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स्वः  : पुं० [सं०] १. अपनापन। आत्मत्व। निजत्व। २. भाई–बन्धु। गोती। ३,.स्वर्ग। ४. विषाद। ५. धन–सम्पत्ति। ६.विष्णु का एक नाम। वि० अपना। निज का।
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स्व  : वि० [सं०] [भाव.स्वत्व] १. अपना। निज का। (सेल्फ)। यौ,. के आरंभ में। जैसे–स्वतंत्र स्वदेश। २. आपसे आप होने वाला। जैसे–स्वचावलित। प्रत्यय.एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगातार ता, त्व आदि की भाँति भाव–वाचकता (जैसे–निजस्व,परस्व) या प्राप्य धन (जैसे–धर्मस्व,राजस्व, स्वामित्व) आदि का अर्थ देतदा है। सर्व.आप। स्वयं।
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स्व करणभाव  : पुं० [सं०] किसी वस्तु पर बिना अपना स्वत्व सिद्ध किये अधिकार करना। बिना हक साबित किये कब्जा करना।
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स्व-गुप्ता  : वि० स्त्री० [सं०] १. जो अपेन आप को लुप्त रखता हो। छिपाता हो। २. केवाँच। कौंछ। स्त्री० लजालू। लज्जालू।
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स्व-ग्रह  : पुं० [सं०] बावकों को होनेवाला एक प्रकार का रोग।
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स्व-चर  : वि० [सं०] जो खुद चलता हो।
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स्व-प्रमितिक  : वि० [सं०] जो बिना किसी की सहायता के अपना सारा काम स्वयं करता हो। जैसे–सूर्य आप ही प्रकाश देता है।
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स्व-बरन  : वि० =स्वर्ण।
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स्व-बीज  : वि० [सं०] जो अपना बीज या कारण आप ही हो। पुं० आत्मा।
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स्व-योनि  : वि० [सं०] जो अपना कारण अथवा अपनी उत्पत्ति का उद्गम आप ही हो।
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स्व-रक्षा  : स्त्री० [सं०] किसी प्रकार के आक्रमण से स्वयं या अपने आप की जानेवाली अपनी रक्षा। (सेल्फ़ डिफ़ेन्स)
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स्व-रुचि  : वि० [सं०] अपनी ही रुचि या प्रवृत्ति के अनुसार सब काम करनेवाला। मन-मौजी। स्त्री० अपनी रुचि।
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स्व-विवेक  : पुं० [सं०] कुछ विशिष्ट नियमों और बंधनों के अधीन रह कर उचित-अनुचित और युक्त-अयुक्त का विचार करने की शक्ति। (डिस्क्रीशन)
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स्व-शासन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वशासित] १. अपने अधिक्षेत्र में शासन, राजनीतिक प्रबन्ध आदि स्वयं करने का पूरा अधिकार। (सेल्फ़ गवर्नमेंट) २. दे० ‘स्वायत्त-शासन’।
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स्व-संभूत  : वि० [सं०] जो स्वयं से उत्पन्न हो। स्वयंभू।
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स्व-समुत्थ  : वि० [सं०] अपने ही देश में उत्पन्न, स्थित या एकत्र होनेवाला। जैसे–स्व-समुत्थ कोष। स्व-समुत्थ बल।
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स्व-संवेद्य  : वि० [सं०] जिसका संवेदन स्वयं ही किया जा सके।
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स्व–अर्जित  : भू० कृ० [सं०] जिसका अर्जन किसी ने आप किया हो। स्वंय प्राप्त किया हुआ। (सेल्फ एक्वायर्ड)।
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स्व–कंपन  : पुं० [सं०] वायु। हवा।
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स्व–चल  : वि० [सं०] १. आस से आप चलनेवाला। २. (कार्य) जो बिना किसी चेतन–प्रेरणा के अथवा आप से आप या प्राकृतिक रूप से होता है (आँटोमेटिक)। ३. दे० स्वचालित। पुं० प्रायः मनुष्य के आकार का एक प्रकार का यंत्र, जो अंदर के कलपुरजों के द्वारा इधर–उधर चलता–फिरता और कई तरह के काम करता है (आँटोंमेटन)।
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स्व–चालक  : वि० [सं०] (यंत्र या उसका कोई अंग) जो बिना किसी विशिष्ट प्रक्रिया के केवल साधारण खटके आदि की सहायता से स्वयं चलत या यंत्र को चलाता हो (सेल्फ स्टार्टर)।
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स्व–चालित  : वि० [सं०] (यंत्र) जिसके अंदर ऐसे कल–पुरजे लगे हों कि एक पुरजा चलाने से ही वह आप से आप चलने या कई काम करने लगता है (आँटोमेटिक)।
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स्व–जन्मा (न्मन्)  : वि० [सं०] जो अपने आप उत्पन्न हुआ या जन्मा हो। अपने आप से उत्पन्न या जनमा हुआ। (ईश्वर आदि)
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स्व–जातीय  : वि० [सं०] १. किसी की दृष्टि से उसी की जाति या वर्ग का। जैसे–अपने स्वजातियों के साथ खान-पान करने में कोई हानि नहीं है। २. एक ही जाति या वर्ग का। जैसे–ये दोनों वृक्ष स्वजातीय है।
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स्व–प्रकाश  : वि० [सं०] जो स्वयं प्रकाशमान् हो। पुं० निजी प्रकाश।
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स्वक  : वि० [सं०] अपना। निजी। पुं० १. अपनी संपत्ति। २. स्वजन।
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स्वकरण  : पुं० [सं०] किसी चीज पर अपना स्वत्व जताना। दावा करना (कौ.)।
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स्वकर्म  : पुं० [सं०] १. अपना काम। २. अपना कर्त्तव्य और धर्म।
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स्वकर्मी (मिन्)  : वि० [सं०] १. अपना काम करनेवाला। २. अपने कर्तव्य और धर्म का पालन करनेवाला। ३. स्वार्थी।
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स्वकीय  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वकीया] अपना। निजी। पुं० स्वजन।
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स्वकीया  : वि० सं०स्वकीय का स्त्री रूप। स्त्री० साहित्य में वह नायिका जो विवाहिता हो तथा अपने ही पति से अनुराग करती हो। परकीया का विपर्याय।
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स्वक्ष  : वि० =स्वच्क्ष।
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स्वंग  : पुं० [सं०] आलिंगन।
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स्वगत  : अव्य. [सं०] आप ही आप। स्वतः। वि० १. अपने में ग्रहण किया हुआ। २. मन में आया हुआ। पुं० स्वगत कथन (दे०)
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स्वगत–कथन  : पुं० [सं०] १. मन में आई हुई बात। २. मन में आई हुई बात कहना। ३. भारतीय नाटकों में तीन प्रकार के संवादों में से एक,जिसमें अभिनेता कोई बात ऐसे ढंग से कहता है कि मानो दूसरे अभिनेता या पात्र उसकी बात सुन ही न रहे हो और वह मन ही मन कुछ कह अथवा सोच-समझ रहा हो। इसे अक्षाव्य भी कहते हैं। (सोलिलोक्वी)। विशेष–इस प्रकार वह मानों दर्शकों पर अपने मनोभाव प्रकट कर देता है। आधुनिक नाटकों में इस प्रकार का कथन या संवाद अच्छा नहीं माना जाता।
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स्वचित्त–कारु  : पुं० [सं०] वह शिल्पी जो किसी श्रेणी के अन्तर्गत होते हुए भी स्वतंत्र रूप से काम करता हो। स्वतंत्र कारीगर। (कौ)
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स्वचेतन  : पुं०=स्वस्त्ययन।
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स्वच्छ-भास  : वि० [सं०] स्वच्छ प्रकाशवाला। उदाहरण–गृहस्थी सीमा के स्वच्छ भास।–निराला।
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स्वच्छ–मणि  : पुं० [सं०] बिल्लौर। स्फटिक।
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स्वच्छक  : वि० [सं०] १. स्वच्छ करनेवाला (क्लीनर)। २. बहुत साफ या चमकीला।
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स्वच्छता  : वि० [सं०] १. स्वच्छ होने की अवस्था, गुण या भाव। २. निर्मलता। विशुद्धता। ३..सफाई विशेषतः शरीर और आसपास की वस्तुओं–स्थानों आदि की ऐसी सफाई,जो स्वास्थ्य रक्षा के लिए आवश्यक हो (सैनिटेशन)।
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स्वच्छंद  : वि० [सं०] [भाव.स्वच्छंदता] १. इच्छा मौज या रुचि के अनुसार अथवा सनक में आकर काम करनेवाला। २. किसी प्रकार के अंकुश,नियंत्रण या मर्यादा का ध्यान न रखते हुए मनमाने ढंग से आचरण या व्यवहार करनेवाला। ३. नैतिक और सामाजिक दृष्टि से अनुचित तथा निंदनीय आचरण या व्यवहार करनेवाला। भ्रष्ट चरित्रवाला। (वाँन्टन)। ४. (जीव जंतु या प्राणी) जो बिना किसी प्रकार की अड़चन या बाधा के जहाँ चाहे वहाँ विचरण करता फिरता हो। ५. (पेड़ पौधे या वनस्पति) जो जंगलों और मैदानों में आप से आप उत्पन्न हो। क्रि० वि० बिना किसी भय विचार या संकोच के। पुं० कार्तिकेय या स्कंद का एक नाम।
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स्वच्छंदचारिणी  : स्त्री० [सं०] १. दुश्चरित्रा स्त्री। पुंश्चली। २. वेश्या। रंडी।
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स्वच्छंदचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वच्छंदचारिणी] १. अपनी इच्छा के अनुसार चलनेवाला। स्वेच्छाचारी। मनमौजी। २. मनमाने ढंग पर इधर–उधर घूमता रहनेवाला।
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स्वच्छना  : स० [सं० स्वच्छ] स्वच्छ या निर्मल करना। साफ करना।
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स्वच्छा  : स्त्री० [सं०] श्वेत दूर्वा। सफेद दूब।
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स्वच्छी  : वि० =स्वच्छ।
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स्वछंदता  : स्त्री० [सं०] स्वच्छंद होने की अवस्था,गुण या भाव। विशेष–स्वच्छंदता, स्वतंत्रता और स्वाधीनता का अन्तर जानने के लिए स्वाधीनता का विशेष।
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स्वज  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वजा] १. स्वयं उत्पन्न होनेवाला। २. जिसे स्वयं उत्पन्न किया हो। ३. स्वाभाविक। प्राकृतिक। पुं० १. पुत्र। २. पसीना। ३. खून।
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स्वंजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वंजित] आलिंगन करना। गले लगाना।
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स्वजन  : पुं० [सं०] १. अपने परिवार के लोग। आत्मीय जन। २. सगे–संबंधी। रिश्ते–नाते के लोग। रिश्तेदार।
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स्वजनता  : स्त्री० [सं०] १. स्वजन होने का भाव। आत्मीयता। २. नातेदारी। रिश्तेदारी।
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स्वजा  : स्त्री० [सं०] पुत्री। बेटी।
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स्वजात  : वि० [सं०] अपने से उत्सव। पुं० पुत्र। बेटा।
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स्वजाति  : स्त्री० [सं०] अपनी जाति। अपनी कौम। २. अपनी किस्म। अपना प्रकार।
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स्वतः  : अव्य,. [सं०स्वतस्] आर से आप। अपने आप। आप ही। स्वयं। जैसे–मैने स्वतः उसे रुपये दे दिये।
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स्वतंत्र  : वि० [सं०] [भाव.स्वतंत्रता] १. जिसका तंत्र या शासन अपना हो। फलतः जो किसी तंत्र अर्थात् दबाव या शासन में न हो। २. जो बिना किसी प्रकार के दबाव या नियंत्रण के स्वयं सोच–समझ कर सब काम कर सकता हो। ३. जो किसी प्रकार के दबाव या बंधन में न पड़ा हो। जो बिना बाधा या रुकावट के इधर–उधर आ जा सकता हो। आजाद (फ्री)। ४. (काम या बात) जिसमें किसी दूसरे का अवलंब, आधार या आश्रय न लिया गया हो। जैसे– (क) स्वतंत्र रूप से कवित करना या ग्रंथ लिखना। (ख) स्वतंत्र मतदान। ५. जो औरों के सम्पर्क आदि से रहित या सबसे अलग हो। जैसे–इस मकान में दोनों किरायेदार के आने–जाने के स्वतंत्र मार्ग है। ६. अलग। जुदा। भिन्न। जैसे–ये दोनों प्रश्न एक दूसरे से स्वतंत्र है। ७. नियमों, विधियों आदि के बंधन से मुक्त या रहित। ८. (व्यक्ति) जो ऐसे राज्य का नागरिक या प्रजा हो, जिसमें निरंकुश या स्वेच्छाचारी शासन न हो। (फ्री)। जैसे–जब से भारत स्वाधीन हुआ है, तब से यहाँ के निवासी भी स्वतंत्र नागरिक हो गये हैं। ९. बालिग। वयस्क। सयाना।
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स्वतंत्रता  : स्त्री० [सं०] १. स्वतंत्र रहने या होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें बिना किसी बाहरी दबाव, नियंत्रण या बंधन के स्वयं अपनी इच्छा से सोच-समझकर सब काम करने का अधिकार होता है। आजादी। (फ्रीडम)। ३. वह अवस्था जिसमें बिना किसी प्रकार की राजकीय या शासनिक बाधा या रोक-टोक के सभी उचित और संगत काम या व्यवहार करने का अधिकार होता है। स्वातन्त्र्य। आजादी। (लिबर्टी)। जैसे–भारत में सब को धर्म,भाषण और विवेच संबंधी स्वतंत्रता प्राप्त है। विशेष–स्वच्छंदता, स्वतन्त्रता और स्वाधीनता का अंतर जानने के लिए दे० स्वाधीनता का विशेष।
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स्वतोविरोधी  : वि० [सं०स्वतः+विरोधी] अपना ही विरोध या खंडन करनेवाला।
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स्वत्त्व  : पुं० [सं०] १. स्व का भाव। अपमान। २. वह अधिकार जिसके आधार पर कोई चीज अपने पास रखी या किसी से ली या माँगी जा सकती हो। अधिकार। हक। (राइट)। ३. वह स्थिति जिसमें किसी वस्तु या विषय के हानि-लाभ के किसी व्यक्ति का विशेष रूप से संबंध हो। हित।
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स्वत्त्वाधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वात्त्वाधिकारिणी] १. वह जिसे किसी बात का पूरा स्वत्त्व या अधिकार प्राप्त हो। २. स्वामी। मालिक।
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स्वत्व-शुल्क  : पुं० [सं०] वह आवर्त्तक और नियतकालिक धन, जो किसी भूमि के स्वामी किसी नई वस्तु के आविष्कारक किसी ग्रंथ के रचयिता अथवा ऐसे ही और किसी व्यक्ति को इसलिए बराबर मिलता रहता है कि दूसरे लोग उसकी वस्तु या कृति से आर्थिक लाभ उठाने का अधिकार या स्वत्त्व प्राप्त कर लेते हैं (रायल्टी)।
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स्वत्वाधिकार  : पुं० [सं०स्वत्व+अधिकार] वह अधिकार,जो स्वत्व के रूप में हो। दे० ‘स्वत्व’।
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स्वदन  : पुं० [सं०] १. खा या चखकर स्वाद लेना। आस्वादन। २. लोहा।
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स्वदेश  : पुं० [सं०] अपना देश। मातृभूमि। वतन।
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स्वदेशाभिष्यंदव  : पुं० [सं०] राष्ट्र में जहाँ आबादी बहुत अधिक हो गई हो,वहाँ से कुछ जनता को दूसरे प्रदेश में बसाना (कौ.)।
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स्वदेशी  : वि० [सं०स्वदेशीय] १. अपने देश में होनेवाला। जैसे–स्वदेशी कपड़ा। २. अपने देश से संबंध रखनेवाला।
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स्वध  : पुं० [सं०] १. अपना धर्म। २. अपना कर्तव्य और कर्म।
