पुं० [हिं० रसीला+पन (प्रत्यय)] रसीले होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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रसुन  : पुं० [सं० रस+उनन्] =लहसुन।
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रसूम  : पुं० [अ० रस्म (परिपार्टी या प्रथा) का बहु] १. नियमों, रीतियों, विधानों आदि का वर्ग या समूह। २. कर। शुल्क। ३. वह धन जो कोई काम करने के बदले में राजकीय नियमों के अनुसार राज्य को दिया जाता है। राज्य के प्रति होनेवाला देय। जैसे—दरख्वास्त देने या दावा दायर करने के समय अदालत का रसूम दाखिल करना पड़ता है। ४. वह धन जो जमींदार को किसानों की ओर से नजराने या भेंट आदि के रूप में मिलता था।
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रसूम अदालत  : पुं० [अ०] वह धन जो अदालत में कोई मुकदमा आदि दायर करने अथवा कोई दरख्वास्त देने के समय कानून के अनुसार सरकारी खजाने में दाखिल किया जाता और जिसकी प्राप्ति के प्रमाणस्वरूप टिकट आदि मिलते हैं। कोर्टफीस। स्टांप।
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रसूल  : स्त्री० [अ०] लोककल्याण के उद्देश्य से ईश्वर द्वारा पृथ्वी पर भेजा जानेवाला दूत। ईश्वरदूत।
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रसूली  : स्त्री० [अ० रसूल+ई (प्रत्यय)] १. एक प्रकार का गेहूँ। २. एक प्रकार का जौ। ३. एक प्रकार की काली मिट्टी। वि० रसूल संबंधी। रसूल का।
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रसे-रसे  : अव्य० [हिं० रसना] धीरे-धीरे। शनैःशनैः।
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रसेंद्र  : पुं० [सं० रस-इंद्र, ष० त०] १. पारद। पारा। २. राजमाष। लोबिया। ३. वैद्यक में एक प्रकार की रसौषध जो जीरा, धनियाँ, पीपल, शहद, त्रिकुट और रस-सिंदूर के योग से बनती है।
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रसेंद्र-वेधक  : पुं० [सं० ष० त०] सोना।
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रसेश  : पुं० [सं० रस-ईश, ष० त०] १. श्रीकृष्ण जो रस और रसिकों को शिरोमणि माने गये हैं। २. दे० ‘रसेश्वर’।
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रसेश्वर  : पुं० [सं० रस-ईश्वर, ष० त०] १. पारा। २. वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध जो पारे, गंधक, हरताल और सोने आदि के योग से बनता है। ३. दे० ‘रसेश्वर दर्शन’।
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रसेश्वरदर्शन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक शैव दर्शन जो मुख्यतः पारद या पारे के साधनों से संबंध रखनेवाली बातों पर आश्रित है। विशेष—शैव आगमों में रसेश्वर अर्थात् पारद या पारे को शिव का वीर्य तथा गंधक को पार्वती का रज माना गया है और इसी आधार पर उनके संबंध में इस दर्शन की रचना हुई है। यह प्रसिद्ध ६ दर्शनों से पृथक् या भिन्न है।
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रसेस  : पुं० [सं० रसेश] रसिक शिरोमणि, श्रीकृष्ण। पुं० =रसेश्वर (पारा)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रसोइन  : स्त्री० हिं० रसोइया (रसोइदार का स्त्री०। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसोइया  : पुं० [हिं० रसोई+इया (प्रत्यय)] रसोई बनानेवाला। भोजन बनानेवाला। रसोइदार। सूपकार। स्त्री०=रसोई।
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रसोई  : स्त्री० [हिं० रस+ओई (प्रत्यय)] १. पका हुआ खाद्य पदार्थ बना हुआ भोजन। विशेष—सनातनी हिंदुओं में रसोई दो प्रकार की मानी जाती है—कच्ची और पक्की। कच्ची रसोई वह कहलाती है जो जल और आग के योग से बनी हो, और जिसमें घी की प्रधानता न हो। जैसे—चावल, दाल, रोटी आदि। ऐसी रसोई चौके में बैठकर खाई जाती है। पक्की रसोई वह कहलाती है जिसके पकने में घी की प्रधानता रही हो। जैसे—पराँठा, पूरी, बरे, समोसे आदि। ऐसी चीजें चौके से बाहर भी खाई जा सकती हैं और इनमें छुआछूत का विशेष विचार नहीं होता। मुहावरा—रसोई चढ़ना=रसोई का बनना आरम्भ होना। रसोई तपना=रसोई या भोजन बनना। २. दे० ‘रसोई घर’।
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रसोई-खाना  : पुं०=रसोई घर।
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रसोई-घर  : पुं० [हिं० रसोई+घर] वह कमरा या स्थान जहाँ पर घर के लोगों के लिए भोजन पकाया जाता है। चौका।
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रसोईदार  : पुं० रसोइया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसोईदारी  : स्त्री० [हिं० रसोईदार+ई (प्रत्यय)] १. रसोई बनाने का काम। भोजन बनाने का काम। २. रसोईदार का पद या भाव।
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रसोईबरदार  : पुं० [हिं० रसोई+फा० बरदार] वह जो बड़े आदमियों के साथ उनकी रसोई का भोजन ले जाकर पहुँचाना हो।
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रसोत  : स्त्री०=रसौत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसोदर  : पुं० [सं० ब० स०] हिंगुल। शिंगरफ।
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रसोद्भव  : पुं० [सं० रस-उद्भव, ब० स०] १. शिगरफ। ईंगुर। २. रसांजन। रसौत।
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रसोन  : पुं० [सं० रस-ऊन, तृ० त०] लहसुन।
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रसोपल  : पुं० [सं० रस-उपल, उपमि० स०] मोती।
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रसोय  : स्त्री० रसोई।
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रसौत  : स्त्री० [सं० रसोद्भूत] एक प्रकार की प्रसिद्ध औषधि जो दारुहल्दी की जड़ और लकड़ी को पानी में उबालकर और उसमें से निकलने हुए रस को गाढ़ा करके तैयार की जाती है।
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रसौता  : पुं० =रसौती।
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रसौती  : स्त्री० [देश] धान की वह बोआई जिसमें वर्षा होने से पहले ही खेत जोतकर बीज डाल दिये जाते हैं।
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रसौर  : पुं० =रसावल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रसौल  : स्त्री० [?] एक प्रकार की कँटीली लता जो दवा के काम आती और जिसकी पत्तियों की चटनी बनाई जाती है। पुं०=रसावल।
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रसौली  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का रोग जिसमें आँख के ऊपर भौहों के पास अथवा शरीर के और किसी अंग में बड़ी गिलटी निकल आती है।
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रस्ता  : पुं० =रास्ता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रस्तोगी  : पुं, ० [देश] वैश्यों की एक जाति।
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रस्म  : स्त्री० [अ०] १. चाल। परिपाटी। प्रथा। पद—राह-रस्म। २. कर। महसूल। ३. वेतन। तनख्वाह। ४. मेल-जोल।
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रस्मि  : स्त्री०=रश्मि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रस्मी  : वि० [अ०] १. रस्म संबंधी। २. रस्म के रूप में होनेवाला औपचारिक। ३. मामूली। साधारण।
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रस्मोरिवाज  : पुं० [अ०] रुढ़ि और परम्परा।
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रस्य  : पुं० [सं० रस+यत्] १. रक्त। खून। लहू। २. शरीर में का मांस।
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रस्या  : स्त्री० [सं० रस्य+टाप्] १. रासना। २. पाठा।
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रस्सा  : पुं० [सं० रसना, प्रा० रसणा, हिं० रसना] [स्त्री० अल्पा० रस्सी] १. मूँज, सन आदि का बटा हुआ तथा मोटा रूप। पद—रस्सा-कशी। २. जमीन की एक नाप जो ७५ हाथ लंबी और ७५ हाथ चौड़ी होती है। इसी को बीघा कहते हैं। पुं० [हिं० रसना=बहना] घोड़े के पैरों में होनेवाला एक प्रकार का रोग।
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रस्सा-कशी  : स्त्री० [हिं०+फा०] १. एक प्रकार का व्यायाममूलक खेत जिसमें दो प्रतियोगी दल पंक्ति बाँधकर एक दूसरे के पीछे खड़े हो जाते हैं, और एक रस्सा पकड़कर अपनी-अपनी ओर खींचने का प्रयत्न करते हैं। २. लाक्षणिक रूप में, आपस में होनेवाली खींचातानी या प्रतियोगिता।
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रस्सी  : स्त्री० [हिं० रस्सा] रूई, सन या इसी प्रकार की और चीजों के रेशों को एक में बटकर बनाया हुआ लंबा खंड जिसका व्यवहार चीजों को बाँधने, कुएँ से पानी खींचने आदि में होता है। डोरी। गुण। रज्जु। स्त्री० [?] एक प्रकार की सज्जी।
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रस्सीबाट  : पुं० [हिं० रस्सी+बटना] रस्सी बटनेवाला। डोरी बनानेवाला।
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रह  : पुं० [सं० रथ] रथ। स्त्री०=राह (रास्ता) प्रत्यय राह का वह रूप जो कुछ समस्त पदों में प्रत्येक रूप में लगता है। जैसे—रहनुमा, रहबर।
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रंह (स्)  : पुं० [सं०√रह् (गति)+असुन्] वेग। गति। तेजी।
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रंह चट (ा)  : पुं० [हिं० रस+चाट] ऐसी लालच या लोभ जो किसी प्रकार की तृप्ति पाने के उपरान्त और बढ़ गया हो। चस्का।
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रह-चट्टना  : अ०=चहचहाना (पक्षियों का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रह-नुमा  : वि० [फा० राहनुमाँ का संक्षिप्त रूप] [भाव० रह-नुमाई] ठीक रास्ता बतलानेवाला। मार्ग-दर्शक।
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रह-नुमाई  : स्त्री० [फा०] ठीक रास्ता बतलाना। मार्ग-दर्शन।
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रह-बर  : वि० [फा०] [भाव० रह-बरी] रास्ता दिखलानेवाला।
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रहंकला  : पुं०=रहकता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहकला  : पुं० [हिं० रथ+कल] १. तोप अति ढोनेवाली एक तरह की पुरानी चाल की गाड़ी। २. उक्त गाड़ी पर रखी जानेवाली तोप।
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रहँचटा  : पुं०=रहचटा।
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रहचटा  : पुं० [सं० रस+हिं० चाट] १. वह जिसे किसी प्रकार के रस (सुख) की चाट या चस्का लगा हो। २. उक्त प्रकार का चस्का या चाट।
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रहचट्ट  : स्त्री० [अनु०] १. चिड़ियों का बोलना। चहचाहट। २. आदमियों की चहलपहल। स्त्री० [हिं० रहचटा] रहचटे होने की अवस्था, गुण या भाव।
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रंहट  : पुं० =रहट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहँट  : पुं०=रहट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहट  : पुं० [सं० अरघट्ट, प्रा० अरहट्ठ] खेतों की सिंचाई के लिए कुएँ से पानी निकालने का एक प्रकार का यंत्र जो गोलाकार पहिए के रूप में होता है और जिस पर हाँड़ियों की माला पड़ी रहती है। इसी पहिए के घूमने से हाँड़ियों आदि में भरकर पानी ऊपर आता है।
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रहँटा  : पुं०=रहटा।
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रहटा  : पुं० [हिं० रहट] चरखा।
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रहँटी  : पुं० =रहटी।
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रहटी  : स्त्री० [हिं० रँहटा] १. कपास ओटने की चरखी। २. ऋण देने का एक प्रकार जिसमें ऋणी से प्रति मास कुछ धन वसूल किया जाता है। हुंडी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहठा  : पुं० [?] अरहर के पौधे का सूखा हुआ ठंडल। कड़िया।
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रहठान  : पुं० [हिं० रहना] १. रहने का स्थान। २. जगह। स्थान।
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रहड़  : पुं० [सं० रथरूप, प्रा० रहरूप] १. ठेला-गाड़ी। २. बैलगाड़ी।
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रहतिया  : वि० [हिं० रहना+तिया (प्रत्यय)] (दुकान या माल) जो बहुत दिनों तक पड़ा रहने के कारण कुछ खराब हो गया हो।
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रहन  : स्त्री० [हिं० रहना] १. रहने की अवस्था, ढंग या भाव। पद—रहन-सहन। २. लोगों के साथ रहने और जीवन-निर्वाह तथा व्यवहार करने का ढंग या प्रकार। ३. किसी के साथ प्रेमपूर्वक रहने और निभाने की क्रिया या भाव। उदाहरण—जौ पै रहनि राम सों नाही।—तुलसी।
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रहन-सहन  : स्त्री० [हिं० रहना+सहना] घर-गृहस्थी या लोक में रहने और लोगों के साथ व्यवहार करने की क्रिया या ढंग।
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रहनहार  : वि० [हिं० रहना+हार (प्रत्यय)] १. रहने अर्थात् निवास करनेवाला। निवासी। २. टिककर या स्थायी रूप से बना रहने या रहनेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहना  : अ० [प्रा० रहण] १. किसी आधार या स्थान पर अवस्थित या स्थित होना। टिका या ठहरा हुआ होना। जैसे—इन्हीं खंभों (या दीवारों) पर छत रहेगी। २. किसी विशिष्ट दशा या स्थिति में स्थिर होना। एक रूप में अवस्थान करना। जैसे—गर्भ (या पेट) रहना। जीवन या जिंदगी रहना। उदाहरण—नीके है छीकैं छुए, ऐसे ही रह नारि।—बिहारी। मुहावरा—रह चलना या रह जाना=प्रस्थान करने का विचार छोड़ देना। रुक जाना। ठहर जाना। रह जाना=शांति या स्थिरता पूर्वक अवस्थान करने में समर्थ होना। जैसे—(क) अब तो बिना बोले मुझसे रहा नहीं जाता। (ख) उसके बिना तुमसे रहा नहीं जाता। ३. किसी स्थान को अस्थायी अथवा स्थायी रूप में अपने निवास का मुख्य केंद्र बनाकर वहाँ बसना निवास करना। जैसे—आज-कल वह कलकत्ते में रहते हैं। ४. किसी स्थान पर कुछ समय के लिए विद्यमान होकर वहाँ समय बिताना। जैसे—दो चीर दिन यहाँ रहकर वे घर चले गये। उदाहरण—जैसे कंता घर रहे, तैसे रहे विदेस। मुहावरा—(स्त्री या पुरुष) से रहना=पर-पुरुष से संभोग करना। उदाहरण—मीरगुल से अब के रहने में हुई वह बेकली। टल गई क्या नाफदानी, पेडू पत्थर हो गया।—जानसाहब। रहना-सहना=किसी स्थान पर निवास करते हुए कुछ समय बिताना। जैसे—जो आदमी जहाँ रहता-सहता है, वहीं उसका मन लगता है। ५. उपस्थित या विद्यमान रहना। जैसे—हमारे रहते तुम्हारा कोई बिगाड़ नहीं सकता। मुहावरा—(किसी वस्तु या व्यक्ति का) बना रहना=ठीक और अच्छी दशा में वर्तमान रहना। जैसे—तुम्हारा राज-पाट बना रहे। किसी की बनी रहना=किसी की प्रतिष्ठा, मर्यादा आदि का ज्यों का त्यों रहना। उदाहरण—किस की बनी रही हैं, किसकी बनी रहेगी।—कोई शायर। ६. जीविका चलाने के लिए नौकर आदि के रूप में कहीं या किसी पद पर स्थित रहकर निर्वाह करना या समय बिताना। जैसे—इधर साल भर में वह तीन चार जगह रह चुका, पर कहीं टिका नहीं। ७. किसी के साथ मैथुन या संभोग करना। (बाजारू)। जैसे—यह भी तो कई बार उसके साथ रह चुका है। उदाहरण—मीरगुल से अबके रहने में हुई वह बेकली। टल गई क्या नाफदानी, पेडू पत्थर हो गया।—जानसाहब। ८. व्यवहार आदि में नियम या मर्यादा का पालन करना। अच्छा और ठीक आचरण करना। उदाहरण—(क) धरमु विचारि समुझि कुल रहई। (ख) हम जानति तुम यों नहिं रैहौ, रहियौ गारी खाय।-सूर। ९. बाधा। रूकावट आदि मानकर किसी बात से विरत होना। उदाहरण—चितवन रोकै हूँ न रही।—सूर। मुहावरा—(व्यक्ति का) रह जाना= (क) थककर या हिम्मत हारकर आगे काम या गति से विमुख होना। (ख) प्रतियोगिता आदि में विफल होना। (ग) परीक्षा आदि में अनुतीर्ण होना। जैसे—इस वर्ष प्रवेशिका परीक्षा में बहुत से लड़के रह गये। (शरीर के अंग का) रह जाना= (क) अधिक परिश्रम के कारण इतना थक जाना कि आगे काम न हो सके। बहुत ही शिथिल तथा स्तब्ध हो जाना। जैसे—लिखते-लिखते हाथ रह गया। (ख) रोग आदि के कारण निकम्मा या बे-काम हो जाना। जैसे—लकवे में उनका हाथ रह गया। १॰. अवशिष्ट रहना। बाकी बचना। जैसे—(क) अब तो सौ ही रुपए हाथ में रह गये हैं। (ख) और मकान तो बिक गये, यहीं एक रह गया है। पद—रहा-सहा। ११. पीछे छूट जाना। पिछड़ना। १२. क्रिया, गति, भोग आदि से रहित होना। जैसे—अब तो आप वहाँ जाने से भी रहे। १३. चुपचाप बैठे रहकर या बिना किये हुए समय बिताना। उदाहरण—समुझि चतुर चित बात यह रहत बिसूर-बिसूर।—रसनिधि। मुहावरा—रह जाना=बिना कुछ किये हुए चुपचाप या शांत भाव से समय बिताना। जैसे—हम तुम्हारे कहने पर रह गये, नहीं तो उसे मजा चखा देते। रहने देना= (क) जिस अवस्था में हो, उसी में छोड़ देना। हस्तक्षेप न करना। जैसे—तुम रहने दो मैं सबकर लूँगा। (ख) ध्यान न देना। उपेक्षापूर्वक छोड़ या जाने देना। जैसे—रहने दो, इन बातों में क्या रखा है। रह-रहकर=बीच-बीच में कुछ ठहर या रुककर। थोड़े-थोड़े अन्तर पर या थोड़ी-थोड़ी देर बाद। जैसे—रह-रहकर पेट (या सिर) में दरद होना। १४. लेन-देन आदि में किसी के जिम्मे कोई रकम बाकी निकलना। बाकी पड़ना। जैसे—कभी का तुम्हारा कुछ रहता हो। (या रह गया हो) तो बताओ।
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रहनि  : स्त्री०=रहन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहनी  : स्त्री०=रहन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहम  : पुं० [अ० रहम] १. करुणा। दया। २. अनुकंपा। अनुग्रह। पद—रहमदिल।
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रहमत  : स्त्री० [अ० रहमत] १. ईश्वरीय कृपा। २. कृपा। दया।
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रहमदिल  : वि० [अ० रहम+फा० दिल] करुणापूर्ण (व्यक्ति)। सहृदय।
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रहमान  : वि० [अ० रहमान] बहुत बड़ा दयालु। कृपालु। पुं० ईश्वर का एक नाम।
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रहर, रहरी  : स्त्री०=अरहर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहरू  : स्त्री० [पं० रिढना=घसिटना] छोटी देहाती गाड़ी, जिसमें किसान लोग पांस या खाद ढोते हैं। पुं० [फा०] रास्ता चलनेवाला। पथिक। बटोही।
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रहरेठा  : पुं० [हिं० अरहर] अरहर के पौधे का सूखा डंठल। कड़िया। रहठा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहल  : स्त्री० [अ०] एक विशेष प्रकार की छोटी चौकी जो आवश्यकतानुसार खोली या बन्द की जा सकती है और जिस पर पढ़ने के समय पुस्तक रखी जाती है।
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रहलूं  : स्त्री०=रहरु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहवाल  : पुं० [फा०] घोड़ा। स्त्री० घोड़े की चाल।
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रहस  : पुं० =रहस्। स्त्री०=रास (लीला)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहस-बधावा  : पुं० [हिं० रहस+बधाई] विवाह की एक रीति जिसमें नव-विवाहिता वधू को वर अपने साथ जनवासे में लाता है। वहाँ गुरुजन उसे देखते तथा उपहार देते हैं।
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रहसना  : अ० [हिं० रहस+ना (प्रत्यय)] आनंदित होना। प्रसन्न होना।
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रहसाना  : स० [सं० रहस्] प्रसन्न करना। प्रसन्न होना। उदाहरण—किछू डेराई किछू रहसाई।—नूरमोहम्मद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहसि  : स्त्री० [सं० रहस्] १. गुप्त स्थान। २. एकांत स्थान। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रहस्  : पुं० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+असुन्, ह-आदेश] १. गुप्त भेद। छिपी बात। २. गूढ़ तत्व या रहस्य। ३. क्रीड़ा। खेल। ४. आनन्द। सुख। ५. एकांत स्थान।
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रहस्य  : पुं० [सं० रहस्+यत्] १. वह बात जो सबको बतलाई न जा सकती हो, कुछ विशिष्ट लोग ही जिसे जानने के अधिकारी माने या समझे जाते हों। गुप्त या भेद की बात। २. किसी चीज या बात के अन्दर छिपा हुआ वह तत्त्व या बात जिसका पता ऊपर से यों ही देखने पर न चलता हो, और फलतः जिसे जानने या समझने के लिए कुछ विशिष्ट पात्रता, बुद्धि-योग्यता आदि की आवश्यकता होती हो। भेद। मर्म। राज। ३. किसी प्रकार या किसी रूप में अन्दर छिपी हुई बात। भेद (सीक्रेट)। क्रि० प्र०—खुलना।—खोलना। ४. आध्यात्मिक क्षेत्र में ईश्वर और उसकी सृष्टि के संबंध के वे गुप्त तत्त्व या भेद जो सब लोग नहीं जानते या नहीं जान सकते और जिनकी अनुभूति केवल सात्विक वृत्तिवाले लोगों के अंतःकरण में ही होती है। पद—रहस्यवाद (देखें)। ५. ऐसा तत्त्व जो केवल दीक्षा के द्वारा अधिकारियों या पात्रों को ही बतलाया जाता हो। ६. एक उपनिषद् का नाम। ७. हँसी-ठट्टा। परिहास। मजाक। वि० १. तत्त्व या विषय) जो सबको ज्ञात न हो अथवा बतलाया न जा सके। २. (कार्य) जो औरों से छिपाकर किया जाय।
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रहस्य-क्रीड़  : पुं० =रहस्य-क्रीड़ा।
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रहस्य-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एकांत में दूसरों की दृष्टि से दूर रहकर की जानेवाली क्रीड़ा। जैसे—नायक और नायिका की।
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रहस्य-सचिव  : पुं० =मर्म सचिव। (देखें)
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रहस्यवाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० रहस्यवादी] रहस्य (देखें) अर्थात् ईश्वर तथा सृष्टि के परम तत्त्व या सत्य पर आश्रित और सात्त्विक आत्मानुभूति से संबंध रखनेवाला एक वाद या सिद्धान्त (छायावाद से भिन्न) जो आध्यात्मिक तथा साहित्यिक क्षेत्रों में, परमात्मा के प्रति होनेवाले जीवात्मा के अनुराग या प्रेम के द्योतक का सूचक है। (मिस्टिसिज्म)। विशेष—प्रायः सभी कालों, जातियों और देशों में सात्त्विक वृत्तियोंवाले कुछ ऐसे लोग होते आये है, जो अपने समाज में प्रचलित धार्मिक सिद्धान्त नहीं मानते, और उनसे ऊपर उठकर उसी को आध्यात्मिक सत्य मानकर ईश्वर की उपासना करते हैं जो उनके अंतःकरण से स्फुरित होता है। ऐसे लोग प्रायः संसार से विमुख तथा विरक्त होकर जिस प्रकार अथवा जिस सिद्धान्त के आश्रित होकर परम सत्य का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते और लोक में उसका अभिव्यंजन करते हैं, वही साहित्य में रहस्यवाद कहलाता है। इसके मूल में मनुष्य की वह जिज्ञासा है जो उसके मन में सृष्टि उत्पन्न करनेवाली अलौकिक या लोकोत्तर शक्ति के प्रति उत्पन्न होती है और जिसके साथ वह तादात्म्य स्थापित करना चाहता है।
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रहस्यवादी (दिन्)  : वि० [सं० रहस्यवाद+इनि] रहस्यवाद संबंधी। रहस्यवाद का। पुं० वह जो रहस्यवाद के तत्त्व समझता अथवा उनके सिद्धान्तों का अनुकरण करता हो। रहस्यवाद का अनुयायी।
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रहस्या  : स्त्री० [सं० रहस्य+टाप्] १. एक प्राचीन नदी। (महा०) २. रासना। ३. पाठा।
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रहा-सहा  : वि० [हिं० रहना+सहना (अनु०)] [स्त्री० रही-सही] बहुत थोड़ा बाकी बचा हुआ। बचा-बचाया थोडा सा। जैसे—अब तो उनकी रही-सही प्रतिष्ठा भी नष्ट हो गई।
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रहाइश  : स्त्री०=रिहाइश।
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रहाई  : स्त्री० [हिं० रहना] १. रहने की क्रिया, ढंग या भाव। २. सुखपूर्वक रहने की अवस्था या भाव। ३. आराम। चैन। सुख। स्त्री० [फा०]=रिहाई।
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रहाऊ  : पुं० [हिं० रहना] गीत में का पहला पद। टेक। स्थायी। (पश्चिम)। वि० =रहतिया (माला)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहाना  : अ० [हिं० रहना] १. रहना। उदाहरण—उण बिन पल न रहाऊँ।—मीराँ। २. दोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहावना  : स्त्री० [हिं० रहना+आवन (प्रत्यय)] वह स्थान जहाँ गाँव भर के सब पशु एकत्र होकर रहते हों। रहुनिया।
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रहि  : स्त्री०=राह (रास्ता)।
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रहित  : वि० [सं०√रह् (त्याग)+क्त] [भाव० रहितत्व] १. समस्त पदों के अन्त में,...के बिना,...के विहीन। जैसे—धन रहित। २. अभावपूर्ण। ३. अलग तथा मुक्त।
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रहितत्व  : पुं० [सं० रहित+त्व] १. रहित होने की अवस्था या स्थिति। २. नियम, बंधन, भार आदि से मुक्त या रहित किये जाने का भाव (एग्जेम्पशन)।
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रहिम  : पुं० [अ०] रहम (गर्भाशय)।
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रहिला  : पुं० [?] चना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहीम  : वि० [अ०] जो रहम करता या तरस खाता हो। करुणावान् तथा दयालु। पुं० १. ईश्वर का एक नाम। २. अब्दुल रहीम खान खानाँ का साहित्यिक उपनाम।
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रहुआ  : पुं० [हिं० रहना] किसी के यहाँ पड़ा रहने तथा उसकी रोटियों पर पलनेवाला व्यक्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रहूगण  : पुं० [सं०] १. अंगिरस् गोत्र के अन्तर्गत एक शाखा या गण। (गौतम ऋषि इसी वंश के थे)। २. उक्त वंश का व्यक्ति।
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रा  : विभ०=का। उदाहरण—कामाणि करग सुबाण कामरा।—प्रिथीराज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राआ  : पुं०=राजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राइ  : पुं०=राय (राजा)। वि० सबसे बढ़कर। उत्तम। स्त्री०=राय (सम्मति)। स्त्री०=राजि (पंक्ति)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राइता  : पुं० =रायता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राइफ़ल  : स्त्री० [अ०] वह विशिष्ट प्रकार की बढ़िया बन्दूक जिसकी नली या नाल के अन्दर चक्करदार गराड़ियाँ बनी होती हैं और जिसकी गोली उन गराड़ियों में से चक्कर काटती हुई निकलती है। ऐसी बन्दूक की गोली दूर तक जाती, प्रायः निशाने पर ठीक लगती और घातक मार करती है।
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राइरंगा  : पुं० =रामदाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राई  : स्त्री० [सं० राजिका, प्रा० राइआ] १. एक प्रकार की बहुत छोटी सरसों जिसका स्वाद बहुत तीक्ष्ण होता है। पद—राई रत्ती करके=(क) छोटी से छोटी रकम या तौल का ध्यान रखते हुए। जैसे—राई रत्ती करके सारा मकान छान डालना। तुम्हारी आँखों में राई नोन=ईश्वर करे तुम्हारी बुरी नजर न लगने पावे। मुहावरा—राई काई करना= (क) बहुत छोटे-छोटे टुकडे कर डालना। (ख) पूरी तरह से कुचल या नष्ट कर देना। राई नोन (या लोन) उतारना=नजर लगे हुए बच्चे पर उतारा या टोटका करके राई और नमक आग में डालना, जिससे नजर के प्रभाव का दूर होना माना जाता है। (किसी पर) राई नोन फेरना=किसी सुंदर व्यक्ति को बुरी नजर से बचाने के लिए उसके सिर के चारों ओर से राई और नमक घुमाकर या उतारकर फेंकना। (एक प्रकार का टोटका)। राई से पर्वत करना= (क) जरा सी बात को बहुत बढ़ा देना। (ख) बहुत तुच्छ या हीन को बहुत बड़ा बनाना। २. बहुत थोड़ी मात्रा या परिमाण। जैसे—राई भर नमक और दे दो। स्त्री० [हिं० राइ] राइ अर्थात् राजा होने की अवस्था या भाव। राजापन। स्त्री० [?] १. एक प्रकार का नृत्य। २. वह मंडली जो उक्त नृत्य करती हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राउ  : पुं० राव (छोटा राजा)। स्त्री० [सं० रव] १. रव शब्द। २. मधुर शब्द। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राउत  : पुं० =रावत।
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राउर  : पुं० [सं० राज+पुर, प्रा० राय+उर] राजाओं के महल का अंतःपुर। रनवास। जनानखाना। वि० श्रीमान् का। आप का। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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राउल  : पुं० =रावल (छोटा राजा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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राँक  : वि० =रंक (दरिद्र)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राँकड़  : स्त्री० [देश] कम उपजाऊ भूमि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रांकव  : पुं० [सं० रकु+अण्] रंक नामक भेड़ या मृग के रोओं का बना हुआ वस्त्र।
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राकस  : पुं० [स्त्री० राकसिन, राकसी]=राक्षस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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राकस ताल  : पुं० =राक्षस ताल।
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राकस-पत्ता  : पुं० [हिं० राकस=राक्षस+हिं० पत्ता] जंगली घीकुँआर जिसे काँटल और बबूर भी कहते हैं।
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राकसगद्दा  : पुं० [हिं० राकस+गद्दा] कदंब नामक बेल और उसकी जड़।
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राकसिन  : स्त्री०=राक्षसी।
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राकसी  : वि० स्त्री०=राक्षसी।
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राका  : स्त्री० [सं०√रा (दान)+क+टाप्] १. पूर्णिमा की रात। २. पूर्णिमा या पूर्णमासी का दिन अथवा पर्व। ३. खुजली नामक रोग। ४. युवती जिसे पहले-पहल रजोदर्शन हुआ हो।
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राकापति  : पुं० [सं० ष० त०] चंद्रमा।
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राकिम  : वि० [अ०] लिखनेवाला लेखक।
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राकेश  : पुं० [सं० राका-ईश, ष० त०] चंद्रमा।
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राक्षस  : पुं० [सं० रक्षस्+अण्] [स्त्री० राक्षसी] १. असुरों आदि की तरह की एक बहुत ही भीषण तथा विकराल योनि। इस योनि के व्यक्ति बहुत ही अत्याचारी क्रूर, और नृशंस कहे गये हैं, और कुबेर के धनकोश के रक्षक कहे गये हैं। दैत्य। निशिचर। निश्चर। २. आठ प्रकार के विवाहों में से एक प्रकार का विवाह जो राक्षसों में प्रचलित था और जिसमें लोग कन्या को जबर्दस्ती उठा ले जाते और उससे विवाह कर लेते थे। ३. बहुत ही दुष्ट प्रकृति का और निर्दय व्यक्ति। ४. साठ संवत्सरों में से उनचासवाँ संवत्सर। ५. वैद्यक में गंधक और पारे के योग से बननेवाला एक प्रकार का रसौषध।
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राक्षस-ताल  : पुं० [हिं०] तिब्बत की एक झील। रावण-ह्रद। मानतलाई।
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राक्षसी  : स्त्री० [सं० राक्षस+ङीष्] १. राक्षस की स्त्री। २. राक्षस स्त्री। दुष्ट, क्रूर स्वभाववाली स्त्री। वि० १. राक्षस का। राक्षस संबंधी। २. राक्षसों की तरह का। अमानुषिक तथा निर्दयतापूर्ण। जैसे—राक्षसी अत्याचार।
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राख  : स्त्री० [सं० रक्षा] किसी बिलकुल जले हुए पदार्थ का अवशेष। भस्म। राख। जैसे—कोयले की राख।
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राखना  : स० [सं० रक्षण] १. किसी से कोई बात छिपाना। कपट करना। २. रोक रखना। जाने न देना। ३. किसी पर कोई अभियोग लगाना या आरोप करना। ४. दे० ‘रखना’। ५. दे० ‘रखाना’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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राखी  : स्त्री० [सं० रक्षा] रक्षा-बंधन के दिन बहन द्वारा भाई को और ब्राह्मण द्वारा यजमान को बाँधा जानेवाला सूत्र। क्रि० प्र०—बांधना। स्त्री० १. =राख (भस्म)। २. =रखवाली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राखीबंद  : वि० [हिं० राखी+सं० बंध] १. (पुरुष) जिसे किसी स्त्री ने राखी बाँधकर अपना भाई या भाई के समान बना लिया हो। २. (स्त्री) जो किसी पुरुष को राखी बाँधती हो, और इस प्रकार उसकी बहन बन गई हो।
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राँग  : पुं० =राँगा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रांग  : वि० [सं० रंग+अण्] १. रंग-सम्बन्धी। रंग या रंगों का। जैसे—रांग-विन्यास। २. रंगों से युक्त। रंगीन।
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राग  : पुं० [सं०√रञ्ज् (रंगना)+घञ्] १. किसी चीज को रंग से युक्त करने की क्रिया या भाव। रंजित करना। रँगना। २. रँगने का पदार्थ या मसाला। रंग। ३. लाल रंग। ४. लाल होने की अवस्था या भाव। लाली। ५. प्राचीन भारत में, शरीर में लगाने का वह सुगंधित लेप जो कपूर, कस्तूरी, चंदन आदि से बनाया जाता था। अंगराग। ६. पैर में लगाने का आलता। ७. किसी के प्रति होनेवाला अनुराग या प्रेम। ८. किसी अच्छी चीज या बात के प्रति होनेवाला अनुराग, और उसे प्राप्त करने की इच्छा या कामना। अभिमत या प्रिय वस्तु पाने की अभिलाषा। ९. मन में रहनेवाली सुखद अनुभूति। १॰. खूबसूरती। सुंदरता। ११. क्रोध। गुस्सा। १२. कष्ट। तकलीफ। पीड़ा। १३. ईर्ष्या। द्वेष। मत्सर। १४. मन प्रसन्न करने की क्रिया या मनोरंजन। १५. राजा। १६. सूर्य। १७. चंद्रमा। १८. भारत के शास्त्रीय संगीत में वह विशिष्ट गान-प्रकार, जिसका स्वरूप स्वरों के उतार-चढ़ाव के विचार से निश्चित किया हुआ और ताल लय आदि विशिष्ट अंगों तथा उपांगों से युक्त होता है। विशेष—आरंभ में भरत और हनुमत् के मत से ये छः मुख्य राग निरूपति हुए थे।—भैरव, कौशिक (मालकौस) हिंडोल, दीपक, श्री और मेघ। कुछ परिवर्ती आचार्यों के मत से श्री, वसंत, पंचम, भैरव, मेघ और नट नारायण तथा कुछ आचार्यों के मत से मालव, मल्लार, श्री, वसंत, हिंडोल और कर्णाट ये ६ राग है। परवर्ती आचार्यों ने प्रत्येक की ६-६ रागिनियाँ और ६-६ पुत्र भी माने थे, और वे सब पुत्र भी राग कहलाने लगे थे। ये रागिनियाँ और राग अपने मूल या जनक राग की छाया से बहुत कुछ युक्त होते हैं। आगे चलकर सैकड़ों नई रागिनियाँ तथा राग बने थे, जिनकी स्वर-योजना आदि बहुत कुछ निरुपति तथा निश्चित है। इन सबकी गणना शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत होती है, और लोक में इन्हें पक्का गाना कहते हैं। मुहावरा—अपना राग अलापना=अपनी ही बात कहना। अपने ही विचार प्रकट करना। दूसरों की बात न सुनना। १९. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १३ अक्षर (र, ज, र, ज और ग) होते हैं।
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राग-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] गुल-दुपहरिया नामक पौधा और उसका फूल।
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राग-पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स+ङीप्] जवा या जपा नामक फूल और उसका पौधा।
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राग-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] कोई ऐसा गीत या गेय पद जिसमें एक साथ कई शास्त्रीय रागों का प्रयोग किया गया हो।
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राग-रंग  : पुं० [सं० द्व० स०] १. आनंद-मंगल। २. कोई ऐसा उत्सव जिसमें आनंद-मंगल मनाया जाता हो।
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राग-रज्जु  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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राग-लता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कामदेव की स्त्री, रति।
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राग-षाडव  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. अंगूर तथा अनार के योग से बनाया जानेवाला एक तरह का खाद्य। २. आम का मुरब्बा।
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राग-सागर  : पुं० [सं० स० त०] कोई ऐसा गेय पद या जिसमें एक साथ बहुत से शास्त्रीय रागो का प्रयोग किया जाता हो।
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रागचूर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] १. कामदेव। २. खैर का पेड़।
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रागच्छन्न  : पुं० [सं० तृ० त०] १. कामदेव। २. श्रीरामचन्द्र।
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राँगड़  : पुं० [?] मुसलमान राजपूतों की एक जाति।
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राँगड़ी  : स्त्री० [हिं० राँगड़] १. दक्षिणी-पश्चिमी मालव तथा मेवाड़ के आस-पास की प्रांतीय बोली या विभाषा। २. पंजाब में होनेवाला एक प्रकार का चावल।
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रागदारी  : स्त्री० [हिं० राग+फा० दारी] गाने का वह प्रकार जिसमें भारत से शास्त्रीय संगीत-शास्त्र के नियमों का ठीक तरह से पालन होता हो। ठीक तरह से राग-रागिनियाँ गाने की क्रिया या प्रकार। विशेष—इसमें गीत के बोलों के ताल-बद्ध उच्चारण भी होते हैं और शास्त्रीय दृष्टि से तीन पलटे भी होते हैं।
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रागद्रव्य  : पुं० [सं० ष० त०] राग।
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रागधर  : पुं० =शारंगधर (विष्णु) उदाहरण—तुलसी तेरो रागधर, तात, मात गुरुदेव।—तुलसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रागना  : अ० [सं० राग] १. रँगा जाना। रंजित होना। २. किसी के प्रति अनुरक्त होना। ३. किसी काम या बात में निमग्न या लीन होना। स० १. रँगना। २. प्रयत्न करना। ३. अनुरक्त करना। स० [हिं० राग] १. गीत आदि गाना। २. राग अलापना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रागसारा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] मैनसिल (खनिज पदार्थ)।
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राँगा  : पुं० [सं० रंग] सफेद रंग की एक प्रसिद्ध धातु जो अपेक्षया नरम या मुलायम होती है।
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रागांगी  : स्त्री० [सं० राग-अंग, ब० स०+ङीष् ] मजीठ। (लता)।
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रागान्वित  : वि० [सं० राग-अन्वित, तृ० त०] १. जिसे राग या प्रेम हो। २. क्रोध से युक्त। क्रुद्ध। ३. अप्रसन्न। नाराज।
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रागारुण  : वि० [सं० राग-अरुण, तृ० त०] तो किसी प्रकार के राग, रंग, प्रेम आदि के कारण अरुण या लाल हो रहा हो। उदाहरण—मधुर माधवी संध्या में जब रागारुण रवि होता अस्त।—पंत।
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रागिनी  : वि० [सं० रागिनी] १. संगीत में किसी राग की पत्नी। २. भारतीय शास्त्रीय संगीत में कोई ऐसा छोटा राग जिसके स्वरों के उतार-चढ़ाव आदि का स्वरूप निश्चित और स्थिर हो। ३. चतुर और विदग्धा स्त्री। ४. मेना की बड़ी कन्या का नाम। ५. जय श्री नामक लक्ष्मी।
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रागिब  : वि० [अ०] १. इच्छुक। २. प्रवृत्त।
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रागी (गिन्)  : वि० [सं०√रंज्+घिनुण, वा राग+इनि] [स्त्री० रागिनी] १. राग से युक्त। २. रँगा हुआ। ३. रेंगनेवाला। ४. किसी के प्रति अनुरक्त या आसक्त। ५. लाल सुर्ख। ६. विषयवासना में पड़ा या फँसा हुआ। पुं० [सं० रागिन्] [स्त्री० रागिनी] १. अशोक वृक्ष। २. छः मात्राओं वाले छंदों का नाम। पुं० [हिं० राग+ई (प्रत्यय)] वह गवैया जो राग-रागिनियाँ गाता हो। शास्त्रीय संगीत का ज्ञाता। (पंजाब)। स्त्री० [?] मँडुआ या मकरा नामक कदन्न। स्त्री०=राज्ञी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रागेश्वरी  : स्त्री० [सं० राग-ईश्वरी, ष० त०] संगीत में खम्माच ठाठ की एक रागिनी।
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राघव  : पुं० [सं० रघु+अण्] १. रघु के वंश में उत्पन्न व्यक्ति। २. श्रीरामचन्द्र। ३. दशरथ। ४. अज। ५. एक प्रकार की बहुत बड़ी समुद्री मछली।
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राँच  : वि० =रंच (तनिक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राँचना  : अ० [सं० रंजन] १. रंग से युक्त होना। रंग पकड़ना। २. किसी के प्रेम में अनुरक्त होना। स० १. किसी को अपने प्रेम में अनुरक्त करना। २. रंग से युक्त करना रँगना। स०=रचना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राचना  : स० [हिं० रचना] रचना करना। बनाना। अ० रचा या बनाया जाना। बनना। स० [सं० रंजन] रंग से युक्त करना। रँगना। अ० १. रंग से युक्त होना। रँगा जाना। २. किसी के प्रेम में पड़ना। अनुरक्त होना। ३. किसी काम या बात में मग्न या लीन होना। ४. प्रसन्न होना। ५. भला लगना। फबना। ६. सोच में पड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राछ  : स्त्री० [सं० रक्ष] १. कारीगरों का औजार। उपकरण। २. लकड़ी के अंदर का ठोस और पक्का अंश। हीर। ३. जुलाहों के करघों में का कंघी नामक उपकरण जिसकी सहायता से ताने के सूत ऊपर उठने और नीचे गिरते हैं। ४. बरात। मुहावरा—विवाह के समय वर को पालकी पर चढ़ाकर किसी जलाशय या कुएँ की परिक्रमा कराना। ५. जुलूस। ६. वह खूँटा जिसके चारों ओर चक्की या जाँते का ऊपरी पाट घुमता या घुमाया जाता है। ७. हथौड़ा। ८. बुदेलखंड में श्रावण मास में गाये जानेवाले एक प्रकार के गीत।
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राछ-बँधिया  : पुं० [हिं० राछ+बाँधना] वह जो जुलाहे के साथ रहकर राछ बाँधने का काम करता हो।
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राछछ  : पुं०=राक्षस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राछस  : पुं० =राक्षस। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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राज  : पुं० [सं० राज्य] १. राजा के अधिकार में रहने वाले क्षेत्र या भूखंड। राज्य। २. राजकीय शासन हुकूमत। ३. राजाओं का सा वैभव और सुख तथा उसका भोग। मुहावरा—राज रजना= (क) राज्य का शासन करना। (ख) राजाओं की तरह रहकर सब प्रकार के सुख भोगना। (किसी का) राज रजाना=राजाओं की तरह बहुत अधिक सुखपूर्वक रखना या सुख-भोग कराना। ४. किसी क्षेत्र या विषय में होनेवाले किसी का पूरा अधिकार। जैसे—आज कल तो पेशेवर नेताओं का राज है। ५. किसी के पूर्ण अधिकार या स्वामित्व की पूरी अवधि या काल। जैसे—मैं तो पिता जी के राज में सब सुख भोग चुका। वि० १. ‘राजा’ का वह संक्षिप्त रूप जो यौगिक के आरंभ में लगाकर नीचे लिखे अर्थ देता है। (क) राज-संबंधी या राजा का। जैसे—राज-गुरु, राज-महल। (ख) प्रधान या मुख्य। जैसे—राजवैद्य। (ग) बहुत बड़ा या बड़िया। जैसे—राजहंस। २. राज या शासन संबंधी। जैसे—राजनीति। सर्व० राजाओं या बड़ों के लिए एक प्रकार का संबोधन। उदाहरण—राज लगैं मेल्हियौ रुषमणि।—प्रिथीराज। पुं० [सं० राजन्] १. राजा। २. वह मिस्त्री जो ईटों की जुड़ाई तथा पलस्तर आदि करता हो। मकान बनानेवाला कारीगर। पुं० [फा० राज] गुप्त या छिपी हुई बात। भेद। रहस्य।
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राज-कथा  : स्त्री० [सं० ष० त०] राजाओं का इतिहास या तवारीख।
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राज-कदंब  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] कदंब की एक जाति।
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राज-कन्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राजा की पुत्री। राजकुमारी। २. केवड़े का फूल।
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राज-कर्ण  : पुं० [सं० ष० त०] हाथी की सूँड़।
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राज-गिद्ध  : पुं० [सं० राज-गृध्र] काले चमकीले रंग का एक प्रकार का गिद्ध जो प्रायः अकेला ही रहता है।
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राज-घड़ियाल  : पुं० [हिं० राज+घड़ियाल] मध्य युग में एक प्रकार का समय-सूचक यंत्र जिसमें निश्चित समयों पर घडियाल या घंटा भी बजता था। उदाहरण—नव पौरी पर दसँव दुआरा। तेहि पर बाज राजघरियारा।—जायसी।
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राज-चिन्हक  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात+कन्] शिश्न। उपस्थ।
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राज-तरुणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सफेद तथा बड़े फूलोंवाली एक तरह की गुलाब की लता। २. बड़ी सेवती।
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राज-तिलक  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा को लगाया जानेवाला तिलक। २. विशेषतः राज्या-रोहण के समय राजा को लगाया जानेवाला तिलक। ३. वह उत्सव जो नये राजा को सिंहासन पर बैठाकर तिलक लगाने के अवसर पर होता है।
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राज-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा के हाथ में रहनेवाला वह दंड या डंडा जो उसके शासक होने का प्रतीक होता है। २. राजा या राज्य के द्वारा अपराधियों, दोषियों आदि को मिलनेवाला दंड या सजा।
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राज-दंत  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] दाँतों की पंक्ति के बीच का वह दांत जो और दांतों से कुछ बड़ा और चौड़ा होता है। चौका।
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राज-दारिका  : स्त्री०=राज-पुत्री।
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राज-दूत  : पुं० [सं० ष० त०] किसी राजा या राज्य का वह दूत जो दूसरे राजा के यहाँ या राज्य में अपने राजा या राज्य का प्रतिनिधित्व करता है।
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राज-द्रुम  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] अमलतास।
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राज-द्वार  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा के महल का द्वार। राजा की ड्योढ़ी। २. राजा के दरबार जहाँ अपराधियों का न्यास होता था। ३. कचहरी। न्यायालय।
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राज-धर्म  : पुं० [सं० ष० त०] राजा का कर्त्तव्य या धर्म। जैसे—प्रजा का पालन, शत्रु से देश की रक्षा, देश में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना आदि।
