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सा  : अव्य० [सं० सम=समान] १. एक संबंध-सूचक अव्यय जिसका प्रयोग कहीं क्रिया विशेषण की तरह और कहीं विशेषण की तरह नीचे लिखे आशय या भाव सूचित करने के लिए होता है—१. तुल्य, बराबर, सदृश्य या समान। जैसे—कमल सी आँखें, फूल सा शरीर २. किसी की तरह या प्रकार का। बहुत कुछ मिलता-जुलता। जैसे—धूर्तों के से काम, बच्चों की सी बातें। ३. सादृश्य होने पर भी किसी प्रकार की आंशिक अल्पता, न्यूनता या हीनता का भाव सूचित करने के लिए। जैसे—(क) वहां बैठे-बैठे मुझे नींद सी आने लगी। (ख) वह एक मिरियल टट्टू ले आया। ४. अवधारण या निश्चय सूचित करने के लिए। जैसे—तुम्हें इनमें की कौन सी पुस्तक चाहिए। ५. किसी अनिश्चित मात्रा या मान पर जोर देने के लिए। जैसे—जरा सा नमक, थोड़े से आदमी, बहुत सी बातें। ६. पूरा-पूरा न होने पर भी बहुत कुछ। जैसे—वहाँ एक गड्ढा-सा बन गया। विशेष—(क) जैसा कि ऊपर के कुछ उदाहरणों से सूचित होता है इस अव्यय का कुछ अवस्थाओं में विशेषण के समान भी प्रयोग होता है, इसिलए विशेष्य के लिंग और वचन के अनुसार इसके रूप भी बदलकर सी और से हो जाते हैं। (ख) यह अव्यय क्रिया विशेषणों, विशेषणों और संज्ञाओं के साथ लगता ही है, क्रियाओं के भूत-कृंदत रूपों और विभक्तियों के साथ भी लगता है। जैसे—(क) उठता हुआ सा; चलता हुआ-सा (ख) घर का सा व्यवहार, मूर्खों का सा आचरण। प्रत्य० एक प्रत्यय जो कुछ विशेषणों के अंत में लगकर तरह, प्रकार, रूप रंग आदि का भाव सूचित करता है। जैसे—ऐसा=इस-सा, कैसे=किस-सा, वैसा=उस-सा। पुं० [सं० षड़ज] संगीत में षडज स्वर का सूचक शब्द या संक्षिप्त रूप। जैसे—सा, रे, ग, म।
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साअत  : स्त्री० [अ०] दे० ‘साइत’।
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साइक  : पुं०=शासक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)पुं०=सायंकाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइकिल  : स्त्री० [अं०] दो पहियोंवाली एक प्रसिद्ध सवारी। पैरगाड़ी। बाइकसिकिल।
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साइक्क  : पु०=शायक (तीर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइत  : स्त्री० [अ० साअत] १. एक घंटे या ढाई घड़ी का समय। २. समय का बहुत ही छोटा विभाग। क्षण। पल। लमहा। ३. किसी शुभ कार्य के लिए फलित ज्योतिष के विचार से स्थिर किया हुआ कोई शुभ काल या समय। मुहूर्त। जैसे—द्वारचार की साइत, भाँवर की साइत। क्रि० प्र०—दिखाना।—देखना।—निकलना।—निकालना। अव्य०=शायद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइनबोर्ड  : पुं० [अं०] वह तख्ता या धातु आदि का टुकड़ा जिस पर किसी व्यक्ति, संस्था आदि का नाम और संक्षिप्त विवरण सर्वसाधारण के सूचनार्थ लिखा रहता है। नाम-पट्ट।
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साइयाँ  : पुं०=साँई (स्वामी या ईश्वर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइर  : वि०, पुं०=सायर। पुं०=सागर। उदा०—सर सरिता साइर गिरि भारे।—नन्ददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइंस  : पुं० [अं०] दे० ‘विज्ञान’।
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साँई  : पुं० [सं० स्वामी] १. स्वामी। मालिक। २. ईश्वर। परमात्मा। ३. स्त्री० का पति। ४. मुसलमान फकीर। ५. बोलचाल में, सिंधियों के लिए प्रयुक्त आदरसूचक संबोधन।
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साईं  : पुं०=साँई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साई  : स्त्री० [हिं० साइत] १. कार्य आदि के सम्पादन के लिए बातचीत पक्की होने पर दिया जानेवाला पेशगी धन। बयाना। २. विशेषतः वह धन जो गाने-बजानेवाले से किसी कार्यक्रम की बात पक्की होने पर उन्हें दिया जाता है। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। स्त्री० [सं० सहाय] सहायता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [देश०] १. वे छड़ जो बैलगाड़ी के अगले हिस्से में बेड़े बल में मजबूती के लिए एक दूसरे को काटते हुए रखे जाते हैं। २. एक प्रकार का कीड़ा। स्त्री०=साई काँटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साई-काँटा  : पुं० [हिं० शाही (जंतु)+काँटा] एक प्रकार का वृक्ष जो दक्षिण भारत, गुजरात और मध्य प्रदेश में होता है। साई। मोगली।
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साईस  : पुं० [सईस का अनु०] [भाव० साईसी] किसी रईस का वह नौकर जो उसके घोड़े या घोड़ों की देख-भाल करता हो।
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साईसी  : स्त्री० [हिं० साईस+ई (प्रत्य०)] साईस का काम, भाव या पद।
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साउज  : पुं=सावज (पशु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साएर  : पुं०=१. सायर। २. सागर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साक  : पुं० [सं० शाक] शाक। साग। सब्जी। तरकारी। भाजी। पुं०=साखू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकचोरि  : स्त्री० [?] मेहँदी। हिना।
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साकट  : पुं०=साकत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँकड़  : पुं० १.=सिक्कड़। २.=साँकड़ा। वि० [सं० संकीर्ण] सँकरा। उदा०—जमुनक तिरे तिरे साँकड़ वाटी।—विद्यापति। स्त्री०=साँकल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँकड़ा  : पुं० [सं० श्रृंखला] पैरों में पहना जानेवाला कड़े की तरह का एक प्रकार का गहना।
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साकत  : पुं० [सं० शाक्त] १. शाक्त मत का अनुयायी। २. वह जो मद्य, मांस आदि का सेवन करता हो। ३. वह जिसने गुरु से दीक्षा न ली हो। निगुरा। वि० दुष्ट। पाजी।
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सांकभरी  : पुं०=शाकंभरी (झील)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँकर  : वि० [सं० संकीर्ण] १. संकीर्ण। तंग। सँकरा। २. कष्टदायक। पुं० कष्ट संकट की दशा अथवा समय। स्त्री०=साँकल।
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साकर  : स्त्री० १.=साँकल। २.=शक्कर। वि०=साँकर (सँकरा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँकरा(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)  : पुं०=साँकड़ा। वि०=सँकरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांकरिक  : वि० [सं० संकर+ठञ्—इक] वर्ण-संकर। दोगला।
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साँकल  : स्त्री० [सं० श्रृंखला] १. श्रृंखला। जंजीर। २. दरवाजे में लगाई जानेवाली जंजीर। ३. पशुओं के गले में बाँधने की जंजीर। ४. गहने की तरह गले में पहनने की चाँदी-सोने की जंजीर। सिकड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांकल्पिक  : वि० [सं० संकल्प+ठञ्+इक] १. संकल्प-सम्बन्धी। २. काल्पनिक।
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साकल्य  : पुं० [सं०] सकल की अवस्था, गुण या भाव। सफलता। समग्रता। पुं०=शाकल्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकवर  : पुं० [?] बैल। वृषभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साका  : पुं० [सं० शाका] १. संवत्। शाका। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. कीर्ति। यश। ४. बड़ा काम जिससे कर्ता की बहुत कीर्ति हो। मुहा०—साका करके (कोई काम) करना=सबके सामने, दृढ़ता और वीरतापूर्वक। उदा०—तस फल उन्हहिं देऊँ करि साका।—तुलसी। ५. कोई ऐसा बड़ा काम जो सहसा सब लोग न कर सकते हों और जिसके कारण कर्ता की कीर्ति हो। मुहा०—साका पूजना=किसी का अभीष्ट या उक्त प्रकार का कोई बहुत बड़ा काम सम्पन्न या सम्पादित होना। उदा०—आजु आइ पूजी वह साका।—जायसी। ६. धाक। रोब। मुहा०—साका चलाना या बाँधना= (क) आतंक फैलाना। (ख) रोब जामाना।
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साकांक्ष  : वि० [सं० त० त०] १. (व्यक्ति) जिसके मन में कोई आकांक्षा हो। आकांक्षा रखनेवाला। २. (काम, चीज या बात) जिसे किसी और की कुछ अपेक्षा हो। सापेक्ष। पुं० भारतीय साहित्य में, एक प्रकार का अर्थदोष जो ऐसे वाक्यों में माना जाता है जिनमें किसी आपेक्षित आशय का स्पशष्ट उल्लेख न हो, और फलतः उस अपेक्षित आशय के सूचक शब्दों की आकांक्षा बनी रहती हो। यथा—‘जननी, रुचि, मुनि पितु वचन क्यों तजि हैं बन राम।—तुलसी। इसमें मुख्य आशय तो यह है कि राम वन जाना क्यों छोड़े। परन्तु ‘क्यों तजिहैं बन राम’ से यह आशय पूरी तरह से प्रकट नहीं होता, इसलिए इसमें साकांक्षा नामक अर्थ दोष है।
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साकार  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० साकारता] १. जिसका कुछ या कोई आकार हो। आकारयुक्त। २. विशेषतः ऐसा अमूर्ति, असांसारिक या पारलौकिक जीव या तत्त्व जो मूर्त रूप धारण करके पृथ्वी पर अवतरित हुआ हो। ३. बात या योजना जिसे उद्दिष्ट, उपयोगी या क्रियात्मक आकार अथवा रूप प्राप्त हुआ हो। जैसे—सपने साकार होना। ४. मोटा। स्थूल। पुं० ईश्वर का वह रूप जो साकार हो। ब्रह्म का मूर्तिमान रूप। जैसे—अवतारों आदि में दिखाई देनेवाला रूप।
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साकारोपासना  : स्त्री० [सं० ष० त०] ईश्वर की वह उपासना जो उसका कोई आकार या मूर्ति बनाकर की जाती है। ईश्वर अथवा उसके किसी अवतार की यों ही अथवा मूर्ति बनाकर की जानेवाली उपासना। निराकार उपासना से भिन्न।
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साकिन  : वि० [अ०] १. जो एक ही स्थान पर स्थिर रहता हो। अचल। २. जो चलता-फिरता या हिलता-डोलता न हो। गति-रहित। ३. किसी विशिष्ट स्थान पर रहने या निवास करनेवाला। निवासी। जैसे—चुन्नीलाल साकिन मौजा नहरपुर। स्त्री० [अ० साकी का स्त्री०] साकी (मद्य पिलानेवाला) का स्त्री० रूप। पुं० [?] कश्मीर से नेपाल तक के जंगलों में पाया जानेवाला बकरी की तरह का एक प्रकार का पशु जिसका मांस खाया जाता है। कश्मीर में इसे ‘कैल’ कहते हैं।
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साकी  : पुं० [अ०] [स्त्री० साकिन] १. वह जो लोगों को मद्य का पात्र काम करनेवाला व्यक्ति। २. उर्दू-फारसी काव्यों में प्रेमिका की एक संज्ञा जिसका काम मद्य पिलाना माना जाता है। विशेष—हमारे यहाँ कुछ संत कवियों ने इसके स्थान पर ‘कलाली’ (देखें) का प्रयोग किया है। स्त्री० [?] कपूर-कचरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकुश  : पुं० [?] घोड़ा। अश्व। (डि०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकृतिक  : वि० [सं०] आकृति से युक्त अर्थात् साकार किया हुआ।
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साकेत  : पुं० [सं०] १. अयोध्या नगरी। अवधपुरी। २. भगवान् रामचन्द्र का लोक जिसमें उनके भक्तों को मरने पर स्थान मिलता है।
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साकेतक  : पुं० [सं० साकेत+कन्] साकेत का निवासी। अयोध्या का रहनेवाला। वि० साकेत-सम्बन्धी। साकेत का।
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साकेतन  : पुं० [सं०] साकेत। अयोध्या।
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सांकेतिक  : वि० [सं०] १. संकेत-संबंधी। २. संकेत के रूप में होनेवाला। ३. शब्द की अभिधा-शक्ति से संबंध रखने अथवा उससे निकलनेवाला। जैसे—सांकेतिक अर्थ।
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सांकेतिक भाषा  : स्त्री० [सं०] कुछ विशिष्ट लोगों के निजी व्यवहार के लिए उनकी बनाई हुई गोपनीय तथा कृत्रिम भाषा। साधारण या जन-भाषा से भिन्न भाषा। (कोड-लैंग्वेज)
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सांकेतिकी  : स्त्री०=सांकेतकी।
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साकोह  : पुं०=साखू (शाल वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साक्तुक  : पुं० [सं० शक्तु+ढक्=क] जौ, जिससे सत्तू बनता है। वि० १. सत्तू-सम्बन्धी। सत्तू का। २. सत्तू से बना हुआ।
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सांक्रामिक  : वि० [सं०] संक्रामक।
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साक्ष  : वि० [सं० त० त०] १. अक्ष से युक्त। २. आँखों या नेत्रों से युक्त। आँखोंवाला।
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साक्षर  : वि० [सं०] [भाव० साक्षरता] १. अक्षर या अक्षरों से युक्त। २. (व्यक्ति) जो अक्षरों को पढ़-लिख सकता हो। ३. शिक्षित। सुशिक्षित। (लिटरेट; उक्त होनों अर्थों में)
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साक्षरता  : स्त्री० [सं०] साक्षर अर्थात् पढ़े-लिखे होने की अवस्था या भाव। (लिटरेसी)
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साक्षातकारी (रिन्)  : वि० [सं०] साक्षात् करनेवाला।
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साक्षात्  : अव्य० [सं०] १. आँखों के सामने। प्रत्यक्ष। सम्मुख। २. प्रत्यक्ष या सीधे रूप में। ३. शरीरधारी व्यक्ति (या वस्तु) के रूप में। जैसे—विद्या में तो आप साक्षात् बृहस्पति थे। वि० मूर्तिमान्। साकार। जैसे—आप तो साक्षात् सत्य हैं। पुं०=साक्षात्कार० (क्व०)
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साक्षात्कार  : पुं० [सं०] १. आँखों के सामने प्रत्यक्ष या साक्षात् उपस्थित होना। सामने आना या होना। जैसे—ईश्वर या देवी-देवताओं का (या से) होनेवाला साक्षात्कार। २. प्रत्यक्ष रूप से होनेवाली भेंट। मुलाकात। ३. इन्द्रियों या मन को (किसी बात या विषय का) होनेवाला पूरा या स्पष्ट ज्ञान। जैसे—मानसिक साक्षात्कार।
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साक्षिता  : स्त्री० [सं०] १. साक्षी होने की अवस्था या भाव। २. गवाही। साक्ष्य।
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साक्षिभूत  : पुं० [सं० कर्म० स०] विष्णु का एक नाम।
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साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० साक्षिणी] १. वह मनुष्य जिसने किसी घटना को घटित होते हुए अपनी आँखों से देखा हो। २. उक्त प्रकार का ऐसा व्यक्ति जो किसी बात की प्रामाणिकता सिद्ध करता हो। गवाह। ३. वह जो कोई घटना घटित होते हुए देखता हो। प्रत्यक्षदर्शी। जैसे—हमारे शरीर में आत्मा साक्षी रूप में रहती है, भोग से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। स्त्री० किसी बात को कहकर प्रामाणिक करने की क्रिया। गवाही। शहादत।
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साक्षीकरण  : पुं० [सं० साक्षि√च्वि√कृ (करना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० साक्षीकृत] दे० ‘साक्ष्यंकन’।
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साक्षीकृत  : भू० कृ० [सं०] दे० साक्ष्यंकित’।
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साक्ष्य  : पुं० [सं० साक्षि+यत्] १. वह जो कुछ अपनी आँखों से देखा गया हो। २. आँखों से देखी हुई घटना का कथन। ३. गवाही। शहादत।
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साक्ष्यकंति  : भू० कृ० [सं०] जिस पर साक्ष्यंकन हुआ हो। (एटेस्टेड)
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साक्ष्यंकन  : पुं० [सं० साक्षी+अंकन] [भू० कृ० साक्ष्यंकित] किसी पत्र, लेख्य, हस्ताक्षर आदि के सम्बन्ध में साक्षी के रूप में लिखवाना कि यह ठीक और वास्तविक है। प्रमाणीकरण। (एटेस्टेशन)
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साख  : स्त्री० [सं० शाका, हिं० साका] १. धाक। रोब। २. लेन-देन और व्यापार-व्यवहार में, खरेपन की ऐसी प्रामाणिकता और मान्यता जिसके विषय में किसी का कोई सन्देह न हो। (क्रेडिट) जैसे—आज-कल बाजार (या समाज) में उनकी बहुत साख है। विशेष—ऐसी प्रामाणिकता व्यक्ति की प्रतिष्ठा और मर्यादा की सूचक होती है। ३. प्रतिष्ठा। मर्यादा। क्रि० प्र०—बँधना।—बनना।—बनाना।—बाँधना।—बिगड़ना।—बिगाड़ना। स्त्री० [सं० शाखा] १. वृक्षों आदि की डाल। शाखा। २. खेत की उपज। पैदावार। ३. पीढ़ी। पुश्त। उदा०—बिन मेहरारू घर करै, चौदर साख लबार।—घाघ। स्त्री० [सं० साक्षी] गवाही। शहादत। साक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साखत  : पुं० [सं० शाक्त] १. शक्ति या देवी का उपासक। शाक्त। २. देवी-देवताओं का उपासक। देव-पूजक। (क्व०) उदा०—साषित (साखत) के तू हरता-करता हरि भगतन कै चेरी।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साखना  : स० [सं० साक्षि, हिं० साख+ना (प्रत्य०)] साक्षी या गवाही देना। शहादत देना।
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साखर  : वि०=साक्षर। स्त्री०=शक्कर। (महाराष्ट्र)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साखा  : स्त्री० [सं० शाखा] १. वह कीली जो चक्की के बीच में लगी होती है। चक्की का धुरा। २. दे० ‘शाखा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साखिआ  : वि०=सारखा (सरीखाया सदृश्य। स्त्री०=शाखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साखियात  : अव्य०=साक्षात्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साखी  : पुं० [सं० साक्षिन्] १. गवाह। २. आपसी झगड़ों का निपटारा करनेवाला पंच। ३. मित्र और सहायक। ४. संगी। साथी। स्त्री० १. साक्षी। गवाही। शहादत। मुहा०—साखी पुकारना =गवाही देना। २. ज्ञान और भक्ति के क्षेत्र में, महापुरुषों, संतों साधु-महात्माओं आदि के वे पद जिनमें वे अपने अनुभव, मत या साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए अन्य साधु-महात्माओं के वचन साक्षी रूप में उद्धृत करते हैं। जैसे—कबीर की साखी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [सं० साखिन्=शाखी] पेड़। वृक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साखू  : पुं० [सं० शाल] एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती है। स्त्री० उक्त वृक्ष की लकड़ी।
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साखेय  : वि० [सं० सखि+इक्—एय] १. सखा-सम्बन्धी। सखा का। २. लोगों को सहज में अपना सका बना लेनेवाला, अर्थात् मिलनसार। यार-बाश।
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साखोचारण  : पुं=शाखोचार।
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साखोट  : पुं० [सं० शाखोट] सिहोर वृक्ष। सिहोरा।
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साख्त  : स्त्री० [फा०] १. किसी चीज की बनावट या रचना का कार्य। २. बनावट या रचना का ढंग या प्रकार। ३. बनाकर तैयार की हुई चीज।
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साख्ता  : वि० [फा० साख्तः] १. बनाया हुआ। २. नकली। बनावटी।
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सांख्य  : वि० [सं०] १. संख्या-संबंधी। जो संख्या के रूप में हो। पुं० १. संख्याएँ आदि गिनने और हिसाब लगाने की क्रिया। २. तर्क-वितर्क या विचार करने की क्रिया। ३. भारतीय हिन्दुओं के छः प्रसिद्ध दर्शनों में से एक दर्शन जिसके कर्ता महर्षि कपिल कहे गये हैं। विशेष—यह दर्शन इसलिए सांख्य कहा गया है कि इसमें २५ मूल तत्त्व गिनाये गये हैं, और कहा गया कि अंतिम या पचीसवें तत्त्व के द्वारा मनुष्य आत्मोपलब्धि या मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसमें आत्मा को ही पुरुष या ब्रह्म माना गया है।
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साख्य  : पुं० [सं० सखि+ष्यञ्]=सख्यता।
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सांख्य-मार्ग  : पुं० [सं०] सांख्य-योग।
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सांख्य-योग  : पुं० [सं०] ऐसा सांख्य जो अच्छी तरह चित्त शुद्ध करके और पूरा ज्ञान प्राप्त करके सच्चे त्याग के आधार पर ग्रहण किया जाय।
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सांख्यायन  : पुं० [सं० सांख्य+क-फ—आयन] एक प्रसिद्ध वैदिक आचार्य जिन्होंने ऋग्वेद के सांख्य ब्राह्मण की रचना की थी। इनके कुछ श्रौत सूत्र भी हैं। सांख्यायन कामसूत्र इन्हीं का बनाया हुआ माना जाता है।
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सांख्यिक  : वि० [सं०] संख्या या गिनती से संबंध रखनेवाला। संख्या-संबंधी।
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सांख्यिकी  : स्त्री [सं०] १. किसी विषय की (यथा—अपराध, उत्पादन, जन्मरण, रोग आदि की) संख्याएँ एकत्र करके उनके आधार पर कुछ सिद्धांत स्थिर करने या निष्कर्ष निकालने की विद्या। स्थिति-शास्त्र। २. इस प्रकार एकत्र की हुई संख्याएँ। (स्टैटिस्टिक्स)
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साँग  : स्त्री० [सं० शक्ति] [अल्पा० साँगी] १. एक प्रकार की छोटी पतली बरछी। २. एकत प्रकार का औजार जो कूआँ खोदते समय पानी फोड़ने के काम में आता है। ३. भारी बोझ उठाने या खिसकाने के काम में आनेवाला एक प्रकार का डंडा। पुं० [हिं० स्वाँग] १. स्वाँग। २. जाटों में प्रचलित एक प्रकार का गीत काव्य।
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सांग  : वि० [सं० स+संग] अंग या अंगों से युक्त। पद—सांगोपांग। (दे०)
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साग  : पुं० [सं० शाक] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों की वे पत्तियाँ जो तरकारी आदि की तरह पकाकर खाई जाती हैं। शाक। भाजी। जैसे—सोए, पालक, मरसे या बथुए का साग। पद—साग-पात= (क) खाने के साग, पत्ते, कन्द, मूल आदि। (ख) बहुत ही उपेक्ष्य और तुच्छ वस्तु। जैसे—वह तो औरों को अपने सामने साग-पात समझता है। २. पकाई हुई भाजी। तरकारी। जैसे—आलू का साग, कुम्हड़े का साग। (वैष्णव)
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सांगतिक  : वि० [सं० संगति+ठक्—इक] १. संगति-संबंघी। २. सामाजिक। पुं० १. अतिथि। २. वह जो किसी कारबार के सिलसिले में आया हो। अपरिचित। अजनबी।
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सांगम  : पुं० [सं० संगम+अण्]=संगम।
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साँगर  : पुं० [?] शमी वृक्ष। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागर  : पुं० [सं०] १. समुद्र, जो पुराणानुसार महाराज सगर का बनाया हुआ माना जाता है। उदथि। जलधि। २. बहुत बड़ा तालाब। झील० ३. दशनामी संन्यासियों का एक भेद। ४. उक्त प्रकार के संन्यासियों की उपाधि। ५. एक प्रकार का हिरन। पुं० [अ० सागर] १. बड़ा प्याला। कटोरा। २. शराब पीने का प्याला।
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सागर  : अव्य० [?] सामने। सम्मुख। उदा०—प्रीतम को जब सागस लहै।—नंददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागर-धरा  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी। भूमि।
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सागर-मेखला  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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सागर-लिपि  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्राचीन लिपि।
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सागर-संगम  : पुं० [सं०] नदी और समुद्र का संगम स्थान, विशेषतः वह स्थान जहाँ समुद्र की लहरें नदी की धारा से मिलती हैं। (एस्चुअरी)
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सागरज  : वि० [सं०] सागर या समुद्र से उत्पन्न। पुं० सुमद्री नमक।
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सागरनेमि  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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सागरमुद्रा  : स्त्री० [सं०] इष्टदेव। का ध्यान या आराधना करने की एक प्रकार की मुद्रा।
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सागरवासी (सिन्)  : वि० [सं० सागर√वस् (रहना)+णिनि] १. समुद्र में वास करने या रहनेवाला। २. समुद्र के तट पर रहनेवाला।
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सागरांत  : पुं० [सं० ष० त०] १. समुद्र का किनारा। समुद्र-तट। २. समुद्रतट का विस्तार।
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सागरांता  : स्त्री० [सं० सागरांत-टाप्] पृथ्वी।
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सागरांबरा  : स्त्री० [सं० ब० स० सागराम्बरा] पृथ्वी।
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सागरालय  : पुं० [सं० ब० स०] सागर में रहनेवाले वरुण।
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साँगरी  : स्त्री० [फा० जंगार] कपड़े रँगने का एक प्रकार का रंग जो जंगार अर्थात् तूतिये से निकाला जाता है।
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सागा  : पुं० [सं० सह] संग। साथ। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागार  : वि० [सं० स०+आगार] आगार से युक्त। आगार या घर वाला। पुं० गृहस्थ।
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साँगी  : पुं० [हिं० साँग] वह जो साँग नामक गीत काव्य लोगों को सुनाता हो। स्त्री० छोटी साँग (बरछी)। स्त्री० [सं० शंकु] १. बैलगाड़ी में गाड़ीवान के बैठने का स्थान। २. एक्के, गाड़ी आदि में जाली का वह छींका जिसमें छोटी छोटी आवश्यक चीजें रखी जाती हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागी  : क्रि० वि० दे० ‘सागे’। उदा०—मेरी आरति मेटि गुसाँईं आई मिलौ मोंहि सांगी री।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांगीत  : पुं० [सं०] [संगीकिता। (ऑपेरा) पुं०=सेनापति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागू  : पुं० [अं० सौंगों] १. ताड की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसके तने से आटे की तरह गूदा निकलता है। दे० ‘सागूदाना’।
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सागूदाना  : पुं० [हिं० सागू+दाना] सागू नामक वृक्ष के तने का गूदा जो पहले आटे के रूप में होता है और फिर कूटकर दानों के रूप में बनाकर सुखा लिया जाता है। यह पौष्टिक होता है और जल्दी पच जाता है, इसीलए प्रायः रोगियों को पथ्य के रूप में दिया जाता है।
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सागें  : क्रि० वि० [सं० सह] संग। साथ। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागो  : पुं०=सागू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांगोपाग  : वि० [सं० अंग+उपांग] जो अपने सभी अंगों और उपांगों अव्य १. सभी अंगों और उपांगों सहित। २. अच्छी और पुरी तरह से।
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सागौन  : पुं० [सं० शाल] एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत सुन्दर तथा मजबूत होती है और इमारत के काम आती है। शाल वृक्ष।
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साग्निक  : वि० [सं०] १. अग्नि से युक्त। अग्निसहित। २. यज्ञ की अग्नि से युक्त। पुं० वह गृहस्थ जो सदा घर में अग्निहोत्र की अग्नि रखता हो। अग्निहोत्री।
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साग्र  : वि० [सं० तृ० त०] आदि से लेकर, पूरा। कुल। सब।
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सांग्रामिक  : वि० [सं०] १. संग्राम या युद्ध-संबंधी। २. जो अस्त्र-शस्त्रों से युक्त या सम्पन्न हो।
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सांघाटिका  : स्त्री० [सं० संघाट+ठञ्—इक—टाप्] १. मैथुन। रति। २. कुटनी। दूती। ३. एक प्रकार का वृक्ष।
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सांघात  : पुं० [सं० संघात+अण्]=संघात।
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सांघातिक  : वि० [सं० संघात्+ठञ्—इक] १. संघात या समूह-सम्बन्धी। २. जो संघात अर्थात् हनन कर सकता हो ३. जिसके फलस्वरूप मृत्यु तक हो सकती हो। जिससे आदमी मर सकता हो। (फ़टल) ४. जिससे प्राणों पर संकट आ सकता हो। बहुत जोखिम का। पुं० फलित ज्योतिष में, जन्म नक्षत्र से सोलहवाँ नक्षत्र जिसके प्रभाव से मृत्यु तक होने की संभावना मानी जाती है।
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सांघिक  : वि० [सं०] संघ-संबंधी। संघीय।
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साँच  : वि० [सं० सत्य] [स्त्री० साँची]=सच्चा (सत्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साचक़  : स्त्री० [तु०] मुसलमानों में विवाह की एक रसम जिसमें से एक दिन पहले वर पक्ष वाले कन्या के लिए मेहंदी, मेवे, फल, सुगंधित द्रव्य आदि भेजते हैं।
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साँचना  : स० [सं० संचय] १. संचित या एकत्र करना। उदा०—दे० ‘भाँड़ा’ (संपत्ति) में। २. किसी चीज में भरना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)अ० [?] १. किसी बड़े का कहीं आना। पदार्पण करना। पधारना। (गुज०, राज०) उदा०—सामलो घरे नू म्हारे साँचु दे।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँचर  : पुं० [सं० सौंवर्चल] एक प्रकार का नमक। सौवर्चल लवण।