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स्वधर्म  : पुं० [सं०] १. अपना धर्म या संप्रदाय। २. अपना उचित कर्त्तव्य।
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स्वधर्म-शास्त्र  : पुं० व्यक्तिक विधि।
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स्वधा  : स्त्री० [सं०] पितरों के निमित्त दिया जानेवाला अन्न या भोजन। पितृ–अन्न। २. दक्ष की एक कन्या,जो पितरों की पत्नी कही गई है। अव्य.,एक शब्द या मंत्र जिसका उच्चारण देवताओं या पितरों को हवि देने के समय किया जाता है। जैसे–तस्मैस्वधा।
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स्वधाधिप  : पुं० [सं०] अग्नि।
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स्वधाशन  : पुं० [सं०] पितृगण। पितर।
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स्वधिति  : पुं० स्त्री० [सं०] १. कुल्हाड़ी। कुठार। २. व्रज।
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स्वधिष्ठान  : वि० [सं०] अच्छी स्थिति या स्थान से युक्त।
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स्वधिष्ठित  : भू० कृ० [सं०] १. जो ठहने या रहने के लिए अच्छा हो। २. अच्छी तरह सिखलाया या सघाया हुआ हो।
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स्वधीत  : भू० कृ० [सं०] अच्छी तरह पढ़ा हुआ। सम्यक् रूप से अध्ययन किया हुआ।
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स्वन  : पुं० [सं०] शब्द। ध्वनि। आवाज।
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स्वन-चक्र  : पुं० [सं०] संभोग का एक प्रकार का आसन या रतिबन्ध।
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स्वनंदा  : स्त्री० [सं०] दुर्गा।
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स्वनाना  : स० [सं०स्वप्न+हिं० आना (प्रत्यय)] स्वप्न देना। स्वप्न दिखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वनाम-धन्य  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जो अपने नाम से ही धन्य या प्रसिद्ध हो।
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स्वनामा (मन्)  : वि० [सं०] स्वनाम धन्य।
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स्वनि  : पुं० [सं०] १. शब्द। आवाज। २. अग्नि। आग।
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स्वनिक  : वि० [सं०] शब्द करनेवाला।
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स्वनित  : भू० कृ० [सं०] ध्वनित। शब्दित। पुं० १. आवाज। २. शब्द। ३. बादलों की गरज। ४. किसी प्रकार का जोर का शब्द या गड़गड़ाहट।
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स्वन्न  : पुं० [सं०] १,उत्तम अन्न। २. अच्छा आहार या भोजन।
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स्वपच  : पुं० =श्नपच (चांडाल)।
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स्वःपथ  : पुं० [सं०] (स्वर्ग का मार्ग) मृत्यु।
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स्वपन  : पुं० [सं०] १. सोने की क्रिया या भाव। २. सोने की अवस्था। निद्रा। नींद। ३. सपना। स्वप्न।
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स्वपना  : पुं० =सपना (स्वप्न)।
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स्वपनीय  : वि० [सं०] निद्रा के योग्य। सोने लायक।
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स्वप्तव्य  : वि० [सं०] निद्रा के योग्य।
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स्वप्न  : पुं० [सं०] १. सोने की क्रिया या अवस्था। निद्रा। नींद। २. सोये रहने की दशा में मानसिक दृष्टि के सामने आनेवाली कुछ विशिष्ट असंबद्ध और काल्पनिक घटनाएँ, चित्र और विचार। सोये रहने पर दिखाई दनेवाली ऐसी विचित्र घटनाएँ,जो अवास्विक होती है। सपना। ख्वाब। ३. उक्त प्रकार से दिखाई देनेवाली घटनाओँ का सामूहिक रूप। सपना। ख्वाब। ४. मन ही मन की जानेवाली बड़ी-बडी कल्पनाएँ और बाँधे जानेवाले बाँधनूँ। (ड्रीम अंतिम तीनों अर्थों के लिए)। जैसे–आप तो उसी तरह रईस बनने के स्वप्न देखा करते हैं।
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स्वप्न स्थान  : पुं० [सं०] सोने का कमरा। शयन-गृह। शयनागार।
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स्वप्नक  : वि० [सं०स्वप्नज] सोनेवाला। निद्राशील।
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स्वप्नदर्शन  : पुं० [सं०] साहित्य में वह अवस्था,जब किसी को स्वप्न में कोई देखता है और इसी देखने के फलस्वरूप उसके प्रति मन में उस पर अनुरक्त होता है।
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स्वप्नदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं०] १. स्वप्न देखनेवाला। २. स्वप्नदर्शन करनेवाला। ३. मन ही मन बड़ी–बड़ी कल्पनाएँ उसके प्रति मन में और बड़े–बड़े बाँधनू बाँधनेवाला (ड्रीमर)।
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स्वप्नदोष  : पुं० [सं०] निद्रावस्था में श्रृंगारिक स्वप्न देखने पर वीर्यपात होना। जो एक प्रकार का रोग है।
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स्वप्नांतिक  : पुं० [सं०] वह चेतना जो स्वप्न देखने के समय होती है।
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स्वप्नादेश  : पुं० [सं०] वह आदेश जो किसी को किसी बड़े स्वप्न में मिला हो।
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स्वप्नालु  : वि० [सं०] जिसे नीद आ रही हो। निद्राशील। निद्रालु।
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स्वप्नावस्था  : स्त्री० [सं०] १. वह अवस्था जिसमें स्वप्न दिखाई देता है। २. धार्मिक क्षेत्र में लाक्षणिक रूप से सांसारिक जीवन की अवस्था, जो स्वप्न के समान अवास्तविक और निस्सार मानी गई है।
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स्वबीज  : पुं० [सं०] आत्मा।
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स्वभाउ  : पुं० =स्वभाव।
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स्वभाव  : पुं० [सं०] [वि० स्वाभाविक] १. अपना या निजी भाव। २. किसी पदार्थ का वह क्रियात्मक गुण या विशेषतता जो उसमें प्राकृतिक रूप से सदा वर्तमान रहती है। खासियत। जैसे–अग्नि का स्वभाव पदार्थों को जलाना और जल का स्वभाव उन्हें ठंडा करना है। ३. जीव–जन्तुओं और प्राणियों का वह मानसिक रूप या स्थिति, जो उसकी समस्त जाति में जन्मजात होती और सदा प्रायः एक ही तरह काम करती हुई दिखाई देती है। प्रकृति। (नेचर उक्त दोनों अर्थों में) जैसे–चीते, भालू और शेर स्वभाव से ही हिंसक होते हैं। ४. मनुष्य के मन में वह पक्ष, जो बहुत कुछ जन्मजात तथा प्राकृतिक होता है और जो उसके आचार–व्यवहार आदि का मुख्य रूप से प्रवर्तक होता और उसके जीवन में प्रायः अथवा सदा देखने में आता है। मिजाज (डिस्पोजीशन)। जैसे–वह स्वभाव से ही क्रोधी (चिड़चिड़ा दयालु और शांत) है। ५. आदत। बान। (हैबिट) जैसे–तुम्हारा तो सबसे लड़ने का स्वभाव पड़ गया है। क्रि० प्र०–पड़ना।–होना।
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स्वभाव-कृपण  : पुं० [सं०] ब्रह्मा का एक नाम।
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स्वभाव-दक्षिण  : वि० [सं०] जो स्वभाव से ही मीठी–मीठी बातें करने में निपुण हो।
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स्वभाव-सिद्ध  : वि० [सं०] स्वभाव से ही होनेवाला। प्राकृतिक। स्वाभाविक सहज।
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स्वभावज  : वि० [सं०] जो स्वभाव या प्रकृति से उत्पन्न हुआ हो। प्राकृतिक। स्वाभाविक। सहज।
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स्वभावज अलंकार  : पुं० [सं०] साहित्य में संयोग श्रृंगार से प्रसंग में स्त्रियों की कुछ विशिष्ट आकर्षक या मोहक अंग भंगियां और बातें, जिनसे उनकी आंतरिक भावनाएँ प्रकट होती है, और इसीलिए जिनकी गिनती उनके अलंकारों में होती है। लोक में इसी तरह की बातों को हाव कहते हैं। दे० हाव। विशेष–यह नायिकाओं के सात्त्विक अलंकारों के तीन भेदों में से एक है।
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स्वभावतः (तस्)  : अव्य. [सं०] स्वभाव के फलस्वरूप। स्वाभाविक अर्थात् प्रकृतिजन्य रूप से। जैसे–उसे इस प्रकार झूठ बोलते देखकर मुझे स्वभावतः क्रोध आ गया।
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स्वभाविक  : वि० =स्वाभाविक।
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स्वभावी  : वि० [सं०स्वभाविन्] [स्त्री० स्वभाविनी] १. स्वभाव वाला। जैसे–उग्र स्वभावी। क्षमा-स्वभावी। २. मनमाना आचरण करनेवाला। ३. मनमौजी।
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स्वभावोक्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी वस्तु या व्यक्ति की स्वभाविक क्रियाओं,गुणों विशेषताओं आदि का ठीक उसी रूप में वर्णन किया जाता है जिस रूप में वे कवि को दिखाई देती है। यथा–बिहँसति सी दिये कुच आँचर बिच बाँह। भीजे पट तट को चली न्हान सरोवर माँह।–बिहारी। विशेष–इसमें किसी जातिवाचक पदार्थ के स्वाभाविक गुणों का वर्णन होता है,इसीलिए कुछ लोग इस अलंकार को जाति भी कहते हैं। कुछ आचार्यों ने इसके सहज और प्रतिज्ञाबद्ध नाम के दो भेद भी माने हैं।
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स्वभू  : वि० पुं० =स्वयंभू।
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स्वयं  : वि० [सं० स्वयम्] १. सर्वनाम जिसके द्वारा वक्ता अपने व्यक्तित्व पर जोर देते हुए कोई बात कहता है। जैसे–मैं स्वयं वहाँ गया था। २. अपने आप सब काम करनेवाला। जैसे–स्वयं चालित,स्वयंगामी। स्वयंभर। अव्य. १. एक आप से आप। बिना किसी जोर या दबाव के। जैसे–सव्यं बातें खुल जायँगी।
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स्वयं-ज्योति  : वि० [सं०] आप से आप प्रकाशमान् होने या चमकनेवाला। पुं० पर ब्रह्म। परमात्मा।
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स्वयं-दूत  : [सं०] साहित्य में वह नायक जो स्वयं अपना प्रेम या वासना नायिका पर प्रकट करता हो।
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स्वयं-दूतिका-स्वयं दूती  : स्त्री० [सं०] वह परकीया नायिका, जो अपना दूतत्व आप ही करती हो। नायक पर स्वयं ही वासना प्रकट करनेवाली परकीया नायिका।
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स्वयं-पाक  : पुं० [सं०] अपनी उदर–पूर्ति के लिए भोजन स्वयं बनाना।
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स्वयं-पाकी  : पुं० [सं०] १. अपना भोजन स्वयं बनाने वाला व्यक्ति। २. ऐसा व्यक्ति जो खुद बनाया हुआ ही भोजन करता हो और दूसरों के हाथ का बनाया हुआ न खाता हो।
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स्वयं-प्रकाश  : वि० [सं०] जो स्वतः प्रकाशित हो। पुं० १. ज्योतिपुंज। २. परमात्मा।
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स्वयं-प्रभ  : पुं० [सं०] भावी २४ अर्हतों में से चौथे अर्हत् का नाम। (जैन) वि० स्वयं–प्रकाश।
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स्वयं-प्रभा  : स्त्री० [सं०] इन्द्र की एक अप्सरा, जिसे मय दानव हर लाया था और जिसके गर्भ से मंदोदरी उत्पन्न हुई थी।
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स्वयं-प्रमाण  : वि० [सं०]जो आप ही अपने प्रमाण के रूप में हो और जिसके लिए किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता न हो। जैसे–वेद आदि स्वयं प्रमाण हैं।
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स्वयं-फल  : वि० [सं०] जो आप ही अपना फल हो अर्थात् किसी दूसरे कारण से उत्पन्न न हुआ हो।
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स्वयं-भर  : वि० [सं०] १. अपने आप को या अपने में का रिक्त स्थान आप ही भरनेवाला। २. (पिस्तौल या बंदूक) जो अपने अंदर रखी हुई गोलियों में से क्रमशः एक–एक गोली आप ही लेकर छोड़े (सेल्फ लोडिंग)।
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स्वयं-भु  : पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. अज। २. वेद। ४. जैनियों के नौ वासुदेवों में से एक। ५. स्वयंभू।
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स्वयं-भुक्ति  : पुं० [सं०] धर्मशास्त्र में पाँच प्रकार के साक्षियों में से ऐसा साक्षी, जो बिना बुलाये आकर किसी बात की गवाही दे।
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स्वयं-वरण  : पुं० [सं०] कन्या को अपने इच्छानुसार अपने लिए पति चुनना या वरण करना।
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स्वयं-सिद्ध  : वि० [सं०] [भाव० स्वयं-सिद्धि] (बात या तत्त्व) जो किसी तर्क या प्रमाण के बिना आप ही ठीक और सिद्ध हो। सर्वमान्य। (एग्जिओमेटिक)
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स्वयं-सिद्धि  : स्त्री० [सं०] [वि० स्वयं सिद्ध] वह सर्वमान्य सिद्धान्त या तत्त्व, जिसे सिद्ध या प्रभावित करने की कोई आवश्यकता न हो। (एग्जियम)
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स्वयं-सेवक  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वयं-सेविका] १. व्यक्ति, जो किसी सेवा-कार्य में अपनी इच्छा से लगता हो। २. किसी ऐसे संगठन का सदस्य, जिसका मुख्य उद्देश्य लोगों की सेवा करना हो। (वालन्टियर)
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स्वयं–तथ्य  : पुं० [सं०]ऐसा तथ्य या बात जो स्वयं ही ठीक और सिद्ध हो और जिसे ठीक या सिद्ध करने के लिए किसी प्रकार के तर्क प्रमाण आदि की अपेक्षया आवश्यकता न हो। (एक्जिअम)।
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स्वयं–दत्त  : पुं० [सं०] ऐसा पुत्र जो अपने माता–पिता के मर जाने अथवा उनकी मृत्यु के उपरांत अथवा उनके द्वारा परित्यक्त होने पर अपने आप को किसी के हाथ सौंप दे और उसका पुत्र बन जाय। (धर्मशास्त्र)।
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स्वयंभू-रमण  : पुं० [सं०] अंतिम महाद्वीप और उसके समुद्र का नाम। (जैन)
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स्वयंभूत  : भू० कृ० [सं०] जिसने अपना निर्माण स्वयं किया हो। जो अपनी इच्छा शक्ति से अवतीर्ण हुआ या अस्तित्व में आया हो। स्वयंभू।
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स्वयमर्ज्जित  : पुं० [सं०] स्वयं कमाया हुआ धन या संपत्ति। अपनी कमाई।
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स्वयमुक्ति  : पुं० [सं०] पाँच प्रकार के साक्षियों में से एक प्रकार का साक्षी। ऐसा साक्षी, जो बिना वादी या प्रतिवादी के बुलाये स्वयं ही आकर किसी घटना या व्यवहार के संबंध में कुछ बातें कहे। (व्यवहार)
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स्वयमुपगत  : पुं० [सं०] वह जो अपनी इच्छा से किसी का दास हो गया हो। (धर्मशास्त्र)
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स्वयमेव  : अव्य० [सं०] आप ही आप। खुद ही। स्वयं ही।