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राज-धान्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का धान। श्यामा।
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राज-नय  : पुं० [सं० ष० त०] राजनीति।
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राज-नीति  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] काँसा।
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राज-पट्ट  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा का सिंहासन। २. चुंबक पत्थर।
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राज-पति  : पुं० [सं० ष० त०] राजाओं का राजा। सम्राट।
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राज-पत्नी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राजा की स्त्री। रानी। २. पीतल नामक धातु।
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राज-पथ  : पुं० [सं० ष० त०] राजमार्ग। (दे०)
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राज-पद्धति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राजपथ। २. राजनीति।
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राज-पलाडुं  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] लाल छिलकनेवाला प्याज।
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राज-पाट  : पुं० [सं० राजपट्ट] १. राजा का सिंहासन और राज्य। २. राजा के अधिकार तथा कर्त्तव्य। ३. राज्य का शासन-प्रबंध।
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राज-पाल  : पुं० [सं० राजन्√पाल्+अच्] वह जिससे राजा या राज्य की रक्षा हो। जैसे सेना आदि। पुं० =राज्यपाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राज-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा का पुत्र या बेटा। राजकुमार। २. प्राचीन भारत की एक वर्णसंकर जाति जिसकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और कर्ण की माता से कही गई है। ३. एक प्रकार का बड़ा आम। ४. बुध ग्रह।
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राज-पुत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] राजमाता।
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राज-पुत्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राजा की बेटी या लड़की। राजकुमारी। २. रेणुका का एक नाम। ३. कडुआ कद्दू। ४. जाती या जाही नामक पौधा और उसका फूल। ५. मालती। ६. छछूँदर।
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राज-पुरुष  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य का कोई प्रधान अधिकारी या कार्यकर्ता। राजकर्मचारी।
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राज-पुष्प  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] १. नागकेसर। २. कनक चंपा।
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राज-पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] १. वन-मल्लिका। २. जाती या जाही। ३. कोंकण प्रदेश में होनेवाला करुणी नामक पौधा और उसका फूल।
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राज-पूजित  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसकी जीविका का प्रबंध राजा या राज्य करता हो। पुं० ब्राह्मण।
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राज-पूज्य  : पुं० [सं० ष० त०] सुवर्ण। सोना। वि० राजा या राज्य जिसे आदरणीय और पूज्य समझता हो।
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राज-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजपलांडु। २. कोंकण का करुणी नामक पौधा और उसका फूल। ३. लाल धान। ४. लाल प्याज।
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राज-प्रेष्य  : पुं० [सं० ष० त०] राजकर्मचारी।
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राज-फल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पटोल। परवल। २. बड़ा और बढ़िया आम। ३. खिरनी।
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राज-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] जामुन।
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राज-बहा  : पुं० [हिं० राज+बहना] वह प्रधान या बड़ी नहर जिससे अनेक छोटी छोटी नहरें खेतों को सींचने के लिए निकाली जाती हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राज-बाड़ी  : स्त्री० [सं० राजवाटिका] १. राजा की वाटिका। राजवाटिका। २. राजा के रहने का महल।
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राज-बाहा  : पुं० =राज-बहा।
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राज-भक्त  : वि० [सं० प० त०] [भाव० राजभक्ति] जो अपने राजा या राज्य के प्रति भक्ति तथा निष्ठा रखता हो।
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राज-भक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] राजा या राज्य के प्रति भक्ति अर्थात् निष्ठा और श्रद्धा।
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राज-भट्टिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्रकार का जलपक्षी। गोभांडीर। पकरीट।
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राज-भंडार  : पुं० [सं० राजभंडार] राजा या राज्य का कोश या खजाना।
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राज-भवन  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह भवन जिसमें राजा या राज्य का प्रधान अधिकारी निवास करता हो। २. राजमहल। प्रासाद। ३. वह सरकारी भवन जिसमें राजपाल रहते हों। ३. सरकारी अधिकारियों के अतिथि के रूप में ठहरने के लिए बना हुआ भवन।
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राज-भूत्य  : पुं० [सं० ष० त०] राजा के वेतनभोगी भृत्य।
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राज-भोग  : पुं० [सं० राजभोग्य] १. एक प्रकार का बढ़िया महीन चावल। २. एक प्रकार का बढ़िया आम।
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राज-भोग्य  : पुं० [सं० तृ० त०] १. जावित्री। २. चिरौंजी। पयाल। ३. एक प्रकार का धान। वि० जिसके भोग राजा लोग करते हों।
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राज-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] किसी राज्य के आसपास तथा चारों ओर के राजाओं का मंडल या उनका समाहार।
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राज-मंडूक  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] एक प्रकार का बड़ा मेढ़क। महामंडूक।
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राज-मराल  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] राजहंस।
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राज-मर्मज्ञ  : पुं० [सं०] वह जो राज्य के शासन की सभी सूक्ष्म बातें अच्छी तरह समझता हो और राज्य-संचालन के कार्यों में दक्ष हो। (स्टेट्समैन)
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राज-महल  : पुं० [हिं० राज+महल] १. राजा के रहने का महल। राजप्रासाद। २. बंगाल के सन्थाल परगने के पास का एक पर्वत।
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राज-महिषी  : स्त्री० [सं० ष० त०] पट्टरानी।
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राज-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजधानी अथवा किसी प्रमुख नगर की सबसे बड़ी और चौड़ी सड़क। २. विशेषतः वह चौड़ी सड़क जो राजभवन को जाती हो।
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राज-माष  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] काली उरद। कालामाष।
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राज-माष्य  : पुं० [सं० राजमाष+यत्] वह खेत जिसमें माष बोया जाता हो। मलार।
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राज-मुद्ग  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] सुनहले रंग का एक प्रकार का मूँग, जो बहुत स्वादिष्ट होता है।
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राज-मुद्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सरकारी मोहर। २. उक्त मोहर की छाप।
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राज-मुनि  : पुं० [सं० उपमित० स०] राजर्षि।
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राज-मृगांक  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो यक्ष्मा रोग में उपकारी माना जाता है।
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राज-यक्ष्मा (क्ष्मन्)  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] क्षय या यक्ष्मा नामक रोग तपेदिक।
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राज-यक्ष्मी (क्ष्मिन्)  : वि० [सं० राजयक्ष्मन्+इनि] जिसे राजयक्ष्मा रोग हुआ हो। क्षय रोग से पीड़ित (रोगी)।
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राज-यान  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्राचीन काल में वह रथ जिस पर राजा की सवारी निकलती थी। २. राज-मार्ग पर निकलनेवाली राजा की सवारी। ३. पालकी, जिस पर पहले केवल राजा लोग चलते थे।
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राज-योग  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] १. वह मूल योग जिसका प्रतिपादन पतंजलि ने योगशास्त्र में किया है। अष्टांग योग। २. फलित ज्योतिष के अनुसार कुछ विशिष्ट ग्रहों का योग जिसके जन्म-कुंडली में पड़ने से मनुष्य राजा या राजा के तुल्य होता है।
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राज-योग्य  : पुं० [सं० ष० त०] चंदन।
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राज-रंग  : पुं० [सं० मध्य० स०] चाँदी।
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राज-रथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा की सवारी का रथ। २. बहुत बड़ा रथ।
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राज-राज  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजाओं का राजा। अधिराज। महाराज। २. कुबेर। ३, सम्राट।
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राज-राजेश्वर  : पुं० [सं० राजराज-ईश्वर, ष० त०] [स्त्री० राजराजेश्वरी] १. राजाओं का राजा। अधिराज। महाराज। २. वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध जिसका प्रयोग दाद, कुष्ठ आदि रोगों में होता है।
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राज-राजेश्वरी  : स्त्री० [सं० राजराज-ईश्वरी, ष० त०] १. राजराजेश्वर की पत्नी। महाराज्ञी। २. दस महाविद्याओं में से एक का नाम। भुवनेश्वरी।
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राज-रानी  : स्त्री० [हिं०] १. राजा का रानी २. बहुत ही सम्पन्न और सुखी स्त्री।
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राज-रोग  : पुं० [ष० त० परनिपात] ऐसा रोग जिससे पीछे छूटना असंभव हो। असाध्य रोग। जैसे—यक्ष्मा, लकवा, श्वास आदि।
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राज-लक्षण  : पुं० [सं० ष० त०] सामुद्रिक के अनुसार शरीर के वे चिन्ह या लक्षण जो इस बात के सूचक होते हैं कि उनका धारणकर्ता राजा बनेगा।
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राज-लक्ष्मा (क्ष्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह मनुष्य जिसमें सामुद्रिक के अनुसार राजाओं के लक्षण हों। राज-लक्षण से युक्त पुरुष। २. युधिष्ठिर का एक नाम।
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राज-लक्ष्मी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राजाओं या राज्य का वैभव। राजश्री। २. राजा या राज्य की शोभा और संपदा।
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राज-वर्चा (र्चस्)  : पुं० [सं० ष० त०] राजा का पद और शक्ति।
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राज-वर्त्म (र्त्मन)  : पुं० [सं० ष० त०] राजमार्ग। राजपथ।
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राज-वल्ली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] करेले की लता।
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राज-वंश  : पुं० [सं० ष० त०] राजा का कुल। राजकुल।
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राज-वंश्य  : वि०=राजवंशी।
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राज-वसति  : स्त्री० [सं० ष० त०] राजा का महल। राजभवन।
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राज-वि  : पुं० [सं० ष० त०] नीलकंठ।
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राज-विजय  : पुं० [सं० ष० त०] संपूर्ण जाति का एक राग (संगीत)।
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राज-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राज्य के शासन संबंधी ज्ञातव्य बातें। २. राजनीति।
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राज-विद्रोह  : पुं० [सं० ष० त०] राजा या राज्य के प्रति किया जानेवाला विद्रोह जो भीषण अपराध माना गया है। राजद्रोह। बगावत।
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राज-विद्रोही (हिन)  : पुं० [सं० राजविद्रोह=इनि] राजा या राज्य के प्रति विद्रोह करनेवाला व्यक्ति। बागी।
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राज-विनोद  : पुं० [सं० ष० त०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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राज-वीथी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राजमार्ग। राजपथ। चौड़ी सड़क। २. प्राचीन भारत में वह गली या छोटी सड़क जो आकर राजमार्ग में मिली थी।
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राज-शाक  : पुं० [सं० स० त० परनिपात वा मध्य स] वास्तुक शाक। बथुआ।
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राज-शालि  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का जड़हन धान जिसे राजभोग्य या राजभोग भी कहते हैं। इसका चावल बहुत महीन और सुगंधित होता है।
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राज-शिंबी  : स्त्री० [सं० ष० त०, परनिपात] एक प्रकार की सेम जो चौड़ी और गूदेदार होती है।
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राज-शुक  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] एक प्रकार का लाल रंग तोता। नूरी।
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राज-श्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] राजा का ऐश्वर्य या वैभव। राज-लक्ष्मी।
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राज-सत्ता  : स्त्री० [सं० ष० त०] राजशक्ति। राजा या राज्य के हाथ में होनेवाली सत्ता या शक्ति।
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राज-सभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राजा की सभा। दरबार। २. बहुत से राजाओं की सभा या मजलिस।
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राज-समाज  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा का दरबार। राज-दरबार। २. राजाओं की सभा, वर्ग या समूह।
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राज-सर्प  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] एक प्रकार का बडा साँप। भुजंग-भोजी।
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राज-सर्षण  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] राई।
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राज-संसद  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजसभा। २. वह दरबार जिसमें राजा स्वयं बैठकर अभियोगों का न्याय करता हो।
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राज-सायुज्य  : पुं० [सं० ष० त०] राजस्व।
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राज-सारस  : पुं० [सं० ष० त०] मयूर। मोर।
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राज-सिंहासन  : पुं० [सं० ष० त०] वह सिंहासन जिस पर राजा दरबार में बैठता है। राजगद्दी।
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राज-स्कंध  : पुं० [सं० ष० त०] घोड़ा।
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राज-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] गणतन्त्र भारत में पश्चिमोत्तर का एक राज्य जिसकी राजधानी जयपुर में है और जिसमें पुराना राजपूताना अन्तर्भुक्त है।
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राज-स्वर्ण  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] राजधर्तूरक। राजधतूरा।
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राज-स्वामी (मिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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राज-हर्म्य  : पुं० [सं० ष० त०] राजप्रसाद। राजमहल।
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राज-हंस  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] [स्त्री० राजहंसी] १. एक प्रकार का हंस। २. संगीत में एक प्रकार का संकर राग जो मालव, श्रीराग पुं० मनोहर राग के मेल से बनता है।
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राजक  : वि० [सं०√राज् (दीप्ति)+ण्वुल-अक] प्रकाशमान्। चमकानेवाला। पुं० [राजन्+कन्] १. राजा। २. काला अगरु।
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राजकर  : पुं० [सं० मध्य० स०] राजा या राज्य की ओर से लगाया हुआ कर।
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राजकर्कटी  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्रकार की बड़ी ककड़ी।
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राजकर्ता  : पुं० न १. वह जो किसी को राजगद्दी पर बैठाता हो। २. फलतः ऐसा व्यक्ति जिसमें किसी को राजगद्दी पर बैठाने तथा उतारने की भी सामर्थ्य हो। ३. वह जो राजा या शासन-सम्बन्धी बड़े और महत्त्वपूर्ण कार्य करता हो।
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राजकर्म (र्मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा के कृत्य। २. राजा के कर्त्तव्य।
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राजकला  : स्त्री० [सं० ष० त०] चंद्रमा की सोलह कलाओं में से एक।
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राजकल्याण  : पुं० [सं०] संगीत में कल्याण राग का एक प्रकार का भेद।
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राजकशेरु  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] नागरमोथा।
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राजकाज  : पुं० [सं० राजकार्य] राज्य या शासन के प्रतिदिन के या महत्त्वपूर्ण काम।
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राजकीय  : वि० [सं० राजन्+छ-ईय, कुक्-आगम] राज्य संबंधी। राज्य का। जैसे—राजकीय अधिकारी।
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राजकीय-समाजवाद  : पुं० [सं०] आधुनिक समाजवाद की वह शाखा जिसका मुख्य सिद्धांत यह है कि लोकोपयोगी कल-कारखाने और शिल्प राज्य के अधिकार और नियंत्रण में रहने चाहिए। स्टेट सोशलिज्म।
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राजकुँअर  : पुं० =राजकुमार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राजकुमार  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० राजकुमारी] राजा का पुत्र।
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राजकुल  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा का कुल या वंश। २. प्रसाद। ३. न्यायालय।
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राजकोल  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] बड़ा बेर (फल) और उसका पेड़।
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राजकोलाहल  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] संगीत में ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक।
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राजकोष  : पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ राजकीय धनसंपत्ति सुरक्षित रूप में रखी जाती है। सरकारी खजाना। २. आज-कल प्रमुख नगरों में वह विशिष्ट स्थान जहाँ से राज्य के आर्थिक लेन-देन के सब काम होते हैं। (ट्रेजरी)।
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राजकोषातक  : पुं० [सं० ष० त०, परनिपात] बड़ी तरोई। बड़ा नेनुआ।
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राजखर्जूरी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] पिंडखजूर।
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राजग  : वि० पुं० =राजगामी (दे०)।
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राजगद्दी  : स्त्री० [हिं० राजा+गद्दी] १. वह आसन या गद्दी जिस पर राजा बैठता है। राजसिंहासन। २. वह अधिकार जो उक्त आसन पर बैठने पर प्राप्त होता है। ३. नये राजा के पहले पहल गद्दी पर बैठने के समय का उत्सव तथा दूसरे कृत्य। राज्याभिषेक। राज्यारोहण। ४. लाक्षणिक अर्थ में बहुत बड़ा अधिकार। (व्यंग्य)।
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राजगामी  : वि० [सं०] (संपत्ति) जो उत्तराधिकारी के अभाव में राज्य या शासन के अधिकार में आ जाय। पुं० ऐसी संपत्ति जो उत्तराधिकारी के अभाव में राज्य के अधिकार में आ गई हो। नजूल। (एस्चीट)
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राजगिरि  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. मगध देश का पर्वत। २. बथुआ नामक साग। ३. दे० ‘राजगृह’।
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राजगी  : स्त्री० [हिं० राजा+गी (प्रत्यय)] राजा होने की अवस्था, पद या भाव। राजत्व। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राजगीर  : पुं० [हिं० राज+फा० गीर] [भाव० राजगीरी] मकान बनानेवाला कारीगर। राज। थवई।
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राजगीरी  : स्त्री० [हिं० राजगीर+ई (प्रत्यय)] राजगीर का कार्य या पद।
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राजगृह  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा के रहने का महल। राज-प्रसाद। २. बिहार में पटने के पास का एक प्रसिद्ध प्राचीन स्थान जिसे पहले गिरिवज्र कहते थे।
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राजघ  : वि० [सं० राजन्√हन् (हिंसा)+क] १. राजा को मार डालनेवाला। राजा की हत्या करनेवाला। २. बहुत तीव्र या तेज।
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राजचंपक  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] पुन्नाग का फूल। सुलताना चंपा।
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राजचार  : पुं० [सं० राजाचार] राजाओं के यहाँ किये जाने या होनेवाले आचार-व्यवहार। उदाहरण—मैं भाँवरि नेवछावरि, राजचार सब कीन्ह।—जायसी।
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राजचूड़ामणि  : पुं० [सं० ष० त०] ताल के साठ भेदों में से एक।
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राजजंबू  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] १. बड़ा जामुन। फरेंदा। जामुन। २. पिंड खजूर।
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राजजीरक  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] एक प्रकार का जीरा।
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राजजीवी (जिन)  : वि० [सं० राजन-बीज, ष० त०+इनि] राजवंशी।
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राजत  : वि० [सं० रजत+अण्] १. रजत संबंधी। चाँदी का। २. रजत या चांदी का बना हुआ। पुं० रजत (चाँदी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राजतंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. ऐसा राज्य या शासन जिसमें सारी सत्ता एक राजा के हाथ में हो। (मॉनर्की) २. वह पद्धति या प्रणाली जिसके अनुसार उक्त प्रकार का शासन होता है। ३. राज्य के शासन करने के नियम, प्रकार या सिद्धान्त। (पॉलिटी)।
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राजतरंगिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] कल्हण कृत काश्मीर का एक प्रसिद्ध संस्कृत ऐतिहासिक ग्रंथ जिसमें पीछे कई पंडितों ने बहुत सी बातें बढ़ाई थीं। इसकी रचना का क्रम अब तक चल रहा है।
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राजतरु  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] १. कर्णिकार का वृक्ष। कनियारी। २. अमलतास।
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राजता  : स्त्री० [सं० राजन्+तल्+टाप्] १. राजा होने की अवस्था, पद या भाव। राजत्व।
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राजत्व  : पुं० [सं० राजन्+त्व] १. राजा होने की अवस्था, पद या भाव।
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राजदृषद्  : स्त्री० [सं० ष० त० परनिपात] चक्की। जाँता।
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राजदेशीय  : वि० [सं० राजन्+देशीयर] जो राजा न होने पर भी राजा के बहुत कुछ समान हो। राजा के तुल्य। राज-कल्प।
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राजद्रोह  : पुं० [सं० ष० त०] राजा या राज्य के प्रति किया जानेवाला द्रोह। वह कृत्य जिससे राजा या राज्य के नाश या बहुत बड़े अहित की संभावना हो। बगावत। जैसे—प्रजा या सेना को राजा या राज्य से लड़ने के लिए अथवा उसकी आज्ञाओं, नियमों, निश्चयों आदि के विरुद्ध काम करने के लिए उत्तेजित् करना या भड़कना। (सेडिसन)
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राजद्रोही (हिन्)  : पुं० [सं० राजद्रोह+इनि] वह जिसने राजद्रोह किया हो। बागी।
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राजधानी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. किसी राज्य का वह नगर जिसमें स्थायी रूप से उसका राजा निवास करता हो। २. किसी राज्य का वह नगर जो उसका केंद्र हो।
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राजधुस्तूरक  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] १. एक प्रकार का धतूरा जिसके फूल बड़े और कई आवरण के होते है। २. कनक-धतूरा।
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राजनयिक  : वि० =राजनीतिक। पुं० राजनीतिज्ञ।
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राँजना  : स० [सं० रंजन] १. रंजित करना। रँगना। स० [हिं० राँगा] राँगे के योग से कोई चीज जोड़ना। राँगा का टांका लगाना। स०=आँजना (आँखों में अंजन लगाना)।
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राजना  : अ० [सं० राजन=शोभित होना] १. किसी पदार्थ से किसी अन्य पदार्थ या स्थान की शोभा बढ़ना। सुशोभित होना। उदाहरण—मोर-मुकुट की चन्द्रकनि यों राजत-नंद-नंद।—बिहारी। २. किसी व्यक्ति का किसी स्थान पर विराजमान होकर उसकी शोभा बढ़ाना। उदाहरण—मन्दिर मँह राजहिं रानी।—तुलसी।
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राजनामा (मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] पटोल। परवल।
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राजनायक  : पुं० [सं०] राजमर्मज्ञ। (दे०)
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राजनीति  : स्त्री० [सं० ष० त०] [वि० राजनीतिक] १. वह नीति या पद्धति जिसके अनुसार किसी राज्य का प्रशासन किया जाता या होता है। २. गुटों, वर्गों आदि की पारस्परिक स्पर्धावाली तथा स्वार्थपूर्ण नीति। (पॉलिटिक्स) जैसे—विद्यालय की राजनीति से आचार्य महोदय दुःखी हैं।
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राजनीतिक  : वि० [सं० राजनीति+ठक्-इक] राजनीति-संबंधी। राजनीति का। जैसे—राजनीतिक आंदोलन, राजनीतिक सभा।
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राजनीतिज्ञ  : वि० [सं० राजनीति√ज्ञा (जानना)+क] राजनीति का ज्ञाता।
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राजन्य  : पुं० [सं० राजन्य+यत्] १. क्षत्रिय। २. राजा। ३. अग्नि। ४. खिरनी का पेड़ और उसका फल।
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राजन्यबंधु  : पुं० [सं० ष० त०] क्षत्रिय।
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राजप  : पुं० [सं० राजन√पा (रक्षा)+क, उप० स०] १. वह जिसे राजा की अल्पयवस्कता, अनुपस्थिति, शारीरिक असमर्थता आदि के समय राजा या राज्य के शासन के सब काम सौपे जायँ। शून्यपाल। २. कुछ संस्थाओं में वह सर्व-प्रधान अधिकारी जो उसके शासन संबंधी सब काम करता हो। (रीजेन्ट)।
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राजपंखी  : पुं० =राजहंस।
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राजपत्र  : पुं० [सं०] राज्य द्वारा आधिकारिक रूप से प्रकाशित होनेवाला वह सामयिक पत्र जिसमें राजकीय घोषणाएँ, उच्च-पदस्थ कर्मचारियों की नियुक्तियाँ, नये नियम और विधान तथा इसी प्रकार की और प्रमुख सूचनाएँ प्रकाशित होती है। (गज़ट)
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राजपत्रित  : भू० कृ० [सं०] जिसका उल्लेख या घोषणा राजपत्र में हो चुका हो। (गज़टेड) जैसे—राजपत्रित, पदाधिकारी, राजपत्रित सेवा।
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राजपंथ  : पुं० =राजपथ।
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राजपीलु  : पुं० [सं० मध्य० स०] महापीलु (वृक्ष)।
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राजपुत्रक  : पुं० =राजपुत्र।
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राजपुत्रिका  : स्त्री० [सं० राजपुत्री+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. राजा की बेटी। राजकन्या। २. सफेद जूही। ३. पीतल नामक धातु। ४. एक प्रकार का पक्षी जिसे शरारि भी कहते हैं।
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राजपूत  : पुं० [सं० राजपुत्र] १. राजपूताने में रहनेवाले क्षत्रियों के कुछ विशिष्ट वंश जो एक बड़ी और स्वतंत्र जाति के रूप माने जाते हैं। २. राजपूताने का क्षत्रिय वीर।
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राजपूताना  : पुं० [हिं० राजपूत+आना (प्रत्यय)] आधुनिक राजस्थान का पुराना नाम जो राजपूतों का गढ़ माना जाता है।
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राजप्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. एक प्रकार का धान जो लाल रंग का होता है और जिसका चावल सफेद तथा स्वादिष्ट होता है। तिलवासिनी। २. दे० ‘राजप्रिय’।
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राजबन्दर  : पुं० [सं० प० त० परनिपात] १. पैवंदी या पेउँदी बैर। २. [ष० त०] लाल आँवला। ३. नमक। लवण।
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राजबंसी  : पुं० [सं० राजवंश] साँप।
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राजभूय  : पुं० [सं० राजन्√भू (सत्ता)+क्यप्] राजत्व। राज्य।
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राजमात्र  : पुं० [सं० राजन्+मात्रच्] नाम मात्र का राजा।
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राजर्षि  : पुं० [सं० राजन्-ऋषि, उपमित स०] वह ऋषि जिसका जन्म किसी राजवंश अर्थात् क्षत्रिय कुल में हुआ हो।
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राजल  : पुं० [हिं० राजा+ल (प्रत्यय)] अगहन में तैयार होनेवाला एक प्रकार का धान।
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राजलक्ष्म (क्ष्मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजाओं के साथ चलनेवाले प्रतीक। राजचिन्ह।
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राजवला  : स्त्री० [सं०√राज् (दीप्ति)+अच्+टाप्, राजा-वला० कर्म० स०] प्रसारिणी लता।
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राजवल्लभ  : पुं० [सं० ष० त०] १. खिरनी। २. बड़ा और बढ़िया आम। ३. पैबन्दी और बड़ा बैर। ४. वैद्यक में एक मिश्र औषध जो शूल, गुल्म, ग्रहणी, अतिसार आदि में दी जाती है।
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राजवंशी (शिन्)  : वि० [सं० राजवंश+इनि] १. राज-वंश सम्बन्धी राजवंश का। २. जो राजवंश में उत्पन्न हुआ हो। पुं० साँप।
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राजवाह  : पुं० [सं० राजन्√वह् (ढोना)+अण्, उप० स०] घोड़ा।
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राजवाह्य  : पुं० [सं० ष० त०] हाथी।
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राजवी  : पुं० [सं० राजजीवी] राजवंशी। उदाहरण—नम नम नीसरियाह राण बिना सहराजवी।—पृथ्वीराज।
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राजवृक्ष  : पुं० [सं० ष० त० परनिपात] १. आरग्वध या अमलतास का पेड़। २. चिरौंजी या पयाल का पेड़। ३. भद्रचूड़ नामक वृक्ष। ४. श्योनाक। सोनापाढ़ा।
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राजशण  : पुं० [सं० ष० त०] पटसन।
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राजशफर  : पुं० [सं० मध्य० स०] हिलसा (मछली)।
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राजस  : वि० [सं० रजस्+अण्] [स्त्री० राजसी] रजोगुण से उत्पन्न अथवा युक्त। रजोगुणी। जैसे—राजस दान, राजस बुद्धि आदि।
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राजसंस्करण  : पुं० [सं०] किसी पुस्तक के साधारण संस्करण से भिन्न वह संस्करण जो बहुत बढ़िया कागज पर छपा हो और जिस पर बढ़िया जिल्द बँधी हो। (डीलक्स एडिसिन)
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राजसिक  : वि० [सं० रजस्+ठञ्-इक] रजोगुण से उत्पन्न। राजस।
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राजसिरी  : स्त्री०=राजश्री। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राजसी  : वि० [हिं० राजा] जो राजाओं के महत्त्व, वैभव आदि के लिए उपयुक्त हो। जिसका उपयोग राजा ही करते या कर सकते हों, अथवा जो राजाओं को ही शोभा देता हो। जैसे—राजसी ठाठबाट राजसी महल। वि० [सं० ०] जिसमें रजोगुण की प्रधानता हो। रजोगुण युक्त।
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राजसूय  : पुं० [सं० राजन्√सू (प्रसव)+क्यप्] एक प्रकार का यज्ञ जो बड़े-बड़े राजा सम्राट पद के अधिकारी बनने के लिए करते थे। यह अनेक यज्ञों की समष्टि के रूप में होता और बहुत दिनों तक चलता था। इस यज्ञ के उपरान्त राजा को दिग्विजय के लिए निकलना पड़ता था और दिग्विजय कर चुकने पर वह सम्राट पद का अधिकारी होता था।
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राजसूयिक  : वि० [सं० राजसूय+ठक्-इक] राजसूय यज्ञ के रूप में होनेवाला अथवा उससे संबंध रखनेवाला।
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राजसूयी (यिन्)  : पुं० [सं० राजसूय+इनि] राजसूय यज्ञ करनेवाला पुरोहित।
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राजस्व  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. राजा या राज्य की आय। २. वह धन जो राजा या राज्य को अधिकारिक रूप से मिलता हो। ३. वह शास्त्र जिसमें राज्य की आय के साधनों और उनकी व्यवस्था आदि का विवेचन होता है।
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राजा (जन्)  : पुं० [सं०√राज् (दीप्त)+कनिन्] [स्त्री० राज्ञी, रानी] १. वह जो किसी राज्य या भू-खंड का पूरा मालिक हो और उसमें बसनेवाले लोगों पर सब प्रकार के शासन करता हो, उन्हें अपने नियंत्रण में रखता हो और दूसरे राजाओं के आक्रमणों आदि से रक्षित रखता हो। नृपति। भूप। २. अधिपति। मालिक। स्वामी। ३. बहुत बड़ा धनवान् या संपन्न व्यक्ति। ४. परमप्रिय के लिए श्रृंगारिक संबोधन। (बाजारू)
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राजाग्नि  : स्त्री० [सं० राजन्-अग्नि, ष० त०] राजा का कोष।
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राजाज्ञा  : स्त्री० [सं० राजन्-आज्ञा, ष० त०] राजा या राज्य की आज्ञा।
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राजातन  : पुं० [सं० राजन्-आ√तन् (विस्तार)+अच्] चिरौंजी का पेड़। पयार।
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राजादन  : पुं० [सं० राजन्-अदत्, ष० त०] १. शीरिका। खिरनी। २. चिरौजी। पयार। ३. टेसू।
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राजादनी  : स्त्री० [सं० राजादन+ङीष्] खिरनी।
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राजाद्रि  : पुं० [सं० राजन-अद्रि, ष० त० परनिपात] १. एक प्राचीन पर्वत। २. एक प्रकार का अदरख। बवादा।
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राजाधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० राजन्-अधिकारिन्, ष० त०] न्यायाधीश। विचारपति।
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राजाधिराज  : पुं० [सं० राजन-अधिराज, ष० त०] राजाओं का भी राजा। सम्राट।
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राजाधिष्ठान  : पुं० [सं० राजन्-अधिष्ठान, ष० त०] १. राजधानी। २. वह नगर जहाँ राजा शासक या शासक वर्ग रहता हो।
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राजान्न  : पुं० [सं० राजन-अन्न, ष० त०] १. राजा का अन्न। २. आन्ध्र प्रदेश में होनेवाला एक प्रकार का शालिधान।
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राजाभियोग  : पुं० [सं० राजन-अभियोग, ष० त०] राजा का बलपूर्वक या जबरदस्ती प्रजा से कोई काम कराना।
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राजाम्र  : पुं० [सं० राजन्-आम्र, ष० त० परनिपात] एक प्रकार का बढ़िया और बड़ा आम। (फल)
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राजाम्ल  : पुं० [सं० राजन-अम्ल, ष० त०] अम्लवेतस। अमलबेत।
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राजार्क  : पुं० [सं० राजन-अर्क, ष० त० परनिपात] सफेद फूलोंवाला आक या मदार।
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राजार्ह  : पुं० [सं० राजन्√अर्ह (पूजा)+अण्] १. अगरु। अगर। २. कपूर। ३. जामुन का पेड़। वि० राजाओं के योग्य।
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राजार्हण  : पुं० [सं० राजन-अर्हण, ष० त०] १. राजा का दिया हुआ उपहार। २. राजा का दिया हुआ दान।
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राजावर्त्त  : पुं० [सं० राजन्-आ√वृत्त (बरतना)+णिच्+अण्] लाजवर्द।
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राजासन  : पुं० [सं० राजन-आसन, ष० त०] राजसिंहासन।
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राजासनी  : स्त्री० [सं० राजन-आसनी, ष० त०] यज्ञ में सोम का रस रखने की चौकी या पीढ़ा।
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राजाहि  : पुं० [सं० राजन्-अहि, ष० त०परनिपात] दो मुँहा साँप।
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राजि  : स्त्री० [सं०√राज् (शोभा)+इन्] १. पंक्ति। अवली। कतार। २. रेखा। लकीर। ३. राई। पुं० ऐल के पौत्र और आयु के एक पुत्र का नाम।
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राजि-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] चीना ककड़ी।
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राजिक  : वि० [अ०] रिज्क अर्थात् रोजी देनेवाला। पालनकर्ता। परवर्दिगार। पुं० ईश्वर। परमात्मा।
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राजिका  : स्त्री० [सं०√राज्+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व] १. केदार। क्यारी। २. राई। ३. आवली। पंक्ति। ४. रेखा। लकीर। ५. लाल सरसों। ६. मडुआ नामक कदन्न। ७. कठगूलर। कठूमर। ८. एक प्रकार का पुराना परिमाण या तौल। ९. एक क्षुद्र रोग जिसमें शरीर पर सरसों के दानों जैसी फुंसियाँ निकल आती हैं।
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राजिका-चित्र  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का साँप जिसकी त्वचा पर सरसों की तरह छोटी-छोटी बुंदकियाँ होती हैं।
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राजित  : वि० [सं०√राज्+क्त] १. जो शोभा दे रहा हो। फबता हुआ। शोभित। २. विराजमान।
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राजिमान्  : पुं० [सं० राजि+मतुप्] एक तरह का साँप।
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राजिल  : पुं० [सं० राजि+लच्] एक प्रकार का साँप जिसके शरीर पर सीधी रेखाएँ होती हैं।
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राजी  : स्त्री० [सं० राजि+ङीष्] १. पंक्ति। श्रेणी। कतार। २. राई। ३. लाल सरसों। वि० [अ० राजी] १. जो कोई कही हुई बात मानने को तैयार हो। अनुकूल। सहमत। २. प्रसन्न और सन्तुष्ट। क्रि० प्र०—रखना। ३. नीरोग। चंगा। तन्दुरुस्त। ४. सुखी। पद—राजी-खुशी=सही-सलामत। कुशल और आनन्दपूर्वक। स्त्री०=रजामंदी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राजी-फल  : पुं० [सं० मध्य० स०] पटोल। परवल।
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राजीनामा  : पुं० [फा० राजीनामः] १. वह सुलहनामा जो वादी और प्रवादी न्यायालय में मुकदमा उठा लेने के उद्देश्य से उपस्थित करते हैं। २. स्वीकृति-पत्र। पुं० [फा० रजानामः] त्यागपत्र। इस्तीफा। (महाराष्ट्र)
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राजीव  : पुं० =राजीव (कमल)।
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राजीव  : पुं० [सं० राजी+व] १. हाथी। २. एक प्रकार का सारस। ३. नीला कमल। ४. कमल। पद—राजीव-लोचन। ५. एक प्रकार का मृग जिसकी पीठ पर धारियाँ होती है। ६. रैया नाम की मछली। वि० १. जिसे राजवृत्ति मिलती हो। २. धारीदार।
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राजीवगण  : पुं० [सं० उपमित स०] एक प्रकार का मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में अठारह मात्राएँ होती हैं तथा जिसमें नौ-नौ मात्राओं पर यति होती है। माली।
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राजीविनी  : स्त्री० [सं० राजीव+इनि+ङीष्] कमलिनी।
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राजेंद्र  : पुं० [सं० राजन-इंद्र, ष० त०] १. राजाओं का राजा। बादशाह। २. राजाद्रि या राजगिरि नामक पर्वत।
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राजेंद्रप्रसाद  : पुं० [सं० ष० त०] गणतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति।
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राजेश्वर  : पुं० [सं० राजन-ईश्वर, ष० त०] [स्त्री० राजेश्वरी] राजाओं का राजा राजेंद्र।
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राजेश्वरी  : स्त्री०[सं० राजन-ईश्वरी, ष० त०] संगीत में काफी ठाठ की एक रागिनी। स्त्री० हिं० राजेश्वर का स्त्री० रूप।
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राजेष्ट  : पुं० [सं० राजन-इष्ट, ष० त०] १. राजान्न (धान) २. लाल प्याज। वि० जो राजाओं को इष्ट हो, अर्थात् बहुत अच्छा या बढ़िया।
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राजेष्टा  : स्त्री० [सं० राजेष्ट+टाप्] १. केला। २. पिंड खजूर।
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राजो-नियाज  : पुं० [फा० राज व नियाज] किसी को अनुरक्त या प्रमाण करने के लिए घुल-मिलकर की जानेवाली बातें।
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राजोपकरण  : पुं० [सं० राजन-उपकरण, ष० त०] राजाओं के लक्षण या उनके साथ रहनेवाला सामान। राजकीय वैभव की सूचक सामग्री। राजचिन्ह। जैसे—झंडा, निशान, नौबत आदि।
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राजोपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० राजन-उप√जीव् (जीना)+णिनि] १. वह जिसे राज्य से जीविका मिलती हो। २. राजकर्मचारी। ३. राजा का सेवक।
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राजोपस्थान  : पुं० [सं० राजन-उपस्थान, ष० त०] राजदरबार।
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राज्ञी  : स्त्री० [सं० राजन+ङीष्] १. राजा की पटरानी। राजमहिषी। २. रानी। ३. पुराणानुसार सूर्य की पत्नी का एक नाम। ४. काँसा। ५. नील का पौधा।
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राज्य  : पुं० [सं० राजन्+यक्] १. राजा का काम। शासन। २. वह क्षेत्र जिस पर किसी राजा का शासन हो। जैसे—नेपाल या भूटान राज्य। ३. आज-कल निश्चित सीमाओंवाला वह भूखंड जिसकी प्रभुसत्ता उसके निवासियों में ही निहित हो। ४. किसी संघ-राज्य की कोई इकाई। (भारत) (स्टेट अंतिम तीनों अर्थों में)।
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राज्य-कर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा। २. राज्य का सर्वोच्च शासक। ३. राज्य कर्मचारी।
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राज्य-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह सारा-भूखंड जिसमें कोई व्यवस्थित राज्य या शासन हो। २. किसी राज्य के अंतर्गत कोई क्षेत्र। (टेरीटरी)
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राज्य-च्युत  : भू० कृ० [सं० ष० त०] [भाव० राज्य-च्युति] राजसिंहासन से उतारा या हटाया हुआ।
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राज्य-च्युति  : स्त्री० [सं० ष० त०] राजा को सिहासंन से उतारने या हटाने की क्रिया या भाव।
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राज्य-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. राज्य की शासन-प्रणाली। २. शासन की वह प्रणाली जिसमें किसी राज्य का प्रधान शासक राजा होता है। ३. दे० ‘राजतंत्र’।
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राज्य-द्रव्य  : पु० [सं० पं० त०] वे मंगल वस्तुएँ जिनका उपयोग नये राजा को राजसिंहासन पर बैठाते समय होता है।
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राज्य-धुरा  : स्त्री० [सं० प० त०] १. राज्य-शासन। २. शासन का उत्तरदायित्व।
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राज्य-निधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह निधि जो राज्य अपने विशिष्ट कार्यों के लिए सुरक्षित रखता है। (स्टेट फण्डस)