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साचरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, एक प्रकार की रागिनी।
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साँचला  : वि० [हिं० साँच+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० साँचली] जो सच बोलता हो। सच्चा। सत्यवादी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सांचा  : पुं० [सं० संचक] १. वह उपकरण जिसमें कोई तरल या गाढ़ा पदार्थ ढालकर किसी विशिष्ट आकार-प्रकार की कोई चीज बनाई जाती है। (मोल्ड) जैसे—ईंट या मूर्तियाँ बनाने का साँचा। मुहा०—(किसी चीज का) साँचे में ढला होना=अंग-प्रत्यंग से बहुत सुन्दर होना। रूप, आकार, आदि में बहुत सुन्दर होना। साँचे में ढालना=आकर्षक, प्रशंसनीय या सुन्दर रूप देना। उदा०—हमारे इश्क ने साँचे में तुमको ढाला है।—दाग। २. वह उपकरण जिसके ऊपर कोई चीज रख या लगाकर उसे कोई नया आकार या रूप दिया जाता है। कलबूत। फरमा। जैसे—जूता या पगड़ी बनाने का साँचा। विशेष—वस्तुतः साँचा वही होती है जिसका विवेचन ऊपर पहले अर्थ में किया गया है। दूसरे अर्थ में प्रयाः लोग भूल से उसका उपयोग करते हैं। दूसरा रूप वस्तुतः ‘कलबूत’ कहलाता है। ३. वह छोटी आकृति जो कोई बड़ी आकृति बनाने से पहले नमूने के तौर पर तैयार की जाती है और जिसके अनुकरण पर दूसरी बड़ी आकृति बनाई जाती है। प्रतिमान। (मॉडल) ४. कपड़े पर आकृति बनाने का रंगरेजों का ठप्पा।
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सांचारिक  : वि० [सं० संचर+ठक्—इक] १. संचार-संबंधी। २. जो संचार करता हो। ३. चलता हुआ। जंगम।
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साँचिया  : पुं० [हिं० साँचा+इया (प्रत्य०)] १. किसी चीज का साँचा बनानेवाला कारीगर। २. साँचे में ढालकर चीजें बनानेवाला कारीगर।
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साँचिला  : वि०=साँचा (सच्चा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साचिव  : वि० [सं सचिव] १. सचिव-संबंधी। सचिव का। २. सचिव के कार्य, पद आदि से संबंध रखने या उनके पारस्परिक व्यवहार के रूप में होनेवाला। (मिनिस्टीरियल) जैसे—अब दोनों राज्यों में साचिव स्तर पर बात-चीत होगी।
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साचिव्य  : पुं० [सं० सचिव+ष्यञ्] १. सचिव होने की अवस्था या भाव। सचिवता। २. सचिव का पद। ३. मदद। सहायता।
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साँची  : स्त्री० [?] छपाई का वह प्रकार जिसमें पंक्तियाँ बेड़े अर्थात् लम्बाई के बल छापी जाती थीं। विशेष—अब यह प्रकार बहुत कुछ उठ-सा चला है। पुं० [साँची नगर] एक प्रकार का पान और उसकी बेल।
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साची कुम्हड़ा  : पुं० [देश० साची+कुम्हड़ा] सफेद कुम्हड़ा। पेठा।
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साछी  : पुं० स्त्री०=साक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साज  : पुं० [सं० त० त०] पूर्व भाद्रपद नक्षत्र।
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साज  : पुं० [सं० सज्जा से फा० साज] १. सजाने की क्रिया या भाव। सजावट। सजाने के उपकरण या सामग्री। पद—साज-सामान (देखें)। बडे साज से=खूब सजधज कर। २. संगीत में, बाजे, बाजे या वाद्य-यंत्र जो गाने-बजाने में विशेष रोचकता उत्पन्न करते हैं। मुहा०—साज छोड़ना=बाजा बजाने का काम आरम्भ करना। साज मिलाना=बाजा बजाने से पहले उसका सुर आदि ठीक करना। ३. लड़ाई में काम आनेवाले हथियार। जैसे—तलवार, बंदूक, ढाल, भाला आदि। ५. बढ़इयों का एक प्रकार का रंदा जिससे गोल गलता बनाया जाता है। ६. पारस्परिक अनुकूलता के कारण आपस में होने वाला मेल-जोल या घनिष्ठता। पद—साज-बाज। (देखें) वि० [भाव० साजी] १. बनानेवाला। जैसे—कारसाज=काम बनानेवाला; जिल्दसाज।=पुस्तकों की जिल्द बनानेवाला। २. चीजों की करके उन्हें ठीक बनानेवाला। जैसे—घड़ी-साज=घड़ियों की मरम्मत करनेवाला।
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साज-बाज  : पुं० [सं० साज+बाज (अनु०)] १. आवश्यक सामग्री। साज-सजाना। २. किसी काम या बात के लिए होनेवाली तैयारी और सजावट। ३. आपस में होनेवाली घनिष्ठता। मेल-जोल। हेल-मेल।
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साज-संगीत  : पुं० [फा०+सं०] साज या बाजों पर होनेवाला संगीत। वाद्य संगीत। कंठ-संगीत से भिन्न।
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साज-सामान  : पुं० [फा०] १. वे सब आवश्यक चीजें जो प्रतिष्ठा या मर्यादा के अनुरूप हों। सामग्री। उपकरण। असबाब। जैसे—बरात का साज-सामान। ३. ठाट-बाट।
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साजगिरी  : स्त्री० [देश०] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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साजड़  : पुं०=साजर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साजन  : पुं० [सं० सज्जन] १. पति। भर्ता। स्वामी। २. प्रेमी। ३. ईश्वर। ४. भला आदमी। सज्जन। ५. संगीत में, खम्माच ठाठ का एक राग।
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साजना  : स०=सजाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० ‘साजन’ के लिए सम्बोधक संज्ञा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साजर  : पुं० [देश०] गुलू नामक वृक्ष जिससे कतीरा गोंद निकलता है। (दे० ‘गुलू’)
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साजा  : वि० [हिं० सजाना] १. सजा हुआ। २. सुन्दर। ३. अच्छा। बढ़िया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साजात्य  : पुं० [सं० सजानि+ष्यत्र्] सजात या सजाति होने की अवस्था, गुण या भाव जो वस्तु के दो प्रकार के धर्मों में से एक हैं। ‘वैजात्य’ का विपर्याय।
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साजिंदा  : पुं० [फा० साज़िन्दः] १. वह जो कोई साज (बाजा) बजाता हो। साज या बाजा बजानेवाला। २. वेश्याओं आदि के साथ कोई साज या बाजा बजानेवाला।
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साजिया  : वि० [फा० साज़+हिं० इया (प्रत्य०)] सजानेवाला।
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साज़िश  : स्त्री० [फा०] १. मेल। मिलाप। २. दुष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए होनेवाली अभिसन्धि। षड़-यंत्र।
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साज़िशी  : वि० [फा०] १. जिसमें किसी प्रकार की साजिश हो। २. साजिश करनेवाला। कुचक्री।
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साजुज्य  : पुं०=सायुज्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँझ  : स्त्री० [सं० सन्ध्या] १. सूर्य डूबने से कुछ पहले तथा कुछ बाद तक का समय। शाम। पद—साँझ ही= (क) उचित समय से बहुत पहले ही। (खध बहुत जल्दी ही और अनुपयुक्त समय पर। उदा०—तेकर भाग साँझ ही फूटे।—घाघ। २. सूर्य ढलने के बाद का समय। स्त्री०=साझा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँझ-पाती  : स्त्री० =साझा-पात्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साँझला  : पुं० [सं० संध्या, हिं साँझ+ला (प्रत्य०)] उतनी भूमि जितनी एक हल से दिन भर में जोती जा सके।
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साँझा  : पुं०=साझा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साझा  : पुं० [सं० सहार्द्ध या सहार्ध्य, प्रा० सहायों,] १. व्यापार आदि के लिए किसी काम में कुछ लोगों को मिलाकर रुपए लगाने, परिश्रम या व्यवस्था करने और उससे होनेवाले हानि-लाभ के आंशिक रूप से दायी और अधिकारी होने के लिए आपस में होनेवाला समझौता। हिस्सेदारी। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—लगाना। २. उक्त प्रकार के समझौते के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाली स्थिति। ३. उक्त प्रकार के कार्यों में किसी व्यक्ति का उतना अंश जिसके विचार से वह लाभ के उचित अंश का अधिकारी या हानि के उचित अंश का उत्तरदायी होता है। ४. किसी वस्तु या सम्पत्ति में से कुछ अंश या भाग पाने का अधिकार। हिस्सेदारी। जैसे—उस मकान में तीनों भाइयों का साझा है।
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साझा-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] १. किसी कार्य या व्यापार में होनेवाला साझा या हिस्सेदारी। २. कुछ लोगों में किसी चीज का होनेवाला बटवारा।
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साँझी  : स्त्री० [हिं० साँझ] प्रायः स्त्रियों में प्रचलित एक लोक-कला जिसमें त्योहारों आदि पर घरों और मंदिरों की भूमि या फर्श पर रंगीन चूर्णों, अनाज के दानों और भूसियों तथा फूल-पत्तियों से बेल-बूटों, पशु-पक्षियों या दूसरे पदार्थों की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। (गुजरात में इसी को सथिया, महाराष्ट्र में रंगोली, बंगाल में अल्पना तथा दक्षिण भारत में कोलं (कोलम्) कहते हैं। पुं०=साझेदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साझी  : पुं०=साझेदार।
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साँझेदार  : पुं०=साझेदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साझेदार  : पुं० [हिं० साझा+दार (प्रत्य०)] १. शरीक होनेवाला। हिस्सेदार। साझी। २. व्यापार आदि में साझा करनेवाला व्यक्ति। हिस्सेदार।
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साझेदारी  : स्त्री० [हिं० साझेदार+ई (प्रत्य०)] साझेदार होने की अवस्था या भाव। हिस्सेदारी। शराकत।
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साँट  : स्त्री० [सट से अनु०] १. पतली कमची या छड़ी। २. कोड़ा। ३. शरीर पर कोड़े, छड़ी, थप्पड़ आदि की मार का ऐसा दाग या निशान जो आकार में बहुत कुछ उसी वस्तु के अनुरूप होता है, जिससे आघात किया या मारा गया हो। क्रि० प्र०—उभड़ आना।—पड़ना। स्त्री० [हिं० सटना] १. सटने या संलग्न होने की क्रिया या भाव। उदा०—ललित किशोरी मेरी बाकी, चित की साँट मिला दे रे।—ललित किशोरी। २. लगन। लौ। ३. किसी उद्देश्य की सिद्ध के लिए किसी से किया जानेवाला मेल। पद—साँट-गाँठ। (देखें) स्त्री० [?] लाल गदहपूरना। स्त्री० दे० ‘साँठ’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साट  : स्त्री० १. दे० ‘साड़ी’। (स्त्रियों के पहनने की) २. दे० ‘साँट’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० सार्थ या प्रा० सह] १. बेचने की क्रिया। विक्रय। २. आपस में होनेवाला विनिमय या लेन-देन। उदा०—जबहि पाइअहि। पारखू, तब हीरन की साट।—कबीर। ३. व्यापार। ४. सट्टा। स्त्री० [हिं० सटना] १. सटने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘साँट’।
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साँट-गाँठ  : स्त्री० [हिं० साँट (सटना)+गाँठ] आपस में होनेवाला ऐसा निश्चय जिसका कोई गुप्त या गूढ़ उद्देश्य हो। किसी अभिसंधि के कारण होनेवाला मेलजोल। विशेष—यद्यपि ‘सटना’ का भाव० रूप ‘साट’ ही होता है, पर उक्त में गाँठ के साथ संपृक्त होने के कारण ‘साट’ का रूप भी ‘साँट’ हो गया है।
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साट-गाँठ  : स्त्री० [सं० शाठ्य-ग्रंथि] किसी को कष्ट देने या हानि पहुँचाने के उद्देश्य से कुछ लोगों का आपस में मिलकर गुट या दल बनाना। (कोल्यूजन) विशेष—मिली-भगत और साट-गाँठ में कोई मुख्य अन्दर हैं। मिली भगत एक तो अस्थायी या क्षणिक होती है और दूसरे उसका उद्देश्य अपने आपको बिल्कुल निर्दोष दिखलाते हुए या तो अपना कोई छोटा-मोटा स्वार्थ सिद्ध करना होता है या दूसरे को केवल ठगना और धोखा देना होता है। पर साटगाँठ प्रायः बहुत कुछ स्थायी या दीर्घकाल व्यापी होता है और दूसरे उसका उद्देश्य अधिक उग्र, कठोर या क्रूर होता है।
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साँट-नाँठ(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)  : स्त्री०=साँट-गाँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साटक  : पुं० [?] १. अन्न आदि का छिलका या भूसी। २. बहुत ही तुच्छ या निकम्मी चीज। ३. एक प्रकार का छन्द।
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साटन  : स्त्री० [अं० सैटिन] एक प्रकार का बढ़िया रेशमी कपड़ा जो प्रायः एकरुखा और कई रंगों का होता है।
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साटना  : स०=सटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साटनी  : स्त्री० [देश०] भालू का नाच। (कलंदर)
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साँटा  : पुं० [हिं० साँट=छड़ी] १. करघे के आगे लगा हुआ वह डंडा जिसे ऊपर-नीचे करने से ताने के तार ऊपर-नीचे होते हैं। २. मोटे कपड़े का बटकर बनाया हुआ कोड़ा। ३. सवारी के घोड़े को लगाई जानेवाली एड़। ४. ईख। गन्ना।
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साटा  : पुं० [हिं० सट्टा] १. सट्टाबाजी अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य अनुचित तथा निन्दनीय उपाय से अर्जित किया हुआ धन। २. दे० ‘सट्टा’। पुं० [?] अदला-बदली परिवर्तन। विनिमय।
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साँटिया  : पुं० [हिं० साँटी] १. डौंडी पीटनेवाला। डुग्गी बजानेवाला। २. साँटेमार। (दे०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँटी  : स्त्री० अल्पा०] छोटी और पतली छड़ी। स्त्री० [हिं० सटना] प्रतिकार। बदला। स्त्री०=१.=साँट । २. साँठ-गाँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साटी  : स्त्री० [हिं० सटना] १. साथ रहनेवाली चीजें। २. सामग्री। सामान। स्त्री० [?] १. पतली छड़ी। कमची। २. गदहपूरना। पुनर्नवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=साँठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साटे  : अन्य० [देश०] बदले में। परिवर्तन में।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँटे-मार  : पुं० [हिं० साँटा+मारना] वह चोबदार या सिपाही जो हाथ में साँटा या कपड़े का बना हुआ कोड़ा रखता और आवश्यकता पड़ने पर भीड़ हटाने, घोड़े, हाथियों आदि को वश में करने के लिए उन पर साँटे चलाता है। विशेष—मध्ययुग में, राजाओं की सवारी के साथ साँटेमार चलते थे।
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साटोप  : वि० [सं० स० त०] १. घमंड से फूला हुआ। २. गरजता हुआ (बादल)।
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साँठ  : पुं० [देश०] १. पैरों में पहनने का साँकड़ा नामक गहना। २. ईख। गन्ना। ३. सरकंडा। ४. डंडा। ५. वह डंडा जिससे पीटकर फसल की बालों में से अनाज के दाने अलग किये जाते हैं। स्त्री० [सं० संस्था] मूलधन। पूँजी। उदा०—साँठि नाहिं लागि बात को पूछा।—जायसी। स्त्री०=साँट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साठ  : वि० [सं० षष्ठि] जो गिनती में पचास में दस अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—६॰। स्त्री०=साटी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=साथ (संग)।
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साँठ-गाँठ  : स्त्री०=साँट-गाँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँठ-नाँठ  : स्त्री०=साँट-गाँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साठ-नाठ  : वि० [हिं० साँठि+नाठ (नष्ट)] १. जिसकी पूँजी नष्ट हो गई हो। निर्धन। दरिद्र। २. फीका या रूखा। नीरस। २. छिन्न-भिन्न। तितर-बितर। स्त्री० १. मेल-जोल। २. अनुचित संबंध। ३. षडयंत्र।
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साँठना  : स० [हिं० साँठ] १. हाथ में लेना। पकड़ना। २. ग्रहण करना।
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साठसाती  : स्त्री०=साढ़ेसाती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँठा  : पुं० [सं० शरकांड] १. सरकंडा। २. गन्ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साठा  : वि० [हिं० साठ] जिसकी अवस्था साठ वर्ष की हो गई हो। साठ वर्ष की उम्र वाला। जैसे—साठा सो पाठा। (कहा०) पुं० [देश०] १. बहुत बड़ा या लंबा चौड़ा खेत। २. ईख। गन्ना। ३. एक प्रकार की मधुमक्खी जिसे सठपुरिया भी कहते हैं। पुं०=साठी (धान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँठि  : स्त्री०=साँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँठी  : स्त्री० [सं० संस्था] पूँजी। धन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [?] गदहपूरना। पुनर्नवा। पुं०=साठी (धान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साठी  : पुं० [सं० षष्टिक] एक प्रकार का धान जो लगभग ६॰ दिन में पककर तैयार हो जाता है।
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साँठें  : अव्य० [हिं० साँठ] १. कारण या वजह से। २. आधार पर। उदा०—बलि बलि गयो चलि बात के साँठे।—तुलसी।
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साँड़  : पुं० [सं० षंड] १. गौ का वह नर जो संतान उत्पन्न करने के उद्देश्य से बिना बधिया किये पाला गया हो और इसीलिए जिससे कोई काम न लिया जाता हो। २. गौ का उक्त प्रकार का वह नर जो हिंदुओं में, किसी मृतक की स्मृति में दागकर यों ही छोड़ दिया जाता है। वृषोत्सर्गवाला वृष। ३. लाक्षणकि अर्थ में, वह निश्चित व्यक्ति जो हृष्टपुष्ट हो तथा लड़ने-भिड़ने और उत्पात करने में तेज तथा स्वतन्त्र हो। मुहा०—साँड़ की तरह घूमना=बिलकुल निश्चिंत और स्वतन्त्र रहकर इधर-उधर घूमते रहना। साँड़ की तरह डकरना=मदमत्त होकर अभिमानपूर्वक जोर जोर से बातें करना या चिल्लाना। ४. वह घोड़ा जिसे जोता न जाता हो, बल्कि घोड़ियों से संतान उत्पन्न करने के लिए पाला जाता हो। पुं० [?] [स्त्री० साँड़नी] ऊँट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँड़नी  : स्त्री० [हिं० साँड़ ?] सवारी के काम में आनेवाली तथा बहुत तेज दौड़नेवाली ऊँटनी। पद—साँड़नी सवार।
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साँड़सी  : स्त्री०=सँड़सी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँड़ा  : पुं० [हिं० साँड़] छिपकली की जाति का पर उससे कुछ बड़ा एक प्रकार का जंगली जानवर जिसकी चरबी दवा के काम में आती है।
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साड़ा  : पुं० [देश०] १. घोड़े का एक प्राण-घातक रोग। २. बाँस का वह टुकड़ा जो नाँव में मल्लाहों के बैठने के स्थान के नीचे लगा रहता है।
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साँड़िया  : पुं० [हिं० साँड़] १. तेज चलनेवाला ऊँठ। २. उक्त प्रकार के ऊँट का सवार। (राज०)
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साँड़ी  : स्त्री०=साढ़ी (मलाई)। उदा०—कुम्हार कै धरि हाँड़ी आछै अहीरा कै सर साँडी।—गोरखनाथ।
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साड़ी  : स्त्री० [सं० शाटिका] १. स्त्रियों के पहनने की धोती। २. विशेषतः ऐसी धोती जो रेशमी हो तथा जिस पर कला-पूर्ण काम हुआ हो। जैसे—बनारसी साड़ी, मदरासी साड़ी।
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साढ़ साती  : स्त्री०=साढ़ेसाती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँढ़िया  : पुं०=साँड़िया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साढ़ी  : स्त्री० [?] मलाई (दूध की)। स्त्री०=असाढ़ी (असाढ़ की फसल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० शाल] शाल वृक्ष का गोंद। स्त्री०=साड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साढ़ू  : पुं० [सं० श्यालिवोढ़] संबंध के विचार से पत्नी की बहन का पति। साली का पति।
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साढ़े-चौहरा  : पुं० [हिं० चाढ़े+चौ (चार)+हरा (प्रत्य०)] मध्ययुग में, फसल की एक प्रकार की बँटाई जिसमें फसल का ५/१६ भाग जमींदार को मिलता था और शेष ११/१६ भाग काश्तकार को मिलता था।
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साढ़े-साती  : स्त्री० [हिं० साढ़े सात+ई (प्रत्य०)] शनि ग्रह की अशुभ और कष्ट-दायक दशा या प्रभाव जो प्रायः साढ़े सात वर्ष, साढ़े सात महीने, या साढ़े सात दिन तक रहता है। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना।—बीतना।
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सांत  : वि० [सं० सांत] अंत से युक्त। जिसका अंत या सीमा हो। ‘अनंत’ का विपर्याय। वि०=शांत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सात  : वि० [सं० सप्त] जो गिनती में पाँच और क दो हो। छः से एक अधिक। पद—सात-पाँच= (क) कुछ लोग। उदा०—सात-पाँच की लकड़ी एक जने का बोझ। (ख) चालाकी और बहानेबाजी या शराफत की बातें। जैसे—हमसे इस प्रकार सात-पाँच मत किया करो। सात समुद्र पार=बहुत अधिक दूर विशेषतः विदेश में। जैसे—उन्होंने सात-समुद्र पार की चीजें लाकर इकट्ठी की थीं। मुहा०—सात परदे में रखना= (क) अच्छी तरह छिपाकर रखना। अच्छी तरह सँभालकर रखना। सात राजाओं की साक्षी देना= (ख) बहुत दृढ़तापूर्वक कोई बात कहना। किसी बात की सत्यता पर बहुत जोर देना। सात सींकें बनाना=शिशु जन्म के छठे दिन की एक रीति जिसमें सात सींकें रखी जाती हैं। सातों भूल जाना=विपत्ति या संकट आने पर पाँचों इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि का ठिकाने न रह जाना और ठीक तरह से अपना काम न कर सकना। पुं० पाँच और दो के योग की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—७।
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सांत-सभा  : स्त्री० [सं०] १. सामंतों की सभा। २. इग्लैण्ड में सामंती की सभा, जिसके बहुत कुछ अधिकार भारतीय राज्यसभा के समान है। (ङाउस आफ़ लार्डस्)
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सांततिक  : वि० [सं० संतति+ठञ्—इक] संतति पदान करनेवाला।
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सांतपन कृच्छु  : पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जिसमें व्रत करनेवाला भोजन त्यागकर पहले दिन गोमूत्र, गोमय, दूध, दही और घी को कुश के जल में मिलाकर पीता और दूसरे दिन उपवास करता है।
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सातपूती  : वि० [हिं० सात-पूत+ई (प्रत्य०)] (स्त्री) जिसके सात पुत्र हों। स्त्री०=सतपुतिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांतर  : वि० [सं० तृ० त०] १. अन्तरा अवकाश से युक्त। २. झीना।
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सातला  : पुं० [सं० सप्तला] थूहर पौधे का एक प्रकार।
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सातवाँ  : वि०=सातवाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) सातवाँ= वि० [हिं० सात+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में सात के स्थान पर पड़नेवाला।
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सातव्य  : पुं० [सतत+ष्यञ्] १. सतत होने की अवस्था या भाव। सदा होते रहना। निरंतरता। (कन्टिन्यइटी) २. सदा बने रहने का भाव। स्थायित्व। (पर्पिचुइटी)
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सांतानिक  : वि० [सं० संतान+ठक्—इक] संतान-संबंधी। संतान या औलाद का।
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सांतापिक  : वि० [सं० संताप+ठक्+इक] संताप देने या उत्पन्न करनेवाला।
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सांति  : स्त्री०=शांति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सातिक (तिग)  : वि०=सात्विक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साती  : स्त्री० [देश०] साँप काटने की एक प्रकार की चिकित्सा जिसमें साँप के काटे हुए स्थान को चीर कर उस पर नमक या बारूद मलते हैं। वि० [हिं० सात+ई (प्रत्य०)] सात वर्षों, महीनों, दिनों, घड़ियों, पलों तक चलनेवाला। (ज्यो०) जैसे—साढ़े-साती अर्थात् साढ़े सात वर्षों तक चलनेवाली दशा।
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सांतीड़ा  : पुं० [हिं० साँड़?] बिगड़ैल बैल को नाथने का मजबूत और मोटा रस्सा। उदा०—सतना सांतीड़ा समधावी।—गोरखनाथ।
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सात्त्व  : वि० [सं० सात्त्व+अज्] १. सत्त्व गुण-संबंधी। सात्त्विक। २. सत्त्व या सार संबंधी।
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सात्त्विक  : वि० [सं० सत्त्व+ठन्—क] १. जिसमें गुण हो। सतोगुणी। २. सत्त्व गुण से संबंध रखनेवाला। ३. सत्य-निष्ठ। ४. प्राकृतिक। ५. वास्तविक। ६. अनुभूति या भावना-जन्य। पुं० १. साहित्य में, सतोगुण से उत्पन्न होनेवाले निसर्ग जाति के आठ अंगविकार—स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वर-भंग, कंप या वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु-पात और प्रलय। विशेष—वस्तुतः ये बातें अन्तः करण के सत्त्व से ही उत्पन्न होनेवाली मानी गई हैं। इसलिए इन्हें सात्त्विक कहा गया है। बाद में कुछ आचार्यों ने इसमें जृभा नामक नवाँ अंग-विकार भी बढ़ाया था। २. नाट्य-शास्त्र में, स्त्रियों के अंगज और अपलज कुछ शारीरिक गुण तथा विशेषताएँ जो आकर्षक तथा मोहक होती हैं, और इसी लिए जिनकी गणना स्त्रियों के अलंकारों में की गई है। विशेष—हिन्दी में इनका अन्तर्भाव ‘हाव’ में ही होता है। दे० ‘हाव’। ३. नाट्य-शास्त्र में, नाटक के नायक के विशिष्ट गुण जो आठ माने गये हैं। यथा—शोभा, विलास, माधुर्य, दंभीप्य, स्थैर्य, तेज, ललित और औदार्य। ४. नाट्य-शास्त्र में, चार प्रकार के अभिनयों में से एक जिसमें केवल सात्त्विक भावों का प्रदर्शन होता है। ५. काव्य और नाट्य-शास्त्र की सात्वती नाम की वृत्ति। (दे० सात्वती) ६. ब्रह्मा। ७. विष्णु।
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सात्त्विक अलंकार  : पुं० [सं०] नाट्यशास्त्र में, नायिकाओं के वे क्रियाकलाप तथा सौन्दर्यवर्धक तत्त्व जिनके अंगज, अयत्नज और स्वभावज ये तीन भेद किये गये हैं। (दे० अंगज अलंकार, अयत्नज अलंकार और स्वभाव अलंकार)
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सात्त्विकी  : स्त्री० [सं० सात्त्विक+ङीप्] १. दुर्गा का एक नाम। २. गौणी भक्ति का एक प्रकार या भेद जिसमें विशुद्ध भक्ति-भाल बनाये रखने के उद्देश्य से ही इष्टदेव का अर्चन और पूजन होता है। वि० सं० ‘सात्विक’ का स्त्री०।
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सात्म  : वि० [सं० त० स०] [भाव० सात्म्य] आत्मा से युक्त। आत्मासहित।
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सात्म्य  : वि० [सं० सात्म+कन्] सात्मन्।
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सात्म्यक  : वि० [सं० आत्मन्+ष्यञ्, त० स०] १. सात्म-संबंधी। सात्म का। २. प्रकृति के अनुकूल। स्वास्थ्यकर। पुं० १. सात्म्य होने की अवस्था या भाव। २. सरूपता। सारूप्य। ३. एक विशेष प्रकार का रस जिसके सेवन से प्रकृति विरुद्ध कार्य करने पर शारीरिक शक्ति क्षीण नहीं होती। ४. अवस्था, समय, स्थान आदि के अनुकूल पड़नेवाला आहार-विहार।
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सात्यकि  : पुं० [सं०] कृष्ण का सारथी एक प्रसिद्ध यादव वीर जो सत्यक का पुत्र था।
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सात्यरथि  : पुं० [सं० सत्यरथ+इल, क० स०] वह जो सत्यरथ के वंश में उत्पन्न हुआ हो।
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सात्यवत्  : पुं० [सं० सत्यवती+अण्] सत्यवती के पुत्र, वेदव्यास। वि० सत्यवती-संबंधी। सत्यवती का।
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सात्राजिती  : स्त्री० [सं० सत्राजित्+ङीप्] सत्यभामा का एक नाम।
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सात्राजित्  : पुं० [सत्राजित्+अच्] राजा शतानीक जो सत्राजित् के वंशज थे।
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सात्वत  : पुं० [सं० सत्त्वत्+अज्] १. यदुवंशी। यादव। २. श्रीकृष्ण। ३. बलराम। ४. विष्णु। ५. एक प्राचीन देश। ६. एक प्राचीन वर्णसंकर जाति। पुं० [सं०] १. एक प्राचीन क्षत्रिय जाति जो उत्तर भारत के शूरसेन मंडल में रहती थी। २. उक्त जाति का मत जो ‘पांचरात्र’ कहलाता था।
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सात्वती  : स्त्री० [सं० सात्वत+ङीप्] १. साहित्य में, चार प्रकार की नाट्य-वृत्तियों में से एक जिसका प्रयोग मुख्य रूप से वीर, रौद्र, अद्भुत आदि रसों में होता है तथा जिसमें ज्ञान, न्याय, औचित्य आदि की प्रधानता रहती है। २. शिशुपाल की माता का नाम। ३. सुभद्रा का एक नाम।
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सांत्वन  : पुं० [सं०√सांत्व् (अनुकूल करना)+ल्युट्—अन] १. किसी दुःखी को सहानुभूतिपूर्वक शांति देने की क्रिया। आश्वासन। ढारस। २. आपस में स्नेहपूर्वक होनेवाली बात-चीत। ३. प्रणय। प्रेम। ४. मिलन। मिलाप।