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स्वयंवर  : पुं० [सं०] १. स्वयं वरण करना। स्वयं चुनना। २. प्राचीन काल में वह उत्सव या समारोह, जिसमें कन्या स्वयं अपने लिए उपस्थित व्यक्तियों में से वर को वरण करती थी। ३. कन्या द्वारा स्वयं अपने लिए वर वरण करने की रीति या विधान।
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स्वयंवरा  : स्त्री० [सं०] ऐसी कन्या, जिसने अपने पति का वरण अपनी इच्छा से किया हो।
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स्वयंवह  : पुं० [सं०] ऐसा बाजा, जो चाबी देने पर आप से आप बजे। वि० स्वयं अपने आप को वहन करनेवाला।
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स्वयंवादि-दोष  : पुं० [सं०] न्यायालय में झूठी बात बार-बार दोहराने का अपराध।
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स्वयंवादी  : पुं० [सं०] मुकदमे में जिरह के समय कोई झूठ बात बार-बार दोहरानेवाला व्यक्ति।
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स्वयंसेवा  : स्त्री० [सं०] १. अपनी इच्छा या अंतःप्रेरणा से की जानेवाली दूसरों की सेवा। २. अपना काम स्वयं करना।
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स्वयंसेवी  : पुं०=स्वयं-सेवक।
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स्वर  : पुं० [सं०] [वि० स्वरिक, स्वरित, भाव० स्वरता] १. कोमलता, तीव्रता, उतार-चढ़ाव आदि से युक्त वह शब्द, जो प्राणियों के गले अथवा एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आघात पड़ने से निकलता है। २. स्वर-तंत्रियों के ढील पड़ने और तनने के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न होनेवाली कंठध्वनि। सुर। (साउन्ड) मुहा०–स्वर फूँकना=कोई ऐसा काम या बात करना, जिसका दूसरे पर पूरा प्रभाव पड़े अथवा वह अनुयायी या वशवर्ती। हो जाय। स्वर मिलाना=किसी सुनाई पड़ते हुए स्वर के अनुसार स्वर उत्पन्न करना। ३. संगीत में, उक्त प्रकार के वे सात निश्चित शब्द या ध्वनियाँ जिनका स्वरूप, तन्यता, तीव्रता आदि विशिष्ट प्रकार से स्थिर हैं। यथा-षड़ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। विशेष–साम वेद में सातों स्वरों के नाम इस प्रकार हैं–क्रुष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, मंद और अतिस्वार (या अतिस्वर) हैं। परन्तु यह उनका अवरोहण क्रम है और आजकल के म, ग, रे, स, नि, व, प के समान है। मुहा०–स्वर उतारना=स्वर नीचा या धीमा करना। स्वर चढ़ाना=स्वर ऊँचा या तेज करना। स्वर निकालना=कंठ या बाजे से स्वर उत्पन्न करना। स्वर भरना=अभ्यास के लिए किसी एक ही स्वर का कुछ समय तक उच्चारण करना। ३. व्याकरण में, वह वर्णनात्मक ध्वनि या शब्द जिसका उच्चारण बिना किसी दूसरे वर्ण की सहायता के आप से आप होता है और जिसके बिना किसी व्यंजन का उच्चारण नहीं हो सकता। (वॉवेल) यथा–अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ और औ। विशेष–आज-कल का ध्वनि-विज्ञान बतलाता है कि कुछ अवस्थाओं में बिना स्वर की सहायता के भी कुछ व्यंजनों का उच्चारण संभव है। ४. वेदपाठ में होनेवाले शब्दों का उतार-चढ़ाव जो उदात्त, अनुदात्त और स्वरित नामक तीन प्रकारों का होता है। ५. साँस लेने के समय नाक से निकलनेवाली वायु के कारण उत्पन्न होनेवाला शब्द। ६. आकाश।
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स्वर कलानिधि  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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स्वर-कर  : पुं० [सं०] ऐसा पदार्थ जिसके सेवन से गले का स्वर मधुर और सुरीला होता है।
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स्वर-क्षय  : पुं०=स्वर-भंग।
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स्वर-ग्राम  : पुं० [सं०] संगीत में, सा से नि तक के सातों स्वरों का समूह। सप्तक।
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स्वर-तंत्री  : स्त्री० [सं०] स्वर-सूत्र। (दे०)
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स्वर-नलिका  : स्त्री० [सं०] स्वर-सूत्र। (दे०)
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स्वर-नाभि  : पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा।
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स्वर-पत्तन  : पुं० [सं०] सामवेद।
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स्वर-पात  : पुं० [सं०] १. किसी शब्द का उच्चारण करने में उसके किसी वर्ण पर कुछ ठहरना या रुकना। २. उचित वेग, रुकाव आदि का ध्यान रखते हुए होनेवाला शब्दों का उच्चारण (एक्सेन्ट)
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स्वर-प्रधान  : वि० [सं०] ऐसा रोग जिसमें स्वर का ही आग्रह या प्रधानता हो। ताल की प्रधानता न हो।
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स्वर-बद्ध  : भू० कृ० [सं०] स्वरों में बाँधा हुआ (संगीत)।
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स्वर-ब्रह्मा  : पुं० [सं०] ब्रह्मा की स्वर में होनेवाली अभिव्यक्ति।
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स्वर-भंग  : पुं० [सं०] १. उच्वारण में होनेवाली बाधा या अस्पष्टता। २. आवाज या गला बैठना, जो एक रोग माना गया है। ३. साहित्य में हर्ष, भय, क्रोध, मद आदि से गला भर आना अथवा जो कुछ कहना हो उसके बदले मुख से और कुछ निकल जाना, जो एक सात्त्विक अनुभाव माना गया है।
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स्वर-भंगी (गिन्)  : पुं० [सं०] १. वह जिसे स्वरभंग रोग हुआ हो। २. वह जिसका गला बैठ गया हो और मुँह से साफ आवाज न निकलती हो। ३. एक प्रकार का पक्षी।
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स्वर-भाव  : पुं० [सं०] संगीत में, बिना अंग-संचालन किये केवल स्वर से ही दुःख-सुख आदि के भाव प्रकट करने की क्रिया। (यह चार प्रकार के भावों में एक माना गया है।)
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स्वर-भूषणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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स्वर-मंडलिका  : स्त्री० [सं०]=स्वर-मंडल।
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स्वर-यंत्र  : पुं० [सं०] गले के अंदर का वह अवयव या अंश जिसकी सहायता या प्रयत्न से स्वर या शब्द निकलते हैं। (लैरिंक्स)
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स्वर-रंजनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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स्वर-लहरी  : स्त्री० [सं०] १. ऊँचे-नीचे स्वरों की वह लहर या क्रम जो प्रायः संगीत आदि के लिए उत्पन्न की जाती है। २. संगीत में, वह झंकार या आलाप, जो कुछ समय तक एक ही रूप में होता है।
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स्वर-लालिका  : स्त्री० [सं०] बाँसुरी या मुरली।
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स्वर-लिपि  : स्त्री० [सं०] संगीत में किसी गीत, तान, राग, लय आदि में आनेवाले सभी स्वरों का क्रमबद्ध लेख। (नोटेशन)
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स्वर-वेधी  : वि०=शब्द-वेधी।
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स्वर-शास्त्र  : पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें स्वर-संबंधी सब बातों का विवचेन हो। स्वर-विज्ञान।
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स्वर-शून्य  : वि० [सं०] [भाव० स्वर-शून्यता] (ध्वनि) जिसमें मधुरता, संगीतमयता या लय न हो।
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स्वर-संक्रम  : पुं० [सं०] संगीत में, स्वरों का आरोह और अवरोह। स्वरों का उतार और चढ़ाव।
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स्वर-संधि  : स्त्री० [सं०] व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान में, दो या अधिक पास-पास आनेवाले स्वरों का मिलकर एक होना। स्वरों का मेल।
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स्वर-समुद्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पुराना बाजा, जिसमें बजाने के लिए तार लगे होते थे।
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स्वर-साधन  : पुं० [सं०] संगीत में, बार-बार कंठ से उच्चारण करते हुए प्रत्येक स्वर ठीक तरह से निकालने की क्रिया या भाव।
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स्वर-सूत्र  : पुं० [सं०] गले और छाती से अंदर का सूत्र के आकार का वह अंग, जिसकी सहायता से स्वर या आवाज निकलती है। (वोकल कॉर्ड)
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स्वरक्षु  : स्त्री० [सं०] वक्षु नदी का एक नाम।
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स्वरंग  : पुं०=स्वर्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वरघ्न  : पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार वायु के प्रकोप से होनेवाला गले का एक रोग जिसके कारण गले से ठीक स्वर नहीं निकलता। गला बैठना।
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स्वरता  : स्त्री० [सं०] १. ‘स्वर’ होने का भाव। २. ‘स्वरित’ होने की अवस्था या भाव। (सोनोरिटी)
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स्वरनादी (दिन्)  : पुं० [सं०] मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला बाजा। (संगीत)
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स्वरभेद  : पुं० [सं०] स्वर भंग (दे०)।
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स्वरमंडल  : पुं० [सं०] वीणा की तरह का एक बाजा जिसका प्रचार आजकल बहुत कम हो गया है।
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स्वरवाही (हिन्)  : पुं० [सं०] वह बाजा या बाजों का समूह जो स्वर उत्पन्न करता हो। ताल देनेवाले बाजों से भिन्न। जैसे–वंशी, वीणा, सारंगी, आदि (ढोल, तबले, मँजीरे आदि से भिन्न)।
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स्वरस  : पुं० [सं०] १. वैद्यक में, पत्ती आदि को भिगोकर और अच्छी तरह कूट, पीस और छानकर निकाला हुआ रस। २. किसी चीज का अपना प्राकृतिक स्वर।
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स्वरसादि  : पुं० [सं०] ओषधियों को पानी में औटाकर तैयार किया हुआ काढ़ा। कषाय।
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स्वरा  : स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की बड़ी पत्नी जो गायत्री को सपत्नी कही गई है।
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स्वरागम  : पुं० [सं० स्वर+आगम] निरुक्त में किसी शब्द के दो वर्णों के बीच में किसी प्रकार कोई स्वर आ लगना। जैसे–कर्म से करम रूप बनने में अ का स्वरागम हुआ है।
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स्वराघात  : पुं० [सं० स्वर-आघात] किसी शब्द का उच्चारण करने, किसी को पुकारने, कुछ कहने, गाने आदि के समय किसी व्यंजन या स्वर पर साधारण से अधिक जोर देने या अधिक प्राण-शक्ति लगाने की क्रिया या भाव (ऐक्सेन्ट)। विशेष–साधारणतः ध्वनियों पर होनेवाला आघात या प्राण-शक्ति का प्रयोग हो प्रकार का होता है। पहले प्रकार में तो जिज्ञासा विधि, निषेध, विस्मय, संतोष, हर्ष आदि प्रकट करने के लिए होता है। उदा०–हरणार्थ जब हम कहते हैं–हम जायेंगे–तो कभी तो हमें ‘हम’ पर जोर देना अभीष्ट होता है, जिसका आशय होता है–हम अवश्य जाएँगे, बिना गये नहीं मानेंगे। ध्वनियों पर दूसरे प्रकार का आघात वह होता है, जिसमें या तो मात्रा खींचकर बढ़ाई जाती है (जैसे–क्या, जी, हाँ–आदि या उच्चारण ही कुछ अधिक या कम जोर लगाकर किया जाता है। वैदिक मंत्रों के उच्चारण के संबंध में जो उदात्त, अनुदात्त और स्वरित नामक तीन भेद हैं, वे इसी प्रकार के अन्तर्गत आते हैं। पाश्चात्य देशों की अँगरेजी आदि कुछ आर्य परिवारवाली भाषाओं में शब्दों के उच्चारण का शुद्ध रूप बतलानेवाला कुछ विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार के चिह्न (‘) से सूचित किया जाता है।
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स्वराजी  : पुं० [सं० स्वराज्य] १. वहो जो ‘स्वाराज्य’ नामक राजनीतिक पक्ष या दल का हो। २. स्वराज्य-प्राप्ति के लिए आन्दोलन तथा प्रयत्न करनेवाले राजनीतिक दल का मनुष्य। वि० स्वराज्य संबंधी। स्वराज्य का।
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स्वराज्य  : पुं० [सं०] १. अपना राज्य। अपना देश। २. वह अवस्था जिसमें शासन-सत्ता विदेशी शासकों के हाथ से निकलकर देशवासियों के हाथों में आ चुकी होती है।
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स्वराट्  : वि० [सं०] जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो। पुं० १. ईश्वर। २. ब्रह्मा। ३. वहा राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य-शासन प्रणाली प्रचलित हो। ४. ऐसा वैदिक छंद जिसके सब पादों में से मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों।
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स्वरांत  : वि० [सं०] (शब्द) जिसके अंत में कोई स्वर हो। जैसे–माला, रोटी आदि।
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स्वरांतर  : पुं० [सं०] दो स्वरों के उच्चारण के बीच का अन्तर या विराम।
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स्वरापगा  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मन्दाकिनी।
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स्वराभरण  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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स्वरालाप  : पुं० [सं० स्वर+आलाप] संगीत में ऊँचे-नीचे स्वरों को नियत और नियमित रूप से लयदार और सुन्दर बनाकर उच्चारण करने की क्रिया या भाव।
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स्वरालाप  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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स्वरांश  : पुं० [सं०] संगीत में, स्वर का आधा या चौथाई अंग।
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स्वराष्टक  : पुं० [सं०] संगीत में, एक प्रकार का संकर रोग जो बंगाली, भैरव, गांधार, पंचम और गुर्जरी के मेल से बनता है।
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स्वराष्ट्र  : वि० [सं०] जिसका संबंध अपने राष्ट्र से हो। फलतः अन्य राष्ट्रों, उपनिवेशों से संबंध न रखनेवाला। (होम) जैसे–स्वराष्ट्र मंत्रालय; स्वराष्ट्र मंत्री। पुं० १. अपना राष्ट्र या राज्य। २. सुराष्ट्र नामक प्राचीन देश। ३. तामस मनु के पिता, जो पुराणानुसार एक सार्वभौम राजा थे और जिन्होंने बहुत से यज्ञादि किए थे।
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स्वराष्ट्र मंत्री  : पुं० [सं०] किसी देश की सरकार या मंत्रिमण्डल का वह सदस्य जिसके अधीन राष्ट्र की आन्तरिक व्यवस्था और सुरक्षा-संबंधी विभागों की देख-रेख और संचालन हो। (होम मिनिस्टर)