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राज्य-परिषद्  : स्त्री० [सं० ष० त०] गणतंत्र भारत की दो सर्वोच्च विधि-निर्मात्री संस्थाओं में से एक जिसके सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रीति से होता है। दूसरी संस्था ‘लोकसभा’ है जिसके सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष रीति से होता है।
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राज्य-भंग  : पुं० [ष० त०] वह अवस्था जिसमें किसी राज्य की प्रभुसत्ता नष्ट हो जाती है।
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राज्य-लक्ष्मी  : स्त्री० [ष० त०] १. राज्य का वैभव और सम्पत्ति। राज्यश्री। २. विजयलक्ष्मी।
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राज्यक्ता  : स्त्री० [सं० राजि-अक्ता, तृ० त०] रायता।
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राज्यपाल  : पुं० [सं० राज्य√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] भारत-संघ के अन्तर्गत किसी राज्य का प्रधान शासक जिसका मनोनयन राष्ट्रपति करते हैं (गवर्नर)।
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राज्यप्रद  : वि० [ष० त०] राज्य देनेवाला। जिससे राज्य मिलता हो।
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राज्यभिषेक  : पुं० [सं० राज्य-अभिषेक, स० त०] १. प्राचीन भारत में राजसिंहासन पर बैठने के समय या राजसूय यज्ञ में होनेवाला राजा का अभिषेक जो वेद के मंत्रों द्वारा पवित्र तीर्थों के जल और ओषधियों से कराया जाता था। २. किसी नये राजा का राजसिंहासन पर बैठना या बैठाया जाना। राजगद्दी पर बैठने के कृत्य। राज्यारोहण। ३. उक्त अवसर पर होनेवाला उत्सव या समारोह।
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राज्यसभा  : स्त्री० [सं०] भारतीय शासन में वह विधि-निर्मात्री सभा जिसमें राज्यों के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। लोक सभा से भिन्न।
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राज्यांग  : पुं० [सं० राज्य-अंग, ष० त०] राज्य के साधक अंग जिन्हें प्रकृति भी कहते हैं। जैसे—आमात्य, कोष, ०दुर्ग बल आदि।
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राज्याभिषिक्त  : भू० कृ० [सं० राज्य-अभिषिक्त, ष० त०] जिसका राज्याभिषेक हुआ हो।
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राज्योपकरण  : पुं० [सं० राज्य-उपकरण, ष० त०] राजोपकरण। (दे०)
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राँटा  : पुं० [देश] १. टिटिहरी चिड़िया। टिटिटभ। २. चरखा। ३. चोरों की सांकेतिक बोली। पुं० =रहट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राँटी  : स्त्री० [हिं० राँटा] टिटिहरी।
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राटुल  : वि० पुं०=रातुल।
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राट् (ज्)  : पुं० [सं०√राज् (दीप्ति)+क्विप्] १. राजा। २. प्रधान या श्रेष्ठ व्यक्ति। वि० जो किसी काम या बात में औरों से बहुत बड़ा चढ़ा हो। (यौ० के अन्त में) जैसे—धृर्तराट्।
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राठ  : पुं० =राष्ट्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राठवर  : पुं० =राठौर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राठौर  : पुं० [सं० राष्ट्रकूट] १. राजस्थान का एक प्रसिद्ध राजवंश। जैसे—अमर सिंह राठौर। २. उक्त वंश का क्षत्रिय।
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राँड़  : वि० स्त्री० [सं० रंडा] (स्त्री) जिसका पति मर चुका हो तथा जिसने दूसरा विवाह आदि न किया हो। स्त्री० १. विधवा स्त्री। २. वेश्या। ३. स्त्रियों की एक गाली।
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राड़  : स्त्री० [सं० रारि] १. युद्ध। लड़ाई। २. दे० ‘रार’। वि० १. तुच्छ। नीच। २. निकम्मा। ३. कायर। स्त्री०=राड़।
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राड़ा  : पुं० [देश] १. कान्ति। २. एक तरह की घास। राढ़ी।
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राँढ़  : वि० स्त्री०=राढ़। पुं० [हिं० राढ़ देश] बंगाल में होनेवाला एक प्रकार का चावल।
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राढ़  : स्त्री० [सं० रारि=लड़ाई] १. लड़ाई-झगड़ा। २. तकरार। हुज्जत। ३. दे० ‘राड़’। पुं० =राढ़ा।
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राँढ़ना  : स० [सं० रुदन] विलास करना। रोना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राढ़ा  : स्त्री० [सं०] १. कान्ति। दीप्ति। २. छवि। शोभा। पुं० [सं० राढ़ि] वंग देश के उत्तर भाग का पुराना नाम। स्त्री० [?] एक प्रकार का कपास।
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राढ़ी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मोटी घास। पुं० [राढ़ा देश] एक प्रकार का आम।
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राणा  : पुं० [सं० राट्] [स्त्री० राणी] १. राजा। (नेपाल और राजस्थान) २. राजा के परिवार का कोई व्यक्ति।
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राणापति  : पुं० [हिं० राणा+सं० पति] सूर्य जिसे चित्तोर के राणा अपना मूल पुरुष मानते है।
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रात  : स्त्री० [सं० रात्रि] १. समय का वह भाग जिसमें सूर्य का प्रकाश हम तक नहीं पहुँचता। सन्ध्या से प्रातःकाल तक का समय जिसमें आकाश में चन्द्रमा और तारे दिखाई देते हैं। ‘दिन’ का विपर्याय। निशा। रजनी। २. लाक्षणिक अर्थ में अंधकारपूर्ण तथा निराशा-मयी स्थिति।
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रात की रानी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का पुष्प जिसमें रात के समय गुच्छों में लगे हुए सुगंधित फूल फूलते हैं। हुस्ने-हिना।
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रात-दिन  : अव्य० [हिं०] १. हर समय। २. सदा। हमेशा।
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रात-राजा  : पुं० [हिं०] उल्लू नामक पक्षी।
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रातंग  : पुं० [हिं०] गीध। गिद्ध।
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रातड़ी  : स्त्री०=रात्रि (रात)।
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रातना  : अ० [सं० रक्त, प्रा० रत+ना (हिं० प्रत्यय)] १. लाल रंग से रँगा जाना। लाल हो जाना। २. रंजित होना। रँगा जाना। ३. किसी पर आसक्त होना। ४. किसी काम या बात में रत या लीन होना। ५. प्रसन्न होना। स० १. रंजित करना। रँगना। २. अनुरक्त करना। ३. प्रसन्न करना।
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रातरी  : स्त्री=रात्रि।
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राता  : वि० [सं० रक्त, प्रा० रत्त] [स्त्री० राती] १. रक्तवर्ण। लाल। २. रँगा हुआ। ३. अनुरक्त। ४. प्रसन्न तथा हर्षित।
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राति  : स्त्री०=रात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रातिचर  : पुं० [हिं० रात+सं० चर] निशाचर। राक्षस।
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रातिब  : पुं० [अ०] १. एक दिन की खुराक। २. किसी पशु का एक दिन की खुराक। ३. वेतन। (क्व०)
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रातुल  : वि० [सं० रक्तालु, प्रा० रत्तालु] सुर्ख रंग का। लाल। पुं० [अ० रतनल=एक तौल] वह बड़ा तराजू जो लट्ठा गाड़कर लटकाया जाता है और जिस पर लोहा लकडी आदि भारी चीजें तौली जाती हैं।
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रातैल  : पुं० [हिं० राता+ऐल (प्रत्य)] ज्वार की फसल को हानि पहुँचानेवाला एक तरह का क्रीड़ा।
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रात्रि  : स्त्री० [सं० रा (देना)+क्विप्] १. निशि। रात। पद—रात्रिदिव। २. हलदी। २. पुराणानुसार क्रौंच द्वीप की एक नदी।
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रात्रि-जागर  : पुं० [सं० रात्रि√जागृ (जागना)+अच्] १. रात में होनेवाला जागरण। रत-जगा। २. कुत्ता जो रात को जागता है।
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रात्रि-नाशन  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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रात्रि-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] रात में खिलनेवाला पुष्प। कुँई।
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रात्रि-बल  : पुं० [सं० ब० स०] राक्षस।
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रात्रि-मणि  : पुं० [सं० ष० त०] चंद्रमा।
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रात्रि-राग  : पुं० [सं० ष० त०] अंधकार। अँधेरा।
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रात्रि-वास (सस्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. रात के समय पहनने के कपड़े। २. अंधकार। अँधेरा।
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रात्रि-विराम  : पुं० [सं० ष० त०] तड़का। प्रभात।
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रात्रि-सूक्त  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऋग्वेद के एक सूक्त का नाम।
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रात्रि-हास  : पुं० [सं० ष० त०] कुमुद। कुई।
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रात्रिक  : पुं० [सं० रात्रि+क] एक प्रकरा का बिच्छू।
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रात्रिकार  : पुं० [सं० रात्रि√कृ+ट] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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रात्रिंचर  : वि० [सं० रात्रि√चर् (गति)+खच्, मुमागम] रात में घूमने वाला। पुं० राक्षस। निशाचर।
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रात्रिचर  : पुं० [सं० रात्रि√चर् (गति)+ट] राक्षस। निशाचर। वि० रात के समय विचरने या घूमने-फिरनेवाला।
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रात्रिचारी (रिन्)  : पुं० [सं० रात्रि√चर्+णिनि]=रात्रिचर।
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रात्रिज  : पुं० [सं० रात्रि√जन् (उत्पत्ति)+ड] रात में उत्पन्न होनेवाला। पु० तारा नक्षत्र आदि।
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रात्रिंदिव  : अ० [सं० द्व० स० नि० सिद्धि] रात-दिन।
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रात्रिमट  : पुं० [सं० रात्रि√अट् (गति)+अच्, मुम्-आगम] राक्षस।
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रात्रिवेद  : पुं० [सं० रात्रि√विद् (ज्ञान)+णिच्+अण्] मुरगा।
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रात्रिसाम (मन्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का साम।
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रात्रिहिंडक  : पुं० [सं० ष० त०] राजाओं के अन्तःपुर का पहेरदार।
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रात्री  : स्त्री० [सं० रात्रि+ङीष्] १. रात। २. हलदी।
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रात्र्यंध  : वि० [सं० रात्रि-अंध, स० त०] जिसे रात को न दिखाई दे। पुं० १. रतौंधी रोग। २. कौआ, बंदर आदि पशु पक्षी जिन्हें रात के समय दिखाई नहीं पड़ता।
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राद  : पुं० [अ०] बिजली की कड़क।
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राद्ध  : भू० कृ० [सं०√राध् (सिद्धि)+क्त] १. पका हुआ। राँधा हुआ। २. ठीक या तैयार किया हुआ। सिद्ध। ३. पूरा किया हुआ।
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राद्धंत  : पुं० [सं० राद्ध-अंत, ब० स०] सिद्धांत। उसूल।
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राद्धि  : स्त्री० [सं०√राध् (सिद्धि)+क्तिन्] १. सिद्धि। २. सफलता या साफल्य।
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राँध  : पुं० [सं० परान्त=दूसरी ओर] पड़ोस। पार्श्व। बगल। पद—राँध-पड़ोस। अव्य० निकट। पास। समीप। स्त्री० [हिं० राँधना] राँधने की क्रिया ढंग या भाव।
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राध  : पुं० [सं० राधा=विशाखा+अण्+ङीष्=राधी+अण्] १. वैसाख मास। २. धन-संपत्ति। स्त्री० [?] पीब। मवाद।
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राधन  : पुं० [सं०√राध्+ल्युट-अन] १. साधने की क्रिया। साधन। २. प्राप्त या हस्तगत होना० मिलना। ३. तुष्ट करना। तोषण। ४. किसी प्रकार का उपकरण या औजार। ५. कोई ऐसी चीज या बात जिससे कोई पूरा काम हो। साधन।
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राँधना  : स० [सं० रंधन] (भोजन आदि) पकाना। पाक करना। जैसे—दाल या चावल राँधना।
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राधना  : स० [सं० आराधना] आराधना या पूजा करना। २. पूरा या सिद्ध करना। ३. युद्धि से काम निकालना।
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राँधपड़ोस  : पुं० [हिं० राँध=पास+पड़ोस] आसपास या पार्श्व का स्थान। प्रतिवेश। पड़ोस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राधा  : स्त्री० [सं०√राध्+अच्+टाप्] १. प्रीति। प्रेम। २. वृषभानु गोप की कन्या जो पुराणानुसार श्रीकृष्ण की बाल्यावस्था की सबसे अधिक प्रिय सखी और प्रेयसी थी। ३. धृतराष्ट्र के सारथि अधिरथ की पत्नी जिसने कर्ण को पुत्रवत् पाला था। इसी से कर्ण का नाम ‘राधेय’ भी था। ४. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगण, तगण, मगण, यगण और एक गुरु सब मिलाकर १३ अक्षर होते हैं। ५. विशाखा नक्षत्र। ६. वैशाख की पूर्णिमा। ७. बिजली। विद्युत। ८. आँवला। ९. विष्णुकांता लता।
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राधा-कांत  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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राधा-कुंड  : पुं० [सं० ष० त०] गोवर्द्धन के निकट एक प्रख्यात सरोवर जो तीर्थ माना जाता है।
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राधा-तंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] तंत्र जिसमें मंत्रों आदि के अतिरिक्त राधा की उत्पत्ति का भी रहस्यपूर्ण वर्णन है।
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राधा-वल्लभ  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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राधावल्लभी (भिन्)  : पुं० [सं० राधावल्लभ+इनि] १. वैष्णवों का एक प्रसिद्ध संप्रदाय। २. उक्त सम्प्रदाय का अनुयायी।
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राधाष्टमी  : स्त्री० [सं० राधा+अष्टमी, ष० त०] भादों सुदी अष्टमी।
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राधास्वामी  : पुं० [सं०] १. एक आधुनिक मत प्रवर्त्तक आचार्य जिनका आगरे में प्रसिद्ध केन्द्र है। २. उक्त आचार्य का चलाया हुआ संप्रदाय।
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राधिका  : स्त्री० [सं० राधा+कन्+टाप्, इत्व] १. वृषभानु गोप की कन्या राधा। २. एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १३ मात्राएँ और ९ के विश्राम से २२ मात्राएँ होती हैं। लावनी इसी छंद में होती है।
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राधेय  : पुं० [सं० राधा+ठक्-एय] (धृतराष्ट्र के सारथि अधिरथ की पत्नी राधा द्वारा पालित। कर्ण।
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राध्य  : वि० [सं०√राध् (सिद्धि)+यत्] आराधना करने के योग्य। आराध्य।
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रान  : स्त्री० [फा०] जंघा। जाँघ।
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रानतुरई  : स्त्री० [हिं० रानी+तुरई] एक तरह की कड़वी तरोई।
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राना  : पुं० =राणा। वि० [फा०] सुन्दर।
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रानी  : [सं० राज्ञी, प्रा० राणी] १. राजा की स्त्री। २. स्त्रियों के नाम के साथ प्रयुक्त होनेवाला आदरसूचक पद। जैसे—देविका रानी, राधिका रानी आदि। ३. प्रेयसी या पत्नी के लिए प्रेमपूर्ण संबोधन। ४. ताश का एक पत्ता जिसमें रानी का चित्र होता है। बेगम। वि० [फा० राना] प्रिय तथा सुन्दर। जैसे—रानी बेटी। स्त्री० [फा०] चलाने का काम। (यौ० के अन्त में) जैसे—जहाजरानी।
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रानी-काजर  : पुं० [हिं० रानी+काजल] एक प्रकार का धान।
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रानी-मक्खी  : स्त्री० [हिं०] मधुमक्खी के छत्ते की वह मक्खी जिसका काम केवल अंडे देना होता है। जननी मक्खी (क्वीन बी)।
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राप-रंगाल  : पुं० [सं० रंग√अल् (भूषण)+अच्, राप, ब० स० राप-रंगाल, कर्म० स०] एक प्रकार का नृत्य।
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रापड़  : पुं० [?] बंजर भूमि।
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रापती  : स्त्री० [देश] एक छोटी नदी जो नैपाल के पहाड़ों से निकलकर गोरखपुर के निकट सरयू नदी में गिरती है।
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रांपी  : स्त्री० [देश] पतली खुरपी के आकार का मोचियों का एक औजार जिससे वे चमड़ा काटते, छीलते और साफ करते हैं।
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रापी  : स्त्री०=राँपी (मोचियों का उपकरण)।
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राब  : स्त्री० [सं० द्रावक] १. आँच पर खूब औटाकर खूब गाढ़ा किया हुआ गन्ने का रस जो गुड़ से पतला और शीरे से गाढ़ा होता है। इसी को साफ करके खाँड़ बनाई जाती है। २. वह भूमि जो उस पर का घास-फूस जलाकर जोतने-बोने के लिए तैयार की गई हो (पूरब)। स्त्री० [देश] नाव में वह बड़ी लकड़ी जो उसकी पेंदी में लंबाई के बल एक सिरे से दूसरे सिरे तक होती है।
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राबड़ी  : स्त्री०=रबड़ी (बसौंधी)।
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राबना  : स० [?] खेत में एक विशेष प्रकार से खाद डालना।
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राबिस  : स्त्री० [अं० रबिस=कूड़ा] ईंटों के भट्ठों आदि में से निकले हुए कोयलों का चूरा और राख जो प्रायः इमारतों में ईटों की जोड़ाई करने में काम आती है।
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राँभना  : अ०=रँभना।
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राम  : पुं० [सं०√रन् (क्रीड़ा)+घञ्] १. महाराज दशरथ के पुत्र जिनका विवाह जनक की कन्या जानकी या सीता से हुआ था और जो विष्णु के दस अवतारों में से एक माने जाते हैं। रामायण की कथा इन्हीं के चरित्र पर आधारित है। रामचन्द्र। पद—राम नाम सत्य है-एक वाक्य जिसका प्रयोग कुछ हिन्दू जातियों में मृतकों को श्मशान ले जाने के समय होता है और संसार की असारता और मिथ्यात्व तथा ईश्वर की सत्यता का बोध कराया जाता है। मुहावरा—राम जाने=(क) मुझे नहीं मालूम। ईश्वर जाने। (ख) यदि मैं झूठ बोलता होऊँ तो ईश्वर उसका साक्षी रहे और मुझे उसके लिए दंड दे। राम राम करके=बहुत कठिनता से। किसी प्रकार। जैसे—तैसे। ‘राम राम’ करना= (क) राम अर्थात् ईश्वर या भगवान् का नाम जपना। (ख) किसी से भेंट होने पर राम राम कह करके अभिवादन करना। (किसी का) राम राम हो जाना=मर जाना। गत हो जाना। (किसी से) राम राम होना=भेंट होना। मुलाकात होना। रामशरण होना=(क) साधु होना। विरक्त होना। (ख) परलोकवासी होना। मरना। २. कृष्ण के बड़े भाई बलराम या बलदेव। ३. परशुराम। ४. उक्त तीनों के आधार पर तीन की संख्या का वाचक शब्द। ५. ईश्वर। परमात्मा। ६. वरुण। ७. एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसमें ९ और ८ के विराम के प्रत्येक चरण में १७ मात्राएँ होती हैं और अंत में यगण होता है। ८. रति क्रीड़ा। ९. घोड़ा। १॰. अशोक वृक्ष। ११. बथुआ नाम का साग। १२. तेजपत्ता। वि० [सं० रम्य] अभिराम। सुन्दर। उदाहरण—देखत अनूप सेना पति राम रूप छवि।—सेनापति। वि० [फा०] १. ठीक। दुरुस्त। २. अनुकूल। ३. राजी। सहमत। जैसे—उसने बातों ही बातों में उसे राम कर लिया (पश्चिम)।
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राम-अंजीर  : स्त्री० [सं० राम+फा० अंजीर] पाकर (वृक्ष)। पकरिया।
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राम-कजरा  : पुं० [देश] अगहन में पककर तैयार होनेवाला एक प्रकार का धान।
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राम-कपास  : स्त्री० [हिं० राम+कपास] देवकपास। नरमा।
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राम-कपूर  : पुं० [हिं०] गंधतृण।
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राम-कली  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक रागिनी जो भैरव राग की स्त्री मानी जाती है।
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राम-कहानी  : स्त्री० [हिं०] १. अपने जीवन तथा उसके किसी प्रसंग का दूसरों को सुनाया जानेवाला वृत्तांत। २. किसी पर बीती हुई घटनाओं का लंबा या विस्तृत वर्णन। क्रि० प्र०—कहना।—सुनाना।
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राम-काँटा  : पुं० [हिं० राम+काँटा] एक प्रकार का बबूल।
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राम-कुंतली  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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राम-कुसुमावलि  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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राम-केला  : पुं० [हिं० राम+केला] १. एक प्रकार का बढ़िया केला। २. एक प्रकार का बढ़िया पूर्वी आम।
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राम-क्रिय  : पुं० संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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राम-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] दक्षिण भारत का एक प्राचीन तीर्थ। (पुराण)।
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राम-गंगरा  : पुं० [हिं० राम+गाँगरा] १. एक प्रकार की पहाड़ी चिड़िया। जिसका सिर, गरदन और छाती चमकीले काले रंग की होती है। यह जाड़े में भी मैदानों में उतर आती है।
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राम-गंगा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] उत्तर प्रदेश की एक नदी जो फर्खाबाद के पास गंगा में मिलती हैं।
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राम-गिरि  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. मेघदूत में वर्णित एक पर्वत-शिखर जो आधुनिक नागपुर में स्थित माना जाता है। राम-टेक। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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राम-गिरी  : स्त्री०=रामकली। (रागिनी)। पुं० =रामगिरि।
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राम-गीती  : पुं० [सं०] एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३६ मात्राएँ होती है।
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राम-चकरा  : पुं० [सं० राम+चक्र] १. उरद की पीठी को तलकर तैयार किया जानेवाला बडा। २. बड़ी और मोटी देहाती रोटी। ३. बाटी। लिट्टी।
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राम-चिड़िया  : स्त्री० [देश] मछरंगा।
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राम-जननी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. कौशल्या। २. रेणुका। ३. रोहिणी।
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राम-जना  : पुं० [हिं० राम+जना=उत्पन्न] [स्त्री० रामजनी] १. वह जिसका पिता ईश्वर हो, अर्थात् जिसके पिता का पता न हो। वर्णसंकार। दोगला। २. एक संकर जाति जिसकी कन्याएँ वेश्यावृत्ति करती हैं।
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राम-जनी  : स्त्री० [हिं० राम-जना] १. ऐसी स्त्री जिसके पिता का पता न हो २. रामजना जाति की स्त्री। ३. रंडी। वेश्या।
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राम-जमनी  : पुं० =रामजमानी।
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राम-जमानी  : पुं० [सं० राम+यवनी (अजवायन)] एक प्रकार का बहुत बारीक चावल।
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राम-जामुन  : पुं० [हिं० राम+जामुन] मझोले आकार का एक प्रकार का जामुन (वृक्ष)।
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राम-जुहारी  : स्त्री० [हिं०] १. एक प्रकार का अभिवादन जिसका अर्थ है-राम राम या जयराम। २. दे० ‘राम-दहारी’।
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राम-जौ  : पुं० [सं० राम+हिं० जौ] एक प्रकार की जई जिसके दाने जौ के दाने के आकार के होते हैं।
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राम-झोल  : स्त्री० [सं० राम+हिं० झूलना] पाजेब। पायल।
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राम-टेक  : पुं० [हिं० राम+टेक=लकड़ी (पहाडी)] नागपुर जिले में स्थित एक पर्वत शिखर। रामगिरि।
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राम-तरुणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. रामचन्द्र की पत्नी, सीता। २. सेवती (सफेद गुलाब)।
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राम-तरोई  : स्त्री० [हिं० राम+तरोई या तुरई] भिंडी का पौधा और उसकी फली।
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राम-तापनीय  : स्त्री० [सं० मध्य० स० वा ष० त०] एक आधुनिक साम्प्रदायिक उपनिषद्।
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राम-तारक  : पुं० [सं० ष० त०] ‘रा रामाय नमः’ नामक मंत्र तो रामोपासक जपते हैं।
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राम-तिल  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का तिल।
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राम-तीर्थ  : पुं० [सं० मध्य० स०] रामगिरि पर्वत शिखर जो एक तीर्थ है।
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राम-तुलसी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०]=रामा-तुलसी (सफेद डंठलों वाली तुलसी)।
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राम-तुलसी  : स्त्री० [सं०] सफेद डंठलोंवाली एक प्रकार की तुलसी (पौधा)।
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राम-तेजपात  : पुं० [हिं० राम+तेजपात] तेजपात की जाति का एक प्रकार का वृक्ष और उसका पत्ता।
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राम-दल  : पुं० [सं० ष० त०] १. बंदरों की वह सेना जिसकी सहायता से रामचन्द्र ने लंका पर चढ़ाई की थी। २. कोई बहुत बड़ा और प्रबल समूह या सेना। ३. दशहरे के अवसर पर रामचन्द्र की स्मृति में निकलनेवाला जुलूस।
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राम-दाना  : पुं० [सं० राम+हिं० दाना] १. मरसे या चौराई की जाति का एक पौधा जिसमें सफेद रंग के बहुत छोटे-छोटे दाने या बीज लगते हैं। २. उक्त पौधे के दाने जो कई रूपों में खाने के काम आते हैं। ३. एक प्रकार का धान।
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राम-दास  : पुं० [सं० ष० त०] १. हनुमान। २. शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास। ३. एक प्रकार का धान।
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राम-दूत  : पुं० [सं० ष० त०] हनुमान्।
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राम-दूती  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. एकप्रकार की तुलसी। २. नागदौन। ३. नागपुष्पी।
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राम-धाम (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] साकेत, लोक, जहाँ भगवान नित्य राम —रूप में विद्यमान माने जाते हैं।
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राम-ननुआ  : पुं० [हिं० राम+ननुआ] १. घीया। २. कद्दू।
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राम-नवमी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] भगवान् रामचन्द्र का जन्म-दिवस चैत्र शुक्ल नवमी।
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राम-पात  : पुं० [हिं० राम+पत्र] नील की जाति की एक प्रकार की झाड़ी जिसकी पत्तियों से रंग तैयार किया जाता है।
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राम-फल  : पुं० [हिं० राम+फल] शरीफा। सीताफल।
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राम-बँटाई  : स्त्री० [हिं० राम+बाँटना] ऐसा बँटवारा या विभाजन जिसमें आधा एक व्यक्ति और आधा दूसरे व्यक्ति को मिले। आधे-आध की बँटाई।
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राम-बबूल  : पुं० [हिं० राम+बबूल] एक प्रकार का बबूल।
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राम-बान  : पुं० [हिं० राम+सं० बाण] १. एक प्रकार का नरसल। रामशर। २. दे०‘रामबाण’।
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राम-बाँस  : पुं० [हिं०] १. एक प्रकार का बाँस। २. केतकी की जाति का एक पौधा।
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राम-बिलास  : पुं० [हिं० राम+सं० विलास] एक प्रकार का धान और उसका चावल।
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राम-भक्त  : वि० [सं० ष० त०] रामचन्द्र का उपासक। पुं० हनुमान।
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राम-भद्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] रामचन्द्र।
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राम-भोग  : पुं० [हिं० राम+भोग] १. एक प्रकार का चावल। २. एक प्रकार का आम।
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राम-मंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] ‘रां रामाय नमः’ मंत्र जिसे रामभक्त भजते हैं।
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राम-रक्षा  : पुं० [सं० मध्य० स०] राम जी का एक स्तोत्र जो सब प्रकार की आपत्तियों से रक्षा करनेवाला माना जाता है।
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राम-रतन  : पुं० [हिं० राम+सं० रत्न] चंद्रमा। (डि०)
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राम-रस  : पुं० [हिं० राम+रस] १. नमक। २. पीने के लिए पीसी और घोली हुई भाँग। (दक्षिण भारत)
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राम-रहारी  : स्त्री० [हिं० राम राम] १. आपस में मिलने पर होनेवाला अभिवादन। पारस्परिक व्यवहार की वह स्थिति जिसमें किसी से बातचीत होती हो। जैसे—अब तो उन लोगों में राम-रहारी भी नहीं रह गई है।
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राम-राज्य  : पुं० [सं० ष० त०] १. भगवान् राम का राज्य या शासन। २. उक्त के आधार पर ऐसा राज्य या शासन जिसमें प्रजा सब प्रकार से निश्चित संपन्न तथा सुखी हो। ३. मध्य युग में मैसूर राज्य का एक नाम।
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राम-राम  : अव्य० [हिं० राम] १. भेंट के समय अभिवादन के लिए प्रयुक्त पद। २. आश्चर्य, दुःख आदि का सूचक अव्यय। स्त्री० भेंट। विशेषतः आकस्मिक तथा अल्पकालिक भेंट। जैसे—कई दिन हुए उनसे राम राम हुई थी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राम-लवण  : पुं० [सं० मध्य० स०] साँभर नामक।
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राम-लीला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. राम की क्रीड़ा। २. रामायण में वर्णित घटनाओं के आधार पर होनेवाला अभिनय या नाटक। ३. एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती है। और अंत में ‘जगण’ का होना आवश्यक होता है।
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राम-वल्लभी (भिन्)  : पुं० [सं० रामवल्लभ] एक वैष्णव संप्रदाय।
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राम-शर  : पुं० [सं० ष० त०] ऊख के आकार-प्रकार का एक प्रकार का नरसल या सरकंडा जो ऊख के खेतों में आप से आप ही उगता है।
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राम-शिला  : स्त्री० [सं० ष० त०] गया जिले में स्थित एक पर्वत शिखर जो एक तीर्थ है।
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राम-श्री  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का राग जो हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है।
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राम-संडा  : पुं० [सं० रामशर] एक प्रकार की घास जिससे रस्सी या बाध बनाते हैं। काँस।
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राम-सनेही  : पुं० [हिं० राम+स्नेही] १. राजस्थान का एक वैष्णव सम्प्रदाय। २. उक्त सम्प्रदाय का अनुयायी। वि० राम से स्नेह या प्रीति रखनेवाला।
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राम-सिरी  : स्त्री० [सं० रामश्री] १. एक प्रकार की चिड़िया। २. एक प्रकार की रागिनी।
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राम-सीता  : पुं० [हिं० राम+सीता] शरीफा। सीताफल।
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राम-सुंदर  : स्त्री० [हिं० राम+सुन्दर] एक प्रकार की नाव।
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राम-सेतु  : पुं० [सं० मध्य० स०] रामेश्वर तीर्थ के पास समुद्र में पड़ी हुई चट्टानों का समूह जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यह वही पुल है जिसे राम ने लंका पर चढ़ाई करते समय बँधवाया था।
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रामचन्द्र  : पुं० [सं० उपमित० स०] अयोध्यापति राजा दशरथ के पुत्र जिन्होंने रावण का बध किया था। विशेष—हिन्दुओं में ये विष्णु के अवतार माने जाते हैं।
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रामटोड़ी  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक संकर रागिनी जिसमें गंधार, कोमल और शेष सब स्वर शुद्ध लगते हैं। (संगीत)
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रामठ  : पुं० [सं०√रम्+अठ्, बृद्धि] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो पश्चिम में है। २. उक्त देश का निवासी। ३. हींग। ४. अखरोट का पेड़। ५. मैनफल। ६. चिचड़ा।
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रामठी  : स्त्री० [सं० रामठ+ङीष्] हींग।
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रामणीयक  : पुं० [सं० रमणीय+वुञ्-अक] रमणीयत्व। मनोहरता। वि० रमणीय।
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रामता  : स्त्री० [सं० राम+तल्+टाप्] राम होने की अवस्था, गुण या भाव। रामत्व। राम-पन।
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रामति  : स्त्री० [हिं० रमना=घूमना फिरना] भिक्षा के लिए लगाई जानेवाली फेरी।
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रामत्व  : पुं० [सं० राम+त्व] राम होने की अवस्था, धर्म या भाव। रामता। राम-पन।
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रामदेव  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. रामचन्द्र। २. राजपूताने में प्रचलित एक सम्प्रदाय।
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रामना  : अ० [सं० रमण] १. रमण करना। २. घूमना-फिरना।
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रामनामी  : स्त्री० [हिं० राम+नाम+ई (प्रत्यय)] १. गले में पहनने का एक प्रकार का हार। २. वह वस्त्र जिस पर सब जगह रामनाम छपा हुआ हो।
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रामनौमी  : स्त्री०=रामनवमी।
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रामपुर  : पुं० [सं० ष० त०] १. स्वर्ग। बैकुंठ। २. अयोध्या नगरी। साकेत।
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रामरज (स)  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की पीली मिट्टी जिसका वैष्णव लोग तिलक लगाते हैं, तथा जो चूने आदि में मिलाकर दीवारे, छत्ते आदि पोतने के काम भी आती है।
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रामल  : वि० [सं० रमल+अण्] रमल सम्बन्धी। रमल का।
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रामवाण  : पुं० [सं० ष० त०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो पारे, गंधक, सींगिया आदि के योग से बनता है और जो अजीर्ण रोग का नाशक कहा जाता है। वि० १. जो अत्यन्त गुणकारी हो। २. तुरन्त प्रभाव दिखानेवाला। ३. न चूकनेवाला।
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रामवीणा  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्रकार का वीणा।
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रामसखा  : पुं० [सं० ष० त०] सुग्रीव।
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रामसर (स्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] पुराणानुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम। पुं० =रामशर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रामा  : स्त्री० [सं०√रम् (क्रीडा)+णिच्+ण+टाप्] १. सुन्दर स्त्री। २. गाने-नाचने में प्रवीण स्त्री। ३. सीता। ४. लक्ष्मी। ५. रुक्मिणी। ६. राधा। ७. शीतला देवी। ८. नदी। ९. कार्तिक कृष्ण एकादशी की संज्ञा। १॰. इंद्रवज्रा और उपेंद्रवज्रा के योग से बना हुआ एक प्रकार का उपजाति वृत्त जिसके प्रथम दो चरण इन्द्रवज्रा के होते हैं। ११. आर्या छंद का १७ वाँ भेद जिसमें ११ गुरु और ३५ लघु वर्ण होते हैं। १२. आठ अक्षरों का एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, यगण और दो लघु वर्ण होते हैं। १३. हींग। १४. ईंगुर। शिगरफ। १५. घीकुँआर। १६. सफेद भटकटैया। १७. अशोक वृक्ष। १८. तमाल। १९. गोरोचन। २0०सुगंधवाला। २१. त्रायमाण लता। २२. गेरू।
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रामानंद  : पुं० [सं०] रामावत नामक वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्त्तक एक प्रसिद्ध आचार्य (१३५६-१४६७ वि)।
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रामानंदी  : वि० [हिं० रामानंद+ई (प्रत्यय)] १. रामानंद-संबंधी। २. रामानंद के सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० रामानन्द द्वारा प्रवर्तित रामावत सम्प्रदाय का अनुयायी।
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रामानुज  : पुं० [सं० राम-अनुज, ष० त०] १. राम का छोटा भाई। २. लक्ष्मण। ३. एक प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य जिन्होंने श्री वैष्णव संप्रदाय का प्रवर्त्तन किया था।
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रामायण  : पुं० [सं० राम-अयन, ष० त०] १. राम का जीवन-मार्ग अर्थात् चरित्र। २. वह ग्रन्थ जिसमें राम के चरित्र का वर्णन हो।
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रामायणी  : वि० [सं०] रामायण संबंधी। रामायण का। पुं० १. वह जो रामायण का अच्छा ज्ञाता या पंडित हो। २. वह जो लोगों को रामायण की कथा सुनाता हो।
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रामायन  : पुं० =रामायण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रामायुध  : पुं० [सं० राम-आयुध, ष० त०] धनुष।
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रामावत  : पुं० [सं० रामावित्] रामानन्द द्वारा प्रवर्तित एक वैष्णव संप्रदाय।
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रामिज  : वि० [अ०] रम्ज अर्थात् इशारा करनेवाला।
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रामिल  : पुं० [सं०] १. रमण। २. कामदेव। ३. स्त्री का पति। स्वामी। ४. प्रेमपात्र। ५. एक कवि।
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रामी  : स्त्री० [सं० रामा] काँस नामक घास।
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रामेश्वर  : पुं० [सं० राम-ईश्वर, ष० त०] १. दक्षिण भारत में समुद्र के तट पर एक शिवलिंग जो भगवान् रामचन्द्र द्वारा स्थापित किया हुआ माना जाता है। २. पुरी या बस्ती जिसमें उक्त शिवलिंग स्थापित है।
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रामोपनिषद्  : स्त्री० [सं० राम-उपनिषद्, मध्य० स०] अथर्वेद के अन्तर्गत एक उपनिषद् का नाम।
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राय  : पुं० [सं० राजा, प्रा० राया०] १. राजा। २. छोटा राजा। सरदार या सामन्त। ३. मध्ययुग में एक प्रकार की सम्मान-जनक उपाधि। पद—रायबहादुर, रायसाहब। ४. बंदीजनों या भाटों की उपाधि। ५. गन्धर्व जाति के लोगों की उपाधि। ६. दे० ‘रायबेल’। स्त्री० [फा०] सम्मति। सलाह।
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राय-करौंदा  : पुं० [हिं० राय=बड़ा+करौंदा] एक प्रकार का बड़ा करौंदा। (फल और झाड़)।
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राय-बहादुर  : पुं० [हिं० राय+फा० बहादुर] एक प्रकार की उपाधि जो ब्रिटिश-शासन में भारतीय बड़े आदमियों को मिलती थी।
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राय-बेल  : स्त्री० [हिं० रायबेल] एक प्रकार की लता जिसमें सुन्दर और सुगंधित दोहरे फूल लगते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राय-भोग  : पुं० [सं० राज+भोग] एक प्रकार का धान और उसका चावल। राज-भोग।
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राय-रायान  : पुं० [हिं० राय+फा० आन (प्रत्यय)] राजाओं के राजा। राजाधिराज। (मुगलशासन काल की एक उपाधि)।
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राय-रासि  : स्त्री० [सं० रायराशि] राजा का कोष। शाही खजाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रायगाँ  : वि० [फा० राएगाँ] १. रास्ते में पड़ा या फेंका हुआ अर्थात् निष्फल या व्यर्थ। २. नष्ट। बरबाद।
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रायज  : वि० [फा० राइज़] जो चल रहा हो, अर्थात् जिसका प्रचल या प्रचार हो। प्रचलित।
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रायता  : पुं० [सं० राज्यक्ता] दही या मट्ठे में बुंदिया साग आदि डालकर तथा उसमे नमक, मिर्च, जीरा आदि मिलाकर बनाया जानेवाला व्यंजन।
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रायनी  : स्त्री०=राजकुमारी (डिं०)।
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रायमुनी  : स्त्री० [सं० राय+मुनिया] लाल (पक्षी) की मादा। सदिया।
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रायल  : वि० [अं०] १. राजन्य। २. राजकीय। ३. राजकीय ठाठ-बाटवाला। पुं० छापे की कलों तथा कागज की एक नाप जो २0 इंच चौड़ी और २६ इंच लंबी होती है।
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रायसा  : पुं० [सं० रहस्य] वह काव्य जिसमें किसी राजा का जीवनचरित्र वर्णित हो। रासा। रासो। जैसे—पृथ्वीराज रायसा।
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रायसाहब  : पुं० [राय+फा० साहब] एक प्रकार की पदवी जो ब्रिटिश-शासन में भारतीय बड़े आदमियों को मिलती और ‘रायबहादुर’ की उपाधि में निम्नकोटि की होती थी।
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रायहर  : पुं० [सं० राज्यगृह, प्रा० राइहर] राजा का महल। राजगृह। उदाहरण—हरम करौ आनि रायहर।—प्रिथीराज।
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रायहंस  : पुं० =राजहंस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रार  : स्त्री० [सं० रारि, प्रा० राड़ि=लड़ाई] १. ऐसा झगड़ा जिसमें बहुत कहा-सुनी हो और जो कुछ देर तक चलता रहे। तकरार। हुज्जत। क्रि० प्र०—करना।—ठानना।—मचाना। २. ऐसी ध्वनि जिसमें रह रहकर (रकार) र का सा शब्द होता है। जैसे—पेड़ों की मर्मर में होनेवाली रार या पेड़ों के गिरने में अरर या रार का स्वर निकले। उदाहरण—कलरव करते किलकार रार। ये मौन मूक तृण करु दल पर।—पन्त। स्त्री०=राल।
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राल  : स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का बहुत बड़ा सदाबहार पेड़ जो दक्षिण भारत के जंगलों में होता है। २. उक्त वृक्ष का सुगंधित निर्यास जो प्रायः सुगन्ध के लिए जलाया जाता और औषधों, मसालों आदि के आता है। विशेष—धूप नामक सुगंधित द्र्व्य में प्रायः इसी की प्रधानता रहती है। स्त्री० [सं० लाला] १. मुँह से निकलनेवाला पतला रस। लार। (देखें) २. चौपायों का एक रोग जिसमें उन्हें खाँसी आती है और उनके मुँह से पतला लसदार पानी गिरता है। पुं० [?] एक प्रकार का देशी कंबल।
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राली  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का बाजरा जिसके दाने बहुत छोटे हैं।
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राव  : पुं० [सं० राजा, प्रा० राय] १. राजा। २. राजा का दरबारी या सरदार। ३. बंदीजन। भाट। ४. अमीर। रईस। ५. कच्च के राजाओं की पदवी। ६. धीमा कोलाहल। हलका शोर (नोएज) पुं० =ख (शब्द)। पुं० [देश] छोटे आकार का एक प्रकार का पेड़ जिसकी लकड़ी कुछ ललाई लिये चिकनी और मजबूत होती है। इसकी लकड़ी की प्रायः छड़ियाँ बनाई जाती है।
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राव-चाव  : पुं० [हिं० राव=राजा+चाव] १. नृत्य, गीत आदि का उत्सव। राग-रंग। २. दुलार। लाड़। ३. अनुराग। प्रेम। ४. प्रेमपूर्ण व्यवहार।
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राव-रखा  : पु० [देश] हिमालय में होनेवाला एक तरह का पेड़। बुरुल।
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राव-साहब  : पुं० [हिं० राव+फा० साहब] ब्रिटिश शासन में दक्षिण भारत के बड़े आदमियों को मिलनेवाली एक प्रकार की उपाधि।
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रावट  : पुं० [सं० राजावर्त] लाजवर्द नामक रत्न। उदाहरण—कनै पहार होत है रावट को राखै गहि पाई।—जायसी। पुं० =रावल (राजमहल)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रावटी  : स्त्री० [हिं० रावट] १. कपड़े का बना हुआ एक प्रकार का छोटा डेरा। छौलदारी। २. कपड़े का बना हुआ कोई छोटा घर। ३. बारह-दरी।