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सांत्वना  : स्त्री० [सं० सांत्वन—टाप्] १. दुःखी, शोकाकुल या संतप्त व्यक्ति को शांत करने तथा समझाने-बुझाने की क्रिया। २. किसी को यह समझाना कि जो कुछ हो गया है या बिगड गया वह अनिवार्य था। अब साहस तथा धैर्य से उसका परिमार्जन किया जा सकता है। ३. उक्त आशय की सूचक उक्ति या कथन। ४. चित्त की शांति और स्वस्थता। ५. प्रणय। प्रेम।
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सांत्ववाद  : पुं० [सं०√सांत्व (अनुकूल करना)+अच्√वद् (कहना)+घञ् उप० स०] वह बात जो किसी को सांत्वना देने के लिए कही जाय। सांत्वना का वचन।
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सांत्वित  : भू० कृ० [सं०√सांत्व् (अनुकूल करना)+क्त] जिसे सांत्वना दी गई हो या मिली हो।
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साथ  : पुं० [सं० सह या सहित] १. वह अवस्था जिसमें (क) दो या अधिक वस्तुएँ एक दूसरे के निकट स्थित हों। जैसे—दोनों मकान साथ ही हैं। और (ख) दो या अधिक जीवन निकट संपर्क में रहते हों। जैसे—छात्रावास में हम दोनों का कुछ दिनों तक साथ रहा है। विशेष—संग और साथ में मुख्य अंतर यह है कि संग तो अधिक गहरा या घनिष्ठ और प्रायः अल्पकालिक होता है। पद—साथ का (या को)=पूरी, रोटी आदि के साथ खाई जानेवाली तरकारी, भाजी या सालन। साथ का खेला=बचपन का ऐसा साथी जिससे मिलकर खेलते रहे हों। मुहा०—(किसी का) साथ देना= किसी काम में संग रहना। सहानुभूति रखते हुए सहायता देना। जैसे—इस काम में हम तुम्हारा साथ देंगे। (किसी को अपने) साथ लेना=अपने संग रखना या ले चलना। जैसे—जब तुम चलने लगना, तो हमें भी साथ ले लेना। (किसी के) साथ सोना=मैथुन या संभोग करना। २. वह जो संग रहता हो। बराबर पास रहनेवाला। साथी। संगी। ३. आपस में होनेवाली घनिष्ठता या मेल-जोल। जैसे—आज-कल उन दोनों का बहुत साथ है। ४. मिलकर उड़नेवाले कबूतरों का झुंड या टुकड़ी। (लखनऊ) अव्य० १. एक संबंध सूचक अव्यय जो प्रायः सहचार या संग रहने का भाव या स्थिति सूचित करता है। सहित। से। जैसे—तुम भी उनके साथ रहना। पद—साथ ही=सिवा। अतिरिक्त। जैसे—साथ ही यह भी तो एक बात है कि आप वहाँ नहीं जा सकेंगे। साथ ही साथ=एक साथ। एक सिलसिले में। जैसे—साथ ही साथ दोहराते भी चलो। एक साथ=एक सिलसिले में। जैसे—(क) एक साथ दोनों काम हों जायँगे। (ख) जब एक साथ इतने आदमी पहुँचेंगे तो वे घबरा जायेंगे। के साथ= (क) साथ रहते हुए। पूर्वक। जैसे—आराम के साथ काम करना चाहिए। (ख) प्रति। से। जैसे—छोटों के साथ हँसी-मजाक करना ठीक नहीं। २. द्वारा। उदा०—नखन साथ तब उदर बिदार्यो।—सूर।
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साथर  : पुं०=साथरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साथरा  : पुं० [सं० स्तरण] [स्त्री० अल्पा० साथरी] १. बिछौना। बिस्तर। २. चटाई, विशेषतः कुश की बनी चटाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँथरी  : स्त्री० [सं० संस्तर] १. चटाई। २. बिछौना। बिस्तर। ३. बिछाने की गद्दी।
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साँथा  : पुं० [देश०] लोहे का एक औजार जो चमड़ा काटने के काम आता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साथिया  : पुं०=स्वास्तिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँथी  : स्त्री० [देश०] १. करघे की वह लकड़ी जो ताने के तारों को ठीक रखने के लिए करघे के ऊपर लगी रहती हो। २. बुनाई के समय ताने के सूतों का ऊपर उठना और नीचे गिरना।
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साथी  : पुं० [हिं० साथ+ई (प्रत्य०)] १. वे दो या अधिक व्यक्ति जिनका परस्पर साथ हो। २. साथ रहनेवालों में से एक की दृष्टि से दूसरा। जैसे—पुरुष को स्त्री का सच्चा साथी होना चाहिए। ३. मित्र। सखा।
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साद  : पुं० [सं० सादः] १. अस्त होना। डूबना। २. क्लांति। थकवाट। ३. विषाद। ४. क्षीणता। ५. नाश। ६. नष्ट। पीड़ा। ७. विशुद्धता। ८. स्वच्छता। ९. क्षरण। १॰. दे० ‘अवसाद’। पुं० १.=शब्द। (राज०) २.=स्वाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [अ०] १. अच्छा। भला। २. मांगलिक। शुभ। पुं० अरबी वर्ण-माला का एक वर्ण जिसका उच्चारण ‘स’ के समान होता है और जिसका उपयोग लाक्षणिक रूप में किसी बात को ठीक मानकर उससे अपनी सहमति प्रकट करने के लिए होता है। जैसे—उस्ताद ने उसकी बात का साद किया।
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साँद (ा)  : पुं० [देश०] वह भारी लकड़ी जो पशुओं के गले में इसलिए बाध दी जाती है कि भागने न पावें। लंगर। ढेका।
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सादक  : वि० [सं०] निःशक्त या शिथिल करनेवाला।
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सादगी  : स्त्री० [फा० सादा का भाववाचक रूप] १. सादा होने की अवस्था, गुण या भाव। सादापन। सरलता। २. आचरण, व्यवहार आदि की निष्कपटता और सिधाई। ३. खान-पान, रहन-सहन आदि में आडंबर, तड़-भड़क, कृत्रिमता आदि का होनेवाला अभाव।
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सादन  : पुं० [सं०] [भू० कृ०] १. नष्ट करना। २. क्लांत होना। थकना। ३. थकावट। ४. पात्र। बरतन। ५. सदन (घर या मकान)।
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सादर  : अव्य० [सं० स+आदर] आदरपूर्वक। इज्जत से। जैसे—सादर नमस्कार या प्रणाम।
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सादरा  : पुं० [?] उच्च शास्त्रीय संगीत में, एक विशिष्ट प्रकार की गायनशैली जिसके गाने या पद अनेक राग-रागिनियों में निबद्ध होते हैं।
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सादा  : वि० [सं० साधु से फा० साद] [स्त्री० सादी] १. जिसमें एक ही तत्त्व हो या एक ही प्रकार के तत्त्व हों। जिसमें औरों का मेल या योग न हो। जैसे—सादा पानी। २. जिसमें किसी तरह की उलझन, झंझट, पेंच की बात या बनावट न हो। सरल। जैसे—सादा हिसाब। ३. जिसकी बनावट या रचना में स्वाभाविकता ही हो, विशेष कौशल न हो। ४. जिस पर किसी तरह के बेल-बूटे, सजावट आदि का काम न हो। जिस पर किसी प्रकार का अंकन न हो। जैसे—सादे कपड़े, सादा कागज। ५. जिसे समझनें मे विशेष कठिनता न हो। ६. (व्यक्ति) जो छल-कपट से रहित हो। सरल। सीधा। (सिम्पुल) पद—सीधा-सादा। (देखें) ७. बुद्धि और विवेक से रहित। ना-समझ। मूर्ख। (पश्चिम) जैसे—यहाँ कौन सा सादा है जो तुम्हारी ये बातें मान लेगा।
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सादात  : पुं० [अ०] सैयद जाति या वंश।
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सादापन  : पुं० [फा० सादा+हिं० पन (प्रत्य०)] सादगी। (दे०)
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सादाशिव  : वि० [सं० सदाशिव+अव्] सदाशिव-संबंधी।
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सादिक  : वि० [अ०] १. सच्चा। २. ठीक। दुरुस्त। मुहा०—सादिक आना= (क) सत्य रूप में घटित होना। (ख) ठीक आना। पूरा उतरना।
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सादिर  : वि० [अ०] १. बाहर निकलनेवाला। २. जारी किया हुआ। जैसे—हुक्म हाजिर होना।
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सादी  : स्त्री० [हिं० सादा] १. वह पूरी या रोटी जिसके अन्दर पूरन या कोई चीज भरी न हो। ‘कचौरी’ का विपर्याय। २. लाल नामक पक्षी की मादा जिसके शरीर पर चित्तियाँ नहीं होतीं। मुनियाँ। सदिया। पुं० [सं० सदिः] १. रथ चलानेवाला। सारथी। २. योद्धा। ३. हवा। वायु। पुं० [फा० सद=शिकार] १. शिकारी। २. घोड़ा। ३. सवार। (डिं०) स्त्री०=शादी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सादी सजा  : स्त्री० [हिं०+फा०] कारावास का ऐसा दंड (कड़ी सजा से भिन्न) जिसमें कैदी को कोई काम न करना पड़ता हो। (सिम्पुल इम्प्रिजन्मेन्ट)
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सादूर  : पुं०=सार्दूल (सिंह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सादृश्य  : पुं० [सं०] १. सदृश्य होने की अवस्था, गुण या भाव। एकरूपता। (सिमिलेरिटी) २. तुलना। बराबरी। ३. मृग। हिरन।
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सांदृष्टिक  : वि० [सं० सदृस्+ठञ्—इक] एक ही दृष्टि में होनेवाला देखते ही तुरन्त होनेवाला। तात्कालिक।
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सांदृष्टिक न्याय  : पुं० [सं० संदृष्ट+ठञ्—इक-न्याय—मध्य० स०] एक प्रकार का न्याय जिसका प्रयोग उस समय किया जाता है जब कोई चीज देखकर उसी तरह की कोई दूसरी चीज याद आ जाती है।
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साद्यंत  : वि० [सं०] आदि से अंत तक का अर्थात् संपूर्ण। सारा। अव्य० आदि से अंत तक।
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साद्यस्क  : वि० [सं० ब० स०]=सद्यस्क।
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सांद्र  : वि० [सं०] [भाव० सांद्रता] १. एक में गुथा, जुड़ा या मिला हुआ। २. गंभीर। घना। उदा०—उठा सांद्र तन का अवगुंठन।—दिनकर। ३. हृष्ट-पुष्ट। हट्टा-कट्टा। ४. तीव्र। प्रबल। ५. बहुत अधिक। प्रचुर। ६. चिकना। स्निग्ध। ७. कोमल। मृदु। ८. मनोहर। सुन्दर। पुं०। जंगल। वन।
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सांद्र-प्रसाद  : पुं० [सं०] एक प्रकार का कफज प्रमेह जिसमें सूत्र का कुछ अंश गाढ़ा और कुछ अंश पतला निकलता है।
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सांद्रता  : स्त्री० [सं० सांद्र+तल्—टाप्] सांद्र होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सांद्रमेह  : पुं०=सांद्र-प्रसाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँध  : स्त्री० [सं० संधान] निशाना। लक्ष्य। स्त्री० [सं० संधि] १. सीमा। हद। २. दे० ‘संधि’। ३. दे० ‘सेंध’। स्त्री०=साँझ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांध  : वि० [सं० संधि+अण्] संधि-संबंधी। संधि का।
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साध  : स्त्री० [सं० श्रद्धा=प्रबल वासना] १. ऐसी अभिलाषा या आकांक्षा जो बहुत समय से मन में हो और जिसकी पूर्ति के लिए व्यक्ति उत्कंठित हो। मुहा०—(किसी बात की) साध न रहने देना=सब प्रकार से इच्छा पूरी कर लेना। कुछ कमी या कसर न रखना। उदा०—व्याध अपराध की साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भक्ति भई।—तुलसी। साध राधना=अभिलाषा पूरी करना या होना। २. गर्भवती स्त्री के मन में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होनेवाली अनेक प्रकार की अभिलाषाएँ और इच्छाएँ। दोहद। ३. स्त्री के गर्भवती होने के सातवें महीनें में होनेवाली एक प्रकार की रसम। पुं० [सं० साधु] १. साधु। संत। महात्मा। भला आदमी। सज्जन। २. उत्तर भारत का एक प्रसिद्ध संप्रदाय जिस पर आगे चलकर कबीर पंथ का विशेष प्रभाव पड़ा था। ३. उक्त संप्रदाय का अनुयायी जो ईश्वर के सिवा और किसी को प्रणाम, नमस्कार आदि का अधिकारी नहीं समझता, और इसलिए व्यक्तियों के सामने सिर नहीं झुकाता। वि० [सं० साधु उत्तम। अच्छा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साधक  : वि० [सं०√साध् (सिद्ध होना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० साधिका] १. साधना करनेवाला। २. साधनेवाला। ३. जो साध्य या ध्येय की प्राप्ति में साधन बना हो फलतः सहायक हुआ हो। पुं० वह जो आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र में फल-प्राप्ति के उद्देश्य से किसी प्रकार साधना में लगा हुआ हो। जैसे—तांत्रिक, योगी, तपस्वी आदि। २. कोई ऐसी चीज या बात जिससे कोई कार्य पूरा या सिद्ध करने में सहायता मिलती हो। जरिया। वसीला। साधन। ३. वह जो किसी काम या बात में अनुकूल रहकर सहायक होता हो। ४. वह जो ऊपर से तटस्थ रहकर, परन्तु मन में कपट रखकर किसी का दुष्ट उद्देश्य सिद्ध करनें में सहायक होता हो। जैसे—वे दोनों सिद्ध साधक बनकर मेरे पास आये थे। पद—सिद्ध-साधक। (देखें) ५. न्याय में, वह लक्षण जिसके आधार पर कोई बात सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। हेतु। ६. भूत-प्रेत आदि को साधने या अपने वश में करनेवाला। ओझा। ७. पुत्रजीव नामक वृक्ष। ८. दमनक। दौना। ९. पित्त।
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साधकता  : स्त्री० [सं० साधक+तल्—टाप्] १. साधक होने की अवस्था या भाव। २. उपयुक्तता। ३. उपयोगिता।
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साधकत्व  : पुं० [पुं० साधक+त्व] १. साधकता। २. जादू या बाजीगरी। ३. सिद्धि।
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साधन  : पुं० [सं०] [वि० साधनिक, साध्य, भू० कृ० साधित, कर्ता साधक] १. किसी कार्य का आरंभ करके उसे सिद्ध या पूरा करना। २. आज्ञा, निर्णय आदि के अनुसार किसी काम या बात को उचित और पूरा रूप देना। कार्यान्वित करना। पालन करना। ३. विधिक क्षेत्र में, आदेशों, लेख्यों, सूचनाओं आदि के अनुसार ठीक तरह से काम पूरा करना। निष्पादन। पालन। ४. अपने कार्यों का निर्वाह या अपने पद के कर्त्तव्यों आदि का पालन करना। ५. कोई चीज तैयार करने का सामान। सामग्री। ६. कोई ऐसी बात जिससे किसी प्रकार की क्षति, त्रुटि, दोष आदि का परिहार होता हो। उपचार। प्रतिविधि। ७. कोई काम पूरा करने में सहायता देनेवाली कोई चीज या सब चीजें। उपकरण। (इन्स्ट्रमेंट) ८. कोई ऐसी चीज या बात जिससे कुछ कर सकने की शक्ति या समर्थता आती हो। (मीन्स) जैसे—युद्ध करने के लिए सैनिक साधन। ९. वे सब जिनके सहारे कोई काम पूरा होता हो अथवा आवश्यकता पड़ने पर जिनका उपयोग किया जा सकता हो। (रिसोसेंज) १॰. कोई ऐसा तत्त्व या वस्तु जिसके द्वारा या सहायता से काम पूरा होता हो। (एजेन्सी) ११. वैद्यक में, औषध बनाने के लिए धातुएँ आदि फूँकने और शोधने का काम। १२. उपाय। तरकीब। युक्त। १३. मदद। सहायता। १४. कारण। सबब। १५. धन-संपत्ति। दौलत। १६. पदार्थ। वस्तु। १७. प्रमाण। सबूत। १८. जाना। गमन। १९. उपासना। २॰. संधान। २१. मृतक का अग्नि-संस्कार। दाह-कर्म। २२. दे० ‘साधना’।
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साधन-क्रिया  : स्त्री० [सं०] समापिका क्रिया। (दे०)
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साधनता  : स्त्री० [सं०] १. साधन का धर्म या भाव। २. साधन की क्रिया। साधना।
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साधनहार  : वि० [सं० साधन+हिं० हार (प्रत्य०)] १. साधने करने या साधनेवाला। साधक। २. जो साध या सिद्ध किया जा सके। साध्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साँधना  : स० [सं० संधान] निशाना साधना। लक्ष्य करना। संधान करना। स० [स० साधन] काम पूरा करना। स० [सं० सन्धि] १. आपस में मिलाकर एक करना। २. चीजों में जोड़ या टाँका लगाना।
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साधना  : स्त्री० [सं०] १. कोई कार्य सिद्ध या संपन्न करने की क्रिया। साधन। २. ऐसी आराधना तथा उपासना जो विशेष कष्ट सहन, परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बहुत दिनों तक करनी पड़ती हो, अथवा जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार की सिद्ध प्राप्त होती हो। जैसे—तंत्र या योग की साधना। ३. उक्त के आधार पर किसी बहुत बड़े तथा महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए विशेष त्याग, परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बहुत दिनों तक किया जानेवाला प्रयत्न या प्रयास। जैसे—अधिकतर बड़े बड़े आविष्कार विशिष्ट साधना करने से होते हैं। स० [सं० साधना] १. विशेष परिश्रम तथा प्रयत्नपूर्वक निरंतर कोई कार्य करते हुए उसमें पारंगत या सिद्धहस्त होना। जैसे—योग साधना। २. किसी काम या बात का इस प्रकार अभ्यास करना कि वह ठीक तरह से, बहुत सहज में स्वाभाविक रूप से सम्पादित होने लगे। जैसे—दम साधना=दम या साँस रोकने का अभ्यास करना। ३. किसी चीज को ऐसी स्थिति में लाना कि वह ठीक तरह से और संतुलित रूप से अपने स्थान पर रहकर पूरा काम कर सके। जैसे—(क) गुड्डी या पतंग साधना=उसमें चिप्पी या पुल्ला लगाकर उसे संतुलित करना। (ख) तराजू या बटखरा साधना=यह देखना कि तराजू या बटखरा ठीक या पूरा तौलता है या नहीं। (ग) बाइसिकिल पर चढ़ने या रस्से पर चलने में शरीर साधना=शरीर को ऐसी अवस्था में रखना कि वह इधर-उधर गिरने न पाए। ४. शुद्ध या सत्य प्रमाणित करना। ५. निश्चित या पक्का करना। ठहराना। ६. किसी को अपनी ओर मिलाकर अपने अनुकूल या वश में करना। उदा०—गाधिराज को पुत्र साधि सब मित्र शत्रु बल।—केशव। स० [स० संधान, पु० हिं० संधानना] निशान लगाना। संधान करना।
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साधनिक  : वि० [स०] १. साधन-संबंधी। साधन का। २. किसी या कई प्रकार के साधनों से युक्त या सम्पन्न। ३. किसी राज्य या संस्था के प्रबंध, शासन या कार्य-साधन से सम्बन्ध रखनेवाला। कार्यकारी। अधिशासी। पुं० प्राचीन भारत में, एक प्रकार के राज-कर्मचारी जो सेना आदि के किसी उप-विभाग के व्यवस्थापक होते थे।
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साधनी  : स्त्री० [सं० साधन] १. लोहे या लकड़ी का एक औजार जिससे दीवार या जमीन की सतह की सीध नापते हैं। २. राज। मेमार। उदा०—बोलि साधनी-पुंज मंजु मंडप रचवायौ।—रत्ना०।
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साधनीय  : वि० [सं०] १. जिसका साधन हो सके। २. जिसकी साधना होने को हो। ३. जो साधना से प्राप्त किया जा सकता हो।
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साधयितव्य  : वि० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश, तव्य] (कार्य) जिसका साधन हो सकता हो।
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साधयिता  : वि० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश-तृच्] जो साधन करता हो। साधन करनेवाला। साधक।
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साधर्मिक  : पुं० [सं० सधर्म-ष० स०—ठक्-इक] किसी की दृष्टि से उसी के धर्म का दूसरा अनुयायी। सधर्मी।
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साधर्म्य  : पुं० [सं० सधर्म+ष्यञ्] समान धर्म से युक्त होने की अवस्था, गुण या भाव। एकधर्मता। समान-धर्मता। तुल्य-धर्मता। जैसे—इनमें कुछ भी साधर्म्य नहीं है।
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साधस  : पुं० दे० ‘साध्वस’।
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साँधा  : पुं० [सं० संधि] दो रस्सियों आदि में दी हुई गाँठ। (लश०) क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
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साधार  : वि० [सं०] १. (रचना) जो आधार या नींव पर स्थित हो। २. कथन, विचार आदि जिसका कुछ या कोई आधार हो। तथ्यपूर्ण।
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साधारण  : वि० [सं० साधारण, अव्य० स०—अण्] १. जैसा साधारणतः जब जगह पाया जाता अथवा होता हो। आम। (यूजुअल) २. जिसमें औरों की अपेक्षा कोई विशेषता न हो। (कॉमन) ३. प्रकार, प्रकृति, रूप आदि के विचार से जैसा सब जगह होता हो, वैसा। प्रकृत। सहज। ४. जिसमें कोई बहुत बड़ी उत्कृष्टता या विशेषता न हो, फिर भी जो अच्छे या बढ़िया से हलके दरजे का हो। मामूली। (आर्डिनरी) ५. जो प्रायः सभी लोगों के करने या समझने के योग्य हो। सरल। सहज। सुगम। ६. तुल्य। सदृश। समान। ७. दे० ‘सामान्य’। पुं० १. भावप्रकाश के अनुसार ऐसा प्रदेश जहाँ जंगल अधिक हों, रोग अधिक होते हों, और जाड़ा तथा गरमी भी अधिक पड़ती हो। २. उक्त प्रकार के देश का जल।
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साधारण गांधार  : पुं० [सं० कर्म० स०] संगीत में, एक प्रकार का विकृत स्वर जो वजिका श्रुति से आरम्भ होता है। इसमें तीन श्रुतियाँ होती हैं।
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साधारण धर्म  : पुं० [सं०] १. ऐसा कर्त्तव्य, कर्म या कार्य जो साधारणतः और समान रूप से सबके के लिए बना हो। २. ऐसी कर्तव्य, कर्म या धर्म जिसका विधान किसी वर्ग के सब लोगों के हुआ हो। ३. ऐसा गुण, तत्त्व या धर्म जो साधारणतः किसी प्रकार के सब पदार्थों आदि में समान रूप से पाया जाता हो। विशेष—साधारणीकरण ऐसे ही गुणों, तत्त्वों के आधार पर किया जाता है।
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साधारण निर्वाचन  : पुं० [सं०] वह निर्वाचन जिसमें हर चुनाव क्षेत्र से प्रतिनिधि चुने जाते हों। आम-चुनाव। (जनरल इलेक्शन)
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साधारण वाक्य  : पुं० [सं०] व्याकरण में, तीन प्रकार के वाक्यों में से पहला जो प्रायः बहुत छोटा होता है और जिसमें एक कर्ता और एक क्रिया (सकर्मक होने पर क्रिया के साथ कर्म भी) होती है। (वाक्य के शेष दो प्रकार मिश्र और संयुक्त कहलाते हैं)।
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साधारणतः  : अव्य० [सं०]=साधारणतया।
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साधारणतया  : अव्य० [सं० साधारण+तल्—टाप्-टा] साधारण रूप से। आमतौर पर। साधारणतः।
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साधारणता  : स्त्री० [सं० साधारण] साधारण होने की अवस्था, गुण धर्म या भाव।
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साधारणीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० साधारणीकृत] १. हमारे प्राचीन साहित्य में, रस-निष्पत्ति की वह स्थिति जिसमें दर्शक या पाठक कोई अभिनय देखकर या काव्य पढ़कर उससे तादात्मय स्थापित करता हुआ उसका पूरा-पूरा रसास्वादन करता है। विशेष—यह वही स्थिति है जिसमें दर्शक या पाठकों के मन में ‘मैं’ और ‘पर’ का भाव दूर हो जाता है और वह अभिनय या काव्य के पात्रों या भावों में विलीन होकर उनके साथ एकात्मता स्थापित कर लेता है। २. आज-कल एक ही प्रकार के बहुत से विशिष्ट गुणों, तत्त्वों आदि के आधार पर किसी विषय में कोई ऐसा साधारण नियम या सिद्धांत स्थिर करना जो उन सब गुणों या तत्त्वों पर समान रूप से प्रयुक्त हो सके। ३. किसी सामान्य गुण या धर्म के आधार पर अनेक गुणों, तत्त्वों आदि को एक तल रक एक वर्ग में लाना। गुणों आदि के आधार पर समानता निरूपित करना। (जेनरलाइज़ेशन)
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साधारण्य  : पुं० [सं० साधारण+ष्यञ्]=साधारणता।
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सांधि-विग्रह  : पुं० [सं० संधि-विग्रह, द्व० स० ठन्—क] प्राचीन भारत में, वह राजकीय अधिकारी जिसे दूसरे राज्यों के साथ संधि और विग्रह करने का अधिकार होता था।
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सांधिक  : पुं० [सं० संधा+ठक्—इक] वह जो मद्य बनाता या बेचता हो। शौंडिक। वि० सन्धि या मेल करानेवाला।
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साधिका  : वि० स्त्री० [सं०√सिध् (गत्यादि)+षिच्—साधादेश-ण्वुल्—अक, टाप्] सं० ‘साधक’ का स्त्री०। स्त्री० गहरी नींद।
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साधिकार  : अव्य० [सं०] १. अधिकारपूर्वक। २. अधिकारपूर्वक रूप से। (ऑथॉरिटेटिव्ली) वि० १. जिसे कोई अधिकार प्राप्त हो। २. अधिकारपूर्वक या अधिकारिक रूप से कहा या किया हुआ। (ऑथॉरिटेटिव) जैसे—साधिकार घोषणा।
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साधित  : भू० कृ० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश-क्त] १. जिसका साधन किया गया हो। सिद्ध किया गया हो। सिद्ध किया हुआ। २. (काम) जो पूरा सिद्ध किया गया हो। ३. जिसे दंड दिया गया हो। दंडित। ४. शुद्ध किया हुआ। शोधित। ५. नष्ट किया हुआ। ६. (ऋण या देन) जो चुका दिया गया हो। शोधित।
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साधित्र  : पुं० [सं०] कोई ऐसी वस्तु या साधन जिसकी साहयता से कोई काम पूरा किया जाता हो। उपकरण। (एपरेटस)
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साधी (धिन्)  : वि० [सं०√गत्यादि+णिनि—साधादेश] साधक। वि० [हिं० साधक या साधना=सिद्ध करना] किसी के दुष्ट उद्देश्य की सिद्धि में सहायक होनेवाला। साधक। उदा०—जो सो चोर, सोई साधी।—कबीर।
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साधु  : वि० [सं०] [भाव० साधुता, स्त्री० साध्वी] १. अच्छा। भला। २. जिसमें कोई आपत्तिजनक बात या दोष न हो; फलतः ग्राह्य और प्रशंसनीय। ३. सच्चा। ४. चतुर। निपुण। होशियार। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. उचित। मुनासिब। वाजिब। अव्य० १. बहुत अच्छा किया या बहुत अच्छा हुआ। मुहा०—साधु साधु कहना=किसी के कोई अच्छा काम करने पर उसकी बहुत प्रशंसा करना। २. बहुत ठीक, ऐसा ही किया जाय अथवा ऐसा ही हो। ३. बस बहुत हो चुका, अब रहने दो। पुं० १. वह जिसका जन्म उत्तम कुल में हुआ हो। कुलीन। आर्य। २. वह जिसकी कोई साधना, विशेषतः आध्यात्मिक या धार्मिक साधना पूरी हो चुकी हो। सिद्ध। ३. वह धार्मिक, परपोकारी और सदाचारी व्यक्ति जो धर्म, सत्य आदि का उपदेश करके दूसरों का कल्याण करता हो। महात्मा। संत। ४. वह जो सांसारिक प्रपंच छोड़कर त्यागी और विरक्त हो गया हो। ५. बहुत ही शांत भाव से से रहनेवाला सदाचारी और सुशील व्यक्ति। बहुत ही भला आदमी। सज्जन। ६. वणिक। व्यापारी। ७. वह जो लोगों को धन आदि उधार देकर उनके ब्याज या सूद से अपना निर्वाह करता हो। महाजन। साहु। ८. जैन यति, मुनि या साधु। ९. जि देवय १॰. दौना नामक पौधा। दमनक। ११. वरुण वृक्ष।
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साधु-वृत्त  : वि० [सं०] उत्तम स्वभाव और चरित्रवाला। साधु आचरण करनेवाला।
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साधु-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] उत्तम और श्रेष्ठ आचरण तथा वृत्ति।
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साधु-साधु  : अव्य० [सं०] साधुवाद का सूचक पद। धन्य-धन्य।
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साधुकारी (रिन्)  : वि० [सं० साधु√कृ (करना)+णिनि] जो उत्तम कार्य करता हो। अच्छे काम करनेवाला।
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साधुज  : वि० [सं०] जिसका जन्म उत्तम कुल में हुआ हो। कुलीन।
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साधुजात  : वि० [सं०] १. सुन्दर। खूबसूरत। २. चमकीला। उज्जवल। ३. साफ। स्वच्छ। ४. कुलीन।
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साधुता  : स्त्री० [सं० साधु+तल्—टाप्] १. साधु होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव। साधुपन। २. भलमनसाहत। सज्जनता। ३. नेकी। भलाई। ४. सीधापन। सिधाई।
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साधुत्व  : पुं० [सं० साधु+त्व]=साधुता।
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साधुमती  : स्त्री० [सं० साधु-मतु, ङीप्] तांत्रिकों की एक देवी। ३. दसवीं पृथ्वी। (बौद्ध)
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साधुवाद  : पुं० [सं०] १. किसी के कोई उत्तम कार्य करने पर ‘‘साधु साधु’’ कहकर उसकी प्रशंसा करना। २. उक्त रूप में की हुई प्रशंसा या कही हुई बात।
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साधू  : पुं० [सं० साधु] १. महात्मा और संत पुरुष। २. विरक्त और संसार त्यागी व्यक्ति।
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साधो  : पुं० [सं० साधु] हिं० ‘साधु’ का सम्बोदन कारक का रूप। जैसे—कहे कबीर सुनो भई साधो।—कबीर।
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सांध्य  : वि० [सं०] १. संध्या-संबंधी। संध्या का। २. संध्या के समय होनेवाला।
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साध्य  : वि० [सं०] १. (कार्य) जिसका साधन हो सके। जो सिद्ध या पूरा किया जा सके। जैसे—यह कार्य सबके लिए साध्य नहीं है। २. आसान। सहज। सुगम। ३. तर्क या न्याय में, (पक्ष या विषय) जो प्रमाणित किया जाने को हो। ४. वैद्यक में, (रोग) जो चिकित्सा के द्वारा दूर किया जा सकता हो। ५. (काम या बात) जिसका प्रतिकार हो सकता हो अथवा किया जा सकता हो। ६. (विषय) जो प्रयत्न करने पर जाना जा सकता हो। पुं० १. कोई काम पूरा कर सकने की योग्यता या शक्ति। सामर्थ्य। जैसे—यह काम हमारे साध्य के बाहर है। २. न्याय में, वह पदार्थ जिसका अनुमान किया जाय। जैसे—पर्वत से धुँआ निकलकता है अतः वहाँ अग्नि है। यहाँ अग्नि साध्य है, जिसका अनुमान किया गया है। ३. इक्कीसवाँ योग। (ज्यो०) ४. गुरु से लिये जानेवाले चार प्रकार के मंत्रों में से एक प्रकार का मंत्र। (तंत्र) ५. एक प्रकार के गण देवता जिनकी संख्या १२ है। ६. देवता।
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सांध्य कुसुमा  : स्त्री० [सं०] ऐसी वनस्पतियाँ या बेलें जो संध्या के समय फूलती हों।
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सांध्य गोष्ठी  : स्त्री० [सं०] संध्या के समय आमंत्रित मित्रों की गोष्ठी जिसमें जलपान भी होता है। इवनिंग पार्टी)
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साध्य प्रकाश  : पुं० [सं०] सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय दिखलाई पड़नेवाला धुँधला प्रकाश।
