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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य


सफाई एक दैवी गुण है। अंग्रेजीमें एक कहावत है जिसका तात्पर्य है क  'सफाईसे रहना देवत्वके समीप रहना है।' जो साफ रहता है, अपने रहन-सहनद्वारा देवत्व प्रकट करता है। सफाईसे सौन्दर्य-वृद्धि होती है और साधारण वस्तु भी अपने आकर्षणरूपमें प्रकट होती है। वस्तुओंका जावन बढ़ जाता है। मशीनोंकी सफाई करने या समय-समयपर कराते रहनेका तात्पर्य उसकी कार्य-शक्तियोंको बढ़ा लेना है।

जब किसी मशीनको ओवर हाल (आमूल नये ढंगसे फिटिंग) किया जाता है तो न केवल सफाई हो जाती है, प्रत्युत सब पुर्जोंको साफ कर नये सिरेसे रखनेके कारण उनमें नयी स्फूर्तिका संचार होता है। जो पुर्जे चूँ-चूँ चर्र-चर्र करते थे, वह थोड़े-से तेलसे सहज स्निग्ध होकर मजेमें चलने लगते हैं। उनकी कार्यशक्ति बढ़ जाती है।

इसी प्रकार मानव-शरीररूपी मशीनका हाल है। हमारे शरीरमें अनेक छोटे-बड़े सूक्ष्म पुर्जे है। हमारा शरीर मस्तिष्क, हृदय, फेफड़े, उदर अनेक ग्रन्थियोंसे मिलकर बना है। इन पुर्जोंमें निरन्तर भोजनको पचाकर रक्त बनानेकी क्रियाके कारण मैल एकत्रित हो जाता है। जीवनमें पैसेके लिये हम शरीरको अधिक घिस डालते हैं। प्रायः नेत्रोंकी ज्योति क्षीण पड़ जाती है, गाल पिचक जाते हैं, दाँत गिर जाते है, पाचन-में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। ये सब रोग शरीरकी अधिक घिसावटके दुष्परिणाम हैं। यदि हम शरीरकी आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकारकी सफाईका ध्यान रखें, तो शरीर-मन-प्राणमे नयी स्फूर्ति, नयी शक्ति और प्रेरणाका संचार हो सकता है।

भारतमें जिस तत्त्वकी बड़ी कमी मिलती है वह सफाई है। सुव्यवस्था और सौन्दर्य इसके पुत्र-पुत्री हैं। लोंगोंके पास मान-प्रतिष्ठा, उत्साह है; पर स्वच्छता और सुव्यवस्थाका बड़ा अभाव है। दूकानें, गलियाँ सार्वजनिक स्थान, भोजन तथा मिठाईके बाजारोंमें पत्तोंके ढेर, जूठन, मैल, मक्सियाँ नालियोंमें भरा हुआ कीचड़, मल-विष्ठा देखकर हमें अपनी गंदी आदतोंपर लज्जा आती है। लोग बड़ी-बड़ी धर्मशालाएँ बनाते हैं, पर उनमें सफाईपर ध्यान नहीं देते.। टट्टियों तथा नालियोंकी सफाईपर व्यय नहीं करते। सार्वजनिक टट्टियोंमें सभ्य व्यक्तिको जाते हुए शर्म आती है। मेहतर अपने कर्त्तव्योंका पालन नहीं करते। अधिकारीवर्ग देख-रेखके मामलेमें शिथिलता दिखलाता है। टट्टी-विष्ठासे सने घिनौने स्वरूप रेलके डिब्बों और रेलके स्टेशनोंपर पायी जानेवाली टट्टियोंमें भी देखे जाते हैं। जितना बड़ा शहर, उसकी गलियोंमें उतना ही अँधेरा, बदबू और गंदगी पाया जाती है। जहाँ मवेशी बाँधे जाते हैं वहाँका तो कहना ही क्या?