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रावण  : वि० [सं०√रु (शब्द)+णिच्=ल्यु—अन] जो दूसरों को रुलाता हो। रुलानेवाला पुं० लंका का एक राजा जिसका वध श्रीरामचन्द्र ने किया था।
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रावण-गंगा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] सिंहल द्वीप की एक नदी। (पुराण)
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रावणारि  : पुं० [सं० रावण-अरि, ष० त०] रावण को मारनेवाले रामचन्द्र।
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रावणि  : पुं० [सं० रावण+इञ्] १. रावण का पुत्र। २. मेघनाद।
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रावत  : पुं० [सं० राजपुत्र, प्रा० राय+उत्त] १. छोटा राजा। २. राजवंश का कोई व्यक्ति। ३. क्षत्रिय। ४. राजपूत। ५. सरदार। सामन्त। ६. शूरवीर योद्धा। ७. सेनापति।
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रावन  : वि० [सं० रमणीय] रम्य। रमणीय। उदाहरण—देखा सब रावन अब राऊ।—जायसी। पुं० =रावण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रावनगढ़  : पुं० [हिं० रावण+गढ़] लंका। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रावना  : स० [सं० रावण=रुलाना] दूसरे को रोने में प्रवृत्त करना। रुलाना। पुं० रावण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रावबहादुर  : पुं० [हिं० राव+फा० बहादुर] ब्रिटिश-शासन में दक्षिण भारत के बड़े आदमियों को मिलनेवाली उपाधि।
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रावर  : पुं० [सं० राजपुर] रनिवास। सर्व० वि० [हिं० राउ+र (विभ०)] [स्त्री० रावरी] आपका। भवदीय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रावरा  : सर्व० वि० =रावर।
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रावल  : पुं० [सं० राजपुर, हिं० राउर] अन्तःपुर। पुं० [पा० राजुल] [स्त्री० रावली] १. राजा। २. राजपूताने के कुछ राजाओं की उपाधि। ३. कुछ विशिष्ट पदों, महन्तों तथा योनियों की उपाधि। ४. एक आदरपूर्ण संबोधन। ५. श्री बदरीनारायण के मुख्य पंडे की उपाधि।
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रावलो  : सर्व०=रावर।
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राँवाँ  : पुं० [?] १. गाँव या कस्बे के पास की जंगली या ऊसर भूमि। २. ऐसी भूमि पर पशु चराने का कर। सर्व० आप। श्रीमान। (पूरब में सम्बोधन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रावी  : स्त्री० [सं० ऐरावती] पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान) की एक प्रसिद्ध नदी जो मुलतान के पास चनाब नदी में जा मिलती है।
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राश  : पुं० [अ० मि० सं० राशि] राशि। ढेर।
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राशन  : पुं० [अं० रैशन] १. खाने-पीने की वे चीजें जो अभी पकाई न गई हों, परन्तु उपयोग या व्यवहार के लिए एकत्र करके रखी या लोगों को दी गई हों। रसद। २. आज-कल वह व्यवस्था जिसके अनुसार उपयोग या व्यवहार की कुछ विशिष्ट वस्तुएँ लोगों को उनकी आवश्यकता के अनुसार नियमित रूप से और नियत मात्रा में बाँटी या दी जाती हों। ३. उक्त का वह अंश जो किसी विशिष्ट व्यक्ति को मिला या मिलता हो।
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राशि  : स्त्री० [सं०√राश् (शब्द)+इन्] १. किसी चीज के कणों, खंडों बिदुओं आदि की पुंज या समूह। जैसे—जलराशि, रत्नराशि। २. गणित में कोई ऐसी संख्या जिसके संबंध में जोड़, गुणा, भाग आदि क्रियाएँ की जाती हों। ३. कांति-वृत्त में पड़नेवाले विशिष्ट तारा समूह जिनकी संख्या बारह है और जिनके नाम इस प्रकार हैं—मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुंभ और मीन। विशेष—क्रांति-वृत्त अर्थात् पृथ्वी के परिभ्रमण मार्ग के दोनों ओर प्रायः ८0 अंश की दूरी तक लगभग सवा दो सौ बहुत बड़े तारे हैं जो प्रायः बहुत दूर होने के कारण हमें बहुत छोटे दिखाई देते हैं। हमें अपनी पृथ्वी तो चलती हुई दिखाई नहीं देती, और ऐसा जान पड़ता है कि चन्द्रमा और सूर्य ही इस क्रांति-वृत्त पर चल रहे हैं। चंद्रमा के परिभ्रमण के विचार से उक्त सब तारे २७ तारक पुंजों में विभक्त किये गये हैं, जिन्हें नक्षत्र कहते हैं। परन्तु सूर्य के परिभ्रमण के विचार से इन्हीं तारों के १२ विभाग किए गये हैं, जिन्हें राशि कहते हैं। प्रत्येक राशि में प्रायः दो या इससे अधिक नक्षत्र पड़ते हैं, और उनके योग से कुछ विशिष्ट प्रकार की कल्पित आकृतियों वाली ये राशियाँ मानी गई है, और उन्हीं आकृतियों के विचार से उन राशियों का नाम करण हुआ है। जैसे—तुला राशि की आकृति तराजू की तरह, मकर राशि की आकृति मगर की तरह, वृश्चिक राशि की आकृति बिच्छू की तरह, सिंह राशि की आकृति शेर की तरह आदि आदि। जब सूर्य एक राशि को पार करके दूसरी राशि में प्रवेश करता है, तब उस संधिकाल को संक्रांति कहते हैं। विशेष दे० ‘नक्षत्र’। मुहावरा—(किसी से किसी की) राशि बैठाना या मिलाना= (क) सामाजिक व्यवहार की दृष्टि से अनुकूलता होना। मेल बैठना। (ख) फलित ज्योतिष की दृष्टि से ऐसी स्थिति होना जिससे दोनों में वैवाहिक संबंध होने पर अच्छी तरह जीवन-यापन या निर्वाह हो सके। ४. वह स्थिति जिसमें कोई व्यक्ति किसी की धन-संपत्ति का उत्तराधिकारी होकर मालिक बनता है। रास। विशेष—इस अर्थ से संबंध रखनेवाले मुहा० के लिए दे० ‘रास’ के अंतर्गत मुहा०।
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राशि-चक्र  : पुं० [सं० ष० त०] आकाशस्थ बारह राशियों का वह मंडल जो सूर्य के परिभ्रमण के विचार से क्रांतिवृत्त में पड़ता है। (जोडियक)
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राशि-नाम (मन्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] व्यक्ति के पुकारने के नाम से भिन्न वह नाम जो उसके जन्म के समय होनेवाली राशि के विचार से रखा जाता है। विशेष—ऐसे नामों का आरम्भ विभिन्न राशियों के विचार से विभिन्न वर्णों से होता है।
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राशि-भाग  : पुं० [सं० ष० त०] राशि-चक्र की किसी राशि का भाग या अंश। भग्नांश। (ज्योतिष)
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राशि-भोग  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी ग्रह के किसी राशि में स्थित होने का भाव। २. उतना समय जितना किसी ग्रह को एक राशि में स्थित रहना पड़ता है।
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राशिप  : पुं० [सं० राशि√पा (रक्षण)+क] किसी राशि का स्वामी या अधिपति देवता। (फलित ज्योतिष)
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राशी  : वि० [अ०] रिश्वत खानेवाला। घूसखोर। स्त्री०=राशि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राष्ट  : पुं० [सं० राष्ट्र] फारसी संगीत में १२ मुकामों में से एक।
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राष्ट्र  : पुं० [सं०√राज् (दीप्ति)+ष्ट्रन्] १. राज्य। देश। २. किसी निश्चित और विशिष्ट क्षेत्र में रहनेवाले लोग जिनकी एक भाषा, एक से रीति-रिवाज तथा एक सी विचार-धारा होती है (नेशन)। ३. किसी एक शासन में रहनेवाले सब लोगों का समूह ४. सारे देश में एक साथ खड़ा होनेवाला कोई उपद्रव या बाधा। इति। ५. पुराणानुसार पुरुरवा के वंशज काशी के पुत्र का नाम। वि० जो सब लोगों के सामने या जानकारी में आ गया हो। सर्वविदित। जैसे—उनके कानों तक पहुँचते ही यह बात राष्ट्र हो जायगी। (सबको मालूम हो जायगा)।
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राष्ट्र-कर्षण  : पुं० [सं० ष० त०] राजा या शासक का प्रजा पर अत्याचार करना। राष्ट्र या जनता को कष्ट देना।
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राष्ट्र-कवि  : पुं० [सं० ष० त०] वह कवि जिसकी कविताएँ राष्ट्र की आकांक्षाओं, आदर्शों आदि की प्रतीक मानी जाती हों और इसीलिए जो सारे राष्ट्र में बहुत ही आदर की तथा पूज्य दृष्टि से देखा जाता हो। जैसे—राष्ट्र कवि की मैथिलीशरण गुप्त।
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राष्ट्र-कुल  : पुं० =राष्ट्र-मंडल।
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राष्ट्र-कूट  : पुं० [सं०] १. एक क्षत्रिय राजवंश जो आज-कल राठौर नाम से प्रसिद्ध है। २. दे० ‘राठौर’।
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राष्ट्र-गोप  : पुं० [सं० राष्ट्र√गुप् (रक्षा)+अप्] १. राजा। २. राजाओं के प्रतिनिधि के रूप में काम करनेवाला कोई बहुत बड़ा शासक। वि० राज्य की रक्षा करनेवाला।
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राष्ट्र-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] राष्ट्र की शासन-पद्धति।
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राष्ट्र-भाषा  : स्त्री० [सं० ष० त०] किसी राष्ट्र की वह भाषा जिसका प्रयोग उसके निवासी सार्वजनिक पारस्परिक कामों में करते हैं।
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राष्ट्र-भृत  : पुं० [सं० राष्ट्र√भू (पोषण)+क्विप्, तुक-आगम, उप० स०] १. राजा। २. शासक। ३. भरत का एक पुत्र। ४. प्रजा।
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राष्ट्र-भृत्य  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो राज्य की रक्षा या शासन करता हो। २. प्रजा।
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राष्ट्र-भेद  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारतीय राजनीति में ऐसा उपाय या कार्य जिसके द्वारा किसी शत्रु राजा के राज्य में उपद्रव, मत-भेद या विद्रोह खड़ा किया जाता था।
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राष्ट्र-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] समान हित और समान भाव से स्वेच्छापूर्वक आबद्ध होनेवाले स्वतन्त्र राष्ट्रों का मण्डल या समूह। (कामनवेल्थ)। जैसे—ब्रिटिश राष्ट्र-मंडल जिसमें आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, भारत आदि अनेक स्वतन्त्र राष्ट्र-सदस्य रूप से सम्मिलित हैं।
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राष्ट्र-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० राष्ट्रवादी] यह मत या सिद्धान्त कि राष्ट्र के सभी निवासियों में राष्ट्रीयता की भावना दृढ़तापूर्वक बनी रहनी चाहिए, राष्ट्रीय परम्पराओं के गौरव का ध्यान रखते हुए उनका पालन होना चाहिए। यह धारणा कि हमें मात्र अपने राष्ट्र की उन्नति, सम्पन्नता, विस्तार आदि का ध्यान रखना चाहिए। (नेशनलिज्म)
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राष्ट्र-विप्लव  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य में होनेवाला विप्लव। विद्रोह। बलवा।
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राष्ट्र-संघ  : पुं० [सं० ष० त०] १. संसार के प्रमुख राष्ट्रों की वह संख्या जो पहले यूरोपीय महायुद्ध की समाप्ति पर वासेई की सन्धि के अनुसार १0 जनवरी, १९२0 को सब के सामूहिक कल्याण तथा सुरक्षा के उद्देश्य से बनी थी। (लीग आफ नेशन्स)। २. दे० ‘संयुक्त राष्ट्र-संघ’।
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राष्ट्रक  : पुं० [सं० राष्ट्र+कन्०] १. राज्य। २. देश। वि० राष्ट्र सम्बन्धी। राष्ट्र का।
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राष्ट्रपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी राष्ट्र का सर्वप्रधान शासनिक अधिकारी। २. प्रजातंत्र शासन-पद्धति में मतदाताओं द्वारा निर्वाचित वह व्यक्ति जिसके हाथ में कुछ नियत काल के लिए राष्ट्र की प्रभुसत्ता विधितः निहित होती है। (प्रेजीडेंट उक्त तीनों अर्थों में)
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राष्ट्रपाल  : पुं० [सं० राष्ट्र√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्, उप० स०] १. राजा। २. मथुरा के राजा कंस का एक भाई।
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राष्ट्रवादी (दिन्)  : वि० [सं० राष्ट्रवाद+इनि] राष्ट्रवाद सम्बन्धी। राष्ट्रवाद का। पुं० वह जो राष्ट्रवाद के सिद्धान्तों का अनुयायी, पोषक तथा समर्थक हो।
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राष्ट्रवासी (सिन्)  : पुं० [सं० राष्ट्र√वस् (निवास करना)+णिनि] [स्त्री० राष्ट्रवासिनी] १. राष्ट्र में रहनेवाला। २. परदेशी। विदेशी।
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राष्ट्रांतपालक  : पुं० [सं० राष्ट्र-अंत, पालक, ष० त०] प्राचीन भारत में वह जो राष्ट्र की सीमाओं की देख-रेख तथा रक्षा करता था। सीमारक्षक अधिकारी।
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राष्ट्रिक  : पुं० [सं० राष्ट्र+ठक्-इक] १. राजा। २. प्रजा। वि० राष्ट्र-सम्बन्धी। राष्ट्र का।
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राष्ट्रिय  : पुं० [सं० राष्ट्र+घ-इय] [भाव० राष्ट्रियता] १. राष्ट्र का स्वामी राजा। २. प्राचीन भारतीय नाटकों में राजा के साले की संज्ञा। वि० राष्ट्र सम्बन्धी। राष्ट्र का। राष्ट्रिक।
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राष्ट्री (ष्ट्रिन्)  : पुं० [सं० राष्ट्र+इनि] १. राज्य का अधिकारी, राजा। २. प्रधान शासक। स्त्री रानी।
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राष्ट्रीय  : वि० [सं० राष्ट्रीय] [भाव० राष्ट्रीयता] राष्ट्र-सम्बन्धी। राष्ट्र का। राष्ट्रिय। विशेष—राष्ट्रीय रूप सं० व्याकरण से असिद्ध होने पर भी लोक में चल गया है।
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राष्ट्रीयता  : स्त्री० [सं० राष्ट्रीय+तल्+टाप्] १. राष्ट्रीय अर्थात् राष्ट्र के अंग या सदस्य होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. ऐसी धारणा या भावना कि हमें आपसी मत-भेद, वैर-विरोध आदि भूलकर सारे राष्ट्र की समान उन्नति, रक्षा, समृद्धि, सुरक्षा आदि का ध्यान रखना चाहिए। (नेशनलिज्म)
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रास  : स्त्री० [सं०√रास् (शब्द)+अञ्] १. कोलाहल। शोरगुल। हो-हल्ला। २. जोर की ध्वनि या शब्द। ३. वाणी। ४. प्राचीन भारत में गोपों की वह क्रीड़ा जिसमें वे घेरा बाँधकर गाते और नाचते थे। ५. उक्त का वह विकसित रूप जो अब तक ब्रज में प्रचलित है और जिसमें श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का अभिनय सम्मिलित हो गया है। पद—रास-धारी। रास-मंडली। ६. मध्ययुग में एक प्रकार का गेय पद जो गुजरात और राजस्थान में प्रचलित थे और जो बाद में ‘रास’ (देखें) के रूप में विकसित हुए। ७. आनन्दमय क्रीड़ा। विलास। ८. एक प्रकार का चलता गाना। ९. लास्य नामक नृत्य। १॰. नाचने-गानेवालों की मंडली या समाज। ११. जंजीर। श्रृंखला। १२. संगीत में तेरह मात्राओं का एक ताल। स्त्री० [सं० राशि=ढेर] १. किसी चीज का ढेर या समूह। जैसे—खलिहान में पड़ी हुई गेहूँ चने या जौ की रास। २. उत्तराधिकार के विचार से धन, संपत्ति या प्राप्त होनेवाला उसका स्वामित्व। ३. गोंद लिया हुआ लड़का। दत्तक पुत्र। मुहावरा—(किसी का) किसी को रास बैठना=दत्तक बनकर या और किसी प्रकार उत्तराधिकारी होना। जैसे—अब तो आप उनकी रास बैठेगें (विशेषतः परिहास में)। ४. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में ८+८+६ के विराम से २२ मात्राएँ और अंत में सगण होता है। ५. संख्याओं आदि का जोड़। योग। ६. ब्याज। सूद। ७. एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है। इसका चावल सैकड़ों वर्षों तक रखा जा सकता है। स्त्री० [सं० राशि=राशि-चक्र में तारा समूह] प्रवृत्ति, रुचि, स्वभाव आदि की अनुकूलता। जैसे—उनसे किसी की रास नहीं बैठती। क्रि० प्र०—बैठना।—बैठाना। वि० १. उक्त अर्थ के विचार से, अनुकूल, लाभदायक शुभ अथवा हितकर। जैसे—यह मकान उन्हें खूब रास आया है (अर्थात् इसे पाकर वे अच्छे सम्पन्न या सुखी हुए हैं)। २. उचित। ठीक। मुनासिब। वाजिब। स्त्री० [फा० मिलाओ, सं० रश्मि, प्रा०रस्मि] १. घोड़े बैल आदि पशुओं को चलाने की रस्सी। जैसे—घोडे़ की बागडोर या बैल की रास। मुहावरा—रास कड़ी करना= (क) घोड़े की लगाम अपनी ओर खींचे रहना। (ख) लाक्षणिक रूप में किसी पर कड़ा या पूरा नियंत्रण रखना। रास में लाना=अपने अधिकार या वश में करना। २. रस्सा या रस्सी। उदाहरण—राणों षिमै न रास प्रद्यत्नो साँड़ प्रताप सी।—प्रिथीराज। स्त्री० [इब, राश=सिर] १. चौपायों की गिनती के समय संख्या-सूचक इकाइयों के साथ लगनेवाली संज्ञा। (हेड आँफ कैटल) जैसे—चार रास घोड़े पाँच रास बैल। २. चौपायों या पशुओं का झुंड।
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रास-चक्र  : पुं० राशि-चक्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रास-धारी (रिन्)  : पुं० [सं० रास+धृ (धारण)+णिनि] १. वह जो रासलीला का व्यवस्थापक हो। २. रासलीला की मण्डली का प्रधान। ३. वह जो रास-लीला में सम्मिलित होकर अभिनय, नृत्य आदि करता हो। स्त्री० राजस्थानी नृत्य नाट्य की एक विशिष्ट शैली जो ब्रज की रासलीला की तरह होती और जिसमें धार्मिक लोक-नायकों के चरित्र का अभिनय होता है।
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रास-नशीन  : वि० [सं० राशि+फा० नशीन] १. जो किसी का रास अर्थात् सम्पत्ति का उत्तराधिकारी हुआ हो। २. गोद बैठाया हुआ। दत्तक। मुतबन्ना (लड़का)।
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रास-नृत्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] गति के अनुसार नृत्य का एक भेद।
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रास-पूर्णिमा  : स्त्री० [सं० ष० त०] मार्गशीर्ष पूर्णिमा। श्रीकृष्ण ने रास-क्रीड़ा इसी तिथि को आरम्भ की थी।
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रास-बिहारी (रिन्)  : पुं० [सं० रास-वि√ह्र+णिनि, उप० स०] श्रीकृष्णचंद्र।
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रास-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] १. श्रीकृष्ण के रास-क्रीड़ा करने का स्थान। २. रास-क्रीड़ा या रास-लीला करनेवालों की मण्डली। ३. उक्त मण्डली का अभिनय।
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रास-मंडली  : स्त्री० [सं० ष० त०] रासधारियों का समाज या टोली।
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रास-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] शरत् पूर्णिमा के दिन मनाया जानेवाला एक प्राचीन उत्सव (पुराण) २. तांत्रिकों का एक उत्सव जिसे वे चैत्र पूर्णिमा को मानते हैं।
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रास-लीला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वे नृत्यात्मक क्रीड़ाएँ जो श्रीकृष्ण अपनी सखियों के साथ करते थे। २. वह नाटक या अभिनय जिसमें कृष्ण और गोपियों की प्रेम-संबंधी क्रीड़ाएँ दिखाई जाती है।
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रास-विलास  : पुं० [सं० ष० त०] रास-क्रीड़ा।
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रासक  : पुं० [सं० रास+कन्] एक तरह का हास्य-रस-प्रधान उपरूपक जिसमें पाँच अभिनेता होते हैं। इसका नायक मूर्ख और नायिका चतुर होती है।
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रासन  : वि० [सं० रसना+अण्] स्वादिष्ट। जायकेदार। पुं०=राशन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रासना  : स्त्री०=रास्ना।
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रासा  : पुं० [हिं० रासा=एक प्रकार का गेय पद] १. वह काव्य जिसमें किसी के वीरतापूर्ण कृत्यों या युद्धों का सविस्तर वर्णन हो। २. किसी प्रकार का कथा-काव्य (राज०) ३. बाइस मात्राओं का एक छंद जिसके अंत में सगण होता है। ४. गहरी तकरार या हुज्जत। लड़ाई-झगड़ा।
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रासायन  : वि० [सं० रसायन+अण्] १. रसायन संबंधी। २. रसायन के रूप में होनेवाला।
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रासायनिक  : वि० [सं० रसायन√ठक्—इक] रसायन-शास्त्र-संबंधी। रसायन का। पुं० वह जो रसायन-शास्त्र का ज्ञाता हो।
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रासि  : स्त्री०=राशि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रासिख  : वि० [अ० रासिख] १. पक्का। मजबूत। अटल। स्थिर।
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रासी  : स्त्री० [देश] १. तीसरी बार खींची हुई शराब जो सबसे निकृष्ट समझी जाती है। २. सज्जी। वि० १. खराब, झूठा या नकली। २. जिसमें खोट या मिलावट हो। जैसे—सोने का रासी तार। स्त्री०=राशि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रासु  : वि० [फा० रास्त] १. सीधा। सरल। २. उचित। ठीक। वाजिब। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रासेरस  : पुं० [सं० अलुक० स०] १. गोष्ठी। २. रास-बिहार। रासक्रीड़ा। ३. श्रृंगार। सजावट। ४. उत्सव। ५. परिहास। हँसी-ठठ्ठा।
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रासेश्वरी  : स्त्री० [सं० रास-ईश्वरी, ष० त०] राधा।
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रासो  : पुं० [सं० रहस्य] किसी राजा का पद्यमय जीवन-चरित्र। जैसे—पृथ्वीराज रासो।
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रास्त  : वि० [फा०] १. दाहिने ओर पड़ने या होनेवाला। दाहिना। २. सीधा। सरल। ३. ठीक। दुरुस्त। ४. उचित। वास्तविक। वाजिब। ५. अनुकूल। मुआफिक। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—होना।
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रास्तगो  : वि० [फा०] [भाव० रास्तगोई] सब बोलनेवाला सत्यवक्ता।
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रास्तगोई  : स्त्री० [फा०] १. सत्य बोलना। २. सत्य-कथन।
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रास्तबाज  : वि० [फा० रास्तबाज़] [भाव० रास्तबाजी] ईमानदार और सच्चा। विशेषतः लेन-देन में साफ २. नेकचलन। सदाचारी।
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रास्तबाजी  : स्त्री० [फा० रास्तबाज़ी] १. ईमानदारी। सच्चाई। २. सदाचार।
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रास्ता  : पुं० [फा० रास्तः] १. वह कच्ची या पक्की जमीन जिस पर लोग सामान्यतया चलते-फिरते या आते-जाते रहते हैं। मुहावरा—रास्ता कटना=चलने से रास्ता पार या पूरा होना। जैसे—बात-चीत में ही आधा रास्ता कट गया। (किसी का) रास्ता काटना=किसी के चलने के समय उसके सामने से होकर किसी का निकल जाना। जैसे—बिल्ली रास्ता काट गई। रास्ता देखना या पकड़ना= (क)मार्ग का अवलंबन करना। रास्ते पर चलना। (ख) कहीं से हटकर चले जाना। जैसे—अच्छा, अब तुम अपना रास्ता देखो। (या पकड़)। (किसी का) रास्ता देखना=प्रतीक्षा करना। हटाना। (ख) इधर-उधर की बातें करके टालना। रास्ते पर लाना=सुमार्ग पर चलाना। अच्छे या ठीक रास्ते पर लगाना। रास्ते लगना= (क) चल पड़ना। (ख) ऐसे मार्ग पर चलना जिससे उद्देश्य सिद्ध हो। २. प्रथा। रीति। चाल। जैसे—अब तो आपने यह नया रास्ता चला ही दिया है। ३. उपाय। तरकीब। युक्ति। जैसे—अभी तो इस संकट से निकलने का रास्ता सोचना है। मुहावरा—(किसी को) रास्ता बताना= (क) उपाय, तरकीब या युक्ति बताना। (ख) कोई काम करने का ढंग बताना या सिखाना।
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रास्ना  : स्त्री० [सं०√रस् (आस्वादन)+न, दीर्घ, +टाप्] १. गंधना हुली नामक कंद जो आसाम, लंका, जावा आदि में अधिकता से होता है। २. गंधनाकुली। ३. रुद्र की प्रधान पत्नी।
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रास्निका  : स्त्री० [सं० रास्ना+कन्+टाप्, ह्रस्व, इत्व] रास्ना।
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रास्य  : पुं० [सं० रास्+यत्] श्रीकृष्ण।
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राह  : स्त्री० [फा०] १. मार्ग। पथ। रास्ता। मुहावरा—राह पड़ना= (क) रास्ते पर चलना या जाना। (ख) रास्ते में चलनेवाले पर छापा डालना। लूटना। राह मारना= (क) रास्ते में चलनेवाले को लूटना। (ख) दे० ‘रास्ता’ के अंतर्गत (किसी का) रास्ता काटना। विशेष—राह के सब मुहावरा के लिए दे० ‘रास्ता’ के मुहावरा। २. कोई काम या बात करने का उचित और ठीक ढंग। पद—राह राह का=ठीक ढंग या तरह का। उदाहरण—नखरो राह राह को नीको।—भारतेन्दु। राह राह से=सीधी या ठीक तरह से। ३. प्रथा। रीति। ४. कायदा। नियम। ५. तरकीब। युक्ति। पुं० =राहु (ग्रह) स्त्री०=रोहू (मछली)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राह-खरच  : पुं० [फा० राह+खर्च] यात्रा करते समय होनेवाला व्यय। मार्ग-व्यय।
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राह-खरची  : स्त्री०राह-खरच (मार्ग-व्यय)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राह-चलता  : पुं० [फा० राह+हिं० चलता] [स्त्री० राह-चलती] १. रास्ता चलनेवाला। पथिक। राहगीर। बटोही। २. व्यक्ति जिससे विशेष परिचय न हो। जैसे—यों ही राह-चलतों से मजाक नहीं करना चाहिए।
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राह-रस्म  : स्त्री० [फा०] १. मेल-जोल। व्यवहार घनिष्ठता। २. चाल। परिपाटी। प्रथा।
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राह-रीति  : स्त्री० [हिं० राह+सं० रीति] १. पारस्परिक राह-रस्म। व्यवहार।। २. जान-पहचान। परिचय। ३. आचरण, व्यवहार आदि का उचित या ठीक तरह से किया जानेवाला पालन।
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राहगीर  : पु० [फा०] वह जो रास्ता पकड़े हुए हो। बटोही।
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राहजन  : पुं० [फा० राहज़न] [भाव० राहजनी] रास्ते में चलनेवालों को लूटनेवाला। बटमार।
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राहजनी  : स्त्री० [फा० राहज़नी] रास्ते में चलनेवाले लोगों को लूटना। बटमारी।
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राहड़ी  : पुं० [देश] एक प्रकार का घटिया कंबल।
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राहत  : स्त्री० [अ०] १. आराम। सुख। चैन। २. वह आराम जो कष्ट, रोग आदि में कमी होने पर मिलता है। ३. बोझ, भार, उत्तरदायित्व से छुट्टी मिलने पर होनेवाली आसानी या सुगमता।
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राहत-तलब  : वि० [अ०] [भाव० राहत-तलवी] १. आराम तलब। २. कामचोर।
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राहदार  : पुं० [फा०] वह जो किसी रास्ते की रक्षा करता या उस पर आने-जानेवालों से कर वसूल करता हो।
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राहदारी  : स्त्री० [फा०] १. किसी दूर देश में जाने के लिए रास्ते पर चलना। २. वह कर जो प्राचीन काल में यात्रियों को कुछ विशिष्ट स्थानों पर चुकाना पड़ता था। दे० ‘राहदारी का परवाना’।
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राहदारी का परवाना  : पुं० [हिं०] प्राचीन काल में वह परवाना या अधिकार-पत्र जो दूर देश के यात्रियों को कुछ विशिष्ट मार्गों से आने-जाने के लिए राज्य की ओर से मिलता था। २. दे० ‘पारपत्र’।
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राहना  : स० [हिं० राह (राह बनाना)] १. चक्की के पाटों को खुरदुरा करके पीसने योग्य बनाना। जाँता कूटना। २. रेती आदि को खुरदुरा करके ऐसा रूप देना कि वह ठीक तरह से चीजें रेत सके। पुं० =रहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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राहनुमा  : वि० [फा०] [भाव० राहनुमाई] पथ-प्रदर्शक।
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राहनुमाई  : स्त्री० [फा०] पथ-प्रदर्शन।
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राहबर  : वि० [फा०]=रहबर (मार्ग-प्रदर्शक)।
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राहर  : पुं० =अरहर (अन्न)।
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राहा  : पुं० [हिं० रहना] मिट्टी का वह चबूतरा जिस पर चक्की के नीचे का पाट जमाया रहता है।
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राहिन  : वि० [अ] रेहन अर्थात् गिरों या बंधक रखनेवाला।
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राही  : पुं० [फा०] राहगीर। मुसाफिर। रास्ता चलनेवाला व्यक्ति। पथिक। मुहावरा—राही करना=धता बताना (बाजारू) राही होना=चलता बनना। रास्ता पकड़ना (बाजारू)। स्त्री० [सं० राधिका, प्रा० रहिया] राधा या राधिका। उदाहरण—राजमती राही जी सी।—नरपति नाल्ह।
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राहु  : पुं० [सं०√रह् (त्याग)+उण्] १. पुराणानुसार नौ ग्रहों में से एक जो विप्रचिति के वीर्य से सिहिंका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। विशेष—प्राचीन काल में चंद्रमा के आरोह-पात और अवरोह-पात वाले बिंदुओं को क्रमात् राहु और केतु कहते थे (दे० ‘पात’) पर आगे चलकर पौराणिक काल में राहु की राक्षस रूप में कल्पना होने लगी और समुद्र-मंथन वाली कथा के प्रसंग में उसका सिर काटने की बात भी सम्मिलित हुई, तब केतु उस राक्षस का कबंध तथा राहु उसका सिर माना जाने लगा। लोक में ऐसा माना जाता है कि उसी के ग्रसने से चन्द्रमा और सूर्य को ग्रहण लगता है। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसा व्यक्ति या पदार्थ जो किसी की सत्ता के लिए विशेष रूप से कष्टदायक या घातक हो। पुं० [सं० राघव] रोहू मछली।
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राहु-ग्रसन  : पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।
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राहु-ग्रास  : पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।
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राहु-दर्शन  : पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।
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राहु-भेदी (दिन्)  : पुं० [सं० राहु√भिद् (विदारण)+णिनि] विष्णु।
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राहु-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] राहु की माता सिहिंका।
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राहु-रत्न  : पुं० [सं० मध्य० स०] गोमेद मणि जो राहु के दोषों का शमन करनेवाली मानी जाती है।
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राहु-सूतक  : पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।
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राहु-स्पर्श  : पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।
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राहुल  : पुं० [सं०] यशोधरा के गर्भ से उत्पन्न गौतम बुद्ध के पुत्र का नाम।
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राहूत  : पुं० [?] सूफी मत के अनुसार ऊपर के नौ लोकों में से आठवाँ लोक।
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रिअना  : पुं० [देश] एक प्रकार का कीकर। रीआँ।
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रिआयत  : स्त्री० [अ०] १. किसी चीज के सामान्य मूल्य में किसी के लिहाज आदि के कारण की जानेवाली कमी। जैसे—उन्होंने ५०) रुपए की रिआयत की। २. किसी नियम, बंधन में किसी कारणवश अथवा किसी के लिए की जानेवाली ढिलाई या दिया जानेवाला सुभीता। ३. किसी से सख्ती न करके किया जानेवाला दयापूर्ण व्यवहार (कन्सेशन)। ४. कमी। न्यूनता। ५. ख्याल। ध्यान। जैसे—इस दवा में खाँसी की भी रियाअत रखी गई है, अर्थात् यह ध्यान भी रखा गया है कि खाँसी दूर हो।
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रिआयती  : वि० [अ०] १. जो रियाअत के रूप में हो। २. जिसमें किसी तरह की रियाअत की गई हो। जैसे—दुर्गा पूजा में रेल के रिआयती टिकट मिलते हैं।
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रिआया  : स्त्री० [अ० रआया] प्रजा।
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रिकवँछ  : स्त्री० [देश] एक प्रकार के पकौड़े जो उर्दू की पीठी और अरुई के पत्तों या इसी प्रकार के कुछ और पत्तों से बनता है। पतौड़। उदाहरण—पान लाइकै रिकवँछ छौकै हींगू मिरिच औ नाद।—जायसी।
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रिकशा  : पुं० [जापानी जिन् रिकशा=आदमी के द्वारा खींची जानेवाली गाड़ी] एक प्रकार की छोटी गाड़ी जिसे आदमी खींचते हैं और जिसमें एक या दो आदमी बैठते हैं। विशेष—अब आदमी के बदले इसमें अधिकतर बाइसिकिल के पहिए और कल-पुरजे लगाये जाते हैं, जिसे साइकिल रिक्शा कहते हैं। रिकसा
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रिकाब  : स्त्री०=रकाब।
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रिकाबी  : स्त्री=रकाबी।
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रिकार्ड  : पुं० दे० ‘रेकार्ड’।
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रिक्त  : वि० [सं०√रिच् (अलग करना)+क्त] १. खाली। शून्य। जैसे—रिक्त घट, रिक्त स्थान। २. गरीब। निर्धन। पुं० जंगल। वन।
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रिक्त-कुंभ  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. साहित्य में ऐसी भाषा जो समझ में न आवे अथवा जिसका कुछ भी अर्थ न निकलता हो। साधारण लोक-व्यवहार में ऐसी चीज जो देखने भर को हो, काम में आने योग्य न हो।
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रिक्तता  : स्त्री० [सं० रिक्त+तल्+टाप्] १. रिक्त या खाली होने की अवस्था या भाव। २. नौकरी के लिए पद या स्थान रिक्त होने की अवस्था या भाव। (वैकेन्सी)।
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रिक्ता  : स्त्री० [सं० रिक्त+टाप्] फलित ज्योतिष में चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी तिथियाँ जो शुभ कामों के लिए वर्जित हैं।
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रिक्तार्क  : पुं० [सं० रिक्ता-अर्क, मध्य० स०] रविवार को पड़नेवाली कोई रिक्ता तिथि।
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रिक्थ  : पुं० [सं० रिच्+थक्] १. वह सम्पत्ति जो उत्तराधिकारी को दी जाय। २. वह धन-संपत्ति या ऐसी ही कोई और चीज जो किसी को उत्तराधिकारी के रूप में मिली हो या मिले (लिगेसी)। ३. व्यापार में लगी हुई सारी पूँजी और उससे संबंध रखनेवाली सारी सम्पत्ति।
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रिक्थ-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] इच्छा-पत्र। वसीयतनामा।
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रिक्थहारी (रिन्)  : पुं० [सं० रिक्थ√हृ (हरण)+णिनि] १. (रिक्थ प्राप्त करने का उचित या वास्तविक अधिकारी। २. मामा।
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रिक्थी (क्थिन्)  : पुं० [सं० रिक्थ+इनि] [स्त्री० रिक्थिनी] वह जिसे उत्तराधिकार में धन या सम्पत्ति मिले या मिलने को हो। रिक्थहारी।
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रिक्ष  : पुं०=रीक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रिक्षपति  : पुं० ऋक्षिपति। जामवंत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रिक्षा  : स्त्री० [सं० लिक्षा] १. जूँ का अंडा। लीख। लिक्षा। २. त्रसरेणु। पुं० =रिकशा।
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रिख  : पुं० [सं० ऋक्षु०] तारा। नक्षत्र। उदाहरण—राजति रद रिखपंति रुख।—प्रिथीराज।
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रिखभ  : पुं० =षभ।
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रिखिय  : पुं० =ऋषि।
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रिखू  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की ऊख।
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रिखेसर  : पुं० =ऋखीश्वर।
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रिंग  : स्त्री० [अं०] १. अंगूठी। छल्ला। २. किसी प्रकार का गोलाकार घेरा। चूड़ी। वलय।
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रिग  : पुं० =ऋक्।
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रिंगण  : पुं० [सं०√रिंग (गति)+ल्युट—अन] १. रेंगना। २. फिसलना। ३. खिसकना। सरकना। ४. विचलित होना। डिगना।
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रिंगन  : स्त्री० [सं० रिगण] घुटनों के बल चलना। रेंगना।
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रिंगना  : अ०=रेंगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रिंगनी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की ज्वार और उसका पौधा।
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रिंगल  : पुं० [देश] एक तरह का पहाडी बाँस।
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रिंगाना  : स०=रेंगाना।
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रिगाना  : स०=रेंगाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रिंगिन  : स्त्री० [अं० रिंगिन] वह रस्सी जिससे जहाज के मस्तूल आदि बाँधे जाते हैं। (लश०)
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रिचा  : स्त्री०ऋचा।
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रिचीक  : पुं० ऋचीक (जमदग्नि के पिता)।
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रिच्छ  : पुं० =रीछ (भालू)।
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रिच्छा  : स्त्री०=रक्षा।
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रिज़क  : पुं० [अ० रिजक] रोज़ी। जीविका। जीवन-वृत्ति। क्रि० प्र० देना।—पाना।—मिलना। मुहावरा—(किसी का) रिजक मारना=किसी की जीविका या रोजी में बाधक होना। जीविका के साधन से वंचित करना।
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रिज़र्व  : वि० [अं०] जिसे किसी विशिष्ट काम या व्यक्ति के लिए रक्षित किया गया हो। जिसका उपयोग दूसरे कामों या व्यक्तियों के लिए न हो सकता हो।
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रिज़ाला  : पुं० [अ०] १. बदमाश। आवारा। वेशर्म आदमी। २. कमीना। नीच।
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रिज़ीली  : स्त्री० [फा० रजील=नीच] रिजाला होने की अवस्था या भाव। कमीनापन। नीचता।
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रिजु  : वि० =ऋजु (सीधा)।
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रिज्क  : पुं० =रिजक।
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रिझकवार  : वि० [हिं० रीझना+वार (प्रत्यय)] १. रीझनेवाला। २. जो प्रायः अच्छी बातों पर रीझ जाता हो। पुं० =रिझवार (प्रेमी)।
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रिझवाना  : स०=रिझाना।
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रिझवार  : वि० [वि० रीझाना+वार (प्रत्यय)] [स्त्री० रिझवारी] जिसका मन किसी के गुण, रूप व्यापार आदि पर रीझता हो। पुं० =प्रेमी।
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रिझाना  : स० [सं० रंजन] अपने गुण, चेष्टा, रूप आदि से किसी का ध्यान आकृष्ट करते हुए उसे अपनी ओर अनुरक्त बनाना।
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रिझामल  : वि० =रिझावर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रिझाव  : पुं० [हिं० रिझना+आव (प्रत्यय)] १. रीझने की अवस्था या भाव। २. रिझाने की क्रिया या भाव।
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रिझावना  : स०=रिझाना।
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रिटायर्ड  : वि० [अं०] जो अपने काम से अवसर-ग्रहण कर चुका हो। अवकाश-प्राप्त
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रिड़कना  : स० [?] दही आदि बिलोना। मथना। अ० १. खटकना। २. गड़ना। चुभना।
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रिण  : पुं० =ऋण। पुं० =रण (डिं०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रिणाई  : वि० [सं० ऋण+दायिन्] जिसने ऋण लिया हो। उदाहरण—छिन जेही रिणी रिणाई।—प्रिथीराज।
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रित  : स्त्री०=ऋतु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रितना  : अ० [सं० रिक्त, हिं० रीता] रक्त या खाली होना। शून्य होना।
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रितवना  : स० [हिं० रीता+ना] रीता अर्थात् खाली करना। रिक्त करना।
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रितु  : स्त्री०=ऋतु।
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रितुराज  : पुं० =ऋतुराज (वसंत)।
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रितुवंती  : स्त्री०=ऋतुमती (रजस्वला)।
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रितुसारी  : पुं० [सं० ऋतु+सारी] एक प्रकार का चावल।
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रिंद  : पुं० [फा०] [भाव० रिंदी] १. ऐसा व्यक्ति जो धार्मिक बातों पर अंध-विश्वास न रखता हो, और तर्क तथा बुद्धि के विचार से केवल युक्ति संगत बातें मानता हो। धार्मिक विषयों में उदार तथा स्वतंत्र विचारोंवाला व्यक्ति। २. धार्मिक वृत्तिवाले मुसलमानों की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति जो मद्यपान करता और श्रृंगारिक भोग-विलाश में विशेष प्रवृत्ति रखता हो, फिर भी अपने आप को अच्छा मुसलमान समझता हो। ३. मनमौजी और स्वछन्द प्रकृतिवाला व्यक्ति। उदाहरण—एक तुम्हीं हो जो बहक जाते हो तोबा की तरफ। वर्ना रिंदों में बुरा और चलन किसका है।—कोई शायर। वि० मतवाला। मस्त।
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रिद  : पुं० =हृदय।
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रिंदगी  : स्त्री० [फा०] १. रिंद होने की अवस्था या भाव। रिंदापन।
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रिंदा  : वि० [फा० रिंद] उद्दंड, निरंकुश, निर्लज्ज और लुच्चा। तुच्छ और बेहूदा।
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रिद्धि  : स्त्री०=ऋद्धि।
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रिद्धि-सिद्धि  : स्त्री०=ऋद्धि-सिद्धि।
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रिध  : स्त्री०=ऋद्धि।
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रिन  : पुं० =ऋण।
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रिनबंधी  : पुं० [सं० ऋण+बंध] ऋणी।
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रिनियाँ  : वि० [सं० ऋण] जिसने ऋण लिया हो। ऋणी।
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रिनी  : वि० =ऋणी (कर्जदार)।
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रिपटना  : अ०=रपटना (फिसलना)।
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रिपु  : पुं० [सं०√रप् (बोलना)+कु, इत्व] [भाव० रिपुता] १. उन दो व्यक्तियों, दलों आदि में से हर एक जिनमें एक दूसरे के प्रति शत्रुता का भाव हो। दुश्मन। शत्रु। २. लाक्षणिक अर्थ में वह गुण, तथ्य या वस्तु हो जो अत्यन्त हानिकर तथा नाशक प्रभावशाली हो। जैसे—षटरिपु। ३. जन्मकुण्डली में लग्न से छठा स्थान जिसमें लोगों के शत्रुभाव का विचार होता है।
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रिपुघ्न  : वि० [सं० रिपु√हन् (हिंसा)+क] शत्रुओं का नाश करनेवाला।
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रिपुता  : स्त्री० [सं० रिपु+तल्+टाप्] १. रिपु होने की अवस्था या भाव। दुश्मनी। शत्रुता।
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रिपोर्ट  : स्त्री० [अं०] १. किसी घटना आदि का वह विवरण जो किसी अधिकारी को उनकी जानकारी के लिए दिया जाता है। प्रतिवेदन। २. किसी संस्था आदि के कार्यों का विस्तृत विवरण। कार्य-विवरण। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के सम्बन्ध की जानने योग्य बातों या ब्योरा।
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रिपोर्टर  : पुं० [अं०] संवाददाता (समाचार पत्रों का)।
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रिफाकत  : स्त्री० [अ० रिफ़ाक़, रफ़ीक़ का बहुवचन] १. मित्रगण। साथी लोग। २. रफीक या साथी होने की अवस्था या भाव। मित्र। ३. संग-साथ।
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रिफार्म  : पुं० [अं०] ऐब, खराबियाँ, दोष आदि दूर करने की क्रिया या भाव। सुधार।
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रिफार्मर  : पुं० [अं०] १. सुधारक। २. समाज-सुधारक।
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रिफार्मेटरी  : स्त्री० [अं०] वह स्थान जहाँ छोटी अवस्था के विशेषतः अल्प-वयस्क अपराधी बालक चरित्र-सुधार की दृष्टि से कैद करके रखे जाते हैं।
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रिबन  : पुं० [अं०] १. पतली पट्टी। २. फीते के तरह की वह चौड़ी पट्टी जिससे स्त्रियाँ बाल आदि बाँधती है। ३. फीता। जैसे—टाइप राइटर का रिबन।
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रिभु  : पुं० =ऋभु (देवता)।
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रिम  : पुं० [सं० अरिम् या ऋपु] शत्रु (डिं०)। स्त्री०=रीम।
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रिम-झिम  : स्त्री० [अनु०] छोटी-छोटी बूँदों का लगातार गिरना। हलकी फुहार पड़ना। मुहावरा—रिमझिम बरसना=छोटी-छोटी बूँदों के रूप में पानी बरसना। उदाहरण—भादों भय भारी लगे, रिम-झिम बरसे मेह।—गीत।
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रिमहर  : पुं० [?] शत्रु (डिं०)
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रिमाइंडर  : पुं० [अं०] स्मृति-पत्र। स्मारक।
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रिमिका  : स्त्री० [?] काली मिर्च की लता। (अनेकार्थ)।
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रिया  : स्त्री० [अं०] १. पाखंड। २. प्रदर्शन। ३. दिखावा।
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रियाकर  : वि० [अं०+फा] [भाव० रियाफरी] ढोंगी। मक्कार।
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रियाकारी  : स्त्री० [अं०+फा] पाखंड।