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साध्यता  : स्त्री० [सं० साध्य+तल्—टाप्] साध्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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साध्यवसान रूपक  : पुं० [सं०] साहित्य में, रूपक अलंकार का वह प्रकार या भेद जो साध्यवासना लक्षणा से युक्त होता है। (एलिगोरी)
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साध्यवसानिका  : स्त्री०=साध्यवसाना (लक्षणा)।
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साध्यवसाय  : वि० [सं० स० ब०] (उक्ति या कथन) जो साध्यवसाना लक्षणा से युक्त हो।
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साध्यवान् (वत्)  : वि० [सं० साध्य+मतुप् म=व] (व्यवहार में, वह पक्ष) जिस पर अपना कथन या मत प्रमाणित करने का भार हो।
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साध्यवासना  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, लक्षणा का वह प्रकार या भेद जिसमें स्वयं उपमान में उपमेय का अध्यवसाय या तादात्म्य किया जाता अर्थात् उपमेय को बिलकुल हटाकर केवल उपमान इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि उपमेय से उसका कोई अंतर या भेद नहीं रह जाता। जैसे—किसी परम मूर्ख विषय में कहना—यह तो गधा (या बैल) है। उदा०—अद्भुत् एक अनूप बाग। जुगल कमल पर गज क्रीडत है, तापर सिंह करत अनुराग।...फल पर पुहुप, पहुप पर पल्लव ता पर सुक, पिक, मृग-मद काग। इसमें केवल उपमानों का उल्लेख करके राधा के सब अंगों के सौंदर्य का वर्णन किया है।
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साध्यसम  : पुं० [सं०] भारती नैयायिकों के अनुसार पाँच प्रकार के हेत्वाभासों में से एक, जिसमें किसी हेतु को साध्य के ही समान सिद्ध करने की आवश्यकता होती है। जैसे—यदि कहा जाय ‘‘छाया भी द्रव्य है क्योंकि उसमें द्रव्यों के ही समान गति होती है।’’ तो यहाँ यह सिद्ध करना आवश्यक होगा कि स्वतः छाया में गति होती है।
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साध्याभक्ति  : स्त्री०=परा-भक्ति। (देखें)
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साध्र  : स्त्री०=साध (कामना)। उदा०—रमण रोक मनि साध्र रही।—प्रिथीराज।
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साध्वस  : पुं० [सं०] १. भय। डर। २. घबराहट। ३. बेचैनी। विकलता। ४. प्रतिभा।
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साध्वाचार  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. साधुओं का सा आचार और व्यवहार। २. शिष्टाचार।
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साध्वी  : वि० [सं० साधु-ङीप्] १. भली तथा शुद्ध आचरणवाली (स्त्री)। २. परित्याग। पतिव्रता। पद—सती-साध्वी। (दे०) स्त्री० मेदा (ओषधि)।
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सान  : पुं० [सं० शाण] १. प्रायः चक्की के पाट के आकार का वह कुरुंड पत्थर जिस पर रगड़कर धारदार औजारों और हथियारों की धार चोखी या तेज और साफ की जाती है। (ह्वटस्टोन) मुहा०—(किसी चीज पर) सान देना, धरना या रखना=उक्त पत्थर पर रगड़कर औजारों की धार चोखी या तेज करना। २. प्रायः चक्कर के आकार का वह यंत्र जिसमें उक्त पत्थर लगा रहता है और जिसे तेजी से घुमाते हुए औजारों आदि पर सान रखते हैं। पुं० [सं० संज्ञपन] संकेत। इशारा। (पूरब) उदा०—काहु के पान काहु दिन सान।—विद्यापति। पद—सान-गुमान=किसी काम या बात का बहुत ही अल्प रूप में हो सकनेवाला अनुमान या नाम मात्र को हो सकनेवाली कल्पना। जैसे—मुझे तो इस बात का कोई सान-गुमान ही नहीं था कि वह चोर निकलेगा। स्त्री०=शान (ठाट-बाट)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सानंद  : वि० [सं० स+आनंद] जो आनन्द से युक्त हो। जैसे—यहाँ सब लोग सानंद हैं। अव्य० आनंद या प्रसन्नतापूर्वक। जैसे—आप सानंद वहाँ जा सकते हैं। पुं० १. एक प्रकार की संप्रज्ञात समाधि। २. संगीत में, १६ प्रकार के ध्रुवकों में से एक जिसका व्यवहार प्रायः वीर रस के वर्णन में होता है। ३. गुच्छ करंज।
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सानना  : स० [हिं० सानना का स०] १. दो वस्तुओं को आपस में मिलाना विशेषतः चूर्ण आदि का तरल पदार्थ में मिलाकर गीला करना। गूँधना। जैसे—आटा सानना। मसाला सानना। २. मिश्रित करना। मिलाना। ३. लाक्षणिक रूप में, किसी को उत्तरदायी या दोषी हराने के उद्देश्य से कोई ऐसा काम करना या ऐसी बात कहना कि दूसरों की दृष्टि में वह (दूसरा व्यक्ति) भी किसी अपराध या दोष में सम्मिलित जान पड़े। जैसे—आप तो व्यर्थ ही मुझे इस मामले में सानते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) संयों० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। स० [हिं० सान+ना (प्रत्य०)] सान पर चढ़ाकर धार तेज करना। (क्व०)
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सानल  : वि० [सं० तृ० त०] १. अग्नि-युक्त। २. कृतिका नक्षत्र से युक्त।
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साना  : अ० [सं० शांत] १. शांत होना। २. समाप्त होना। न रह जाना। उदा०—कृपा-सिंधु बिलोकिए जन मन की साँसति सान।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० १. शांत करना। २. नष्ट करना। ३. समाप्त करना।
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सानी  : स्त्री० [हिं० सान (ना)+ई (प्रत्य०)] १. गौओं, बैलों, बकरियों आदि को खली-कराई में सानकर दिया जानेवाला भूसा। पद—सानी-पानी=खली-कराई और भूसे को एक में मिलाना। २. अनुपयुक्त रूप से एक में मिलाये हुए कई प्रकार के खाद्य पदार्थ। स्त्री० [?] गाड़ी के पहिये में लगाई जानेवाली गिट्टक। वि० [अ०] १. दूसरा। द्वितीय। जैसे—औरंगजेब सानी। २. जोड़ का। बराबरी का। तुल्य। समान। पद—ल-सानी=अद्वितीय। अतुल्य। स्त्री०=सनई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सानु  : पुं० [सं०] १. पर्वत की चोटी। शिखर। २. छोर। शिरा। ३. समतल भूमि। चौरस मैदान। ४. जंगल। वन। ५. मार्ग। रास्ता। ६. पेड़ का पत्ता। पर्ण। ७. सूर्य। ८. पंडित। विद्वान्। वि० [?] १. लंबा-चौड़ा। चौरस। सपाट।
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सानुकंप  : वि० [सं० ब० स०] जिसके मन में अनुकंपा या दया हो। दयालु। क्रि० वि० अनुकंपा या दया करते हुए।
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सानुकूल  : वि० [सं० तृ० त०] पूरी तरह से अनुकूल।
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सानुज  : पुं० [सं० सानु√जन् (उत्पन्न करना)+ज, तृ० त०] १. प्रपौंड्रीक वृक्ष। पुंडेरी। २. तुंबुरु नामक वृक्ष। अव्य० अनुज सहित। छोटे भाई के साथ।
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सानुनजय  : वि० [सं० तृ० त०] विनयशील। शिष्ट। अव्य० अनुनय या विनयपूर्वक।
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सानुनासिक  : वि० [सं० तृ० त०] १. (अक्षर या वर्ण) जिसके उच्चारण के समय मुँह के अतिरिक्त नाक से अनुस्वारात्मक ध्वनि निकलती हो। २. नकियाकर गाने या बोलनेवाला।
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सानुप्रास  : वि० [सं० अव्य० स०] अनुप्रास से युक्त। अव्य० अनुप्रास सहित।
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सानुमान् (मत्)  : पुं० [सं० सानु+मतुप्] पर्वत।
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सानो  : पुं० [?] सूअर की तरह का एक प्रकार का जंगली जानकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सान्नयासिक  : पुं० [सं० सन्नयास+ठक्—इक]=संन्यासी।
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सान्नाहिक  : पुं० [सं० सन्नाह+ठञ्-इक्] जो सन्नाह पहने हो। कवचधारी।
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सान्निध्य  : पुं० [सं० सन्निध+यज्] १. वह अवस्था जिसमें दो या अधिक जीव या वस्तुएँ साथ-साथ रहती हैं। २. सन्निध्य होने अर्थात् निकट या समीप होने की अवस्था या भाव। निकटता। समीपता। ३. वह स्थिति जिसमें यह माना जाता है कि आत्मा चलकर ईश्वर के पास पहुँच गई है।
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सान्निपातकी  : स्त्री० [सं० सन्निपात+ठञ्—इक—ङीप्] वैद्यक में, एक प्रकार का योनि-रोग जो त्रिदोष से उत्पन्न होता है।
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सान्निपातिक  : वि० [स०] १. सन्निपात-संबंधी। सन्निपात का। २. त्रिदोष के कारण उत्पन्न होनेवाला (रोग)।
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सान्वय  : वि० [सं० अव्य० स०] १. किसी विशिष्ट अर्थ से युक्त। २. वंशपरंपरा से आने या होनेवाला। आनुवंशिक। वंशानुगत। अव्य० परिवार अथवा वंशजों के साथ।
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साँप  : पुं० [सं० सर्प, प्रा० सप्प] [स्त्री० साँपिन] एक प्रसिद्ध रेंगनेवाला जंतु जो काफी लंबा होता है तथा बिलों, पेड़ों आदि में रहता है। विशेष—इनकी हजारों जातियाँ होती हैं, जिनमें से अधिकतर ऐसी होती हैं जिनके काटने से जीव मर जाते हैं। अगजर, नाग आदि जंतु इसी वर्ग के होते हैं। पद—साँप की लहर=पृथ्वी पर का चिन्ह जो साँप के चलने से बनता है। साँप की लहर=साँप के काटने से उसके जहर के कारण शरीर में होनेवाली वह बेहोशी जिसमें आदमी लहरों की तरह छटपटाता रहता है। साँप के मुँह में=बहुत ही जोखिम या साँसत की स्थिति में। मुहा०—साँप की तरह केंचुली झाड़ना या बदलना= (क) पुराना भद्दा-रूप छोड़कर नया सुन्दर रूप धारण करना। (ख) जैसे समय देखना, वैसा रूप बनाना, या वैसा आचरण-व्यवहार करना। साँप खेलाना=मंत्र बल से या और किसी प्रकार साँप को पकड़ना और उससे क्रीड़ा करना। सांप-छछूँदर की दशा होना=ऐसी विकट स्त्रिति में पड़ना कि दोनों ओर घोर संकट की संभावना हो। विशेष—लोक में ऐसा प्रवाद है कि साँप यदि छछूँदर को एक बार मुँह में पकड़ ले तो उसके लिए छछूंदर को छोड़ना भी घातक होता है और निगलना भी, क्योंकि उसे उगलने पर वह अंधा हो जाता है और निगलने पर कोढ़ी हो जाता है। मुहा०—(किसी को) साँप सूँघ जाना= (क) साँप का काट लेना जिससे आदमी प्रायः मर जाता है। (ख) किसी का इस प्रकार बेसुध होकर पड़ जाना कि मानों उसे सांप ने काट लिया हो और वह बेहोश होकर मरणासन्न हो रहा हो। (किसी के) कलेजे पर साँप लोटना=ईर्ष्याजन्य घोर कष्ट होना। अत्यन्त दुःख होना। २. आतिशबाजी में वह दाना जो जलाये जाने पर साँप की तरह लंबा होता जाता है। ३. वह व्यक्ति जो समय का लाभ उठाकर विश्वासघात करने से भी न चूकता हो।
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साप  : पुं०=शाप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साँप-धरन  : पुं० [हिं० साँप+धरना] सर्पधारण करनेवाले, शिव। महादेव।
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साँपड़ना  : अ० [सं० संप्रापण] प्राप्त होना। मिलना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)अ० [सं० संपूर्ण] काम पूरा करके निवृत्त होना। सपरना। उदा०—साँपड़ किया असनान सूरज सारी जप कर।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांपत्तिक  : वि० [सं०] संपत्ति से संबंध रखनेवाला। संपत्ति का। जैसे—सांपत्तिक व्यवस्था।
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सापत्नेय  : वि० [सं० सपत्नि+ठक्—एय] सपत्नी से उत्पन्न। सौतेला।
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सापत्न्य  : पुं० [सं० सपत्न+ष्यञ्] १. सपत्नी होने की अवस्था, धर्म या भाव। सौतपन। २. सपत्नियों में होनेवाली द्वेष-भावना, लाग-डाँट या स्पर्धा। ३. सपत्नी या सौत का लड़का। ४. दुश्मन शत्रु।
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सापत्न्यक  : पुं० [सं० सापत्न्य+कन्] १. सपत्नियों में होनेवाली प्रतिद्वंद्विता या लाग-डाँट का भाव। २. शत्रुता।
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सापत्य  : वि० [सं०] १. जिसके आगे संतान हो। २. जो अपनी संतान के साथ हो।
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सांपद  : वि० [सं० साम्पद] संपदा-सम्बन्धी। संपदा का।
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सापन  : पुं० [?] सिर के बाल के झगड़ने का एक रोग।
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सापना  : स० [सं० शाप, हिं० साप+ना (प्रत्य०)] १. शाप देना। कोसना। उदा०—सापत ताड़क परुष कहन्ता।—कबीर। २. गालियाँ देना। दुर्वचन कहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सापल  : वि० [सं० सपल+अण्] १. सपत्नी या सौत सम्बन्धी। २. सौत से उत्पन्न। सौतेला। पुं० सौत के लड़के-बाले। सौत की सन्तान।
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सापवाद  : वि० [सं०] (नियम या सिद्धान्त) जिसके अपवाद भी हों।
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सापह्नवातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, अतिश्योक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें रूपकातिशयोक्ति के साथ अपह्रति भी मिली रहती है। इसे कुछ लोग रूपकातिशयोक्ति के अंतर्गत और कुछ लोग परिसंख्या के अंतर्गत भी मानते हैं।
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सांपातिक  : वि० [सं० संपात+ठञ्—इक] १. संपात-संबंधी। संपात का। २. संपात काल में होने अथवा संपात काल से संबंध रखनेवाला। (ज्योतिष)
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सापिंड्य  : पुं० [सं० सपिंड+ष्यज्] सपिंड होने की अवस्था या भाव। वे लोग जो किसी एक ही पितर को पिंड-दान करते हों।
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साँपिन  : स्त्री० [हिं० साँप+इन (प्रत्य०)] १. साँप की मादा। २. साँप के आकार की एक प्रकार की भौंरी या शारीरिक चिन्ह जो सामुद्रिक के अनुसार बहुत शुभ माना जाता है। ३. बहुत अधिक दुष्ट या विश्वासधातिनी स्त्री०।
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साँपिया  : वि० [हिं० साँप+इया (प्रत्य०)] साँप के रंग का मैलापन लिये काले रंग का। पुं० उक्त प्रकार का काला रंग।
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सापुरस  : पुं० [सं० स+पुरुष] शूरवीर। उदा०—सिंह सीचाणो सापुरस।—जटमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सापेक्ष  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का आक्षेप या आपत्ति की जा सकती हो। २. आक्षेप ताने या व्यंग्य से युक्त (कथन)। क्रि० वि० आक्षेपपूर्वक।
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सापेक्ष  : वि० [सं०] [भाव० सापेक्षता] १. जो किसी दूसरे तत्त्व, विचार, दृष्टिकोण आदि से संबद्ध होने के कारण उसकी उपेक्षा रखता हो। बिना किसी दूसरे संबद्ध अंग को ठीक या पूरा न होनेवाला। (रिलेटिव) २. किसी की अपेक्षा करनेवाला।
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सापेक्षता  : स्त्री० [सं०] १. सापेक्ष होने की अवस्था या भाव। २. सुप्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक आइन्स्टीन का सिद्धान्त जिसमें विश्व-संबंधी पुराने गुरुत्वाकर्षण आदि के सिद्धान्तों का खंडन करके यह सिद्ध किया गया है कि विश्व की सारी गति सापेक्ष है। (रिलेटिविटी)
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सापेक्षवाद  : पुं० [सं०] पुं० [सं०] १. वह वाद या सिद्धान्त जिसमें दो बातों या वस्तुओं को एक दूसरी का अपेक्षक माना जाता है। २. दे० ‘सापेक्षता’।
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सापेक्षवादी  : वि० [सं०] सापेक्षवाद-संबंधी। पुं० सापेक्षवाद के सिद्धांतों का अनुयायी या समर्थक।
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सांपेक्षिक  : वि० [सं० संक्षेप+ठञ्—इक] १. संक्षिप्त। २. संकुचित।
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सापेक्षिक  : वि० [सं०]=सापेक्ष।
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साप्ततंतव  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन धार्मिक संप्रदाय।
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साप्तपदीन  : वि० [पुं० सं० सप्तपद-खज्—ईन]=साप्तपद।
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साप्तप्रद  : वि० [सं० सप्तपद+अण्] सप्तपदी-संबंधी। पुं० १. सप्तपदी। २. मैत्री। ३. घनिष्ठता।
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साप्तमिक  : वि० [सं० संप्तमी+ठक्—इक] सप्तमी-संबंधी। सप्तमी का।
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साप्तहिक  : वि० [सं० सप्ताह+ठञ्-इक] १. सप्ताह-संबंधी। २. सातस दिनों तक लगातार चलनेवाला। जैसे—साप्तहिक समारोह। ३. सप्ताह में एक बार होनेवाला। हर सातवें दिन होनेवाला। जैसे—साप्ताहिक पत्र। साप्ताहिक छुट्टी। पुं० वह पत्र जिसका प्रकाशन हर सातवें दिन होता हो।
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सांप्रत  : अव्य० [सं० साम्प्रत] १. इसी समय। अभी। तत्काल। २. इस समय। आज-कल। ३. उचित। उपयुक्त। ४. सामयिक। वि० किसी के साथ मिला हुआ। युक्त।
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सांप्रतिक  : वि० [सं०] १. जो इस समय या आवश्यकता को देखते हुए ठीक और उपयुक्त हो।
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सांप्रदायिक  : वि० [सं०] [भाव० सांप्रदायिकता] १. संप्रदाय-संबंधी। संप्रदाय का। २. किसी विशिष्ट संप्रदाय से ही संबद्ध रहकर शेष संप्रदायों का विरोध करने या उनसे द्वेष रखनेवाला। ३. विभिन्न संप्रदायों के पारस्परिक विरोध के फलस्वरूप होनेवाला। (कम्यूनल; उक्त सभी अर्थों में)
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सांप्रदायिकता  : स्त्री० [सं०] १. सांप्रदायिक होने का भाव। २. केवल अपने संप्रदाय की श्रेष्ठता और हितों का विशेष ध्यान रकना और दूसरे संप्रदायों के द्वेष रखना। (कम्यूनलिज़्म)
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साफ  : वि० [अ० साफ़] [भाव० सफाई] १. जिस पर या जिसमें कुछ भी धूल, मैल आदि न हो। निर्मल। ‘गंदा’ या ‘मैला’ का विपर्याय। जैसे—साफ कपड़ा, साफ पानी, साफ शीशा। २. जो दोष, विकार आदि से रहित हो। जैसे—साफ तबियत, साफ दिल, साफ हवा। ३. जिसमें किसी प्रकार का खोट या मिलावट न हो। खालिश। जैसे—साफ दूध, साफ सोना। ४. जिसका तल ऊबड़-खाबड़, गाँठदार या शाखा-प्रशाखाओं से युक्त न हो। समतल। जैसे—साफ रास्ता, साफ लकड़ी। ५. जिसकी बनावट।, रचना, रूप आदि में कोई त्रुटि या दोष न हो। जैसे—साफ तसवीर, साफ लिखावट। ६. जिसमें किसी प्रकार का छल, कपट या धोखा-धड़ी न हो। नैतिक दृष्टि से बिलकुल ठीक और छल, कपट या धोखा-धड़ी न हो। नैतिक दृष्टि से बिलकुल ठीक और शुद्ध। जैसे—साफ बरताव, साफ मामला, साफ लेन-देन। ७. जो इतना स्पष्ट हो कि उसके संबंध में किसी प्रकार का भ्रम या संदेह न रह गया हो। जैसे—अभी बात साफ नहीं हुई। ८. जिसमें किसी प्रकार का अंधकार या धुँधलापन न हो। देखने में निर्मल और स्वच्छ। जैसे—साफ आसमान, साफ रोशनी। ९. (कार्य) जिसके सम्पादन में अनुचित या नियम-विरुद्ध बात न हो। जैसे—साफ खेल, साफ लेन-देन। १॰. (उक्ति या कथन) जिसमें किसी प्रकार का छिपाव या दुराव न हो। निश्चल और स्पष्ट रूप से कहा हुआ। जैसे—साफ इन्कार, साफ जवाब। पद—साफ और सीधा= (क) स्पष्ट और बाधाहीन। (ख) स्पष्ट और उपयुक्त। मुहा०—साफ साफ सुनाना=बिलकुल स्पष्ट और ठीक बात कहना। खरी बात कहना। ११. जो स्पष्ट सुनाई पड़े या समझ में आवे। जिसके समझने या सुनने में कोई कठिनाई न हो। जैसे—साफ आवाज, साफ खबर, साफ प्रतिलिपि। १२. जिसके तल पर कुछ भी अंकित न हो। जैसे—साफ कागज। १३. जिसमें कुछ भी तत्त्व या दम न रह गया हो। जैसे—(क) मुकदमे में उन्हें पूरी तरह से साफ कर दिया। (ख) हैजे में गाँव के गाँव साफ हो गये। १४. जिसका पूरी तरह से अंत कर दिया गया हो। समाप्त किया हुआ। जैसे—(क) इस लड़ाई में दोनों तरफ की बहुत सी फौज साफ हो गई। (ख) कुछ ही दिनों मे उसने घर का सारा माल साफ कर दिया। १५. (ऋण या देन) जो पूरी तरह से चुका दिया गया हो। चुकता किया हुआ। जैसे—जब तक कर्ज साफ न कर लो, तब तक कुछ भी फजूल खरच मत करो। १६. जो अनावश्यक या रद्दी अंश निकालकर ठीक और काम में आने लायक कर दिया गया हो। जैसे—दस्तावेज का मसौदा साफ करना। अव्य० १. निश्चित और स्पष्ट रूप से। पूरी तरह से। जैसे—यह साफ जाहिर है कि किताब आप ही ले गये हैं। २. इस प्रकार कि किसी को कुछ पता न चल सके या कोई कुछ भी बाधक न हो सके। जैसे—कहीं से कोई चीज़ साफ उड़ा ले जाना। ३. इस प्रकार कि कुछ भी आँच न आने पाए। बिना कुछ भी कष्ट भागों या हानि सहे। जैसे—किसी संकट से साफ बच निकलना। ४. बिना लांछित हुए। निर्दोष भाव या रूप से। जैसे—किसी मुकदमे से साफ छूटना। ५. निरा। बिलकुल। जैसे—यह तो साफ झूठ या (बेईमानी) है।
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साफल्य  : पुं० [सं० सफल+ष्यञ्] १. सफल होने की अवस्था या भाव। सफलता। २. कृतकार्यता। ३. प्राप्ति। लाभ।
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साफा  : पुं० [अ० साफ़] १. सिर पर बाँधने की पगड़ी। मुरेठा। मुड़ासा। २. पहनने के कपड़ों आदि में साबुन लगाकर उन्हें साफ करने की क्रिया। क्रि० प्र०—देना-लगाना। पद—साफा-पानी=नगर के बाहर कहीं एकान्त में बाहर जाकर भाँग पीने और कपड़ों में साबुन लगाकर उन्हें साफ करने की क्रिया। ३. शिकारी जानवरों को शिकार करने के लिए या कबूतरों को दूर तक उड़ने के लिए तैयार करने के उद्देश्य से उन्हें उपवास कराना कि उनका पेट साफ हो जाय और शरीर भारी न रहे। क्रि० प्र०—देना।
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साफी  : स्त्री० [अ० साफ़] १. हाथ में रखने का रूमाल। दस्ती। २. वह कपड़ा जिसमें पीसी और घोली हुई भाँग छानते हैं। ३. चिलम के नीचे लपेटा जानेवाला कपड़ा। ४. कपडे का वह टुकड़ा जिसकी सहायता से चूल्हें पर से बरतन उतारा जाता है। ५. एक प्रकार का रंदा। वि० १. साफ करनेवाला। २. खून साफ करनेवाला (औषध)।
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सांब  : पुं० [सं० साम्ब] १. अम्बा अर्थात् पार्वती सहित शिव। २. कृष्ण के एक पुत्र जो जाम्बवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
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साबड़  : पुं० साबर (चमड़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबत  : पुं० [सं० सामंत] सामंत। सरदार। (डिं०) वि०=साबुत (समूचा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबति  : स्त्री० [अ० साबूत=पूरा] साबुत या पूरे होने की अवस्था या भाव। पूर्णता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० दे० ‘साबुत’।
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सांबंधिक  : वि० [सं० संबंध+ठक्—इक] संबंध का। संबंधी। पुं० किसी की पत्नी का भाई। साला।
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सांबपुर  : पुं० [सं साम्बीपुर] पाकिस्तान के मुलतान नगर का प्राचीन नाम।
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सांबपुराण  : पुं० [सं०] एक उपपुराण का नाम।
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साँबर  : पुं०=संबल (राह-खर्च)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सांबर  : पुं० [सं०] १. साँभर (हिरण)। २. साँभर (नमक)।
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साबर  : पुं० [सं० शंबर] १. साँभर मृग का चमड़ा, जो बहुत मुलायम होता है। २. शबर नामक जाति। ३. थूहड़। ४. मिट्टी खोदने की सबरी। ५. एक प्रकार का सिद्ध मंत्र, जो शिवकृत माना जाता है। स्त्री० साँभर (झील)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँबरी  : स्त्री० [सं० सांबर-ङीष्] १. सब को धोखे में रखनेवाली माया। २. इन्द्रजाल। जादूगरी।
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साबल  : पुं० [सं० शबर] बरछी। भाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबस  : पुं०=शाबास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबिक  : वि० [अ० साबिक़] पूर्व का। पहले का। पुराने समय का। पद—साबिक दस्तूर=ठीक पहले जैसा। वैसा ही।
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साबिका  : पुं० [अ० साबिक़] १. जान-पहचान। मुलाकात। २. लेन-देन आदि का व्यवहार या व्यावहारिक सम्बन्ध। सरोकार। वास्ता। मुहा०—किसी से साबिका पड़ना=ऐसी स्थिति आना कि लेन-देन, व्यवहार या और किसी प्रकार का निकट का सम्बन्ध हो।
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साबित  : वि० [फा०] १. सबूत (अर्थात् प्रमाण) द्वारा सिद्ध किया हुआ (तथ्य)। २. दृढ़। पक्का। पुं० वह नक्षत्र, तारा आदि जो एक स्थान पर स्थिर रहता हो। वि०=साबुत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबिर  : वि० [अ०] १. सब्र करनेवाला। २. सहन करनेवाला। सहनशील।
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साबुत  : वि० [फा० सबूत] १. जो संपूर्ण इकाई के रूप में हो। जैसे—साबुत आम, साबुत रोटी। २. समूचा। सारा। ३. ठीक। दुरुस्त। जैसे—काम साबुत उतरना। पुं०=सबूत (प्रमाण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=साबित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबुन  : पुं० [अ०] तेल, सोड़े आदि के योग से रासायनिक क्रिया से प्रस्तुत किया हुआ एक प्रसिद्ध पदार्थ, जिससे शरीर के अंग और कपड़े आदि साफ किये जाते हैं। विशेष—साधारणतः यह छोटी वटी के रूप में बनता है। परन्तु आज-कल चूर्ण के रूप में और तरल के रूप में भी साबुन बनने लगे हैं।
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साबूदाना  : पुं० दे० ‘सागूदाना’।
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साबून  : पुं०=साबुन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साभ-परिषद्  : स्त्री० [सं०] १. बहुत से लोगो का एकत्र होकर सहित्य, राजनीति आदि से संबंध रखने वाले किसी विषय पर विचार करना। २. उक्त कार्य के लिए बनी हुई परिषद या सभा। ३. राज-भवन।
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साँभर  : पुं० [सं० सम्भल या साम्भल] १. राजस्थान की एक झील जिसके खारे पानी से नमक बनाया जाता है। २. उक्त झील के पानी से बनाया हुआ नमक जिसे साँभर कहते हैं। ३. एक प्रकार का बड़ा बारहसिंघा। पुं०=संवल (पाथेय)।
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साँभलना  : स० [सं० स्मृत] १. स्मरण करना। २. सुनना। उदा०—साँभल्याँ रास गंगा-फल होइ।—नरपतिनाल्ह। अ०=सँभलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साभा  : वि० [सं० स+आभा] १. आभा से युक्त। २. चमकदार। चमकीला।
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साभिक  : पुं० [सं०] वह जो लोगो को अपने यहाँ बैठाकर जुआँ खिलाता हो। जुएखाने का मालिक।
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साभिप्राय  : वि० [सं० तृ० त०] १. अभिप्राय से युक्त। २. विशे। अर्थ-युक्त। ३. जिसका कोई विशिष्ट प्रयोजन या हेतु हो। अव्य० किसी प्रकार का अभिप्राय अर्थात् आशय या उद्देश्य सामने रखते हुए।
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साभिमान  : वि० [सं० तृ० त०] गर्वीला। घमंडी। अव्य० अभिमान या घमंड से। अभिमानपूर्वक।
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साम  : पुं० [सं० सामन] १. बारतीय आर्यों के वे वेदमंत्र जो प्राचीन काल में यज्ञ आदि के समय गाए जाते थे। (दे० ‘सामवेद’) २. प्राचीन भारतीय राजनीति में, चार प्रकार के उपायों में से पहला उपाय जिसमें विरोधी या वैरी से मीठी-मीठी बातें करके अपनी ओर मिलाने अथवा संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता था। विशेषः शेष तीन उपाय, दम, दंड और भेद कहलाते हैं। स्त्री० १. मीठी-मीठी बातें करना। मधुर भाषण। २. दोस्ती। मित्रता। ३. मित्रता या स्नेह के कारण प्राप्त होने वाली कृपा। उदा०—अवर न पाइये गुरु की साम।—कबीर। पुं० [यू० सेम० इब्रा० शेम] [वि० सामी] पुरातत्व के क्षेत्र में गक्षिणी-पश्चिमी एशिया और उतत्र पूर्वी अफ्रीका के उन क्षेत्रों के सामुहिक नाम, जिनमें अरब, एसीरिया (या असुरिया), फिनीशिया, बैबिलोन आदि प्रदेश पड़ते हैं। विशेषः इन देशों के प्राचीन निवासी एक विशिष्ट जाति के थे, जिन्हे आज कल सामी करते हैं और इनकी भाषा भी सामी कहलाती थी। दे० ‘‘सामी’’(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)। वि०, पुं०=श्याम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १. स्वामी। २. सामान। उदाः वाल्मीकि अजामिल के कठु हुतो न साधन सामी।—तुलसी। पुं०=श्याम देश। स्त्री० १. शाम (संध्या)। २. सामी (छड़ी या डंडे की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साम-गान  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार प्रकार का साम नामक वेद मंत्र। २. दे० ‘सामग’।
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साम-नारायणी  : स्त्री० [सं०] संगीत मे कर्नाटकी पद्धतिकी एक रागिनी।