सफाई एक सार्वजनिक आदत है। हम भारतीयोंको अपनी सार्वजनिक गंदगीपर लाज आनी चाहिये। जहाँ दूसरे राष्ट्रोंमें सफाईकी ओर विशेष ध्यान दिया जाता है, सरकार पर्याप्त व्यय करती है, म्यूनिस्पैलिटी बहुत ध्यान देती है, प्रत्येक

नागरिक सार्वजनिक सफाईकी ओर ध्यान देता है, वहाँ हमारे यहाँ कोई भी इस ओर ध्यान नहीं देता। नागरिक, विशेषतः ग्रामीण व्यक्ति और नारी-समाज इतने पिछड़े हुए हैं कि जहाँ कहीं जाते हैं सार्वजनिक स्थानोंको गंदा छोड़ जाते हैं। कूड़ा-करकट सड़कोंपर डाला जाता है। केले, आम, संतरे तथा अन्य फलोंके छिलके सड़कोंपर डाले जाते हैं और कितने ही व्यक्ति उनसे फिसलकर घायल होते हैं। सिनेमामें मूंगफलीके ढेर-कें-ढेर छिलके, बीड़ी-सिगरेटके टुकड़े, पानकी पीक यत्र-तत्र फैले हुए मिलते हैं। स्टेशनोंको हर आध घंटे पश्चात् साफ किया जाता है पर वह गंदा होता जाता है। यह हमारी गंदी आदतका सूचक है। हमें अपनी इन आदतोंपर लज्जित होना चाहिये।

शारीरिक स्वच्छताके दो अंग हैं-बाह्य तथा आन्तरिक सफाई। नित्यप्रति मालिश और व्यायामके पश्चात् स्नान करनेसे और खुरदरे तौलियेसे पोंछनेसे शरीर स्वस्थ होता है। प्रायः लोग बार-बार स्नान करनेका क्रम करते हैं, जलमें पड़े रहते हैं, असंख्य गोते लगाते हैं, बाल्टीपर बाल्टी पानी उँडेलते हैं; लेकिन सच्चे अर्थोंमें यह स्नान नहीं है। जबतक शरीरके रोमकूप स्वच्छ नहीं होते और त्वचाका संचित मल दूर नहीं होता, तबतक शरीरकी स्वच्छता नहीं हो सकती। खुरदरे तौलियेको पानीमें भिगोकर त्वचापर रगड़नेसे त्वचा साफ होती है। नाखूनोंको काटना, नासिकाद्वारको स्वच्छ रखना, जिह्वाकी स्वच्छतासे प्रायः उपेक्षित रहते हैं। इनपर बड़ा ध्यान देनेकी आवश्यकता है।

आन्तरिक स्वच्छताका साधन उपवास है। पंद्रह दिन पश्चात् उपवास करनेसे संचित भोजन पच जाता है, मल पदार्थ निकल जाते हैं और पेटकी बीमारियाँ दूर होती हैं। हमारे देशमें उपवासको धर्मके अन्तर्गत इसीलिये रखा गया है कि सब इससे लाभ उठा सकें। यथासाध्य ठंडे जलसे स्नान करें। मूत्र-त्याग और मल-त्यागके पश्चात् इन्द्रियोंको शीतल जलसे धो डालें।

आपका घर वह स्थान है, जिसके वातावरणमें आप पलते, वायु पाते, संसर्गसे प्रभावित होते हैं। प्रतिदिन हमारा १४-१५ घंटेका जीवन घरमें ही व्यतीत होता है। घरकी चारदीवारी, कमरों, फर्नीचर, वस्त्रों तथा विभिन्न स्थानोंपर जो समय हम व्यतीत करते हैं, उनसे हमारी आदतों और स्वास्थ्यका निर्माण होता है। घर जितना ही स्वच्छ और सुव्यवस्थित होगा, उससे उतनी ही स्वच्छ वायु तथा आनन्द प्राप्त हो सकेगा। यदि आप दूकानदार हैं या आफिसमे आठ घंटे व्यतीत करते हैं तो दूकान और आफिसके वातावरागका भी प्रभाव गुप्त रूपसे पड़ता रहता है। मान लीजिये आप तंबाकू, शराब, गाँजा, भाँग, चरस अथवा जूतेकी दूकान करते हैं तो इन वस्तुओंकी बदबू निरन्तर आपके स्वास्थ्यपर प्रभाव डालती रहती है। अतः हमें चाहिये कि हम अपने घर, दूकान या आफिसोंको खिलौनोंकी तरह सदा साफ-स्वच्छ रखें।