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रियाज  : पुं० [अं० रियाज] १. तपस्या। २. किसी काम या बात में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए परिश्रमपूर्वक और नियमित रूप से किया जानेवाला उसका अभ्यास। जैसे—गाने-बजाने का रियाज करना। ३. ऐसा बढ़िया और बारीक काम जो उक्त प्रकार के यथेष्ट अभ्यास कर चुकने पर बहुत परिश्रम पूर्वक किया गया हो। जैसे—ताजमहल में नक्काशी का सारा काम बहुत रियाज का है।
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रियाजत  : स्त्री० [अं० रियाजत] १. उद्यम। परिश्रम। २. अभ्यास। ३. जप-तप। तपस्या।
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रियाजी  : वि० [अं० रियाजी] जिसका ज्ञान रियाज करने पर प्राप्त होता हो। पुं० गणित की विद्या।
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रियासत  : स्त्री० [अं०] १. रईस होने की अवस्था या भाव। अमीरी। वैभव। ऐश्वर्य। २. राज्य विशेषतः ब्रिटिश भारत में देशी नरेशों का राज्य। ३. आधिपत्य। स्वामित्व।
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रियासती  : वि० [अं०] रियासत सम्बन्धी। रियासत का।
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रियाह  : वि० [अं० रेह का बहु] शरीर के अन्दर की वायु जो विकृत होकर किसी रोग के रूप में प्रकट होती है।
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रिर  : स्त्री० [अनु] बहुत गिड़गिड़ाकर और आग्रह पूर्वक किया जानेवाला अनुरोध या प्रार्थना।
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रिरना  : अ० [अनु] बहुत गिड़गिड़ाते हुए अपनी दीनता प्रकट करना।
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रिरियाना  : अ०=रिरिना।
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रिरिंसा  : स्त्री० [सं०] १. चित्त प्रसन्न करने या किसी प्रकार के विनोद से सुख प्राप्त होने की इच्छा। २. काम-वासना तृप्त करने की इच्छा।
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रिरिहा  : वि० [हिं० रिरिना] बहुत गिड़गिड़ाकर या रट लगाकर प्रार्थना करनेवाला।
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रिरी  : स्त्री० [सं०√रि (गति)+क्विप्, पृषो, सिद्धि] पीतल (धातु)। स्त्री०=रिर।
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रिलना  : अ० [हिं० रेलना मि० पं० रलना=मिलना] प्रवेश करना। पैठना। घुसना। अ०=रलना। (मिलना)
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रिलीफ़  : स्त्री० [अं०] १. कष्टपूर्ण या दुःखद वातावरण या स्थिति के उपरान्त मिलनेवाला आराम या चैन। २. सहायता। ३. उक्त प्रकार के प्रसंगों में दी जानेवाली सहायता।
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रिव  : पुं० =रवि (डि०)।
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रिवाज  : पुं० =रवाज (प्रथा)।
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रिवायत  : स्त्री० [अं०] १. सुनी-सुनाई बात दूसरों से कहना। २. इस प्रकार कही जानेवाली बात। ३. कहावत। लोकोक्ति।
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रिवाल्वर  : पुं० [अं०] गोली चलाने या छोड़ने का एक प्रकार का छोटा उपकरण। तमंचा।
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रिव्यू  : स्त्री० [अं०] १. समीक्षा। आलोचना। २. नजरसानी।
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रिशवत  : स्त्री० [अं० रिश्वत] वह धन जो किसी अधिकारी को खुश करने तथा उससे कोई जायज या नायायज काम कराने के उद्देश्य से दिया जाता है। उत्कोच। घूस। लाँच। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—मिलना।—लेना।
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रिश्ता  : पुं० [फा० रिश्तः] व्यक्तियों में होनेवाला पारिवारिक या वैवाहिक सम्बन्ध। नाता।
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रिश्तेदार  : पुं० [फा० रिश्तःदार] [भाव० रिश्तेदारी] वह जिससे कोई रिश्ता हो। संबंधी। नातेदार।
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रिश्तेदारी  : स्त्री० [फा० रिश्तःदारी] रिश्ता होने की अवस्था या भाव। संबंध। नाता।
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रिश्तेमंद  : पुं० [फा०]=रिश्तेदार।
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रिश्तेमंदी  : स्त्री०=रिश्तेदारी।
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रिश्य  : पुं० [सं०√रिश् (हिंसा+क्यप्)] मृग।
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रिश्वत  : स्त्री०=रिशवत्।
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रिश्वतखोर  : पुं० [अं० रिश्वत+फा० खोर] [भाव० रिश्वतखोरी] वह जो रिश्वत लेता हो। घूस खानेवाला।
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रिश्वतखोरी  : स्त्री० [अं० रिश्वत+फा० खोरी] १. रिश्वत लेने की अवस्था या भाव। २. दूसरे से रिश्वत लेने की आदत या लत।
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रिषभ  : पुं० =ऋषभ (बैल)।
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रिषि  : पुं० =ऋषि।
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रिष्ट  : पुं० [सं०√रिष् (हिंसा)+क्त] १. कल्याण। मंगल। २. अकल्याण। अमंगल। ३. अभाव। ४. नाश। ५. पाप। ६. खड्ग। वि० नष्ट। बरबाद। वि० [सं० हृष्ट] १. मोटा ताजा। २. प्रसन्न और संतुष्ट।
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रिष्टि  : स्त्री० [सं०√रिष् (हिंसा)+क्तिन्] १. खड्ग। २. अमंगल।
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रिष्यमूक  : पुं० [सं० ऋष्यमूक] रामचरित मानस के अनुसार दक्षिण भारत का एक पर्वत जिस पर राम और सुग्रीव की भेंट हुई थी।
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रिस  : स्त्री० [सं० रुष] १. किसी के प्रति मन में होनेवाला रोष। २. मन में दबी हुई नाराजगी। मुहावरा—रिस मारना=गुस्सा काबू में करना।
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रिसना  : अ०=रसना। (तरल पदार्थ अन्दर से बाहर निकलना)।
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रिसवाना  : स० [हिं० रिसाना का प्रे०] रिसाने (किसी को अप्रसन्न होने) में प्रवृत्त करना।
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रिसहा  : वि० [हिं० रिस+हा (प्रत्यय)] जो बात-बात पर क्रुद्ध हो उठता हो।
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रिसहाया  : वि० [हिं० रिसाया] [स्त्री० रिसहाई] कुपित। जिसके मन में रिस उत्पन्न हुई हो। रुष्ट। अप्रसन्न। नाराज।
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रिसान  : पुं० [?] ताने के सूतों को फैलाकर उनको साफ करने का काम। (जुलाहे)।
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रिसाना  : अ० [हिं० रिस+आना (प्रत्यय)] क्रुद्ध होना। खफा होना। गुस्सा होना। स० किसी पर क्रोध करना। नाराजी जाहिर करना।
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रिसाल  : पुं० [अं० इरसाल] वह धन जो कर के रूप में वसूल करके सरकारी खजाने या राजधानी में भेजा जाता था।
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रिसालत  : स्त्री० [अं०] १. रसूल अर्थात् दूत का काम, पद या भाव। २. इस्लाम में मुहम्मद साहब को ईश्वर का दूत मानने की अवस्था या सिद्धान्त।
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रिसालदार  : पुं० [फा० रिसालःदार] १. घुड़सवार। सैनिकों का नायक। २. वह कर्मचारी जो कर वसूल करके खजाने में पहुँचाता था।
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रिसाला  : पुं० [फा० रिसालः] १. घोड़-सवारों की सेना। अश्वारोही सेना। २. सामरिक पत्र। पत्रिका। ३. पुस्तिका।
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रिसि  : स्त्री०=रिस।
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रिसिक  : स्त्री० [सं० रिषीक] तलवार।
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रिसियाना  : अ०=रिसाना।
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रिसौहाँ  : वि० [हिं० रिस+औहाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० रिसौहीं] १. क्रोध से युक्त या भरा हुआ। जैसे—रिसौहीं आँखे। २. रिस या क्रोध का सूचक।
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रिहड़ी  : स्त्री० [?] बलुई जमीन या रेतीली मिट्टी।
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रिहन  : पुं० [अं०]=रेहन।
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रिहननामा  : पुं० =रेहननामा।
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रिहर्सल  : पुं० [अं०] १. (किसी नाटक आदि में अभिनय करनेवाले पात्रों द्वारा किसी नाटक का किया जानेवाला अभ्यास के रूप में अभिनय। २. वह अभ्यास जो किसी कार्य को ठीक समय पर करने से पहले किया जाय।
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रिहल  : स्त्री० [अं०] काठ की बनी हुई कैचीनुमा चौकी जिस पर धार्मिक ग्रन्थ आदि रखकर पढ़े जाते हैं।
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रिहलत  : स्त्री० [अं०] १. प्रस्थान। खानगी। २. इस लोक से सदा के लिए होनेवाला प्रस्थान, अर्थात् मृत्यु।
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रिहा  : वि० [फा०] [भाव० रिहाई] १. (बंधन, बाधा, संकट आदि से) छूटा हुआ। मुक्त। २. (कैदी) जिसे कैद से छुट्टी मिल गई हो।
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रिहाइश  : स्त्री० [फा० रहाइश] १. रहने का स्थान। निवास स्थान। २. रहने अर्थात् जीवन-निर्वाह करने का ढंग। रहन-सहन।
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रिहाई  : स्त्री० [फा० रहाई] छुटकारा। मुक्ति। छुट्टी। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
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री  : स्त्री० [सं०√री (गति)+धातु] १. गति। २. वध। हत्या। ३. ध्वनि। शब्द। अव्य० [हिं० रे (सम्बोधन) का स्त्री०] सखियों के लिए सम्बोधन का शब्द। अरी। एरी।
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रीगन  : पुं० [दे०] भादों तथा कुंआर के महीनों में होनेवाला एत प्रकार का धान।
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रीछ  : पुं० [सं० ऋक्ष] [स्त्री० रीछनी] भालू नामक जंगली जानवर। (दे० ‘भालू’)।
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रीछराज  : पुं० [सं० ऋक्षराज] जामवंत।
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रीझ  : स्त्री० [सं० रीझना] १. रीझने की क्रिया या भाव। २. एक बार कोई विशेष काम करने की मन में होनेवाली बहुत दिनों की प्रबल भावना। क्रि० प्र०—उतारना। पद—रीझ-बूझ=प्रवृत्ति या रुचि और समझदारी। जैसे—पहले उन लोगों की रीझ-बूझ तो देख लो, तब उनके साथ सम्बन्ध की बातचीत करना।
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रीझना  : अ० [सं० रंजन] १. किसी की चेष्टा, गुण, रूप आदि प्रभावित होकर उस पर अनुरक्त या मुग्ध होना। २. किसी पर प्रसन्न होना।
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रीठ  : स्त्री० [सं० रिष्ठ] १. तलवार। २. युद्ध। (डिं०)। वि० [सं० अरिष्ठ] १. खराब। बुरा। २. घातक। नाशक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रीठा  : पुं० [सं० रिष्ठ] १. एक प्रकार का जंगली वृक्ष। २. उक्त का फल जिसकी झाग से कपड़े साफ किये जाते हैं। पुं० [?] वह भट्ठा जिसमें कंकड़ फूके जाते हैं। चूना बनाने की भट्ठी।
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रीठी  : स्त्री०=रीठा।
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रीढ़  : स्त्री० [?] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के जंतुओं में पीठ के बीचों बीच की वह खड़ी हड्डी जो कमर तक जाती है और जिससे पसलियाँ मिली हुई रहती हैं। मेरु-दंड। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी बात जो किसी चीज का मूल आधार हो।
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रीढ़-रज्जु  : स्त्री० दे० ‘मेरु-रज्जु’।
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रीण  : वि० [सं०√री (गति)+क्त] चूआ, टपका या रसा हुआ। स्रुत।
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रीत  : स्त्री० [सं० रीति] प्रथा। रिवाज।
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रीतना  : अ० [सं० रिक्त, प्रा० रिन्त+ना (प्रत्यय)] खाली होना। रिक्त होना। स० रिक्त या खाली करना।
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रीता  : वि० [सं० रिक्त, प्रा० रित्त] [स्त्री० रीता] १. (पात्र) जिसमें कोई चीज भरी या रखी हुई न हो। २. (हाथ) जिसमें अस्त्र, धन आदि कुछ न हो। ३. जिसके पास कुछ न हो।
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रीति  : स्त्री० [सं०√री (गति)+क्तिन्, वा० क्तिच्] १. गति में आना, चलना या बहना। २. पानी का झरना या नदी। ३. सीमा सूचित करनेवाली रेखा। ४. मार्ग। रास्ता। ५. काम करने का विशिष्ट ढंग या प्रकार। ६. पहले से चली आयी हुई प्रणाली या प्रथा। रस्मरवाज। ७. कायदा। नियम। ८. संस्कृत साहित्य में, विशिष्ट प्रकार का ऐसी पद—रचना या लेख-शैली जो ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि गुण उत्पन्न करती हो या कृति में जान लाती हो। विशेष—हमारे यहाँ भिन्न-भिन्न देशों के संस्कृत कवि तथा साहित्यकार अपनी-अपनी रचनाओं में कुछ अलग और विशिष्ट प्रकार या शैली में ओज, प्रसाद आदि गुण लाते थे, इसी से उन देशों की शैलियों के आधार पर ये चार रीतियाँ मुख्य मानी गई थीं-वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली या पंचालिका और लाटी। परवर्ती साहित्यकारों ने मागधी और मैथिली नाम की रीतियाँ भी मानी थी। ९. मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में, काव्य-रचना की वह प्रणाली या शैली जो आचार्यों द्वारा निरूपित शास्त्रीय नियमों, लक्षणों, सिद्धान्तों आदि पर आश्रित होती थी और जिसमें अलंकार, ध्वनि, पिंगल, रस आदि बातों का पूरा ध्यान रखा जाता था। इधर कुछ दिनों से इस प्रकार की काव्य-रचना क्रमशः बहुत घटती जा रही हैं, और इसका प्रचलन उठता जा रहा है। १॰. लोहे की मैल। मंडूर। ११. जले हुए सोने की मैल। १२. पीतल। १३. सीसा। १४. प्रवृत्ति। स्वभाव। १५. प्रशंसा। स्तुति।
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रीति-काल  : पुं० [सं० ष० त०] हिंदी साहित्य के इतिहास में, उसका उत्तर-मध्य काल जो ई० १७ वीं शताब्दी के मध्य से ई० १९ वीं शताब्दी के मध्य तक माना जाता है और जिसमें अलंकार, नायिका, भेद, रस आदि के नियमों और लक्षणों से युक्त काव्य की रचनाएँ होती थीं।
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रीतिक  : वि० [सं० रीति से] १. रीति संबंधी। २. रीति के रूप में होनेवाली। ३. जो ठीक या निश्चित रीति (प्रणाली अथवा प्रथा) के अनुरूप या अनुसार हो। औपचारिक। (फार्मल)। पुं० पुष्पांजन।
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रीतिका  : स्त्री० [सं० रीति+कन्+टाप्] १. जस्ते का भस्म। २. पीतल।
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रीतिकाव्य  : पुं० [मध्य० स०] हिन्दी में, ऐसा काव्य जो अलंकार, ध्वनि नायिका भेद रस आदि तत्त्वों का ध्यान रखते हुए लिखा गया हो। दे० ‘रीति’।
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रीतिवाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० रीतिवादी] १. कला, साहित्य आदि के क्षेत्रों में यह मतवाद या सिद्धान्त कि परम्परा से जो रीतियाँ चली आ रही हैं, उनका दृढ़तापूर्वक और पूरा-पूरा पालन होना चाहिए। (फार्मलिज्म) २. हिन्दी साहित्य में यह मतवाद या सिद्धान्त कि काव्य के क्षेत्र में अलंकारों, नायिकाभेदों, रसों आदि के नियमों और लक्षणों का पूरी तरह से पालन करते हुए ही सह रचनाएँ होनी चाहिए।
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रीतिवादी (दिन्)  : वि० [सं० रीतिवाद+इनि] रीतिवाद संबंधी। रीतिवाद का।
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रींधना  : स०=राँधना।
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रीधना  : स०=राँधना।
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रीम  : स्त्री० [अं०] कागज की वह गड्डी जिसमें किसी विशिष्ट आकार, प्रकार के कागज के ५॰॰ ताव होते हैं। स्त्री० [फा०] १. पीब। मवाद। २. तलछट।
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रीर  : स्त्री०=रीढ़।
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रीरि  : स्त्री०=रीढ़। उदाहरण—परी रिरि जहँ ताकर पीठी।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रीषमूक  : पुं० =ऋष्यमूक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रीस  : स्त्री० [सं० ईर्ष्या] १. किसी को कोई काम करते देखकर वही काम करने की मन में जाग्रत होनेवाली भावना। २. प्रतिस्पर्धा। होड़। स्त्री०=रिस (गुस्सा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रीसना  : अ०=रिसाना (रुष्ट होना)।
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रीसा  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की झाड़ी, जिसकी छाल के रेशों से रस्सियाँ बनती हैं। इसे ‘बनरीहा’ भी कहते हैं।
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रीसी  : स्त्री०=रीस (स्पर्धा)।
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रीह  : स्त्री० [अं०] [वि० रीही] १. वायु। हवा। २. अपान वायु। पाद। २. गंध।
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रु  : पुं० [सं० +रु धातु का अनुकरण] १. शब्द। २. वध। हत्या। ३. गति। चाल। अव्य० हिं० अरु (और) का संक्षिप्त रूप। उदाहरण—सीतलता सुगंधि की महिमा घटी न सूर।—बिहारी।
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रुआँ  : पुं० =रोआँ। (रोम)। पुं० =रुआ (घास)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुआब  : पुं० =रोब।
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रुआला  : स०=रुलाना।
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रुआँली  : स्त्री०=रुआली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुआली  : स्त्री० [हिं० रूई+आलि] रूई की बनी हुई पोली बत्ती या पूनी जो स्त्रियाँ चरखे पर सूत कातने के लिए सिरकी पर लपेट कर बनाती है। पूना। पौनी।
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रुई  : स्त्री० [देश] छोटे आकार का एक प्रकार का पहाड़ी पेड़। इसकी छाल और पत्तियाँ रँगाई के काम में आती है। स्त्री०=रूई।
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रुई  : स्त्री०=रूई।
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रुकना  : अ० [हिं० रोक] १. आगे बढ़ने या चलने के समय बीच में किसी कारण से कुछ समय के लिए ठहरना। आगे चलने या बढ़ने से विरत होना। जैसे—गाड़ी घोड़े या यात्री का रुकना। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना। २. मार्ग में किसी प्रकार की बाधा या रुकावट होने के कारण काम का कुछ समय के लिए स्थगित होना। जैसे—(क) उस पुस्तक के बिना हमारा काम रुका पड़ा है। (ख) यह घड़ी चलते-चलते बीच में रुक जाती है। ३. चलते हुए काम का बंद हो जाना। ४. किसी प्रकार के क्रम या सिलसिले का बंद होना। ५. संभोग करते समय पुरुष का ऐसी स्थिति में होना कि उसका जल्दी वीर्यपात न होने पावे (बाजारू)।
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रुकमंगद  : पुं० =रुक्मांगद (एक राजा)।
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रुकमंजनी  : स्त्री० [सं० रुक्मांजनी] १. एक प्रकार का पौधा जो बागों में सजावट के लिए लगाया जाता है। २. इस पौधे का फूल।
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रुकमिनी  : स्त्री०=रुक्मिणी।
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रुकरा  : पुं० [देश] एक प्रकार का ऊख या गन्ना।
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रुकवाना  : स० [हिं० रुकना का प्रे०] १. ऐसा काम करना जिससे कोई चलता हुआ काम या सिलसिला ठप हो जायँ। २. दूसरे को कुछ रोकने में प्रवृत्त करना।
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रुकाव  : पुं० [हिं० रुकना] १. रुकने की अवस्था, क्रिया या भाव। रुकावट। अटकाव। अवरोध। २. पेट में माल रुकना। कब्जियत।
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रुकावट  : स्त्री० [हिं० रुकाव+वट (प्रत्यय)] वह चीज या बात जो रोक के रूप में हो। बाधा या विघ्न के रूप में होनेवाली बात।
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रुकुम  : पुं० =रुक्म।
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रुकुमी  : पुं० =रुक्मी।
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रुक्का  : पुं० [अ० रुक्कअः] १. छोटा पत्र या चिट्ठी। पुरजा। परचा। २. वह लेख जो हुंडी या कर्जा लेनेवाले रुपये लेते समय लिखकर महाजन को देते हैं।
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रुक्ख  : पुं० =रुख (पेड़)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रुक्म  : पुं० [सं०√रुच् (शोभित होना)+मक्, कुत्व] १. स्वर्ण। सोना। २. धतूरा। ३. लोहा। ४. नाग-केसर। ५. रुक्मिणी के एक भाई का नाम।
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रुक्म-कारक  : पुं० [सं० ष० त०] सोने के गहने बनानेवाला अर्थात् सुनार।
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रुक्म-वाहन  : पुं० [सं० ब० स०] द्रोणाचार्य।
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रुक्मपाश  : पुं० [सं० मध्य० स०] सूत का बना हुआ वह फंदा या लड़ जिसमें गहनों की गुरियाँ मनके आदि पिरोये रहते हैं।
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रुक्मपुर  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नगर जहाँ गरुड़ का निवास है।
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रुक्मरथ  : पुं० [सं० ब० स०] १. शल्य का एक पुत्र। २. भीष्मक का एक पुत्र। ३. द्रोणाचार्य का एक नाम।
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रुक्मवती  : स्त्री० [सं० रुक्म+मतुप्, +ङीष्] १. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ‘भ म स ग (ऽ।।ऽऽऽ।।ऽऽ) होते हैं। इसे ‘रम्यवती’ तथा ‘चम्पकमाला’ भी कहते हैं।
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रुक्मसेन  : पुं० [सं०] रुक्मिणी का छोटा भाई।
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रुक्मि  : पुं० [सं०] रम्यक और हिरण्यवर्ष के बीच स्थित पाँचवा वर्ष (जैन)।
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रुक्मि-दर्प  : पुं० [सं० ब० स०] बलदेव।
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रुक्मिण  : स्त्री०=रुक्मिणी।
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रुक्मिणी  : स्त्री० [सं० रुक्म+इनि+ङीष्] श्रीकृष्ण की पटरानियों में से बड़ी और पहली रानी जो विदर्भ राजा भीष्मक की कन्या थी।
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रुक्मिदारी (रिन्)  : पुं० [सं० रुक्मिन्√दृ (विदारण)+णिनि] बलदेव।
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रुक्मी (क्मिन्)  : पुं० [सं० रुक्म+इनि] रुक्मिणी के बड़े भाई का नाम।
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रुक्ष  : वि० [सं० रूक्ष] [भाव० रुक्षता] १. (वस्तु) जिसका तल चिकना तथा मुलायम न हो, बल्कि रूखा तथा ऊबड़-खाबड़ हो। २. अस्निग्ध। ३. असहृदय। नीरस। ४. कठोर। पुं० =रुख (वृक्ष)।
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रुक्षता  : स्त्री० [सं० रूक्षता] १. रूक्ष होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. रूखाई। ३. असहृदयता।
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रुख  : पुं० [फा०] १. कपोल। गाल। २. चेहरा या मुँह जो प्रायः मनोभावों का सूचक होता है। मुहावरा—रूख मिलना
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रुख-चढ़वा  : पुं० [हिं० रूख+चढ़ना] १. शाखा मृग बंदर। २. भूत या प्रेत जिसका निवास प्रायः वृक्षों पर माना जाता है।
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रुखदार  : वि० [रुखदार] (बाजार भाव) जिसमें नित्य तेजी-मंदी आती रहती हो।
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रुखना  : अ०=रूठना।
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रुखसत  : स्त्री० [अं० रुख्सत] १. कहीं से चलने के समय विदा होने की क्रिया या भाव। २. नौकरी, सेवा आदि से मिलनेवाली अल्पकालीन छुट्टी। अवकाश। ३. अनुज्ञा। अनुमति। परवानगी। (क्व०) ४. उर्दू काव्य में दुल्हे के घर जाना। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। वि० जो कहीं से विदा होकर चल पड़ा हो। जिसने प्रस्थान किया हो।
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रुखसताना  : पुं० [फा० रुख्स्तानः०] रुख्सत अर्थात् विदाई के समय दिया अथवा बाँटा जानेवाला धन।
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रुखसती  : वि० [अं० रुखसत+ई (प्रत्यय)] १. रुखसत सम्बन्धी। रुखसत का। २. जिसे रुखसत या छुट्टी मिली हो। स्त्री० १. रुखसत। विदाई। २. मैके से विवाहित कन्या के घर जाने की क्रिया या भाव। ३. उक्त विदाई के समय कन्या या दामाद को मिलनेवाला धन।
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रुखसार  : पुं० [फा० रुखसार] कपोल। गाल।
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रुखा  : वि० [फा० रुख] [स्त्री० रुखी] रुख या पार्श्व वाला। (यौ० के अंत में) जैसे—दोरुखा, चौरुखा आदि।
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रुखाई  : स्त्री० [हिं० रुखा+आई (प्रत्यय)] १. रूखे होने की अवस्था, धर्म या भाव। रूखापन। रुखावट। २. खुश्की। शुष्टकता। ३. व्यवहार आदि की कठोरता और नीरसता। बेमुरौवती।
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रुखान  : स्त्री०=रुखानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुखानल  : पुं० [सं० रोषानल] क्रोधाग्नि। (डि०)
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रुखाना  : अ० [हिं० रुखा+आना (प्रत्यय)] १. रुखा होना। चिकना न रह जाना। २. नीरस या फीका करना। अ० [फा० रुख] किसी ओर रुख होना। स०किसी ओर रुख करना।
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रुखानी  : स्त्री० [सं० रोक=छेद+खनिज खोदने की चीज] १. बढ़इयों की लकड़ी छीलने का एक छोटा उपकरण। २. संगतराशों की टाँकी।
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रुखावट  : स्त्री०=रुखाई।
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रुखावट  : स्त्री०=रुखावट (रुखाई)।
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रुखिता  : स्त्री० [सं० रुषिता] वह नायिका जो रोष या क्रोध कर रही हो। रूठी हुई मानवती नायिका।
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रुखिया  : स्त्री० [हिं० रुख+इया (प्रत्यय)] पेड़ों की छाया से युक्त भूमि। वि० छायाकार।
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रुखुरी  : स्त्री० [हिं० रूखा] भूना हुआ चना आदि। चबैना। (पूरब)। स्त्री० [हिं० रुख] बहुत छोटा पौधा।
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रुखौहाँ  : वि० [हिं० रुखा+औहाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० रुखौही] जिसमें रूखापन हो। जैसे—रुखौहें नैन।
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रुगण्ता  : स्त्री० [सं० रुग्ण+तल्+टाप्] रुग्ण होने की अवस्था या भाव।
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रुगना  : पुं० [हिं० रोग] पशुओं का एक रोग। टपका।
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रुगिया  : वि० =रोगी।
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रुगौन  : पुं० [देश] घलुआ। घाल।
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रुग्ण  : वि० [सं०√रुज् (रोग)+क्त, त-न] १. जो किसी रोग से ग्रस्त हो। बीमार। २. जिसमें किसी प्रकार का दूषित विकार हुआ हो। ३. टेढ़ा। ४. टूटा हुआ।
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रुग्णालय  : पुं० [सं०] १. रोगियों के रखे जाने का स्थान। २. आज-कल किसी बड़े भवन या संस्था में वह कमरा या स्थान, जहाँ घायल रोगी आदि चिकित्सा के लिए रखे जाते हैं।
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रुग्णावकाश  : पुं० [सं० रुग्ण-अवकाश, ष० त०] रुग्णावकाश के कारण ली जानेवाली छुट्टी। बीमारी की छुट्टी। (मेडिकल लीव)
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रुग्दाह  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का सन्निपात जो बीस दिनों तक रहता है, और प्रायः असाध्य माना जाता है।
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रुच  : स्त्री०=रुचि।
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रुचक  : वि० [√रुच् (दीप्ति)+क्वुन्-अक] १. रुचनेवाला। रुचि के अनुकूल प्रतीत होनेवाला। रोचक। २. जायकेदार। स्वादिष्ट। पुं० १. वास्तु विद्या के अनुसार ऐसा घर जिसके चारों ओर के अलिंद (चबूतरा या परिक्रमा) में से पूर्व और पश्चिम का सवर्था नष्ट हो गया हो और उत्तर तथा दक्षिण का समूचा ज्यों का त्यों हो। इसका उत्तर का द्वार अशुभ और शेष द्वार शुभ माने गये हैं। २. चौकीदार खंभा। ३. पुराणानुसार सुमेरु पर्वत के पास का एक पर्वत। ४. जैन हरिवंश के अनुसार हरिवर्ष का एक पर्वत। ५. मांगल्य द्रव्य। ६. माला। ७. घोड़ो आदि को पहनाये जानेवाले गहने। ८. प्राचीन काल का निष्क नामक सिक्का। ९. दाँत। १॰. कबूतर। ११. रोचना। १२. नमक। १३. काला नमक। १४. सज्जी खार। १५. बायबिंडंग। १६. दिशा। बिजौरा नींबू। १७. दक्षिण दिशा।
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रुचदान  : वि० [सं० रुचि-दान=देनेवाला] भला लगने योग्य। जो अच्छा लग सके।
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रुचना  : वि० [सं० रुच+हिं० ना (प्रत्यय)] रुचि के अनुकूल प्रतीत होना। प्रिय तथा भला लगना। पद—रुच रुच=रुचिपूर्वक।
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रुचा  : स्त्री० [सं०√रुच्+क्विप्+टाप्] १. दीप्ति। प्रकाश। २. छवि। शोभा। ३. इच्छा। कामना। ४. चिड़ियों के बोलने का शब्द।
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रुचि  : स्त्री० [सं०√रुच्+इन्] १. आभा। चमक। २. छवि। शोभा। ३. प्रकाश की किरण। ४. खाने-पीने की चीजों में आने या होनेवाला स्वाद। ५. मन की वह प्रवृत्ति या स्थिति जिसके फलस्वरूप कुछ काम, चीजें या बातें अच्छी और प्रिय जान पड़ती है, अथवा उनकी और मनुष्य झुकता और बढ़ता है। जैसे—(क) वृद्धावस्था में प्रायः धर्म की ओर लोगों की रुचि होने लगती है। (ख) इस समय कुछ खाने की हमारी रुचि नहीं है। ६. मनुष्य की यह योग्यता या शक्ति जिसके आधार पर वह कला, संगीत, साहित्य आदि के गुण या विशेषताएँ परखता और उसका आदर करता है। जैसे—(क) इस विषय में उनकी रुचि असाधारण और विलक्षण है। (ख) यह तो अपनी अपनी रुचि की बात है। ७. इच्छा। कामना। ८. किसी पदार्थ या व्यक्ति के प्रति होनेवाला अनुराग या आसक्ति। ९. कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का आलिंगन। १॰. गोरोचन। वि० रुचिर। पुं० रौच्य मनु के पिता का नाम, जो एक प्रजापति माने गये हैं।
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रुचि-धाम (मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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रुचि-फल  : पुं० [सं० मध्य० स०] नासपाती।
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रुचि-वर्द्धक  : वि० [सं० ष० त०] १. रुचि उत्पन्न करने या बढ़ानेवाला। २. भोजन की रुचि या भूख बढ़ानेवाला। (वैद्यक)
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रुचिकर  : वि० [सं० ष० त०] १. (विषय) जिसमें रुचि होती तथा मन रमता हो। २. भला लगनेवाला। ३. रुचि उत्पन्न करनेवाला। ४. भूख बढ़ानेवाला। (वैद्यक)।
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रुचिकारक  : वि० [सं० ष० त०] रुचिकर। (दे०)
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रुचिकारी (रिन्)  : वि० [सं० रुचि√कृ (करना)+णिनि, उप० स०] १. रुचि उत्पन्न करनेवाला। रुचिकर। २. स्वादिष्ट। ३. मनोहर। सुन्दर।
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रुचित  : भू० कृ० [सं० रुच+कितच्] १. जो रुचि के अनुकूल प्रतीत हुआ हो। पचाया हुआ। (वैद्यक) ३. [√रुचि+क्त] चाहा हुआ। पुं० १. इच्छा। २. मधुर और रुचनेवाला पदार्थ।
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रुचिभर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] १. सूर्य्य। २. मालिक। स्वामी। वि० आनन्ददायक। सुखद।
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रुचिमती  : स्त्री० [सं० रुचि+मतुप्, +ङीष्] उग्रसेन की पत्नी जो कृष्णचन्द्रजी की नानी तथा देवकी की माता थी।
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रुचिर  : वि० [सं०√रुच्+किरच्] १. जो रुचि के अनुकूल हो। अच्छा। भला। २. मनोहर। सुन्दर। ३. मधुर। मीठा। पुं० १. केसर। २. लौंग। ३. मूली।
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रुचिरता  : स्त्री० [सं० रुचिर+तल्+टाप्] रुचिर होने की अवस्था धर्म या भाव।
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रुचिरा  : स्त्री० [सं० रुचि+टाप्] १. सुप्रिया नामक छंद का एक नाम। २. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ज, भ, स, ज, ग, (।ऽ। ऽ।। ।।ऽ।ऽ। ऽ) होते हैं। ३. रामायण के अनुसार एक प्राचीन नदी। ४. केसर। ५. लौंग। ६. मूली।
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रुचिराई  : स्त्री०=रचिरता।
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रुचिरांजन  : पुं० [सं० रुचिर-अंजन, कर्म० स०] शोभांजन। सहिजन।
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रुचिष्य  : पुं० [सं०√रुच् (प्रीति)+किष्यन्] खाने का मधुर खाद्य पदार्थ। वि० जिसके प्रति रुचि हो अथवा हो सकती हो। रुकनेवाला।
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रुची  : स्त्री० [सं० रुचि+ङीष्]=रुचि
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रुच्छ  : वि० [सं० रुक्ष] १. रूखा। रूक्ष। २. अप्रसन्न। नाराज। पुं० =रूख (वृक्ष)।
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रुच्य  : वि० [सं०√रुच्+क्यप्] १. रुचिकर। २. मनोहर। सुन्दर। पुं० १. सेंधा नमक। २. जड़हन धान। ३. पति। स्वामी।
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रुज  : पुं० [सं०√रुज्+क, घञर्थ] १. टूटने या अस्थिभंग होने का भाव। २. कष्ट। वेदना। ३. क्षत। घाव। ४. प्राचीन काल का एक प्रकर का बाजा जिस पर चमड़ा मढ़ा होता था।
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रुज-ग्रस्त  : वि० [सं० तृ० त०] रुग्ण। रोगी।
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रुजगार  : पुं० =रोजगार।
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रुजा  : स्त्री० [सं०√रुज्+क्विप्+टाप्] १. टूटने-फूटने या भंग होने का भाव। २. रोग। बीमारी। ३. कष्ट। पीडा। ४. कुष्ठ नामक रोग। कोढ़। ५. भेड़।
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रुजाकर  : वि० [सं० ष० त०] रोग उत्पन्न करने या बढ़ानेवाला। पुं० १. रोग। बीमारी। २. कमरख (फल)।
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रुजाली  : स्त्री० [सं० रुजा-आली, ष० त०] १. रोगों या कष्टों का समूह। २. ऐसी स्थिति जिसमें एक साथ कई रोग सता रहे हों। ३. एक पर एक अथवा एक न एक रोग लगा रहना।
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रुजी  : वि० [सं० रुज=रोग] रुग्ण। रोगी।
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रुजू  : वि० [अ० रुजूअ=प्रवृत्त] १. जिसकी तबीयत किसी ओर झुकी या लगी हो। २. जो किसी ओर प्रवृत् हो।
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रुझना  : अ० [सं० रुद्ध, प्रा० रुज्झ] घाव आदि का भरना या पूजना। अ०१. =रुकना। २. =उछलना। अ० [सं० रंजन] १. मन बहलाने के लिए किसी काम में लगे रहना। ३. किसी कार्य के सम्पादन में प्रवृत्त होना या लगना।
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रुझनी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की लंबी चोंचवाली छोटी चिड़िया। जिसकी पीठ काली और छाती सफेद होती है।
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रुठ  : स्त्री० [सं० रुष्ट, प्रा० रुद्द] १. रूठने की क्रिया या भाव। २. क्रोध। गुस्सा। रोष।
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रुठना  : अ०=रूठना।
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रुठनि  : स्त्री०=रूठन।
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रुंड  : पुं० [देश] एक प्रकार का बाजा।
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रुंड  : पुं० [सं०√रुण्ड् (चौर्य)+अच्] १. ऐसा धड़ जिसका सिर कट गया हो। बिना सिर का धड़। कबंध। २. ऐसा शरीर जिसके हाथ पैर कट गये हो।
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रुंडिका  : स्त्री० [सं० रुण्ड+ठन्—इक, टाप्] १. युद्धभूमि। रणक्षेत्र। २. विभूति।
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रुणा  : स्त्री० [सं०] सरस्वती नदी की एक शाखा।
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रुणित  : भू० कृ० [सं० रणित] मधुर ध्वनि या शब्द करता हुआ। बजता हुआ।
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रुत  : पुं० [सं०√रु (शब्द)+क्त] १. पक्षियो का शब्द। कलरव। २. ध्वनि। शब्द। स्त्री०=ऋतु।
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रुतबा  : पुं० [अ० रुत्बः] १. सामाजिक दृष्टि से होनेवाली वह अच्छी और ऊँची स्थिति जिसमें यथेष्ट आदर, प्रतिष्ठा या सत्कार हो। २. राज्य या शासन की सेवा में मिलनेवाला कोई अच्छा और ऊंचा पद। ३. बड़ाई। महत्ता। श्रेष्ठता।
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रुंद  : पुं० [हिं० रूँधना] शत्रु की गोलियाँ आदि से रक्षा के लिए खड़ी की हुई कच्ची मिट्टी की दीवार। उदाहरण—क्या रोती खंदक रुंद बड़े। क्या बुर्ज, कंगूर अनमोल।—नजीर।
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रुदंती  : स्त्री० [सं०√रुद् (रोना)+झच्-अन्त, +ङीष्] एक प्रकार का छोटा क्षुप। संजीवनी। रुद्रवंती।
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रुदथ  : पुं० [सं०√रुद्+अथ्] १. कुत्ता। २. छोटा बच्चा। ३. मुर्गा।
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रुदन  : पुं० [सं० रोदन] १. रोने की क्रिया या भाव। २. रोने पर होनेवाला शब्द।
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रुदराछ  : पुं० =रुद्राक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुँदवाना  : स० १. =रौंदवाना। २. =रुँधवाना।
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रुदित  : भू० कृ० [सं०√रुद् (रोना)+क्त] रोता हुआ।
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रुदुआ  : पुं० [देश] अगहन मास में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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रुद्ध  : भू० कृ० [सं०√रुधू (आवरण)+क्त] १. रुका या रोका हुआ। बाधित। २. घिरा या घेरा हुआ। ३. पकड़ा हुआ। ४. जिसकी चाल या गति बंद हो गई हो। बंद। ५. मुँदा हुआ।
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रुद्ध-कंठ  : वि० [सं० ब० स०] करुणा, दया, प्रेम आदि के कारण जिसका गला रुँध गया हो, और फलतः जिसके मुँह से ठीक तरह से और पूरी बात न निकलती हो।
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रुद्ध-मूत्र  : पुं० [सं० ब० स०] मूत्रकच्छ् (रोग)।
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रुद्धक  : पुं० [सं० रुद्ध+कन्] नमक।
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रुद्धार्त्तव  : पुं० [सं०] स्त्रियों का एक रोग जिसमें उनका मासिक धर्म उचित समय से पहले ही बंद हो जाता या रुक जाता है। (एमेनोरिया)
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रुद्र  : वि० [सं०√रुद्+णिच्+रक्, णि-लुक] १. रुलानेवाला। २. रोने से छुड़ाने या रोना बन्द करनेवाला। ३. डरावना। भयंकर। पुं० १. एक प्रकार का गण देवता। जिनकी उत्पत्ति सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा की भौहों से मानी गई है और जो संख्या में ११ कहे गये हैं। २. उक्त के आधार पर ११ सूचक संख्या की संज्ञा। ३. शिव का एक रूप। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा। ५. आक या मदार का पौधा। ६. साहित्य में रौद्र रस।
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रुद्र-कमल  : पुं० [मध्य० सं०] रुद्राक्ष।
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रुद्र-कलस  : पुं० [मध्य० स०] वह कलस जिसकी स्थापना ग्रहों आदि की शांति के उद्देश्य से की जाती है।
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रुद्र-काली  : स्त्री० [कर्म० स० वा ष० त०] शक्ति या दुर्गा की एक मूर्ति का नाम।
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रुद्र-कोटि  : पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ जिसमें रुद्रों का निवास माना गया है।
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रुद्र-क्रीडा़  : पुं० [रुद्र-आक्रीड़ा, ब० स०] रुद्र या शिव का क्रीड़ा-स्थल, अर्थात् मरघट या श्मशान।
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रुद्र-गण  : पुं० [सं० ष० त०] पुराणानुसार शिव के पारषद् या अनुचर जिनकी संख्या तीस करोड़ मानी जाती है।
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रुद्र-गर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि। आग।
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रुद्र-जटा  : स्त्री० [ष० त०] १. इसरौल। ईसरमूल। २. सौंफ। ३. एक प्रकार का क्षुप। जिसके पत्ते मयूर शिखा के पत्तों की तरह के होते हैं।
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रुद्र-तनय  : पुं० [सं०] जैन हरिवंश के अनुसार तीसरे श्रीकृष्ण का एक नाम।
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रुद्र-ताल  : पुं० [सं० मध्य० स०] मृदंग का एक ताल जो सोलह मात्राओं का होता है। इसमें ११ आघात और ५ खाली होते हैं।
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रुद्र-तेज (जस्)  : पुं० [सं० ष० त०] स्वामी कार्तिकेय।
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रुद्र-पति  : पुं० [ष० त०] शिव। महादेव।
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रुद्र-पत्नी  : स्त्री० [ष० त०] १. दुर्गा का एक नाम। २. अतसी। अलसी।
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रुद्र-पीठ  : पुं० [ष० त०] तान्त्रिकों के अनुसार एक पीठ या तीर्थ।
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रुद्र-पुत्र  : पुं० [ष० त०] बारहवें मनु। रुद्रसावर्णि का एक नाम।
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रुद्र-प्रयाग  : पुं० [ष० त०] उत्तर प्रदेश के गढ़वाल जिले के अन्तर्गत एक तीर्थ।
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रुद्र-प्रिय  : पुं० [ष० त०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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रुद्र-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. पार्वती। २. हरीतकी हड़। हर्रे।
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रुद्र-बीसी  : स्त्री० [सं० रुद्र+हिं० बीस] फलित ज्योतिष में प्रमुख आदि साठ संवत्सरों मे अंतिम बीस संवत्सर या पर्व जो संसार के लिए बहुत कष्ट दायक कहे गये हैं। रुद्र-विशंति।
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रुद्र-भू  : पुं० [ष० त०] श्मशान। मरघट।
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रुद्र-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] १. श्मशान। २. एक प्रकार की भूमि। (ज्यौ०)
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रुद्र-भैरवी  : स्त्री० [ष० त०] दुर्गा की एक मूर्ति।
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रुद्र-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का यज्ञ जो रुद्र के उद्देश्य से किया जाता है।
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रुद्र-रोदन  : पुं० [सं०] स्वर्ण। सोना।
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रुद्र-रोमा  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका।
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रुद्र-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] रुद्र जटा (क्षुप)।
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रुद्र-लोक  : पुं० [ष० त०] वह लोक या स्थान जिसमें शिव और रुद्रों का निवास माना जाता है।
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रुद्र-वदन  : पुं० [ष० त०] १. महादेव के पाँच मुख। २. पाँच की संख्या का सूचक शब्द।
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रुद्र-विंशति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] साठ संवत्सरों के अन्तिम २0 संवत्सरों का समूह जो अमांगलिक और कष्ट-प्रद कहा गया है। रुद्रबीसी।
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रुद्र-वीणा  : स्त्री० [ष० त०] एक तरह की पुरानी चाल की वीणा।
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रुद्र-सावर्णि  : पुं० [सं० मध्य० स०] बारहवें मनु। (पुराण)
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रुद्र-सुंदरी  : स्त्री० [ष० त०] देवी की एक मूर्ति।
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रुद्र-सू  : स्त्री० [सं० रुद्र√सू (प्रसव)+क्विप्] वह जननी या माता जिसकी ग्यारह संताने हों।
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रुद्र-स्वर्ग  : पुं० =रुद्र लोक। (दे०)