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साम-रस  : पुं० [सं० श्यान+शर ?] एक प्रकार का गन्ना जो डुमराँव (बिहार) में होता है।
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साम-विप्र  : पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो अपने सब कर्म सामदेव के विधानानुसार करता हो।
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साम-वेद  : पुं० [सं० सामन्-मध्य० स०] भारतीय आर्यों के चार वेदों में से प्रसिद्ध तीसरा वेद जिसमें साम (देखें) नामक वेद मंत्रो का संग्रह है।
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साम-साली  : पुं० [सं० साम+शाली] राजनीति के साम, दाम, दंड और भेद नामक अंगो को जानने वाला राजनीतिज्ञ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामक  : वि० [सं०] सामवेद संबंधी। पुं० १. वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो। २. वह मूल धन जो ऋण स्वरूप लिया या दिया गया हो। कर्ज का असल रुपया। ३. सान रखने का पत्थर पुं०=श्यामक (साँवाँ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामकारी  : वि० [सं० सामकारिन्-साम√कृ (करना)+ण्नि] जो मीठए वचन कहकर किसी को ढारस देता हो। सांत्वना देने वाला। पुं० एक प्रकार का सामगान।
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सामग  : पुं० [सं० साम्√गम् (जाना)+ड=गै (शब्द करना)+टक्] [स्त्री० सामगी] १. वह जो साम वेद का अच्छा ज्ञाता हो, और अनेक मंत्र ठीक तरह से गा या पढ़ सकता हो। २. विष्णु का एक नाम।
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सामग्री  : स्त्री० [सं० समग्र+ण्यञ्-ङीष् यलोप] १. वे चीजें जिनका सामूहिक रूप से किसी काम में उपयोग होता है। जैसे—लेखन-सामग्री, यज्ञ सामग्री। २. किसी उत्पादन निर्माण, रचना आदि के सहायक अंग या तत्व। सामान। ३. साधन। ४. घर ग्रहस्थी की चीजें। विशेषः इसका प्रयोग सदा एक वचन में होता है।
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सामज  : वि० [सं० साम√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जो सामवेद से उत्पन्न हुआ हो। पुं० हाथी जिसकी उत्पत्ति समगान से मानी गई है।
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सामंजस्य  : पुं० [सं०] १. समंजस होने की अवस्था या भाव। २. उपयुक्तता। ३. औचित्य। ३. अनुकूलता। ५. वह स्थिति परस्पर किसी प्रकार की विपरीतता या विषमता न हो।
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सामंत  : वि० [सं०] सीमा पर या पड़ोस में रहने वाला पुं० १. पड़ोसी। २. राजा के आधीन रहने वाला बड़ा सरदार। ३. प्रजावर्ग का श्रेष्ठ व्यक्ति। ४. वीर। योद्धा। ५. पड़ोस। ६. निकटता। समीपता। ७. संगीत में कर्णाटकी पद्धति का एक राग।
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सामत  : पुं० दे० सामंत। स्त्री०=‘शामत’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामंत-तंत्र  : पुं० [सं०] आधुनिक राजनीति में आर्थिक राजनीति और सामाजिक आदि क्षेत्रों की वह व्यवस्था, जिसमें अधिकतर अधिकार बड़े-बड़े सामंतो या सरदारों के हाथ में रहते हैं। (फ्यूडल सिस्टम)
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सामंत-प्रणाली  : स्त्री०=सामंत-तंत्र।
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सामंत-प्रथा  : स्त्री० [सं०]=सामंत-तंत्र।
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सामंत-भारती  : पुं० [सं०] संगीत में, मल्लार और सारंग के मेल से बना हुआ एक प्रकार का संकर राग।
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सामंत-सारंग  : पुं० [सं० मध्यम० स०] संगीत में एक प्रकार का सारंग राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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सामंतवाद  : पुं० [सं०] यह सिद्धांत कि राजनीति और सामाजिक आदि क्षेत्रों में सामंत-तंत्र ही अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। (फ़्यूडलिज़्म)
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सामंतशाही  : स्त्री०=सामंत-तंत्र।
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सामंतिक  : वि० [सं०] १. सामंत-संबंधी। सामंत का। २. सामंतो प्रणाली से संबंध रखने वाला। सामंती (फ़्यूडल)।
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सामंती  : स्त्री० [सं० सामंत—ङीप्] संगीत मे एक प्रकार का रागिनी, जो मेघराज की पत्नी मानी जाती है। स्त्री [हिं० सामंत] सामंत होने की अवस्था या भाव। वि०=सामंतिक।
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सामंतेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. सामंतो की मुखिया। २. चक्रवर्ती सम्राट। शहंशाह।
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सामत्रय  : पुं० [सं० ष० त०] हर्रे, सोंठ और गिलोथ तीनो का समूह।
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सामत्व  : पुं० [सं० सामन्+त्व] साम का धर्म या भव। सामता।
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सामध  : स्त्री० [हिं० समधी] विवाह के समय समधियों के आपस में मिलने की रसम। मिलनी।
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सामधी  : पुं० [दे० ‘समधी’।
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सामन  : पुं०=सावन (महीना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [अं० सैल्मन] एक विशेष प्रकार का ऐसी मछलियों का वर्ग जिनका माँस पाश्चात्य देशों में बहुत चाव से खाया जाता है। (सैल्मन)
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सामना  : पुं० [हिं० सामने, पुं० हिं० सामुहें] १. किसी के समझ होने की अवस्था, क्रिया या भाव। पद-सामने का= (क) जो किसी के देखते हुआ हो। जो किसी की उपस्थिति में हुआ हो। जैसे—यह तो तुम्हारे सामने का लड़का है। (ख) किसी की वर्तमानता मे। जैसे—यह तो हमारे सामने की घटना है। २. भेट। मुलाकात। जैसे—जब उनसे सामना हो तब पूछना। ३. किसी पदार्थ का अगला भाग। आगे की ओर का हिस्सा। आगा। जैसे—उस मकान का सामना तालाब की ओर पड़ता है। ४. किसी के विरुद्ध या विपक्ष में खड़े होने की अवस्था, क्रिया या भाव। मुकाबला। जैसे—(क) वह किसी बात में आपका सामना नही कर सकता। (ख) युद्ध क्षेत्र में दोनों दलो का सामना हुआ। मुहा—(किसी का) सामना करना=सामने होकर जवाब देना। घृष्टता या गुस्ताखी करना। जैसे—जरा सा लड़का अभी से सबका सामना करता है। ५. प्रतियोगिता। लाग-डाँट। होड़। जैसे—आज अखाड़े में दोने पहलवानों का सामना होगा।
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सामनी  : स्त्री० [सं०] पशुओं को बाँधने की रस्सी। वि०, स्त्री० सावनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामने  : अव्य-[हिं० सामना] १. उपस्थिति में। आगे। समक्ष। जैसे—बड़ो के सामने ऐसी बात नही कहनी चाहिए। मुहा—(किसी के) सामने करना, रखना या लाना=किसी के समक्ष उपस्थित करना। आगे करना, रखना या लाना। (स्त्रियों का किसी के) सामने होना=परदा न करके समझ आना। जैसे—उनके घर की स्त्रियाँ किसी के सामने नहीं होती। २. किसी के वर्तमान रहते हुए। जैसे—इस किताब के समने उसे कौन पूछेगा ? ३. जिस ओर मुँह हो सीधे उसी ओर। जैसे—सामने चले जाओ, थोड़ी दूर पर उनका मकान है। ४. मुकाबले में। विरुद्ध। जैसे वह तुम्हारे सामने नहीं ठहर सकता। मुहा—(किसी को किसी के) सामने करना या लाना=प्रतियोगी विपक्षी आदि के रूप में खड़ा करना। मुकाबले के लिए खड़ा करना। जैसे—वे तो आड़ में बैठे रहे, और मुकदमा लड़ने के लिए लड़के को सामने कर दिया।
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सामयिक  : वि० [सं०] [भाव० सामयिकता] १. समय अर्थात परिपाटी के अनुसार होने वाला। २. अनुबंध के अनुसार या अनुरूप होने वाला। ३. ठीक समय पर होने वाला। ४. प्रस्तुत या वर्तनाम समय का। जैसा—सामयिक पत्र।
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सामयिक-पत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. भारतीय धर्मशास्त्र में वह इकरार नामा या दस्तावेज जिसमें बहुत से लोग अपना-अपना धन लगाकर किसी मुकदमें की पैरवी के लिए आपस में पढ़ा-लिखी करते थे। २. आज-कल नियत समय पर बराबर निकलता रहने वाला कोई पत्र या प्रकाशन। (पीरियॉडिकल)
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सामयिकता  : स्त्री० [सं०] १. सामयिक होने का भाव। २. वर्तमान समय, परिस्थिति आदि के विचार से उपयुक्त दृष्टि कोण या अवस्था।
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सामयिकी  : स्त्री० [सं० सामयिक] १. सामनिक होने की अवस्था या भाव। २. सामयिक बातों से संबंध रखने वाली चर्चा या विवेचन।
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सामयोनि  : पुं० [सं० ब० स०] १. ब्रह्मा। २. हाथी।
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सामर  : वि० [सं० समर+अण्] समर-सबंधी। समर का। युद्ध का। पुं०=समर (युद्ध)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामरथ  : स्त्री०=सामर्थ्य। वि०=समर्थ।
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सामरा  : वि०, पुं० [स्त्री० सामरी]=साँवला। उदा—तहु दुहु सुललित नतरा सामरा।—विद्यापति।
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सामराधिप  : पुं० [सं० ष० त०] सेनापति।
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सामरिक  : वि० [सं० सभर+ठक-इक] [भाव० सामरिकता] समर संबंधी। युद्ध का। जैसे—सामरिक लज्जा।
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सामरिकता  : स्त्री० [सं० सामरिक+तल-टाप्] १. सामरिक होने की अवस्था, गुण या भाव। (मिलिटरिज्म) २. युद्ध। लड़ाई। समर।
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सामरिकवाद  : पुं० [सं० कर्म० स०] यह मत या सिद्धांत कि राष्ट्र को सदा सैनिक दृष्टि से शसक्त रहना चाहिए। और अपने हितों की रक्षा युद्ध या समर की सहायता से करना चाहिए। (मिलिटरिज़्म)
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सामरेय  : वि० [सं० समर+ढक्-एथ] समर-संबंधिक। सामरिक।
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सामर्थ  : पुं० दे० सामर्थ्य।
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सामर्थी  : वि० [सं० सामर्थ्य+इ (प्रत्य०)] १. सामर्थ्य रखने वाला। जिसमें सामर्थ्य हो। २. कोई कार्य करने में समर्थ। ३. ताकतवर। बलवान्।
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सामर्थ्य  : पुं० [सं०] १. समर्थ होने की अवस्था या भाव। २. कोई कार्य संपादित करने की योग्यता और शक्ति। (कैपेलिटी) ३. साहित्य में, शब्द की व्यंजन शक्ति। शब्द की वह शक्ति जिससे वह भाव प्रकट करता है। ४. व्याकरण में शब्दों का पारस्परिक संबंध। (भूल से स्त्री में प्रयुक्त)।
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सामल  : वि०=श्यामल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामवायिक  : वि० [सं० समवाय+ठञ्-इक] १. समनवाय संबंधी। २. समूह संबंधी। पुं० मंत्री।
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सामवायिक राज्य  : पुं० [सं० समनवाय+ठक-इक राज्य, कर्म० स०] प्राचीन भारतीय राजनीति में वे राज्य जो किसी युद्ध के निमित्त मिलकर एक हो जाते थे।
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सामविद्  : पुं० [सं० साम√विद् (जानना)+क्विप] वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो।
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सामवेदिक, सामवेदीय  : वि० [सं] सामवेद संबंधी। पुं० सामवेद का अनुयायी ब्राह्मण।
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सामस्त्य  : पुं० [सं० समस्त+ष्यञ्]=समस्तता।
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सामहिं  : अव्य० [सं० सम्मुख] सामने। सम्मुख। समक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामाँ  : पुं० १. =सामान। २. साँवा। स्त्री०=श्यामा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामाजिक  : वि० [सं० समाज+ठक्-क] १. प्राचीन भारत में ‘सभा’ नामक संस्था से संबंध रखने वाला। २. आज-कल समाज विशेष जन-समाज से संबंध रखने वाला। समाज का। जैसे—सामाजिक व्यवहार, सामाजिक सुधार। ३. सामाजिक संबंधो के फलस्वरूप होने वाला। जैसे—सामाजिक रोग। पुं० १. प्राचीन भारत में वह सभा नामक संस्था का सदस्य होता था। २. वह जो जीविका निर्वाह या धनोपार्जन के लिए समाज (समज्या अर्थात तरह-तरह के खेल तमाशों की व्यवस्था करता था। ३. वे लेग जे उक्त प्रकार के खेल तमाशे देखने के लिए एकत्र होते थे। ४. साहित्यिक क्षेत्र में, वह जो काव्य संगीत आदि का अच्छा मर्मज्ञ हो। रसिक। सहृदय।
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सामाजिकता  : स्त्री० [सं० सामाजिक+तल्-टाप्] १. सामाजिक होने का अवस्था या भाव। लौकिकता। २. मनुष्य में समाज शील बनने की होने वाली वृत्ति।
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सामान  : पुं० [फा०] १. किसी कार्य के लिए साधन स्वरूप आवश्यक और उपयुक्त वस्तुएँ। उपकरण। सामग्री। जैसे—लड़ई का सामान, सफर का सामान। २. घर-गृहस्थी की उपयोगिता की चीजें। असबाब। जैसे—चोर घर का सारा सामान उठा ले गये। ३. उपकरण। औजार। जैसे—बढई या लोहर का सामान। विशेषः सामग्री की तरह सदा एक वचन में प्रयुक्त। ४. इन्तजाम। प्रबंध। व्यवस्था।
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सामानिक  : वि० [सं० समान+ठञ-इक] पद, योग्यता आदि के विचार से किसी के समान।
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सामान्य  : वि० [सं०] [भाव० सामान्यता] १. जिसमें कोई विशेषतः न हो। मामूली। २. सब या बहुतों से संबंध रखने वाला। ३. प्रायः सभी व्यक्तियों, अवसरों अवस्थाओं आदि में पाया जाने वाला या उनसे संबंध रखने वाला। सार्वजनिक। आम। (जनरल, उक्त दोनों अर्थों के लिए) ४. जो अपनी संगति या साधारण अवस्था, स्थिति आदि में ही हो, विशेष घटा-बढ़ा या इधर-उधर हटा हुआ न हो। प्रसम। (नार्मल) पुं० १. समान होने की अवस्था, गुण या भाव। समानता। बराबरी। २. वैशेषिक दर्शन में वह गुण या धर्म जो किसी जाति के सब प्राणियों या किसी प्रकार की सब वस्तुओं में समान रूप से पाया जाता हो। जाति-साधर्म्य। जैसै०—मनुष्यों में मनुष्यत्व सामान्य और पशुओं में पशुत्व। विशेष—वैशेषिक में ६ पदार्थों में से एक माना गया है और इसी को ‘जाति’ भी कहा गया है। ३. एक प्रकार का लोक न्याय मूलक अलंकार जिसमें उपमान और उपमेय अथवा प्रस्तुत और अप्रस्तुत का स्वरूप प्रथक होने पर भी दोनो में घुणों, धर्मों आदि के बिलकुल समान या एक होने का उल्लेख रहता है। जैसे—यह कहना कि चाँदनी रात में अटारी पर खड़ी ङुई नायिका और चंद्रमा में इतनी समानता है कि यह पता ही नही चलता कि मुख कौन है और चंद्रमा कौन ? ४. दे० ‘मध्यक’।
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सामान्य छल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] न्याय शास्त्र में एक प्रकार का छल जिसमें संभावित अर्थ के स्थान में जाति सामान्य अर्थ के योग से असंभूत अर्थ की कल्पना की जाती है।
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सामान्य बुद्धि  : स्त्री० [सं०] प्रायः सब प्रकार के जीवों में पाई जानेवाली वह सामान्य या सहज बुद्धि जिससे वे साधारण बातें बिना किसी प्रयत्न के या आप से आप समझ लेते हैं। (कॉमन सेन्स)।
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सामान्य भविष्यत्  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में भविष्यत् काल का एक भेद, जिससे यह ज्ञात होता है कि अमुक बात आगे चलकर होगी, अथवा आगे चलकर अमुक व्यक्ति कोई क्रिया करेगा। धातु में ‘एगा’ ‘ऊँचा’ लगाकर इस काल के क्रिया पद बनाये जाते हैं। जैसा—जाएगा, खाएगा, हंसेगा खेलूँगा। इनमें उद्देश्य के लिंग वचन के अनुसार परिवर्तन होता है।
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सामान्य-निबंधना  : स्त्री० [सं०] साहित्य में अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत के लिए किसी अप्रस्तुत सामान्य का कथन होता है।
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सामान्य-भूत  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में भूतकालिक क्रिया का एक भेद में आ या या प्रत्यय जोड़कर सामान्य भूत काल का क्रिया पद बनाते हैं। जैसा—उठा हँसा। नाचा, आया, लाया नहाया आदि।
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सामान्य-लक्षण  : पुं० [सं०] तर्क में एक ही जाति या प्रकार के सब जीवों या पदार्थों में समान रूप से पाया जानेवाला वह लक्षण या वे लक्षण जिनके आधार पर उस जाति या प्रकार के सब जीवों या पदार्थों की पहचान होती है। जैसा—किसी घोड़े के सामान्य लक्षण की सहायता से ही शेष सब घोड़ों की पहचान होती है।
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सामान्य-वर्तमान  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में वर्तमान काल का एक भेद जिससे किसी कार्य के प्राकृतिक रूप से घटित होते रहने या तत्क्षण घटित होने का पता चलता है। धातु में ता है, ता हूँ आदि प्रत्यय लगाये जाते हैं। जैसा—आता है जाता है, सोता है हँसता हूँ आदि।
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सामान्य-विधि  : स्त्री० [सं०] १. कोई साधारण विधि या आज्ञा। जैसा—बुरे काम मत करो। २. किसी देश या राष्ट्र में प्रचलित विधि प्रविधियों का वह सामूहिक मान जिसके अनुसार उस देश या राष्ट्र के निवासियों का आचरण या व्यवहार परिचालित होता है। (कॉमन लॉ)।
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सामान्य-विभाजक  : पुं० [सं०] गणित में समापर्वतक राशि (दे०) ‘समापर्वतक’।
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सामान्यतः  : अव्य० [सं० सामान्य+तसिल्] सामान्य रूप से। सामान्यता। (नार्मेली)।
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सामान्यतया  : अव्य० [सं० सामान्य०+तल-टाप्-टा] सामान्य रूप से। मामूली तौर से। सामान्यतः।
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सामान्यता  : स्त्री० [सं०] १. सामान्य या मामूली होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण, तत्व या बात जो सामान्य हो। ३. सामान्य होने या सब जगह सामान्य रूप से होने या पाये जाने की अवस्था या भाव। (जनरैलिटी)।
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सामान्यतोदृष्ट  : पुं० [सं० सामान्यतस्√दृश् (देखना)+क्त] १. तर्क और न्याय शास्त्र में अनुमान संबंधी एक प्रकार का दोष या भूल, जो उस समय मानी जाती है जब किसी ऐसे पदार्थ के आधार पर अनुमान किया जाता है जो न तो कार्य हो और न कारण। जैसा—आस को बौरते देखकर कोई यह अनुमान करे कि अन्य वृक्ष भी बौरने लगे होंगे। २. दो वस्तुओं या बातों में ऐसा साम्य, जो कार्य-कारण संबंध से भिन्न हो। जैसा—बिना चले कोई दूसरे स्थान पर नहीं पहुँच सकता। इसी से यह भी समझ लिया जाता है कि यदि किसी को कही पहुँचना हो तो उसे किसी प्रकार चलने में प्रवृत्त करना पड़ेगा।
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सामान्या  : स्त्री० [सं० सामान्य-टाप्] १. ऐसी स्त्री जो सर्व साधारण के लिए उपलब्ध या सूलभ हो। २. साहित्य में वह नायिका जो धन कमाने के उद्देश्य से पर-पुरुष से प्रेम करने का ढोंग करती है।
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सामान्यीकरण  : पुं०=साधारणीकरण (प्राचीन भारतीय साहित्य का)।
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सामायिक  : वि० [सं०] भाषा से युक्त। माया सहित। पुं० जैनों के अनुसार एक प्रकार का व्रत या आचरण जिसमें सब जीवों पर सम भाव रखकर एकांत में बैठकर आत्म-चितन किया जाता है।
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सामायिक  : वि० [सं० समास+ठक्-इक] १. समास से संबंध रखने वाला। समास का। २. समास के रूप में होनेवाला। ३. लघु या संक्षिप्त किया हुआ।
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सामाश्रय  : पुं० [सं० ब० स० अण्] प्राचीन भारतीय वास्तु में ऐसा भवन या प्रासाद जिसके पश्चिम ओर वीथिका या सड़क हो।
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सामिक  : पुं० [सं० सामि+कन्] १. यज्ञों में बलि पश को अभिमंत्रित करनेवाला व्यक्ति। २. पेड़। वृक्ष।
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सामिग्री  : स्त्री०=सामग्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामित्य  : वि० [सं० समिति+घञ्] समिति सम्बन्धी। समिति का। पुं० समिति का गुण धर्म या भाव।
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सामिधेन  : वि० [सं० सम्√इन्ध् (प्रदीप्त करना)+ल्युट-अन] समिधा या यज्ञ की अग्नि से सम्बन्ध रखनेवाला।
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सामिधेनी  : स्त्री० [सं० सामिधेन-ङीष्] १. एक प्रकार का ऋत मंत्र जिसका पाठ होम की अग्नि प्रज्वलित करने के समय किया जाता है। २. ईधन। ३. कोई ऐसी चीज या बात जो किसी प्रकार का ताप या तेज उत्पन्न करती हो। उग्र तीव्र या प्रबल करनेवाली चीज या बात।
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सामिधेन्य  : पुं० [सं० सामिधेनी+यत्]=सामिधेनी।
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सामियाना  : पुं०=शामियाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामिल  : वि०=शामिल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामिष  : वि० [सं० तृ० त०] १. मांस से युक्त। २. गोश्त सहित। जैसा—सामिष भोजन।
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सामिष श्राद्ध  : पुं० [सं० कर्म० स०] पितरों आदि के उद्देश्य से किया जानेवाला वह श्राद्ध जिसमे मांस, मत्स्य आदि का भी व्यवहार होता था। जैसा—मांसाष्टका आदि सामिष श्राद्ध है।
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सामी  : पुं० [सं० साम (देश)] पुरातत्व के अनुसार प्राचीन साम (देखें) नामक भू-भाग के निवासी जिनके अन्तर्गत अरब, इब्रानी एसीरिया (या असुरिया) और फिनीशिया तथा बैबिलोन के लोग आते हैं। स्त्री० उक्त प्रदेश की प्राचीन भाषा जिसकी शाखाएँ आज-कल की अरबी, इब्रानी फिनिशिया और बैबिलोन आदि की भाषाएँ है। स्त्री०=शामी (छड़ी, डंडे आदि की) पुं०=स्वामी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामीची  : स्त्री० [सं०] १. वंदना। प्रार्थना। स्तुति। २. नम्रता। ३. शिष्टता।
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सामीचीन्य  : पुं० [सं० समीचीनी+ष्यञ्]=सामीचीनता।
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सामीप्य  : पुं० [सं० समीप+ष्यज्] १. समीपता। २. मुक्ति की चार अवस्थाओं में से एक जिसमें मुक्तात्मा ईश्वर से समीप होती है।
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सामीर  : पुं० [सं०]=समीर (पवन)।
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सामीर्य  : वि० [सं०] समीर संबंधी। समीर का। हवा का।
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सामुझि  : स्त्री०=समझ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामुदायिक  : वि० [सं० समुदाय+ठक्-इक] १. समुदाय संबंधी। समुदाय का। २. समुदाय के प्रयत्न से होनेवाला पुं० बालक के जन्म के समय के नक्षत्र से आगे के अठारह नक्षत्र जो फलित ज्योतिष के अनुसार अशुभ माने जाते हैं और जिनमें किसी प्रकार का शुभ कर्म करने का निषेध है।
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सामुद्र  : वि० [सं०] १. समुद्र संबंधी समुद्र का। २. समुद्र से निकला हुआ। समुद्र से उत्पन्न। पुं० १. समुद्र के पानी से तैयार किया हुआ नमक। समुद्री नमक। २. समुदंर फेन। ३. समुद्र के द्वारा दूर दूर के देशों में जाकर व्यापार करनेवाला व्यापारी। ४. शरीर में होनेवाले ऐसे चिन्ह या लक्षण जिन्हें देखकर शुभाशुभ फलों का विचार किया जाता है। दे० ‘सामुद्रिक’। ५. नारियल।
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सामुद्र-स्थलक  : पुं० [सं० कर्म० स०] समुद्र की तरह का विस्तार।
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सामुद्रक  : वि० [सं० सामुद्र+कन्] समुद्र संबंधी। समुद्र का। पुं० १. समुद्र के जल से बनाया हुआ नमक। समुद्री नमक। २. दे० ‘सामुद्रिक’।
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सामुद्रिक  : वि० [सं० समुद्र+ठक्-इक] समुद्र से संबंध रखनेवाला। समुद्र या सागर संबंधी। समुदरी। पुं० १. फलित ज्योतिष में वह अंग या शाखा जिसमें इस बात का विचार होता है कि मनुष्य की हस्तरेखाओं तथा शरीर पर के अनेक प्रकार के चिन्हों या लक्षणों के क्या क्या शुभ और अशुभ फल होते हैं। २. उक्त शास्त्र का ज्ञाता या पंडित। ३. दे० ‘आकृति विज्ञान’।
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सामुहाँ  : अव्य० [सं० सम्मुख] सामने। सम्मुख। वि० सामने का। पुं०=सामना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामुहिक  : वि० [सं० समूह+ठक्—इक]=सामूहिक।
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साँमुहे  : अव्य० [सं० सम्मुखे] सामने। सम्मुख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामुहें  : अव्य० [सं० सम्मुखे] सामने सम्मुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामूहिक  : वि० [सं०] [भाव० सामूहिकता] १. समूह या बहुत से लोगों से संबंध रखनेवाला। ‘वैयक्तिक’ का विपर्याय। २. समूह द्वारा होनेवाला। (कलेक्टिव) जैसे—सामूहिक खेती।
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सामृद्धय  : पुं० [सं० समृद्धि+ष्यञ्] समृद्ध होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सामोद  : वि० [सं० तृ० त०] १. आमोद या आनंद से युक्त। प्रसन्न। २. सुगंधित।
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सामोद्वभव  : पुं० [सं० ब० स०] हाथी।
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सामोपनिषद्  : स्त्री० [सं० मध्य० अ०] एक उपनिषद् का नाम।
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साम्नी  : स्त्री० [सं०] १. पशुओं को बाँधने की रस्सी। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के वैदिक छन्दों का एक वर्ग। जैसे—साम्नी अनुष्टुप, साम्नी गायत्री, साम्नी जागती, साम्नी बृहती आदि।
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साम्मत्य  : पुं० [सं० सम्मति+ष्यञ्] सम्मति का गुण, धर्म या भाव।
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साम्मुखी  : स्त्री० [सं० सम्मुख+अण्—ङीष्] गणित ज्योतिष में, ऐसी तिथि जो सायंकाल तक रहती हो।
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साम्मुख्य  : पुं० [सं० सम्मुख+ष्यञ्] सम्मुख होने की अवस्था या भाव। सामना।
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साम्य  : पुं० [सं०] समान होने का भाव। समानता। जैसे—इन दोनों पुस्तकों में बहुत कुछ साम्य है।
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साम्यता  : स्त्री०=साम्य।
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साम्यवाद  : पुं० [सं० साम्य+√वद् (कहना)+घञ्] मार्क्स द्वारा प्रतिष्ठित तथा लेनिन द्वारा संबंधित वह विचारधारा जो व्यक्ति के बदले सार्वजनिक उत्पादन, प्रबंध और उपयोग के सिद्धान्त पर समाज-व्यवस्था स्थिर करना चाहती है और इसकी सिद्धि के लिए हर संभव उपाय से शोषित वर्ग को सशक्त करना चाहती है। (कम्युनिज्म)
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साम्या  : स्त्री० [सं०] साधारण न्याय के अनुसार सब लोगों के साथ निष्पक्ष और समान भाव से किया जानेवाला व्यवहार। समदर्शितापूर्ण व्यवहार। (इक्विटी)
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साम्यामूलक  : वि० [सं० साम्या+मूलक] जिसमें साम्या या समदर्शिता का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया हो। साम्यिक। (ईक्विटेबुल)
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साम्यावस्था  : स्त्री० [सं०] १. दार्शनिक क्षेत्र में, वह अवस्था जिसमें सत्त्व, रज और तम तीनों गुण बराबर हों; उनमें किसी प्रकार का विकार या वैषम्य न हो। प्रकृति। २. आज-कल लौकिक क्षेत्र में, वह अवस्था या स्थिति जिसमें परस्पर विरोधी शक्तियाँ इतनी तुली हों कि एक दूसरी पर अपना अनिष्ट प्रभाव डालकर कोई गड़बड़ी उत्पन्न न कर सकें। (ईक्विलिब्रियम)
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साम्यिक  : वि० [सं०]=साम्या-मूलक।
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साम्राज्य  : पुं० [सं०] १. वे अनेक राष्ट्र या देश जिन पर कोई एक शाससत्ता रकाज करती हो। सार्वभौम राज्य। सलतनत। २. किसी कार्य या क्षेत्र में होनेवाला किसी का पूर्ण आधिपत्य।
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साम्राज्य-लक्ष्मी  : स्त्री० [सं०] १. साम्राज्य का वैभव। २. तंत्र के अनुसार एक देवी जो साम्राज्य की अधिष्ठात्री मानी गई है।
