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गीता प्रेस, गोरखपुर >> प्रेम में विलक्षण एकता

प्रेम में विलक्षण एकता

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1004
आईएसबीएन :00000

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प्रेम एक दिव्य भाव है इस विलक्षण भाव के द्वारा भक्तों ने भगवान को वश में किया है। इन तेरह लेखों के माध्यम से महापुरुष ने संसार से विरति और भगवान् से रति होने के लिए सरल,सुबोध भाषा में उपयुक्त साधन करने की प्रेरणा दी है।

Prem Mein Vilakshan Ekta - A Hindi Book by Jaidayal Goyandaka -प्रेम में विलक्षण एकता - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

प्रेम एक दिव्य भाव है। इस विलक्षण भाव के द्वारा भक्तों ने भगवान को  भी वश में किया है, तभी तो भगवान को कहना पड़ा-
‘अहं भक्त पराधीनः’। वस्तुतः भगवान् को अपने भक्तों का यह निष्काम समर्पण-अनन्य और उत्कट (विशुद्ध) प्रेम ही अत्यन्त प्रिय है। इस प्रेम में भक्त और भगवान की विलक्षण एकता हो जाती है। यह प्रेम  दास्य, सख्य आदि सभी भक्तिपूर्ण भावों से बहुत ऊँचा भाव है। यहां भक्त और भगवान दो प्रतीत होते हुए  भी हो जाते हैं। यही प्रेम की विलक्षण एकता है।

प्रस्तुत पुस्तक में ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका द्वारा भगवत्प्रेमकी प्राप्ति, उसकी विलक्षण महिमा, श्रद्धा और निष्काम भाव की महत्ता एवं आत्म  कल्याण के आवश्यक उपाय और मनुष्य-जीवन को सार्थक सिद्ध करने वाले उपयुक्त और उपयोगी साधनों के विषय में बड़े ही महत्त्वपूर्ण विचार प्रकट किये गये हैं। इसमें दिये हुए तेरह लेखों के माध्यम से इन महापुरुष ने संसार से विरति और भगवान से रति (प्रेम) होने के लिये सरल, सुबोध भाषा में उपयुक्त साधन करने की प्रेरणा दी है। परम श्रदेय श्रीगोयन्दकाजीद्वारा दिये हुए प्रवचनों को यहाँ लेखरूप में प्रकाशित किया जा रहा है। सभी लेख साधकों को भगवान में भाव बढ़ाकर शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं।
आशा है सभी प्रेमी पाठक, जिज्ञासु और श्रद्धालु महानुभाव इसके मनन अनुशीलन द्वारा विशेष लाभ उठायेंगे और अपने परिचित-प्रेमियों को भी इस पुस्तक से लाभ उठाने की सत्प्रेरणा देकर हमें कृतकृत्य करेंगे।

-प्रकाशक  

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