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रुद्र-हिमालय  : पुं० [मध्य० स०] हिमालय पर्वत की एक चोटी।
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रुद्र-हृदय  : पुं० [ष० त०] एक उपनिषद् जो प्राचीन दस उपनिषदों से अलग है।
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रुद्रक  : पुं० =रुद्राक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुद्रज  : पुं० [सं० रुद्र√जन् (उत्पत्ति)+ड] पारा। वि० रुद्र से उत्पन्न।
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रुद्रट  : पुं० [सं०] काव्यालंकार नामक ग्रन्थ के रचयिता संस्कृत साहित्य के एक प्रसिद्ध आचार्य जो रुद्रभ और शतानंद भी कहलाते थे।
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रुद्रत्व  : पुं० [सं० रुद्र+त्व०] रुद्र होने की अवस्था या भाव।
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रुद्रयामल  : पुं० [मध्य० स०] तांत्रिकों का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ जिसमें भैरव और भैरवी का संवाद है।
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रुद्रवंती  : स्त्री० [सं०] एक प्रसिद्ध वनौषधि जिसकी गणना दिव्यौषधि वर्ग में होती है।
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रुद्रवत्  : पुं० =रुद्रवान्।
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रुद्रवान् (वत्)  : वि० [सं० रुद्र+मतुप्] रुद्रगणों से युक्त। पुं० १. सोम। २. अग्नि। ३. इन्द्र।
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रुद्रा  : स्त्री० [सं० रुद्र+टाप्] १. रुद्रजटा नामक क्षुप। २. नलिका नाम गन्ध द्रव्य। अदित-मंजरी। मुक्तवर्चा।
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रुद्राक्ष  : पुं० [रुद्र-अक्षि० ष० त०+अच्] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसके बीजों को पिरोकर पहनने तथा जपने के लिए मालाएँ बनाई जाती हैं। २. उक्त पेड़ का बीज जो शिव का परम प्रिय कहा गया है।
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रुद्राणी  : स्त्री० [सं० रुद्र-ङीष्, आनुक्] १. रुद्र अर्थात् शिव की पत्नी पार्वती शिवा। २. ग्यारह वर्षों की कन्या की संज्ञा। ३. रुद्रजटा नामक लता। ४. संगीत में एक प्रकार की रागिनी, जो मेघ-राग की पुत्र-वधू कही गई है (कुछ लोग इसे शकंर रागिनी भी मानते हैं)।
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रुद्रारि  : पुं० [रुद्र-अरि, ब० स०] कामदेव।
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रुद्रावास  : पुं० [रुद्र-आवास, ष० त०] शिव का निवास स्थान। जैसे—काशी, कैलास, श्मशान आदि।
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रुद्राष  : पुं० =रुद्राक्ष।
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रुद्रिय  : पुं० [सं० रुद्र+घ—इय] १. रुद्र संबंधी। रुद्र का। २. रुद्र से उत्पन्न। ३. रुद्र की तरह भयानक डरावना। ४. आनन्द देनेवाला।
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रुद्री  : स्त्री० [सं० रुद्र+ङीष्] १. वेद के रुद्रानुवाक या अधमर्षण सूक्त की ग्यारह आवृत्तियाँ जिनका पाठ बहुत शुभ माना जाता है। २. एक प्रकार की वीणा। रुद्र-वीणा।
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रुद्रोपनिषद्  : स्त्री० [सं० रुद्र-उपनिषद्, मध्य० स०] एक उपनिषद् का नाम।
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रुँधना  : अ० [हिं० रुँधना का अ०] १. रक्षा, रोक आदि के विचार से मार्ग आदि का कँटीली झाड़ियाँ आदि लगाकर रुँधा या बंद किया जाना। २. लाक्षणिक रूप में कंटकों, बाधाओं आदि से मार्ग का इस प्रकार अवरुद्ध होना कि काम आगे बढ़ना बहुत अधिक कठिन हो। ३. काँटों, जालों आदि में उलझना या फँसना। ४. इस प्रकार दत्त-चि्त्त होकर किसी काम में लगना कि और बातों के लिए जल्दी अवकाश न मिले।
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रुँधनी  : स्त्री०=अरुंधती।
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रुधियानन  : पुं० [रुधिर-आनन, ब० स०] फलित ज्योतिष में मंगल ग्रह की एक प्रकार की वक्र गति।
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रुधिर  : पुं० [सं०√रुध् (आवरण)+किरच्] १. शरीर में का रक्त। शोणित। लहू। खून। विशेष—मुहा के लिए ‘खून’ और ‘लहू’ के मुहा०। २. कुंकुम। केसर। ३. मंगल ग्रह। रुखिराख्य नामक रत्न।
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रुधिर-गुल्म  : पुं० [मध्य० स०] स्त्रियों का एक प्रकार का रोग जिसमें उनके पेट में एक तरह का गोला-सा घूमता रहता है। जिसमें गर्भ का भ्रम होता है (वैद्यक)।
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रुधिर-लीहा  : स्त्री० [मध्य० स०] प्लीहा नामक रोग का एक भेद। (वैद्यक)
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रुधिर-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिमसें रुधिर में रहनेवाले तत्त्वों और उनमें उत्पन्न होनेवाले कीटाणुओं या विकारों का विवेचन होता है। (हेमोकालोजी)
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रुधिर-वृद्धि-दाह  : पुं० [सं० रुधिर-वृद्धि, ष० त० रुधिरवृद्धि, -दाह, ब० स०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें मुँह में से एक प्रकार की बू निकलने लगती है।
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रुधिरपायी (यिन्)  : वि० [सं० रुधिर√पा (पीना)+णिनि, उप० स०] [स्त्री० रुधिरयिनी] १. खून पीने वाला। २. रक्त पिपासक। पुं० राक्षस।
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रुधिराक्त  : वि० [सं० रुधिर-अक्त, तृ० त०] १. जिसमें बहुत सा रुधिर या लहू हो। खून से भरा। २. रुधिर या लहू की तरह लाल। ३. खून से तर या भीगा हुआ।
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रुधिराख्य  : पुं० [रुधिर-आख्या, ब० स०] एक प्रकार का रत्न।
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रुधिरामय  : पुं० [रुधिर-आमय, मध्य० स०] रक्तपित्त नामक रोग।
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रुधिराशन  : वि० [रुधिर-अशन, ब० स०] जिसका भोजन रुधिर हो (खटमल, जोंक, मच्छर आदि)।
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रुधिराशी (शिन्)  : वि० पुं [सं० रुधिर√अश् (खाना)+णिनि]=रुधिराशन।
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रुधिरोदगारी (रिन्)  : पुं० [सं० रुधिर-उद√गृ (लीलना)+णिनि, उप० स०] बृहस्पति के साठ संवत्सरों में से सत्तावनवाँ संवत्सर।
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रुनक-झुनुक  : स्त्री० [अनु०] रुनझुन। (दे०)
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रुनझुन  : स्त्री० [अनु०] १. नुपूर से बजने से होनेवाला शब्द २. झनकार विशेषतः मधुर शब्द।
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रुनझुना  : अ० [हिं० रुनझुना] रुनझुन शब्द होना। स० नुपूर आदि बजाकर रुनझुन शब्द उत्पन्न करना।
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रुनाई  : स्त्री० [सं० अरुण+हिं० आई (प्रत्यय)] लाल होने की अवस्था या भाव।
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रुनित  : वि० =रुणित। (बजता हुआ)
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रुनी  : पुं० [देश] घोड़ों की एक जाति।
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रुनुल  : पुं० [देश] एक प्रकार का बेंत।
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रुपना  : अ० [हिं० रोपना का अ०] १. रोपा जाना। जैसे—खेत में धान रूपना। २. दृढ़तापूर्वक गाड़ा, जमाया या लगाया जाना। जैसे—पैर रुपना।
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रुपमनि  : वि० =रुपवती।
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रुपया  : पुं० [सं० रुप्य] १. चाँदी का सिक्का। २. पुराने ६४ पैसों या १00 नये पैसों के मूल्य का नोट का सिक्का। मुहावरा—रुपया उठाना=धन व्यय करना। रुपया खड़ा करना=नकद धन उगाहना या प्राप्त करना। रुपया ठीकरी करना=रुपए का बहुत बुरी तरह से अपव्यय करना। ३. धन-दौलत। सम्पत्ति। पद—रुपया-पैसा=धन दौलत।
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रुपया  : पुं० =रुपया।
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रुपल्ली  : स्त्री० [हिं० रुपया]=रुपया। (उपेक्षा और तुच्छता का सूचक)। उदाहरण—एम० ए० बी० ए० पास करके चालीस-चालीस रुपल्ली की नौकरी के लिए मारे-मारे फिरते हैं।—राहुल सांकृत्यायन।
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रुपहरा  : वि० =रुपहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुपहला  : वि० [हिं० रुपा+चाँदी+हला (प्रत्यय)] [स्त्री० रुपहली] रुपा अर्थात् चाँदी के रंग का। चाँदी का सा। उज्जवल तथा चमकीला। जैसे—रुपहला, गोटा, रुपहला काम।
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रुपा  : पुं० १. =रुपया। २. =रुपा (चांदी)।
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रुपैया  : पुं० =रुपया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुपौला  : वि० [स्त्री० रुपौली]=रुपहला।
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रुबा  : वि० [फा०] [भाव० रुबाई] १. ले जानेवाला। २. मोहित करने या लुभानेवाला। जैसे—दिलरुबा।
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रुबाई  : स्त्री० [अ०] [बहु, रुबाईयात] १. उर्दू फारसी में एक प्रकार की मुक्तक कविता जिसमें चार चरण या मिसरे होते हैं और जो प्रायः हजाज नामक छंद में होती है। इसमें तीसरे चरण या मिसरे को छोड़कर शेष तीनों में काफिला और रदीफ दोनों होते हैं। फारसी में इसे ‘तराना’ भी कहते हैं। २. एक प्रकार का चलता गाना। स्त्री० [फा०] रुबा होने की अवस्था या भाव।
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रुबाई-एमन  : पुं० [हिं० रुबाई+एमन] एक प्रकार का राग (संगीत)।
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रुमंच  : पुं० =रोमांच।
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रुमण  : पुं० [सं०] रामायण के अनुसार एक वानर जो सौ करोड़ बानरों का यूथपति कहा गया है।
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रुमण्वान् (ण्वत्)  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि। २. पुराणानुसार एक पर्वत।
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रुमा  : स्त्री० [सं०] सुग्रीव की पत्नी। (वाल्मीकि)
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रुमांचित  : वि० =रोमांचित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुमाल  : पुं० =रूमाल।
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रुमालिया  : स्त्री० १. =रूमाल। २. =रूमाली।
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रुमाली  : स्त्री० [फा० रुमाल] १. एक प्रकार का लंगोट जिसमें दोनों ओर कमर में बाँधने के लिए बंद लगे रहते हैं। २. मुगदर घुमाने का एक ढंग।
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रुमावली  : स्त्री०=रोमावली।
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रुराई  : स्त्री० [हिं० रूरा+आई (प्रत्यय)] रूरा होने की अवस्था या भाव। सुन्दरता।
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रुरु  : पुं० [सं०√रु (शब्द)+क्रुन्] १. काला हिरन। कस्तूरी मृग। २. एक दैत्य जिसे दुर्गा ने मारा था। ३. एक भैरव का नाम। ४. एक प्रकार का फूलदार वृक्ष। ५. एक क्रूर तथा भयानक जंतु। ६. एक ऋषि। ७. देवताओं का एक गण। ८. सावर्णि मनु के सप्तर्षियों में से एक।
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रुरुआ  : पुं० [हिं० ररना, ररुआ] एक तरह का उल्लू।
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रुलना  : अ० [सं० लुलन] १. स्थायी वास स्थान का अभाव होने पर कभी कहीं तो कभी कहीं भटकते फिरना। २. दुर्दशाग्रस्त होकर इधर-उधर मारा-मारा फिरना। ३. (वस्तु का) इधर-उधर पडी होना अथवा उठाई-पटका या छोड़ी फेंकी होना।
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रुलनी  : स्त्री० [देश] रोहिणी की तरह की पर उससे छोटी एक वनस्पति।
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रुलाई  : स्त्री० [हिं० रोना+आई (प्रत्यय)] १. रोने की क्रिया या भाव। २. रोने की प्रवृत्ति। क्रि० प्र०—आना।—छूटना।
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रुलाना  : स० [हिं० रोना का प्रे०] दूसरे को रोने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम या बात करना जिससे कोई रोने लगे। स० [हिं० रुलना] ऐसा काम करना जिससे कोई चीज या व्यक्ति रुले।
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रुल्ल, रुल्ला  : स्त्री० [देश] वह भूमि जिसकी उपजाऊ शक्ति कम हो गई हो और जिसे परती छोड़ने की आवश्यकता हो।
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रुवा  : पुं० =रुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुवाई  : =रुलाई।
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रुवाब  : पुं० =रोब।
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रुशना  : स्त्री० [सं०] रुद्र की एक पत्नी। (भागवत)
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रुषा  : स्त्री० [सं०√रुष्+टाप्] क्रोध। गुस्सा।
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रुषित  : भू० कृ० [सं०√रुष्+क्त] १. जिसे रोष हुआ हो। अप्रसन्न। क्रुद्ध। नाराज। २. जिसे दुःख पहुँचा हो। दुखित।
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रुषेसर  : पुं० =ऋषीश्वर।
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रुष्  : पुं० [सं०√रुष् (क्रोध)+क्विप्] क्रोध। गुस्सा। रोष।
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रुष्ट  : भू० कृ० [सं० रुष्+क्त] १. रोष से भरा हुआ। क्रुद्ध। २. रूठा हुआ। अप्रसन्न। नाराज।
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रुष्ट-पुष्ट  : वि० =हृष्ट-पुष्ट।
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रुष्टता  : स्त्री० [सं० रुष्ट+तल्-टाप्] रुष्ट होने की दशा या भाव। रुष्ट व्यक्ति के मन में होने वाला भाव अप्रसन्नता। नाराजगी।
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रुष्टि  : स्त्री० [सं०√रुष्+क्तिन्] १. रुष्टता। २. रोष।
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रुसना  : अ०=रूसना।
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रुसवा  : वि० [फा० रुस्वा] [भाव० रुसवाई] जिसकी बहुत बदनामी हो। निंदित। बदनाम।
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रुसवाई  : स्त्री० [फा० रुसवाई] रुस्वा होने की अवस्था या भाव। बदनामी। निंदा।
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रुसा  : पुं० =रूसा (अड्सा)।
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रुसित  : वि० =रुषित (रुष्ट)।
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रुसूख  : पुं० [अ०] १. पहुँच। रसाई। २. एतबार। विश्वास। ३. दृढ़ता। ४. मेल-जोल। प्रेम-व्यवहार। ५. कुशलता। दक्षता।
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रुसूम  : पुं० [अ० ‘रस्म’ का बहु० रूप] रस्में। पुं० =रसूम (कर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रुसूल  : पुं० [अ] ‘रसूल’ का बहु० रूप।
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रुस्ट  : वि० =रुष्ट।
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रुस्तम  : पुं० [अ०] १. फारस का एक प्रसिद्ध प्राचीन ईरानी पहलवान, जो अपने समय में सबसे अधिक बलवान माना जाता था। विशेष—फिरदौसी शाहनामे में इसकी वीरता का वर्णन किया है। २. बहुत बड़ा शूर-वीर। पद—छिपा रुस्तम। (दे०)
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रुस्तमखानी  : स्त्री० [फा०] १. रुस्तम का सा पौरुष अथवा बलवीर्य। २. अपने महत्त्व या शक्ति का बहुत बड़ा अभिमान या घमंड।
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रुहठि  : स्त्री० [हिं० रुठना] रूठे हुए होने की अवस्था या भाव।
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रुहा  : स्त्री० [सं०√रुह् (उगना)+क+टाप्] १. दूब। २. अतिबला। ३. मांस रोहिणी लता। ४. लजालू। लाजवंती।
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रुहिर  : पुं० =रुधिर (खून)।
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रुहेलखंड  : पुं० [हिं० रुहेला] अवध के उत्तर-पश्चिम पड़नेवाला प्रदेश जहाँ रुहेले पठान बसे थे।
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रुहेला  : पुं० [?] पठानों की एक जाति जो प्रायः किसी समय अवध के उत्तर-पश्चिम में आकर बसी थी।
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रू  : पुं० [फा०] १. चेहरा। मुँह। पद—रू-रिआयत= (क) पक्षपात। (ख) शील-संकोच। मुरौवत। मुहावरा—रू से=अनुसार। जैसे—कानून या मजहब की रू से ऐसा नहीं होना चाहिए। २. आगे ऊपर या सामने का भाग। पद—रू-पुश्त=बाहर-भीतर, आगे-पीछे या दोनों ओर। ३. कारण। वजह। ४. आशा। उम्मीद।
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रू-बरू  : अव्य० [फा०] १. आमने-सामने। मुकाबले। सम्मुता में। समक्ष।
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रू-रिआयत  : स्त्री० [फा०+अ०] किसी का ध्यान रखते हुए उसे दिया जानेवाला सुभीता या उसके साथ की जानेवाली रिआयत।
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रूआ  : स्त्री० [हिं० रूसा] एक प्रकार की बहुत सुगंधित घास।
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रूई  : स्त्री० [सं० रोम, प्रा० रोवां=हिं० रोवां० रोईं] १. कपास के ढोंढ़ी या कोश के अन्दर का धूआ। तूल। क्रि० प्र०—तूमना।—धुनकना।—धुनना। पद—रूई का गाला= (क रूई के गाले की तरह कोमल या सफेद। (ख) सुंदर तथा सुकुमार। मुहावरा—रूई की तरह तूम डालना= (क) अच्छी या पूरी तरह से छिन्न-भिन्न या दुर्दशाग्रस्त करना। (ख) बहुत अधिक मारना-पीटना। (ग) गहरी छान-बीन करना। रूई की तरह धुनना=अच्छी तरह मारना पीटना। (अपनी) रूई सूत में उलझना या लिपटना=अपने काम में लगना। अपने काम-काज में फँसना। २. बीजों आदि के ऊपर का रोआँ। जैसे—सेमल की रूई।
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रूईदार  : वि० [हिं० रूई+फा० दार (प्रत्यय)] (सिला हुआ वस्त्र)। जिसमें रूई भरी गई हो। जैसे—रूईदार अंगा, रूईदार बंडी।
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रूक  : पुं० [सं० वृक्ष, प्रा० रुक्ख] एक प्रकार का पेड़ जिसकी पत्तियाँ ओषधि के काम आती हैं। पुं० [सं० रूक] रूँगा हुआ। घलुआ। स्त्री० [सं० रूक्षा] तलवार (डिं०)।
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रूका  : पुं० [?] पुकारने की क्रिया या भाव। पुकार। क्रि० प्र०—पड़ना।
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रूक्ष  : वि० [सं०√रूक्ष् (कठोर)+अच्] [स्त्री० रूक्षा] १. पदार्थ जो चिकना या कोमल न हो रूखा स्निग्ध का उलटा। २. कड़ा तथा खुरदुरा। ३. (व्यक्ति) जिसके स्वभाव में, उदारता, कोमलता, सौजन्य स्नेह आदि बातें न हों।
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रूँख  : पुं० =रूख (वृक्ष)।
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रूख  : पुं० [सं० वृक्ष, प्रा० रूक्खा] १. पेड़। वृक्ष। २. नरकट। नरसल। वि० =रूखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रूँखड़  : पुं० [हिं० रूखा] ‘अलख’ कह कर भिक्षा माँगनेवाले एक प्रकार के साधु। विशेष—ये साधु कमर में एक बड़ा-सा घुँघरू बाँधे रहते हैं। पुं० =रोंगटा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रूखड़ा  : पुं० [हिं० रूख] [स्त्री० अल्पा० रूखड़ी] पेड़। वृक्ष। वि० =रूखा।
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रूखरा  : पुं० =रूखड़ा (वृक्ष)। वि० =रूखा।
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रूखा  : वि० [सं० रूक्ष्, प्रा० रूख] १. जिसमें चिकनाहट या स्निग्धता का अभाव हो। अस्निग्ध। ‘चिकना’ का विपर्याय। २. जिसमें घी, तेल आदि चिकने पदार्थ न पड़े या न लगे हों। जैसे—रूखी रोटी। ३. (भोजन) जिसके साथ कोई स्वादिष्ट पदार्थ न हो अथवा जिसे स्वादिष्ट बनाने का प्रयत्न न किया गया हो। जैसे—रूखी-सूखी खाकर दिन बिताना। पद—रूखा-सूखा रूखी, सूखी। (दे०) ४. जिसमें आर्द्रता या रस न हो। शुष्क नीरस। ५. (व्यक्ति या स्वभाव।) जिसमें कोमलता, दयालुता, स्नेह आदि मधुर वृत्तियों का अभाव हो। ६. (कथन या व्यवहार) जिमसें आत्मीयता, उदारता, सौजन्य आदि का अभाव हो। जैसे—रूखी बातें या रूखा व्यवहार। मुहावरा—रूखा पड़ना या होना= (क) बेमुरौवती करना। (ख) क्रुद्ध या नाराज होना। ७. उदासीनता। विरक्त। ८. जिसका तल सम न हो। खुरदुरा। जैसे—यह कागज कुछ रूखा दिखाई पडता है। पद—रूखा माल=नक्काशी किया हुआ बरतन। (कसेरे)। पुं० एक प्रकार की छेनी।
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रूखा-सूखा  : वि० [हिं०] [स्त्री० रूखी-सूखी] (रोटी या भोजन) बिना घी तथा मसाले का बना हुआ।
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रूखापन  : पुं० [हिं० रूखा+पन (प्रत्यय)] १. रूखे होने की अवस्था, गुण या भाव। रूखाई। २. खुश्की। ३. व्यवहार आदि की कठोरता या हृदयहीनता।
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रूँगटा  : पुं० =रोंगटा।
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रूँगटाली  : स्त्री० [हिं० रूँगटा+वाली=आली] भेड़। गाउर।
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रूँगा  : पुं० [सं० रुक=उदारता] खरीददार को संतुष्ट रखने के लिए उसे सौदे से अधिक या अतिरिक्त दी जानेवाली चीज। उदाहरण—जो आप अपने सौजन्य के साथ रूँगे में दे रहे हैं।—अज्ञेय।
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रूचना  : अ० स०=रुचना।
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रूछ  : वि० =रूक्ष (रूखा)।
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रूज  : पुं० [अ] एक प्रकार की बुकनी जिससे सोने-चाँदी पर कलई करते हैं।
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रूझना  : अ०=अरूझना (उलझना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रूठ  : स्त्री० [सं० रूष्ठि, प्रा० रुट्ठि] १. रूठने की क्रिया या भाव। २. क्रोध। गुस्सा।
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रूठन  : स्त्री०=रुठ।
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रूठना  : अ० [सं० रुष्ट, प्रा० रूट्ठ+ना (प्रत्यय)] १. किसी के विरुद्ध आचरण करने के कारण किसी से अप्रसन्न होना। जैसे—पैसा न मिलने के कारण बच्चे का रूठना। २. किसी के अनुचित या अप्रत्याशित व्यवहार से इतना दुःखी होना कि उसके बुलाने तथा मनाने पर भी जल्दी न बोलना तथा न मानना।
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रूड़ा  : वि० =रूरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रूढ़  : वि० [सं०√रूह् (उद्भव)+क्त] [स्त्री० रूढ़ा] १. किसी के ऊपर चढ़ा हुआ। आरूढ़। २. उत्पन्न। जात। ३. ख्यात। प्रसिद्ध। मशहूर। ४. लोक में चलता हुआ। प्रचलित। जैसे—इस शब्द का रूढ़ अर्थ तो यही है। ५. उजड्ड। गँवार। ६. कठोर। कड़ा। ७. अविभाज्य (गणित की संख्या) ८. व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान में वह शब्द जो यौगिक से भिन्न किसी और अर्थ में प्रयुक्त होता हो।
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रूढ़-यौवना  : स्त्री०=आरूढ़ यौवना (नायिका)।
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रूढा  : स्त्री० [सं० रूढ़+टाप्]=रूढ़ि-लक्षण।
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रूढि  : स्त्री० [सं०√रुह्+क्तिन्] १. चढ़ाई। चढ़ाव। २. बढती। वृद्धि। ३. उठान या उभार। ४. आविर्भाव या उत्पत्ति। ५. ख्याति। प्रसिद्धि। ६. परंपरा से चली आई हुई कोई ऐसी चाल या प्रथा जिसे साधारणतः सब लोग मानते हों अथवा जिसका पालन लोक में होता हो (कन्वेन्शन)। ७. मन में की हुई धारणा निश्चय या विचार। ८. वह शब्द शक्ति जिससे शब्द अपने रूढ़ अर्थ का ज्ञान कराता है।
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रूढि-लक्षणा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] साहित्य में, लक्षणा के दो प्रमुख भेदों में से एक जिसमें मुख्य अर्थ के बाधित होने पर अर्थ-संबंधी कोई दूसरा लक्ष्यार्थ निकलता या लिया जाता है। (दूसरा प्रमुख भेद प्रयोजनवती लक्षणा है)।
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रूतना  : अ० [सं० रत] किसी काम में रत होना। लगना। उदाहरण—णाणा रण रूता नर नेही करै।—कबीर।
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रूँदना  : स० १. =रौंदना। २. =रूँधना।
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रूदाद  : स्त्री० [फा० रूएदाद] १. समाचार। वृत्तांत। हाल। २. अवस्था। दशा। हालत। ३. कैफियत। विवरण। ४. प्रबंध। व्यवस्था। ५. अदालत में किसी मुकदमें के संबंध में होनेवाली कार्यवाही। ६. किसी काम या बात का वह रंग-ढंग जिससे उनके भविष्य का अनुमान हो सकता है।
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रूँध  : स्त्री० [हिं० रूंधना] रूँधने या रूँधे हुए होने की अवस्था, क्रिया या भाव। वि० रुद्ध (रूका हुआ)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रूँधना  : स० [सं० रुधना] १. मार्ग आदि रोक या बंद कर देना। रास्ते में रुकावट खड़ी करना या विघ्न डालना। २. खेत आदि को काँटेदार झाड़ों या तारों से घेरना। ३. घेरना।
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रूनुमा  : वि० [फा०] [भाव० रूनुमाई] मुँह दिखानेवाला।
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रूनुमाई  : स्त्री० [फा०] मुँह-दिखाई।
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रूप  : पुं० [सं०√रूप् (बनाना, देखना आदि)+अच्] १. किसी पदार्थ का वह ब्राह्य गुण या विशेषता (आयतन वर्ण आदि से भिन्न) जिससे उसकी बनावट का पता चलता है। पिंड, शरीर आदि की बनावट का प्रकार और स्थिति सूचित करनेवाला तत्त्व। आकृति। शकल। सूरत। पद—रूप रेखा (देखें)। २. देह। शरीर। किसी विशिष्ट प्रकार की आकृति, वेश-भूषा आदि से युक्त शरीर। जैसे—बहुरूपिया नित्य नित्य नए नए रूप धारण करता है। मुहावरा—रूप भरना= (क) भेस बनाना। वेश धारण करना। (ख) किसी तरह का तमाशा, मजाक या स्वांग खड़ा करना। ३. किसी तत्त्व, बात या वस्तु की वह स्थिति जिसके फलस्वरूप वह किसी पृथक् तथा स्वतंत्र गुण या विशेषता से युक्त होकर कुछ अलग या नए प्रकार का काम करता या परिणाम दिखलाता है। प्रकार। भेद। जैसे—(क) प्राचीन भारत में शासन के कई रूप प्रचलित थे। (ख) उपसर्ग, प्रत्यय आदि लगाकर किसी शब्द के अनेक रूप बनाये जा सकते हैं। (ग) इस योजना को अब एक नया रूप देने का प्रयत्न किया जा रहा है। ४. कोई कार्य करने की नियत और व्यवस्थित पद्धति या प्रणाली। जैसे—(क) उनके कुल में विवाह सदा इसी रूप में होता चला आया है। (ख) यह मंत्र सदा इसी रूप में लिखा जाना चाहिए। ५. दृश्य पदार्थ या वस्तु। जैसे—प्रकृति कहीं पर्वत के रूप में और कहीं समुद्र के रूप में व्यक्त होती है। ६. खूबसूरती। सुंदरता। (किसी का) रूप हरना=अपनी बढ़ी हुई सुन्दरता के फल-स्वरूप ऐसी स्थिति उत्पन्न करना कि सामनेवाली चीज या व्यक्ति कुछ भी सुन्दर न जान पड़े। ७. प्रकृति स्वभाव। ८. प्रकार। भेद। ९. नमूना। प्रतिमान। १॰. बराबरी। समता। समानता। ११. गणित में एक की सूचक संज्ञा। १२. नाटक। ‘रूपक’। वि० खूबसूरत। रूपवान्। सुन्दर। अव्य०किसी के रूप के तुल्य या सदृश्य बराबर या समान। उदाहरण—बोलहु सुआ पियारे नाहाँ। मोरे रूप कोऊ जग माहाँ।—जायसी। पुं० =रूपा (चाँदी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रूप-गर्विता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] साहित्य में, वह नायिका जिसे अपने रूप का गर्व या अभिमान हो।
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रूप-घनाक्षरी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] ३२ वर्णों वाला एक प्रकार का मुक्तक दंडक छंद जिसके प्रत्येक चरण में आठ-आठ वर्णों पर यति होती है। इसके अंत में लघु होना आवश्यक है।
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रूप-चतुर्दशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कार्तिक बदी चौदस। नरक चतुर्दशी।
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रूप-जीवनी  : स्त्री० [सं० रूप√जीव् (जीना)+णिनि+ङीष्] रूप जिसकी जीविका का आधार हो। रंडी। वेश्या।
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रूप-धेय  : पुं० [सं० रूप+धेय] किसी प्रकार के ठोस पदार्थ (पिंड, भूमि आदि) की समोच्च रूप रेखा। कॉन्टूर।
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रूप-नाशक  : पुं० [सं० ष० त०] उल्लू। वि० रूप नष्ट करनेवाला।
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रूप-पति  : पुं० [सं० ष० त०] विश्वकर्मा।
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रूप-भेद  : पुं० [सं० ष० त०] किसी काम या बात के रूप में किया हुआ आंशिक परिवर्तन।
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रूप-मंजरी  : स्त्री० [सं० रूप+मंजरी] १. एक प्रकार का फूल। २. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। पुं० एक प्रकार का धान और उसका चावल।
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रूप-मनी  : वि० [हिं० रूपमान्] रूपवती।
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रूप-मांजरी  : स्त्री० पुं० =रूप-मंजरी।
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रूप-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १, एक प्रकार का सम-वृत मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १४ और १0 के विश्राम से २४ मात्राएँ होती हैं। २. एक प्रकार का सम वृत्त वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, मगण, जगण, भगण और अंत में गुरु लघु होता है।
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रूप-रूपक  : पुं० [सं० मध्य० स०] केशव के अनुसार रूपक अलंकार के ‘सावयव रूपक’ भेद का एक नाम।
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रूप-रेखा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. रेखाओं आदि के रूप में होनेवाला वह अंकन जिससे किसी पदार्थ के आकार-प्रकार का स्थूल ज्ञान होता हो, फिर भी जिससे उस पदार् के उभार, गहराई मोटाई ज्ञान आदि का हो। रेखाओं द्वारा अंकित चित्र। २. किसी कार्य के संबंध की वह मुख्य बात जो उसके स्थूल रूप की सूचक तथा ब्योरे आदि की बातों से रहित होती और उसके संक्षिप्त विवरण या सारांश के रूप में होती है। ३. किसी चित्र की वह बाहरी रेखा जिससे वह चित्र घिरा रहता है (आउट लाइन सभी अर्थो में)।
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रूप-विधान  : पुं० [सं० ष० त०] १. भाषा विज्ञान और व्याकरण का वह अंग या शाखा जिसमें शब्दों की बनावट या रूप और उसमें होनेवाले विकारों आदि का विवेचन होता है। (माँरफाँलोजी) २. दे० ‘आकृति विज्ञान’।
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रूप-श्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] सम्पूर्ण जाति की एक संकर रागिनी।
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रूप-संपत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] सौन्दर्य। उत्तम रूप। सुन्दरता।
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रूप-साधक  : वि० [सं० ष० त०] शब्दों का रूप साधन करनेवाला। जैसे—फलतः मुख्यतः आदि में ‘तः’ रूप साधक प्रत्यय है।
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रूप-साधन  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० कर्ता रूपसाधक] व्याकरण में भिन्न-भिन्न कारकों, लिगों, वचनों आदि में किसी एक शब्द के होनेवाले अलग-अलग रूप या उनके वे रूप बनाने की प्रक्रिया। डिक्लरेन्शन।
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रूप-साम्य  : पुं० [सं० स० त० या ष० त०] वस्तुओं के रूपों में होनेवाली पारस्परिक समानता।
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रूपक  : वि० [सं०√रूप्+णिच्+ण्वुल्-अक] जिसका कोई रूप हो। रूप से युक्त। रूपी। पुं० १. किसी रूप की बनाई हुई प्रतिकृति या मूर्ति। २. किसी प्रकार का चिन्ह या लक्षण। ३. प्रकार। भेद। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का प्राचीन परिमाण। ५. चाँदी। ६. रुपया नाम का सिक्का जो चाँदी का होता है। ७. चाँदी का बना हुआ गहना। ८. ऐसा काव्य या और कोई साहित्यिक रचना, जिसका अभिनय होता हो, या हो सकता हो। नाटक। विशेष—पहले नाटक के लिए रूपक शब्द ही प्रचलित था और रूपक के दस भेदों में नाटक भी एक भेद मात्र था। पर अब इसकी जगह नाटक ही विशेष प्रचलित हो गया है। रूपक के दस भेद ये हैं—नाटक प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अंक, वीथी और प्रहसन। ९. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें बहुत अधिक साम्य के आधार पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आरोप करके अर्थात् उपमेय या उपमान के साधर्म्य का आरोप करके और दोंनों भेदों का अभाव दिखाते हुए उपमेय या उपमान के रूप में ही वर्णन किया जाता है। इसके सांग रूपक अभेद रुपक, तद्रूप, रूपक न्यून रूपक, परम्परित रूपक आदि अनेक भेद हैं। १॰. बोल-चाल में कोई ऐसी बनावटी बात, जो किसी को डरा धमकाकर अपने अनुकूल बनाने के लिए कही जाय। जैसे—तुम जरो मत, यह सब उनका रूपक भर है। क्रि० प्र०—कसना।—बाँधना। ११. संगीत में सात मात्राओं का एक दो ताला ताल, जिसमें दो आघात और एक खाली होता है।
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रूपक-कार्यक्रम  : पुं० [सं० ष० त०] आकाशवाणी द्वारा प्रसारित होनेवाले नाटकों, प्रहसनों आदि से सम्बन्ध रखनेवाला कार्यक्रम। (फीचर प्रोग्राम)।
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रूपकर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] विश्वकर्मा।
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रूपकातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० रूपक-अतिशयोक्ति, कर्म० स०] अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें वर्णन तो रूपक की तरह का ही होता है, पर केवल उपमान का उल्लेख करके उपमेय का स्वरूप उपस्थित किया जाता है।
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रूपकृत्  : पुं० [सं० रूप√कृ (करना)+क्विप्] विश्वकर्मा।
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रूपक्रांता  : स्त्री० [सं०] सत्रह अक्षरों का एक वर्णवृत्त।
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रूपण  : पुं० [सं०√रूप+णिच्+ल्युट-अन] १. आरोप करना। आरोपण। २. प्रमाण। सबूत। ३. जाँच। परीक्षा।
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रूपता  : स्त्री० [सं० रूप+तल्+टाप्] रूप का गुण, धर्म या भाव। २. खूब सूरती। सौन्दर्य।
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रूपधर  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० रूपधरा] सुंदर। खूबसूरत।
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रूपमय  : वि० [सं० रूप+मयट्] [स्त्री० रूपमती] रूप अर्थात् सौन्दर्य से भरा हुआ या पूर्णतः युक्त। परमसुन्दर।
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रूपमान  : वि० [स्त्री० रूपमनी]=रूपवान्।
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रूपमाली (लिन्)  : स्त्री० [सं० रूपमाला+इनि] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन मगण या नौ दीर्घ वर्ण होते हैं।
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रूपव  : वि० =रूपवान्।
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रूपवंत  : वि० [सं० रूपवत्] [स्त्री० रूपवंती] जिसमें सौन्दर्य हो। खूब सूरत। रूपवान्।
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रूपवती  : स्त्री० [सं० रूप+मतुप्, +ङीष्] १. केशव के अनुसार एक प्रकार का छंद, जिसे छंदप्रभाकर ‘गौरी’ कहा गया है। २. चंपक माला वृत्त का एक नाम। वि० सुंदरी (स्त्री)।
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रूपवान् (वत्)  : वि० [सं० रूप+मतुप्] [स्त्री० रूपवती] सुंदर रूप वाला। खूबसूरत।
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रूपशाली (लिन्)  : वि० [सं० रूप√शाल् (शोभित होना)+णिनि] [स्त्री० रूपशालिनी] रूपवान्। सुन्दर।
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रूपंसी  : स्त्री० [सं० रूप से] बहुत सुन्दर स्त्री।
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रूपस्वी  : वि० [सं० रूपवान्] [स्त्री० रूपस्विनी] रूपवान्। सुन्दर।
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रूपा  : पुं० [सं० रूप] १. चाँदी। २. ऐसी घटिया चाँदी जिसमें कुछ खोट या मिलावट हो। ३. सफेद रंग का बैल जो परिश्रमी माना जाता है। ४. सफेद रंग का घोड़ा। नुकरा। स्त्री० [सं०] रूपवती स्त्री। सुन्दरी।
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रूपांकक  : पुं० [सं० रूप-अंकक, ष० त०] किसी चीज का निर्माण करने से पहले उसकी आकृति, रचना प्रकार आदि को रेखाओं नक्शों आदि द्वारा दरशानेवाला व्यक्ति। अभिकल्पक। (डिजाइनर)
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रूपांकन  : पुं० [सं० रूप-अंकन] रेखाओं, नक्शों आदि के द्वारा किसी चीज का रूप रंग तथा आकार-प्रकार दरशाने की क्रिया या भाव। अभिकल्पन (डिजाइनिंग)।
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रूपाजीवा  : स्त्री० [सं० रूप-आ√जीव् (जीना)+अच्+टाप्] वेश्या। रंडी।
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रूपांतर  : पुं० [सं० रूप-अंतर, ष० त०] १. रूप का बदलना। दूसरे रूप की प्राप्ति। रूपांतरण। २. प्राप्त होनेवाला दूसरा रूप।
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रूपांतरण  : पुं० [सं० रूप-अंतरण] दूसरे रूप में आना या लाया जाना। रूप बदलना या बदला जाना। (ट्रान्सफारमेशन)
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रूपाधिबोध  : पुं० [सं० रूप-अधिबोध, ष० त०] १. जिसके रूप का ज्ञान इंद्रियों से प्राप्त होता है। दृश्य या अदृश्य पदार्थ। २. उक्त पदार्थ का इंद्रियों से होनेवाला ज्ञान।
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रूपाध्यक्ष  : पुं० [सं० रुप-अध्ययन, ष० त०] १. टकसाल का प्रधान अफसर। २. कोषाध्यक्ष।
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रूपामक्खी  : स्त्री० [हिं० रूपा=चाँदी+मक्खी] एक प्रकार का खनिज पदार्थ जिसकी गणना हमारे यहाँ उप-धातुओं में की गई है, वैद्यक में इसका व्यवहार प्रायः चाँदी के अभाव में किया जाता है क्योंकि इसमें चाँदी का कुछ अंश और गुण पाया जाता है।
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रूपायन  : पुं० [सं०] [भू० कृ०रूपायित] १. किसी वस्तु का रूप या ढाँचा। प्रस्तुत करना। २. किसी बात या विचार को कार्यरूप में परिणित करना।
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रूपायित  : भू० कृ० [सं०] जिसने कोई रूप प्राप्त किया हो या जिसे कोई रूप दिया गया हो।
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रूपावचर  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का देवता (बौद्ध) २. चिन्ता की वह अवस्था जिसमें उसे रूप-जगत् अर्थात् दृश्य पदार्थों का ज्ञान होता है। ३. इस प्रकार प्राप्त होनेवाला ज्ञान। ४. योग में ध्यान की एक भूमि जिसके प्रथम आदि चार भेद कहे गये हैं।
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रूपाश्रय  : वि० [सं० रूप-आश्रय, ष० त०] रूपवान्। सुन्दर।
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रूपास्त्र  : पुं० [सं० रूप-अस्त्र, ब० स०] कामदेव।
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रूपिका  : स्त्री० [सं०√रूप्+ठन्-इक, +टाप्]सफेद फूलोंवाला मदार का पौधा।
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रूपित  : पुं० [सं० रूप+इतच्] एक प्रकार का उपन्यास, जिसमें ज्ञान, वैराग्यादि पात्र बनाए जाते हैं। भू० कृ० जिसे कोई रूप दिया गया या मिला हो।
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रूपी (पिन्)  : वि० [सं०√रूप्+इनि] [स्त्री० रूपिणी] १. रूप या आकार प्रकार वाला। २. रूपधारी। रूपवान्। सुन्दर। ३. तुल्य। सदृश्य समान।
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रूपेंद्रिय  : स्त्री० [सं० रूप+इंद्रिय, मध्य० स०] जिससे रूप का ज्ञान होता है चक्षु।
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रूपेश्वर  : पुं० [सं० रूप-ईश्वर, ष० त०] [स्त्री० रूपेश्वरी] एक शिवंलिंग।
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रूपेश्वरी  : स्त्री० [सं० रूप-ईश्वरी, ष० त०] एक देवी का नाम।
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रूपोपजीविनी  : स्त्री० [सं० रूप+उप√जीव् (जीना)+णिनि+ङीष्] वेश्या रंडी।
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रूपोपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० रुप-उप√जीव्+णिनि] [स्त्री० रुपोपजीवनी] बहुरूपिया।
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रूपोश  : वि० [फा०] १. जो मुँह छिपाए हुए हो। २. जो दंड आदि से बचने के लिए छिप या भाग गया हो।
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रूपोशी  : वि० [फा०] १. रूपोश होने की अवस्था या भाव।
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रूप्य  : वि० [सं० रूप+यत्] १. सुन्दर। खूबसूरत। २. उपमेय। पुं० रूपा। चाँदी।
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रूप्यक  : पुं० [सं० रूप्य+कन्] रुपया।
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रूप्याध्यक्ष  : पुं० [सं० रूप्य-अध्यक्ष, ष० त०] टकसाल का प्रधान अधिकारी। नैष्ठिक।
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रूबकार  : पुं० [फा०] १. सामने उपस्थित करने की क्रिया या भाव। पेशी। २. वह पत्र जिसके द्वारा किसी को कहीं उपस्थित होने की आज्ञा दी जाय। ३. आज्ञापत्र। हुक्मनामा। वि० दत्त-चित्त।
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रूबकारी  : स्त्री० [फा०] १. किसी के सामने उपस्थित होने की क्रिया या भाव। २. अदालत में मुकदमे की पेशी। २. मुकदमे से सम्बन्ध रखने वाली कार्यवाही। ४. दत्त चित्त होने की अवस्था या भाव।
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रूबंद  : पुं० [फा०] १. घूँघट। २. बुरका।
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रूम  : पुं० [फा०] टर्की या तुर्की देश का पुराना नाम। पुं० [अं०] कमरा।
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रूमना  : अ० हिं० झूमना का अनु०।
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रूमानिया  : पुं० [अं०] पूर्वी यूरोप का एक देश।
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रूमानी  : पुं० [अं०] रूमानिया का निवासी। वि० रूमानिया देश का। स्त्री० रूमानिया देश की भाषा।
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रूमाल  : पुं० [फा०] १. जेब में रखने का कपड़े का छोटा चौकोर टुकड़ा जिसके किनारे सिले होते हैं तथा जिससे मुँह नाक पोंछा जाता है। करपट। २. चौकोना शाल या चिकन का टुकड़ा जिसके चारों ओर बेल और बीच में काम बना रहता है और जो तिकोने दोहर कर ओढ़ने के काम में लाया जाता है। मुसलमानी शासन-काल में यह कमर में भी लपेटा जाता था। ३. पायजामे की काट में वह चौकोर कपडा जो दोनों मोहरियों की सन्धि में लगाया जाता है। मियानी। ४. ठगों का वह रुमाल जिसके एक कोने में चाँदी का एक टुकड़ा बँधा रहता था। क्रि० प्र०—लगाना।
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रूमाली  : स्त्री० [फा० रुमाल] १. छोटा रुमाल। २. एक प्रकार का लँगोट। ३. दे० ‘रूमाली’।
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रूमी  : वि० [फा०] १. रूम देश संबंधी। रूम का। २. जो रूम देश में उत्पन्न हो या वहाँ से आता हो। जैसे—रूमी मस्तगी। पुं० रूम देश का निवासी। स्त्री० रूम देश की भाषा।
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रूरना  : अ० [सं० रोरवण] १. ऊँचे स्वर में बोलना। चिल्लाना। २. दहाड़ना। गरजना।
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रूरा  : वि० [सं० रूढ़=प्रशस्त] [स्त्री० रूरी] १. श्रेष्ठ। उत्तम। अच्छा। २. खूबसूरत। सुन्दर।
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रूल  : पुं० [अं०] १. नियम। कायदा। २. शासन। ३. वह डंडा या पट्टी जिसकी सहायता से सीधी रेखाएँ या लकीरें खींची जाती है। रूलर। ४. सीधी खींची हुई रेखा या लकीर। क्रि० प्र०—खींचना।
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रूलदार  : वि० [अं० रूल+फा० दार] जिस पर समानान्तर तथा सीधी रेखाएं खींची या बनी हों।
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रूलर  : पुं० [अं०] १. लकीर खींचने का डंडा या पट्टी। सलाका। २. शासक।
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रूष  : पुं० =रूख (वृक्ष)।
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रूषक  : पुं० [सं०√रूष् (सजाना, ढकना)+ण्वुल्-अक] अडूसा वासक।
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रूषण  : पुं० [सं०√रूष्+ल्युट-अन] १. अलंकृत या भूषित करना। २. लेप लगाना। अनुलेपन। ३. ढकना। आच्छादन।
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रूषा  : वि० =रूखा।
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रूस  : पुं० [फा०] एक प्रसिद्ध देश जिसका आधा भाग युरोप में और आधा एशिया में पड़ता है। स्त्री० [फा० रविश] चाल (क्व०) स्त्री० [हिं० रूसना] रूसने की क्रिया या भाव।
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रूसना  : अ० [हिं० रोष] १. रुष्ट होना। रूठना। संयो० क्रि०—जाना। बैठना। २. क्रुद्ध होना।
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रूसा  : पुं० [सं० रोहिष] एक प्रकार की सुगंधित घास भूतृण। पुं०=अडूंसी।
