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समास  : पुं० [सं०] १. योग्य। मेल। २. संग्रह। संचय। ३. संक्षेप। ४. संस्कृत व्याकरण में वह अवस्था जब अनेक पदों का एक पद, अनेक विभक्तियों की एक विभक्ति या अनेक स्वरों का एक स्वर होता है। इसके अप्ययी भाव, तत्पुरुष बहुब्रीहि और द्वन्द्व चार भेद है।
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समासक  : वि० [सं० समास+कन्] विराम-चिन्हों के अन्तर्गत एक प्रकार का चिन्ह जो समस्त पदों के अलग-अलग शब्दों के बीच लगाया जाता है। समास का चिह।
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समासक्ति  : स्त्री० [सं० सम-आ√सज्ज (मिलना)+क्तिन्] [वि० समासक्त] १. योग। मेल। २. संबंध। ३. अनुराग। ४. समावेश। अंतर्भाव।
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समासंजन  : पुं० [सं० सम-आ√सज्ज (मिलना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समासंजित] १. संयुक्त करना। मिलाना। २. किसी पर जड़ता या रखना। ३. संपर्क। संबंध।
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समासन्न  : भू० कृ० [सं० सम-आ√सद् (गत्यादि)+क्त] १. पहुँचा हुआ प्राप्त। २. निकटवर्ती। पास का।
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समासीन  : वि० [सं० सम√आस् (बैठना)+क्विप्-ख-ईन] अच्छी तरह आसीन या बैठा हुआ।
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समासोक्ति  : स्त्री० [सं० समास+उक्ति] साहित्य में एक अलंकार जिसमें श्लिष्ट संज्ञाओं की सहायता से कोई ऐसा वर्णन किया जाता है जो प्रस्तुत विषय के अतिरिक्त किसी दूसरे अप्रस्तुत विषय पर भी समान रूप से घटता है। जैसे—बड़ों डील लखि पील को सबन तज्यो बन थान। धनि सरजा तू जगत् में ताकों हरयों गुमान। इसमं सरजा संज्ञा) प्रस्तुत (सिंह या शेर) अप्रस्तुत (शिवाजी) के संबंध में घटना है। यह अप्रस्तुत प्रशंसा के विरुद्ध या उल्टा है। (स्पीच आँफ ब्रैंविटी)।
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