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स्वरित  : वि० [सं०] १. (अक्षर या वर्ण) जो स्वर से युक्त हो। जिसमें स्वर हो या लगा हो। २. जिसमें कुछ ऊँचा और स्पष्ट रूप से सुने जाने के योग्य स्वर हो। ३. जो अच्छे या मधुर स्वर से युक्त हो। ४. (स्थान) जिसमें स्वर भर या गूँज रहा हो। (सोनोरस) पुं० व्याकरण में स्वरों के उच्चारण के तीन प्रकारों या भेदों में से एक। स्वर का ऐसा उच्चारण जो न तो बहुत ऊँचा या तीव्र हो और न बहुत नीचा या कोमल हो। मध्यम या सम-भाव से स्वरों का होनेवाला उच्चारण। (शेष दो भेद उदात्त और अनुदात्त कहलाते हैं)
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स्वरितत्व  : पुं० [सं०] स्वरित का गुण, धर्म या भाव।
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स्वरु  : पुं० [सं०] १. वज्र। २. यज्ञ। ३. सूर्य की किरण। ४. तीर। बाण। ५. एक प्रकार का विच्छू।
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स्वरुप  : पुं० [सं०] [वि० स्वरूपी] १. किसी चीज का वह पक्ष, जिसमें वह उपस्थित या प्रस्तुत होती है। रंग, रूप सामग्री आदि से भिन्न। २. किसी वस्तु, विषय, व्यक्ति का अपना या निजी आकार-प्रकार तथा बनावट, जो समान तत्त्वधारी वस्तुओं के आकार-प्रकार तथा बनावट से भिन्न तथा स्वतन्त्र होती है। आकृति। रूप। शक्ल। ३. उक्त के आधार पर किसी देवता या देवी का बना हुआ चित्र या मूर्ति। जैसे–वैष्णव भक्तों की स्वरूप-सेवा। ४. लीला आदि में किसी देवता या देवी का वह रूप, जो किसी पात्र या व्यक्ति ने धारण किया हो। जैसे–वाक्य का यह स्वरूप व्याकरण सम्मत नहीं है। ६. पंडित। विद्वान्। ७. आत्मा। ८. प्रकृति। स्वभाव। वि० १. सुन्दर। खूबसूरत। २. तुल्य। समान। अव्य० (किसी के) तौर पर या रूप में। जैसे–प्रमाण-स्वरूप कोई मंत्र कहना या ग्रंथ का उद्धरण सामने रखना। पुं०=सारूप्य (मुक्ति)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वरूप दया  : पुं० [सं०] जैनों में ऐसी दया या जीवरक्षा जो वास्तविक न हो केवल इहलोक और परलोक में सुख पाने के लिए लोगों की देखा-देखी की जाय।
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स्वरूप प्रतिष्ठा  : स्त्री० [सं०] जीव का अपनी स्वाभाविक शक्तियों और गुणों से युक्त होना।
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स्वरूप संबंध  : पुं० [सं०] ऐसा संबंध जो किसी से उसके अपने स्वरूप के समान होने की अवस्था में माना जाता है।
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स्वरूपज्ञ  : पुं० [सं०] वह जो परमात्मा और आत्मा का वास्तविक स्वरूप जानता हो। तत्त्वज्ञ।
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स्वरूपता  : स्त्री० [सं०] स्वरूप का गुण, धर्म या भाव।
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स्वरूपमान  : वि०=स्वरूपवान् (सुन्दर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वरूपवान्  : वि० [सं० स्वरूपवत्] [स्त्री० स्वरूपवती] जिसका स्वरूप अच्छा हो। सुन्दर। खूबसूरत।
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स्वरूपाभास  : पुं० [सं०] कोई वास्तविक स्वरूप न होने पर भी उसका आभास होना। जैसे–गंधर्वनगर या मरीचिका जिसका वास्तव में अस्तित्व न होने पर भी उनके रूप का आभास (स्वरूपाभास) होता है।
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स्वरूपासिद्ध  : वि० [सं०] जो स्वयं अपने स्वरूप से ही असिद्ध होता हो। कभी सिद्ध न हो सकनेवाला।
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स्वरूपी (पिन्)  : वि० [सं०] १. स्वरूपवाला। स्वरूपयुक्त। २. जो किसी के स्वरूप के अनुसार बना हो अथवा जिसने किसी का स्वरूप धारण किया हो। पुं०=सारूप्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वरूपोपनिषद्  : स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
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स्वरेणु  : स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी संज्ञा का एक नाम।
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स्वरोचिस्  : पुं० [सं०] पुराणानुसार स्वारोचिष् मनु के पिता जो कलि नामक गंधर्व के पुत्र थे और वरूथिनी नाम की अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
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स्वरोद  : पुं०=सरोद (बाजा)।
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स्वरोदय  : पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके द्वारा इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि नाडियों के श्वासों के आधार पर सब प्रकार के शुभ और अशुभ फल जाने जाते हैं। दाहिने और बाएँ नथुने से निकलते हुए श्वासों को देखकर शुभ और अशुभ फल कहने की विद्या।
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स्वर्  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग। २. परलोक। ३. आकाश।
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स्वर्ग  : पुं० [सं०] [वि० स्वर्गीय] १. हिंदुओं के अनुसार ऊपर के सात लोकों में से तीसरा लोक, जिसका विस्तार सूर्यलोक से ध्रुवलोक तक कहा गया है और जिसमें ईश्वर तथा देवताओं का निवास माना गया है। यह भी माना जाता है कि पुण्यात्माओं और सत्कर्मियों की मृत्यु होने पर उनकी आत्माएँ इसी लोक में जाकर निवास करती हैं। देवलोक। पद–स्वर्ग की धार=आकाश-गंगा। मंदाकिनी। मुहा०–स्वर्ग के पथ पर पैर रखना=(क) यह लोक छोड़कर परलोक के लिए प्रस्थान करना। मरना। (ख) जान जोखिम में डालना। स्वर्ग छना=स्वर्ग के सुख का इसी जीवन में अनुभव करना। उदा०–मदोन्मत्ता महर्षि-मुख देख थी स्वर्ग छूती।–हरिहौध। स्वर्ग जाना या सिधारना=परलोकगामी होना। मरना। २. अन्य धर्मों के अनुसार इसी प्रकार का वह विशिष्ट स्थान जो आकाश में माना जाता है। बिहिश्त (हेवेन)। विशेष–भिन्न-भिन्न धर्मों में स्वर्ग की कल्पना अलग-अलग प्रकार से की गई है। तो भी प्रायः सभी धर्मों के अनुसार इसमें ईश्वर, देवताओ, देवदूतों और पवित्र आत्माओं का निवास माना जाता है और यह सभी प्रकार के सुखों और सौन्दर्यों का भंडार कहा गया है। ३. बोल-चाल में पृथ्वी के ऊपर का वह सारा विस्तार, जिसमें सूर्य, चाँद, तारे, बादल आदि निकलते, डूबते या उठते-बैठते हैं। ४. कोई ऐसा स्थान, जहाँ सभी प्रकार के सुख प्राप्त हों और नाम को भी कोई कष्ट या चिंता न हो। जैसे–यहाँ तो हमें स्वर्ग जान पड़ता है। ५. आकाश। आसमान। पद–स्वर्ग-सुख=सभी प्रकार का बहुत अधिक सुख। मुहा०–(किसी चीज का) स्वर्ग छूना=बहुत अधिक ऊँचा होना। जैसे–वहाँ की अट्टालिकाएँ स्वर्ग छूती थीं। ६. ईश्वर। ७. सुख। ८. प्रलय।।
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स्वर्ग काम  : वि० [सं०] जो स्वर्ग की कामना रखता हो। स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाला।
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स्वर्ग गमन  : पुं० [सं०] स्वर्ग सिधारना। मरना।
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स्वर्ग गिरि  : पुं०=स्वर्णगिरि (सुमेरु पर्वत)।
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स्वर्ग तरु  : पुं० [सं०] १. कल्पतरु। २. पारिजात। परजाता।
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स्वर्ग धेनु  : स्त्री० [सं०] कामधेनु।
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स्वर्ग नदी  : स्त्री० [सं० स्वर्ग+नदी] आकाश गंगा।
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स्वर्ग पति  : पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र।
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स्वर्ग पुरी  : स्त्री० [सं०] इन्द्र की पुरी, अमरावती।
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स्वर्ग भूमि  : स्त्री० [सं०] १. एक प्राचीन जनपद जो वाराणसी के पश्चिम ओर था। २. ऐसा स्थान जहाँ स्वर्ग का-सा आनन्द और सुख हो।
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स्वर्ग मंदाकिनी  : स्त्री० [सं०] आकाशगंगा। मंदाकिनी।
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स्वर्ग लोकेश  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र। २. तन। शरीर।
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स्वर्ग स्त्री  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वर्ग-गत  : भू० कृ०, वि० [सं०] जो स्वर्ग चला गया हो। मरा हुआ। स्वर्गीय।
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स्वर्ग-गति  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग जाना। मरना।
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स्वर्ग-गामी (मिन्)  : वि० [सं०] १. स्वर्ग की ओर गमन करनेवाला। स्वर्ग जानेवाला। २. जो स्वर्ग जा चुका अर्थात् मर चुका हो। मृत। स्वर्गीय।
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स्वर्ग-तंरगिणी  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग की नदी, मंदाकिनी। आकाश-गंगा।
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स्वर्ग-पताली  : स्त्री० [सं० स्वर्ग+पाताल] ऐसा बैल जिसका एक सींग सींधा ऊपर को उठा हुआ और दूसरा सीधा नीचे की ओर झुका हुआ हो।
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स्वर्ग-योनि  : पुं० [सं०] यज्ञ, दान आदि वे शुभ कर्म, जिनके कारण मनुष्य स्वर्ग जाता है।
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स्वर्ग-लाभ  : पुं० [सं०] स्वर्ग की प्राप्ति।। स्वर्ग पहुँचाना। मरना।
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स्वर्ग-लोक  : पुं० दे० ‘स्वर्ग’।
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स्वर्ग-वधू  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वर्ग-वाणी  : स्त्री० [सं० स्वर्ग+वाणी] आकाशवाणी।
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स्वर्गगा  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी।
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स्वर्गति  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग की ओर जाने की क्रिया। स्वर्ग-गमन।
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स्वर्गद  : वि० [सं०] जो स्वर्ग पहुँचाता हो। स्वर्ग देनेवाला।
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स्वर्गदायक  : वि०=स्वर्गद।
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स्वर्गरूढ़  : भू० कृ०, वि० [सं०] स्वर्ग सिधारा हुआ। स्वर्ग पहुँचा हुआ। मृत। स्वर्गवासी।
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स्वर्गरोहण  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग की ओर जाना या चढ़ना। २. मरकर स्वर्ग जाना।
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स्वर्गवास  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग में निवास करना। स्वर्ग में रहना। २. मर कर स्वर्ग जाना। मरना। जैसे–आज उनका स्वर्गवास हो गया।
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स्वर्गवास  : पुं० [सं०]=स्वर्गवास।
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स्वर्गवासी (सिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वर्गवासिनी] १. स्वर्ग में रहनेवाला। २. जो मरकर स्वर्ग जा चुका हो। मृत। स्वर्गीय।
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स्वर्गसार  : पुं० [सं०] ताल के चौदह मुख्य भेदों में से एक। (संगीत)
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स्वर्गस्थ  : भू० कृ०, वि० [सं०] १. स्वर्ग में स्थित। स्वर्ग का। २. जो मरकर स्वर्ग जा चुका हो। मृत। स्वर्गीय।
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स्वर्गापगा  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी।
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स्वर्गामी (मिन्)  : वि० [सं० स्वर्गमिन्]=स्वर्गगामी।
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स्वर्गि-गिरि  : पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत, जिसके श्रृंग पर स्वर्ग की स्थिति मानी जाती है।
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स्वर्गिक  : वि०=स्वर्गीय।
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स्वर्गी (गिन्)  : वि० [सं०]=स्वर्गीय। पुं० देवता।
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स्वर्गीय  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वर्गीया] १. स्वर्ग-संबंधी। स्वर्ग का। २. स्वर्ग में रहने या होनेवाला। ३. जो मरकर स्वर्ग चला गया हो। (मृत व्यक्ति के लिए आदरसूचक) ४. जिसकी मृत्यु अभी हाल में अथवा कुछ ही दिन पहले हुई हो। (लेट) ५. जिसमें लौकिक पवित्रता या सौन्दर्य की पराकाष्ठा हो। दिव्य। जैसे—स्वर्गीय रूप।
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स्वर्ग्य  : वि० [सं०] स्वर्ग-संबंधी। स्वर्ग तक पहुँचानेवाला।
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स्वर्चन  : पुं० [सं०] ऐसी अग्नि जिसमें से सुन्दर ज्वाला निकलती हो।
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स्वर्जि  : स्त्री० [सं०] १. सज्जी मिट्टी। २. शोरा।
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स्वर्जिक  : पुं० [सं०] सज्जी मिट्टी।
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स्वर्जिकाक्षार  : पुं० [सं०] जिसने स्वर्ग पर विजय प्राप्त कर ली हो। स्वर्गजेता। पुं० एक प्रकार का यज्ञ।
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स्वर्ण  : पुं० [सं०] १. सुवर्ण या सोना नामक बहुमूल्य धातु। कनक। २. धतूरा। ३. नाग केसर। ४. गौर स्वर्ण नामक साग। ५. कामरूप देश की एक नदी। वि० सोने की तरह का पीला।
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स्वर्ण ग्रीवा  : स्त्री० [सं०] कालिका पुराण के अनुसार एक पवित्र नदी जो नाटक शैल के पूर्वी भाग से निकली हुई मानी गई है।
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स्वर्ण नाभ  : पुं० [सं०] एक प्रकार के शालग्राम।
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स्वर्ण पत्र  : पुं० [सं०] सोने का पत्तर या तबक।
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स्वर्ण पाटक  : पुं० [सं०] सुहागा जिसके मिलाने से सोना गल जाता है।
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स्वर्ण फला  : स्त्री० [सं०] स्वर्ण कपाली। चंपा केला।
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स्वर्ण मय  : वि० [सं०] १. स्वर्ण से युक्ति। २. जो बिलकुल सोने का हो। जैसे–स्वर्णमय सिंहासन।
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स्वर्ण मानक  : पुं०=स्वर्णमान।
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स्वर्ण मीन  : पुं० [सं०] सुनहले रंग की एक प्रकार की मछली।
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स्वर्ण लता  : स्त्री० [सं०] १. मालकंगनी। ज्योतिष्मती। २. पीली जीवंती।
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स्वर्ण वर्णा  : स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. दारुहलदी।
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स्वर्ण वल्ली  : स्त्री० [सं०] १. सोनावल्ली। रक्तफला। २. पीली जीवंती।