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साम्राज्यवाद  : पुं० [सं०] [वि० साम्राज्यवादी] वह वाद या सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि किसी देश को अपने अधिकृत क्षेत्रों में वृद्धि करते हुए अपने साम्राज्य का बराबर विस्तार करते रहना चाहिए। (इम्पीरियलिज़्म)
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साम्राज्यवादी  : वि० [सं०] साम्राज्यवाद-संबंधी। पुं० वह जो साम्राज्यवाद के सिद्धांतों का अनुयायी या समर्थक हो। (इम्पिरियलिस्ट)
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साम्हना  : पुं०=सामना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हने  : अव्य०=सामने।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हर  : पुं०=साँभर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हा  : अव्य०=सामने। उदा०—घर गिरि पुर साम्हा धावति।—प्रिथीराज। पुं०=सामना। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सायं  : वि० [सं०] संध्या-संबंधी। सायंकालीन। संध्याकालीन। अव्य० सन्ध्या के समय। शाम को। पुं० १. संध्या का समय। शाम। २. तीर। बाण।
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साय  : पुं० [सं०√सो (नष्ट करना)+घञ्] १. संध्या का समय। शाम। २. तीर। बाण।
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सायं-गृह  : वि० [सं०] जो सन्ध्या समय जहाँ पहुँचता हो, वहीं अपना डेरा जमा लेता है।
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सायं-भव  : वि० [सं० सायं√भू (होना)+अच्] १. संध्या का। शाम का। २. संघ्या के समय उत्पन्न होनेवाला।
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सायं-संध्या  : स्त्री० [सं०] १. संध्या नाम की वह उपासना जो सायंकाल में की जाती है। २. सरस्वती देवी जिसकी उपासना संध्या समय की जाती है।
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सायक  : पुं० [सं०] बाण। तीर। शर। २. कामदेव के पाँच बाणों के आधार पर पाँच की संख्या का वाचक शब्द। ३. खड्ग। ४. भद्रभुंज। रामसर। ५. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में सगण, भगण, तगण, एक लघु और एक गुरु होता है। (।।ऽ, ऽ।। ऽऽ।, ।ऽ)
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सायंकाल  : पुं० [सं०] [वि० सायंकालीन] दिन का अंतिम भाग। दिन और रात के बीच का समय। संध्या। शाम।
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सायंकालीन  : वि० [सं०] संध्या के समय का। शाम का।
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सायज्यत्व  : पुं० [सं सायुज्य+त्व]=सायुज्यता।
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सायण  : पुं० [सं०√सो (नष्ट करना)+ल्युट्—अन] एक प्रसिद्ध आचार्य जिन्होंने चारों वेदों के विस्तृत और प्रसिद्ध भाष्य लिखे हैं।
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सायणीय  : वि० [सं० सायण+छ—ईय] सायण-संबंधी। सायण का।
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सायत  : स्त्री०=साइत। अव्य०=शायद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सायंतन  : वि० [सं०] सायंकालीन। संध्या-संबंधी। संध्या का।
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सायन  : वि० [सं० स+अयन] १. जो अयन से युक्त हो। २. (ज्योतिष में कालगणना) जो अयन अर्थात् राशिचक्र की गति पर अवलंबित या आश्रित हो। पुं० १. किसी ग्रह का वह देशांतर जो वसंत-संपात के आधार पर स्थिर किया जाता है। २. भारतीय ज्योतिष में, काल की गणना करने और पंचाग बनाने की वह पद्धति या विधि (निरयण से भिन्न) जो अयन अर्थात् राशिचक्र की गति पर अवलंबित या आश्रित होती है। (विशेष विवरण के लिए दे० ‘निरयण’।)
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सायनपत  : स्त्री० [हि० सयाना+पत (प्रत्य)] १. सयाने होने की अवस्था या भाव २. चालाकी। होशियारी।
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सायब  : पुं० [सं० साहब] पति। स्वामी। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सायबान  : पुं० [फा० सायः बान] मकान या कमरे के आगे बनाई जानेवाली टीन आदि की छाजन।
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सायबी  : स्त्री०=साहबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सायमाहुति  : स्त्री० [सं०] संध्या के समय दी जानेवाली आहुति।
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सायर  : पुं० [अ०] १. ऐसी भूमि जिसकी आय पर कर न लगता हो। २. ब्रिटिश शासन में जमींदारों की आमदनी की वे मदें जिन पर उन्हें कोई कर नहीं देना पड़ता था। जैसे—जंगल, ताल, नदी, बाग आदि से होने वाली आय की मदें। ३. चुंगी, महसूल का ऐसा ही और कोई कर । ४. फुटकर खर्चों की मदें। मुतफर्रकात। पुं० [देश०] १. हेंगा। २. पशुओं के रक्षक एक देवता। ३. किसी बीज का ऊपरी भाग। पुं०=सागर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सायल  : वि० [अ०] १. सवाल या प्रश्न करने वाला। प्रश्नकर्ता। २. सवाल अर्थात याचना करने वाला। माँगने वाला। पुं० १. वह जिसने न्यायालय में किसी विवाद के निर्णय के लिये पत्र दिया हो। प्रार्थी। २. वह जो कोई नौकरी या सुभीता माँगता हो। ३. भिखमंगा। भिखारी। पु० [देश०] एक प्रकार का धान जो असम देश में होता है।
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सायंस  : स्त्री० [अं० साइन्स] १. विज्ञान। शास्त्र। २. भौतिक विज्ञान। ३. रसायन विज्ञान।
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साया  : पु० [सं० छाया से फा० सायः] १. छाया। छाँह। २. परछाँई। मुहा०—(किसी के) साये से भागना=बहुत अलग या दूर रहना। बहुत बचना। ३. जिन, भूत, प्रेत, परी आदि जिनके संबंध में माना जाता है कि ये छाया के रूप में होते हैं और उस छाया से युक्त होने पर लोग रोगी, विक्षिप्त हो जाते है। मुहा०—साये में आना =भूत-प्रेत आदि के प्रभाव से आविष्ट होकर रोगी या विक्षिप्त होना। प्रेत बाधा से युक्त होना। ४. ऐसा संपर्क या संबंध जो किसी को अपने आधीन करता अथवा उसे अपने गुण, प्रभाव आदि से युक्त करता हो। मुहा०—(किसी पर अपना) साया डालना= (क) किसी को अपने प्रभाव से युक्त करना। (किसी पर किसी का ) साया पड़ना=संगति आदि के कारण अथवा यों ही किसी के गुण, प्रभाव आदि से युक्त होना। पु० [अ० शेमीज] १. घाघरे की तरह का एक प्रकार का पहनावा। जो प्रायः पाश्चात्य देशों की स्त्रियाँ पहनती हैं। २. एक प्रकार का छोटा लहँगा जिसे स्त्रियाँ प्रायः महीन साड़ियों के बीच पहनती हैं। अस्तर।
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सायाबंदी  : स्त्री० [फा० सायःबंदी् ] विवाह के लिये मंडप बनाने की क्रिया। (मुसलमान)
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सायाम  : वि० [सं० स+आयाम] लंबा-चौड़ा। विस्तृत।
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सायास  : अव्य० [सं० स+आयास] आयास अर्थात परिश्रम प्रयत्नपूर्वक
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सायाह्न  : पुं० [सं० ष० स०] दिन का अन्तिम भाग। संन्ध्या का समय। शाम।
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सायुज्य  : पुं० [सं०] १. किसी में मिलकर उसके साथ एक होने की अवस्था या भाव। इस प्रकार पूरी तरह से मिलना कि दोनों में कोई अंतर या भेद न रह जाय। पूर्ण मिलन। २. पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक प्रकार की मुक्ति जिसके संबंध में यह माना जाता है कि जीवात्मा जाकर परमात्मा के साथ मिल गयी और उसमें लीन हो गयी। ३. विज्ञान में, दो पदार्थो का गलकर और किसी रासायनिक प्रकिया से मिलकर एक हो जाना। समेकन (फ़्यूजन)
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सायुज्यता  : स्त्री० [सं० सायुज्य+तल-टाप्] सायुज्य का गुण, धर्म या भाव। सायुज्यत्व।
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सायुध  : वि० [सं० स०+आयुध] आयुध या शास्त्रों से युक्त। जिसके पास हथियार हों। स-शस्त्र। (आर्म्ड) जैसे सायुच रक्षा दल।
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सार  : वि० [सं०] [भाव० सारता ] १. जो मूल तत्त्व के रूप में हो। २. उत्तम। बढ़िया। श्रेष्ठ। जैसे—सार धान्य। ३. असली। वास्तविक। ४. सब प्रकार की त्रुटियों, दोषों आदि से रहित। ५. पक्का। मजबूत। ६. न्यायसंगत। पुं० १. किसी पदार्थ का वह मुख्य और मूल अंश या भाग जो उसमें प्राकृतिक रूप से वर्तमान रहता है और जो उसके गुण, रूप, विशेषतया, आदि का आधार होता है। तत्व। सत्त। जैसे—इस चीज या बात में कुछ भी सार नहीं है। २. किसी चीज में से निकला हुआ उसका ऐसा वक्त अंश या भाग जिसमें चीज की यथेष्टगंध, गुण या स्वाद वर्तमान हो। किसी चीज का निकला हुआ अरक, रस या ऐसी ही और कोई चीज। (एसेंस, उक्त दोनों अर्थो के लिये ) जैसे—इत्र या तेल में फूलों का सार रहता है। ३. किसी चीज के अंदर रहने वाला वह तत्त्व जिसमें उस चीज का पोषण और वर्धन होता है। गूदा मग्ज। (मैरो) ४. चरक के अनुसार शरीर के अन्तर्गत आठ स्थिर पदार्थ जिनके नाम इस प्रकार से हैं—त्वक, रक्त, माँस, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, और सत्व (मन)। ५. कही या लिखी हुई बातों, विवरणों आदि का वह संक्षिप्त रूप जिसमें दिग्दर्शन के लिये उनकी सभी मुख्य बातों का समावेश हो। तात्पर्य या निष्कर्ष। सारांश। (ऐबस्ट्रैक्ट) जैसे—इस पुस्तक में दर्शन (या व्याकरण) का सार दिया गया है। ६. साहित्य में एक अलंकार जिसमें एक बात कहकर उत्तरोत्तर उसके उत्कर्ष सूचक सार के रूप में दूसरी अनेक बातों का उल्लेख होता है। (क्लाइमेक्स) जैसे—सब प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है। ७. पिंगल में एक प्रकार का मातृक सम छंद जिसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती है। अंत में दो गुरु होते हैं, तथा १७ मात्राओं पर यति होती है। ८.पिंगल में, एक प्रकार का वर्णिक समवृत्त है जिसके प्रत्येक चरण में एक गुरु और एक लघु होता है। जैसे—राम। नाम। सत्य। धाम। ९. आध्यात्मिक साधकों की परिभाषा में, भाषा या वाणी के चार भेदों में से एक जो भ्रम दूर करने वाली और बहुत ही सुबोध तथा स्पष्ट होती है। १॰. बल। शक्ति। ११. धन। दौलत। १२. काढ़ा। क्वाथ। १३. परिणाम। फल। १४. जल। पानी। १५ दही, दूध आदि में से निकाला हुआ मक्खन या मलाई। १६. लोहा। १७. लोहे आदि का बना हुआ औजार या हथियार। १८. तलवार। १९. वैधक में रासायनिक क्रिया से फूँका हुआ लोहा। वंग। २॰. चौसर, शतरंज आदि खेलने की गोट। २१. जुआ खेलने का पासा। २२. अमृत। २३. अस्थि। हड्डी। २४. आम, इमली आदि का पना। पन्ना। २ ५. वायु। हवा। २६. बीमारी। रोग। २७. खेती-बारी की जमीन। २८. खेतों में दी जाने वाली खाद। २९. चिरौंजी का पेड़। पियाल। ३॰. अनार का पेड़। ३१. नील का पौधा। ३२. मूँग। पुं० [सं० शल्य, हि ‘साल’ का पुराना रूप] १. बरछी, भाल या इसी प्रकार का और कोई नुकीला औजार या हथियार। २. काँटा। ३. मन में खटकती रहने वाली कोई बात। उदा०—मोइ दुसार कियौ हियौ तन द्युति भेदैं सार।—बिहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हि० सारना ] १. एक सारने की क्रिया, ढ़ंग या भाव। २. पालन-पोषण। ३. देख-रेख। ४. एक प्रकार के गीत जो शिशु के छठी के दिन उसे नहलाने-धुलाने के समय गाए जाते हैं। ५. खाट। पलंग। पुं० [सं० शाला] गौएँ, भैसें आदि बाँधने की जगह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० शस्य] खेतों की उपज या पैदावा। फसल उदा—चूल्ही के पीछे उपजै सार।—घाघ(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० घनसार] कपूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० सारिका] मैना। पक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १. =साल। २. =साला (पत्नी का भाई)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =साल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सार-खदिर  : पुं० [सं० ब० स०] दुर्गध खदिर। बबुरी।
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सार-गर्भित  : वि० [सं०] १. जिसमें सार या तत्व भरा हो। तत्वपूर्ण। २. महत्वपूर्ण तथा मूल्यवान तथ्यों, युक्तियों आदि से युक्त। जैसे—सार-गर्भित भाषण।
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सार-गांध  : पु० [सं० ब० स०] चंदन।
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सार-ग्राही  : वि० [सम०] [भाव० सरग्राहिता] वस्तुओं या विषयों का तत्व या सार ग्रहण करनेवाला।
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सार-तंडुल  : पुं० [सं०] चावल।
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सार-तरु  : पुं० [सं०] १. केले का पेड़। २. खैर का वृक्ष।
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सार-दारु  : पुं० [सं०] ऐसी लकड़ी जिसमें सार या हीरवाला अंश अपेक्षया अधिक हो।
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सार-द्रुम  : पुं० [सं०] १. खैर का वृक्ष। २. वह पेड़ जिसकी लकड़ी में हीर या सार-भाग अधिक हो।
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सार-फल  : पुं० [सं० ब० स०] जँबीरी नींबू।
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सार-भाग  : पुं० [सं०] किसी कथन, तथ्य, पदार्थ आदि का वह संक्षिप्त अंश जिसमें उसके मुख्य तथा मूल तत्व सम्मिलित हों।
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सार-भाटा  : पुं० [हिं० सार+भाटा] ज्वार आने की बाद की समुद्र की वह स्थिति जब लहरें उतार पर होती हैं।
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सार-भांड  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक असली, चोखा या बढ़िया माल। २. उक्त प्रकार के माल का व्यापार। ३. कस्तूरी।
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सार-भूत  : वि० [स०] १. जो किसी तत्व या पदार्थ के सार के रूप में निकाला गया हो। २. सबसे बढ़िया। श्रेष्ठ।
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सार-मती  : स्त्री० [सं०] संगीतमें, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सार-लोह  : पुं० [सं० सप्त० त०] इस्पात। लोहसार।
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सार-संग्रह  : पुं० [सं०] किसी विषय की संक्षिप्त और सार-भत बातों का संग्रह। (कम्पेन्डियम)
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सार-सुता  : स्त्री० [सं० सुरसुता]=यमुना।
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सार-सूची  : स्त्री० [सं०] कोई ऐसी सूची जिसमें किसी विषय से संबंध रखने वाली मुख्य-मुख्यबातों का सार रूप में उल्लेख हो। (ऐब्सट्रैक्ट)
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सार-हल  : पुं० [सं० सार (शल्य)+फल] [स्त्री० अल्पा० सार-हली] बरछी, भाले आदि की नुकीली अनी या फल। उदा०—सारहली जिउँ सहिल्याँ सज्जण मंझ शरीर।—ढोलामारू।
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सारक  : विं० [सं० सार+कन्] १. सारण करने या निकालने वाला। २. दस्तावर। विरेचक। पुं० जमालगोटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारंग  : वि० [सं०] [स्त्री० सारंगी] १. रँगा हुआ या रंगदार। रंगीन। २. सुंदर। सुहावना। ३. रसीला। सरस। पुं० १. चितकबरा। रंग। २. कांति। चमक। दीप्ति। ३. छटा। शोभा। ४. दीपक। दीआ। ५. ईश्वर। ६. सूर्य। ७. चन्द्रमा। ८. शिव। ९. श्रीकृष्ण। १॰. कामदेव। ११. आकाश। १२. आकाश के ग्रह, तारे और नक्षत्र। १३. बादल। मेघ। १४. बिजली। विद्युत्। १५. समुद्र। १६. सागर। १७. तालाब। १८. सर। १९. जल। पानी। २॰. शंख। २१. मोती। २२. कमल। २३. जमीन भूमि। २४. चिड़िया। पक्षी। २५. हंस। २६. मोर। २७. चातक। पपीहा। २८. कबूतर। २९. कोयल। ३॰ सोन-चिड़ी। खंजन। ३१. बाज। श्येन। ३२. कौआ। ३३. शेर। सिंह। ३४. हाथी। ३५. घोड़ा। ३६. हिरन। ३७. साँप। ३८. मेंढ़क। ३९. सोना। स्वर्ण। ४॰. आभूषण। गहना। ४१. दिन। ४२. रात। ४३. खड़ग। तलवार। ४ ४. तीर। बाण। ४५. हिरन। ४६. बारह-सिंगा। ४७. चीतल। ४८. भौंरा। भ्रमर। ४९. एक प्रकार की मधुमक्खी। ५॰. सुगंधित पदार्थ। ५१. कपूर। ५२. चंदन। ५३. कर। हाथ। ५४. कुच। स्तन। ५५. सिरके बाल। ५६ .हल। ५७. पुष्प। फूल। ५८. कपड़ा। ५९. छाता। ६ ॰ .काजल। ६१. एक प्रकार का छंद जिसमें चार तगण होते हैं। मैनावली भी कहते हैं। ६२. छप्पय छंद के २६ वें भेद का नाम। ६३.संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते है। ६४.सारंगी नाम का बाजा। स्त्री०नारी। स्त्री। पुं० [सं० शाँर्ग] १. कमान। धनुष। २. विष्णु का धनुष।
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सारंग-नट  : पुं० [सं० ब० स०] संगीत में,सारंग और नट के योग से बना हुआ एक संकर राग।
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सारंग-भ्रमरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटक की पद्धति की एक रागिनी।
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सारंग-लोचन  : वि० [सं०] [स्त्री० सारंग-लोचना ] जिसकी आँखें हिरन की आँखों के समान सुंदर हों।
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सारंगनाथ  : पुं० [सं० सांर्गनाथ] काशी के समीप स्थित एक स्थान जो अब सारनाथ कहलाता है
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सारंगपाणि  : पुं० [सं० शाँर्गपाणि] सारंग नामक धनुष धारण करने वाले, विष्णु।
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सारंगा  : स्त्री० [सं० सारंग] १. प्रकार की छोटी नाव जो एक ही लकड़ी की बनती है। २. एक प्रकार की बहुत बड़ी नाव जिस पर हजारो मन माल लादा जा सकता है। ३. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। पुं० [हिं० सारंगी] साधारण से बड़ी सारंगी। (व्यंग्य)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारंगिक  : पुं० [सं० सारंग+ठक्-इक] १.चिड़ीमार। बहेलिया। २.एक प्रकार का छन्द या वृत्त
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सारंगिका  : स्त्री०=सारंगी।
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सारंगिया  : पुं० [हिं० सारंगी+आ (प्रत्य) ] सारंगी बजाने वाला कलाकार।
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सारंगी  : स्त्री० [सं० सारंग] एक प्रकार का बहुत प्रसिद्ध बाजा जिसमें लगे हुए तार कमानी से रेत-कर बजाये जाते हैं।
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सारघ  : पुं० [सं० सरघा+अण्] मधु या शहद जो मधुमक्खी तरह-तरह के फूलों से संग्रह करती है। वि० मघ-मक्खियों से संबंध रखनेवाला।
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सारज  : पुं० [सं० सार√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मक्खन।
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सारजंट  : पुं० [अ०] पुलिस और सेना में सिपाहियों का छोटा अफसर। जमादार।
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सारजासव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वैद्यक में धान, फल, फूल, मूल, सार, टहनी, पत्ते, छाल और चीनी-इन नौ चीजों से बनाया जाने वाला एक प्रकार का आसव।
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सारटिफिकट  : पुं० [सं०] प्रमाण-पत्र। सनद।
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सारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सरिता, कर्ता सारक] १. कहीं से हटाना या हटाने में प्रवृत्त करना। २. अवांछित, विरोधी या हानिकारक तत्वों या व्यक्तियों को कहीं से निकालना या हटाना। (पजिंग) ३. अतिसार नामक रोग। ४. वैद्यक में पारे आदि रसों का शोधन। ५. मक्खन। ६. गंध। महक। ७. गंध प्रसारिणी। ८. आँवला। ९. आम्रातक। अमड़ा। १॰. रावण का एक मंत्री जो रामचन्द्र की सेना में उनका भेद लेने गया था।
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सारणा  : स्त्री० [सं० सारण—टाप्] दे० ‘सारण’।
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सारणि  : स्त्री० [सं०√सृ (गत्यादि)+णिच्—अनि] १. नाले या छोटी नहर के रूप में होने वाला जल-मार्ग। २. गंध प्रसारिणी। ३. गदह-पूरना। पुनर्नवा।
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सारणिक  : पुं० [सं० सरणि+ठक्—इक] १. पथिक। राही। २. सौदागर
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सारणित  : भू० कृ० [सं०] सारणी के रूप में अंकित किया हुआ ।
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सारणी  : स्त्री० [सं०] १. पानी बहने की नाली। २. छोटी नदी। ३. नहर। ४. आज-कल कोई ऐसा कागज या फलक जिसमें बहुत से कोठे, खाने या स्तम्भ बने रहते हैं और जिनके कोठों आदि में किसी विशेष प्रकार के तुलनात्मक अध्ययन, गणना या विवेचन के लिये कुछ अंक, पद या शब्द आदि अंकित होते हैं। (टेबुल)
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सारणी-यंत्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का आधुनिक यंत्र जिसकी सहायता से सारणियाँ बनाई जाती है। (टेबुलेटर)
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सारणीक  : पुं० [सं०] १. ऐसा टाइपराइटर जिसमें अलग-अलग स्तम्भों में अकादि भरकर सारणी तैयार की जाती हो। (टेबुलेटर) २. दे० ‘सारणीकार’।
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सारणीकरण  : पु० [सं०] १. सारणी बनाने की क्रिया या भाव। २. तथ्यों आदि को सारणी के रूप में अंकित करना। सारणीयन। (टेबुलेशन उक्त दोनों अर्थो में)
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सारणीकार  : पुं० [सं०] वह जो अनेक प्रकार की सारणियाँ बनाने का काम करता हो। (टेबुलेटर)
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सारणीयन  : पुं० [सं०] सारणीकरण।
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सारणेश  : पुं० [सं० ब० स० ष० त० वा] एक प्राचीन पर्वत।
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सारता  : स्त्री० [सं० सार+तल्—टाप्] सार के रूप में होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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सारथि  : पुं० [सं०√सृ (गत्यादि)+अथिन्] १. रथ का चालक। सूत। २. समुद्र। ३. नायक। ४. साथी।
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सारथित्व  : पुं० [सं० सारथि+त्व] सारथि का कार्य, धर्म या पद।
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सारथी  : पुं० [सं० सारथि] [भाव० सारथित्व, सारथ्य] १. रथ चलाने वाला। सूत। २. सब कारोबार चलाने, देखने या सँभालनेवाला व्यक्ति। ३. सागर। ४. समुद्र।।
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सारथ्य  : पुं० [सं० सारथि+ष्यञ्] सारथी का काम या पद।
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सारद  : वि० [सं०] [स्त्री० सारदा] सार का तत्व देने वाला। वि०=शारदीय। स्त्री०=शारदा (सरस्वती)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारदा  : स्त्री०=शारदा। पुं० [सं० शरद] स्थल कमल। स्त्री० शारदा (सरस्वती)
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सारदा-सुंदरी  : स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।
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सारदी  : वि० शारदीय।
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सारदूल  : पुं०=शार्दूल (सिंह)।
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सारधाता (तृ)  : पुं० [सं०] १. ज्ञान का बोध कराने वाला व्यक्ति। २. शिव।
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सारना  : सं० [हिं० सरना का स०] १. (काम) पूरा या ठीक करना। बनाना। २. सुन्दर बनाना। सजाना। ३. रक्षा करना। बचाना। ४. (आँखों में अंजन या सुरमा) लगाना। ५. (अस्त्र-शस्त्र) चलाना। ६. प्रहार करना। ७. पालन-पोषण या देख-रेख करना। सँभालना। ८. पूरा करना। जैसा—पैज सारना=प्रतिज्ञा पूरी करना। ९. दूर करना। हटाना। १॰. हटाने में प्रवृत्त करना। ११. बुझाना। १२. साफ करना। १३. (खेत में) खाद डालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सारनाथ  : पुं० [सं० सारंगनाथ] वाराणसी की उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित एक प्राचीन नगरी जहाँ से गौतम बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार आरंभ किया था।
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सारपद  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा पत्ता जिसमें सार अर्थात खाद हो। २. एक प्रकार का पक्षी।
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सारपाक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का जहरीला फल। (सुश्रुत)
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सारबान  : पुं० [फा०] [भाव० सारबानी] वह जो ऊँट चलाने या हांकने का काम करता हो।
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सारंभ  : पुं० [सं० तृ० त ] १. क्रोधपूर्ण बातचीत। २. गरमा-गरम बहस।
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सारभुक्  : पुं० [सं० सार√भुज् (खाना)+क्विप्] अग्नि। आग।
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सारभृत  : वि० [सं० सार√भृ (भरम करना)+क्विप्—तुक्] १. सार ग्रहम करने वाला। सारग्राही। २. अच्छी चीजें चुनने या छाँटने वाला।
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सारमिति  : स्त्री० [सं०] वेद। श्रुति।
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सारमेय  : पुं० [सं०] १. सरमा नामक वैदिक कुतिया की संतान, चार-चार आँखो वाला दो कुत्ते जो यम के द्वार पर रहते हैं। २. कुत्ता। श्वान वि० सरमा-संबंधी। सरमा का।
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सारल्य  : पुं० [सं० सरल+ल्यञ्] सरल होने की अवस्था, गुण या भाव। सरलता।
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सारवती  : स्त्री० [सं०] १. प्रकार का सम-वृत्त वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में तीन भगण और गुरु होता है। तथा मोहि चलौ बन सग लिये। पुत्र तुम्हे हम देखि जिये।—केशव। २. योग में एक प्रकार की समाधि।
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सारवत्ता  : स्त्री० [सं० सारवत्+तल्—टाप्] १. सारवान होने की अवस्था या भाव। २. सार ग्रहम करने का कार्य या भाग।
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सारवर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसे वृक्षों तथा वनस्पतियों की सामूहिक संज्ञा जिनमें से दूध सा सफेद निर्यास निकलता हो। (वैद्यक)
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सारवान् (वत्)  : वि० [सं०] १. जो सार या तत्व से युक्त हों। २. ठोस। ३. पक्का। मजबूत। ४. (वृक्ष) जिसमें से निर्यास निकलता हो।
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सारस  : वि० [सं०] सर या सरसी अर्थात तालाब से संबंध रखने वाला। पुं० १. लंबी टाँगों वाला एक प्रकार का प्रसिद्ध और बड़ा सफेद पक्षी जो प्रायःजलाशयों के पास अपनी मादा के साथ रहता है, और मछलियाँ खाता है। सरसीरु। २. हंस। ३. चन्द्रमा। ४. कमर में पहनने का एक प्रकार का गहना। ५. कमल। ६. छप्पय नामक छन्द के ३७ वें भेद का नाम।
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सारस-प्रिय  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सारसक  : पुं० [सं० सारस+कन्] सारस पक्षी।
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सारसाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] लाल नामक रत्न का एक प्रकार या भेद। वि० [स्त्री० सारसाक्षी] सारस अर्थात कमल के समान सुन्दर नेत्रोंवाला।
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सारसिका  : स्त्री० [सं० सारस+कन्—टाप् इत्व] मादा सारस।
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सारसी  : स्त्री० [सं० सारस—डीप्] १. आर्या छन्द का २३वाँ भेद। २. मादा सारस।
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सारसुती  : स्त्री०=सरस्वती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सारसैंधव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सेंधा नमक।
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सारस्वत  : वि० [सं०] १. सरस्वती से संबंध रखने वाला। सरस्वती का। २. विद्या, विद्वुत्ता, शास्त्रीय ज्ञान आदि से संबंध रखने वाला। शास्त्रीय (एकेडेमिक) ३. सरस्वती नदी से संबंध रखने या उसके आस-पास होने वाला। ४. सारस्वत देश या जाति से संबंध रखने वाला। पुं० १. प्राचीन भारत में सरस्वती नदी के दोनों तटो पर का प्रदेश जो आधुनिक दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में पड़ता है और जो अब पंजाब का दक्षिणी भाग है। प्राचीन आर्यो का यही पवित्र मूल-निवास-स्थान था। २. उत्तर प्रदेश में बसने वाले ब्राह्मणो और उनके वंशजों की संज्ञा। ३. एक मुनि जो सरस्वती नदी के पुत्र कहे गये हैं। ४. वैधक में, एक प्रकार का चूर्ण जो उन्माद, प्रमेह, वायु-विकार आदि में गुणकारी माना जाता है। ५. पुराणानुसार सरस्वती को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किया जाने वाला हर प्रकार का व्रत जो प्रति रविवार या प्रति पंचमी को किया जाता है। कहते हैं कि यह व्रत करने से आदमी बहुत बड़ा विद्वान और भाग्यवान् होता है।