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रूसी  : वि० [फा०] १. रूस देश का। रूस देश संबंधी। २. रूस देश में उत्पन्न या प्रचलित। पुं० रूस देश का निवासी। स्त्री० रूस देश की भाषा। स्त्री० [देश] सिर में पड़ी हुई भूसी की तरह दिखाई पड़नेवाली मैल।
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रूह  : स्त्री० [अं०] १. आत्मा। २. प्राणवायु। ३. अंतःकरण। जैसे—वहाँ जाने को मेरी रूह नहीं कर रही है। ४. कई बार का खींचा हुआ अरक या इत्र।
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रूह-अफ़जा  : वि० [अ०+फा०] जीवन बढ़ानेवाला। प्राणवर्धक।
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रूहड़  : पुं० [हिं० रूई] १. पुराने गद्दों तकियों, लिहाफों आदि में की वह पुरानी रूई जो जमकर गुठलों या गूदड़ के रूप में हो गई हो। २. रूई का गुठला।
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रूहना  : अ० [सं० रोहण] १. ऊपर चढ़ना। २. वेगपूर्वक आगे बढ़ना। उमड़ना। स०=रूँधना।
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रूहानियत  : स्त्री० [अ०] १. आत्मवाद। २. अध्यात्मवाद।
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रूहानी  : वि० [अ०] १. रूह या आत्मा संबंधी। आत्मिक जैसे—रूहानी ताकत। २. अंतःकरण संबंधी। हार्दिक। दिली।
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रूही  : वि० [देश०] एक वृक्ष।
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रूहीमूल  : पुं० [हिं० रूही+मूल] रूही नामक वृक्ष की छाल और जड़। ईसरमूल।
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रे  : पुं० [सं० ऋषभ का आदि र०] ऋषभ स्वर का संक्षिप्त रूप। संगीत। अव्य० हिं० अरे (सम्बोधन) का संक्षिप्त रूप। रे। जैसे—रे मन, अब ध्यान में लग।
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रेउँछा  : पुं० =रेवँछा।
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रेउड़ा  : पुं० =रेवड़ा (बड़ी रेवड़ी)।
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रेउड़ी  : स्त्री०=रेवड़ी।
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रेंक  : स्त्री० [हिं० रेकंना] रेंकने की क्रिया, भाव या शब्द।
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रेक  : पुं० [सं०√रिच् (विरेचन)+घञ्] १. दस्त लाना। विरेचन। २. शंका। ३. मेंढ़क। वि० नीच।
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रेंकना  : अ० [अनु०] १. गधे का बोलना। २. बहुत बुरी तरह से चिल्लाते हुए गाना या बोलना।
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रेकान  : पुं० [देश] ऐसी जमीन जिसके पास तक नदी की बाढ़ का पानी न पहुँचता हो।
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रेकार्ड  : पुं० [अं०] १. अभिलेख। प्रालेख। २. कार्यालय के कागज-पत्र। ३. तवे के आकार की एक प्रकार की रासायनिक रचना, जिसमें विद्युत की सहायता से आवाज भरी होती है और जो ग्रामोफोन में लगाकर बजाया जाता है।
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रेख  : स्त्री० [सं० रेखा] १. रेखा। लकीर। क्रि० प्र०—खींचना।—बनाना। मुहावरा—रेख काढ़ना, खाँचना या खींचना=कोई बात कहने के समय दृढ़ता, प्रतिज्ञा, संकल्प आदि सूचित करने के लिए रेखा अंकित करना। दे० ‘रेखा’। पद—रूप रेखा=रूप-रेखा। २. चिन्ह। निशान। ३. गिनती। गणना। शुमार। हिसाब। ४. लिखावट। पद—कर्म रेख। ५. वह जो भाग्य में लिखा हो। भाग्य-लेख। ६. युवास्था में पहले पहल रेखा के रूप में निकलनेवाली मूँछ। क्रि० प्र०—आना।—भीजना।—भीनना। ७. वह दूषित हीरा जिसमें रेखा हो। ८. हीरे में रेखा होने का दोष।
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रेखता  : वि० [फा० रेखतः] १. ऊपर से गिरा या टपका हुआ। २. (कथन-प्रकार) बिना किसी प्रकार की बनावट के आप से आप या स्वाभाविक रूप से मुँह से निकला हुआ। ३. (वास्तु-कार्य) चूने आदि से बना हुआ फलतः पक्का या मजबूत। जैसे—रेखता, छत दीवार या मकान। पुं० १. खुसरो द्वारा प्रचलित एक प्रकार का कविता या छंद रचना जिसमें फारसी और भारतीय छंदशास्त्रों की अनेक बातों (ताल, लय आदि) का सम्मिश्रिण होता था। यथा-ज-हाले मिस्कीं मकुन तगाफुल, दुराय नैनाँ बनाय बतियाँ। ३. परवर्ती काल में ऐसी कविता जिसमें कई भाषाओं के पद, वाक्य या शब्द सम्मिलित हों। ३. गद्य की वह भाषा, जिसमें हिन्दी के साथ-साथ अरबी-फारसी के भी कुछ विशेषण, संज्ञाएँ आदि सम्मिलित हो। (आधुनिक उर्दू का प्रारम्मभिक रूप इसी नाम से प्रसिद्ध था और यह हमारी खड़ी-बोली का एक विकसित रूप माना गया है० ४. चूने आदि की बनी हुई पक्की इमारत।
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रेखती  : स्त्री० [फा० रेख्ती] १. मुसलमान स्त्रियों में प्रचलित उर्दू का वह रूप जिसमें हिन्दी के बोल-चाल के शब्दों और हिन्दी प्रयोगों तथा मुहावरों की अधिकता रहती है। विशेष—जान-साहब, रंगीन आदि उर्दू कवियों ने जो जनानी रहन-सहन और चाल-ढाल की कविताएँ की हैं, उनकी बोली या भाषा ‘रेखती’ कहलाती हैं। २. उक्त बोली या भाषा में होनेवाली वह कविता, जिसमें विशेष रूप से स्त्रियों के भाव, मनोविकार आदि प्रकट किये गए हो।
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रेखन  : पुं० [सं० लेखन] १. रेखा या रेखाएँ अंकित करना या बनाना। २. रेखाओं आदि की सहायता से चित्र या रूप अंकित करना। आलेखन। ३. इस प्रकार अंकित किया हुआ चित्र या रूप। (ड्राईग)। रेखाचित्र।
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रेखना  : स० [सं० रेखन] १. रेखा या लकीर खींचना। २. रेखाओं की सहायता से चित्र आदि अंकित करना। उदाहरण—कहा करौं नीके करि हरि कौं रूप रेखि नहिं पावति।—सूर। ३. बनाना या रचकर तैयार करना। उदाहरण— (क) सत्य कहौ कहा झूठ में पावत देखों बेई जिन रेखी क्या।—केशव। (ख) पूरन प्रेम सुधा वसुधा वसुधा रमई वसुधर सु रेखी।—देव।
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रेखा  : स्त्री० [सं०√लिख् (लिखना)+अङ्+टाप्, लस्य+रः] १. सूत की तरह बहुत ही पतला और लंबा अंकित किया हुआ अवयव आप से आप बना हुआ चिन्ह। दण्डाकार पतला चिन्ह। डाँड़ी। लकीर। जैसे—कलम या खड़िया से खींची हुई रेखा। विशेष—प्राचीन काल में हमारे यहाँ कोई बात कहते समय अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा सूचित करने के लिए प्रायः हाथ से जमीन पर रेखा खींचने की प्रथा थी। क्रि० प्र०—खींचना बनाना। मुहावरा—रेखा रेखना=अपने कथन आदि की दृढ़ता या निश्चय सूचित करने के लिए रेखा खींचते हुए कोई बात कहना अथवा कुछ कहते समय रेखा खींचना। २. गणना करने की क्रिया या भाव। गिनती। शुमार। विशेष—आरम्भ में गिनती गिनने या सूचिक करने के लिए पहले रेखाएं ही खींची जाती थीं। उदाहरण—राम भगति में जासु न रेखा।—तुलसी। मुहावरा—रेखा रेखना=दृढ़तापूर्वक गिनती कहते हुए तत्संबंधी रेखा खींचना या बनाना। उदाहरण—शोभित स्वकीय गुण-गुण गनती में तहाँ तेरे नाम ही की रेखा रेखियतु है।—पद्याकर। ३. किसी ठोस तल पर बना या बनाया हुआ उक्त प्रकार का कोई चिन्ह। जैसे—चेहरे या ललाट पर की रेखा। ४. मनुष्य के तलवे और हथेली पर टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे बने हुए वे प्राकृतिक चिन्ह जिनके आधार पर सामुद्रिक, शास्त्र के अनुसार शुभाशुभ फल कहे जाते हैं। जैसे—अंकुश रेखा, ऊर्ध्व रेखा, कमल-रेखा। आदि। ५. वह कल्पित लकीर जो आरंभिक भारतीय ज्योतिषी अक्षांश सूचित करने के लिए सुमेरु से उज्जयिनी होती हुई लंका तक खिंची या बनी हुई मानते थे (दे० ‘रेखा भूमि’) ६. हीरे आदि रत्नों के बीच में दिखाई पड़नेवाली लकीर जो एक दोष मानी जाती है। ७. आकार। आकृति। रूप। सूरत। ८. कतार। पंक्ति।
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रेखा-गणित  : पुं० [सं० ब० स०] ज्यामिति (दे०)।
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रेखा-भूमि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वह भूमि या प्रदेश जो उस कल्पित रेखा के आस-पास पड़ते थे, जो प्राचीन काल में अक्षांश स्थिर करने की लिए सुमेरू से उज्जयिनी होती हुई लंका तक गई हुई मानी जाती है।
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रेखा-लेख  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] १. प्रायः चित्र के रूप में होनेवाला कोई ऐसा अंकन जो परिकल्पनाओं, विचारों, स्थितियों आदि का परिचायक हो। आरेख (डाया ग्राम)। २. दे० ‘रेखा चित्र’।
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रेखांकन  : पुं० [सं० रेखा-अंकन, ष० त०] [भू० कृ० रेखांकित] १. चित्र की रूप-रेखा बनाने के लिए रेखाएं अंकित करना। २. दे० ‘अधोरेखन’ (अंडर लाइनिंग)।
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रेखाँकित  : भू० कृ० [सं० रेखा-अंकित, तृ० त०] १. रेखाओं से बना हुआ। २. जिसके नीचे रेखा खींची गई हो। जिसका रेखांकन हुआ हो।
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रेखाचित्र  : पुं० [सं० मध्य, स०] १. किसी वस्तु या व्यक्ति के रूप का वह चित्र जो केवल रेखाओं से अंकित किया गया हो। (ड्राइंग)। २. ऐसा चित्र जो केवल रेखाओं से बनाया गया हो, अर्थात् जिसमें बीच के उतार-चढ़ाव उभार-धँसाव आदि न हो। डेलोनिएशन।
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रेखावती  : स्त्री० [सं० रेखा+मतुप्, +ङीष, वत्व] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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रेखांश  : पुं० [सं० रेखा-अंश, ष० त०] १. =देशांतर (भूगोल का) २. यामोत्तर वृत्त का कोई अंश। द्राधिमांश।
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रेखित  : भू० कृ० [सं० रेखा+इतच्] १. रेखा के रूप में खिचा हुआ। अंकित। लिखित। २. जिस पर रेखा अंकित की गई हो। ३. दरकने, फटने आदि के कारण जिस पर रेखा पड़ गई हो।
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रेख्ता  : वि० पुं० =रेखता।
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रेख्ती  : स्त्री०=रेखती।
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रेंग  : स्त्री० [हिं० रेंगना] रेंगने की क्रिया या भाव।
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रेग  : स्त्री० [फा०] रेत।
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रेंगटा  : पुं० [हिं० रेगं+टा] गधे का बच्चा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रेंगना  : अ० [सं० रिंगण] १. जमीन के साथ पेट सटाकर हाथों पैरों के बल खिसकते हुए आगे बढना या चलना। जैसे—च्यूँटी या साँप का रेंगना। २. बच्चों का या बच्चों की तरह धीरे-धीरे और लड़खड़ाते हुए चलना। (बुन्देल०) अ०=रेंकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रेंगनी  : स्त्री० [हिं० रेगना] भट-कटैया।
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रेगमाही  : पुं० [फा०] प्रायः रेतीले मैदानों में रहनेवाला एक प्रकार का जानवर जिसका मांस बहुत पौष्टिक माना जाता है। सकूकर।
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रेंगाना  : स० [हिं० रेंगना] १. किसी से रेंगने की क्रिया कराना। किसी को रेंगने में प्रवृत्त करना। २. बच्चों आदि को धीरे-धीरे चलाना। ३. व्यक्ति को चलाना या दौड़ाना।
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रेगिस्तान  : पुं० [फा०] [वि० रेगिस्तान] भूमि का वह प्राकृतिक विस्तृत भाग जिसके ऊपर रेत या बालू ही भरा हो मरुदेश।
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रेघाना  : स०[रेग आदि स्वर०] १. सस्वर या स्वर लय से पाठ करना या गाना। २. रेंकना। (दे)।
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रेचक  : वि० [सं० रिच् (विरेचन)+णिच्+ण्वुल-अक] जिसके खाने से दस्त आवे। कोष्ठशुद्धि करनेवाला। दस्तावर। पुं० १. जमालघोटा। २. जवाखार। ३. पिचकारी। ४. प्राणायाम की तीसरी क्रिया जिसमें खींचे हुए साँस को विधिपूर्वक बाहर निकालना होता है।
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रेचन  : पुं० [सं०√रिच्+णिच्+ल्युट—अन०] १. दस्त लाकर पेट से मल निकालना। २. वह ओषधि जो पेट का मल निकालकर उसे साफ करे। जुलाब।
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रेचनक  : पुं० [सं०√रिच्+णिच्+ल्यू—अन०+कन्] कमीला वृक्ष।
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रेचनी  : स्त्री० [सं० रेचन+ङीष्] १. कमीला। २. दंती। ३. वटपत्री। ४. कालांजनी।
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रेचित  : पुं० [सं०√रिच्+णिच्+क्त] १. घोड़ों की एक चाल। २. नृत्य में हाथ से भाव बताने का एक प्रकार। भू० कृ० रेचन क्रिया के द्वारा निकाला हुआ।
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रेच्य  : पुं० [सं०√रिच्+णिच्+यत्] १. प्राणायाम करते समय छोड़ी जानेवाली वायु। २. पेट से मल निकालने के लिए की जानेवाली दवा या किया जानेवाला उपचार। जुलाब। वि० जो रेचन क्रिया के द्वारा बाहर निकाला जाने को हो या निकाला जा सके।
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रेज़  : स्त्री० [फा०] १. पक्षियों का चहचहाना। कल-रव। २. गिराना। बहाना। वि० गिराने या बहानेवाला। जैसे—अश्करेज।
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रेजगारी  : स्त्री० [फा० रेजगारी] १. एक रुपए के मूल्य के छोटे सिक्के। २. छोटे सिक्के।
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रेज़गी  : स्त्री० [फा०] १. छोटे सिक्के। रेजगारी। २. सोना-चाँदी के तार के छोटे टुकड़े।
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रेजस  : पुं० [फा०] घोड़े का जुकाम।
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रेजस-छीभा  : पुं० =रेजस।
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रेजा  : पुं० [फा० रेजः] १. किसी वस्तु का बहुत छोटा टुकड़ा। सूक्ष्म खंड। कण। जर्रा। २. बहूमूल्य कपड़ों के खंड या स्थान। ३. रत्नों आदि के खंड या टुकड़े। नग। ४. मजदूर लड़का जो बड़े राजगीरों के साथ काम करता है। ५. वेश्या वृत्ति कराने के उद्देश्य से कुटनियों द्वारा पाली हुई लड़की (बाजारू)। ६. स्त्रियों के पहनने की अंगिया। (बुंदेल) ७. सुनारों का एक औजार जिसमें गला हुआ सोना या चाँदी डालकर पासे के आकार का बना लेते हैं।
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रेजिडेंट  : पुं० [अं०] वासामात्य। (दे०)
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रेजिमेंट  : स्त्री० [अं०] सेना का एक भाग। रिजमिट।
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रेज़िश  : स्त्री० [फा०] जुकाम। प्रतिश्याय।
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रेजु  : पुं० [हि० रेजा] एक प्रकार का रेशा जो पहले बुरुश या कूँची बनाने के लिए विदेशं से आता था।
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रेंट  : पुं० [देश] श्लेष्मा मिश्रित मल जो नाक से (विशेषतः जुकाम होने पर) निकलता है। नाक का मल। क्रि० प्र०—निकलना।—बहना।
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रेट  : पुं० [अं०] भाव। निर्ख। पुं० =रेंट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रेंटा  : पुं० [देश] लिसोढ़ा (फल)। पुं० =रेंट।—
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रेंटिया  : पुं० [?] १. सूत कातने का चरखा। (गुज०)
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रेंड  : पुं० [सं० एरण्ड] १. एक प्रकार का पौधा जो ६-७ हाथ ऊँचा होता है। २. इस पौधे के बीज जिनसे तेल निकलता है और इस दवा के काम आते हैं। ३. एक प्रकार की ईख। रेंड़ा।
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रेंड़-खरबूजा  : पुं० [हिं० रेंड़+खरबूजा] पपीता।
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रेंड़-मेवा  : पुं० [हिं० रेंड़+मेवा] पपीता।
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रेडक्रास  : पुं० [अं०] एक बहुत प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्था जिसकी शाखाएँ प्रायः सभी सभ्य देशों और राष्ट्रों में हैं, और जो राजनीतिक प्रपंत्रों से बिलकुल अलग रहकर युद्ध और प्राकृतिक संकटों आदि के समय जनसेवा का काम करती हैं।
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रेंड़ना  : अ० [हिं० रेंड़] फसली पौधा का विकसित होना।
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रेंड़ा  : पुं० [हिं० रेंड़] कुआर-कातिक में तैयार होनेवाला एक प्रकार का पेड़। स्त्री एक प्रकार की ईख।
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रेडियम  : पुं० [अं०] एक प्रसिद्ध बहुमूल्य प्रकार का खनिज पदार्थ जो कुछ विशिष्ट प्रकार के खनिज द्रव्यों से बहुत ही अल्पमात्रा में पाया जाता है और अनेक वैज्ञानिक कार्यों के लिए बहुत अधिक उपयोगी होता है।
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रेडियो  : पुं० =रेडियो।
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रेडियो  : पुं० [अं०] १. आधुनिक विज्ञान की वह क्रिया या प्रणाली जिसके अनुसार ध्वनियाँ, शब्द और संकेत बीच के तार द्वारा संबंध स्थापित किये बिना ही केवल विद्युत की सहायता से आकाश मार्ग से दूर-दूर तक पहुँचाये जाते हैं। २. वे यन्त्र जो उक्त प्रकार से ध्वनियाँ शब्द आदि चारों ओर प्रसारित करते हैं। ३. विशिष्ट रूप से वह छोटा यंत्र जिसकी सहायता से लोग घर बैठे उक्त प्रकार से प्रसारित की हुई ध्वनियाँ आदि सुनते हैं।
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रेडियो चिकित्सा  : स्त्री० [अं०+सं०] चिकित्सा की वह प्रणाली जिसमें रेडियो की रश्मियों के प्रभाव और प्रयोग से रोग अच्छे किये जाते हैं। (रेडियो थेरैपी)।
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रेडियो-चित्रण  : पुं० [अं०+सं०] वह वैज्ञानिक क्रिया जिसमें धन पदार्थों के भीतरी अंगों, विकारों आदि के चित्र एक्स-रे या रेडियो की रश्मियों की सहायता से लिये जाते अथवा किसी तल या परदे पर लिये जाते हैं। एक्स-रे चित्रण (रेडियोग्राफी)।
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रेडियो-नाटक  : पुं० [अं०+सं०] रेडियों द्वारा प्रसारित किया जानेवाला कोई छोटा नाटक या रूपक जो श्रव्य ही होता है। दुष्य नहीं होता।
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रेंड़ी  : स्त्री० [हिं० रेंड़] रेंड़ का बीज।
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रेणु  : स्त्री० [सं०√री (गति)+नु] १. धूल। २. बालू। ३. किसी चीज का बहुत छोटा कण। ४. बाय-बिडंग। ५. सँभालू के बीज। ६. पृथ्वी (डि०)।
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रेणु-वास  : पुं० [सं० ब० स०] भौंरा। भ्रमर।
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रेणुका  : स्त्री० [सं० रेणु+कन्+टाप्] १. बालू। रेत। २. धूल। रज। ३. सह्यादि पर्वत का एक तीर्थ। ४. परशुराम की माता का नाम। ५. पृथ्वी (डि०)
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रेणुसार  : पुं० [सं० ब० स०] कपूर।
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रेत (तस्)  : पुं० [सं०√री (क्षरण+असुन्, तुट्-आगम] १. वीर्य। शुक्र। २. पारा। ३. जल। पानी। स्त्री० १. बालू। २. बालू से भरी भूमि। रेता। पुं० [हिं० रेती] बड़ी रेती (औजार)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रेत-कुंड  : पुं, ० [सं० रेत-कुंड] १. एक नरक। रेतः कुल्या। २. कुमायूँ के पास का एक तीर्थ।
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रेत-कुल्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक नरक का नाम।
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रेतन  : पुं० [सं० रेतन] १. वीर्य। २. बीज।
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रेतना  : स० [हिं० रेती] १. रेती (औजार) से किसी बड़े पदार्थ का खुरदुरा तल इस प्रकार रगड़ना कि उस पर के महीन कण गिर जायँ और वह तल चिकना या सुडौल हो जाय। २. किसी वस्तु का काटने के लिए औजार की धार रगड़ना। जैसे—आरी से रेतना। ३. किसी तेज धारवाली चीज से धीरे-धीरे रगड़ते हुए कोई चीज काटना। जैसे—बकरी या मुरगी का गला रेतना। ४. लाक्षणिक अर्थ में किसी को निरंतर कष्ट या हानि पहुँचाना। मुहावरा—(किसी का) गला रेतना (दे०)।
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रेतल  : पुं० [देश] भूरे रंग का एक प्रकार का छोटा पक्षी।
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रेतला  : वि० =रेतीला।
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रेता  : पुं० [हिं० रेत] १. बालू। २. गर्द। धूल। ३. मिट्टी। ४. बलुआ मैदान।
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रेतिया  : पुं० [हिं० रेतना+इया (प्रत्यय)] वह जो रेतने का काम करता हो। चीज़ें रेतनेवाला कारीगर। वि० =रेतीला।
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रेती  : स्त्री० [हिं० रेतना] एक प्रकार का दानेदार औजार जिससे रगड़ या रेत कर पदार्थों का तल चिकना किया या छीला जाता। (फाइल) है। स्त्री० [हिं० रेत+ई (प्रत्यय)] १. वह स्थान जहाँ रेत प्रचुर मात्रा में हो। २. रेतीला मैदान। ३. नदी की धारा के बीचों-बीच टापू की तरह बलुई जमीन जो पानी घटने पर निकल आती है। नदी का टापू। जैसे—गंगाजी में इस साल रेती पड़ जाने से दो धाराएँ हो गई हैं। क्रि० प्र०—पड़ना।
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रेतीला  : वि० [हिं० रेत+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० रेतीली] १. (स्थान) जहाँ पर बालू पड़ा या बिछा रहता हो। जैसे—रेतीला प्रदेश। २. (मिट्टी) जिसमें बालू मिला हुआ हो। बालूकामय।
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रेत्र  : पुं० [सं०√री (क्षरण)+त्र] १. वीर्य। शुक्र। २. अमृत। पीयूष। ३. खेमे डेरे आदि जो रहने के लिए कपड़े से बनाये जाते हैं।
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रेंदी  : स्त्री० [देश] ककड़ी या खरबूजे की बतिया।
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रेना  : पुं० [देश] किसी वस्तु को दूसरी वस्तु में डाल या टिकाकर लटकाना।
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रेनी  : स्त्री० [सं० रंजनी] १. वस्तु जिससे रंग निकलता हो। रंग देनेवाली वस्तु। स्त्री० [हिं० रेचा=लटकाना] रंगरेजों की। अलगनी।
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रेनु  : पुं० =रेणु।
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रेनुका  : स्त्री०=रेणुका।
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रेप  : वि० [सं०√रप्+(गति)+अच्] १. निंदित। बुरा। २. क्रूर। निर्दय। ३. कंजूस। कृपण।
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रेफ  : वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय।
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रेरना  : स०=टेरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रेरुआ  : पुं० =रुरुआ (बड़ा उल्लू)।
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रेंरें  : अव्य० [अनु०] लड़कों के रोने का शब्द। स्त्री० जिद या हठ का सूचक शब्द।
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रेल  : स्त्री० [अं०] १. जमीन पर बिछी हुई लोहे की वह पटरी जिस पर रेलगाड़ी की पहिए चलते हैं। २. रेलगाड़ी। स्त्री० [हिं० रेलना] १. रेलने की क्रिया या भाव। २. पानी का बहाव। ३. तीव्र प्रवाह। ४. अधिकता। ५. धक्कम-धक्का। पद—रेल-पेल।
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रेल-गाड़ी  : स्त्री० [अं० रेल+हिं० गाड़ी] भाप, बिजली आदि की सहायता से लोहे की पटरियों पर चलनेवाली गाड़ी।
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रेल-पेल  : स्त्री० [हिं० रेलना+पेलना] १. ऐसी भीड़ जिसमें लोग एक दूसरे को धक्के दे रहे हों या धकेल रहे हों। २. बहुत अधिकता। बाहुल्य। भर-मार। जैसे—बाजार में आमों की रेल-पेल है।
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रेलना  : स० [हिं० रेला+ना (प्रत्यय)] १. रेले का औरों को ढकेलते हुए आगे बढ़ना। रेला या धक्का देना। २. प्रबल प्रवाह का किसी को अपने साथ बहा ले जाना। ३. ठूस कर भरना। ४. बहुत अधिक भोजन करना।
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रेलवे  : स्त्री० [अं०] १. रेल की बिछी हुई पटरियाँ जिन पर रेल-गाड़ी चलती हैं। २. रेल का महकमा या विभाग।
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रेला  : पुं० [देश] १. किसी चीज या बात का प्रबल प्रवाह। जैसे—पानी का रेला, भीड़ का रेला। २. भीड़ में होनेवाला धक्कम-धक्का। ३. आक्रमण। चढ़ाई। धावा। ४. किसी चीज या बात की अधिकता। बहुतायत। ५. तबला बजाने की एक रीति जिसमें कुछ विशिष्ट प्रकार के हलके तथा मधुर बोल बजाये जाते हैं।
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रेलिंग  : स्त्री० [अं०] मुंडेर की तरह ऊँची वह रचना जो छत के सिरों पर शोभा और सुरक्षा के लिए बनाई या लगाई जाती है।
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रेव-वेल  : स्त्री०=रेल-पेल।
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रेवँछा  : पुं० [देश] एक द्विदल अन्न जिसकी वर्तुलाकार पतली लंबोतरी फलियाँ बालिश्त भर लंबी होती है।
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रेवट  : पुं० [सं०√रेव् (गति)+अटन्] १. शूकर। सूअर। २. बाँस। ३. विषों की चिकित्सा करनेवाला वैद्य। विषवैद्य। ४. दक्षिणावर्त शंख।
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रेवड़  : पुं० [देश] १. भेड़-बकरियों का झुंड। २. झुंड। समूह।
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रेवड़ा  : पुं० [हिं० रेवडी] बड़ी और मोटी रेवड़ी।
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रेवड़ी  : स्त्री० [देश०] पगी हुई चीनी या गुड़ की वह छोटी टिकिया जिस पर सफेद तिल चिपकाए रहते हैं। मुहावरा—रेवड़ी के फेर में आना या पड़ना=लालच में पड़ना। रेवड़ी के लिए मसजिद ढाना=अपने बहुत थोड़े लाभ के लिए दूसरों की बहुत बड़ी हानि करना। २. लाक्षणिक अर्थ में कोई ऐसी चीज, जिसे सरलता से नष्ट किया जा सके।
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रेवत  : पुं० [सं०√रेव् (गति)+अतच्] १. जंबीरी नींबू। २. अमलतास। ३. बलराम की पत्नी रेवती के पिता जो एक राजा थे।
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रेवतक  : पुं० [सं० रेवत+कन्] १. पारावत। परेवा। २. एक प्रकार की खजूर।
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रेवती  : स्त्री० [सं० रेवत+ङीष्] १. ज्योतिष में सत्ताइसवाँ नक्षत्र जिसमें ३२ तारे स्थित माने गए हैं। २. एक मातृका का नाम। ३. दुर्गा। ४. गौ। ५. रेवत मनु की माता का नाम। ६. राजा रेवत की कन्या जो बलराम को ब्याही थी। ७. एक बालग्रह जो बच्चों को कष्ट देता है।
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रेवती-भव  : पुं० [सं० ब० स०] शनि (ग्रह)।
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रेवती-रंग  : पुं० =रेवती-रमण।
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रेवती-रमण  : पुं० [ष० त०] १. बलराम। २. विष्णु।
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रेवंद  : पुं० [फा०] हिमालय पर ग्यारह-बारह हजार फुट की उँचाई पर होनेवाला एक तरह का पेड़।
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रेवंद-चीनी  : स्त्री० [फा० रेवंद+चीन (देश)] चीन देश में होनेवाला उक्त प्रकार का पेड़, जिसकी छाल और बीज दवा के काम आते हैं।
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रेवना  : स०=रेना। (दे०)
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रेवरा  : पुं० =रेवड़ा।
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रेवा  : स्त्री० [सं०√रेव् (गति)+अच्+टाप्] १. नर्मदा नदी २. नर्मदा नदी के आस-पास का प्रदेश। आधुनिक रीवाँ और बघेलखंड। ३. कामदेव की पत्नी। रति। ४. दुर्गा। ५. एक प्रकार का साँप। ६. संगीत में पूर्वी अंग की एक रागिनी जिसे कुछ लोग दीपक राग की पत्नी मानते हैं। ८. नदियों में होनेवाली एक प्रकार की मछली।
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रेवाउतन  : पुं० [सं० रेवा-उत्पन्न] हाथी। (डिं०)
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रेश  : स्त्री० [फा०] लंबी दाढ़ी।
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रेशम  : पुं० [फा०] [वि० रेशमी] एक विशिष्ट प्रकार के कीड़ों के कोश पर के रोओं से तैयार किये जानेवाले बहुत चमकीले चिकने तथा मुलायम तंतु या रेशे जो प्रायः कपड़े बनाने के काम आते हैं। कोशा। कौशेय। विशेष—इस कीड़े की अनेक जातियाँ होती हैं, जिनसे अलग-अलग प्रकार के रेशम के तागे बनते हैं।
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रेशमी  : वि० [फा०] १. रेशम का बना हुआ। जैसे—रेशमी रूमाल या साड़ी। २. रेशम की तरह चमकीला और मुलायम। जैसे—रेशमी बाल।
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रेशा  : पुं० [फा० रेशः] १. वह तंतु या महीन सूत जो पौधों की छालों आदि से निकलता है या कुछ फलों के अन्दर भी पाया जाता है। २. वे तंतु जिनके शरीर का मांस तथा कुछ और अंग बने होते हैं। ३. कोई ऐसा तत्त्व या बुनावट के रूप में हो और जिसके तंतु या सूत अलग किये जाते हों (फाइबर) ४. शरीर के अन्दर की नस। रग।
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रेशा खत्मी  : पुं० [फा०] एक प्रकार की वनस्पति, जिसका प्रयोग हकीमी दवाओं में होता है। मुहावरा—रेशा खतमी हो जाना=बहुत गदगद या पुलकित होना। (परिहास)
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रेष  : पुं० [सं०√रेष् (हिंसा)+घञ्] १. क्षति। हानि। २. हिंसा। स्त्री०=रेख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रेषण  : पुं० [ सं०√रेष् (हिनहिनाना)+ल्युट्—अन] १. घोड़े का हिनहिनाना २. चीते, बाघ आदि का गरजना।
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रेषा  : स्त्री० [सं०√रेष्+अ+टाप्] १. घोड़े की हिनहिनाहट। २. सिंह की गरजन या दहाड़। स्त्री०=रेखा।
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रेसमान  : पुं० [फा० रीसमान=रस्सी] डोरी। रस्सी। (लश्करी)।
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रेस्तराँ  : पुं० [फ्रें०] भोजनालय। आहारगृह।
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रेह  : स्त्री० [?] खार मिली हुई वह मिटटी जो ऊपर मैदानों में पाई जाती है। स्त्री०=रेख (रेखा)। उदाहरण—कुसुमवान विलास कानन केस सुन्दर रेह।—विद्यापति।
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रेहण  : पुं० =रेहन (सोने की मैल) उदाहरण—कायर रेहण कर गया, दीपै कनक दुरंग।—बाँकीदास।
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रेहन  : पुं० [फा० रिहन] रुपया उधार लेने की वह रीति, जिसमें महाजन के पास कुछ माल या जायजाद इस शर्त पर रखी रहती है कि जब ऋण चुका दिया जायगा, तब माल या जायदाद वापस मिलेगी। बंधक। गिरवी (प्लेज, मार्टगेंज)। क्रि० प्र०—करना।—रखना। पुं० =अरहन। पुं० [?] मिलावटी सोने में से निकली हुई तलछट या मैल। स्त्री० [हिं० रहना] रहने की क्रिया या भाव।
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रेहनदार  : पुं० [फा०] वह जिसके पास कोई जायदाद रेहन रखी गई हो।
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रेहननामा  : पुं० [फा०] वह कागज जिस पर चीज रेहन आदि रखने की शर्ते लिखी गई हों।
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रेहल  : स्त्री०=रिहल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रेहु  : पुं० =रोहू (मछली)।
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रेहुआ  : वि० [हिं० रेह] (जमीन या मिट्टी) जिसमें रेह बहुत हो।
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रै  : अव्य० [?] के पास। के यहाँ। उदाहरण—राम रिसन आया राज रै।—प्रिथीराज।
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रैअति  : स्त्री०=रैयत (रिआया)।
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रैकेट  : पुं० [अं०] १. टेनिस खेलने का बल्ला। २. आकाश बाण। ३. आकाश बाण के आकार का वह बहुत बड़ा यंत्र जो आकाश में वैज्ञानिक परीक्षणों आदि के लिए बहुत ऊपर तक जा सकता है।
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रैडर  : पुं० [अं०] रेडियों शक्ति की सहायता से काम करनेवाला एक प्रकार का प्रसिद्ध आधुनिक यंत्र जिससे यह पता चलता है कि किस दिशा में और कितनी दूरी पर कोई चीज आकाश या समुद्र में विचर रही है और किधर से किधर आ या जा रही है।
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रैण  : स्त्री०=रैन (रात)। स्त्री० [सं० रेणु] धूल। उदाहरण—चाहत जा पद रैन।—सूरदास।
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रैणज  : अव्य० [हिं० रैण=रात] रात भर। सारी रात। उदाहरण—लोक सौवै सुख नीदड़ी थे क्यूँ रैणज भूली।—मीराँ।
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रैता  : पुं०=रायता।
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रैतिक  : वि० [सं० रीति+ठक्-इक] रीति अर्थात् पीतल संबंधी।
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रैतुवा  : पुं० =रायता।
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रैत्य  : पुं० [सं० रीति+ण्यत्] रीति अर्थात् पीतल का बना हुआ बरतन। वि० रैतिक (पीतल का)।
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रैदास  : पुं० [सं० रविदास] १. एक भक्त जो जाति के चमार थे तथा रामदास के शिष्यों में से थे। २. चमार।
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रैदासी  : पुं० [हिं० रैदास+ई] १. महात्मा रैदास के सम्प्रदाय का अनुयायी। २. एक प्रकार का मोटा जड़हन धान।
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रैन,रैनि  : स्त्री० [सं० रजनी] रात्रि।
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रैनी  : स्त्री० [हिं० रेना] तार खींचने की चाँदी-सोने की गुल्ली।
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रैमुनिया  : स्त्री० [हिं० रायमुनी] १. एक प्रकार की अरहर। २. लाल पक्षी की मादा।
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रैयत  : स्त्री० [अ०] प्रजा। रिआया।
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रैया-राव  : पुं० [हिं० राजा+राव] १. छोटा राजा। २. मध्ययुग में राजाओं द्वारा अपने सरदारों को दी जानेवाली पदवी।
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रैल  : स्त्री० [?] १. राशि। २. समूह। झुंड।
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रैवत  : पुं० [सं० रेवती+अञ्] १. एक साममंत्र। २. महादेव। शिव। ३. मेघ। बादल। ४. रैवत नामक पर्वत। ५. रेवती के पुत्र मनु। ६. एक दैत्य जिसकी गिनती बालग्रहों में होती है।
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रैवतक  : पुं० [सं० रैवत+कन्] द्वारका के पास का एक पर्वत। (पुराण)
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रैवंता  : पुं० [हिं० रजवत] घोड़ा। (डि०)
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रैशन  : पुं० =राशन।
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रैशनिंग  : स्त्री०=राशनिंग।
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रैसा  : पुं० =रैहर।
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रैहर  : पुं० [सं० रेष=हिंसा] झगड़ा। लड़ाई।
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रैहाँ  : पुं० [अं०] १. एक प्रकार की सुगन्धित वनस्पति जिसके फूल और बीज दवा के काम आते हैं। बालगूँ। २. कोई सुगंधित घास या वनस्पति। ३. उक्त प्रकार की घास या वनस्पति के फूल। ४. अरबी फारसी आदि लिपियों की एक प्रकार की सुन्दर लेख-प्रणाली।
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रोंआ  : पुं० =रोआँ।
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रोआँ  : पुं० [सं० रोमन्] शरीर पर का कोई पतला छोटा तथा नरम बाल। रोम। क्रि० वि०—उखड़ना।—जमना।—निकलना। मुहावरा—(किसी का) रोआँ तक न उखड़ना=कुछ भी हानि होना। रोआँ पसीजना=मन में करुणा या दया उत्पन्न होना। रोएँ खड़े होना=रोमांच होना।
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रोआई  : स्त्री०=रुलाई।
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रोआब  : पुं० =रोब।
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रोआस  : स्त्री० [हिं० रोना+आस] रोने की प्रवृत्ति।
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रोआसा  : वि० [हिं० रोबना] [स्त्री० रोआसी] जो रोने को उद्यत हो। जिसे रुलाई आना चाहती हो।
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रोइया  : पुं० [देश] जमीन में गाड़ा हुआ काठ का वह कुंदा जिस पर रखकर गन्ने के टुकड़े काटते हैं
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रोइँसा  : पुं० =रूसा (घास)।
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रोऊँ  : पुं० =रोआँ।
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रोक  : स्त्री० [सं०√रुच् (दीप्ति)+घञ्] १. नकद। धन। नकदी। २. नकद दाम देकर कुछ खरीदना। ३. चमकीलापन। वि० गतिमान। स्त्री० [हिं० रोकना] १. रोकने की क्रिया या भाव। २. वह चीज तत्त्व या बात जिसके कारण कोई काम नहीं किया जा सकता। रोकनेवाली चीज। पद—रोक-टोक। ३. निषेध। मनाही। पद—रोक-टोक।
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रोक-झोंक  : स्त्री०=रोक-टोंक।
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रोक-टोक  : स्त्री० [हिं० रोकना+टोकना] १. किसी को रोकने और टोकने की क्रिया या भाव। २. किसी के रोकने या रोकने के कारण मार्ग में आनेवाली अड़चन। बाधा। रुकावट। ३. वह पूछ-ताछ जो किसी के कहीं जाने या कुछ करने के समय की जाय। (अशुभ)
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रोक-टोप  : स्त्री० [सं० रोक+अनु, टीप] वह पुरजा जो विक्रेता क्रेता को कुछ खरीद करने पर देता है। नकदी पुर्जा (कैश मेमो)।
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रोक-थाम  : स्त्री० [हिं० रोकना+थामना] ऐसा काम करना जिससे प्रक्रिया, प्रवृत्ति आदि का पुर्नभव, प्रसार वृद्धि आदि न होने पावे तथा वह छूट या रह न जाय। जैसे—चोरियों, डकैतियों या रोगों की रोकथाम।
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रोकड़  : स्त्री० [सं० रोक=नक़द] १. नकद रुपया-पैसा आदि विशेषतः वह रकम जिसमें से आय-व्यय होता हो। नकद रुपया। मुहावरा—रोकड़ मिलना=आय-व्यय का जोड़ लगाकर यह देखना कि रकम घटती या बढ़ती तो नहीं है। २. धन-संपत्ति। ३. मूल-धन। पूँजी। ४. वह बही जिसमें प्रतिदिन के आय-व्यय का हिसाब लिखा जाता है। रोकड़-बही।
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रोकड़-बही  : स्त्री० [हिं० रोकड़+बही] दे० ‘रोकड़’।
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रोकड़-बाकी  : स्त्री० [हिं०] किसी नियत समय पर आय, व्यय आदि को जोड़ने और घटाने के उपरांत हाथ में बची रहनेवाली रोकड़ या नकद धन (कैश बैलेन्स)
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रोकड़-बिक्री  : स्त्री० [हिं० रोकड़+बिक्री] नकद दाम पर की हुई बिक्री।
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रोकड़िया  : पुं० [हिं० रोकड़+इया (प्रत्यय)] वह कर्मचारी जिसके पास रोकड़ और आय-व्यय का हिसाब रहता हो। खजानची।
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रोकना  : स० [सं० रोधन] १. अधिकारतः अथवा बलात् किसी के आगे न बढ़ने देना अथवा कहीं जाने न देना। जैसे—(क) सिपाही का हाथ के इशारे से मोटर रोकना। (ख) मित्र को अपने अतिथि को रोकना। २. किसी को कोई क्रिया न करने देना। जैसे—(क) ड्राइवर का मोटर रोकना। (ख) चालक का इंजन रोकना। ३. आदेश, प्रार्थना बल-प्रयोग आदि के द्वारा किसी के मार्ग में कोई ऐसी बाधा या रुकावट खड़ी करना कि वह आगे न जा सके। जैसे—(क) सरकार ने अनाज का बाहर जाना रोक दिया। (ख) पुलिस ने जुलूस रोक दिया। ४. किसी प्रकार के चलते हुए क्रम को आगे न बढ़ने देना। जैसे—(क) बाल-विवाह अब रोक दिया गया है। (ख) इस तेल ने बालों का गिरना रोक दिया है। ५. आते हुए आघात या प्रहार के बीच में ऐसी अड़चन या बाधा खड़ी करना कि वह अपना काम पूरा न कर सके। जैसे—लाठी पर तलवार का वार रोकना। ६. किसी प्रकार के नियन्त्रण या वश में रखना। जैसे—(क) इच्छा या मन को रोकना। (ख) बीमारी को फैलने से रोकना।
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रोंग  : पुं० =रोम (रोआँ)।
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रोग  : पुं० [सं०√रुज् (हिंसा)+घञ्] [वि० रोगी, रुग्ण] १. वह अवस्था जिससे शरीर का स्वास्थ्य बिगड़ जाय और जिसके बढ़ने पर शरीर के समाप्त हो जाने की आशंका हो। बीमारी। मर्ज। व्याधि। जैसे—(क) जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों आदि में सैकड़ों प्रकार के रोग होते हैं। (ख) जान पड़ता हि कि इस पेड़ को कोई रोग हो गया है। २. शरीर में उत्पन्न होनेवाला कोई ऐसी घातक या नाशक विकार जो कुछ विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होता है, और जिसके कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं। बीमारी। मर्ज। (डिजीज) जैसे—दमा (या लकवा) बहुत बुरा रोग है। ३. कोई ऐसी बुरी आदत, चीज या बात जो आगे चलकर कष्टप्रद या हानिकारक सिद्ध हो जैसे—तमाकू बीडी या सिगरेट की आदत भी एक रोग ही हैं। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना।—होना। मुहावरा—रोग पालना=जान-बूझकर कोई मुसीबत मोल लेना या आदत डालना।
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रोग-काष्ठ  : पुं० [सं० मध्य० स०] बक्कम की लकड़ी।
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रोग-ग्रस्त  : वि० [सं० तृ० त०] जिसे कोई रोग लगा हो। रोग से पीड़ित। बीमारी में पड़ा हुआ।
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रोग-नाशक  : वि० [सं० ष० त०] बीमारी दूर करनेवाला।
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रोग-निदान  : पुं० [सं० ष० त०] रोग के लक्षण, उत्पत्ति के कारण आदि की पहचान। तशखीस। (डायगनोसिस)
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रोग-परीसह  : पुं० [सं० ष० त०] उग्र रोग होने पर कुछ ध्यान न करके चुप-चाप कष्ट सहने की वृत्ति या व्रत।
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रोग-विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की वह शाखा, जिसमें रोग की प्रकृति या स्वरूप और उसके कारण होनेवाले शारीरिक विकारों आदि का विवेचन होता है (पैथॉलोजी)।
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रोग-शिला  : स्त्री० [सं० च० त०] मनःशिला। मैनसिल।
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रोंगटा  : पुं० [हिं० रोंग+टा०] रोम। रोआँ। मुहावरा—रोंगटे खड़े होना=किसी भयानक या क्रूर कांड को देखकर शरीर में क्षोभ उत्पन्न होना। जी दहलना। रोमांच होना।
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रोंगटी  : स्त्री० [हिं० रोना] १. वह अवस्था जिसमें खिलाड़ी एक-दूसरे से रंज होने लगते हैं। २. खेल में की जानेवाली चालाकी का बेईमानी।
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रोगन  : पुं० [फा० रौगन] १. कोई गाढ़ा और चिकना तरल पदार्थ। जैसे—घी चरबी, तेल आदि। २. तेल, लाख आदि का बना हुआ पक्का रंग जो चीजों पर चमक आदि लाने के लिए चढ़ाया जाता है। जैसे—मिट्टी के बरतनों पर लगाया जानेवाला रोगन। ३. आज-कल कोई ऐसा रासायनिक लेप जिसे लगाने से चीजें धूप, वर्षा आदि के प्रभाव से रक्षित रहती और चिकनी होकर चमकने लगती है वारनिश। ४. चमडे़ को मुलायम करने के लिए कुसुम या बर्रे के तेल से बनाया हुआ एक प्रकार का मसाला।
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रोगनदार  : वि० [फा०] जिस पर रोगन किया गया हो। चमकीला।
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रोगनी  : वि० [फा०] १. रोगन किया हुआ। २. जिस पर रोगन पोता या लगाया गया हो। रोगनदार। जैसे—रोगनी बरतन। ३. जिसमें रोगन चुपड़ा, मिलाया या लगाया गया हो। जैसे—रोगनी रोटी।
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रोगनी  : वि० =रोगनी।
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रोगाक्रांत  : वि० [सं० रोग-आक्रांत, ष० त०] रोग से ग्रस्त। ब्याधि से पीड़ित।
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रोगाणु  : पुं० [सं० रोग-अणु, ष० त०] वे दूषित या विषाक्त अणु जो शरीर में पहुँचकर अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं, अथवा कुछ अवस्थाओं में पदार्थों में खमीर उठाते हैं। जीवाणु। (बैक्टीरिया)
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रोगातुर  : वि० [सं० रोग-आतुर, तृ० त०] रोग से घबराया हुआ। व्याधि से पीड़ित।
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रोगार्त्त  : वि० [सं० रोग-आर्त्त, तृ० त०] रोग से दुःखी।
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रोगिणी  : वि० ‘रोगी’ का स्त्री०।
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रोगित  : वि० [सं० रोग+इतच्] जिसे रोग हुआ हो। रोग-युक्त। रोगी। पुं० कुत्ते को होनेवाला पागलपन।
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रोगिया  : पुं० [हिं० रोग+इया (प्रत्यय)] रोगी। बीमार।
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रोगी (गिन्)  : वि० [सं०√रुज् (हिंसा)+घिनुण] [स्त्री० रोगिणी] जिसे कोई रोग हुआ हो। रोगयुक्त। अस्वस्थ। बीमार।
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रोंघट  : स्त्री० [?] १. मैल। २. मिट्टी। ३. धूल।
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रोचक  : वि० [सं०√रुच् (प्रीति)+णिच्+ण्वुल-अक] [भाव० रोचकता] १. रुचने या अच्छा लगनेवाला। प्रिय। २. मनोरंजक। पुं० १. क्षुधा। भूख। २. केला। ३. प्याज। ४. एक प्रकार की ग्रंथिपर्णी जिसे नेपाल में ‘भँडेउर’ कहते हैं। ५. काँच की कुप्पियाँ, प्यालियाँ आदि बनानेवाला कारीगर।