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स्वर्ण शिख  : पुं० [सं०] स्वर्णचूड़ या नीलकंठ नामक पक्षी।
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स्वर्ण-कूट  : पुं० [सं०] हिमालय की एक चोटी।
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स्वर्ण-केतकी  : स्त्री० [सं०] पीली केतकी।
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स्वर्ण-गिरि  : पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत।
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स्वर्ण-गैरिक  : पुं० [सं०] सोनोगेरू।
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स्वर्ण-चूड़, स्वर्ण-चूल  : पुं० [सं०] नीलकंठ नामक पक्षी।
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स्वर्ण-जयंती  : स्त्री० [सं०] किसी व्यक्ति, संस्था आदि या किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के जन्म या आरम्भ होने के ५0 वर्ष पूरा होने पर होनेवाली जयंती (गोल्डेन जुबली)।
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स्वर्ण-द्वीप  : पुं० [सं०] आधुनिक सुमात्रा द्वीप का मध्ययुगीन नाम।
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स्वर्ण-पर्पटी  : स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रसिद्ध औषध, जो संग्रहणी रोग के लिए सबसे अधिक गुणकारी मानी जाती है।
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स्वर्ण-पुष्प  : पुं० [सं०] १. अमलतास। २. चंपा। ३. कीकर। बबूल। ४. कैथ। ५. पेठा।
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स्वर्ण-पुष्पा  : स्त्री० [सं०] १. कलिहारी। लागली। २. सातला नामक थूहर। ३. मेढ़ा-सिंगी। ४. अमलतास। ५. पीली केतकी।
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स्वर्ण-पुष्पी  : स्त्री० [सं०] १. स्वर्ण-केतकी। पीला केवड़ा। २. अमलतास। ३. सातला।
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स्वर्ण-प्रस्थ  : पुं० [सं०] पुराणानुसार जंबू द्वीप का एक उपद्वीप।
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स्वर्ण-फल  : पुं० [सं०] धतूरा।
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स्वर्ण-बीज  : पुं० [सं०] धतूरे का बीज।
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स्वर्ण-भाज  : पुं० [सं०] सूर्य।
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स्वर्ण-माक्षिक  : पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु।
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स्वर्ण-माता  : स्त्री० [सं० स्वर्णमातृ] हिमालय की एक छोटी नदी।
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स्वर्ण-मान  : पुं० [सं०] अर्थशास्त्र में, सिक्कों के संबंध की वह प्रणाली जिसमें कोई देश अपनी मुद्रा की इकाई या मानक का अर्ध सोने की एक निश्चित तौल के अर्ध के बराबर रखता है। (गोल्ड स्टैन्डर्ड) विशेष–जिस देश में यह प्रणाली प्रचलित रहती है, वहाँ (क) या तो सोने के ही सिक्के चलते हैं या (ख) ऐसी मुद्रा चलती है, जो तत्काल सोने के सिक्कों में बदली जा सकती है या (ग) लोग अपना सोना देकर टकसाल से उसके सिक्के ढलवा सकते हैं।
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स्वर्ण-मुखी (खिन्)  : स्त्री० [सं०] १. मध्ययुग में, 6४ हाथ लंबी, ३२ हाथ ऊँची और ३२ हाथ चौड़ी नाव। २. सनाय।
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स्वर्ण-मुद्रा  : स्त्री० [सं०] सोने का सिक्का। अशरफी।
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स्वर्ण-यूथिक, स्वर्ण-यूथी  : स्त्री० [सं०] पीली जूही। सोनजूही।
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स्वर्ण-रंभा  : स्त्री० [सं०] स्वर्ण कदली। चंपा केला।
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स्वर्ण-रस  : पुं० [सं०] १. मध्यकालीन तांत्रिकों और रासायनिकों की परिभाषा में ऐसा रस, जिसके स्पर्श से कोई धातु सोना बन जाता हो या बन सकती हो। २. परवर्ती रहस्यवादी साधकों या संप्रदायों में वह क्रिया या तत्त्व, जिसमें मन की चंचलता नष्ट होती हो और वह पूर्ण रूप से शांत हो जाता हो।
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स्वर्ण-रेखा  : स्त्री०=सुवर्ण-रेखा (नदी)।
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स्वर्ण-वज्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का लोहा।
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स्वर्ण-वर्ण  : पुं० [सं०] १. कण-गुग्गल। २. हरताल। ३. सोना गेरू। ४. दारुहलदी।
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स्वर्ण-विंदु  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. एक प्राचीन तीर्थ।
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स्वर्ण-श्रृंगी (गित्)  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत जो सुमेरु पर्वत के उत्तर ओर माना जाता है।
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स्वर्ण-सिंदूर  : पुं०=रस-सिंदूर।
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स्वर्णकर्ष  : पुं० [सं०] सोने की एक प्राचीन तौल जो किसी के मत से दश माशे की और किसी के मत से सोलह माशे की होती थी।
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स्वर्णकाय  : वि० [सं०] जिसका शरीर सोने का अथवा सोने का-सा हो। पुं० गरुड़।
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स्वर्णकार  : पुं० [सं०] १. एक जाति जो सोने-चाँदी के आभूषण आदि बनाती है। २. सुनार।
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स्वर्णकारी  : स्त्री० [हिं० स्वर्णकार] सोने-चाँदी के गहने आदि बनाने का व्यवसाय। सुनारी।
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स्वर्णज  : वि० [सं०] १. सोने से उत्पन्न। २. सोने का बना हुआ। पुं० १. राँगा वंग। २. सोनामक्खी।
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स्वर्णजीवी (विन्)  : पुं० [सं०] स्वर्णकार। सुनार।
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स्वर्णद  : वि० [सं०] १. स्वर्ण या सोना देनेवाला। २. स्वर्ण या सोना दान करनेवाला।
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स्वर्णदी  : स्त्री० [सं०] १. मंदाकिनी। स्वर्गंगा। २. कामाख्या के पास की एक नदी।
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स्वर्णाकर  : पुं० [सं०] सोने की खान।
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स्वर्णाचल  : पुं० [सं०] उड़ीसा प्रदेश का भुवनेश्वर नामक तीर्थ।
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स्वर्णाद्रि  : पुं० [सं०]=स्वर्णाचल।
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स्वर्णाभ  : वि० [सं०] १. सोने की सी आभा या चमकवाला। २. सोने के रंग का। सुनहला। ३. (प्रतिभूति) जो सब प्रकार से सुरक्षित हो और जिसके डूबने या व्यर्थ होने की कोई आशंका न हो। (गिल्टएज्ड) पुं० हरताल।
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स्वर्णारि  : पुं० [सं०] १. गंधक। २. सीमा नामक धातु।
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स्वर्णिम  : वि० [सं०] सोने का। सुनहला।
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स्वर्णुली  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप। हेमपुष्पी। सोनुली।
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स्वर्णोपधातु  : पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु।
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स्वर्धनी  : स्त्री० [सं०] गंगा।
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स्वर्नगरी  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग की पुरी, अमरावती।
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स्वर्नदी  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा।
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स्वर्पति  : पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र।
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स्वर्भानु  : पुं० [सं०] १. सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम। २. राहु नामक ग्रह।
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स्वर्लोक  : पुं० [सं०] स्वर्ग।
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स्वर्वधू  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वर्वापी  : स्त्री० [सं०] गंगा।
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स्वर्वेश्या  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वर्वैद्य  : पुं० [सं०] स्वर्ग के वैद्य, अश्विनीकुमार।
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स्वल्प  : वि० [सं०] बहुत ही अल्प या कम। बहुत थोड़ा। पुं० नखी नामक गन्ध द्रव्य।
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स्वल्प-विराम ज्वर  : पुं० [सं०] ठहर ठहर कर थोड़ी देर के लिए उतरकर फिर आनेवाला ज्वर।
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स्वल्प-व्यक्ति तंत्र  : पुं० दे० ‘अल्प-तंत्र’।
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स्वल्पक  : वि० [सं०]=स्वल्प।
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स्वल्पायु (स्)  : वि० [सं०] जिसकी आयु बहुत अल्प या थोड़ी हो। अल्पजीवी।
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स्वल्पाहार  : पुं० [सं०] बहुत कम या थोड़ा भोजन करना।
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स्वल्पाहारी (रिन्)  : वि० [सं०] बहुत कम या थोड़ा भोजन करनेवाला।
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स्वल्पिष्ठ  : वि० [सं०] १. अत्यन्त अल्प। बहुत ही कम। २. बहुत ही छोटा।
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स्ववरन  : पुं०=सुवर्ण (सोना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्ववर्णी रेखा  : स्त्री०=सुवर्ण रेखा (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्ववश  : वि० [सं०] [भाव० स्ववशता] १. जो अपने वश में हो। स्वतन्त्र। २. जितेन्द्रिय।
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स्ववशता  : स्त्री० [सं०] स्ववश होने की अवस्था, गुण या भाव।
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स्ववश्य  : वि० [सं०] [भाव० स्ववश्यता] जो अपने ही वश में हो। अपने आप पर अधिकार रखनेवाला।
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स्ववासिनी  : वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री) जो अपने घर में रहती हो। स्त्री० वह कुँआरी या विवाहिता कन्या, जो वयस्क होने के उपरान्त अपने पिता के घर में ही रहती हो।
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स्वशुर  : पुं०=श्वसुर।
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स्वःसरित (ा)  : स्त्री० [सं०] गंगा।
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स्वसा (सृ)  : स्त्री० [सं०] भगिनी। बहन।
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स्वसित  : वि० [सं०] बहुत काला।
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स्वःसुंदरी  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वसुर  : पुं०=ससुर।
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स्वस्ति  : अव्य० [सं०] १. शुभ हो। (प्रायः शुभ-कामना प्रकट करने के लिए पत्रों के आरम्भ में) २. कल्याण हो। मंगल हो। भला हो। (आशीर्वाद) ३. मान्य है। ठीक है। स्त्री० १. कल्याण। मंगल। २. सुख। ३. ब्रह्मा की तीन पत्नियों में से एक।
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स्वस्ति-मुख  : वि० [सं०] जिसके मुख से शुभ, सुख देनेवाली या आशीर्वादपूर्ण बातें निकलती हों। पुं० १. ब्राह्मण। २. राजाओं का स्तुति-पाठक। बंदी।
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स्वस्ति-वाचक  : वि० [सं०] १. जो मंगल-सूचक बात करता हो। २. आशीर्वाद देनेवाला।
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स्वस्ति-वाचन  : पुं० [सं०] मंगल-कार्यों के आरम्भ में किया जानेवाला एक प्रकार का धार्मिक कृत्य, जिसमें कलश-स्थापन, गणेश का पूजन और मंगल-सूचक मंत्रों का पाठ किया जाता है।
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स्वस्तिक  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बहुत प्राचीन मंगल-चिह्न जो शुभ अवसरों पर दीवारों आदि पर अंकित किया जाता है। आज-कल इसका यह रूप प्रचलित है ()। साथिया। २. सामुद्रिक में, शरीर के किसी अंग पर होनेवाला उक्त प्रकार का चिह्न जो बहुत शुभ माना जाता है। ३. एक प्रकार का मंगल-द्रव्य जो विवाह आदि के समय भिगोये हुए चावल पीसकर तैयार किया जाता है और जिसमें देवताओं का निवास माना जाता है। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का यंत्र जो शरीर के गड़े हुए शल्य आदि बाहर निकालने के काम आता था। ५. वैद्यक में घाव या फोड़े पर बाँधी जानेवाली एक प्रकार की तिकोनी पट्टी। ६. वास्तु-शास्त्र में ऐसा घर, जिसमें पश्चिम एक और पूर्व ओर दो दालान हों। ७. साँप के फन पर की नीली रेखा। ८. हठयोग की साधना में एक प्रकार का आसन या मुद्रा। ९. प्राचीन काल की एक प्रकार की बढ़िया नाम, जो प्रायः राजाओं की सवारी के काम आती थी। १॰. चौमुहानी। ११. लहसुन। १२. रतालू। १३. मूली। १४. सुसना नामक साग। शिरियारी।
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स्वस्तिका  : स्त्री० [सं०] चमेली।
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स्वस्तिकृत  : पुं० [सं०] शिव। महादेव। वि० कल्याणकारी। मंगलकारक।
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स्वस्तिद  : वि० [सं०] मंगलकारक। पुं० शिव का एक नाम ।
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स्वस्तिमती  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका। वि० [सं०] ‘स्वस्तिमान’ का स्त्री।
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स्वस्तिमान् (मत्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वस्तिमती] १. सब प्रकार से सुखी। २. भाग्यवान्।
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स्वस्त्ययन  : पुं० [सं०] एक प्रकार का धार्मिक कृत्य, जो किसी विशिष्ट कार्य की अशुभ बातों का नाश करके मंगल की स्थापना के विचार से किया जाता है।
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स्वस्थ  : वि० [सं०] [भाव० स्वस्थता] १. जो स्वयं अपने बल पर या सहारे से खड़ा हो। २. फलतः आत्म-निर्भर। ३. जो शारीरिक दृष्टि से आत्म-निर्भर हो। फलतः जिसमें आलस्य, रोग, विकार आदि न हों। तन्दुरुस्त (हेल्दी)। ४. जिसमें किसी प्रकार की त्रुटि न हो। (साउन्ड) जैसे–स्वस्थ प्रज्ञ। ५. सामाजिक या मानसिक स्वास्थ्य का रक्षक। जैसे–स्वस्थ साहित्य।
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स्वस्थ-चित्त  : वि० [सं०] जिसका चित्त स्वस्थ हो। मानसिक दृष्टि से स्वस्थ।