स्वच्छ घरमें रहनेवालेकी आत्मा प्रसन्न रहती है। आप स्वच्छ धुले हुए वस्त्र पहनकर देखें, मन कितना खिला रहता है। इसी प्रकार सफेद-पुता हुआ कमरा, स्वच्छ फरनीचर, स्वच्छ वस्त्र, स्नानसे स्वच्छ शरीर आत्माको प्रसन्न करनेवाले हैं।

स्वच्छ रखकर हम अपने घरके सौन्दर्यकी वृद्धि करते हैं और चीजोंके जीवनको बढ़ा लेते हैं। हमें आन्तरिक शान्ति प्राप्त होती है। सफाई प्रकृतिका अंग बन जानेंसे सर्वत्र सौन्दर्यकी सृष्टि करती है।

आफिस, घर और दूकानमें छोटी-बड़ी असंख्य वस्तुएँ होती हैं। इनमें कुछ ऐसी हैं जिनका नित्य प्रयोग होता है, तो कुछ ऐसी होती हैं जो देरसे निकलती और काममें आती हैं। कुशल व्यक्ति अपने घर, दूकान या आफिसकी वस्तुओंकी व्यवस्था इस प्रकार करते हैं कि आवश्यकता पड़ते ही, तुरंत जरूरतकी चीज मिल जाती है। ग्राहक आकर जिस छोटी वस्तुकी माँग करता है, चतुर दूकानदार एक क्षणमें उसे प्रस्तुत कर देता है। घरमें दवाईसे लेकर सुई-डोरा-आलपिनतक एक क्षणमें मिल जानी चाहिये। आफिसकी फाइलका कोई भी कागज तुरंत अफसरके सम्मुख आ जाना चाहिये। पुस्तकालयमें जो पुस्तक माँगी जाय, तुरंत पाठककa प्राप्त हो जानी चाहिये।

अव्यवस्थित दूकानदार, अफसर या परिवारका मुखिया उस व्यक्तिकी तरह है, जो उर्द, मूँग, मसूर, गेहूँ, जौ इत्यादि भिन्न-भिन्न अनाजोंको एक साथ मिश्रित कर लेता है और जरूरतके समय उनको पृथक्-पृथक् करनेमे व्यर्थ समय और शक्तिका क्षय करता है। वह न गेहूँ निकाल सकता है, न उर्द, न मूँग। और यदि निकालता भी है तो उस समय जब उसके हाथसे अवसर निकल जाता है। यदि प्रारम्भसे ही वह व्यवस्थासे इन अनाजोंको अलग-अलग रखता तो क्यों इतना श्रम और समय नष्ट होता!

प्रायः अफसर लोग चिल्लाया करते हैं और क्लर्क फाइलोंको भिन्न-भिन्न पत्रोंको, रेफरेन्सोंको तलाश करते हुए थक जाते हैं। दूकानदार वस्तुओंको गलत स्थानपर रखकर झींकते रहते हैं। घरमें दियासलाई, चाकू, नालादानी, साबुन, तौलिया, रूमाल, हाथका थैला, पेन्सिल, कलम इत्यादि प्रायः अव्यवस्थित होनेसे बड़ा हल्ला मचता रहता है। जो डाक्टर अपने यहाँ विभिन्न दवाइयोंको क्रम-व्यवस्थासे नहीं रखते, वे पछताते रहते हैं। सर्वत्र व्यवस्थाकी आवश्यकता है।

आप चाहे जिस स्थिति, वर्ग या स्तरके व्यक्ति क्यों न हों, क्रम और व्यवस्थाकी आपको सबसे अधिक आवश्यकता है। व्यवस्थासे आपका कार्य सरल होगा, श्रम और समयकी बचत होगी और जल्दी आप काम कर सकेंगे। मनमें किसी प्रकारकी उलझन उपस्थित न होगी। काम करनेकी तबीयत करेगी।

