ॐ
।। श्रीपरमात्मने नमः।।
श्रीमद्भगवद्रीता
अथ प्रथमोऽध्यायः
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1।।
धृतराष्ट्र बोले - हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की
इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?।।1।।
इस श्लोक में हम महाभारत की मानव सम्बन्धीय उलझनों और समस्याओं से निकल कर
गीता के अध्यात्म ज्ञान में प्रवेश आरंभ करते हैं। रामायण और महाभारत
संपूर्ण काव्य हैं, परंतु, भगवद्गीता तो महाभारत का ही एक छोटा सा अंश है।
यह तो सर्व विदित है कि महाभारत का गंभीर विषय हमारा अपना जीवन ही है;
अर्थात् मानव जीवन के सभी संभावित, अविवादित और विवादित दोनों प्रकार के
विषयों और उनके मानव जीवन पर पड़ने वाले नाना प्रकार के प्रभावों का गहन
विवेचन्।
महाभारत के पाठक भली भाँति जानते हैं कि धृतराष्ट्र जन्म के समय से ही
अंधे थे। उनका अंधापन न केवल शारीरिक था वरन् वह मानसिक एवं बौद्धिक भी
था। उनके अंधे होने के कारण ही उनके छोटे भाई पाण्डु को हस्तिनापुर का
राजा बनाया गया था। कालांतर में पाण्डु के शापित हो जाने के कारण भीष्म ने
अगली संतति के वयष्क होने तक के समय लिए राज्य संचालन मंत्रियों की सहायता
से किया था। धृतराष्ट्र का मानसिक अंधापन “यह जानते हुए भी कि वे स्वयं
अंधे होने के कारण राजा बनने के लिए सर्वथा अयोग्य थे (राजा बनने के लिए
अन्य गुणों के अतिरिक्त उस काल में लगभग हर राजा को अपने राज्य की रक्षा
के लिए कभी-न-कभी युद्ध करना ही पड़ता था, अंधा व्यक्ति आज के समय में भी
किसी देश का राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री बना हो ऐसा कम ही परिस्थितियों
में होता है), और जब वे ही राजा होने के योग्य नहीं हैं, तो भला उनका
पुत्र कैसे राजा बनने का अधिकारी हो सकता है”, परंतु प्रतीक के रूप में
राजा बन जाने पर और संभवतः अपने प्राररब्ध तथा इस जन्म की अपंगता के कारण
उत्पन्न वासनाओँ के फलस्वरूप उन्हें लालच हो जाता है। चूँकि वे स्वयं तो
राजा बनकर शासन कर नहीं सकते, इसलिए अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु उनकी
बुद्धि दुर्योधन को राजा बनाने की तीव्र अभिलाषी हो जाती है। यह
धृतराष्ट्र का बौद्धिक अंधापन ही है, क्योंकि यह जानते हुए भी कि वे स्वयं
सही मार्ग पर नहीं है, इसलिए राजा बनने के अधिकारी नहीं हैं। यहाँ तक कि
इस इच्छा के वशीभूत होकर वे दुर्योधन की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को
बढ़ावा देते हैं। उसे येन-केन प्रकारेण राज्य हथिया लेने के लिए प्रवृत्त
करते हैं। अब जब उनके 100 पुत्र हैं और उनकी तथा उनके मित्रों की शारीरिक
और राजनीतिक शक्ति बढ़ गई है तब उस शक्ति के सहारे वे युद्ध छेड़ने से भी
नहीं चूकते। परंतु, इस युद्ध में जहाँ उनके समय के सबसे अधिक सक्रिय
राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक ही नहीं, बल्कि सुदूर प्रांतों में भी केवल
अपने बौद्धिक, सैन्य और मानसिक बल पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने वाले
श्रीकृष्ण भी कौरवे के विरोध में पाँडवों का साथ दे रहे हैं, तब भी
धृतराष्ट्र इस आशा से युद्ध करने को तैयार है कि उनके पुत्रों को इस युद्ध
में विजय मिलेगी।
वे धृतराष्ट्र जो कि स्वयं भीष्म की संरक्षता में पले-बढ़े थे, यह भूल
जाते हैं, कि धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए ही भीष्म ने धृतराष्ट्र और
पाण्डु के पिता और चाचा को अशक्त होते हुए भी कुरुकुल की रक्षार्थ मूर्त
रूप देकर राज्य का संचालन किया था। धृतराष्ट्र को इस बात का डर भी नहीं
लगता है, कि कहीं ऐसा न हो कि कुरु राज्य की रक्षा के लिए भीष्म ने अब तक
जो भी कार्य किये हैं, संभवतः अब वे सभी कार्य व्यर्थ लगने लगें, और हो
सकता है कि युद्ध क्षेत्र में वे अपनी इस त्रुटि को सुधारने का प्रयास
करें। ऐसी कई प्रबल संभावनाओं के होते हुए भी उनकी बुद्धि उन्हें यह नहीं
समझा पाती कि उनका निर्णय अनुचित ही नहीं आत्म-घातक भी है!
मन और बुद्धि की यह विस्मयकारी क्रीड़ा वयष्क होते-होते हम सभी अपने जीवन
में कई-कई बार देख चुके होते हैं। मानते हम भी नहीं हैं, बुद्धि सही मार्ग
दिखा भी रही हो तब भी हम अपने मन के आगे हार जाते हैं, और न करने वाले
कितने ही ऐसे कार्य करते भी हैं, और पछताते भी हैं। इसी संशय में आकंठ
डूबे हुए जब धृतराष्ट्र आकुल होते हैं, तो इसी काव्य के रचियता व्यास,
धृतराष्ट के सारथी संजय को, वह दिव्य दृष्टि केवल उतने समय के लिए देते
हैं, जब तक कि युद्ध चलने वाला है। ऐसा क्यों, युद्ध के पश्चात क्यों नही?
इसका एक उत्तर यह भी हो सकता है कि इतना सब देख लेने के बाद संजय स्वयं ही
अन्य कुछ नहीं देखना चाहेंगे।
गीता के इस पहले श्लोक में धृतराष्ट्र संजय से पूछ रहे हैं कि अपने-अपने
कर्मों से प्रेरित होकर युद्ध के लिए प्रवृत्त मेरे और पाण्डु के पुत्रों
ने क्या किया? यहाँ यह प्रश्न उठता है कि इस बारे में धृतराष्ट्र ने अब तक
क्यों नहीं सोचा? अभी तक क्या कर रहे थे? यह लगभग ऐसा ही लगता है जैसे कि
कभी-कभी किंचित कारणों से हम किसी अत्यंत गंभीर और व्यापक प्रभाव वाले
कार्य की योजना बना लेते हैं और वह कार्य आरंभ भी कर देते हैं, परंतु आरंभ
करने के पश्चात् उस चलते हुए कार्य के बीच में हम अचानक उस कार्य के
फलस्वरूप मिलने वाले वांछित-अवांछित परिणामों पर पुनः विचार करना आरंभ कर
देते हैं। जिस प्रकार कोई सज्जन व्यक्ति अपने परिचय के लोगों और मित्रों
आदि के उकसाने पर कोई निन्दनीय कार्य आरंभ तो कर देता है, पर चलते काम के
बीच में ही कभी-कभी पछताने भी लगता है।
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