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स्वस्थता  : स्त्री० [सं०] १. स्वस्थ होने की अवस्था या भाव। तंदरुस्ती। २. सावधानता।
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स्वस्रीय  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वस्रीया] स्वसृ अर्थात् बहन का लड़का। भानजा।
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स्वहाना  : अ०=सुहाना (भला लगना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वांकिक  : पुं० [सं०] ढोल, मृदंग आदि ऐसे बाजे बजानेवाले, जो अपने अंक या गोद में रखकर बजाये जाते हों।
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स्वाक्षर  : पुं० [सं०] १. अपने ही हाथों से लिखे हुए अक्षर। अपना हस्तलेख। २. (किसी का) अपने हाथ से लिखा हुआ कोई छोटा लेख या हस्ताक्षर, जिसे लोग अपने पास स्मृति के रूप में रखते हैं। (ऑटोग्राफ) ३. हस्ताक्षर।
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स्वाक्षरित  : भू० कृ० [सं०] १. जिस पर किसी ने अपने हाथ से अपना नाम, पता, लेख आदि लिख रखा हो। २. दस्तखत किया हुआ। हस्ताक्षर ये युक्त। (साइन्ड)
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स्वांग  : पुं० [सं० स्व+अंग] १. किसी दूसरे की वेश-भूषा अपने अंग पर इसलिए धारण करना कि देखने में लोगों को वही दूसरा व्यक्ति जान पड़े। कृत्रिम रूप से दूसरे का धारण किया हुआ भेस। रूप भरने की क्रिया या भाव। जैसे–(क) रामलीला में राम और लक्ष्मण के स्वाँग। (ख) अभिनय में दुष्यंत और शकुंतला के स्वाँग। २. विशेषतः उक्त प्रकार से धारण किया जानेवाला वह भेस या रूप, जो या तो केवल मनोरंजन के लिए हास्यजनक हो या जिसका उद्देश्य दूसरों का उपहास करना अथवा हँसी उड़ाना हो। जैसे–(क) बाल-विवाह या वृद्ध-विवाह का स्वाँग। (ख) नाक-कटैया या रामलीला के जुलूस में निकलनेवाले स्वाँग। ३. जन साधारण में प्रचलित एक प्रकार का संगीत-रूपक जो किसी लोककथा पर आधारित होता है। जैसे–पूरनमल या राजा हरिश्चन्द्र का स्वाँग। ४. कोई बहाना बनाकर दूसरों को भ्रम में डालने या अपना कोई काम निकालने के लिए धारण किया जानेवाला झूठा रूप। जैसे–बीमारी का स्वाँग रचकर घर बैठना। क्रि० प्र०–बनना।–रचना। मुहा०– स्वाँग लाना=किसी दूसरे का भेस बनाकर या कोई कृत्रिम रूप धारण करके सामने आना। जैसे–जन्म भर में एक स्वाँग भी लाये तो कोढ़ी का। (कहा०)
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स्वांग  : पुं० [सं०] अपना ही अंग।
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स्वागत  : पुं० [सं०] १. किसी मान्य या प्रिय के आने पर आगे बढ़कर आदरपूर्वक उसका अभिनन्दन करना। अभ्यर्थना। (रिसेप्शन) २. उक्त अवसर पर पूछा जानेवाला कुशल-मंगल। उदा०–स्वागत पूँछि निकट बैठारे।–तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) ३. किसी के कथन, विचार आदि को अच्छा या अनुकूल समझकर ग्रहण अथवा मान्य करने की क्रिया या भाव। जैसे–हम आपके इस विचार (या सम्मति का) स्वागत करते हैं। ४. एक बुद्ध का नाम। अव्य० आप के आगमन पर (हम) आप का अभिनन्दन करते हैं। जैसे–स्वागत ! स्वागत ! बन्धुवर, भले पधारे आप।
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स्वागत-पतिका  : स्त्री० [सं०] वह नायिका जो अपने पति के परदेश से लौटने से प्रसन्न होकर उसके स्वागत के लिए प्रस्तुत हो। आगतपतिका। (नायिका के अवस्थानुसार दस भेदों में से एक।)
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स्वागत-प्रिया  : पुं० [सं०] वह नायक जो अपनी पत्नी के परदेश से लौटने से उत्साहपूर्वक और प्रसन्न होकर उसका स्वागत करने के लिए प्रस्तुत हो।
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स्वागत-समिति  : स्त्री० [सं०] वह समिति, जो किसी बड़े सम्मेलन आदि में आनेवालों के स्वागत-सत्कार के लिए बनती है (रिसेप्शन कमिटी)।
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स्वागतक  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वागतिका] १. वह जिस पर गत सज्जनों के स्वागत और सत्कार का भार हो। (रिसेप्शनिस्ट) २. घर का वह मालिक, जो आगत सज्जनों का स्वागत-सत्कार करता हो। (होस्ट)
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स्वागतकारिणी सभा  : स्त्री०=स्वागत-समिति।
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स्वागतकारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वागतकारिणी] स्वागत या अभ्यर्थना करनेवाला। पेशवाई करनेवाला।
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स्वागता  : स्त्री० [सं०] चार चारणों का एक समवृत्त वर्णिक छन्द, जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, नगण, भगण, और दो गुरु होते हैं। यथा–राज-राजा दशरत्थ तनैजू। रामचन्द्र भव-इन्द्र बने जू।–केशव।
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स्वागतिक  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वागतिका] स्वागत करनेवाला। आनेवाले की अभ्यर्थना या सत्कार करनेवाला। पुं० घर का वह मालिक, जो किसी विशिष्ट अवसर पर अपने यहाँ आये हुए लोगों का स्वागत-सत्कार करता हो (होस्ट)।
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स्वागतिका  : स्त्री० [सं०] १. स्वागत करनेवाली गृहस्वामिनी। २. आजकल हवाई जहाजों में वह स्त्रियाँ, जो यात्रियों की सेवा और सत्कार के लिए नियुक्त होती हैं। (एयर होस्टेस)
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स्वागती  : पुं०=स्वागतक।
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स्वाँगना  : स० [हिं० स्वाँग] बनावटी वेश या रूप धारण करना। स्वाँग बनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाँगी  : पुं० [हिं० स्वाँग] १. वह जो स्वाँग रचकर जीविका उपार्जन करता हो। नकल करनेवाला। नक्काल। २. बहुरूपिया। वि० अनेक प्रकार के रूप धारण करनेवाला।
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स्वांगीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वांगीकृत] १. किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु या वस्तुओं को इस प्रकार पूर्णतः अपने प में मिला लेना कि वे उसके अंग के रूप में हो जायँ। आत्मीकरण।
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स्वाग्रह  : पुं० [सं० स्व+आग्रह] १. अपने संबंध में होनेवाला आग्रह। जिसके फलस्वरूप कोई अपना विचार प्रकट करता हो या अपने लिए उपयुक्त स्थान ग्रहण करने का प्रयत्न करता हो। (एसर्शन)
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स्वाग्रही (हिन्)  : वि० [सं०] जिसमें स्वाग्रह की धारणा या भावना प्रबल हो (एसर्टिव)।
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स्वाच्छ  : वि० [सं०] [भाव.स्वच्छता] १. जिसमें किसी प्रकार की मैल या गंदगी न हो। निर्मल। साफ। २. उज्जवल। शुभ। चमकीला। ३. नीरोग। स्वस्थ। ४. स्पष्ट। ५. पवित्र। शुद्ध। ६. निष्कपट। पुं० १. बिल्लौर। स्फटिक। २. मोती। मुक्ता। ३. अभ्रक। अबरक। स्वर्णमाक्षिक। रौप्यमाक्षिक। ४. सोनामक्खी। ५. रूपामक्खी। ६. सोने और चाँदी का मिश्रण। ७. विमल नामक उपधातु। ८.बेर का पेड़। बदरीवृक्ष। ९.विमल नामक उपधातु।
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स्वाच्छंद्य  : पुं०=स्वच्छंदता।
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स्वाजन्य  : पुं०=स्वजनता।
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स्वाजन्य, स्वाजीव्य  : वि० [सं०] (स्थान या देश) जहाँ जीविका के लिए कृषि, वाणिज्य आदि साधन यथेष्ट और सुलभ हों। जैसे—स्वाजीव्य देश।
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स्वांत  : पुं० [सं०] १. अपना अंत या मृत्यु। २. अपना प्रदेश या राज्य। ३. अंतःकरण। मन। ४. मन की शांति। ५. गुफा।
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स्वात  : स्त्री० [सं० सुवास्तु] अफगानिस्तान की एक नदी। स्त्री०=स्वाति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वांतज  : पुं० [सं०] १. कामदेव। २. प्रेम।
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स्वातंत्र  : पुं०=स्वातंत्र्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वातंत्र्य  : पुं०=स्वतंत्रता।
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स्वातव्य-युद्ध  : पुं० [सं०] वह युद्ध, जो अपने देश को विदेशी शासन से मुक्त करके स्वतन्त्र बनाने के लिए किया गया हो, या किया जाय (वार ऑफ़ इन्डिपेन्डेन्स)।
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स्वांतःसुखाय  : अव्य० [सं०] केवल अपना अंतःकरण या मन प्रसन्न करने के लिए। अरनी ही तृप्ति या संतोष के लिए।
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स्वाति  : स्त्री० [सं०] आकाशस्थ पन्द्रहवाँ नक्षत्र, जो फलित ज्योतिष के अनुसार शुभ माना जाता है। वि० जिसका जन्म स्वाति नक्षक्ष में हुआ हो।
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स्वाति-पंथ  : पुं० [सं० स्वाति+पथ] आकाश-गंगा।
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स्वाति-योग  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में, आषाढ़ के शुक्ल-पक्ष में स्वाति नक्षत्र का चन्द्रमा के हाथ होनेवाला योग।
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स्वाति-सुत  : पुं० [सं० स्वाति+सुत] मोती। मुक्ता। विशेष–लोगों का विश्वास है कि जब सीपी में स्वाति-नक्षत्र की वर्षा की बूँद पड़ती है, तब उसमें मोती पैदा होता है।
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स्वाति-सुवन  : पुं०=स्वाति-सुत।
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स्वातिकारी  : स्त्री० [सं०] कृषि की देवी (पारस्कर गृह्य-सूत्र)।
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स्वाती  : स्त्री०=स्वाति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाद  : पुं० [सं०] १. कोई चीज खाने या पीने पर जबान या रसनेन्द्रिय को होनेवाली अनुभूति। जायका। (टेस्ट) जैसे–नींबू का स्वाद खट्टा होता है। २. किसी काम, चीज या बात से प्राप्त होनेवाला आनन्द। रसानुभूति। मजा। सुख। जैसे–उन्हें दूसरों की निन्दा करने में बहुत स्वाद आता है। क्रि० प्र०–आना।–मिलना।–लेना। मुहा०–स्वाद चकना=किसी को उसके हुए अनुचित कार्य का दंज देना। बदला लेना। जैसे–मैं भी तुम्हें इसका स्वाद चखाऊँगा। ३. आदत। अभ्यास। जैसे–भीख माँगने का उन्हें स्वाद पड़ गया है। क्रि० प्र०–पड़ना। ४. इच्छा। कामना। चाह। ५. मीठा रस। (डिं०)
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स्वादक  : पुं० [सं० स्वाद] वह जो भोज्य पदार्थ प्रस्तुत होने पर देखने के लिए चखता है कि उन सबका स्वाद ठीक है या नहीं।
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स्वादन  : पुं० [सं०] १. चखना। स्वाद लेना। २. किसी काम या बात का आनन्द या रस लेना।
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स्वादनीय  : वि० [सं०] १. जिसका स्वाद लिया जाने को हो या लिया या सकता हो। २. स्वादिष्ट।
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स्वादित  : भू० कृ० [सं०] जिसका स्वाद लिया जा सकता हो। चखा हुआ। ३. स्वादिष्ट। ३. जो प्रसन्न हो गया हो।
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स्वादित्व  : पुं० [सं०] स्वाद का भाव। स्वादु।
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स्वादिमा (मन्)  : स्त्री० [सं०] १. सुस्वादुता। २. माधुर्य।
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स्वादिष्ट, स्वादिष्ठ  : वि० [सं० स्वादिष्ठ] जिसका जायका या स्वाद बहुत अच्छा हो। जो खाने में बहुत अच्छा जान पड़े।
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स्वादी (दिन्)  : वि० [सं०] १. स्वाद चखनेवाला। २. आनन्द के लिए रस लेने वाला। रसिक। वि०=स्वादिष्ट (पश्चिम)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वादीला  : वि० [सं० स्वाद+ईला (प्रत्य०)] स्वाद-युक्त। स्वादिष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वादु  : पुं० [सं०] १. मधुर रस। मीठा रस। २. मधुरता। मिठास। ३. गुड़। ४. महुआ। ५. कमला नींबू। ६. चिरौंजी। ७. बेर। ८. जीवक नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ९. अगर की लकड़ी। अगरु। १॰. काँस नामक तृण। ११. दूध। १२. सेंधा नमक। सैंधव लवण। वि० १. मधुर मीठा। २. स्वादिष्ठ। ३. सुन्दर। स्त्री० द्राक्षा। दाख।
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स्वादु-फल  : पुं० [सं०] १. बेर। बदरी फल। २. धामिन वृक्ष। धन्व। वृक्ष।
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स्वादु-फला  : स्त्री० [सं०] १. बेर। बदरी। वृक्ष। २. खजूर। ३. दाख। ४. शतावर। ५. अमड़ा।
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स्वादुकंद  : पुं० [सं०] १. सफेद पिंडालू। २. कोबी। केऊँआ। केमुक।
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स्वादुकर  : पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति (महाभारत)।
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स्वादुगंधा  : स्त्री० [सं०] लाल सहिजन। रक्त शोभांजन।
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स्वादुता  : स्त्री० [सं०] १. स्वादु का गुण, धर्म या भाव। २. मधुरता।
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स्वादुलुंगी  : स्त्री० [सं०] मीठा नींबू।
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स्वादेशिक  : वि० [सं०] स्वदेशी।
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स्वाद्य  : वि० [सं०] जिसका स्वाद लिया जा सके या लिया जाने को हो। चखे जाने के योग्य।
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स्वाद्वम्ल  : पुं० [सं०] १. नारंगी का पेड़। नागरंग वृक्ष। २. कदंब वृक्ष।
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स्वाधाप्रिय  : पुं० [सं०] अग्नि।
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स्वाधाभुक्  : पुं० [सं०स्वधाभुज्] १. पितर। २. देवता।
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स्वाधाभोजी (जिन्)  : पुं० [सं०] पितृगण। पितर।
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स्वाधिकार  : पुं० [सं० स्व+अधिकार] १. किसी व्यक्ति या समाज की दृष्टि से उसका अपना अधिकार। २. स्वाधीनता। स्वतन्त्रता।
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स्वाधिपत्य  : पुं० [सं० स्व+आधिपत्य] किसी दूसरे के अधीन न होकर परम स्वतन्त्र रहने की अवस्था या भाव।
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स्वाधिष्ठान  : पुं० [सं० स्व+अधिष्ठान्] हठयोग के अनुसार शरीर के आठ चक्रों में से दूसरा, जिसका स्थान शिशन का मूल या पेड़ू है। यह मूलाधार और मणिपुर के बीच छः दलों के और सिंदूर वर्ण का माना गया है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार इसी केन्द्र की ग्रंथियों से यौवन और शरीर में प्रजनन-शक्ति उत्पन्न और विकसित होती है (हाइपोगैस्टिक प्लेक्सस)।