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रोचक-द्वय  : पुं० [सं० ष० त०] विट् लवण और सेंधव लवण (वैद्यक)।
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रोचकता  : स्त्री० [सं० रोचक+तल्+टाप्] १. रोचक होने की अवस्था या भाव। २. किसी चीज का वह गुण जिसके फलस्वरूप वह रोचक प्रतीत होती है।
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रोचन  : वि० [सं०√रुच् (प्रीति)+णिच्+ल्यु-अन] १. अच्छा या प्रिय लगनेवाला। रुचनेवाला। रोचक। २. दीप्तिमान। चमकीला। ३. शोभा देने या फबनेवाला। पुं० १. कूट शाल्मलि काला सेमल। २. कमीला। ३. सफेद सहिंजन। ४. प्याज। ५. अमलतास। ६. करंज। कंजा। ७. अंकोट। अंकोल। ८. अनार। ९. रोचना। रोली। १॰. गोरोचन। ११. कामदेव के पाँच वाणों में से एक। १२. पुराणानुसार एक पर्वत। १३. रोगों के अधिष्ठाता एक प्रकार के देवता। (हरिवंश) १४. स्वारोचिष् मन्वंतर के इन्द्र का नाम।
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रोचन-फल  : पुं० [सं० ब० स०] बिजौरा नींबू।
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रोचनक  : पुं० [सं० रोचन+कन्] १. जँबीरी नींबू। २. वंश-लोचन।
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रोचना  : स्त्री०[सं०√रुच्+णिच्+युच् जैसे—अन+टाप्] १. उज्जवल। आकाश। २. रक्त कमल। ३. वंश-लोचन। ४. काला सेमल। ५. गोरोचन। ६. सुन्दर स्त्री। ६. वासुदेव की पत्नी।
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रोचनी  : स्त्री० [सं० रोचन+ङीष्०] १. आमकली। आँवला। २. गोरोचन। ३. मैनसिल। ४. सफेद सेमल। ५. कमीला। ६. दंती। ७. तारागण।
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रोचमान  : वि० [सं०√रुच् (दीप्ति)+शानच्, मुक्-आगम] १. चमकता हुआ। २. सुशोभित होता हुआ। पुं० १. घोड़े की गरदन पर की एक भँवरी। २. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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रोचि (चिस्)  : स्त्री० [सं०√रुच्+इसुन्] १. प्रभा। दीप्ति। २. किरण। रश्मि। ३. चारों ओर फैली हुई शोभा।
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रोचिष्णु  : वि० [सं०√रुच्+इन+ङीष्] १. चमकदार। चमकीला। २. जगमगाता हुआ।
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रोची  : स्त्री० [सं०√रुच्+इन+ङीष्] एक प्रकार का शाक। हिलमोचिका।
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रोज  : पुं० [फा० रोज] १. दिन। दिवस। जैसे—उसे गए चार रोज हो गए। २. प्रतिदिन के हिसाब से मिलनेवाले पारिश्रमिक या मजदूरी। जैसे—आज कल वह ३ रू० रोज पर काम करता है। अव्य० प्रतिदिन। जैसे—उसे रोज आना-जाना पड़ता है। पुं० [सं० रोदन] १. रोना। रुदन। उदाहरण—रोज सरोजनि के परै, हंसी ससी की होय।—बिहारी। २. रोना-पीटना। विलाप।
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रोज-ब-रोज  : अव्य० [फा० रोज-ब-रोज] प्रतिदिन। नित्य।
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रोजगार  : पुं० [फा० रोज़गार] १. वह काम जो किसी को जीविका निर्वाह के लिए रोज या प्रतिदिन करना पड़ता हो। पेशा। जैसे—उसका भीख माँगना रोजगार बन गया है। २. व्यवसाय। व्यापार। जैसे—उनका लकड़ी का रोजगार है।
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रोजगारी  : पुं० [फा० रोज़गारी] वह जो कोई रोजगार करता हो। व्यापारी। सौदागर।
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रोजनामचा  : पुं० [फा० रोज़नामचः] १. वह छोटी किताब या बही जिस पर रोज का किया हुआ काम लिखा जाता है। दिनचर्या की पुस्तक। दैनंदिनी। जैसे—पटवारियों या पुलिस का रोजनामचा। २. वह बही जिस पर नित्य प्रति की आय और व्यय लिखा जाता है।
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रोज़मर्रा  : अव्य० [फा० रोजमर्रः] प्रतिदिन। हर रोज़। नित्य। पुं० १. नित्य प्रति होता रहनेवाला काम। २. नित्य के ‘बोल-चाल’ की भाषा। दे० ‘बोल-चाल’ के अन्तर्गत साहित्यिक अर्थ।
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रोजा  : पुं० [फा० रोजा] १. व्रत। उपवास। २. विशेषतः रमजान के महीने में हर दिन रखा जानेवाला उपवास या व्रत। क्रि० प्र०—खोलना।—टूटना। -रखना। ३. रमजान का प्रत्येक दिन जिसमें व्रत रखने का विधान है। जैसे—आज पाँचवाँ रोजा है। पुं० =रौजा (समाधि)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोजाखोर  : पुं० [फा० रोजाखोर] रोजा न रखनेवाला व्यक्ति। (मुसलमान)।
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रोजादार  : पुं० [फा० रोजादार] वह मुसलमान जो रमजान में नियमित रूप से महीने भर रोजा रखता हो।
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रोजाना  : अव्य० [फा० रोज़ानः] प्रतिदिन। हर रोज। नित्य। पुं० प्रतिदिन के हिसाब से नित्य मिलनेवाला पारिश्रमिक या वेतन।
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रोजी  : स्त्री० [फा० रोजी] १. रोज का खाना। नित्य का भोजन। पद—रोजी, रोजगार। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना। मुहावरा—रोजी चलना=भोजन वस्त्र मिलना जाना। जीविका का निर्वाह होता रहना। रोजी से लगना=जीविका निर्वाह का साधन प्राप्त करना। २. काम-धंधा। रोजगार। व्यापार। ३. मध्ययुग में एक प्रकार का पुराना कर या महसूल जिसके अनुसार व्यापारियों को एक-एक दिन राज्य का काम करना पड़ता था। स्त्री० [देश०] गुजरात में होनेवाली एक प्रकार की कपास जिसके फूल पीले होते हैं।
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रोजी-बिगाड़  : वि० [फा० रोजी+हिं० बिगाड़] १. अपनी या दूसरों की लगी हुई रोजी जान-बूझकर बिगाड़ देनेवाला। २. निखट्टू।
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रोज़ी-रोज़गार  : पुं० [फा०] जीविका के निर्वाह का साधन। जैसे—उनके चारों लड़के रोजी-रोजगार में लगे हैं। क्रि० प्र०—से लगना।
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रोज़ीदार  : वि० [फा०] १. जिसको रोजाना खर्च के लिए कुछ मिलता हो। २. जो किसी रोजी में लगा हो। जिसकी जीविका का साधन वर्तमान हो।
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रोजीना  : वि० [फा० रोज़ीनः] रोज़ का। नित्य। दैनिक। पुं० प्रतिदिन के हिसाब से नित्य मिलनेवाली मजदूरी, वेतन, वृत्ति आदि। जैसे—उसको २ रू० रोजीना मिलता है।
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रोझ  : स्त्री० [देश] नील गाय। गवय। उदाहरण—हरिन रोझ लगुना बन बसे।—जायसी।
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रोट  : पुं० [हिं० रोटी] १. गेहूँ के आटे की बहुत मोटी रोटी। लिट्ट। २. देवताओं आदि पर चढ़ाने के लिए एक प्रकार की मीठी मोटी रोटी। मुहावरा—रोट होना या हो जाना=दब या पिसकर सपाट (अर्थात् निकम्मा और नष्ट) होना। उदाहरण—बिसरै भुगुति होहु तुम रोटा।—जायसी। ३. हाथी का रातिब।
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रोटका  : पुं० [देश] बाजरा।
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रोटिका  : स्त्री० [सं०√रुट्+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व] छोटी रोटी। चपाती।
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रोटिहा  : पुं० [हिं० रोटी+हा (प्रत्यय)] केवल रोटी अर्थात् साधारण भोजन के बदले में काम करनेवाला नौकर। (तुच्छता-सूचक) जैसे—रोटिहा चाकर मुसहा घोड़। (कहा०)
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रोटिहान  : पुं० [हिं० रोटी] चूल्हे के पास का मिट्टी का वह छोटा चबूतरा जिस पर पकाई हुई रोटीयाँ रखी जाती है।
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रोटी  : स्त्री० [?] १. गेहूँ, जौ, बाजरे, मक्का आदि अन्नों के गुँधे हुए आटे से आँच पर सेंककर पकाई हुई वह चिपटी, पतली और वर्तुल चीजें जो अधिकतर देशों में लोग नित्य पेट भरने के लिए खाते हैं। (इसके चपाती, पराँठा, फुलका आदि अनेक रूप होते हैं) पद—रोटी का पेट=रोटी का वह तल जो पहले गरम तवे पर डाला जाता है। रोटी की पीठ=रोटी का वह तल या पार्श्व जो उसका विपरीत तल या पदार्थ पक जाने पर उलटकर तवे पर डाला जाता है। क्रि० प्र०—खाना।—पकाना।—बनाना।—सेंकना। २. एक समय प्रायः एक साथ बनाई जानेवाली कुछ विशिष्ट चीजें जिनमें उक्त खाद्य पदार्थ के सिवा चावल, दाल, तरकारी आदि भी सम्मिलित रहती हैं। रसोई। जैसे—(क) उनके यहाँ दोनों समय रोटी बनाने के लिए ब्राह्मणी आती है। (ख) हम चार दिन दिल्ली रहे, पर उन्होंने किसी दिन रोटी तक के लिए न कहा। पद—रोटी-कपड़ा, रोटी-दाल। मुहावरा—(किसी की या किसी के यहाँ) रोटियाँ तोड़ना=किसी के घर पड़े रहकर कृपा से अपना पेट पालना। बैठे-बैठे किसी का दिया खाना। जैसे—साल भर से तो वह अपने ससुर की (या ससुर के यहाँ) रोटियाँ तोड़ रहा है। (किसी को) रोटियाँ लगना=किसी को पूरा और मुफ्त का भोजन मिलने से मोटाई सूझना। भर-पेट भोजन पाकर इतराते फिरते रहना। ३. उक्त प्रकार की चीजें खाने के लिए किसी के यहाँ मिलनेवाला निमन्त्रण। जैसे—आज भाई साहब के यहाँ उनकी रोटी है (अर्थात् उन्हें रोटी आदि खाने का निमन्त्रण मिला है)। ४. जीविका-निर्वाह का ऐसा साधन जिससे अपना और अपने परिवार का पेट पाला जाता हो। मुहावरा—रोटी कमाना=जीविका उपार्जन करना। (किसी काम या बात की) रोटी खाना= किसी काम या बात के द्वारा ही अपनी जीविका चलाना या निर्वाह करना। जैसे—वह तो दूसरों में लड़ाई-झगड़ा कराने की रोटी खाता है। रोटियाँ लगना=ऐसी स्थिति में आना या होना कि अपना और बाल-बच्चों का पेट भरने का कष्ट न रह जाय। जीविका निर्वाह का साधन प्राप्त होना। जैसे—उन्हें नौकरी मिल गई, चलो रोटियों से लग गए।
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रोटी-कपड़ा  : पुं० [हिं०] १. भोज्य पदार्थ और पहनने के वस्त्र। रोटी कपडे के लिए अर्थात भरण-पोषण के लिए दिया जानेवाला धन। जैसे—उसने अपने पति पर रोटी-कपड़े का दावा किया है।
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रोटी-दाल  : स्त्री०[हिं०] १. चावल, दाल, रोटी आदि कच्ची रसोई। २. साधारण रूप से चलने-वाली जीविका। जैसे—आज-कल तो रोटी-दाल चली चले यही बहुत है। क्रि० वि०—चलना।
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रोटी-फल  : पुं० [हिं० रोटी+फल] १. एक प्रकार के वृक्ष का फल जो खाने में बहुत अच्छा होता है। २. उक्त का पेड़ जो अनन्नास और कटहल के पेड़ों की तरह होता है।
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रोंठा  : पुं० [देश] कच्चे आम की सुखाई हुई फाँक। अमहर। आमकली।
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रोठा  : पुं० [देश] १. एक प्रकार का बाजरा। २. गुठली की तरह की कोई गोलाकार कड़ी और ठोस चीज। उदाहरण—कँवल सो कँवल सुपारी रीठा-जायसी। पुं० =रोड़ा।
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रोडवेज  : पुं० [अं०] आधुनिक भारत में किराये पर चलनेवाली बड़ी मोटर गाडि़यों (बसों) के द्वारा जनसाधारण के परिवहन का राजकीय विभाग।
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रोड़ा  : पुं० [सं० लोष्ठ, प्रा० लोट्ठ] १. ईंट, पत्थर आदि का टुकड़ा। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसी चीज जो किसी काम में बाधक होती है। जैसे—रोडे, चलानेवाले के मार्ग मे बाधक होते हैं। मुहावरा—(किसी काम में) रोड़ा अटकाना या डालना=विघ्न या बाधा डालना। ३. घर या मकान जो ईंटों, पत्थरों रोड़ों (अर्थात् मकान बनाने की सामग्री) से बनता है। उदाहरण—या खाय घोड़ा या खाय रोड़ा। (कहा०) ४. [स्त्री, अल्पा० रोड़ी] किसी चीज का टुकड़ा। भेली। जैसे—गुड़ की रोड़ी। पुं० [सं० आरट्ट] पंजाब में होनेवाला एक प्रकार का धान, जिसके लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती।
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रोड़ी  : स्त्री० [हिं० रोड़ा०] वह छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े जो सड़क आदि बनाने के काम आते हैं।
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रोद (स्)  : पुं० [सं०√रुद् (रोना)+असुन्] १. स्वर्ग। २. भूमि। पुं० [?] मुसलमान। (डि०)।
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रोदन  : पुं० [सं०√रुद् (रोना)+ल्युट-अन] १. अश्रुपात करना। रोना। २. क्रंदन। विलाप करना।
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रोदना  : अ०=रोना।
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रोदसी  : स्त्री० [सं० रोदस्+ङीष्] १. स्वर्ग। २. जमीन। भूमि। ३. पृथ्वी।
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रोदा  : पुं० [सं० रोध=किनारा] १. धनुष की डोरी। चिल्ला। २. वह बारीक ताँत जिससे सितार के परदे बाँधे जाते हैं।
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रोध  : पुं० [सं०√रुध् (रोकना)+अच्] १. आगे बढ़ने से रोकनेवाली चीज, तत्त्व या बात। २. चारों ओर से रोकने के लिए बनाया हुआ घेरा। (ब्लाकेड सीज) ३. [√रुध्+अच्] तट। किनारा। ५. छोटा बगीचा। बारी।
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रोध-अधिकार  : पुं० [सं०]=निषेधाधिकार (दे०)
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रोध-प्रतिकूला  : स्त्री०=रोध-वक्रा।
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रोध-वक्रा  : स्त्री० [सं० सुप्सुपा स०] टेढ़े-मेढ़े किनारोंवाली नदी।
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रोधक  : वि० [सं०√रुध्+ण्वुल्-अक०] रोकनेवाला।
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रोधकृत्  : पुं० [सं० रोध√कृ (करना)+क्विप्, तुक्-आगम] साठ संवत्सरों में से पैतालीसवाँ संवत्सर। (फलित ज्योतिष)
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रोधन  : पुं० [सं०√रुध्+ल्युट-अन] १. रोकने की क्रिया या भाव। २. बाधा। रुकावट। ३. दमन। ४. बुध ग्रह। पुं० =रुदन (रोना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोधना  : स० [सं० रोधन] १. रोकना। २. रूँधना।
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रोध्र  : पुं० [सं०√रुध्+रन्] १. अपराध। २. पाप। ३. लोध।
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रोना  : अ० [सं० रोदन, प्रा०रोअन] १. दुःखी व्यक्ति का ऐसी स्थिति में होना कि उसकी आँखों से आँसू बह रहे हों। रुदन करना। संयो० क्रि०—देना।—पड़ना।—लेना। मुहावरा—रोना-कलपना या रोना-धोना=बहुत दुःखी होकर विलाप करना और अपने कष्टों की चर्चा करना। जैसे—जो चला गया उसके लिए अब क्या रोना कलपना (या रोना-धोना) व्यर्थ है। रोना-पीटना=छाती या सिर पर हाथ मार-मार कर विलाप करना। (प्रायः किसी की मृत्यु होने अथवा बहुत बड़ी हानि होने पर) जैसे—लड़के के मरने (अथवा घर के लुटने) से लोगों में रोना-पीटना मच गया। (किसी चीज या बात पर) रो बैठना=अच्छी तरह रो चुकने पर निराश होकर रह जाना। जैसे—हमारा हजारों रुपये का जो माल वे उठा ले गए, उसके लिए तो हम पहले ही रो बैठे। रो-रोकर=बहुत कठिनता से। दुःख और कष्ट सहते हुए (प्रसन्नतापूर्वक नहीं) जैसे—उसने रो-रोकर काम किया है। रो-रोकर घर भरना=बहुत विलाप करना। २. किसी प्रकार का कष्ट या हानि के लिए बहुत अधिक दुःखी होना। जैसे—(क) वे तो अपने रुपयों के लिए रोते हैं। (ख) वह बैठी अपनी किस्मत को रो रही है। मुहावरा—(किसी के आगे) रोना जाना=सहायता आदि पाने के उद्देश्य से विनीत भाव से अपना कष्ट या दुःख किसी से कहना। अपना रोना रोना=रोते हुए अपने दुःखों की कहानी कहना। ३. किसी बात पर कुढ़ या चिढकर ऐसी आकृति बनाना या व्यवहार करना कि मानों लड़कों की तरह बैठकर रो रहे हों। जैसे—वह तो जरा-सी बात में रोने लगता है। मुहावरा—खून के आँसू रोना=इतना अधिक दुःखी होकर रोना कि मानों आँखों से आँसुओं की जगह खून की बूँदें निकल रही हों। पुं० अभाव, कष्ट हानि आदि की ऐसी स्थिति जो मनुष्य को बहुत अधिक दुःखी करती या रखती हो। जैसे—यहाँ इसी बात का रोना हि कि तुम किसी का कहना नहीं मानते। वि० [स्त्री० रोनी] १. जो बात-बात पर रोने लगता हो। ३. बहुत जल्दी चिढ़ने या बुरा माननेवाला, प्रायः बहुत अधिक दुःखी रहनेवाला। जैसे—ऐसे रोने आदमी से तो सदा दूर ही रहना चाहिए।
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रोनी-धोनी  : स्त्री० [हिं० रोना+धोना] १. रोने-धोने की वृत्ति। २. कष्ट या दुःख की ऐसी स्थिति जिसमें आदमी को रोना पड़ता हो। ३. मनहूसी।
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रोप  : पुं० [सं०√रुह (उद्भव)+णिच्+घञ्, ह-प, वा√रुप्, (विमोहन)+घञ] १. ठहरने की क्रिया या भाव। ठहराव। २. किसी को मुग्ध करके उसमें बुद्धि-भ्रम उत्पन्न करना। ३. मोहित करना। मोहना। ४. तीर। बाण। ५. छेद। सूराख। पुं० [देश] हल की एक लकड़ी जो हरिस के छोर पर जंधे के पार लगी रहती है।
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रोपक  : वि० [सं०√रुह्+णिच्, ह-प+वुल्-अक] १. रोपण या स्थापन करनेवाला। २. रोपनेवाला। ३. जमाने या लगानेवाला। पुं० [सं०] सोने-चाँदी की एक पुरानी तौल या मान जो सुवर्ण का ७0 वाँ भाग होता था।
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रोपण  : पुं० [सं०√रुह्+णिचह्-प, +ल्युट-अन] [भू० कृ० रोपित, वि० रोप्य] १. ऊपर रखना या स्थापित करना। २. (पौधे, बीज आदि) जमाना। बैठाना। लगाना। ३. बनाकर खड़ा या तैयार करना। ४. अपने प्रति अनुरक्त या मोहित करना। ५. घाव भरनेवाली क्रिया या चिकित्सा करना। मरहम या लेप लगाना। ६. विचारों में गड़बड़ी डालना। बुद्धि फेरना।
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रोपना  : स० [सं० रोपण] १. पौधा या बीज जमाना। लगाना। बैठाना। बोना। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों को एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगाना। दृढ़तापूर्वक कोई चीज स्थापित या स्थित करना। ४. कोई वस्तु लेने के लिए हथेली या कोई चीज सामने करना। पसारना। फैलाना। जैसे—किसी के आगे हाथ रोपना। पाने, माँगने या लेने के लिए हाथ फैलाना या बढ़ाना। ५. (आघात या वार) किसी अंग या अस्त्र पर लेना या सहना। जोड़ना।
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रोपनी  : स्त्री० [हिं० रोपना] १. रोपने की क्रिया या भाव। २. वह समय जिन दिनों धान रोपा जाता है।
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रोपित  : भू० कृ० [सं०√रुह्+णिच्—हस्य, प+क्त] १. जिसका रोपण किया गया हो। जगाया या लगाया हुआ। २. रखा या स्थापित किया हुआ। ३. मुग्ध या भ्रांत किया हुआ। ४. उठाया या खड़ा किया हुआ।
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रोब  : पुं० [अ० रुअब] [वि० रोबीला] १. किसी के बड़प्पन, महत्त्व, शक्तिशालिता आदि की वह स्थिति जिसका दूसरों पर आतंककारक प्रभाव पड़ता हो। धाक। दबदबा। जैसे—सारे दफ्तर पर उसका रोब छाया रहता था। क्रि० प्र०—छाना।—जमना। २. महत्व, शक्तिशालिताँ आदि का ऐसा प्रदर्शन जो औरों के मन में आतंक उत्पन्न करने के लिए हो। जैसे—यह रोब किसी ओर को दिखाना। क्रि० प्र०—गाँठना।—जमाना।—दिखाना। पद—रोब-दाब। मुहावरा—किसी के रोब में आना=किसी के उक्त प्रकार के बल प्रदर्शन से प्रभावित होकर उसके सामने झुक या दब जाना। भय मानकर दब जाना। ३. किसी की आकृति, रूप आदि में दिखाई देनेवाला ऐसा बड़प्पन जिसके लोग प्रभावित होकर दबते हों। जैसे—उसके चेहरे पर रोब है।
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रोब-दाब  : पुं० [हिं०] आतंक और उसके कारण पड़नेवाला दबाव या प्रभाव।
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रोबदार  : वि० [हिं० रोब+फा० दार] जिसका दूसरों पर जल्दी प्रभाव पड़ता हो। दूसरों पर अपना आतंक जमाने में समर्थ।
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रोबीला  : वि० [हिं० रोब+इला (प्रत्यय)] (व्यक्ति या आकृति) जो रोब से युक्त हो। रोबदार।
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रोम (मन्)  : पुं० [सं०√रु (गति)+मनिन्] १. देह के बाल। रोम। २. शरीर पर का छोटा पतला तथा नरम बाल। रोआँ। मुहावरा—रोम रोम में=शरीर के सभी छोटे-बड़े अंगों में अर्थात् सारे शरीर में। मुहावरा—रोम रोम से=तन मन से। पूर्ण तथा शुद्ध हृदय से। जैसे—रोम-रोम से आशीर्वाद देना। पद—रोमराजी रोमलता रोमावली। ३. छेद। सूराख। ४. जल। पानी। पुं० १. रूम देश। २. इटली देश की राजधानी।
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रोम-कूप  : पुं० [सं० ष० त०] शरीर के वे छिद्र जिनमें से रोएँ निकले हुए होते हैं। लोम-छिद्र।
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रोम-केशर  : पुं० [सं० ष० त०] चँवर। चामर।
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रोम-गुच्छ  : पुं० [सं० ष० त०] चँवर। चामर।
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रोम-द्वार  : पुं० [सं० ष० त०] रोम-कूप। (दे०)
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रोम-पट  : पुं० [सं० ष० त०] ऊनी कपड़ा।
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रोम-बद्ध  : वि० [सं० तृ०त०] जो रोओँ से बाँधा, बना या बुना हो। पुं० १. ऊनी कपड़ा। २. ऊन की बनी हुई कोई चीज।
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रोम-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] चमड़ा। त्वक्।
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रोम-राजी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. रोमावलि। रोओं की पंक्ति। रोआँ की वह रेखा जो नाभि से ठीक ऊपर की ओर जाती है।
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रोम-लता  : स्त्री० [सं० ष० त०] रोमावलि। रोमराजी।
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रोम-हर्ष  : पुं० [सं० ष० त०] आतंक, भय, वीभत्सता आदि के कारण रोंगटे खड़े होना। रोमांच। पुलक।
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रोम-हर्षक  : वि० [सं० ष० त०] रोम-हर्ष उत्पन्न करनेवाला। रोंगटे खडे करनेवाला अर्थात् दारुण या भीषण।
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रोम-हर्षण  : पुं० [सं० ष० त०] १. रोमांच। सिहरन। रोओं का खड़ा होना, जो अत्यन्त आनन्द के सहसा अनुभव अथवा भय से होता है। २. सूत पौराणिक। वि० रोंगटे खड़े करनेवाला। भीषण।
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रोमक  : पुं० [सं० रोमन्√कै (प्रतीत होना)+क] १. साँभर झील का नमक। साकभरी लवण। पांशु लवण। २. रोम नामक देश या नगर का निवासी। ३. रोम नामक देश और नगर। ५. ज्योतिष सिद्धान्त का एक भेद या शाखा। वि० रोम देश या नगर का।
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रोमंथ  : पुं० [सं० रोग√मन्थ् (विलोड़न)+अण्, पृषो, ग-लोप] जुगाली। पागुर।
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रोमन  : वि० [रोम नगर से०] रोम देश सम्बन्धी। रोम का। पुं० रोम देश का निवासी। स्त्री० रोम देश की लिपि का वह परिष्कृत रूप जिसमें आज-कल अंगरेजी आदि भाषाएँ लिखी जाती हैं।
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रोमन-कैथलिक  : पुं० [अं०] ईसाइयों का एक संप्रदाय जिसमें प्रायः ईसा की मूर्ति रखकर पूजी जाती है, और उसकी उपासना की जाती है।
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रोमाग्र  : पुं० [सं० रोमन-अग्र, ष० त०] रोएँ की नोक या सिरा।
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रोमांच  : पुं० [सं० रोमन-अच, ष० त०] १. आश्चर्य, भय, हर्ष आदि के कारण शरीर के रोओं का खडा होना। पुलक। २. भय आदि से अथवा वीभत्स दृश्यों आदि के कारण रोएँ खड़े होना।
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रोमांचित  : भू० कृ० [सं० रोमांच+इतच्] जिसे रोमांच हुआ हो। पुलकित।
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रोमांतिका, मसूरिका  : स्त्री० [सं० रोमन-अंतिका, ष० त०रोमांतिका और मसूरिका व्यस्त पद] चेचक की तरह का एक रोग।
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रोमाली  : स्त्री० [सं० रोमन-आली, ष० त०] रोओँ की पंक्ति। रोमावली। रोमराजी।
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रोमावलि, रोमावली  : स्त्री० [सं० रोमन-अवलि, (ली), ष० त०] रोओं की पंक्ति जो पेट के बीचों-बीच नाभि से ऊपर की ओर गई होती है। रोमावली। रोमराजी।
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रोमावली  : स्त्री० [सं० लोमन-आवली, ष० त०]=छाती से नाभि तक उगे हुए बालों की पंक्ति।
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रोमिका  : स्त्री० [सं०] १. छोटा रोआँ। २. जैव और वनस्पतिक कोषाणुओं पर उगनेवाले बहुत छोटे-छोटे रोएँ (सिलिया)। विशेष—पुलक और रोमांच में मुख्य अंतर यह है कि पुलक तो केवल आनन्द या हर्ष से होता है परन्तु रोमांच का कारण हर्ष के सिवा आश्चर्य, भय आदि अन्य मनोविकार भी हो सकते हैं।
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रोमिल  : वि० [सं० रोमवत्] जिस पर रोम हों। रोएँदार। वालोंवाला।
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रोमोद्गम  : पुं० [सं० रोमन-उद्गल, ष० त०] रोमांच।
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रोयाँ  : पुं० =रोआँ।
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रोर  : स्त्री० [अनु०] १. बहुत से लोगों के एक साथ चिल्लाने का शब्द। शोर-गुल। हल्ला। २. उपद्रव। उत्पात। ३. आंदोलन। ४. शब्द। उदाहरण—मेरे उर में भी भर मधु रोर।—पन्त। वि० १. प्रचंड। २. उपद्रवी।
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रोरा  : वि० [हिं० रूरा] [स्त्री० रोरी] सुन्दर। रुचिर। पुं० १. =रोर। २. =रोड़ा।
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रोरी  : स्त्री० [हिं० रोर] १. =चहल-पहल। धूम। २. दे० ‘रोर’। स्त्री० [?] लहसुनिया नामक रत्न। स्त्री०=रोली।
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रोल  : पुं० [हिं० रोलना] रोलने की क्रिया या भाव। पुं० [देश] कसेरों का एक उपकरण। पुं० =रोर। पुं० =रेला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोलना  : स० [?] १. किसी चीज में उँगलियाँ डालकर उसे हिलाना डुलाना। जैसे—मोती रोलना। २. किसी चीज को छेड़ना, हिलाना-डुलाना या घुमाना-फिराना। उदाहरण—घोड़ा और फोड़ा जितना ही रोलो उतना ही बढ़े (कहा०) ३. बहुत अधिक मात्रा में कोई चीज पाकर मनमाने ढंग से उसे इधर-उधर करना या छितराना। ४. उबटन, लेप आदि अंगों में लगाना।
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रोलंब  : पुं० [सं०√रु (शब्द)+विच्, रो√लम्ब्+अच्] १. भ्रमर। भौंरा। भँवर। २. सूखी जमीन। वि० सहसा किसी का विश्वास न करनेवाला।
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रोलर  : पुं० [अ०] १. ढुलकनेवाली वस्तु। २. बेलन। बेलना। ३. छापे की कल में वह बेलन जिससे अलरों पर स्याही लगती है। ४. कंकड़, आदि दबाकर सड़क चौरस करनेवाला बेलन जो यों ही खींचा या इंजन के आगे लगाकर चलाया जाता है।
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रोला  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का छंद जिसके चारों चरणों में ११+१३ के विश्राम से २४-२४ मात्राएँ होती है। पुं० =रोर (पश्चिम)। पुं० [हिं० रोलना] जूठे बरतन माँजने का काम और मजदूरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोली  : स्त्री० [सं० रोचनी] एक प्रकार का चूर्ण जो हल्दी और चूने के योग से बनता है और पवित्र माना जाता है।
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रोंव  : पुं० =रोआँ (शरीर पर के रोम)।
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रोवनहार  : वि० [हिं० रोवना+हार (प्रत्यय)] रोनेवाला। पुं० किसी के मर जाने पर उसके लिए रोकर शोक मनानेवाला उत्तराधिकारी।
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रोवना  : अ० वि० =रोना।
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रोवनिहारा  : वि० =रोवनहार।
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रोवनी-धोवनी  : स्त्री=रोनी-धोनी।
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रोवाँ  : पुं० =रोआँ।
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रोवाँसा  : वि० [स्त्री० रोवाँसी] रोआँसा।
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रोशन  : वि० [फा०] १. रोशनी या प्रकाश से युक्त। प्रकाशमान्। २. जलता हुआ। प्रदीप्त। जैसे—चिराग रोशन होना। ३. जिसमें खूब चहल-पहल और आनन्द-मंगल हो। जैसे—महफिल रोशन होना। ४. किसी प्रकार की कीर्ति या यश से युक्त, और फलतः प्रसिद्ध या विख्यात। ५. जाहिर। प्रकट। विदित। जैसे—यह बात सब पर रोशन हो जायगी।
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रोशन-चौकी  : स्त्री० [फा०] १. नफीरी नामक बाजा। २. शहनाई नामक वाद्य समूह।
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रोशन-दान  : पुं० [फा०] १. कमरे की दीवार के ऊपरी भाग में बना हुआ वह थोड़ा खुला स्थान, जिसमें से प्रकाश आता है। २. उक्त स्थान में लगी हुई कोई जाली अथवा लकड़ी आदि का ढाँचा।
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रोशनाई  : स्त्री० [फा०] १. अक्षर आदि लिखने की स्याही। मसि। स्त्री०=रोशनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोशनी  : स्त्री० [फा०] १. उजाला। प्रकाश। २. चिराग। दीपक। ३. आनन्दोत्सव के समय बहुत से दीपक जलाकर किया जानेवाला प्रकाश। दीपोत्सव। ४. ज्ञान आदि का प्रकाश। मुहावरा—रोशनी डालना=किसी विषय को अधिक सुबोध तथा स्पष्ट करना।
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रोष  : पुं० [सं०√रुष् (क्रोध)+घञ्] [वि० रुष्ट] १. क्रोध। कोप। गुस्सा। २. ऐसा क्रोध जो मन में ही दबा या छिपा रहे। कुढ़न। ३. वैर। विरोध।
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रोषण  : पुं० [सं०√रुष्+युच्-अन] १. पारा। २. सकौटी। ३. ऊसर जमीन। वि० रोष उत्पन्न करनेवाला। २. मन में रोष करने वाला। ३. क्रोध प्रकट करनेवाला क्रुद्ध।
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रोषानल  : पुं० [सं० रोष-अनल, कर्म० स०] क्रोध रूपी अग्नि। ऐसा विकट क्रोध जो जलाकर भस्म या नष्ट कर डालना चाहता हो।
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रोषान्वित  : भू० कृ० [सं० रोष-अन्वित, तृ० त०] रोष से युक्त। क्रुद्ध। नाराज।
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रोषित  : भू० कृ० [सं० रोष+इतच्] जो क्रोध से युक्त हुआ हो। क्रुद्ध। नाराज।
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रोषी (षिन्)  : वि० [सं० रोष+इनि] रोष अर्थात् क्रोध करनेवाला। क्रोधी।
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रोस  : पुं० =रोष। स्त्री०=रौंस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोसनाई  : स्त्री०=रोशनाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोसनी  : स्त्री०=रोशनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोंसा  : पुं० [देश] लोबिया या बोड़े की फली।
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रोसा  : पुं० =रूसा (घास)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोह  : पुं० [सं०√रूह (उद्भव)+अच्०] १. ऊपर चढ़ना। चढ़ाई। २. कली। ३. अंकुर। अँखुआ। पुं० [?] नील गाय। पुं० [सं० रोहित] अफगानिस्तान का मध्ययुगीन नाम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोहक  : वि० [सं०√रुह्+ण्वुल-अक] चढ़नेवाला। पुं० वह जो किसी सवारी पर चढ़कर चलता हो। सवार।
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रोहग  : पुं० [सं०] सिंहल द्वीप का एक पहाड़। आदम चोटी। विदूराद्रि।
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रोहज  : पुं० [?] नेत्र। (डिं०)
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रोहण  : पुं० [सं०√रुह् (उद्भव)+ल्युट-अन] १. ऊपर की ओर बढ़ना। २. किसी पर चढ़ना। ३. सवार होना। ४. बीज या पौधे का उगना या जमना। अंकुरित होना। ५. वीर्य। शुक्र। ६. रोहग पर्वत।
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रोहन  : पुं० [देश०] एक तरह का वृक्ष। पुं० =रोहण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोहना  : अ० [सं० रोहण] १. ऊपर की ओर जाना या बढ़ना। ऊपर चढ़ना। २. किसी के ऊपर चढ़ना। ३. सवार होना। स० १. ऊपर की ओर बढ़ाना। २. चढ़ाना। ३. सवार कराना। ४. अपने शरीर पर धारण करना या लेना।
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रोहा  : पुं० [हिं० रोहना] ऐसी नाली या और कोई चीज जिसका प्रवाह ऊपर की ओर होता हो। पुं० [सं० रोह=अंकुर] पलक के भीतरी भाग में होनेवाले एक प्रकार के दाने।
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रोहि  : पुं० [सं०√रुह्+इन्] १. वृक्ष। पेड़। २. बीज। ३. तपस्वी।
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रोहिण  : पुं० [सं०√रुह्+इनन्] १. पीपल। २. गूलर। २. रूपा घास। ३. दिन का दूसरा पहर।
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रोहिणिका  : वि० [सं० रोहिणी+कन्+टाप्, ह्रस्व] (स्त्री) जिसका मुँह, क्रोध, रोष के कारण लाल हो।
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रोहिणी  : स्त्री० [सं० रोहिण+ङीष्] १. गाय। गौ। २. बिजली। विद्युत। ३. सत्ताइस नक्षत्रों में से चौथा नक्षत्र जिसमें पाँच तारे हैं। ४. वसुदेव की स्त्री जो बलराम की माता थी। ५. जैनों की एक देवी। ६. स्मृतियों के अनुसार, ऐसी कन्या जो अभी हाल में रजस्वला होने लगी हो। ७. धैवत स्वर की तीन श्रुतियों में से दूसरी श्रुति। ८. रोहू की तरह की एक प्रकार की मछली। ९. करंज। १॰. रीठा। ११. मजीठ। १२. ब्राह्मी। १३. काश्मरी। १४. गंभारी। १५. कुटकी। १६. सफेद कौआ ठोंठी। १७. लाल गदहपूरना। १८. छोटी लंबी पीली हड़ जो गोल न हो। इसे वर्ण रोहिणी भी कहते हैं। १९. एक प्रकार का विकट संक्रामक रोग, जिसमें ज्वर के साथ गले में पीड़ा और सूजन होती है (डिपथीरिया) २॰. त्वचा की छठी परत। (वैद्यक)
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रोहिणी-अष्टमी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी जिसमें चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में रहता है।
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रोहिणी-पति  : पुं० [सं० ष० त०] चन्द्रमा।
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रोहिणी-योग  : पुं० [सं० ष० त०] आषाढ़ के कृष्णपक्ष में रोहिणी का चन्द्रमा के साथ होनेवाला योग।
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रोहिणी-वल्लभ  : पुं० [सं० ष० त०] १. चंद्रमा। २. वसुदेव।
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रोहिणीश  : पुं० [सं० रोहिणी-ईश, ष० त०] १. चन्द्रमा। २. वसुदेव।
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रोहित  : वि० [सं०√रुह् (उद्भव)+इतन्] लाल रंग का। रक्तवर्ण। लोहित। पुं० १. लाल रंग का। २. रोहू मछली। ३. एक प्रकार की हिरन। ४. रोहितक वृक्ष। ५. इन्द्रधनुष। ६. कुसुम या बर्रे का फूल। ७. केसर। ८. रक्त। लहू। ९. वाल्मिकी के अनुसार एक प्रकार के गन्धर्व।
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रोहितक  : पुं० [सं० रोहित+कन्०] रोहित (पेड़)।
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रोहिताश्व  : पुं० [सं० रोहित-अश्व, ब० स०] १. अग्नि। २. महाराज हरिशचन्द्र के पुत्र का नाम। ३. आधुनिक रोहतास (गढ़ और बस्ती) का पुराना नाम।
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रोहित्र  : पुं० [सं०] दे० ‘परिणामित्र’।
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रोहिनी  : स्त्री०=रोहिणी।
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रोहिष  : पुं० [सं०√रुह्+इषन्] १. रूसा नामक घास जिसकी जड़े सुगंधित होती हैं। २. एक तरह का हिरन। ३. एक तरह की मछली। रोहू।
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रोही (हिन्)  : वि० [√रुह+णिनि] [स्त्री० रोहिणी] १. ऊपर की ओर जानेवाला। २. चढ़नेवाला। पुं० १. गूलर का पेड़। २. पीपल। ३. रोहिष घास। ४. एक प्रकार का हिरन। ५. रोहित या रुहेड़ा नामक वृक्ष। ६. रोहू मछली। पुं० [?] १. जंगल। वन। २. एक प्रकार का हथियार। (सिरोही)। पुं० [सं० रोहित] खून। रक्त। वि० लाल। सुर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रोहू  : स्त्री० [सं० रोहिष] १. एक प्रकार की बड़ी मछली। २. एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष।
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रौ  : स्त्री० [फा०] १. गति। चाल। २. पानी का बहाव। ३. किसी प्रकार के मनोवेग की गति अथवा प्रवृत्ति। किसी काम या बात की धुन। जैसे—उस समय तुम रौ में आगे बढते चले गए, मेरी बात तुमने नहीं मानी। वि० [फा०] १. चलनेवाला। जैसे—पेश-रौ=आगे चलनेवाला, जैसे—खुद रौ=आप से आप उगने और बढ़नेवाला। पुं० [देश] एक प्रकार का पेड़। पुं० =रव (शब्द)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रौक्म  : वि० [सं० रुक्म+अण्] १. रूक्म संबंधी। २. सोने का बना हुआ।
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रौक्ष्य  : पुं० [सं०√रूक्ष्+ष्यञ्] रूखा पन। रूखाई। रूक्षता।
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रौखुर  : स्त्री० [देश०] वह भूमि जिसकी मिट्टी बाढ़ के कारण बलुई हो गई हो।
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रौगन  : पुं० =रोगन।
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रौचनिक  : वि० [सं० रोचना+ठक्—इक] १. गोरोचन या रोली संबंधी। २. गोरोचन या रोली से बना या रँगा हुआ।
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रौच्य  : पुं० [सं० रुचि+ष्यण्] बेल की शाखा का दंड धारण करनेवाला संन्यासी।
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रौजन  : पुं० [फा० रौजा] १. छिद्र। बिल। सूराख। २. दरज। दरार। ३. गवाक्ष। झरोखा। वातायन।
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रौजा  : पुं० [अ० रौजा] १. बाग। बगीचा। २. किसी बड़े आदमी की कब्र के ऊपर बनी हुई बड़ी इमारत। समाधि। जैसे—ताजबीबी का रौजा। पुं० दे० ‘रोजा’।
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रौटि  : स्त्री० [हिं० रोना] खेलते हुए बच्चों में से किसी का चिढ़ या रूठ कर रोने का सा मुँह बना लेना, और कुढ़ या चिढ़ जाना। उदाहरण—रौटि करत तुम खेलत ही मै।—सूर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रौत  : पुं० [हिं० रावत] ससुर।
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रौताइन  : स्त्री० [हिं० राव, रावत] १. राव या रावत की पत्नी। ठकुराइन। २. स्त्रियों के लिए आदरसूचक संबोधन।
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रौताई  : स्त्री० [हि० रावत+आई (प्रत्यय)] १. राव या रावत होने की अवस्था, पद या भाव। २. रावतों या बड़े आदमियों की सी अकड़ या ऐंठ। उदाहरण—रौताई और कूसल खेमा।—जायसी।
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रौंद  : स्त्री० [हिं० रौंदना] रौंदने की क्रिया या भाव। स्त्री० [अं० राउंड] पहरेदार या सिपाहियों का गश्त लगाना।
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रौंदन  : स्त्री०=रौंद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रौंदना  : स० [सं० मर्दन] १. किसी चीज को पैरों से इस प्रकार दबाना अथवा उस पर इस प्रकार चलना कि वह टुकड़े-टुकड़े हो जाय अथवा बहुत ही विकृत हो जाय। २. पैरों से बहुत अधिक मार-मार कर अंजर-पंजर ढीले करना। संयो० क्रि०—डालना।
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रौदा  : पुं० [?] एक प्रकार का चावल। उदाहरण—झिनवा रौदा, दाउद खानी।—जायसी। पुं० =रौदा। (धनुष की डोरी)।
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रौंदी  : स्त्री० [हिं० रौंदना] चौपायों के रहने का घेरा या बाड़ा।
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रौद्र  : वि० [सं० रुद्र+अण्] [भाव० रुद्रता] १. रुद्र संबंधी। रुद्र का। २. बहुत ही उग्र, प्रचंड भीषण या विकट। ३. बहुत अधिक क्रोध या कोप का परिचायक अथवा सूचक। पुं० १. क्रोध। गुस्सा। रोष २. आतप। धाम। धूप। ३. यमराज। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। ५. साहित्य में नौ रसों में से एक जो किसी प्रकार का अत्याचार, अन्याय, अपमान, अशिष्टता आदि का व्यवहार देखकर उसे रोकने या उसका प्रतिकार करने के विचार से, मन में होनेवाले क्रोध से उत्पन्न होता है। ६. गरमी। ताप। ७. ग्यारह मात्राओं वाले छंदों की संज्ञा। ८. साठ संवत्सरों में से ५४ वाँ संवत्सर। ९. दे० ‘रौद्र-केतु’।
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रौद्र-केतु  : पुं० [सं० कर्म० स०] आकाश के पूर्व दक्षिण में शूल के अगले भाग के सामने कपिश (कपासी) रूक्ष (रूखा) ताम्रवर्ण किरणों से युक्त एक केतु (बृहत्संहिता)।
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रौद्र-दर्शन  : वि० [सं० ब० स०] देखने में डरावना। भीषण आकृति या रूपवाला। जिसे देखने से डर लगे।
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रौद्रता  : स्त्री० [सं० रौद्र+तल्+टाप्] १. रुद्र होने की अवस्था, भाव या गुण। २. भयंकरता। भीषणता। ३. प्रखरता। प्रचंडता।
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रौद्रार्क  : पुं० [सं० रौद्र-अर्क, उपमित० स०] १. १३ मात्राओं के छंदों की संज्ञा।
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रौद्री  : स्त्री० [सं० रौद्र+ङीष्] १. रुद्र की पत्नी, गौरी। २. गांधार स्वर की दो श्रुतियों में से पहली श्रुति।
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रौन  : पुं० =रमण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रौनक  : स्त्री० [अ० रौनक] १. सुन्दर वर्ण और आकृति या रूप। २. चमक-दमक और उसके कारण होनेवाली शोभा। जैसे—यह सुनते ही उनके चेहरे पर रौनक आ गई। ३. प्रसन्न वदन लोगों की चहल-पहल या जमघट। बहार। जैसे—सन्ध्या को इस बाजार में बहुत रौनक रहती है।
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रौनकी  : वि० [हिं० रौनक] १. रौनक लगनेवाला। २. (स्थान) जहाँ रौनक हो।
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रौना  : पुं० [फा० रवाना] द्विरागमन। गौना। मुकाबला। अ०=रोना। पुं० =रावण (उपेक्षासूचक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रौनी  : स्त्री०=रमणी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रौप्य  : पुं० [सं० रुप्य+अण्] चाँदी। रूपा। वि० चाँदी का बना हुआ।
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रौम-लवण  : पुं० [सं० कर्म० स०] साँभर नमक।
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रौमक  : पुं० [सं० रूमा+वुञ्—अक] साँभर नमक।
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रौर  : स्त्री०=रोर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रौरव  : वि० [सं० रुरु+अण्] १. रुरु मृग-सम्बन्धी। रुरु मृग का। २. भयंकर। ३. घोर। भीषण। ४. धूर्त और बेईमान। ५. अपनी बात पर दृढ़ रहनेवाला। पुं० पुराणानुसार पाँचवाँ नरक जो बहुत भीषण कहा गया है।
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रौरा  : पुं० =रौला। वि० रावरा (आपका)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रौराना  : स० [हिं० रोर, रोरा] व्यर्थ बोलना या हल्ला करना। प्रलाप करना। बकना।
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रौरि  : स्त्री०=रोर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रौरे  : सर्व० [हिं० राव, रावल] आप (आदरसूचक संबोधन)।
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रौला  : पुं० [सं० रवण] १. शोर। हल्ला। २. झंझट। बखेड़ा। ३. ऐसा उपद्रव जिसमें खूब हुल्लड़ हो, और यह पता न लगे कि क्या हुआ। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना।
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रौलांग  : पुं० [?] [स्त्री० रौलांगी] जोगी।
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रौलि  : स्त्री० [देश०] १. तमाचा। थप्पड़। २. घोल (सिर पर मारी जानेवाली)।
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रौशन  : वि० =रोशन।
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रौशनदार  : पुं० =रोशनदान।
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रौशनाई  : स्त्री०=रोशनाई।
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रौशनी  : स्त्री०=रोशनी।
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रौंस  : स्त्री० [फा० रविश] १. गति। चाल। २. चाल-ढाल। तौर-तरीका। रंग-ढंग। ३. मकान का ऐसा धज्जा, जिस पर लोग आ-जा सकें। ४. बगीचे की क्यारियों के बीच बना हुआ आने-जाने का मार्ग।
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रौस  : स्त्री०=रौंस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रौसली  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की चिकनी उपजाऊ मिट्टी जिसे बरसाती नदी अपने किनारों पर छोड़ जाती है।
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रौंसा  : पुं० [सं० लोमश, रोमश=रोएँवाला] १. केवाँच। काँछ। २. बोड़ा। लोबिया।
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रौसा  : पुं० =रौंस। पुं० =रौंसा (केवाँच)।
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रौहाल  : पुं० [देश] १. घोड़ा। २. घोड़ों की जाति। ३. घोड़ों की एक प्रकार की गति या चाल।
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रौहिण  : पुं० [सं० रोहिण+अण्] चंदन।
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रौहिणेय  : पुं० [सं० रोहिणी+ठक्—एय] रोहिणी के पुत्र, बलराम। २. बुध ग्रह। ३. पन्ना या मरकत नामक रत्न। ४. गौ का बच्चा। बछड़ा। वि० रोहिणी संबंधी।
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र्यासद  : स्त्री०=रियासत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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र्यौरी  : स्त्री०=रेवड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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र्वाब  : पुं० =रोब। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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