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सारस्वती  : वि०=सारस्वतीय। स्त्री०=सरस्वती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारस्वतीय  : वि० [सं० सरस्वती+घण्—ईय] १. सरस्वती का सरस्वती संबंधी। २. सारस्वत का।
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सारस्वतोत्सव  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. एक प्राचीन उत्सव जिसमें सरस्वती का पूजन होता था। २. आज-कल बसंत पंचमी को होने वाला सरस्वती-पूजन।
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सारस्वत्य  : वि० [सं० सरस्वती+ष्यञ्] सरस्वती का। सरस्वती संबंधी। पुं० सरस्वती का पुत्र जिसे राजशेखर ने काव्य पुरुष कहा है। विशेष—महाभारत में कथा है कि भगवान ने सरस्वती को एक पुत्र इसलिये दिया था कि वह वेदों का अध्ययन करके संसार में उनका प्रचार करे। वही सारस्वत्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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सारहली  : स्त्री० दे० ‘साँडनी’। (डिं०) उदा०—असंष सारहली बाजइ ढूल। नरपतिनाल्ह।
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सारा  : वि० [सं० समग्र] [स्त्री० सारी] १. जितना हो वह सब। कुल। समस्त। २. आदि से अन्त तक जितना हो, वह सब। पूरा। समग्र। स्त्री० [सं०] १. काली निसोथ। २. दूब। ३. सातला। ४. थूहड़। ५. केला। ६. तालीश पत्र। पुं० [?] एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक वस्तु दूसरी से बढ़कर कही जाती है। पुं०=साला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारांभस  : पुं० [सं० ब० स०] नींबू का रस।
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साराम्ल  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक जँबीरी नींबू। २. धामिन।
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सारावती  : स्त्री० [सं०] सारवली। (दे०)
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सारांश  : पुं० [सं० सार+अंश] १. किसी पूरे तथ्य, पदार्थ आदि के मुख्य तत्वों का ऐसा छोटा या संक्षिप्त रूप जिससे गुण, स्वरूप आदि का ज्ञान हो सके। मुख्य सार भाग। खुलासा। निचोड़। समस्तिका। (ऐब्सट्रैक्ट) २. किसी पूरी बात या विवरण की मुख्य और सारभूत विशेषताएँ जो एक जगह एकत्र की गई हों। (समरी) ३. कोई ऐसा छोटा लेख जिसमें की बड़े लेख की सब बातें आ गई हों। सार-संग्रह। (कम्पेन्डियम) ४. तात्पर्य। मतलब। जैसे—सारांश यह कि आप को वहाँ नहीं जाना चाहिये था। ५. परिणाम। नतीजा। ६. उपसंहार।
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साराँशक  : पुं० [सं०] वह कथन या लेख जो किसी विस्तृत उल्लेख या विवरण के साराँश के रूप में हो। (समरी)
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सारि  : पुं० [सं० सार+इन,√सृ (गत्यादि)+इण् वा] १. जुआ खेलने का पासा। २. पासे से जुआ खेलने वाला जुआरी। ३. शतरंज आदि की गोटी या मोहरा।
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सारिउँ  : स्त्री० सारिका (मैना पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सारिक  : वि० [सं० सार से] १. जो सार रूप में हो या साराँश से संबंध रखता हो। २. संक्षेप में कहा गया या संक्षिप्त रूप में हुआ। (ब्रीफ) ३. साराँश के रूप में एक जगह इकठ्ठा या संघठित किया हुआ। (कन्साइज) पुं० दे० ‘सारिका’।
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सारिका  : स्त्री० [सं० सारिक+टाप्] मैना नामक पक्षी।
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सारिखा  : वि०=सरीखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारिणी  : स्त्री० [सं०] १. गन्ध प्रसारिणी लता। २. लाल पुनर्नवा। ३. दुरालभा। ४. दे० ‘सारिणी’। वि० सं० सारी (सारिन्) का स्त्री०।
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सारित  : भू० कृ० [सं०] दूर किया या हटा या हटाया हुआ।
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सारिफलक  : पुं० [सं० ब० स०] चौपड़ की गोटी या पासा। बिसात।
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सारिवा  : स्त्री० [सं० सारिव—टाप्] १. अनंतमूल। २. कृष्ण अनंन्त-मल।
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सारिष्ट  : वि० [सं०] [भाव० सारिष्टता] १. सबसे अच्छा। २. अच्छी तरह बढ़ा हुआ। उन्नत। ३. मृत्यु के समीप पहुँचा हुआ। मरणासन्न।
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सारी  : स्त्री० [सं०] १. सारिका। पक्षी। मैना। २. जूआ खेलने की गोटी या पासा। ३.थूहर। वि० [सं० सारिन] अनुकरण अनुसरण करने वाला। स्त्री० [हिं० सारना] १. सारने (बनाने, रक्षित रखने आदि) की क्रिया या भाव। उदा०—कबीर सारी सिरजनहार की जानै नाहीं कोइ।—कबीर। २. रची या बनाई हुई चीज। रचना। सृष्टि। वि० हिं० ‘सारा’ का स्त्री०। सब। समस्त। स्त्री० १. दे० ‘साड़ी’। २. दे० ‘साली’।
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सारु  : पुं०=सार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सारूप, सारूप्य  : पुं० [सं०] १. दो या अधिक वस्तुओं के रूप अर्थात आकार-प्रकार के विचार से होने वाली समानता। समरूपता। (सेम्ब्लेन्स) २. पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक जिसके संबंध में यह माना जाता है कि इसमें भक्त अपने उपास्य देवता के साथ मिलकर रूप विचार से ठीक उसी के अनरूप हो जाता है।
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सारूप्य निबंधता  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत का कथन न करके उसी तरह के किसी अप्रस्तुत का उल्लेख होता है।
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सारूप्यता  : स्त्री० [सं० सारूप्य+तल्—टाप्]=सारूप्य।
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सारो  : पुं० [सं० शालि] एक प्रकार का धान जो अगहन में पक जाता है स्त्री०=सारिका (मैना)। वि० पुं०=सारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारोदक  : पुं० [सं० कर्म० स०, ब० स० वा] अनंतमूल या सारिवा का रस।
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सारोपा  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, लक्षण का एक प्रकार का भेद जो उस समय माना जाता है जब उपमेय में उपमान का इस प्रकार आरोप होता है कि उपमेय से उपमान का कोई विशिष्ट गुण या धर्म सूचित होने लगे। जैसा—विद्या में आप बृहस्पति हैं, अर्थात आप बृहस्पति के समान विद्वान हैं। इसके गौण सारोप तथा शुद्ध सारोपा दो भेद हैं।
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सारोष्ट्रिक  : पुं० [सं० सारोष्ट्र-ब० स०—ठक्-इक्] एक प्रकार का विष।
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सारौं  : स्त्री०=सारिका (मैना पक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारौ  : स्त्री०=सारिका (मैना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सार्गिक  : पुं० [सं० सर्ग+ठञ्—इक] वह जो सृष्टि कर सकता जो। स्त्रष्टा।
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सार्ज  : पुं० [सं०√सृज (त्यागना] +अण्] धूना। राल।
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सार्टिफिकेट  : पुं० [अं०] प्रमाण-पत्र।
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सार्थ  : वि० [सं०] १. अर्थयुक्त। अर्थवान्। २. धनी। ३. उद्देश्य। पूर्ण। ४. उपयोगी। पुं० १. धनीव्यक्ति। २. व्यापारियों का जत्था। ३. सेना की टुकड़ी। ४. समूह। गोल। ५. यात्रियों का दल।
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सार्थक  : वि० [सं० सार्थ+कन्] [भाव० सार्थकता] १. (शब्द या पद) जिसका कुछ अर्थ हो। अर्थवान। २. जिसका उपयोग निरुद्देश्य न हो। जो किसी उद्देश्य की पूर्ति करता हो। जैसे—वाक्य में होने वाला किसी शब्द का सार्थक प्रयोग। ३. उपयोगी तथा लाभप्रद।
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सार्थकता  : स्त्री० [सं० सार्थक+तल—टाप्] सार्थक होने की अवस्था गुण या भाव।
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सार्थपति  : पुं० [सं०] व्यापार करने वाला। वणिक।
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सार्थवाह  : पुं० [सं०] व्यापारी (विशेषतः दूर तक माल बेचने जानेवाला)
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सार्थिक  : वि० [सं० सार्थ+ठक्—इक्] जो किसी के साथ यात्रा कर रहा हो। पुं० यात्राकाल में संग-साथ रहने के कारण बनने वाला साथी।
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सार्थी  : पुं० [सं० सार्थ+इनि्-सारथिन]=सारथी।
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सार्दूल  : वि० पुं०=शार्दूल।
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सार्द्ध  : वि०=सार्ध।
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सार्द्र  : वि० [सं० अव्य० स०]=आर्द्र (गीला या तर)।
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सार्ध  : वि० [सं०] जो मान, मात्रा आदि के विचार से किसी पूरे एक से आधा और बढ़ गया हो। जैसा—साढ़े चार, साढ़े दस।
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सार्प, सार्प्य  : वि० [सं०] सर्प-संबंधी। सर्प का। पुं० अश्लेषा नक्षत्र।
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सार्व  : पुं० [सं०] सर्व अर्थात् से संबंध रखनेवाला। सब का। जैसा—सार्वजनिक। २. सबके लिये उपयुक्त। पुं० १. गौतम बुद्ध। २. जिन देव।
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सार्व-लौकिक  : वि० [सं०] १. जो सम्पूर्ण लोक या विश्व में प्रचलित या व्याप्त हो। २. जिसका संबंध सब लोगों से हो। ३. जिसे सब लोग जानते हों। ४. विश्वक।
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सार्वकामिक  : वि० [सं०] १. सब प्रकार की कामनाओं से संबंध रखने वाल। २. जो सब तरह की कामनाएँ पूरी करता हो।
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सार्वकालिक  : वि० [सं०] १. जो हर समय होता हो। २. सब कालों में होने वाला। सब नियमो का। ३. जिसका संबंध सब कालों से हो। सर्वकाल संबंधी।
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सार्वगुण  : वि० [सं० सर्वगण+अण्] सर्वगुण संबंधी। सब गुणों का। पुं०=खारा नमक।
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सार्वजनिक  : वि० [सं०] १. सब लोगो से संबंध रखने वाला। सर्व-साधारण संबंधी। (पब्लिक) जैसा—सार्वजनिक उपयोग। २. समान रूप से सब लोगों के काम आने वाला। (कॉमन) जैसा—सार्वजनिक कुआँ या धर्मशाला।
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सार्वजनीन  : वि०=सार्वजनिक।
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सार्वजन्य  : वि० [सं०] सार्वजनिक।
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सार्वज्ञ्य  : पुं० [सं०]=सर्वज्ञता।
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सार्वत्रिक  : वि० [सं०] जो सब स्थानों तथा स्थितियों में प्रायः समान रूप से मिलता, रहता या होता हो। (युनिवर्सल)
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सार्वदेशिक  : वि० [सं०] १. जो सब देशों में होता हो। २. जिसका संबंध सब देशों से हो। (युनिवर्सल) ३. सम्पूर्ण देश में होनेवाला।
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सार्वनामिक  : वि० [सं० सर्वनाम] १. सर्वनाम संबंधी। सर्वनाम का। २. सर्वनाम से निकला या बना हुआ। जैसा—सार्वनामिक विशेषण।
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सार्वभौतिक  : वि० [सं०] १. जिसका संबंध सब भूतों या तत्वों से हो। २. सब प्राणियों से संबंध रखने या उनमें होनेवाला।
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सार्वभौम  : वि० [सं०] १. सम्पूर्ण भूमि से संबंध रखनेवाला। २. सब देशों से संबंध रखने या मन में होनेवाला। पुं० १. चक्रवर्ती राजा। २. हाथी।
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सार्वभौमिक  : वि० [सं०] सार्वभौम। (दे०) पुं० वह जिसका द्रष्टिकोंण इतना विस्तृत हो कि संसार के सब देशों तथा उनके निवासियों को एक समान देखता, समझता तथा मानता हो। ऐसा व्यक्ति स्थानिक, राष्ट्रीय, जातीय तथा अन्य संकुचित विचारों से रहित होता हो। (कॉस्मोपालिटन)
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सार्वराष्ट्रीय  : वि० [सं०] [भाव० सार्वराष्ट्रियता] १. सब या अनेक राष्ट्रों से संबंध रखने वाला। अंतर्राष्ट्रीय। (इन्टरनेशनल) २. (नियम या सिद्धांत) जिसे सब राष्ट्र से मान्यता मिली हो।
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सार्विक  : वि० [सं० सर्व] [भाव० सार्विकता] १. जो साधारणतः सब जगह या सब बातो में प्रायःसमान रूप से देखने में आता हो। (युनिवर्सल) २. विशेषतःकिसी जाति, राष्ट्र, समाज आदि के सब सदस्यों के समान रूप से मिलने या होने वाला। आम। (जेनरल)
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सार्विक वध  : पुं० [सं०] किसी स्थान पर रहने या एकत्र होने वालों की की जाने वाली सामूहिक हत्या। (मैसेकर)
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सार्विक हड़ताल  : स्त्री० [सं०+हिं०] ऐसी हड़ताल जिसमें साधारणतया सभी संबंधित कर्मचारीगण सम्मिलित होते हैं।
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सार्षप  : पुं० [सं० सर्षप+अण्] १. सरसों। २. सरसों का तेल। ३. सरसों संबंधित। सरसों का।
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सार्ष्टि  : स्त्री० [सं० सृष्टि+इञ्] पाँच प्रकार की मूर्तियों में से एक। वि० [भाव० सार्ष्टिता ] अधिकार, पद, स्थिति आदि में किसी के समान।
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सार्ष्टिता  : स्त्री० [सं०] अधिकार, पद, स्थिति आदि के विचार से होने वाली समानता।
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साल  : पुं० [पहलवी सालक से फा०, मि० सं० शारद] १. किसी सन् या संवत् के आरंभिक महीने तक का पूरा समय। वर्ष। बरस। जैसा—इस साल अच्छी वर्षा (या फसल) होने की आशा है। २. किसी दिन या महीने से आरंभ करते हुए बारह महीनों का समय। जैसा—यह इमारत साल भर में बनकर तैयार होगी। स्त्री० [हिं० सालना] १. ‘सालने’ की क्रिया का भाव २. सालने, खटकने या चुभने वाली कोई चीज। जैसे काँटा या सुई। उदा०—कछु सालतें लोभ विशाल से हैं।...।—केशव। ३. मन में होने वाला कष्ट। वेदना। पीड़ा। कसक। ४. क्षत। घाव। ५. लकड़ियाँ जोड़ने के लिये उनमें किया जाने वाला चौकोर छेद। ६. छेद। सुराख। पुं० [सं०] १. पेड़। वृक्ष। २. जड़। मूल। ३. धूना। राल। ४. चहारदीवारी। परकोटा। ५. एक प्रकार की मछली। ६. गीदड़। सियार। ७. किला। गढ़। (डिं०) पुं० [?] १. कूचबंदों की परिभाषा में, खस की जड़ जिससे वे कूच बनाते हैं। २. एक प्रकार की जंगली जंतु जिसके मुँह में दाँत नहीं होते और जो च्यूँटियाँ, दीमक आदि खाता है। पुं०=शाल (वृक्ष)। २. =शालि। ३. =शल्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=शाला। जैसे—धर्मशाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साल भंजिका  : स्त्री०=शाल भंजिका।
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साल-गिरह  : स्त्री० [फा०] वर्ष-गाँठ। जन्म-दिन।
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साल-द्रुम  : पुं० [सं० मध्यम० स० ब० स० वा] सागौन का पेड़। साखू।
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साल-निर्यास  : पुं० [सं० ष० त०] धूना। राल।
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साल-साँभर  : पुं० दे० ‘बारहसिगा’।
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सालंक  : पुं० [सं०] संगीत में, राग के तीन प्रकारों से एक। ऐसा राग जो बिलकुल शुद्ध और स्वतंत्र होने पर भी किसी दूसरे राग की छाया से युक्त जान पड़ता हो।
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सालक  : वि० [हिं० सालना+क (प्रत्य०) ] सालने या दुख देनेवाला।
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सालंकार  : वि० [सं० तृ० त०] अलंकारों से सजा हुआ। अलंकृत।
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सालंग  : पुं० [सं० सलंग+अण्]=सालंक (राग)।
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सालग  : पुं० [सं०]=सालंक।
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सालगा  : पुं० दे० ‘सलई’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालग्राम  : पुं०=शालग्राम।
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सालग्रामी  : स्त्री० [सं० शालग्राम] गंडक नदी।
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सालज  : पुं० [सं० साल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] सर्जरस। धूना। राल।
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सालन  : पुं० [सं० सलवण] मांस-मछली या साग-सब्जी की मसाले दार तरकारी। पुं० [सं० साल] धूना। राल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालना  : अं० [सं० शूल] १. किसी कँटीली चीज का शरीर के किसी अंग में गड़कर या चुभकर पीड़ा उत्पन्न करना। २. लाक्षणिक रूप में, किसी कष्टदायक बात का मन में इस प्रकार घर करना कि वह रह-रहकर विशेष कष्ट देती रहे। ३. गड़ना। चुभना। संयो० क्रि०—जाना। सं० १. कोई नुकीली चीज किसी दूसरी चीज के अंदर गाड़ना या धँसाना। २. चुभाना। ३. किसी को दुख देना।
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सालपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीप्] शालपर्णी। सरिवन।
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सालपान  : पुं० [सं० शालिपर्णी ?] एक प्रकार का क्षुप जो वर्षा ऋतु के अंत में फूलता है। इसकी जड़ का व्यवहार ओषधि के रूप में होता है। कसरवा। चाँचर।
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सालंब  : वि० [सं० तृ० त०] अवलंब या सहारे से युक्त। (समास से)
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सालब मिसरी  : स्त्री० दे० ‘सालम मिसरी’।
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सालम मिसरी  : स्त्री० [अ० सअलब+मिस्त्री=मिस्त्र देश का] एक प्रकार के पौधे का कन्द जो पौष्टिक होने के कारण ओषधियों में प्रयुक्त होता है। वीरकंद। सुधामूली।
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सालर  : पुं०=सलई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालरस  : पुं० [सं० ष० त०] धूना। राल।
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सालस  : पुं० [अ० सालस०=तीसरा] १. वह तीसरा व्यक्ति जो दो व्यक्तियों के झगड़े का निपटारा करता हो। तिसरैत। २. पंच।
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सालसा  : पुं० [अ०] रक्त शोधक ओषधियों के योग से बना हुआ पाश्चात्य ढ़ंग का एक प्रकार का काढ़ा।
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सालसी  : स्त्री० [अ०] १. सालस होने की अवस्था या भाव। २. दूसरों का झगड़ा निपटाने के लिये तीसरे व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों की बनी हुई पंचायत।
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सालहज  : स्त्री०=सलहज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साला  : पुं० [सं० श्यालक] [स्त्री० साली] १. संबंध के विचार से किसी व्यक्ति की द्रष्टि में उसकी पत्नी का भाई। २. लोक व्यवहार में उक्त प्रकार का संबंध सूचित करने वाली एक गाली। पुं० [सं०] सारिका। मैना। पक्षी। स्त्री०=शाला। वि० [हिं० साल०=वर्ष] नियत साल या वर्ष पर होने वाला या उससे संबंध रखने वाला। जैसा—दो-साला। पेड़=दो साल का लगा हुआ पेड़। तिन-साला बंदोबस्त०=तीन साल के लिये होने वाला बंदोबस्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालाना  : वि० [फा० सालान] हर साल होने वाला। वार्षिक।
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सालार  : पुं० [फा०] नायक। नेता। जैसे—सिपह-सालार=सिपाहियों (फौजियों) का नेता।
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सालारजंग  : पुं० [फा०] १. योद्धा। २. प्रधान सेनापति। ३. साला (पत्नी का भाई) के लिये उपहासात्मक शब्द।
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सालि  : पुं०=शालि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालिक  : वि० [अ०] १. पथिक। यात्री। २. मुसलमानों में वह साधक जो गृहस्थाश्रम में रहकर भी ईश्वराधना में रत रहता हो।
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सालिका  : स्त्री० [सं०] बाँसुरी।
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सालिग्राम  : पुं०=शालग्राम।
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सालिनी  : स्त्री०=शालिनी (गृहणी)।
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सालिब मिश्री  : स्त्री०=सालम मिस्त्री।
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सालिम  : वि० [अ०] जो कहीं से खंडित न हो। पूर्ण। संपूर्ण। समूचा। जैसे—सालिम तरबूज।
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सालियाना  : वि=सालाना (वार्षिक)।
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सालिसी  : स्त्री० [अ०] दे० ‘सालसी’।
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सालिहोत्री  : पुं०=शालिहोत्री।
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साली  : स्त्री० [हिं० साला] १. संबंध के विचार से पत्नी की बहन। २. हठ योंगियों की परिभाषा में माया, वासना आदि। स्त्री० [फा० साल] १. साल या वर्ष का भाव] (यौ० के अन्त में ) जैसे कहत साली, खुश्कसाली। २. हर साल या प्रतिवर्ष के हिसाब से दिया जाने वाला पारिश्रमिक, पुरस्कार या वेतन।
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सालुर  : पुं०=शालूर (मेंढक)।
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सालू  : पुं० [हिं० सालाना] १. वह जिसके मन को दूसरों का उत्कर्ष सालता हो। ईर्ष्यालु। २. सालने वाली बात। पुं० [?] एक प्रकार का लाल कपड़ा जिसे मांगलिक अवसरों पर स्त्रियाँ ओढ़ती हैं। (पश्चिम)।
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सालेया  : स्त्रि० [सं० सालेय]+टाप्] सौंफ।
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सालोक्य  : पुं० [सं० सलोक, ब० स० ष्यञ] पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक प्रकार की मुक्ति, जिसके फलस्वरूप साधक अपने ईष्टदेव के लोक में जाकर उसमें लीन हो जाता है।
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सालोहित  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा व्यक्ति जिसके साथ रक्त संबंध हो। नातेदार। २. कुल या वंश का व्यक्ति।
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साल्मली  : पुं०=शाल्मली (सेमल का पेड़)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साल्व  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जाति जो किसी समय मध्य (या उत्तरी ?) पंजाब में रहती थी। २. पंजाब का मध्य प्रदेश जिसमें उक्त जाति रहती थी। ३. उक्त प्रदेश का निवासी। ४. एक दैत्य जिसका वध विष्णु ने किया था।
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साल्वेय  : वि० [सं० साल्व+ढ़क्—एय] साल्व देश संबंधी। साल्व का।
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साव  : पुं० [सं० सावक=शिशु] बालक। पुत्र। (डि०) पुं०=साहु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँवक  : पुं०[देश०] वह ऋण जो हलवाहों को दिया जाता है और जिसके सूद के बदले में वे काम करते हैं। पुं० [सं० श्यामक] साँवा नामक कदन्न।
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सावक  : पुं०=श्रावक (जैन या बुद्ध भिक्षु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावँकरन  : पुं०=श्यामकर्ण (घोड़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावका  : अव्य० [अ० साबिक ?] नित्य। सदा। उदा०—वायु सावका करै लराई, माइया सद मतवारी।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावकाश  : अव्य० [सं०] अवकाश होने पर। छुट्टी या फुरसत के समय। पुं०=आकाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावगी  : पुं०=सरावगी। स्त्री०=किशमिश। (पंजाब)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावघ  : वि० [सं०] जिसके संबंध में कोई आपत्तिजनक बात कही जा सकती हो। जो किसी रूप में दोष, भ्रम आदि से युक्त हो। ‘निरवद्य’ का विपर्याय। जैसा—आपका यह कथन मेरी दृष्टि में कुछ सावद्य है। पुं० योग में तीन प्रकार की सिद्धियों में से एक। (शेष दो प्रकार निवद्य औऱ सूक्ष्म कहलाते हैं।)
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सावचेत  : वि० [सं० सा+हिं० चेत] [भाव० सावचेती]=सावधान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सावज  : पुं० [सं० शावक ?]। जंगली जानवर जिसका शिकार किया है। (गेम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँवटा  : वि० [?] १. समतल। बराबर। २. पूरी तरह से समाप्त किया हुआ। सफाचट। उदा०—तुमने खा पीकर साँवटा कर दिया होगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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सावणिक  : पुं० [सं० श्रावण] श्रावण मास। (डि०)
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साँवत  : पुं०=सामंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावंत  : पुं०=सामंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावत  : स्त्री० [हिं० सौत] १. सोंतो का आपस में भेद या डाह। सौतिया डाह। २. ईष्या। जलन। डाह। उदा०—तहँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहूँ मिटत न सावत।—तुलसी।
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साँवती  : स्त्री० [देश०] बैलगाड़ियों आदि के नीचे की वह जाली जिसमें बैलों के लिए घास आदि रखते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांवत्सर  : वि०, पुं० [सं०]=सांवत्सरिक।
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सांवत्सरिक  : वि० [सं०] १. संवत्सर-सम्बन्धी। २. प्रतिवर्ष होनेवाला। वार्षिक। पुं० १. ज्योतिषी। २. चांद्र मास।
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सांवत्सरीय  : वि० [सं० संवत्सर+इण्—ईष] १. संवत्सर-सम्बन्धी। २. वार्षिक।
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सावधान  : वि० [सं० अव्य० स०] [भाव० सावधान] १. जो अवधान या ध्यान पूर्वक कोई काम करता हो। २. जिसे ठीक समय पर तथा ठीक तरह से काम करने की प्रवृत्ति हो। ३. जो परिस्थितियों आदि की क्रिया शीलता के प्रति जागरुक तथा सचेत हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावधानता  : स्त्री० [सं० सावधान+तल्—टाप्] १. सावधान होने की अवस्था, गुण या भाव। २. वह सुरक्षात्मक कार्रवाई जो खतरे आदि से सावधान रहने के लिये की जाती है।
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सावधि  : वि० [सं०] १. जिसकी कोई अवधि निश्चित हो। निश्चितकार्य-कालवाला। २. जिसकी सीमा बाँध दी गई हो।
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साँवन  : पुं० [?] मझोले आकार का एक प्रकार का पहाड़ी पेड़ जिसका गोंद ओषधि के रूप में काम आता है। कहते हैं कि यह गोंद मछली के लिए बहुत घातक होता है। पुं०=सावन (महीना)।
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सावन  : पुं० [सं० श्रावण] १. आसाढ़ के बाद और भाद्रपद के पहले का महीना। श्रावण। २. वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला एक प्रकार का गीत। पुं० [सं०] १. सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का काल या समय। पूरा एक दिन और एक रात जिसका मान ६॰ दंड है। २. यज्ञ का अंत या समाप्ति। ३. यजमान। ४. वरुण। वि० १. एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के काल से संबंध रखने वाला। २. (काल-मान) जिसकी गणना एक सूर्योदय दूसरे सूर्योदय तक काल के विचार से हो। जैसे—सावन दिन-सावन मास, सावन वर्ष आदि। पुं० [?] मँझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष जिसका गोंद ओषधि के रूप में काम आता है और मछलियों के लिये विष होता है। पुं०=सावनी (गीत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावन दिन  : पुं० [सं०] १. उतना समय जितना सूर्य को एक बार याम्योत्तर रेखा से चलकर फिर वहीं आने में लगता है। २. एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का समय। ६॰ दंडों का समय। विशेष—(क) यह नक्षत्र दिन से कभी कुछ छोटा तथा कभी कुछ बड़ा होता है इसलिये, ज्योतिषी लोग नक्षत्र मान का ही व्यवहार करते हैं। (ख) तीन सौ साठ सौर दिनों का एक सावन वर्ष होता है।