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स्वाधीन  : वि० [सं०] [भाव० स्वाधीनता] १. जो अपने अधीन हो। जैसे–स्वाधीन पतिका, अर्थात् वह नायिका जिसका पति उसके वश में हो। २. जो प्रत्येक दृष्टि से आत्म-निर्भर हो। जो किसी के अधीन अर्थात् पराधीन न हो। जैसे–स्वाधीन राष्ट्र। ३. अपनी इच्छा के अनुसार काम करने में स्वतन्त्र। निरंकुश। वि०=अधीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाधीन-पतिका  : स्त्री० [सं०] साहित्य में वह नायिका, जिसका पति उसके वश में हो। विशेष–इसके मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा और परकीया ये चार भेद हैं।
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स्वाधीन-भर्तृकी  : स्त्री०=स्वाधीन-पतिका।
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स्वाधीनता  : स्त्री० [सं०] १. स्वाधीनता होने की अवस्था, धर्म या भाव। ‘पराधीनता’ का विपर्याय। आजादी। २. ऐसी स्थिति, जिसमें व्यक्तिय़ों राष्ट्रों आदि को बाहरी नियंत्रण, दबाव, आदि प्रभाव से मुक्त होकर अपनी इच्छा से सब काम करने का अधिकार प्राप्त होता है और वे किसी बात के लिए दूसरों के मुखोपेक्षी नहीं होते। सब प्रकार से आत्म-निर्भर होने की अवस्था या भाव (इन्डिपेंडेंस)। विशेष–स्वाधीनता, स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता में मुख्य अन्तर यह है कि स्वाधीनता का प्रयोग राजनीतिक और वैधानिक क्षेत्रों में यह सूचित करने के लिए होता है कि अपने सब कामों की व्यवस्था या संचालन करने का किसी को पूरा अधिकार है। स्वतन्त्रता मुख्यतः लौकिक और सामाजिक क्षेत्रों का शब्द है और इसमें परकीय तन्त्र या शासन से मुक्त या रहित होने का भाव प्रधान है। स्वच्छन्दता मुख्यतः आचारिक और व्यवहारिक क्षेत्रों का शब्द है और इसमें शिष्ठ सम्मत नियमों और विधि-विधानों के बंधनों से रहित होने का प्रभाव प्रधान है।
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स्वाधीनी  : स्त्री०=स्वाधीनता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाध्याय  : पुं० [सं०] १. वेदों की निरंतर और नियमपूर्वक आवृत्ति या अभ्यास करना। वेदाध्ययन। धर्म-ग्रंथों का नियम-पूर्वक अनुशीलन करना। २. किसी गंभीर विषय या अच्छी तरह किया जानेवाला अध्ययन या अनुशीलन। ३. वेद।
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स्वाध्यायी (यिन्)  : वि० [सं०] स्वाध्याय करनेवाला।
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स्वान  : पुं० [सं०] शब्द। आवाज। पुं०=श्वान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाना  : सं०=सुलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वानुभव  : पुं० [सं०] ऐसा अनुभव जो अपने को हुआ हो।
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स्वानुभूति  : स्त्री० [सं०] १. ऐसी अनुभूति जो अपने को हुई हो। २. धार्मिक क्षेत्र में, परब्रह्म के तत्त्व का परिज्ञान।
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स्वानुरूप  : वि० [सं०] [भाव० स्वानुरूपता] १. अपने अनुरूप। २. योग्य। ३. सहज।
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स्वाप  : पुं० [सं०] १. नींद। निद्रा। २. स्वप्न। ३. अज्ञान। ४. निष्पंदता।
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स्वापक  : वि० [सं०] नींद लानेवाला। निद्राकाराक।
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स्वापद  : पुं०=श्वापद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=स्वापक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वापन  : पुं० [सं०] १. सुलाना। २. प्राचीन काल का एक अस्त्र, जिससे शत्रु निद्रित किये जाते थे। ३. ऐसी दवा, जिसे खाने से नींद आ जाती हो। वि० नींद लाने या सुलानेवाला। निद्राकारक।
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स्वापराध  : पुं० [सं०] अपने प्रति किया जानेवाला अपराध।
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स्वापी (पिन्)  : वि० [सं०] स्वापक।
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स्वाप्तिक  : वि० [सं०] १. स्वप्न में होने या उससे संबंध रखनेवाला। २. स्वप्न के कारण या फलस्वरूप होनेवाला।
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स्वाप्न  : वि० [सं०] स्वप्न संबंधी। स्वप्न का।
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स्वाप्निल  : वि० [सं०] स्वप्न के रूप में होनेवाला। २. स्वप्न के समान जान पड़नेवाला। ३. सोया हुआ। सुस्त।
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स्वाब  : पुं० [अं.] कपड़े या सन की बुहारी या झाड़ू जिससे जहाज के डेक आदि साफ किये जाते हैं (लश०)।
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स्वाभाव  : पुं० [सं०] स्व का अभाव।
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स्वाभाविक  : वि० [सं०] १. जो स्वभाव से उत्पन्न हुआ हो। जो आप ही हुआ हो। प्राकृतिक। (नैचुरल)। २. जो या जैसा प्रकृति के या स्वाभाव के अनुसार साधारणतः हुआ करता हो। जैसे–तुम्हें उनकी बात पर क्रोध आना स्वाभाविक था।
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स्वाभाविकी  : वि० [सं०]=स्वाभाविक।
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स्वाभाव्य  : वि० [सं०] स्वयं उत्पन्न होनेवाला। आप ही आप होनेवाला। स्वयंभू।
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स्वाभिमान  : पुं० [सं०] १. अपनी जाति, राष्ट्र, धर्म आदि का सद् अभिमान। अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का अभिमान। आत्म-गौरव। (सेल्फ़-रेस्पेक्ट)
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स्वाभिमानी (निन्)  : वि० [सं०] जिसमें स्वाभिमान हो। स्वाभिमानवाला।
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स्वामि कार्तिक  : पुं० [सं०] १. कार्तिकेय। स्कंद। उदा०–धरे चाप इखु हाथ स्वामि कार्तिक बल सोहत।–गोपाल। २. छः आघात और दस मात्राओं का ताल जिसका बोल इस प्रकार है–धा धिं धो गे ना ग तिं न तिराकेट तिंना तिंना तिंना केत्ता धिंना।
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स्वामि-भृत्य न्याय  : पुं० [सं०] नौकर के काम से जब मालिक खुश होता है, तो नौकर भी निहाल हो जाता है; अतएव दूसरों का काम सिद्ध हो जाने पर यदि अपना भी कार्य सिद्ध हो जाय तो या प्रसन्नता हो तो यह न्याय प्रयुक्त होता है।
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स्वामिकता  : स्त्री०=स्वामित्व।
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स्वामित्व  : पुं० [सं०] १. वह अवस्था जिसमें कोई किसी वस्तु का स्वामी या मालिक होता है। मालिक होने का भाव। मालिकी। (ओनरशिप) २. प्रभुता। प्रभुत्व।
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स्वामित्व चिह्न  : पुं० [सं०] वह चिह्न जो यह सूचित करता हो कि अमुक वस्तु अमुक आदमी की है। (प्रापर्टी मार्क)
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स्वामिन  : स्त्री०=स्वामिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वामिनी  : स्त्री० [सं०] १. ‘स्वामी’ का स्त्री०। २. वल्लभ संप्रदाय में राधिकाजी की एक संज्ञा।
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स्वामिस्व  : पुं० [सं०] १. वह धन जो किसी वस्तु के स्वामी को आधिरूप से मिलता हो या मिलने को हो। २. दे० ‘स्वत्व-शुल्क’।
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स्वामिहीन-भूमि  : स्त्री० [सं०] वह भूमि, जिसका कोई अधिकारी, शासक या स्वामी न हो; जैसी कभी-कभी दो राज्यों की सीमाओं पर हुआ करती है (नौ मैन्स लैण्ड)।
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स्वामिहीनत्व  : पुं० [सं०] किसी वस्तु के सम्बन्ध की वह स्थिति, जिसमें उसका कोई स्वामी न मिल रहा हो। चीज के लावारिस होने की अवस्था या भाव। ला-वारिसी (बोना वैकेशिया)।
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स्वामी  : पुं० [सं० स्वामिन्] [स्त्री० स्वामिनी, भाव० स्वामित्व] १. वह जिसे किसी वस्तु पर पूरे और सब प्रकार के अधिकार प्राप्त हों। धनी। मालिक। (ओनर, प्रोपाइटर) २. घर का प्रधान व्यक्ति। ३. पति। शौहर। ४. साधु, संन्यासी आदि का संबोधन। ५. ईश्वर। ६. राजा। ७. सेनापति। ८. शिव। ९. विष्णु। १॰. स्वामीकार्तिक। ११. गरुड़। १२. गत उत्सर्पिणी के ११ वें अर्हत् का नाम।
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स्वाम्नाय  : वि० [सं०] जो परंपरा से चला आ रहा हो। परंपरागत।
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स्वाम्य  : पुं० [सं०] स्वामी होने की अवस्था, गुण या भाव (ओनरशिप)।
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स्वायत शासन  : पुं० [सं०] [वि० स्वायत्तशासी] १. राजनीति या शासन की दृष्टि से स्थानिक क्षेत्रों में अपने सब काम आप करने की स्वतन्त्रता (ऑटोनोमी) २. दे० ‘स्थानिक-स्वशासन’।
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स्वायत्त  : वि० [सं०] [भाव० स्वायत्तता] १. जिस पर अपना अधिकार हो। २. जिसे स्थानीय स्वाशासन का अधिकार या शक्ति प्राप्त हो (ऑटॉनोमस)।
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स्वायत्त-शासी  : वि० [सं०] (देश) जिसे शासन स्वयं ही करने का अधिकार प्राप्त हो (ऑटॉनोमस)।
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स्वायत्तता  : स्त्री० [सं०] अपनी सरकार बनाने का अधिकार। स्थानीय स्वशासन का अधिकार (ऑटोनोमी)।
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स्वायंभुव  : पुं० [सं०] पुराणानुसार चौदह मनुओं में से पहला मनु, जो स्वयंभू ब्रह्मा से उत्पन्न माने गये हैं।
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स्वायंभुवी  : स्त्री० [सं०] ब्राह्मी (बूटी)।
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स्वायंभू  : पुं०=स्वायंभुव।
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स्वार  : पुं० [सं०] १. घोड़े के घर्राटे का शब्द। २. बादल की गरज। मेघ-ध्वनि। वि० स्वर-सम्बन्धी। स्वर का। पुं०=सवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वारक्ष्य  : वि० [सं०] जिसकी सहज में रक्षा की जा सकती हो।
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स्वारथ  : वि० [सं० सार्थ] सफल। सिद्ध। फलीभूत। सार्थक। जैसे–चलिए, आपका परिश्रम स्वारथ हो गया। पुं०=स्वार्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वारथी  : वि०=स्वार्थी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वारसिक  : वि० [सं०] १. (काव्य) जो सुरस युक्त हो। २. (काम या बात) जिसमें अच्छा रस मिलता हो। ३. प्राकृतिक। स्वाभाविक।
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स्वारस्य  : पुं० [सं०] १. सरसता। रसीलापन। २. आनन्द। मजा। ३. स्वाभाविकता।
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स्वाराज्य  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग का राज्य या लोक। स्वर्ग। २. स्वाधीन राज्य।
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स्वाराट्  : पुं० [सं० स्वाराज्य] स्वर्ग के राजा, इन्द्र।
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स्वारी  : स्त्री०=सवारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वारोचिष  : पुं० [सं०] मनु जो स्वरोचिष के पुत्र थे। विशेष दे० ‘मनु’।
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स्वार्जित  : वि० [सं०] अपना अर्जित किया या कमाया हुआ (सेल्फ़-एक्वायर्ड)।
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स्वार्थ  : पुं० [सं०] [वि० स्वार्थिक, कर्ता स्वार्थी, भाव० स्वार्थता] १. अपना अर्थ या उद्देश्य। अपना मतलब। २. अपना हित साधने की उग्र भावना। ३. ऐसी बात, जिसमें स्वयं अपना लाभ या हित हो। मुहा०–(किसी बात में) स्वार्थ लेना=किसी होनेवाले काम में अनुराग रखना (आधुनिक, पर भद्दा प्रयोग)। ४. विधिक क्षेत्रों में, किसी वस्तु या संपत्ति के साथ होनेवाला किसी व्यक्ति का वह संबंध जिसके अनुसार उसे उस वस्तु या संपत्ति पर अथवा उससे होनेवाले लाभ आदि पर स्वामित्व अथवा इसी प्रकार का और कोई अधिकार प्रापत रहता है (इन्टरेस्ट)। वि०=स्वारथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वार्थ-त्याग  : पुं० [सं०] (दूसरे के हित के लिए कर्तव्य बुद्धि से) अपने स्वार्थ या हित को निछावर करना। किसी भले काम के लिए अपने हित या लाभ का विचार छोड़ना।
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स्वार्थ-त्यागी (गिन्)  : वि० [सं० स्वार्थत्यागिन्] जो (दूसरों के हित के लिए कर्तव्य-बुद्धि से) अपने स्वार्थ या हित को निछावर कर दे। दूसरे के भले के लिए अपने हित या लाभ का विचार न रखेनावाला। स्वार्थ त्याग करनेवाला।
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स्वार्थ-पंडित  : वि० [सं०] बहुत बड़ा स्वार्थी या खुदगरज। परम स्वार्थी।
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स्वार्थ-परता  : स्त्री० [सं०] स्वार्थपर होने की अवस्था या भाव। खुदगरजी।
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स्वार्थ-परायण  : वि० [सं०] [भाव० स्वार्थ-परायणता] १. जो अपने स्वार्थो की सिद्धि में रत रहता हो। २. अन्य कर्मों या बातो की अपेक्षा अपने स्वार्थ को अधिक महत्त्व देनेवाला।
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स्वार्थ-परायणता  : स्त्री० [सं०] स्वार्थ-परायण होने की अवस्था, गुण या भाव। स्वार्थपरता। खुदगरजी।
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स्वार्थ-साधक  : वि० [सं०] अपना मतलब साधनेवाला। अपना काम निकलानेवाला। खुदगरज। स्वार्थी।
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स्वार्थ-साधन  : पुं० [सं०] अपना प्रयोजन सिद्ध करना। अपना काम या मतलब निकालना।
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स्वार्थता  : स्त्री० [सं०] स्वार्थ का धर्म या भाव। स्वार्थपरता। खुदगरजी।
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स्वार्थपर  : वि० [सं०] दो केवल अपना स्वार्थ या मतलब देखता हो। अपना स्वार्थ या मतलब साधनेवाला। स्वार्थी। खुदगरज।
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स्वार्थांध  : वि० [सं०] [भाव० स्वार्थांधता] १. जो अपने स्वार्थ के फेर में पड़कर अंधा हो रहा हो और भले-बुरे का ध्यान न रखता हो।
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स्वार्थिक  : वि० [सं०] १. स्वार्थ से संबंध रखनेवाला। २. जिससे अपना अर्थ या काम निकले। २. लाभदायक। (प्रॉफिटेबुल) ४. वाच्यार्थ से युक्त। (कथा या वाक्य)। ५. अपने अर्थ या धन से किया या लिया हुआ (कार्य या पदार्थ)।
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स्वार्थी (थिन्)  : वि० [सं०] १. मात्र अपने स्वार्थों की सिद्धि चाहनेवाला। २. जिसमें परमार्थ-भावना न हो। खुदगरज।
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स्वाल  : पुं०=सवाल।
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स्वाल्प  : पुं० [सं०] स्वल्प होने की अवस्था या भाव। स्वल्पता। वि०=स्वल्प।