जिस व्यक्तिमें अपनी वस्तुओंको एक निश्चित क्रम और व्यवस्थासे रखनेकी आदत होती है, वह उनको उचित स्थानपर रखकर सौन्दर्यकी सृष्टि करता है। पं० जवाहरलाल नेहरू जब जेलमें थे, तो उनके पास कुछ गिनी-चुनी वस्तुएँ थीं-हजामतका सामान, कंघा, कलम, दावात, कागज इत्यादि। लेकिन वे अपनी आत्मकथामें लिखते है कि 'उन्होंने उन्हींको क्रम और व्यवस्थासे रखकर सौन्दर्य-सृष्टि की और अपनी आत्माको आनन्दित किया था।' आपके पास जो भी वस्तुएँ हों, उन्हींको किसी निश्चित क्रम-व्यवस्थासे रखकर सौन्दर्य और उपयोगितामें वृद्धि कर सकते हैं।

अपने घरके पृथक्-पृथक् कमरोंको लेकर यह निश्चित कीजिये कि आप उस कमरेको किस कार्यके लिये रखना चाहते हैं-बैठक, स्टोर, प्राइवेट कमरा, औरतोंके बैठने-उठनेका कमरा, भोजन करनेका कमरा इत्यादि। प्रत्येक कमरेको उसी कार्यके लिये क्रमवार सुव्यवस्थित कीजिये।

मान लीजिये, बाहरवाले एक कमरेको आप बैठक बनाना चाहते हैं। इसमें एक मेज, कुर्सी, सोफासेट, या फर्श तकिया इत्यादि रखिये, पाँव पोंछनेके लिये पायदान, दीवारोंपर कुछ कलेण्डर और एक-दो अच्छे चित्र, खूँटी और जूता रखनेका स्थान। इस कमरेमें व्यर्थकी चीजें, खूटियोंपर कपड़े या फालतू वस्तुएँ नहीं रहनी चाहिये। मेन्टलपीसपर कलात्मकरूपसे सजे हुए फूलदान और एक-दो फोटो। अधिक सजावट भी असभ्यताकी निशानी है।

आपके स्टोरमें अनाज, दालें, महीनेभरके कुटे हुए मसाले, घी, तेल, गुड़, चीनी एक ओर वस्त्रोंके संदूक तथा अन्य घरकी वस्तुएँ रहनी चाहिये। यदि मकान छोटा हो तो क्रमसे रखी हुई लकड़ियाँ और उपले भी रह सकते हैं। मिट्टीका तेल और लालटेन भी रखी जा सकती है। सोनेके कमरेमें भी वस्तुएँ कम ही रहें; क्योंकि फालतू वस्तुओंसे मच्छर होते हैं। रसोईमें भी भिन्न-भिन्न बर्तन क्रमसे सजे रहें। सीने, काढ़ने, बुनने और कातनेका सब सामान एक स्थानपर सजा रहे। मशीन हो तो स्वच्छ तेल लगी हुई रहे। पुस्तकालय हो तो उसकी सब पुस्तकें विषयवार सजी रहें, जिससे जिस समय आवश्यकता हो निकाली जा सकें। संक्षेपमें, आपके पास जो भी स्थान हो, जो-जो वस्तुएँ हों, वे स्वच्छ-से-स्वच्छ और सबसे आकर्षक रूपमें मौजूद रहे, जिन्हें देखकर आपको भी प्रसन्नता हो और देखनेवाले भी प्रसन्न रहें।

हमारे घरोंमें वस्त्रोंकी जो दुरवस्था है, उसे देखकर क्षोभ होता है। प्रायः स्त्रियाँ महँगे-से-महँगे रेशमी वस्त्र खरीदती हैं, पर उनके साथ अकथनीय अत्याचार होता है। इधर-उधर फेंका जाता है, आले या कोनेमें मैले पड़े रहते हैं, धोबी (बीस-बीस) दिनोंमें धोकर वापिस नहीं लाता। यदि हम वस्त्रोंकी उचित व्यवस्था रखें, मैला होनेपर स्वयं उसे धो लिया करें तो हम आधे वस्त्रोंमें मजेसे काम चला सकते हैं, रुपये बचा सकते हैं और स्वच्छ भी रह सकते हैं। महँगे कपड़े बना लेना आसान है, पर उनकी सेवा करना तथा उनसे अधिकतम लाभ उठाना कुशलता और चतुराईका काम है।

