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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

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ऊपर अनेक प्रकारके ऐसे व्यक्तियोंके उदाहरण हैं, जो मनकी दुर्बलतासे नाना रूपोंसे परेशान हैं। उनका मन उनकी इन्द्रियोंका दास बना हुआ है तथा वे उसके बहकावेमें आकर क्षुद्र कार्योंमें प्रवृत्त हो जाते हैं। उनके मनने उन्हें संसारके नाना बन्धनोंमें बाँध रखा है। मनमें जैसा झोंका आता है, वे उधर ही लुढ़क पड़ते हैं। अनेक व्यक्ति यह जानते हैं कि वे बुरी व्याधिमें फँसे हैं; उनके मनका प्रवाह गलत दिशामें है; पर भ्रान्त होकर वे विवश-से उसी ओर प्रवृत्त होते रहते हैं।

उनके मनकी दशा उस सरोवरकी तरह है, जिसमें भयंकर तूफान उठा हो और जल अस्तव्यस्त तरंगोंमें बह रहा हो। उनकी इन्द्रियाँ अनियन्त्रित हैं। ये इन्द्रियाँ संसारके क्षुद्र क्षणिक आनन्दोंकी ओर झपटती है। वे विवेकहीन हो उसी ओर अग्रसर हो जाते हैं।

कुछ अपने दोषोंको ढकनेके लिये दूसरोंके दोषोंका विस्तारसे वर्णन करते हैं। उनकी बुरी-भली पुरानी बातें खोजकर निकालते हैं। ऐसा करके वे अपनेको उनकी अपेक्षा श्रेष्ठ प्रमाणित करना चाहते हैं। पर वास्तवमें होता है, इसका ठीक उलटा। दूसरोंके दोषोंमें रमण करनेसे स्वयं उनके चित्तका मैल बढ़ता है। वे अधिकाधिक नीच, अभागे और पापी होते जाते हैं। मनमें क्षुद्र नीच विकारोंके रहनेसे तदनुकूल विषैला वातावरण छाया रहता है और वे निरुपयोगी कार्योंमें ही लगे रहते हैं। दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि उनका मन निरुपयोगी विषयों और व्यर्थकी थोथी बातोंमें लगा रहता है। मनकी वृत्तियाँ क्षुद्र विषयोंमें लगी रहती हैं। जिधरको ये वृत्तियाँ लगेंगी, उधरको ही शरीर चलेगा; वैसा ही कार्य शरीरकी इन्द्रियाँ करेंगी। अतः यह कहना सत्य ही है, मन ही मनुष्यके बन्धनका कारण होता है। मन जिससे हमें बाँधता है, हमारा शरीर बिना रस्सियोंके उसीसे बँध जाता है।

मनमें जब विकारोंका प्राबल्य हो जाता है, जब हमारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिन्ता, उद्वेग इत्यादि सीमासे बढ़ जाते है, तब संतुलन नष्ट हो जाता है और मनुष्यकी चित्तवत्ति विकृत हो जाती है। साधारणतः वह किसी एक वस्तुका ध्यान करता है; फिर एक दूसरी नयी समस्या आकर अपना जोर दिखाती है, तत्पश्चात् एक तीसरा प्रलोभन आकर सब अस्तव्यस्त कर देता है। किसीके विरोधसे क्रोध उत्पन्न होता है, ईर्ष्या उससे प्रतिशोध लेनेको कहती है; दूसरी ओरसे कड़ा विरोध होनेपर भय और घबराहट बढ़ती है; फिर असफल होनेपर घृणा, उद्वेग, चिन्ता और उदासी अपना मायाजाल बुनती रहती है। ये उस दुर्बल मनकी अवस्थाएँ है, जिसमें विवेक और इच्छाशक्तिकी दृढ़ता नहीं है।

मानसिक संस्थानका नियन्तण ही मनकी दुर्बलतापर विजय प्राप्त करनेका उपाय है। विवेक जितना जाग्रत् होता है मनमें उतनी ही स्थिरता आती है। विवेकके प्रकाशसे इन्द्रियाँ संसारके विषयोंसे दूर हटती है और मनुष्य व्यर्थ चिन्तनसे छूटकर ऊँचा उठता है।

आप जिस बातको उचित समझते हैं, जो आपकी अन्तरात्मा पुकार-पुकारकर कहती है, उसे ही सत्य समझिये। आपकी शुभ वृत्तियाँ शान्त समयमें जिस ओर चलती हैं, उसीको सन्मार्ग समझिये और व्यर्थ चिन्तनसे बचकर उसी ओर चलिये। सन्मार्गपर चलकर ही मनको शान्त रखा जा सकता है। हो सकता है कि प्रारम्भमें मन उधर एकाग्र न हो, पर आत्मा प्रबल तत्त्व है; अतः धीरे-धीरे वह स्वयं उसमें तन्मय होने लगेगा। दुःखका बोझ हलका होगा और हृदयको शान्ति मिलेगी।

आपकी अन्तरात्मा जिस चीजको उचित कहती है, उसीका संकल्प कीजिये। उसी ओर बढ़नेमें आपको आत्म-सामर्थ्य प्राप्त होगी। उसी ओर इन्द्रियोंको लगानेसे शक्तियोंकी वृद्धि होगी।

आपकी एक दुर्बलता संकल्पकी कमजोरी है। आप अपने निर्णयको मजबूतीसे नहीं पकड़ते। यह भलीभांति जान रखिये कि निरन्तर एक स्थानसे दूसरे स्थानपर लुढकनेवाले पत्थरपर काई नहीं जमती। एक विषयसे दूसरेपर फुदकनेवाला मन दुर्बलताकी जड़ है। अपने विचारोंको अपने उद्देश्योंपर एकाग्र करनेका अभ्यास कीजिये।

राग, द्वेष, काम, क्रोध, ईर्ष्या-यें मनकी उत्तेजित अवस्थाएँ हैं। ये मनुष्यके मनकी अस्तव्यस्त अवस्थाओंकी सूचक हैं। इनमें फँसकर मनुष्यका उच्च ज्ञान-विवेक-बुद्धि पंगु हो जाती है। पाप, विकार या दुष्ट विचार सिर ऊँचा करते हैं। इनका जैसे ही आक्रमण हो, किसी रूपमें या किसी भी स्थितिमें हो, तो तुरंत सावधान हो जाइये और सुमतियुक्त आत्माकी ही प्रेरणा ग्रहण कीजिये।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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