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स्वावलंबन  : पुं० [सं०] अपनी समर्थता से आत्म-निर्भर होने की अवस्था, गुण या भाव।
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स्वावलंबी (बिन्)  : वि० [सं०] १. जिसमें स्वावलंबन की भावना हो। २. जिसनें अपनी समर्थता से आत्म-निर्भरता अर्जित की हो।
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स्वाश्रित  : वि० [सं०]=स्वावलंबी।
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स्वाँस  : पुं०=साँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वास  : पुं०=श्वास (साँस)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाँसा  : पुं० [देश०] वह सोना जिसमें ताँबे का खोट हो। ताँबे के खोटवाला सोना। पुं०=साँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वासा  : स्त्री० [सं०] श्वास। साँस। श्वास।
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स्वास्थिकी  : स्त्री०=स्वास्थ्य-विज्ञान।
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स्वास्थ्य  : पुं० [सं०] १. स्वस्थ अर्थात् नीरोग होने की अवस्था, गुण या भाव। नीरोगता। तन्दुरुस्ती।। जैसे–उनका स्वास्थ्य आज-कल अच्छा नहीं है। २. मन की वह अवस्था, जिसमें उसे कोई उद्वेग, कष्ट या चिन्ता न हो। (हेल्थ)
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स्वास्थ्य-निवास  : पुं० [सं०] विशेष रूप से निश्चित या निर्मित वह स्थान, जहाँ जाकर लोग स्वास्थ्य-सिधार के लिए रहते हैं। आरोग्य-नवास (सैनेटोरियम)
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स्वास्थ्य-रक्षा  : स्त्री० [सं०] ऐसी स्वच्छतापूर्ण आचरण और व्यवहार जिससे स्वास्थ्य अच्छा बना रहे, बिगड़ने न पाये (सैनिटेशन)।
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स्वास्थ्य-विज्ञान  : पुं० [सं०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें शरीर को नीरोग और स्वस्थ बनाये रखने के नियमों और सिद्धांतों का विवेचन हो। (हाईजीन)
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स्वास्थ्यकर  : वि० [सं०] जिससे स्वास्थ्य अच्छा बना रहे। तंदुरुस्त करनेवाला। आरोग्य-वर्द्धक। जैसे–देवघर स्वास्थकर स्थान है।
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स्वाहा  : अव्य० [सं०] एक शब्द जिसका प्रयोग देवताओं को हवि देने के समय मंत्रों के अन्त में किया जाता है। जैसे–इंद्राय स्वाहा। वि० १. जो जलाकर नष्ट कर दिया गया हो। २. जिसका पूरी तरह से अन्त या नाश कर दिया गया हो। पूर्णतः विनष्ट। जैसे–कुछ ही दिनों में उसने लाखों रुपयों की सम्पत्ति स्वाहा कर दी। स्त्री० अग्नि की पत्नी।
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स्वाहा-ग्रसण  : पुं० [सं० स्वाहा+ग्रसन्] देवता (डिं०)
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स्वाहा-प्रिय  : पुं० [सं०] अग्नि।
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स्वाहापति  : पुं० [सं०] स्वाहा के पति, अग्नि देवता।
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स्वाहाभुक्  : पुं० [सं० स्वाहाभुज्] देवता।
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स्वाहार  : पुं० [सं०] अच्छा आहार या भोजन।
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स्वाहार्ह  : वि० [सं०] १. स्वाहा के योग्य। हवि पाने के योग्य। २. जो स्वाहा किया अर्थात् पूरी तरह से जलाया या नष्ट किया जा सके या किया जाने को हो।
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स्वाहाशन  : पुं० [सं०] देवता।
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स्विदित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे स्वेद या पसीना निकला हो। २. जिसका स्वेद या पसीना निकाला गया हो। ३. पिघला या पिघलाया हुआ।
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स्विन्न  : वि० [सं०] १. स्वीकार या अंगीकार या अंगीकार करना। २. उबला, पका या सीझा हुआ।
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स्वीकरण  : पुं० [सं०] १. स्वीकार या अंगीकार करना। अपनाना। २. कबूल करना। मानना। ३. स्त्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करना।
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स्वीकरणीय  : वि० [सं०] स्वीकृत किये या माने जाने के योग्य।
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स्वीकर्त्तव्य  : वि० [सं०]=स्वीकरणीय।
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स्वीकर्त्ता (तृ)  : वि० [सं०] स्वीकार करनेवाला। मंजूर करनेवाला।
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स्वीकार  : पुं० [सं०] १. अपना बनाने या अपनाने की क्रिया या भाव। अंगीकार। २. ग्रहण करना। लेना। परिग्रह। ३. कोई बात मान लेना। कबूल या मंजूर करना। ४. किसी बात की प्रतिज्ञा करना या वचन देना।
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स्वीकारना  : स० [सं० स्वीकार] १. स्वीकार करना। मानना। २. ग्रहण करना। लेना। ३. अपनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वीकारात्मक  : वि० [सं०] (कथन) जिससे कोई बात स्वीकृत की गई या मानी गई हो। (अफ़र्मेटिव)
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स्वीकारोक्ति  : स्त्री० [सं०] वह कथन या बयान, जिसमें अपना अपराध स्वीकृत किया जाय। दोष, अपराध, पाप आदि की स्वीकृति। अपने मुँह से कहकर यह मान लेना कि हमने अमुक अनुचित या बुरा काम किया है। (कन्फ़ेशन)
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स्वीकार्य  : वि० [सं०] जो स्वीकृत किया या माना जा सके। माने जाने के योग्य।
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स्वीकृच्छ्र  : पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का व्रत, जिसमें तीन-तीन दिन तक क्रमशः गोमूत्र, गोवर तथा जौ की लप्सी खाकर रहते थे।
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स्वीकृत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० स्वीकृति] १. जिसे स्वीकार कर लिया गया हो। जिसके संबंध में स्वीकृति दी जा चुकी हो (सै कैशन्ड)। २. ग्रहण किया या माना हुआ। प्रतिपन्न। मंजूर। (ऐक्सेप्टेड) ३. जिसे आविकारिक रूप से मान्यता मिली हो। मान्य। मान्यताप्राप्त। (रिकग्नाइज़्म)
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स्वीकृति  : स्त्री० [सं०] १. स्वीकार करने की क्रिया या भाव। सम्मति। उदा०–(क) राष्ट्रपति ने उस बिल पर अपनी स्वीकृति दे दी है। (ख) उनकी स्वीकृति से यह नियुक्ति हुई है। २. प्रस्ताव, शर्ते आदि मान लेने या उपहार, देन आदि ग्रहण करने की क्रिया या भाव। (ऐक्सेप्टेन्स) ३. बड़ों, अधिकारियों आदि के द्वारा छोटों की प्रार्थना आदि मान लेने की क्रिया या भाव। मंजूरी। (सैन्कशन) क्रि० प्र०–देना।–माँगना।–मिलना।–लेना।
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स्वीय  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वीया] स्वकीय। अपना। पुं० स्वजन। आत्मीय। संबंधी। नाते-रिश्तेदार।
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स्वीया  : स्त्री० [सं०] स्वकीया।
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स्वे  : वि०=स्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वेच्छया  : अव्य० [सं०] अपनी इच्छा से और बिना किसी दबाव के। स्वेच्छापूर्वक। (वालन्टरिली) जैसे–स्वेच्छया किया हुआ काम।
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स्वेच्छा  : स्त्री० [सं०] अपनी इच्छा। अपनी मर्जी। जैसे–वे सब काम स्वेच्छा से करते हैं।
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स्वेच्छा-मृत्यु  : वि० [सं०] १. अपनी इच्छा से आप मरनेवाला। २. जिसने मृत्यु को इस प्रकार वश में कर रखा हो कि अपनी इच्छा से ही मरे, इच्छा न हो तो न मरे। पुं० भीष्म पितामह, जिन्हें उक्त प्रकार का मनोबल या शक्ति प्राप्त थी।
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स्वेच्छा-सेवक  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वेच्छा-सेविका] दे० ‘स्वयंसेवक’।
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स्वेच्छाचार  : पुं० [सं०] भले-बुरे का ध्यान रखे बिना मन-माना या आचरण करना। जो जी में आये, वहीं करना। यथेच्छाचार।
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स्वेच्छाचारिचा  : स्त्री० [सं०] स्वेच्छाचार का भाव या धर्म।
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स्वेच्छाचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वेच्छाचारिणी] स्वेच्छाचार अर्थात् मन-माना काम करनेवाला। निरंकुश। अबाध्य। जैसे–वहाँ के राज-कर्मचारी बहुत स्वेच्छाचारी हैं।
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स्वेच्छित  : भू० कृ० [सं०] जो किसी की अपनी अच्छा के अनुकूल या अनुरूप हो। मन-चाहा।
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स्वेटर  : पुं० [अं०] बनियाइन या गंजी आदि की तरह का एक प्रकार का ऊनी पहनावा, जो कमीज के ऊपर तथा कोट आदि के नीचे पहना जाता है।
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स्वेत  : वि०=श्वेत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वेत-रंगी  : स्त्री० [सं० श्वेत+हिं० रंगी] कीर्ति। यश। (डिं०)
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स्वेद  : पुं० [सं०] १. पसीना। २. साहित्य में, रोष, लज्जा, हर्ष, श्रम आदि से शरीर का पसीने से भर जाना, जो एक सात्विक अनुभाव माना गया है। ३. भाप। वाष्प। ४. वह प्रक्रिया, जिससे कोई वस्तु भाप आदि की सहायता से आर्द्र या तर की जाती हो। (बाथ) जैसे–उष्मा-स्वेद। (देखें) ५. गरमी। ताप।
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स्वेद जल  : पुं० [सं०] पसीना। प्रस्वेद।
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स्वेदक  : वि० [सं०] पसीना लानेवाला। प्रस्वेदक। पुं० १. कांतिसार लोहा। २. दे० ‘प्रस्वेदक’।
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स्वेदकारी  : वि० [सं०]=स्वेदक।
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स्वेदज  : वि० [सं०] १. पसीने से उत्पन्न होनेवाला। २. गर्म भाप या उष्ण वाष्प से उत्पन्न होनेवाला। (जूँ, लीक, खटमल, मच्छर आदि कीड़े-मकोड़े)।
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स्वेदन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वेदित] १. पसीना निकलना। २. पसीना निकालना या लाना। ३. ओषधियाँ शोधने का एक यंत्र। (वैद्यक)
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स्वेदनत्व  : पुं० [सं०] स्वेदन का गुण, धर्म या भाव।
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स्वेदनिका  : स्त्री० [सं०] १. तवा। २. रसोई-घर। ३. अरक, शराब आदि चुआने का भभका।
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स्वेदांबु  : पुं० [सं०]=स्वेद जल (पसीना)।
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स्वेदायन  : पुं० [सं०] रोग-तूप। लोम-छिद्र।
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स्वेदित  : भू० कृ० [सं०] १. स्वेद या पसीने से युक्त। २. जिसे किसी प्रकार की भाप सा बफारा दिया गया हो।
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स्वेदी (दिन्)  : वि० [सं०] पसीना लानेवाला। प्रस्वेदक।
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स्वेद्य  : वि० [सं०] जिसे पसीना लाया जा सके या लाया जाने को हो।
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स्वेष्ट  : वि० [सं०] जो अपने आप को इष्ट या प्रिय हो।
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स्वै  : वि० [सं० स्वीया] अपना। निजा का। (डिं०) सर्व०=सो।
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स्वैच्छिक  : वि० [सं०] १. जो किसी की अपनी या निज़ी इच्छा से अनुसार हो। २. किसी की निजी इच्छा से सम्बन्ध रखनेवाला। (वॉलेन्टरी)
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स्वैर  : वि० [सं०] १. अपने इच्छानुसार चलनेवाला। मन-माना काम करनेवाला। यथेच्छाचारी। २. मनमाना। यथेच्छा। ३. धीमा। मन्द।
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स्वैरचार  : पुं० [सं०] मन-माना आचरण। स्वेच्छाचार।
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स्वैरचारिणी  : स्त्री० [सं०] १. मन-माना काम करनेवाली स्त्री। २. व्यभिचारिणी स्त्री।
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स्वैरचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वैरचारिणी] मनमाना काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी। निरंकुश।
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स्वैरचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वैराचारिणी] १. मन-माना काम करनेवाला। २. व्यभिचारी। लंपट।
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स्वैरता  : स्त्री० [सं०] मन-माना आचरण करने की अवस्था या भाव।
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स्वैरवर्ती  : वि० [सं० स्वैरवर्तिन्]=स्वेच्छाचारी।
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स्वैरवृत  : वि० [सं०] स्वेच्छाचारी।
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स्वैराचार  : पुं० [सं०] [वि० स्वैराचारी] ऐसा मनमाना आचरण जो नैतिक, धार्मिक, सामाजिक आदि नियमों या बंधनों की उपेक्षा करके किया जाय।
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स्वैरालाप  : पुं० [सं०] मौज में आकर की जानेवाली इधर-उधर की बात-चीत। गप-शप।
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स्वैरिणी  : स्त्री० [सं०] व्यभिचारिणी स्त्री। पुंश्चली।
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स्वैरिणी  : स्त्री० [सं०] यथेच्छाचारिचा। स्वच्छंदता। स्वाधीनता।
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स्वैरिंध्री  : स्त्री०=सौरिंध्री।
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स्वैरी (रिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वैरिणी] १. वह जो मनमाना आचरण करता हो। २. दुराचारी। बदचलन। ३. व्यभिचारी।
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स्वोतविरोध  : पुं० [सं०स्वतः+विरोध] आप ही अपना विरोध या खंडन करना।
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स्वोदय  : पुं० [सं०] किसी आकार्शाय पिंड का विशेष स्थान पर उदित होना।
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स्वोपार्जित  : वि० [सं०] स्वयं उपार्जन किया हुआ। अपना कमाया हुआ। जैसे–उनकी सारी संपत्ति स्वोपार्जित है।
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स्वोरपार्जन  : पुं० [सं० स्व+उपार्जन] [भू० कृ० स्वोपार्जित] स्वयं या अपने बाहु बल से अपने लिए कुछ अर्जन करना। स्वयं प्राप्त करना या कमाना।
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स्व्पन-गृह  : पुं० [सं०] सोने का कमरा। शयनागार। शयन–गृह।
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