वस्त्रोंके संदूक या आलमारीमें वस्त्रोंको तरीकेसे रखना चाहिये। इससे वस्त्रोंके कोने सिकुड़ने या मुड़ने नहीं पाते और इस्तरी नहीं टूटती। रेशमी साड़ियोंको कागजमें लपेटकर पृथक् रखना चाहिये। फिनायलकी गोलियाँ रखनेसे वस्त्र विशेषतः साड़ियाँ कीड़ोंसे बची रहती हैं।

वस्तुओंकी सँभाल तथा व्यवस्था और भी आवश्यक है। सँभाल रखनेसे मशीनका जीवन कई गुना बढ़ जाता है, जब कि तनिक-सी लापरवाहीसे कीमती चीजें भी जल्दी ही नष्ट हो जाती हैं। लेखकके पास एक फाउन्टेन पेन है। इसका मूल्य तीन रुपयेके लगभग है। अभीतक दस वर्षसे भी ऊपर यह काम कर चुका है। अब भी ठीक हालतमें है। इसी प्रकार घड़ी दस वर्ष, जूता दो वर्ष चलता है। वर्षमें तीन कमीज और चार पाजामोंसे काम चलता है। साइकिलको २६ वर्ष हो

चुके हैं। यदि प्रत्येक वस्तुको उचित देख-रेखसे रखा जाय तो वह कई गुना अधिक काम देती है।

क्या आप जानते हैं कि आपका फाउन्टेन पेन घिसकर नहीं, प्रायः खोकर नष्ट होता है। पेन्सिलें कभी पूरी तरह काममें नहीं आतीं, कोई माँग लेता है अथवा खो जाती है। चाकू और रूमाल भी प्रायः खोते हैं। नालेदानी घरमें अनेक होती हुई भी इधर-उधर रखकर भुला दी जाती हैं। कीमती साड़ियाँ पहनी नहीं जातीं, संदूकोंमें रखी रहती हैं और कीड़ोंका भोजन बनकर नष्ट होती हैं। जिस साड़ीपर सबसे अधिक व्यय होता है, वह उतनी ही कम पहनी जाती है। आभूषणोंपर औरतें प्राण देती है, किंतु वे खोकर नष्ट होते है, इनके कारण चोरियाँ होती हैं, औरतें चुरा ली जाती हैं और अपमानित होती हैं।

यदि आप अपनी थोड़ी-सी वस्तुओंको क्रम-व्यवस्थासे सजाकर रखें तो इन्हींकी सहायतासे आप घरकी शोभामें वृद्धि कर सकते हैं। सौन्दर्यके लिये अधिक वस्तुओंकी आवश्यकता नहीं है। जो थोड़ी-सी चीजें हैं, उन्हींकी सहायतासे आप सौन्दर्यकी उत्पत्ति कर सकते हैं। बस, आपकी दृष्टिमें कलात्मकता अपेक्षित है। कलात्मक दृष्टिसे हर वस्तुका एक नियत स्थान है, जहाँ वह सुन्दरतम लग सकती है। घरकी शोभा इस बातमें है कि आप उस स्थानको खोज निकालें। प्रत्येक वस्तुके लिये एक स्थान निश्चित करें। घरका प्रत्येक सदस्य उस वस्तुको उठाकर उसको नियत स्थानपर ही रखे। आपके कमरेमें एक चित्र हो या कैलेंडर, लेकिन यदि वही स्वच्छ हो, मैलका नाम-निशान न हो, तो वही आकर्षक प्रतीत होता है।