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सावन भादों  : पुं० [हिं०] राजमहल का वह विभाग जिसमें जल विहार के लिये तालाब, झरने, फुहारे आदि होते थे। अव्य० सावन और भादों के महीने में।
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सावन वर्ष  : पुं० [सं०] ज्योतिष की गणना में वह वर्ष जो ३६॰ सौर दिनों का होता है। (ट्रापिकल ईयर)
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सावन हिंडोला  : पुं० [हिं०] वे सब गीत जो (क) स्त्रियाँ सावन में झूला झूलने के समय गाती हैं अथवा (ख) देवताओं के झूलने के उत्सव के समय गाते जाते हैं। ऐसे गीत तो प्रायः श्रृंगारात्मक होते हैं।
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सावन-मास  : पुं० [सं०] भारतीय ज्योतिष की गणना के अनुसार व्यापारिक और व्यवहारिक कार्यो के लिये माने जाने वाला एक प्रकार मास जो किसी तिथि से आरंभ होकर उसके तीसवें दिन तक होता है। यदि गणना चाँद मास की तिथि के अनुसार हो तो उसे चाँद्र सावन कहते है। और यदि सौर मास की तिथि के अनुसार हो तो उसे सौर सावन मास कहते हैं।
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सावनी  : वि० [हिं० सावन (महीना)] १. सावन संबंधी। सावन का। २. सावन में होने वाला। स्त्री० १. सावन में गाया जाने वाला एक प्रकार का गीत। २. सावन में वर पक्ष से कन्या के लिये भेजे जाने वाले कपड़े, फल, मिठाइयाँ आदि। ३. सावन के लगभग तैयार होने वाली फसल। ४. एक प्रकार का पौधा और उसके फूल। पुं० सावन में तैयार होने वाला एक प्रकार का धान। स्त्री०=श्रावणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावनी कल्याण  : पुं० [हिं० सावनी+सं० कल्याण] सावनी और कल्याण के मेले से बना हुआ एक प्रकार का संकर राग। (संगीत)
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साँवर  : वि०=साँवला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावर  : पुं० [सं० सवर+अण्] १. लोभ। २. अपराध। दोष। ३. पाप। पुं० १. =शाबर। २. =साबर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावरणी  : स्त्री० [सं० सावरण—ङीप्] वह बुहारी जो जैन यति अपने साथ रखते हैं।
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सावरिका  : स्त्री० [सं० सावर+कन्-टाप्,इत्व] एक प्रकार की जोंक जो जहरीली नहीं होती।
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सावर्ण  : वि० [सं० सवर्ण+अण्] जो एक जाति या वर्ण के हों। सवर्ण। पुं० दे० सावर्णि।
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सावर्णक  : पुं० [सं० सावर्ण+कन्]=सावर्णि।
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सावर्णि  : पुं० [सं सवर्णा+इञ्] सूर्य के पुत्र आठवें मनु। २. उक्त मनु का मन्वन्तर।
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सावर्णिक  : वि० [सं० सावर्णि+कन्] जिनका संबंध एक ही जाति या वर्ण से हो।
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सावर्ण्य  : पुं० [सं० सवर्ण+ष्यञ्] सवर्ण होने की अवस्था, गुण या भाव।
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साँवलताई  : स्त्री०=साँवलापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँवला  : वि० [सं श्यामल] [स्त्री० साँवली, भाव०साँवलापन] जिसके शरीर का रंग हलका कालापन लिए हुए हो। श्याम वर्ण का। पुं० १. कृष्ण। २. पति के लिए संबोधन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँवलापन  : पुं० [हिं० साँवना+पन (प्रत्य०)] साँवला होने की अवस्था, गुण या भाव। वर्ण की श्यामता।
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साँवलिया  : वि० [हिं० साँवला] साँवले रंग का (व्यक्ति)। पुं० श्रीकृष्ण का एक नाम।
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सावष्टंभ  : पुं० [सं० अव्य० स०] ऐसा मकान जिसके उत्तर-दक्षिण सड़क हो। (ऐसा मकान बहुत शुभ माना जाता है।) वि० १. मजबूत। दृढ़। २. आत्म-निर्भर।
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साँवाँ  : पुं० [सं० श्यामक] कंगनी या चेना की जाती का एक अन्न जो जेठ में तैयार होता है।
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सांवादिक  : वि० [सं० संवाद+ठक्—इक] १. विवादास्पद। २. प्रचलित। ३. संवाद-संबंधी। ४. समाचार-संबंधी। पुं० १. नैयामियक। २. पत्रकार।
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साविका  : स्त्री० [सं० अव्य० स०] धाय। दाई।
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सावित्र  : वि० [सं०] सविता अर्थात सूर्य-संबंधी, जैसा—सावित्र होम। २. सविता या सूर्य से उत्पन्न। पुं० १. सूर्य। २. शिव। ३. वसु। ४. ब्राह्मण। ५. सूर्य के पुत्र। कर्ण। ६. गर्भ। ७. यज्ञोपवीत। ८. एक प्रकार प्राचीन अस्त्र।
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सावित्री  : स्त्री० [सं०] १. सूर्य की किरण। २. ऋग्वेद का गायत्री नामक मंत्र जिसमें सूर्य की स्तुति की गई है। ३. सरस्वती। ४. सूर्य की एक पुत्री जो ब्रह्मा को ब्याही थी। ५. दक्ष की एक कन्या जो धर्म की पत्नी थी। ६. मत्स्य देश के राजा अश्वपति की कन्या जो सत्यवान को ब्याही थी और जिसने सत्यवान को काल के हाथ छुड़ाया था। इसकी गणना परम सती स्त्रियों में होती है। ७. कोई सती साध्वी स्त्री। ८. साधवा स्त्री। ९. सरस्वती नदी। १॰. यमुना नदी। ११. उपनयन संस्कार। १२. आँवला।
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सावित्री व्रत  : पुं० [सं०] एक व्रत जो स्त्रियाँ जेष्ठ कृष्ण चतुर्दशी को अपने पति की दीर्घायु की कामना से करती हैं।
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सावित्री सूत्र  : पुं० [सं० ष० त० मध्यम० स०] यज्ञोपवीत। यज्ञोपवीत जो सावित्री दीक्षा के समय धारण किया जाता है।
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सावित्रेय  : पुं० [सं० सावित्री+ढक्—एय] यमराज। यम।
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सांवेदिक  : वि० [सं०] शरीर के संवेदन सूत्रों से संबंध रखनेवाला। (सेन्सरी)
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सावेरी  : स्त्री० [?] संगीत में भैरव ठाठ की एक प्रकार की रागिनी।
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सांशयिक  : वि० [सं० संशय+ठञ्—इक] १. संशय-संबंधी। २. जिसके सम्बन्ध में कुछ संशय हो।
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साशंस  : वि० [सं०] इच्छुक। आकांक्षी।
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साशिव  : पुं० [सं० ब० स०] १. प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. ऋषी का पुत्र। ऋषीक।
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साश्चर्य  : वि० [सं०] १. आश्चर्यजनक। चकित करने वाला। २. चकित।
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साश्रु  : वि० [सं० ब० स०] १. आँसुओं से युक्त। अश्रुपूर्ण। २. रोता हुआ। अव्य। १. आँसुओं से युक्त होकर। २. आँखों में आँसू भरकर। रोते हुए।
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साश्वत  : वि०=शाश्वत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साष्टांग  : वि० [सं० तृ० त०] आठों अंगों से युक्त। क्रि० वि० आठों अंगों से। जैसे—साष्टाँग प्रणाम करना।
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साष्टांग-प्रणाम  : पुं० [सं०] सिर, हाथ, पैर० हृदय, आँख, जाँघ, वचन और मन इन आठों से युक्त होकर और जमीन पर सीधा लेटकर किया जाने वाला प्रणाम।
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साँस  : पुं० [सं० श्वास] १. प्राणियों का जीवन धारण के लिए नाक या मुँह से हवा अंदर खींचकर फेफड़ों तक पहुँचाने और उसे फिर बाहर निकालने की क्रिया। श्वास। दम। (ब्रीद) विशेष—(क) जल में रहनेवाले जीवों और वनस्पतियों में भी यह क्रिया होती है, पर उनका प्रकार और स्वरूप कुछ भिन्न होता है। जब तक यह क्रिया चलती रहती है, तब तक प्राणी या शरीर जीवित रहता है। (ख) सं० श्वास से व्युत्पन्न हिं साँस सर्वथैव पुल्लिंग है। पर उर्दू के कुछ कवियों ने भूल से इसका प्रयोग स्त्रीलिंग में किया है, और उनके अनुकरण पर हिंदी कोशों में भी इसे स्त्रीलिंग माना गया है जो ठीक नहीं है। क्रि० प्र०—आना।—खींचना।—छोड़ना।—जाना।—निकलना।—लेना। मुहा०—साँस उखड़ना= (क) साँस लेने की क्रिया का बीच में कुछ समय के लिए रुकना। जैसे—गाने में गवैये का साँस उखड़ना। (ख) मरने के समय रोगी का बहुत कष्ट से और रुक-रुककर साँस लेना। साँस ऊपर-नीचे होना=चिंता, भय आदि के कारण साँस की क्रिया बार बार रुकना। साँस खींचना=वायु अंदर खींचकर उसे इस प्रकार रोक रखना कि ऊपर से देखने पर निर्जीव या मृत जान पड़े। जैसे—शिकारी को देखते ही हिरन साँस खींचकर पड़ा गया। साँस चढ़ना=बहुत परिश्रम करने के कारण थक जाने पर साँस का जल्दी जल्दी आना-जाना। साँस चढ़ाना=प्राणायाम के समय अथवा यों ही वायु अंदर खींचकर उसे कुछ समय के लिए रोक रखना। साँस छूटना=साँस लेने की क्रिया बंद होना जो मृत्यु का लक्षण है। साँस टूटना=दे० ‘ऊपर ‘साँस उखड़ना’। साँस तक न लेना=इस प्रकार चुप या मौन हो जाना कि मानों अस्तित्व या उपस्थिति ही नहीं है। जैसे—जब मैंने उसे फटकारना शुरू किया, तब उसने साँस तक न लिया। साँस फूलना=अधिक शारीरिक श्रम करने के कारण साँस का जल्दी जल्दी चलने लगन। (ख) दमे का रोग होना। साँस भरना=दे० नीचे ‘ठंडा साँस लेना’। साँस रहते=जब तक जीवन रहे। जीते जी। जैसे—साँस रहते तो मैं कभी ऐसा न होने दूँगा। साँस लेना=परिश्रम करते-करते थक जाने पर सुस्ताने के लिए ठहरना या रुकना। उलटा साँस लेना= (क) मरने के समय बहुत कष्ट से और रुक-रुक कर साँस लेना। (ख) दे० नीचे ‘गहरा या ठंढा या लंबा साँस लेना’। गहर, ठंढा या लंबा साँस लेना= (क) बहुत अधिक मानसिक कष्ट के कारण अथवा (ख) मन पर पड़ा हुआ भार हलका कहोने के कारण कुछ अधिक देर तक हवा अंदर खींचते हुए फिर कुछ अधिक देर तक उसे बाहर निकालना जो ऐसे अवसरों पर प्रायः शरीर का स्वाभाविक व्यापार होता है। विशेष—साँस के शेष मुहा० के लिए दे० ‘दम’ के मुहा० २. किसी प्रकार की जीवनी-शक्ति या सक्रियता। दस। जैसे—अब मामले में कुच भी साँस नहीं रह गया, अर्थात् उसके संबंध में अब कुछ भी नहीं हो सकता; या अब यह और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। ३. निरंतर बहुत समय तक काम करते रहते या थक जाने पर सुस्ताने के लिए बीच में किया जानेवाला विश्राम या लिया जानेवाला अवकाश। मुहा०—साँस लेना=कोई काम करते समय सुस्ताने के लिए बीच में कुछ ठहरना या रुकना। जैसे—जब तक यह काम पूरा न हो जाय, तब तक मुझे साँस लेनी की भी फुरसत न मिलेगी। ४. किसी चीज के फटने आदि के कारण उसके तल में पड़नेवाली पतली दरज या संकीर्ण संधि। मुहा—किसी चीज का) साँस लेना=किसी चीज का बीच में इस प्रकार फटना कि उसकी दरज में से हवा आ जा सके। जैसे—दीवार या फर्श का साँस लेना, अर्थात् बीच में से फटना। ५. उक्त प्रकार के अवकाश, दरज, या संधि में भरी हुई हवा। मुहा०—(किसी चीज में का) साँस निकलना=अंदर भरी हुई हवा का बाहर निकल जाना। जैसे—गुब्बारे या रबर के गेंद का साँस निकलना। (किसी चीज में) साँस भरना=अंदर हवा पहुँचाना या भरना। ६. एक प्रसिद्ध रोज जिसमें साँस बहुत जोर जोर से और जल्दी जल्दी चलता है। दम या साँस फूलने का रोग। दमा।
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सास  : स्त्री० [सं० श्वसु] १. संबंध के विचार किसी की पत्नी या पति की माता। २. संबंध के विचार से उक्तस्थान पर पड़ने वाला स्त्री। जैसे—चचिया सास, ममिया सास,। ३. नाथ और सिद्ध सम्प्रदायों में मणिपुर चक्र में स्थित अपान वायु जो माया, मोह, वासना आदि की जननी मानी गई है। उदा०—सास ननद को मारअदल मैं दिहा चलाई।—पलटूदास।
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सासण  : पुं०=शासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँसत  : स्त्री० [हिं० साँस+त (प्रत्य०)] १. दम घुटने का सा कष्ट। २. बहुत अधिक शारीरिक कष्ट या यातना। ३. बहुत कठोर शारीरिक दंड।
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सासत  : स्त्री०=साँसत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँसत घर  : पुं० [हिं० साँसत+घर] १. कारागार की बहुत ही तंग तथा अत्यन्त अंधकारपूर्ण कोठरी जिसमें दुष्ट कैदी इसलिए रखे जाते हैं कि उन्हें बहुत अधिक शारीरिक कष्ट हो। २. बहुत अँधेरी और छोटी कोठरी।
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सासति  : स्त्री०=शास्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांसद  : वि० [सं० संसद] (कथन, व्यवहार या आचरण) जो संसद या उसके सदस्यों की मर्यादा के अनुकूल हो। पूर्ण भद्रोचित। (पार्लमेन्टरी)
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सांसद सचिव  : पुं० [सं०] किसी राज्य के मंत्री से सम्बद्ध वह सचिव जो उसके संसद के कार्यों में सहायता देता हो। (पार्लमेन्टरी सेक्रेटरी)
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सांसदी  : पुं० [सं० संसद] वह जो संसद के रीति-व्यवहारों का अच्छा ज्ञाता हो और उसमें बैठकर सब काम ठीक तरह से चलाने में पूर्ण पटु हो। (पार्लिमेन्टेरियन)
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सासन  : पुं०=शासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सासन लेट  : [?] एक प्रकार का सफेद जालीदार कपड़ा
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साँसना  : स० [सं० शासन] १. शासन करना। दंड देना। २. डाँटना-डपटना। ३. साँसत में डालकर बहुत कष्ट या दुःख देना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सासना  : सं० [सं० शासन] १. शासन करना। २. दंड देना। ३. कष्ट देना। पुं०=शासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सासरा  : पुं०=ससुराल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांसर्गिक  : वि० [सं० संसर्ग+ञ्—इक] १. संसर्ग सम्बन्धी। २. संसर्ग से उत्पन्न होने या बढ़नेवाला। (कन्टेजस)
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साँसल  : पुं० [?] १. एक प्रकार का कंबल। २. खेतों में बीज बोना।
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साँसा  : पुं० [हिं० साँस] १. श्वास। साँस। २. जीवन। जिंदगी। जैसे—जब तक साँसा, तब तक आशा। पुं० [सं० संशय] १. संदेह। शक। उदा०—सतगुर मिलिया साँसा भाग्या, सैन बताई साँची। —मीराँ। २. भय। डर। पुं०=साँसत। जैसे—मेरी जान तभी से साँसे में पड़ी है। वि०=साँचा (सच्चा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सासा  : स्त्री० [सं० संशय] संदेह। पुं० साँस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सांसारिक  : वि० [सं०] [भाव० सांसारिकता] १. जिसका संबंध इस संसार या उसकी वस्तुओं, व्यापारों आदि से हो। आध्यात्मिक तथा पारलौकिक से भिन्न। २. जिसका संबंध मुख्यतः जीवन की आवश्यकताओं विषय-भोगों आदि से हो।
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सांसिद्धिक  : वि० [सं० सांसिद्धि+ठञ्—इक] १. संसिद्धि सम्बन्धी। २. प्राकृतिक। स्वाभाविक। ३. आत्म-भू। स्वतः प्रसूता।
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साँसी  : पुं० [?] एक जंगली और यायावर या खानाबदोश जाति।
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सासु  : वि० [सं० तृ० त०] प्राणयुक्त। जीवित। स्त्री० सास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सासुर  : पुं० १. ससुर। २. ससुराल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांस्कारिक  : वि० [सं संस्कार+ठञ्—इक] १. संस्कार-संबंधी। २. संस्कार-जन्य। ३. अन्त्येष्टि क्रिया से सम्बन्ध रखनेवाला।
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सांस्कृतिक  : वि० [सं० संस्कृति+ठञ्—इक] संस्कृति से संबंध रखने या संस्कृति के क्षेत्र में आने या होनेवाला। (कलचरल)
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सांस्थानिक  : वि० [सं० संस्थान+ठक्—इक] संस्थान-सम्बन्धी। संस्थान का।
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सांस्पर्शिक  : वि० [सं० संस्पर्श+ठञ्—इक] १. संस्पर्श-सम्बन्धी। २. संस्पर्श से उत्पन्न या फैलनेवाला। २. दे० ‘संक्रामक’।
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सास्मित  : पुं० [सं० ब० स०, तृ० त० वा] शुद्ध सत्व को विषय बनाकर की जाने वाली भावना।
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सास्वादन  : पुं० [सं० ब० स०] जैनों में, निर्वाण प्राप्ति चौदह अवस्थाओं में दूसरी अवस्था।
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साह  : पुं० [सं० साधु] १. सज्जन और साधु पुरुष। २. वणिक। महाजन। साहूकार। ३. धनी और प्रतिष्ठित व्यक्ति। ४. चीते आदि की तरह का एक प्रकार का पहाड़ी और हिंसक जंतु जिसके शरीर पर छल्लेदार चित्तियाँ या धब्बे होते हैं। ५. लकड़ी या पत्थर का वह लंबा टुकड़ा जो दरवाजे चौखटे में दहलीज के ऊपर दोनो पार्श्वों में लगा रहता है। स्त्री० [सं० शाखा या स्कंध] बाँह। भुजदंड। उदा०—सकल भुआन मंगल-मंदिर के द्वार बिसाल सुहाई साहैं।—तुलसी। पुं०=शाह (बादशाह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहचर्य  : पु० [सं०] १. सहचर होने की अवस्था या भाव। २. साथ साथ रहने या होने का भाव। संग-साथ। (ऐसोसियेशन)
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साहजिक  : वि० [सं०] १. (कार्य या व्यापार) जो प्राणी की सहज बुद्धि या आन्तरिक प्रेरणा से सम्पन्न होता हो। वृत्तिक। सहज (इंस्टक्टिव) २. स्वाभाविक।
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साहजिक धन  : पुं० [सं०] पारितोषिक, वेतन, विजय आदि में मिला हुआ धन। (शुक्त नीति)
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साहण  : पुं० [सं० साधन] १. साथी। संगी। २. सेना। फौज। ३. परिषद्। (डिं०)
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साहना  : स० [सं० सह] १. ग्रहण या प्राप्त करना। लेना। उदा०—खाँतातार मारुफ खाँ लिए पान कर साहि।—चन्दबरदाई। २. भैंस से भैंसे का संभोग कराना। स० [सं० साधन] १. सहारा देना। २. दे० ‘साधना’। स्त्री०=साधना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहनी  : पुं० [सं० साधनिक, प्रा० साहनिअ] १. प्राचीन भारत में, एक प्रकार के राजकर्मचारी जो किसी सैनिक विभाग में अधिकारी होते थे। २. मध्ययुग में, एक प्रकार के राजकर्मचारी जो नगर की व्यवस्था करते थे। उदा०—भरत सकल साहनी बोलाये।—तुलसी। ३. परिषद्। दरबारी। ४. संगी। साथी। स्त्री० सेना। फौज।
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साहब  : पुं० [अ० साहिब] [स्त्री० साहिबा] १. मालिक। स्वामी। २. परमात्मा। ३. मित्र। साथी। शिष्ट समाज में, भले आदमियों के नाम या पेशे के साथ प्रयुक्त होनेवाला आदरार्थक शब्द। जैसा—बाबू कालिका-प्रसाद साहब, डा० साहब, वकील साहब। ५. अंग्रेजी शासन-काल में, इंग्लैण्ड या युरोप का कोई निवासी।
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साहब-सलामत  : स्त्री० [अ०] परस्पर मिलने के समय होनेवाला अभिवादन। बंदगी। सलाम। जैसा—अब तो दोनों में साहब-संलामत भी बंद हो गई है।
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साहबजादा  : पुं० [अ० साहिब+फा० ज़ादा] [स्त्री० साहबजादी] भले आदमी या रईस का लड़का।
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साहबाना  : वि० [अ०] १. साहबों अर्थात् पाश्चात्य देशों के गोरे अथवा अफसरों की तरह का या उनके रंग-ढंग जैसा। २. साहबों अर्थात भले आदमियों की तरह का।
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साहबी  : वि० [अ० साहिब=ई (प्रत्य०)] साहब का। साहब संबंधी। जैसा—साहबी ठाट-बाट, साहबी रंग-ढंग। स्त्री० १. साहब अर्थात् स्वामी होने की अवस्था या भाव। अधिकारपूर्ण प्रभुत्व या स्वामित्व। २. साहब अर्थात पाश्चात्य देश के गोरे निवासी होने की अवस्था, ढंग या भाव। ३. बड़प्पन। महत्त्व।
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साहबीयत  : स्त्री० [?] ‘साहबी’ या साहब होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव।
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साहस  : पुं० [सं०] [वि० साहसिक, साहसी] १. प्राचीन भारत में, बलपूर्वक किया जाने वाला कोई अनुचित, क्रूरतापूर्ण तथा नीति-विरुद्ध कार्य। जैसे—किसी के धन या स्त्री का अपहरण, मार-काट, लूट-पाट आदि। विशेष—इसीलिए यह शब्द अत्याचार, दुष्कर्म, बलात्कार आदि का भी वाचक हो गया था। २. वैदिक युग में, वह अग्नि जिस पर यज्ञ के लिए चरू पकाया जाता था। ३. आज-कल मन की दृढता और शक्ति का सूचक वह गुण या तत्व जिसके फलस्वरूप मनुष्य बिना किसी भय या संकोच के कोई बहुत कठिन, जोखिम का बहुत बडा़ या बूते के बाहर का काम करने में प्रवृत्त होता है। (करेज) ४. अर्थशास्त्र में, उत्पत्ति के पाँच साधनों में से एक जिसमें उत्पत्ति के शेष साधनों (भूमि, श्रम, पूँजी, प्रबंध) को एकत्र करके उनके द्वारा किसी वस्तु की उत्पत्ति की जाती है। उद्यम। (एन्टरप्राइज) ५. दंड। सजा। ६. जुरमाना।
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साहसांक  : पुं० [सं० ब० स०] राजा विक्रमादित्य का एक नाम।
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साहसिक  : वि० [सं०] १. साहस संबंधी। साहस का। २. जिसमें साहस हो। साहसी। हिम्मतवर। ३. पराक्रमी। ४. निडर। निर्भीक। ५. अत्याचार या क्रूरतापूर्ण अथवा निंदनीय कृत्य करने वाला। जैसा—चोर, डाकू, लुटेरा, लंपट, झूठा, बेईमान आदि।
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साहसी (सिन्)  : वि० [सं०] १. साहसपूर्ण काम करनेवाला। २. जिसमें साहस हो। पुं० १. अर्थशास्त्र में वह व्यक्ति जो उत्पत्ति के साधन (भूमि, श्रम, पूँजी तथा प्रबंध) एकत्र करके किसी वस्तु का उत्पादन करता हो। (एन्टरप्राइजर) २. दे० ‘साहसिक’।
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साहस्त्र  : वि० [सं०] सहस्त्र-संबंधी। हजार की संख्या से संबंध रखने वाला। पुं० १. हजार का समूह। हजार सैनिकों का दल।
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साहस्त्रिक  : वि० [सं० सहस्त्र+ठक् इक] सहस्त्र-संबंधी। साहस। पुं० किसी इकाई का हजारवाँ अंश।
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साहस्त्री  : स्त्री० [सं०] १. एक ही प्रकार की एक हजार चीजों का वर्ग या समूह। २. दे० ‘सहस्त्राब्दि’।
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साहा  : पुं० [सं० साहित्य] १. वह वर्ष जो हिन्दू ज्योतिष के अनुसार विवाह के लिए शुभ माना जाता है। २. विवाह का मुहर्त। (पश्चिम) ३. किसी प्रकार का शुभ मुहर्त। उदा०—सकल दोख विवरजित साहौ।—प्रिथीराज।
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साहाय्य  : पुं० [सं०] सहायता। मदद।
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साँहिं  : पुं० [सं० स्वामी] १. स्वामी। मालिक। २. देख-रेख और रक्षा करनेवाला। उदा०—साँहिं नाहिं जग बात को पूछा।—जायसी।
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साहि  : पुं० [फा० शाह] १. शाह या बादशाह। २. मालिक। स्वामी। ३. धनी। महाजन। साहू। ३. मुसलमान फकीरों की उपाधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साहित्य  : पुं० [सं०] १. ‘सहित’ या साथ होने की अवस्था या भाव। एक साथ होना, रहना या मिलना। २. वे सभी वस्तुएँ जिनका किसी कार्य के संपादन के लिए प्रयुक्त होता है। आवश्यक सामग्री। जैसा—पूजा का साहित्य=अक्षत, जल, फूल-माला, गंध-द्रव्य आदि। ३. किसी भाषा अथवा देश के उन सभी (गद्य और पद्य) ग्रंथो, लेखों आदि का समूह या सम्मिलित राशि, जिसमें स्थायी, उच्च और गूढ विषयों का सुन्दर रूप से व्यवस्थित विवेचन हुआ हो। (लिटरेचर) विशेष-वाङमय और साहित्य में मुख्य अंतर यह है कि वाङमय के अंतर्गत जो ज्ञान राशि का वह सारा संचित भंडार आता है जो मनुष्य को नवीन दृष्टि देता और उसे जीवन संबंधी सत्यों का परिज्ञान मात्र कराता है। परंतु साहित्य उक्त समस्त भंडार का वह विशिष्ट अंश है जो मनुष्य को ऐसी अंतर्दृष्टि देता है जिसमें कलाकार किसी प्रकार की कला सृष्टि करके आत्मोपलब्धि करता है, और रसिक लोग उस कला का आस्वादन करके लोकोत्तर आनंद का अनुभव करते हैं। वे सभी लेख, ग्रंथ आदि जिनका सौंदर्य गुण, रूप या भावुकतापूर्ण प्रभावों के कारण समाज में आदर होता है। ५. किसी विषय, कवि या लेखक से संबंध रखने वाले सभी ग्रंथों और लेखों आदि का समूह। जैसा—वैज्ञानिक साहित्य, तुलसी साहित्य। ६. किसी विषय या वस्तु से संबंध रखनेवाली कभी बातों का विस्तृत विवरण जो प्रायः उसके विज्ञापन के रूप में बाँटता है। जैसे—किसी बडे ग्रंथ, संस्था, यंत्र आदि का साहित्य। (लिटरेचर) ७. गद्य और पद्य की शैली और लेखों तथा काव्यों के गुण-दोष, भेद-प्रभेद, सौंदर्य अथवा नायिका-भेद और अलंकार आदि से संबंध रखनेवाले ग्रंथो का समूह।
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साहित्य शास्त्र  : पु० [सं० मध्यम० स०] १. वह विद्या या शास्त्र जिसमें रचनाओं के साहित्य पक्ष तथा स्वरूप पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया जाता है। २. काव्य-शास्त्र। ३. विशेषत—प्राचीन काव्य शास्त्र जिसमें रसों, अलंकारों रीतियों आदि पर विचार किया जाता था।
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साहित्यिक  : वि० [सं० साहित्य] १. साहित्य (विशेषतः साहित्यिक कृतियों) से संबंध रखनेवाला अथवा उसके अनुरूप होनेवाला। जैसा—साहित्यिक रचना। २. जो साहित्य का ज्ञाता या पारखी हो अथवा साहित्य की रचना करना ही जिसका पेशा हो। जैसा—साहित्यिक व्यक्ति, साहित्यिक संस्था।
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साहित्यिक चोरी  : स्त्री० [सं०+हिं] किसी की साहित्यिक कृति चुराकर (कविता, लेख आदि) उसको अपनी मौलिक कृति के रूप में लोगों के सामने उपस्थित करना। (प्लेजिअरीज़्म)।
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साहिनी  : पुं०=साहनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहिब  : पुं०=साहब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहिबी  : स्त्री०=साहबी।
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साहियाँ  : पुं०=साँई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साहिर  : पुं० [अ०] [भाव साहिरी] जादूगर।
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साहिल  : पुं० [अ०] १. किनारा। तट। २. विशेषतः समुद्र-तट।
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साहिली  : स्त्री० [अ० साहिल=समुद्र-तट] १. काले रंग का एक पक्षी जिसकी लंबाई एक बालिश्त से कुछ अधिक होती है। २. बुलबुल-चश्म। वि० १. साहिल या तट से संबंध रखने वाला। २. साहिल पर रहने या होनेवाला।
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साही  : स्त्री० [सं० शल्यकी] एक प्रकार का जन्तु जिसके सारे शरीर पर लंबे लंबे खडे काँटे होते हैं। सेई। स्त्री० [फा० शाही] एक प्रकार की पुरानी चाल की तलवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहु  : पुं०=साह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहुरड़ा  : पुं० [पं० सौहरा] ससुराल। उदा०—पेवकड़े दिन भारी हैं, साहुरड़े जाणा।—कबीर।
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साहुल  : पुं० [फा० शाकूल] १. समुद्र की गहराई नापने का एक उपकरण जिसमें एक लंबी डोरी के एक सिरे पर सीसे का लट्टू लगा रहता है। २. वास्तु में, उक्त आकार-प्रकार वह उपकरण जिसमें दीवारें आदि बनाने के समय उनकी सीध नापते हैं। (प्लम्मेट) पुं० [?] शोर-गुल। होहल्ला। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहू  : पुं०=साह।
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साहूकार  : पुं० [हिं० साहु+सं० कार (प्रत्य०)[भाव० साहूकारी] १. वह व्यक्ति जिसके पास यथेष्ट संपत्ति हो। बड़ा महाजन। २. धनाढ्य व्यापारी। कोठीवाला।
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साहूकारा  : पुं० [हिं० साहूकार+आ (प्रत्य०)] १. साहूकारों का कार्य, पद या व्यवसाय। महाजनी। रुपयों का लेन-देन। २. वह बाजार जिसमें मुख्य रूप से रुपयों का लेन-देन होता है। वि० १. साहूकारों का। २. साहूकारों का-सा
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साहूकारी  : स्त्री० [हिं० साहूकार+ई (प्रत्य०)] साहूकार होने की अवस्था या भाव।
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साहूत  : पुं० [अ० नासूत का अनु०] कुछ मुसलमान विशेषतः सूफी फकीरों के अनुसार ऊपर के नौ लोकों में से सातवाँ लोक।
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साहेब  : पुं०=साहब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहैं  : अव्य०=सामुहें (सामने)। स्त्री० [हिं० बाँह] भुज-दंड।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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