सौन्दर्य व्यवस्थापर निर्भर है। जूते कैसे नगण्य हैं, किंतु यदि आप उन्हींको पौलिश कर सजाकर क्रमानुसार रखें, अपने संदूकोंको स्वच्छकर उनपर स्वच्छ वस्त्र बिछा लिया करें, चारपाइयोंकी चादरोंको गंदा न होने दें, कुर्सियों, मेजों, पुस्तकोंकी धूल झाड़ते रहें तो निश्चय जानिये, घरकी चीजोंमें ही सौन्दर्य प्रस्फुटित होगा और आपको अपने साधारण घरमें ही आनन्द प्राप्त होगा। आत्मा प्रसन्न रहेगी और मनमें यह साहस रहेगा कि आप अच्छे तरीकेसे रहते हैं।

जीवनमें अधिक वस्तुओंकी आवश्यकता नहीं है, बल्कि जो थोड़ी-सी वस्तुएँ हों, उन्हींसे सबसे अधिक, सबसे सुन्दर क्रम-व्यवस्थासे काम लेनेमें आनन्द है। जिनके पास अधिक वस्तुएँ पड़ी रहती है, उनमेंसे आधी ही काममें आती हैं, शेष अनावश्यक, जंग लगी हुई, निष्क्रिय, अव्यवस्थित-बेकार पड़ी रहती हैं। आप अधिक वस्तुओंके संग्रहके मोहमें न पड़ें, वरं अपनी थोड़ी-सी वस्तुओंको सजा-सँभाल कर प्रयोगमें लाये।

सार्वजनिक स्थानोंकी सफाई, सुव्यवस्था एवं सौन्दर्यका उत्तरदायित्व आपपर है। आप एक श्रेष्ठ नागरिक हैं। समाजकी उन्नतिमें आपका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आपकी आदतोंसे समाज बनता-बिगड़ता, समुन्नत-अवनत होता है। अतः आप सार्वजनिक स्थानोंको कार्यमें लेते समय उनकी सफाई और सुव्यवस्थाके सम्बन्धमें बड़े सावधान रहें।

यदि आप धर्मशालामें टिके, तो उसके कमरे या इर्द-गिर्दकी सफाईका ध्यान रखें, कमरेको वैसा ही सुन्दर छोड़कर जायँ, जैसा वह आपको मिला था। पब्लिक-पाखानोंका ठीक इस्तेमाल करें। पेशाबघरोंमें सर्वत्र ध्यान रखें। पब्लिक पार्क, मन्दिर, सार्वजनिक भवनोंको बिगड़ने न दें। रेलके डिब्बे हम सबके काम आते हैं किंतु हम सफरके पश्चात् उन्हें छिलकों, पत्तों, पानी, धूल-मिट्टीसे सना हुआ, जूठनसे परिपूर्ण छोड़कर उठते हैं। यह हमारी गंदी आदतोंका परिचायक, गंदी वृत्तिका द्योतक है। हर सार्वजनिक स्थान सबके बैठने-उठनेके कार्यमें लेनेके लिये बना हुआ है। यदि हममेंसे प्रत्येक उसे अच्छी तरह प्रयोगमें लाये, तो वह अधिक दिन चल सकता है और सबको आकर्षक लग सकता है। सार्वजनिक स्थान हमारे हैं। जैसे हम अपनी वस्तुकी सफाई और सुरक्षाका ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार हमें सार्वजनिक वस्तुओं तथा स्थानोंका ध्यान रखना चाहिये।

जो समर्थ है, अपनी शक्ति या रुपयेका दान दे सकते हैं, उन्हें सार्वजनिक स्थानों पार्कों, पुलों, धर्मशालाओं, पब्लिक स्कूलों, टहलनेके स्थानों, मन्दिरों, स्नानके घाटों, रेलके डिब्बों, टट्टियों, प्लेटफार्मोंकी स्वच्छता और व्यवस्थाका पूर्ण ध्यान रखना चाहिये। अपने रुपयेसे मरम्मत या नयी वस्तुएँ बनवानेमें पीछे नहीं रहना चाहिये। रुपये दान देनेके स्थानपर उनसे मरम्मत या पुताई करा देना श्रेयस्कर है।

अपने देश, समाज तथा शरीरकी सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्यमें हम सबका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दायित्व है। हमें चाहिये कि अपनी जिम्मेदारी अनुभव करें।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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